@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: जनता
जनता लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
जनता लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

बुधवार, 10 जून 2009

उद्यम भी श्रम ही है

उद्यमैनेव सिध्यन्ति कार्याणि, न मनोरथै।
नहि सुप्तस्य सिंहस्य: प्रविशन्ति मुखे मृगा:॥   

हिन्दी के सक्रियतम ब्लागर (चिट्ठा जगत रेंक) श्री ज्ञानदत्त जी पाण्डेय ने उक्त श्लोक अपनी आज की पोस्ट उद्यम और श्रम में उदृत किया है।  इस श्लोक का अर्थ है कि कार्य  मात्र  मनोरथ से नहीं अपितु उद्यम से सिद्ध होते हैं। सोते हुए सिंह के मुख में मृग प्रवेश नहीं करता।  सिंह को अपने लिए आहार जुटाने के लिए किसी पशु को आखेट का उद्यम करना होता है।  क्षुधा होने पर सिंह का शिकार का मनोरथ बनता है। तत्पश्चात उसे पहले शिकार तलाशना होता है। फिर उचित अवसर  देख उस का शिकार करना पड़ता है। बहुधा उसे शिकार का पीछा कर के उसे दबोचना पड़ता है, मारना पड़ता है और फिर उसे खाना पड़ता है।
सिंह की शारीरिक आवश्यकता से मनोरथ उत्पन्न होता है, लेकिन इस मनोरथ की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार के श्रम करने की जो श्रंखला पूरी करनी होती है उसे ही उद्यम कहा गया है।   हम पाते हैं कि श्रम उद्यम का अनिवार्य घटक है।  उस की दो श्रेणियाँ हैं।  पहली शारीरिक और दूसरी मानसिक।  सिंह की शारीरिक अवस्था उस में मनोरथ उत्पन्न करती है, अर्थात शिकार का विचार सिंह की भौतिक परिस्थितियों से उत्पन्न होता है। फिर भौतिक परिस्थितियों में किए गए अनुभव के आधार पर मानसिक श्रम और अपने भौतिक बल के आधार पर शारीरिक श्रम करना पड़ता है।
उक्त उद्धरण संस्कृत भाषा के साहित्य से लिया गया है।  वामन शिवराम आप्टे के संस्कृत हिन्दी शब्दकोष में उद्यम और श्रम से संबंधित शब्दों के अर्थ निम्न प्रकार बताए गए हैं-
उद्यमः  [उद्+यम्+घञ्] = 1.उठाना, उन्नयन 2. सतत् प्रयत्न, चेष्टा, परिश्रम, धैर्य।
उद्यमिन्  [उद्+यम्+णिनि] = परिश्रमी, सतत प्रयत्नशील।
उद्योगः  [उद्+युज्+घञ्] प्रयत्न, = चेष्टा, काम धंधा।
उद्योगिन् [उद्+युज्+घिणुन्] प्रयत्न, = चुस्त, उद्यमी, उद्योगशील।
श्रम् = 1.चेष्ठा करना, उद्योग करना, मेहनत करना, परिश्रम करना,  2.तपश्चर्या करना। 3. श्रांत होना, थकना, परिश्रान्त होना।
श्रमः [श्रम् + घञ्] 1.मेहनत, परिश्रम, चेष्टा, 2.थकावट, थकान, परिश्रांति 3. कष्ट, दुःख, 4. तपस्या, साधना 5. व्यायाम, विशेषतः सैनिक व्यायाम,  6. घोर अध्ययन। 
उक्त सभी शब्दों के अर्थों के अध्ययन से स्पष्ट है कि श्रम उद्यम का अविभाज्य अंग है। उस की उपेक्षा करने से उद्यम संभव नहीं है। मनोरथ की पूर्ति के लिए शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम के संयोग को ही उद्यम कहा गया है।
ज्ञान जी ने उक्त आलेख में जिस तरह से श्रम को पूंजी के साथ वर्णित किया है,  उस का प्रभाव यह है कि श्रम तुच्छ है और श्रमिक को अपने हक की मांग नहीं करनी चाहिए, उसे उचित हक दिलाने वाले कानून नहीं होने चाहिए और उसे अपने साथ होने  वाले अन्याय के प्रति संगठित नहीं होना चाहिए। इस  का यह भी प्रभाव है कि आलेख को पढ़ने वाला व्यक्ति श्रम से कतराने लगे।  श्रम को उचित सम्मान नहीं देने और उसे एक निकृष्ठ मूल्य के रूप में स्थापित किए जाने से ही समाज में अकर्मण्यता की उत्पत्ति होती है।   आज यह मूल्य स्थापित हो गया है कि काम को ईमानदारी से करने वाला गधा है, उस पर लादते जाओ और जो काम न करे उस से  बच कर रहो। ज्ञान जी द्वारा प्रस्तुत उदाहरण केवल एक व्यक्ति के श्रम के बारे में है और एक बली और सशक्त पशु से उठाया गया है।  जहाँ केवल प्रकृति जन्य साधनों से जीवन यापन किया जा रहा है।  इस उदाहरण की तुलना में मनु्ष्य समाज अत्यधिक जटिल है।  मनुष्य ही एक मात्र प्राणी है जो प्रकृति से वस्तुओं को प्राप्त कर उन पर श्रम करते हुए उन का रूप परिवर्तित करता है उस के बाद उन्हें उपभोग में लेता है।
आज कल श्रम को एक श्रेष्ठ मूल्य मानने और उसे स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील रहने के विचार को लगातार निम्न कोटि का प्रदर्शित करने का फैशन चल निकला है जो लगातार श्रमशील  लोगों में हीन भावना उत्पन्न करता है।  का प्रयास  इस में उन लालझंडा धारी लोगों का भी योगदान है जिन्हों ने पथभ्रष्ट हो कर श्रम के मूल्य को समाज में स्थापित करने के नाम पर इस मूल्य के साथ बेईमानी की है।  इसी मूल्य के नाम पर उन्हों ने श्रम जगत के साथ घोर विश्वासघात किया है।  लेकिन इस विश्वासघात से श्रम के एक श्रेष्ट मूल्य होने में कोई बाधा नहीं पड़ती।  किसी के कह देने से हीरा कोयला नहीं हो जाता, आग को शीतल कह देने से उस की जलाने की क्षमता पर कोई असर नहीं पड़ता। 
ज्ञान जी ने कोटा और सवाई माधोपुर के जो उदाहरण दिए हैं वे सही नहीं हैं।  संभवतः उन की जानकारी  इस मामले में वही रही जो उन्हें किसी से सुनने को मिली या जो माध्यमों द्वारा प्रचारित की गई।  इन दोनों  मामलों  के बारे में मेरे व्यक्तिगत अनुभव हैं और जो तथ्य हैं वे खुद उन उद्योगों के मालिकों द्वारा अपनी बैलेंसशीटस् से उद्भूत हैं।  इन मामलों के निपटारे में अदालतों में देरी भी प्रबंधकों द्वारा की गई है। जिस से जितना माल खिसकाया जा सके खिसका लिया जाए। फिर कंपनी बंद, श्रमिक किस से अपनी मजदूरी और लाभ प्राप्त करेंगे।  इन मामलों को अपने ब्लाग के माध्यम से उजागर करने की मेरी इच्छा रही है।  लेकिन समय का अभाव इस में बाधक रहा है। बहुत से दस्तावेज अवश्य मेरे कम्प्यूटर के हार्ड ड्राइव में अंकित हैं जिन्हें प्रस्तुत किया जा सकता है। कभी इस का अवसर हुआ तो अवश्य ही प्रस्तुत करने का प्रयत्न करूंगा।
मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि कभी भी कोई उद्योग किसी यूनियन की हड़ताल के कारण बंद नहीं होता।  लेकिन  उसे प्रत्यक्ष रुप में कारण प्रचारित करने में बहुत धन खर्च किया जाता है। बहुधा वास्तविक कारण कम लाभ के उद्योग से पूंजी निकाल कर अधिक लाभ के उद्योगों में निवेश करना होता है।  सभी उद्योग पुराने होने के कारण जीर्ण हो कर बंद होते हैं, पर अधिकांश पहले कारण से जीर्णावस्था प्राप्त होने के पहले ही उद्योगपतियों द्वारा बंद कर दिए जाते हैं। जब उद्योग को बंद करना होता है तो सब से पहले उद्योगपति विभिन्न  प्रशासनिक खर्चे बता जितनी पूंजी को काला कर अपनी जेब के हवाले कर सकते हैं कर लेते हैं।  जिस से वह उद्योग घाटा दिखाने लगता है।  फिर बैंकों से लिए गए उधार में कटौती चाहते हैं।  पुनर्चालन (रिवाईवल) के नाम पर उधार में छूट प्राप्त कर लेते हैं।  फिर उद्योग को चलाने का नाटक करते हैं।  इस के लिए वे हमेशा किसी ऐसी कंपनी को चुनते हैं जिसे कबाड़ा बेचने का अनुभव हो।  वह धीरे धीरे अपना काम करता है और उद्योग की अधिकांश संपत्ति को ठिकाने लगा देता है।  कंपनी को न चलने योग्य घोषित कर दिया जाता है।  श्रमिकों के बकाया के चुकारे के लिए कुछ शेष छोड़ा ही नहीं जाता।  उद्योगों की भूमि हमेशा उद्योग की कंपनी के पास लीज पर होती है।  सरकार उसे अधिग्रहीत कर लेती है।  उसी समय नेतागण उसे हड़पने के चक्कर में होते हैं।  उद्योग के लिए आरक्षित भूमि सस्ते दामों पर नेता लोग हथिया लेते हैं और उसे बाद में आवासीय और व्यावसायिक भूमि में परिवर्तित कर करोडों का वारा न्यारा कर लेते हैं।  श्रमिकों को कुछ नहीं मिलता।  उन में से अनेक और उन के परिजन आत्महत्या कर लेने को बाध्य होते हैं।  शेष अपनी लड़ाई लड़ने में अक्षम हो कर नए कामों पर चले जाते हैं।  कुल मिला कर काला धन बनाने वाला उद्यमी सरकार, सार्वजनिक बैंकों की पूंजी और श्रमिकों सब को धता बता कर अपनी पूँजी आकार बढा़ता है। यदि यही उद्यम है तो इसे दुनिया से तुरंत मिट जाना चाहिए। 
यह सही है कि हमारा कानून दिखाने का अधिक और प्रायोगिक कम है। इसे वास्तविक परिस्थितियों के अनुकूल बनाया जाना चाहिए।  न्याय व्यवस्था को चाक-चौबंद और तीव्र गति से निर्णय करने वाली होना चाहिए।  लेकिन उस के लिए कितने लोग संघर्ष करते दिखाई देते हैं? श्रम कानून संशोधित किए जाने चाहिए और उन की पालना भी सुनिश्चित की जानी चाहिए।  बीस वर्ष पहले श्रम कानून श्रमिकों के पक्ष में दिखाई देते थे।  उन्हें बदलने के लिए 1987 में एक बिल भी लाया गया था। जिसे स्वयं उद्योगपतियों की पहल पर डिब्बे में बंद कर दिया गया। क्यों कि उस बिल की अपेक्षा श्रम कानूनों को लागू करने वाली मशीनरी को पक्षाघात की अवस्था में पहुँचाना उन्हें अधिक उचित लगता था।  आज श्रम कानूनों की पालना नहीं हो रही है।  न्यायपालिका की सोच उसी तरह बदल दी गई है।  बिना एक भी कानून के बदले समान परिस्थितियों में जजों के निर्णय  श्रमिकों के पक्ष में होने के स्थान पर मालिकों के पक्ष में होने लगे हैं।  जजों की सोच को कंपनियों ने रिटायरमेंट के बाद काम देने का प्रलोभन दे दे कर बदल दिया है।

यह भी सही है कि उद्यम में पूंजी, श्रम और दिमाग सब लगते हैं।  दिमाग का काम भी श्रम ही है  और पूंजी भी संचित श्रम ही है। यदि उद्यमी को श्रम से प्रथक मानें तो भी प्रत्येक उद्यमी के साथ दसियों/ सैंकड़ों श्रमिक भी चाहिए। 
  आधुनिक श्रमजीवी (एक पूर्णकालिक सोफ्टवेयर इंजिनियर)
आमिर कसाब और अफजल गुरू वाला मामला भी न्याय प्रणाली के पक्षाघात का है।  उसे पक्षाघात से निकाला जाना जरूरी है।  यह तो कैसे हो सकेगा कि आप कुछ मामलों में चुन कर शीघ्र न्याय करें और शेष को  बरसों में निपटने के लिए छोड़ दें।  आमिर कसाब और अफजल गुरू को शीघ्र सजा दे कर भारतीय जनता के घावों को ठंडक अवश्य पहुँचाई जा सकती है,  लेकिन जनता के घावों को तो समूची न्याय प्रणाली को द्रुत और भ्रष्टाचारहीन बना कर ही किया जा सकता है।  जिस के लिए देश में सतत आंदोलन की आवश्यकता है।  अभी आमिर कसाब और अफजल गुरू के मामलों की रोशनी में दृढ़ इच्छा शक्ति के राजनैतिक दल या सामाजिक संस्थाएँ यह आंदोलन खड़ा कर सकती थीं।  लेकिन न्याय होने में किस की रुचि है?

मंगलवार, 9 जून 2009

जुगाड़ स्कूल -बस और शादी से वापसी

राजस्थान के  कोटा संभाग के बाराँ जिले का कस्बा अंता है जहाँ के हाट के चित्र आप ने कल देखे।  राष्ट्रीय राजमार्ग 76 पर कोटा से बाराँ-शिवपुरी की ओर चलने पर 45 किलोमीटर पर कालीसिंध नदी पार करने के चार किलोमीटरबाद यह कस्बा पड़ेगा।  राजस्थान का कोटा संभाग विद्युत उत्पादन में प्रमुख है यहाँ विद्युत उत्पादन का हर तरीका अपनाया जा रहा है।  रावतभाटा का परमाणु बिजलीघर चित्तौड़ जिले में है, लेकिन कोटा से 50 किलोमीटर पर स्थित होने से उस का जुड़ाव कोटा से अधिक और चित्तौड़गढ़ से कम है। जवाहर सागर में पनबिजलीघर है तो कोटा में कोयले से चलने वाले ताप बिजलीघर की सात इकाइयाँ स्थित हैं। अभी छबड़ा में एक इकाई और स्थापित की जा रही है।  राष्ट्रीय ताप विद्युत निगम (एनटीपीसी) का एक बिजलीघर  इसी अंता कस्बे से मात्र चार किलोमीटर दूर स्थित है।  कस्बे से दूर होने और सीधे कोटा से जुड़ाव के कारण इस बिजलीघर ने अंता कस्बे के विकास को विशेष प्रभावित नहीं किया।  लेकिन शिक्षा के प्रति रुचि का विकास अवश्य हुआ है।  15000 आबादी के इस कस्बे में अनेक निजि विद्यालय हैं। कुछ बहुत संपन्न तो कुछ विकास की अवस्था में हैं।

इन्हीं विद्यालयों में से एक श्रीनाथ शिक्षण संस्थान उसी धर्मशाला में संचालित होता है जिस में कल विवाह के भोजन की व्यवस्था थी।  कल आप ने भोजन के भंडार और रसोई के चित्र देखे थे।  हमने इसी धर्मशाला के बरांडों में बैठ कर भोजन किया।

भोजनोपरांत लोग सुस्ताने के लिए या तो कमरों में लगे कूलरों की शरण हो गए। वहाँ स्थान न रहने पर नीम के पेड़ों के नीचे गपशप में लीन हो गए। 

वहीं हमें इस जुगाड़ स्कूल-बस के दर्शन हुए।  ऐसी स्कूल बस जिस का कहीं कोई पंजीकरण नहीं। यह भी जरूरी नहीं कि उसे कोई लायसेंसधारी चालक चला रहा होगा।  विद्यालय को समुचित शुल्क देने वाले माता-पिता इस वाहन में अपने बच्चों को विद्यालय भेज रहे हैं।  फिलहाल विद्यालय गर्मी की छुट्टियों में बंद हैं और यह विद्यालय वाहन भी यार्ड में खड़ा है।  कोई इसे न छेड़े इस के लिए ड्राइवर सीट और सवारियों के बैठने के स्थान पर करीर के कांटों वाले झाड़ रख दिए गए हैं।  हाँ, इतना जरूर सोचा जा सकता है कि इस में बैठने वाले बच्चे अवश्य ही तमाम खतरों से अनजान इस अनोखे वाहन का आनंद अवश्य लेते होंगे।

 
 दूल्हे के नाना-मामा अपने पूरे परिवार सहित (माहेरा) ले कर आए थे।  
 
 
 
 
उन्हों ने अपनी बेटी को इस अवसर पर सुहाग के सब चिन्ह, चूनरी, गहने और कपड़े उपहार में दिए।  साथ ही बेटी के पूरे परिवार को भी कपड़े भेंट किए।  

हमारे मेजबान
 
दूल्हे के अध्यापक पिता

दूल्हे के चाचा और मेरे साढ़ू भाई

............... और इन से मिलना तो रह ही गया 
ये हैं दूल्हे मियाँ,  कम्प्यूटर प्रशिक्षक


चलते-चलते रात हो गई, कुछ देर बिजली भी चली गई

तब झाँका नीम के पीछे से चंदा, जैसे झाँकी हो दुलहिन......

सोमवार, 8 जून 2009

विवाह का मंडल, दोपहर का भोजन और साप्ताहिक हाट बाजार

घर से निकलते निकलते ग्यारह बज गए। रास्ते में पेट्रोल लिया, टायरों में हवा पूरी ली और चल दिए। कुल पचपन किलोमीटर, पौन घंटे में पहुँच लिए।  ब्याह वाले घर में मंडल का कार्यक्रम चल रहा था।  इसी के लिए तो हमारा आना निहायत जरूरी था। वधू के घर भांवर के एक दिन पहले या उसी दिन सुबह और वर के घऱ बारात रवाना होने के दिन या एक दिन पहले मंडल होता है। घर के चौक में मंडप बनाया जाता है जिस के नीचे बैठ कर वर या वधू जो भी हो उस के माता-पिता,और परिवार के सभी युगल सदस्य पूजा और हवन करते हैं। पूजा की समाप्ति पर परिवार की सभी बहुओं के नैहर के रिश्तेदार उन्हें कपड़े उपहार में देते हैं।   इस परंपरा का कारण तो पता नहीं पर शायद यह रहा हो कि कपड़े उपहार में देने के दायित्व के कारण अधिक से अधिक लोग विवाह में उपस्थित हों और विवाह की सामाजिकता बनी रहे।  एक लाभ और यह होता है कि बहुत सारे संबंधी जो बहुत दिनों से नहीं मिले होते हैं, यहां मिलने का अवसर पा जाते है और कुछ समय साथ बिता लेते हैं।

अब हमारी साली साहिबा, शोभा की छोटी बहिन वर की चाची थी। शोभा का उसे और दूल्हे को यह उपहार समय पर देना था  इस लिए हमारा मंडल के समापन के पहले पहुँचना आवश्यक था।   खैर, मंडल सम्पन्न होते ही सब को भोजन के लिए कहा गया। उस के लिए फर्लांग भर दूर स्थित एक धर्मशाला जाना था।  हम चल दिए। रास्ते में साप्ताहिक हाट लगी थी।  मुझे छोटे कस्बे की साप्ताहिक हाट देखे बहुत दिन हो गए थे।  मैं उसे निहारता चला।

हाट बाजार

धर्मशाला बनाम स्कूल

कच्चे-पक्के माल का भंडार

और भंडारी बने साले साहब

धर्मशाला एक बगीची जैसे स्थान में बनी थी। बहुत खुला स्थान था।  इमारत में तीन बड़े-कमरे थे। पास में शौचालय और स्नानघऱ थे। अनवरत पानी के लिए टंकियाँ रखी गई थीं। इमारत पर धर्मशाला और विद्यालय दोनों के नाम प्रमुखता से लिखे थे।  इमारत दोनों कामों में आती थी।   इमारत के एक और खुले स्थान में तंबू तान कर पाक शाला बना दी गई थी।  वहाँ शाम के लिए सब्जियाँ बनाई जा रही थीं और दोपहर के भोजन के लिए गरम गरम पूरियां तली जा रही थीं।  एक बड़े कमरे को भोजन का भंडार बना दिया गया था।  जिस में भोजन बनाने का कच्चा माल और तैयार भोजन सामग्री का संग्रह था।  मेरे बड़े साले साहब वहाँ जिम्मेदारी से ड्यूटी कर रहे थे।  बीच बीच में साढ़ू भाई आ कर संभाल जाते थे।  सुबह नाश्ता किया था, भूख अधिक नहीं थी। फिर भी सब के साथ मामूली भोजन किया। कच्चे आम की लौंजी बहुत स्वादिष्ट बनी थी।  दो दोने भर वह खाई। गर्मी के मौसम में पेट को भला रखने के लिए उस से अच्छा साधन नहीं था। 

 
 शाम की सब्जी की तैयारी के लिए कद्दू के टुकड़े

गर्म-गर्म पूरियाँ तली जा रही हैं
भोजन के घंटे भर बाद इसी धर्मशाला में वर के ननिहाल से आए लोगों द्वारा भात (माहेरा) पहनाने का कार्यक्रम था।  भोजन कर लोग वहीं  सुस्ताने लगे। हम साले साहब को भंडार से मुक्ति दिलवा कर बाजार ले चले कॉफी पिलवाने के बहाने।  हमें हाट जो देखनी थी। रास्ते में एक मुवक्किल मिल गए, वे हमें चाय की दुकान ले गए और बहुत शौक से न केवल कॉफी पिलाई, ऊपर से पान भी खिलाया।  वापसी में हमने हाट देखी और चित्र भी लिए। लीजिए आप खुद देख लें हाट की कुछ बानगियाँ।


 
प्याज और अचार के लिए कच्चे आम खरीदें, अच्छे हैं, पर जरा महंगे हैं 

 
 आंधी में झड़े कच्चे आम, सस्ते हैं, बस पाँच रुपए प्रति किलोग्राम

  
 और अचार के लिए मसाला यहाँ से खरीद लें
 
कच्चे आम को काटना भी तो होगा, कैरी कट्टा यहाँ लुहारियों से खरीद लें 

   मीठे के लिए गुड़ और तीखे के लिए हरी मिर्च भी तो चाहिए

 
 विकलांग होने का खतरा मत उठाइए, जरा शंकर जी के वाहन नन्दी से बचिए 

 
घर की सुरक्षा के लिए ताला लेना न भूलें

शादी में आई हैं तो नई काँच की चूड़ियाँ तो पहन लें
यह बहुत नहीं हो गया?                                                                          शेष अगली किस्त में.......

मंगलवार, 2 जून 2009

रेल बोर्ड के गलत निर्णयों से रेल संपत्ति का नुकसान और यात्रियों को परेशानी

"खुसरूपुर में रेल ठहराव बंद होने से गुस्साई भीड़ ने 3 ट्रेनों में लगाई आग"    
यह नवभारत टाइम्स में प्रकाशित समाचार का शीर्षक है।  समाचार यह है कि इन घटनाओं में कोई हताहत नहीं हुआ है।  लेकिन तीन ट्रेनों को रोक कर उन्हें आग के हवाले कर देना कोई मामूली घटनाएं नहीं है।  इस से न केवल राष्ट्रीय संपत्ति को हानि पहुँची है अपितु रेल यातायात बाधित हुआ है।  सैंकड़ो लोग गन्तव्य तक पहुँचने के पहले ही किसी अनजान स्थान पर उतार दिए गए।  यातायात बाधित होने से सैंकड़ो लोग स्टेशनों पर अटके पड़े होंगे।

यह सब हुआ रेलवे के एक निर्णय अथवा अनिर्णय से।  दानापुर रेलमंडल के जनसंपर्क अधिकारी आर.के. सिंह का कहना था कि बिहार के 33 विभिन्न रेलवे स्टेशनों पर विभिन्न ट्रेनों का अस्थायी तौर पर स्टॉपेज था। रेलवे बोर्ड ने गत 26 मई को एक आदेश जारी कर इस स्टॉपेज पर रोक लगा दी, जिसका नागरिकों ने विरोध किया। अंतत: सोमवार को बोर्ड ने अपने उस आदेश को तात्कालिक तौर पर वापस ले लिया है।  बाद में इन स्टेशनों पर होने वाली टिकटों की बिक्री की समीक्षा करने के बाद इस बारे में निर्णय लिया जाएगा कि यहां ट्रेनों के स्टॉपेज आगे भी जारी रखे जाएं या नहीं।
जब रेलवे किसी भी रूप में एक सुविधा को जारी करती है तो उसे बिना बिक्री की समीक्षा किए और जनता को पहले से सूचना दिए बिना बंद क्यों कर दिया जाता है।  एक सुविधा लोगों को बहुत कठिनाई से प्राप्त होती है।  यदि उसे अनायास ही छीन लिया जाए तो नागरिकों का गुस्साना स्वाभाविक लगता है।  लेकिन रेल प्रशासन को कतई यह गुमान न था कि इन सुविधाओं को छीन लेने मात्र से ऐसी प्रतिक्रिया देखने को मिलेगी।  यह रेलवे प्रशासन की सोच का दिवालियापन ही कहा जा सकता है।  रेलवे कोई निजि उद्योग नहीं है वह एक सार्वजनिक उद्योग है और उस में उसी जनता का धन निवेशित है जिस के एक हिस्से ने उस में आग लगा दी और अपना रोष जाहिर किया।

सार्वजनिक क्षेत्र के उन उद्योगों को जो नागरिक सेवाएं प्रदान करते हैं यह ध्यान तो रखना ही होगा कि उन के किसी प्रशासनिक निर्णय या अनिर्णय से जनता के किसी हिस्से को ऐसा धक्का न लगे कि वह हिंसा पर उतारू हो जाए।  इन प्रायोगिक ठहरावों को बंद करने के पहले समीक्षा की जा सकती थी और जनता को पर्याप्त नोटिस दिया जा सकता था कि इन स्टेशनों से एक निश्चित अवधि में यात्री मिलना निश्चित मात्रा से कम रहा तो इन टहरावों को बंद कर दिया जाएगा।  इस तरह से जनता को विश्वास में ले कर यह कदम उठाया जाता तो इस तरह की हिंसा से बचा जा सकता था और रेलवे का यह व्यवहार जनतांत्रिक भी होता। सार्वजनिक उद्यम होने के कारण उस से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा जनता रखती है।  आशा है नई रेल मंत्री रेलवे बोर्ड में जनता को प्रभावित करने वाले निर्णयों को जनतांत्रिक तरीके से लिए जाने की पद्यति विकसित करने का प्रयास करेंगी।

पुनश्चः
यह आलेख कल शाम 5.30 पर लिखा गया था, किन्तु इस के प्रकाशन के ठीक पूर्व चौड़ा पट्टा धोखा दे गया। बीएसएनएल के अधिकारी दफ्तर छोड़ चुके थे। आज उन्हों ने जाँच कर मेरा पोर्ट बदला, उस के बाद पास वर्ड की समस्या आ गई। अभी 5.12 पर चौड़ा पट्टा बहाल हो सका है। गति भी पहले से तेज मिल रही है। इस कारण से इसे देरी से प्रकाशित किया जा सका है।

शनिवार, 23 मई 2009

सब पूँजी के चाकर : जनतन्तर कथा (33)

हे, पाठक!
साँयकाल सनत राजभवन की रौनक देखने चला गया और सूत जी नगर भ्रमण को।  नगर में लोग अपने कामों व्यस्त रहते हुए बीच बीच में माध्यमों पर मंत्रीपरिषद को शपथ लेते देख रहे थे।  कुछ नए चेहरों को छोड़ कर सब वही पुराने चेहरे थे।  किसी में विशेष उत्साह दिखाई नहीं पड़ता था।  उमग भी रहे होंगे तो केवल वे लोग जिन के निकट के लोग मंत्री परिषद में शामिल हो गए थे।  यह सोचने की रीत बन गई थी कि चलो अपना आदमी मंत्री परिषद में स्थान पा गया, कभी वक्त पड़ा तो काम  आएगा।   राजधानी अपने पुराने ढर्रे पर आने लगी थी।  चुनाव की चहल पहल समाप्त हो चुकी थी।  सूत जी ऐसे ही नगर भ्रमण करते रहे।  जब उन्हें अनुमान हो चला कि सनत वापस लौट आया होगा, तो वे भी यात्री निवास पहुँच गए।  सनत उन की प्रतीक्षा कर रहा था।  उस से पूछा कैसा रहा समारोह? तो उत्तर मिला -पहले की तरह, कुछ विशेष नहीं था।  हाँ, गठबंधन के एक दल के लोगों द्वारा शपथ ग्रहण न कर पाने की चर्चा जरूर थी।  भोजनादि से निवृत्त हो कर दोनों विश्राम के लिए कक्ष में पहुँचे तो सूत जी बोले -मैं सोचता हूँ मुझे कल नैमिषारण्य के लिए प्रस्थान कर देना चाहिए। 
सनत यह सुनते ही उदास हो कर बोला -गुरूवर! इस बार आप का साथ बहुत रहा।  अनेक बातें सीखने को मिलीं, आप चले जाएंगे तो बहुत दिनों तक मन नहीं लगेगा।  मैं भी कल ही निकल लूंगा।  आप बहुत कहते रहे नैमिषारण्य आने के लिए।  इस बार समय निकलते ही आऊंगा, कुछ दिन रहूँगा, आप से बहुत कुछ जानना, सीखना है।  लेकिन गुरूदेव! मेरा कल का प्रश्न अनुत्तरित है।  उस का उत्तर तत्काल जानने की इच्छा है।  यदि आप बता सकें तो आज की रात ही उसे स्पष्ट करें।

 हे, पाठक!
सूत जी बोले -सनत! अवश्य बताऊंगा। तुम निकट आ कर बैठो।
सनत सूत जी की शैया के निकट ही जा बैठा।  सूत जी कहने लगे -तुम्हारा प्रश्न था कि क्या वायरस दल चौथाई मतों के आस पास ही बना रहेगा, क्या इस से अधिक प्रगति नहीं कर पाएगा?
देखो भाई, यह युग पूँजी का युग है।  सारी सांसारिक गतिविधियों का संचालन पूँजी करती है।  पूँजी की शक्ति यह है कि वह सदैव स्वयं की वृद्धि के लिए काम करती है।  वस्तुतः पूँजी ही अपनी समृद्धि की आवश्यकताओं के लिए मर्त्यलोक पर राज्य करती है।  वह समय समय पर अपने अवरोधों को नष्ट  करती रहती है।  पूँजी सदैव मनुष्यों की बलि लेती है।  वह कभी किसी को उस के श्रम की पूरी कीमत नहीं देती।  यही उस की समृद्धि का रहस्य है।  वही उसे भोग पाता है जो उस पर नियंत्रण कर लेता है।  पूँजी की समृद्धि से ही किसी देश की समृद्धि आँकी जाती है।  जनतंत्र में जो महापंचायत है उस पर पूँजी ही का नियन्त्रण रहता है।  वह चुन चुन कर अपने सेवकों को महापंचायत में लाती है।  उस का प्रयत्न रहता है कि  महापंचायत उस के श्रेष्ठतम सेवकों के हाथों में बनी रहे।  सेवकों में इतनी कुशलता होनी चाहिए कि वे जनता का समर्थन लगातार प्राप्त करते रहें।   जनता के आक्रोश को विद्रोह की स्थिति तक न पहुँचने दें।  बैक्टीरिया दल उस का सब से अच्छा सेवक है।  यही कारण है कि उस ने सब तरह के साधनों और प्रयत्नों से उसे वापस महापंचायत में पहुँचाने में सफलता प्राप्त कर ली।
सूत जी थोड़ा रुके तो सनत बोल पडा़ -मेरा प्रश्न तो अनुत्तरित ही रह गया।


हे, पाठक!
सूत जी आगे बोले -तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इसी में छिपा है।  यथार्थ यह है कि लाल फ्राक वाली बहनों को छोड़ दें तो सभी मौजूदा दल पूँजी के चाकर हैं।  लेकिन उसे सब से अधिक पसंद वह है जो जनता में विद्रोह को रोके रखे और पूंजी स्ववृद्धि करती रहे।  अब हम वायरस दल की बात करें तो वह सदैव कुछ इस तरह का काम करता रहता है जिस से जनता संप्रदायों के आधार पर बंटी रहे।  उस दल की उत्पत्ति का आधार ही संप्रदाय है।  यह सही है कि जिस संप्रदाय का वह पक्षधर है वह भारतवर्ष का सब से बड़ा संप्रदाय है।  लेकिन उस की अनेक शाखाएँ हैं, ऊंच-नीच के विभाजन हैं।   इस कारण यह आधार उस की लोकप्रियता को संकुचित करता है।  इस संप्रदाय के आधे मत भी वह कभी प्राप्त नहीं कर सका और न कर सकेगा। इस कारण से  वायरस दल कभी भी अपनी चौधाई स्थिति से नहीं उबर सकेगा।  उसे अपने विकास के लिए अपना आधार बदलना पड़ेगा, और यदि वह ऐसा करता है तो वह फिर वायरस दल नहीं रह जाएगा।   इस के लिए उसे एक नया रूप चाहिए और एक नया नाम भी।  कुछ समझ आया सनत? -सूत जी ने पूछा।

-सब समझ आ रहा है।   सनत बोला -लेकिन आप ने लाल फ्रॉक वाली बहनों को पृथक क्यों रखा?

सूत जी बोले- वे यथार्थ में अन्य दलों से भिन्न थीं।  उन का उद्देश्य जनता को पूँजी पर बलि होने से मनुष्यों की रक्षा करना था।  लेकिन यह एक लम्बी कहानी है।  मुझे कण्ठ में रुक्षता अनुभव हो रही है, कुछ शीतल जल दो।
-अभी लाता हूँ गुरुदेव यह कह कर  सनत जल लाने के लिए उठा लेकिन जल ऊष्ण था।  वह दूरभाष पर यात्री निवास के सेवक को शीतल जल भेजने को कहने लगा।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

शुक्रवार, 22 मई 2009

मिथ्याभिमान का टूटना : जनतन्तर कथा (32)

हे, पाठक!
इधर राजधानी में अब सरकार निर्माण का काम चल रहा है।  इस काम में बड़े बड़े दिग्गज जुटे हुए हैं।  पहले घोषणा हुई थी कि पैंसठ मंत्री बनेंगे।   लेकिन रात-रात में पंगा हो गया।  आज का दिन ही पंगेबाजी का था, आखिर कैसे न होता? कुछ लोग कह रहे थे मुहुर्त निकलवाने में गलती हो गई, कुछ लोग कहते थे कि ज्योतिषियों का अब कोई ईमान-धरम नहीं रहा, सब भविष्यवाणियाँ असफल हो गईं।  उन से मुहुरत निकलवा कर ही गलती की।  तरह-तरह की अटकलें लगाई जा रही थीं।  गठबंधन का एक दल रूठ गया था।  उसे पूरा हिस्सा चाहिए था, उसे मांगा जो मिल जाए तो दूसरा रूठ जाए।  सच में कितना कठिन होता है ये गठबंधन की सरकार बनाना। सोचते थे कि लाल फ्रॉक से पीछा छूटा। अब सरकार दबाव में नहीं रहेगी। स्वतंत्र  रह कर काम कर सकेगी।  लेकिन यह भ्रम ही साबित हुआ। तुलसी बाबा सही कह गए -पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।  बाबा ने सोचा भी न होगा कि पराधीनता इस तरह की भी होगी।


हे, पाठक!
 राजधानी में गरमी बहुत थी।  दिन का भोजन कर सनत और सूत जी यात्री विश्रामगृह में ही विश्राम करने लगे।  बाहर का काम संध्या पर छोड़ दिया।  वैसे भी संध्या में नयी सरकार का हाल लेना था।  सनत पूछने लगा -गुरुवर! लाल बहनों का क्या होगा? दस दिन पहले बहुत कूद रही थीं कि सरकार में उन की अहम भूमिका होगी।  जनता ने निर्णय दिया तो उछल-कूद बंद हो गई।  सारी बहनें घर से बाहर ही नहीं निकल रही हैं। जरूर उन्हें घर की चिंता सता रही होगी।  उन की धुरविरोधी इधर मन्त्री बन रही है, साथ ही धमकी भी दे रही है कि तुम्हारी खंड सरकार अब गिरवाती हूँ।
सूत जी बोले -जनता ने बिलकुल सही निर्णय दिया, लाल फ्रॉकधारी बहनों को सही स्थान पर पहुँचा दिया।  इन को दो-तीन खंडों में सरकारें चला-चला बहुत मिथ्याभिमान हो चला था कि वे अब चुनावी तंतर से भारतवर्ष को बदल डालेंगी।  उन का मिथ्याभिमान टूटना जरूरी था।  वे जनता को साथ ले कर चली थीं।  जनता को भरोसा दिलाया था कि वे उन्हें संगठित करेंगी। संगठन की ताकत से धनिकों, परदेसियों की पूंजी और भूस्वामियों के जाल को तोड़ेंगी।  जहाँ जहाँ उन्हों ने जनता संगठित की वहाँ वहाँ वे फली फूलीं।  जनता ने खंड़ों का राजकाज भी उन्हें सोंपा।  लेकिन, प्रभुता पाई काहे मद नाहीं, राजकाज ने बहनों के चरित्र को बदलना शुरू कर दिया।  वे सोचने लगीं अब जनता को संगठित करने का दुष्कर काम कौन करे? जनता पेटी वाला मत देने ही लगी है। जैसे इन तीन खंडों में राजकाज मिला वैसे ही पूरे भारतवर्ष में भी मिलेगा।  वे लग लीं मतों को जुगाड़ में, जनता का संगठन बिसरा दिया। जनता उन्हें बिसराने लगी।

हे, पाठक!
सनत ने प्रश्न किया -पर गुरुवर! मुझे तो लगता है कि जनता ने उन्हें पाँच बरस के बीच पिछली सरकार गिराने का सबक सिखाया है। सब लोग यही कह रहे हैं।  पर आप बिलकुल दूसरी बात कह रहे हैं?
सूत जी आगे बोले - सनत! यह बहुत पेचीदा बात है।  बैक्टीरिया दल सर्वधर्म समभाव की बात करता है उसे ही धर्म निरपेक्षता कहता है। यदि वह किसी एक धर्म के प्रति अनुराग दिखाने लगे तो लोग उसे पसंद करेंगे? नहीं न? जनता बहुत विभागों में बंटी है, इस लिए ऐसा कभी नहीं होता कि सारी जनता एक साथ किसी को पसंद कर ले।  अब तुम इधर ही देख लो वायरस दल को चौथाई जनता से अधिक का मत कभी नहीं मिला।  उस का कारण है कि उस ने स्वरूप ही ऐसा बनाया है जिसे चौथाई जनता से अधिक लोग पसंद कर ही नहीं सकते।  यह दल अब कुछ कुछ इसे समझने भी लगा है।  वह स्वयं का रूप बदलने का प्रयत्न भी करता है।  लेकिन जैसे ही वह ऐसा करता है लेकिन बहुत सी जनता उस का साथ छोड़ने लगती है।  यह दल उस से घबरा जाता है और पुराने रूप में लौट आता है।  अब  चौथाई या उस से कम जनता का समर्थन उस की नियति बन गई है।
तो क्या वायरस दल इस से अधिक कभी आगे नहीं बढ़ पाएगा? सनत ने फिर प्रश्न किया।
सूत जी बोले -इस प्रश्न का उत्तर तुम्हें फिर कभी दूंगा।  अब कुछ विश्राम कर लो। दुपहरी ढलते ढलते तुम्हें राजभवन जाना होगा।  नयी सरकार का नयापन नहीं देखोगे?
सनत को सूत जी का सुझाव मानना पड़ा। लेकिन वह पूछ बैठा -ऐसा लगता है आप राजभवन नहीं जाएंगे?
-मेरा बिलकुल मन नहीं है। तुम जाओ मैं उस समय कुछ नगर भ्रमण करना चाहता हूँ। यह कह कर सूत जी विश्राम करने लगे।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....

 

गुरुवार, 26 मार्च 2009

जनतन्तर-कथा (1) : हरारत होने लगी

हे, पाठक!

यूँ तो जब भी आप-हम मिलते हैं, तो कोई न कोई बात होती है।  कुछ मैं  कहता हूँ, कुछ आप टिपियाते हैं।  पर इन दिनों मौसम का मिजाज कुछ अलग है।  एक तो वह बदलाव के दौर में है, ऊपर से चुनाव आ टपके हैं।  वैसे ही इस मौसम में डाक्टर-वैद्य बहुत व्यस्त होते हैं।  सारे बैक्टीरियाओं और वायरसों के लिए मौसम अनुकूल जो होता है।  होता तो इंन्सान के लिए भी अनुकूल ही है,  पर वह जो खुराफातें फागुन-चैत में करता है, उस के परिणाम बहुत देर से सावन-भादों दिखाई देने लगते हैं और देश के जच्चाखानों में जगह कम पड़ने लगती है।  लेकिन बैक्टीरियाओं, वायरसों और उन के वाहकों की खुराफातों के परिणाम जल्दी ही सामने आने लगते हैं।  दूसरे-दूसरे वाहकों पर क्या गुजरती है? ये तो वे ही जानें।  जाने उन के यहाँ डाक्टर-वैद्य होते या नहीं।  शायद नहीं ही होते हैं।  तभी तो कभी उन की भरमार हो जाती है और कभी बिलकुल गायब नजर आते हैं।  इन भरमार के दिनों में वे इन्सान को भी अपना असर दिखाने लगते हैं।  इस असर की शुरुआत होती है इन्सान के शरीर में हरारत के साथ।

हे, पाठक!
तब ताप महसूस होने लगता है।  बीन्दणी सुबह-सुबहअपना हाथ आगे कर अपने बींद से कहती है- मुझे पता नहीं क्या हुआ है?  जरा मेरा हाथ तो देखो जी।  बींद सहज ही हाथ पकड़ने का अवसर देख, हाथ को पकड़ता है कुछ देर पकड़े रह कर कहता है, ठीक तो है।  वह पूछती है, गरम नहीं लगा? जवाब मिलता है, नहीं तो। वह निराश हो जाती है।  फिर बींद का हाथ अपने हाथ में पकड़ कर अपने माथे से छुआती है और कहती है, यहाँ देखो।  अब न होते हुए भी बींद को कहना पड़ता है हाँ कुछ गरम तो लगता है।  इस के बाद बींद गले के नीचे छाती के ऊपर अपना हाथ छुआ कर देखता है और घोर आश्चर्य कि बींदणी जरा भी प्रतिरोध नहीं करती और न यह सुनने को मिलता कि, अजी क्या कर रहे हो।


हे, पाठक!
ऐसा ही कुछ शाम को बींद के साथ होने लगता है।  वह दफ्तर से लौटता है और ड्राइंगरूम के सोफे पर या दीवान पर या सीधे बेडरूम के बेड पर धराशाई हो जाता है।  अब पैर जमीन पर हैं और शरीर सोफे या दीवान या  बेड पर लंबायमान।  जूते भी नहीं खोलता।  उस की हालत वैसी दीख पड़ती है जैसी खेत में ओले पड़ने के बाद पकते गेहूँ की फसल की होती है।  बींदणी देखती है, पानी का एक गिलास ले कर आती है और पूछती है, क्या हुआ जी? आते ही पड़ गए,  जूते भी नहीं खोले?  कुछ नहीं कुछ हरारत सी हो रही है। बिचारी बींदणी, वह बींद के माथे पर हाथ रख कर देखती है और कहती है, ठीक तो है, गरम तो नहीं लग रहा है, लगता है आज काम ज्यादा करना पड़ा है? थक गए होंगे? बींद कहता है वह तो रोज का काम है लेकिन आज कुछ बदन टूटा-टूटा लग रहा है।  बींद पानी का गिलास ले लेता है और उसे उदरस्थ कर वापस बींदणी को पकड़ा देता है। वह खाली गिलास ले कर चल देती है।  बींद को पता है वह चाय बनाने रसोई में घुस गई है। वह उठ कर जूते खोलने लगता है।


हे, पाठक!
ये दो सीन हैं, बिलकुल घरेलू आइटम।  लेकिन इन दिनों इन्सानों के साथ साथ शहर को भी हरारत हो रही है।  कल मैं अदालत के लिए निकला तो गर्ल्स कॉलेज के आगे अंटाघर चौराहे की ट्रेफिक बत्ती  हरी थी।  हमने निकलने को एक्सीलेटर पर दबाव बढ़ाया तो वह दगा दे गई पीली हो गई।  उधर चौराहे पर पुलिसमैन बिलकुल चौकस दिखे।  मुझे लगा कि मैं निकल गया और बत्ती लाल हो गई, तो मुझे बीच चौराहे पर ही टोक देगा।  मेरा पैर एक्सीलेटर छोड़ कर अचानक ब्रेक पर चला गया।  बगल में बैठे सहायक ने कहा निकल लो पीछे पुलिस की गाड़ियाँ आ रही हैं।  पैर वापस एक्सीलेटर पर गया और चौराहा पार करते-करते, बत्ती लाल।  मैं ने पिछवाड़ा दर्शन शीशे में देखा तो तेजी से बहुत सारी पुलिस गाड़ियाँ आ रही थीं।  पहले तो लगा कि मेरा पीछा कर रही हैं।  फिर लगा कि मेरी कार को टक्कर मार देंगी।   फिर सड़क पर एक सिपाही दिखा जो मुझे कार बाएँ करने का इशारा कर रहा था।  तभी सहायक बोला, मुख्यमन्तरी आ रहा है, सारे सिपाही एक दम लकदक हैं।  मैंने कार बाएँ कर ली।  पुलिस की जीपें एक-एक कर मुझे ओवरटेक कर गईं।  हर जीप से निकले हाथ ने मुझे कार बाएँ रखने का इशारा किया।  तब तक सर्किट हाउस आ गया और सब उस के मुहँ में घुस गईं।  मुख्यमन्तरी के वाहन का कुछ पता नहीं था।  सहायक ने बताया, यह मुख्यमंतरी को सर्किट हाउस तक लाने का रिहर्सल था।


हे, पाठक !
अदालत आ चुकी थी।  पार्किंग में कोई जगह खाली न थी।  कार को कलेक्ट्री परिसर में घुसाया और सबसे आखिरी में तहसील के सामने की जगह में पेड़ के नीचे पार्क किया।  सहायक ने बताया, आज भूतपूर्व और वर्तमान दोनों ही मुख्यमंतरी शहर में हैं।  हम काम में लग गए।  दोपहर बाद कुछ समय मिला तो वकीलों को गपियाते देख हम भी शामिल हो गए।  बहुत साल पहले वायरस पार्टी से बैक्टीरिया पार्टी में शामिल हो कर नोटेरी बने और वापस वायरस पार्टी में लौटे वकील साहब को कोई वकील कह रहा था, तुम मिल आए सर्किट हाउस? टिकट नहीं मांगा? मेरी हँसी छूटते-छूटते बची।  मैं बोल पड़ा क्यों बाम्भन को छेड़ रहे हो? क्यों अच्छी खासी चलती दाल-रोटी छुड़वाना चाहते हो?  टिकट मिल भी गया होता तो इन से उठता नहीं और उठा कर ले आते तो अदालत तक आते-आते कहीं रास्ते में पटक देते। जैसे रावण ने जनकपुरी में शिव जी का धनुष छोड़ दिया था।
हे, पाठक!
आज की कथा यहीं तक।  फिर मिलेंगे। बोलो हरे नमः, गोविन्द माधव हरे मुरारी .....

शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

जरूरी सरकारी कर्तव्यों में बाधा के चक्कर

कल जब मैं जिला न्यायालय से सड़क पार कलेक्ट्री परिसर में उपभोक्ता मंच की ओर जा रहा था तो रास्ते में टैगोर हॉल के बाहर पुराने स्कूल के जमाने के मित्र मिल गए, उन के साथ ही मेरा एक भतीजा भी था।  दोनों ही अलग अलग पंचायत समितियों में शिक्षा अधिकारी हैं।  दोस्त से दोस्त की तरह और भतीजे से भतीजे की तरह मिलने के बाद दोस्त से पूछा -यहाँ कैसे? जवाब मिला -मीटिंग थी।

अब? दूसरी मीटिंग है।  वे आपस में जो चर्चा कर रहे थे वे शायद मिड-डे-मील से संबंधित थीं।  मैं ने कहा तुम्हें भी अध्ययन के साथ मील में फंसा दिया।  हाँ अभी मील की मीटिंग से आ रहे हैं।  इस के बाद चुनाव की मीटिंग है, लोकसभा चुनाव की तैयारियाँ जोरों पर हैं।  मैं ने पूछा -और शिक्षा? तो उन का कहना था कि उस की मीटिंग परीक्षा परिणामों के उपरांत जून जुलाई में होगी।  वह यहाँ नहीं होगी।  प्रशासन को शिक्षा से क्या लेना देना?

वे और मैं दोनों ही जल्दी में थे, सो चल दिए अपने अपने कामों पर।

दोपहर बाद जब काम लगभग सिमट गया सा था, केवल एक अदालत से एक दस्तावेज हासिल करना भर रह गया था और आधे घंटे की फुरसत थी।  हम  हफ्ते भर बाद निकली साफ धूप का आनंद लेने एक तख्ते पर बैठे बतिया रहे थे।  पास वाले वरिष्ठ वकील बाहर गए हुए थे, उन के दो कनिष्ठ साथ थे।  एक कनिष्ठ जिस की पत्नी शिक्षिका हैं, सुनाने लगा....

"भाई साहब! मेरी पत्नी जिस स्कूल में अध्य़ापिका है वहाँ कुल तीन अध्यापिकाएँ हैं और पहली से ले कर पाँचवीं कक्षा तक कुल डेढ़ सौ विद्यार्थी।  तीन में से एक छह माह के लिए प्रसूती अवकाश पर चली गई है।  एक की ड्यूटी चुनाव के लिए जिला चुनाव अधिकारी के यहाँ लगा दी गई है।  अब एक अध्यापिका कैसे स्कूल को संभाले।  बीमार हो जाए तब भी स्कूल तो जैसे तैसे जाना ही होगा।  उसे बंद तो नहीं किया जा सकता।  इस बात को बताने के लिए वह शिक्षा अधिकारी के कार्यालय स्वयं आ भी नहीं सकती।  आए तो स्कूल कौन देखे?चिट्ठी पत्री को कोई महत्व नहीं है।

पास के गांव के स्कूल में चार अध्यापिकाएँ हैं और छात्र केवल नौ।  उस विद्यालय से एक अध्यापिका को अस्थाई तौर पर मेरी पत्नी वाले स्कूल में लगवा देने से काम चल सकता है।  मेरी पत्नी ने उस स्कूल की एक अध्यापिका को इस के लिए मना कर उस से लिखवा भी लिया है।  उस स्कूल के प्रधानाध्यापक ने भी उस पर अनापत्ति लिख दी है।  उस पत्र को  देने के लिए दो हफ्ते पहले शिक्षा अधिकारी के दफ्तर में मुझे जाना पड़ा शिक्षा अधिकारी ने हाँ भी कह दी। कहा एक दो दिन में आदेश आ जाएगा।  चार दिन में आदेश न आने पर मैं फिर उन से मिला।  तो कहने लगे, - मैं जरा कुछ अर्जेंट कामों में उलझ गया था।  आप कुछ देर रुको।  मैं वहाँ पौन घंटा रुका।  लेकिन शिक्षा अधिकारी फिर अपने कामों में भूल गए।  याद दिला ने पर बोले, -अभी आदेश निकलवाता हूँ।   बाबू को बुलवाया तो पता लगा कि वह जरूरी रिपोर्टें ले कर कलेक्ट्री गया हुआ है।  मुझे दो दिन बाद आदेश के बारे में पता करने को कहा गया है।  फिर चार दिन बाद कोई व्यवस्था न होने पर उन से मिला तो कहा,  बाबूजी अवकाश पर हैं आप को आने की जरूरत नहीं है आदेश दूसरे दिन अवश्य ही निकल जाएगा।  तीन दिन गुजरने पर भी जब आदेश नहीं आया तो मैं फिर वहाँ पहुँचा।  इस बार मुझे देखते ही शिक्षा अधिकारी बोले।  अरे! आप का आदेश अभी नहीं पहुँचा। ऐसा कीजिए आप बाबू जी से मिल लीजिए और खुद ही आदेश लेते जाइए।  मैं बाबू के पास पहुँचा तो वह मुझे वहीं बैठा कर फाइल ले कर शिक्षा अधिकारी के यहाँ गया। बीस मिनट में वापस लौटा।  फिर आदेश टाइप किया,  उस पर हस्ताक्षर करवाकर लाया और डिस्पैच रजिस्टर में चढ़ा कर मुझ से पूछा कि आप कौन हैं?  बताने पर उस ने आदेश देने से मना कर दिया कि आप विभागीय कर्मचारी नहीं है। आदेश डाक से भिजवा देंगे, कल आप को मिल जाएगा।

इस तरह मेरे चार-पांच चक्कर लगाने के बाद भी आदेश नहीं मिला, अब देखते हैं कि कल मिलता है या नहीं।" 

मैं ने उस से पूछा -शिक्षा अधिकारी कौन है? तो उस ने मेरे मित्र का नाम बताया।  मैं भौंचक्का रह गया।

मैं ने  शाम को अपने मित्र से बात की तो कहने लगा।  यार! भैया, बहुत चक्कर हैं, इस नौकरी में।  पहले देखना पड़ता है कि  इस तरह के आदेश से किसी को कोई एतराज तो नहीं है।  वरना यहाँ जिला मुख्यालय पर टिकना मुश्किल हो जाए।  पहले तुमने बताया होता तो उसे यहाँ तक आने की जरूरत ही नहीं पड़ती।

आज मैं ने उस कनिष्ठ वकील से पूछा कि क्या वह आदेश पहुँच गया? तो उस ने बताया कि आदेश रात को ही चपरासी घर पहुँचा गया था।

मुझे अभी भी समझ नहीं आ रहा है कि यह सामान्य प्रशासन का आदेश देना और इस तरह की व्यवस्थाएँ करना तो उस का खुद का कर्तव्य था।  इस के लिए उस की माहतत शिक्षिका के पति को चार-पाँच चक्कर क्यों लगाने पड़े? और पहली ही बार में वह आदेश जारी क्यों नहीं कर दिया गया।  वे कौन से चक्कर हैं जो जरूरी विभागीय कर्तव्यों में इस तरह बाधा बन जाते हैं।

भारत के भावी कर्णधारों की परवाह कौन कर रहा है?

बुधवार, 21 जनवरी 2009

बाज़ार पर निगरानी न रखी जाए तो वह बेकाबू हो सकता है

"पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के बारे में बहस का यह न तो समय है, न ही गुंजाइश. लेकिन मौजूदा संकट से हमने सीखा है कि अगर बाज़ार पर निगरानी न रखी जाए तो वह बेकाबू हो सकता है."  .....



यह दुनिया के सब से ताकतवर देश के नए राष्ट्रपति के पहले भाषण का मुख्य अंश है।  यह कह रहा है कि पूंजी
मनुष्य को नियंत्रित नहीं कर सकती, उस का नियंत्रण मनुष्य के हाथों में होना चाहिए।   पूंजी का अपना चरित्र है।  वह अपने भले के लिए काम करती है और इस के लिए वह मनुष्यों की, उन के जीवन की परवाह नहीं करती।  पूंजी को मनुष्यों के जीवन के अनुकूल नियंत्रित करना होगा।

शायद यही इस सदी का सब से बड़ा सच है।  अमरीकी जनता ने पूंजी के मनुष्य पर प्रभुत्व को पराजित कर दिया है।  बराक ओबामा की जीत पूंजी के प्रभुत्व पर मनुष्य की जीत है।  यह दूसरी बात है कि कोई भी सत्ताधारी हार कर भी नहीं हारता।  वह बाजी को पलटने का प्रयत्न करता है।  फिर से अपनी पुरानी सत्ता की स्थापना के प्रयत्नों में जुट जाता है।  यही बराक ओबामा के समक्ष सब से बड़ी चुनौती है कि पूंजी के फिर से प्रभुत्व प्राप्त करने की कोशिशों को वे नाकाम कर दें। मनुष्य के पूंजी पर प्रभुत्व को कायम ही नहीं रखें, उसे और मजबूत बनाएँ।

वे आगे घोषणाएँ करते हैं...
"हम रोज़गार के नए अवसर पैदा करेंगे, सड़कें बनाएँगे, पुल बनाएँगे, फाइबर ऑप्टिक केबल बिछाएँगे, सौर और पवन ऊर्जा की मदद से देश को आगे बढ़ाएँगे, अपने कॉलेज और यूनिवर्सिटियों को बेहतर बनाएँगे, हम ये सब कर सकते हैं और हम करेंगे."


"अमरीका ईसाइयों, मुसलमानों, यहूदियों, हिंदुओं और नास्तिकों का भी देश है, इसे सबने मिलकर बनाया है, इसमें सबका योगदान है, अमरीका की नीतियों को हम हठधर्मी विचारों का गुलाम नहीं बनने देंगे।"

"पूरी दुनिया की शानदार राजधानियों से लेकर ग़रीब दुनिया के छोटे शहरों तक, वहाँ भी जहाँ से मेरे पिता आए थे, अमरीका हर उस देश का दोस्त है जो शांति चाहता है."


"हम ग़रीब देशों से कहना चाहते हैं कि हम उनके साथ हैं, हम उनकी तकलीफ़ के प्रति उदासीन नहीं हैं, हम चाहते हैं कि दुनिया के हर सुदूर कोने में लोगों तक खाना और पानी पहुँच सके." 

"अमरीका दुनिया का महान लोकतंत्र है, आज पूरी दुनिया की नज़र हम पर है, अमरीका आज जो है वह अपने नेताओं की बुद्धिमत्ता की वजह से ही नहीं, बल्कि अमरीका की जनता की वजह से है."

अमरीका के 44वें राष्ट्रपति  की इन घोषणाओं की दिशा में यदि अमरीका चल पड़ा तो तो न केवल अमंरीका बदलेगा, सारी दुनिया बदलेगी।  बस अमरीका की तासीर उसे इस दिशा में चलने तो दे।

मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

साथ, सहारा : तीन दृश्य



दोपहर दो बजे, हम चाय पीकर पान की दुकान पर पहुँचे थे। मैं पान वाले को पान बनाते हुए देख रहा था। पान देतो हुए उस ने हमारे एक साथी को छेड़ा। उधर क्या आँख सेक रहे हैं? पान लो। मैं ने मुड़ कर देखा तो सभी सड़क पर जा रहे एक नौजवान जोड़े की ओर देख रहे थे। नौजवान ने अपनी साथी का हाथ पकड़ा था और दोनों तेजी से चौराहा पार कर उस तरफ जा रहे थे जहाँ उन्हें ऑटो रिक्षा मिल सकता था। उन्हें देखते हुए मेरी नजर एक दूसरे ही दृश्य पर पड़ गई और मैं उसी और निहारता रह गया।

एक पचपन की उम्र की महिला एक पाँच वर्ष के बच्चे का हाथ पकड़े होटल के गेट के बाहर खड़ी थी। शायद बच्चा उसे अंदर ले जाना चाहता था और वह उसे रोक रही थी। बच्चा  जाना चाहता था। फिर वे दोनों होटल की सीमा में प्रवेश कर ओझल हो गए। मैं ,सोचता हुआ उसी ओर शून्य में देखता रहा। तभी एक साथी ने मुझे टोका, -अब वहाँ हवा में क्या देखने लगे?

मैं ने जो देखा था वह उन्हें बताया, और कहा -मैं सोच रहा हूँ कि, सब के सामने होते हुए भी वह दृश्य केवल मैं ही क्यों देख पाया? और क्यों नहीं देख पाए?

तभी वह महिला और बच्चा होटल के बाहर वापस आ गया। शायद बच्चे ने किसी वस्तु को, शायद फूलों को देखा था और उन्हें लेने की जिद कर रहा था। शायद होटल का चौकीदार यह सब समझा और उस ने बच्चे को वह लेने दिया।
मेरे एक साथी ने कहा -जवान स्त्री-पुरुष का सार्वजनिक साथ सब की निगाहों में आता है।
हम ने पान लिए और वापस चल दिए। पीछे देखा तो दो बुजुर्ग वकील होटल से बाहर आ रहे थे, उन में से एक को फालिज़ का शिकार हो जाने से चलने में परेशानी थी, दूसरे उन का हाथ पकड़ कर उन्हें सहारा दे रहे थे।
मैं ने अपने साथियों को एक यह दृश्य भी दिखाया।
मैं ने उन्हें कहा -इन तीनों दृश्यों में कुछ बातें समान थीं। एक दूसरे के हाथों का पकड़े होना और सहारा या संरक्षण।

आप ऐसे अनेक दृश्य मानव जीवन में ही नहीं जन्तु और पादप, समस्त जीव जगत में, और निर्जीव जगत में भी देख सकते हैं। उन दृश्यों में अनेक समानताएँ भी खोजी जा सकती हैं। पर लोगों की निगाहें केवल कुछ ही चीजों को अधिक क्यों देखती हैं?

मंगलवार, 25 नवंबर 2008

सब तें मूरख उन को जानी। जनता जिन ने मूरख मानी।।

अनवरत के आलेख पर एक टिप्पणी आई .....
आज तक जैसे लोग चुनकर आए और जिस तरह आए, उससे तो यही मानना पड़ता है कि जनता पागल नहीं तो कम से कम बेवकूफ ज़रूर है।  वरना क्यों कोई सडांध और बीमारी के बीच रहना चाहेगा? वह भी तब जब सारे काम ईमानदारी से करवाने का ब्रह्मास्त्र जनता के ही हाथ में हो?

 इस टिप्पणी से सहमति की बात तो कोसों दूर है, इस ने मेरा दिल गहरे तक दुखाया। ऐसा नहीं है कि यह वाक्य पहली बार जेहन में पड़ा हो। रोज, हाँ लगभग रोज ही कोई न कोई यह बात मेरे कान में डाल देता है। लेकिन या तो उसे लोगों की नासमझी समझ कर छोड़ देता हूँ। ऐसी ही बात कोई सुधी कहता है तो पता लगता है, हम ने ही उसे गलत समझा था। उसे अभी सुध आने में वक्त लगेगा।

उन मित्र का नाम मुझे पता नहीं, वे  बनावटी नाम से ही ब्लॉग जगत में उपस्थित हैं। पहचान छुपाने के पीछे उन की जरूर कोई न कोई विवशता रही होगी। मुझे उन का नाम जान ने में भी कोई रुचि नहीं है। वैसे भी मुझे जीवन में जब जब भी लगा कि कोई व्यक्ति अपनी पहचान छुपाना चाहता है तो मैं ने उसे जान ने का प्रयत्न कभी नहीं किया। जान भी लूँ तो उस से हासिल क्या? जब कभी मुझे लगा कि मैं कहीं अवाँछित हूँ, तो मैं वहाँ से हट गया। बहुत  ब्लॉग हैं जहाँ लगा कि मैं टिप्पणीकार के रूप में अवांछित हूँ तो मैं ने वहाँ जाना बन्द कर दिया। आखिर हर किसी को अपनी निजता को बनाए रखने का अधिकार है। मैं हर किसी कि निजता की रक्षा का हामी हूँ, सिर्फ अपनी खुद की निजता के सिवा।

मुझे संदर्भित टिप्पणीकार की समझ से भी कोई परेशानी नहीं है। लेकिन जनता  एक समष्टि है, उस के प्रति तनिक भी असम्मान मैं कभी बरदाश्त नहीं कर पाया। मुझे लगता है जैसे मेरे ईश्वर का अपमान कर दिया गया है। लगता है जैसे मेरी अपनी भावनाएँ किसी ने चीर दी हैं। 

आखिर यह जनता क्या है?

जी,  जनता में मैं हूँ, आप हैं, सारे ब्लागर हैं, सारे टिप्पणीकार हैं, सारे पाठक हैं।
जनता में मेरे माता-पिता हैं, ताई है, चाची है, ताऊ हैं, चाचा हैं। बेटे और बेटी हैं, भतीजे-भतीजी हैं।मुहल्ले के बुजुर्ग हैं, स्कूल और कॉलेज में पढने वाले बच्चे हैं, और वे भी हैं जो किसी कारण से स्कूल का मुँह नहीं देख पाए या कॉलेज तक नहीं जा सके। आप के हमारे नाती है पोते हैं।

जनता में मेरे अध्यापक हैं, गुरू हैं। जनता में राम हैं, जनता में कृष्ण हैं, जनता में ही ईसा और मुहम्मद हैं। जनता में ही बुद्ध हैं, गुरू-गोविन्द हैं।

कुदरत ने इन्सान को दिमाग दिया, कि वह कुछ सोचे, कुछ समझे और फिर फैसले करे। मैं भी ऐसा ही करता हूँ। लेकिन कभी मेरा इन्सान फंस जाता है। दिमाग काम करने से इन्कार कर देता है। तब मेरे पास एक ही रास्ता बचता है,  जनता के पास जाऊँ। मैं जाता हूँ। वह मुझे बहुत प्रेम करती है। मुझे समझती है। वह प्यार से मुझे बिठाती है, थपथपाती है, मुझे आराम मिलता है, वह फिर से सोचना सिखाती है। जब फूल मुऱझा कर गिरने को होता है तो वह उसे फिर से जीवन देती है। जब अंधेरा छा जाता है, तो वही मार्ग दिखाती है। वह मुझे प्राण देती है, मैं जी उठता हूँ।

पश्चिम से ले कर पूरब तक सब परेशान हैं, मंदी का जलजला है, बड़े बड़े किले गिर रहे हैं, प्राचीरें ढह रही हैं, लोग उन के मलबे के नीचे दबे कराह रहे हैं, कुछ उन के नीचे दफ्न हो गए हैं कभी वापस न लौटने के लिए। हर कोई कांप रहा है। फिर भी विश्वास व्यक्त किया जाता है -यह तूफान निकल जाएगा, जितना नुकसान करना है कर लेगा। लेकिन  दुनिया फिर से चमन होगी, बहारें लौटेंगी। फिर से खिलखिलाहटें और ठहाके गूंजेंगे। लेकिन इस आस-विश्वास का आधार क्या है?

वही जनता न? वह फिर से कुछ करेगी, और खरीददारी के लिए बाजार आएगी।

 1975 से 1977 तक देश एक जेलखाना था।  नेता बंद थे और जनता भी। जेलखाने से पिट कर निकले तो उत्तर-दक्षिण, पूरब-पच्छिम एक साथ हो लिए।  उन्हें कतई विश्वास नहीं था कि कुछ कर पाएँगे। वह जनता ही थी जिसने एक तानाशाह के सारे कस-बल निकाल दिए और उन्हें सब-कुछ बना दिया।  लेकिन जब पूरब,पश्चिम,उत्तर,दक्षिण जनता को मूर्ख मान फिर से अपनी ढपली अपना राग गाने लगे, तो उसी ने उन्हें ठिकाने लगा दिया। बताया कि तुम से तो कस-बल निकला तानाशाह अच्छा।

वह चाहती तो न थी,  कि तानाशाह वापस आए, चाहे उस के कस-बल निकल ही क्यों न गए हों। पर विकल्प कहाँ था? विकल्प आज भी कहाँ है? इधर कुआँ है उधर खाई है। दोनों में से एक को चुनना है। क्या करे? वह स्तंभित खड़ी है, एक ही स्थान पर। जिधर से झोंका आता है, बैलेंस बनाने को उसी ओर हो जाती है।  यही एक मार्ग है उस के पास, जब तक कि खाई न पटे, या कुंएँ के पार जाने की कोई जुगत न लग जाए। जिस दिन जुगत लग जाएगी, उस दिन दिखा देगी कि वह क्या है?

सच कहूँ, मेरे लिए,  जनता भगवान है, वही दुनिया रचती है, वही ध्वंस भी करती है और फिर रचती है।
कैसे कहूँ वह मूरख है? वह तो ज्ञानी है। उस सा ज्ञानी कोई नहीं।
तो मूरख कौन?
सब तें मूरख उन को जानी।   जनता जिन ने मूरख मानी।।

शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

लिव-इन-रिलेशनशिप 65% से अधिक भारतीय समाज की वास्तविकता है

समाज और लोग कितना ही नाक भौंह सिकोडें, कितने ही कुढ़ लें और कितनी ही आलोचना कर लें। लिव-इन-रिलेशन (सहावासी) रिश्ता अब एक ठोस वास्तविकता है, इस नकारा जाना नामुमकिन है। विवाह जहाँ एक सामाजिक बन्धन है वहीं इस रिश्ते में सामाजिक मुक्ति है। न कोई सामाजिक दायित्व है और न ही कोई कर्तव्य। कोई एक दूसरे के लिए कुछ दायित्व समझता भी है, तो बिना किसी दबाव के। एक पुरुष और एक स्त्री साथ रहने लगते हैं। वे किसी सामाजिक और कानूनी बंधन में नहीं बंधते। फिर भी उन के बीच एक बंधन है। क्या चीज  है? जो उन्हें बांधती है। यह अब एक शोध का विषय हो सकता है। इस विषय पर सामाजिक विज्ञानी काम कर सकते हैं। "भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष के बीच सहावासी संबंध" समाज विज्ञान के किसी विद्यार्थी के लिए पीएचडी का विषय हो सकता है। हो सकता है कि किसी विश्वविद्यालय ने इस विषय का पंजीयन कर लिया ह,  न भी किया हो तो शीघ्र ही भारतीय विश्वविद्यालयों के लिए सहावासी संबंध शोध के लिए लोकप्रिय होने वाला है और अनेक लोग इसे पंजीकृत करवाने वाले हैं।

समाज सदैव से एक जैसा नहीं रहा है। आदिम युग से ले कर आज तक उसने अनेक रूप बदले हैं। समाज की इकाई परिवार भी अनेक रूप धारण कर आज के विकसित परिवार तक पहुँचा है। पुरुष और स्त्री के मध्य संबंधों ने भी अनेक रूप बदले हैं और अभी भी रूप बदला जा रहा है। सहावास का रिश्ता जब इक्का दुक्का था, समाज को इस से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, केवल निन्दा और बहिष्कार से काम चल जाता था।। लेकिन जब उस ने विस्तार पाना प्रारंभ कर दिया तो समाज के माथे पर लकीरें खिंचनी शुरू हो गई। भारत की सर्वोच्च अदालत ने कहा -कि जो पुरुष पहली पत्नी के साथ संबंध विच्छेद किए बिना, किसी भी एक पक्ष के रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह कर दूसरी पत्नी के साथ रहने लगते हैं। ऐसे विवाह को पर्सनल कानून के अनुसार साबित करना असंभव हो जाता है। इस कथन पर अपराधिक न्याय व्यवस्था पर मालीमथ कमेटी की रिपोर्ट ने महिलाओं के विरुद्ध अपराधों के सम्बन्ध में अपनी बात रखते हुए कहा -कि जब एक पुरुष और स्त्री एक लम्बे समय तक पति-पत्नी की तरह साथ रहने की साक्ष्य आ  जाए तो यह मान लेने के लिए पर्याप्त होना चाहिए कि वे अपने रीति रिवाजों के अनुसार विवाह कर चुके हैं। ऐसी स्थिति में किसी पुरुष के पास अपनी इस दूसरी पत्नी के भरण पोषण से बचने का यह मार्ग शेष नहीं रहना चाहिए कि वह महिला पुरुष की विधिवत विवाहित पत्नी नहीं है।

सर्वोच्च न्यायालय के इस प्रेक्षण और मालिमथ कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर ही महाराष्ट्र सरकार ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के पत्नी शब्द के स्पष्टीकरण में इस संशोधन का प्रस्ताव किया है कि उचित समय तक सहावासी रिश्ते के रूप में निवास करने वाली स्त्री को भी पत्नी माना जाएगा। ( इस संबंध में एक आलेख लिव-इन-रिलेशनशिप और पत्नी पर बेमानी बहस तीसरा खंबा पर पढ़ा जा सकता है।)

इस मसले पर समस्त माध्यमों में बहस प्रारंभ हो गई है, और बिना सोचे समझे दूर तक जा रही है। लेकिन न्यायालय ने तो केवल समाज की वर्तमान स्थिति में न्याय करने में हो रही कठिनाइयों का उल्लेख किया था। उस कठिनाई को हल करने के लिए विधायिका एक कदम उठा रही है। वास्तव में यह रिश्ता एक सामाजिक यथार्थ बन चुका है।

भारतीय समाज में अनुसूचित जातियों की जनसंख्या 16.2 % अनुसूचित जन जातियों की जनसंख्या 8.2 % तथा अन्य पिछड़ी जातियों की जनसंख्या 41.1% है। इन तीनों की कुल जनसंख्या देश की 65.5 % है और लगभग इन सभी जातियों में नाता प्रथा है। अर्थात दूसरा विवाह कर लेने का रीति रिवाज कायम है और ये समाज इस सहावासी रिश्ते को मान्यता देते हैं। तब यदि कानून इस रिश्ते को अनदेखा कर दे तो वहाँ पारिवारिक न्याय कर पाना और पारिवारिक अपराधों को रोक पाना कठिन हो जाएगा, और यह हो रहा है।

इस विषय पर जो लम्बी-चौड़ी नैतिक बहसें चल रही हैं, उन्हें कुलीन समाज का विलाप मात्र  ही कहा जा सकता है कि देश का कानून यदि 65% जनता को मान्य रिश्ते को कानूनी रुप प्रदान करता है तो इस से कुलीन समाज और विवाह संस्था की पवित्रता नष्ट हो जाएगी।

रविवार, 7 सितंबर 2008

गणेशोत्सव और समृद्धि की कामना

"गणेश चतुर्थी के दूसरे दिन गणेश गौण हो जाते हैं। उस के बाद एक देवी का नाम सुनने को मिलता है। यह देवी है गौरी; किन्तु यह पौराणिक देवताओं वाली गौरी नहीं है। इस के बजाए वह केवल कुछ पौधों की गठरी है। जिस के साथ ही एक मानव प्रतीकात्मक प्रतिमा अर्थात् एक कुमारी कन्या की प्रतिमा होती है। स्त्रियाँ पौधे एकत्र करती हैं और उसे हल्दी से बनाई गई चौक (अल्पना) के ऊपर रख देती हैं। जब इन का गट्ठर बनाया जाता है तो विवाहिता स्त्रियों को सिंदूर दिया जाता है। व्रत की सारी क्रियाएँ पौधों के इस गट्ठर के आस पास होती हैं जिन में केवल स्त्रियाँ भाग लेती हैं। इन पौधों और कुंवारी कन्या को घर के प्रत्येक कमरे में  ले जाया जाता है और प्रश्न किया जाता है : गौरी गौरी तुम क्या देख रही हो? कुमारी उत्तर देती है 'मुझे समृद्धि और धनधान्य की बहुलता दिखाई दे रही है"। गौरी के इस नाटकीय आगमन को वास्तविकता का पुट देने के लिए फर्श पर उसके पैरों के निशान बनाए जाते हैं। जिस से इसमें इस बात का आभास दिया जाता है कि वह वास्तव में इन कमरों में आई।
अगले दिन समारोह शुरू होने पर चावल और नारियल की गिरी से बने पिंड देवी के सामने रखे जाते हैं। प्रत्येक हाथ से काता हुआ सुहागिन अपने से सोलह गुना लंबा सूत ले कर गौरी के सामने रखती है। फिर शाम को घर की सब लड़कियाँ बहुत देर तक गाती और नाचती हैं। फिर गौरी के समक्ष गाने और नाचने के लिए अपनी सखियों के घर जाती हैं। अगले दिन प्रतिमा को अर्धचंद्राकार मालपुए की भेंट चढ़ाई जाती है। फिर प्रत्येक स्त्री वह सूत जो पिछली रात प्रतिमा के सामने रखा था उठा लेती है और इस सूत का छोटा गोला बना कर सोलह गांठें लगा लेती है। फिर इन्हें हल्दी के रंग में रंगा जाता है। और तब हर स्त्री इसे गले में पहन लेती है। सूत का यह हार वह अगले फसल कटाई दिवस तक पहने रहती है और फिर उस दिन उसे शाम के पहले उतार कर विधिपूर्वक नदी में विसर्जित कर देती है। इस बीच जिस दिन यह सूत का हार गले में पहना जाता है उस दिन उसे नदी या तालाब में विसर्जित कर दिया जाता है। और उस के किनारे से लाई गई मिट्टी को घर लाकर सारी जगह और बगीचे में बिखेर दिया जाता है। यहाँ स्त्री ही देवी प्रतिमा को नदी तक ले जाती है और उसे यह चेतावनी दी जाती है कि पीछे मुड़ कर  नहीं देखे।
इस व्रत या अनुष्ठान के पीछे एक कहानी भी है कि एक व्यक्ति अपनी निर्धनता से तंग आ कर डूबने के लिए नदी पर गया। वहाँ उसे एक विवाहित वृद्धा मिली उसने इस निर्धन को घर लौटने को राजी किया और वह स्वयं भी उसी के साथ आई उस के साथ समृद्धि भी आई। अब वृद्धा के वापस लौटने का समय आ गया। वह व्यक्ति उसे नदी पार ले गया जहाँ वृद्धा ने नदी किनारे से मुट्ठी भर मिट्टी उठा कर उसे दी और कहा समृद्धि चाहता है तो इस मिट्टी को अपनी सारी संपत्ति पर बिखेर दे, वृद्धा ने उस से यह भी कहा कि हर साल भाद्र मास में वह गौरी के सम्मान में इसी प्रकार का अनुष्ठान किया करे।"
इस अनुष्ठान के संबंध में गुप्ते के विचार इस प्रकार है-
इस क्रिया के तार्किक संकेत यह है कि :
1.   नदी या तालाब के किनारे वाली कछारी भूमि वास्तव में खेतीबाडी के लिए सब से उपयुक्त है;
2.  वृद्ध स्त्री प्रतीक है जाते हुए पुराने मौसम का;
3.  युवा लड़की नए मौसम का प्रतीक है जो खिलने के लिए तैयार है;
4.  लेटी हुई आकृति अथवा पुतला संभवतः पुराने मौसम के मृत शरीर का प्रतीक और चावल और मोटे अनाज की जो भेंट चढ़ाई जाती है, वह यही संकेत देता है कि उस समय यह अनाज प्रस्फुटित हो रहा है।
5.  अनाज की यह भेंट धान की नई फसल भादवी की आशा में दी जाती है किन्तु लेटी हुई आकृति की आत्मा का मध्यरात्रि को शरीर त्यागना, उस मौसम में खेतों में काम करने के अंतिम दिनों का संकेत है, लेटी हुई आकृति को धरती मांता की गोद मे सुला देना, चारों ओर रेत का बिखेरा जाना और सोलह गांठों वाले गोले बनाना, ये सब मौसम, पुराने मौसम की समाप्ति नए मौसम के समारंभ के प्रतीक हैं जो सारे संसार की आदिम जातियों द्वारा मनाए जाते हैंर यहा इन्हें हिन्दू रूप दे दिया गया है। सोलह गांठे लगाना और सोलह सूत्रों के गोले बनाना और फिर उसका हार बना लेना, इस बात का संकेत है कि धान की फसल के लिए इतने ही सप्ताह लगते हैं।
गुप्ते के उक्त विवरण की व्याख्या करते हुए चटोपाध्याय कहते हैं- सारे अनुष्ठान का केन्द्र भरपूर फसल की इच्छा है। सारा अनुष्ठान कृषि से संबंधित है और इसे केवल स्त्रियाँ ही करती हैं। यहाँ गणेशपूजा को नयी फसल के आगमन के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया है और उन की तुलना मैक्सिको की अनाज की देवी, टोंगा द्वीप समूह की आलो आनो, ग्रीस की दिमित्तर या रोम की देवी सेरीस से की है। आश्चर्य है कि ये सभी देवियाँ हैं। वस्तुतः कृषि की खोज होते ही देवताओं को पीछे हट जाना पड़ा। वे गुप्ते का विवरण पुनः प्रस्तुत करते हैं-
मुख्य देवी गौरी के पति शिव ने चोरी चोरी उन का पीछा किया और उन की साड़ी की बाहरी चुन्नट में छिपे रहे। शिव का प्रतीक लोटा है जिसमें चावल भरे होते हैं और नारियल से ढका रहता है।  
मेरा स्वयं का भी यह मानना है कि गणेश पूजा सहित भाद्रमास के शुक्ल पक्ष में मनाए जाने वाले सभी त्योहारों और अनुष्ठानों का संबंध भारत में कृषि की खोज, उस के विकास और उस से प्राप्त समृद्धि से जुड़ा है। बाद में लोक जीवन पर वैदिक प्रभाव के कारण उन के रूप में परिवर्तन हुए हैं। पूरे भारत के लोक जीवन से संबद्ध इन परंपराओं का अध्ययन किया जाए तो भारतीय जनता के इतिहास की कड़ियों को खोजने में बड़ी सफलता मिल सकती है। 

गुरुवार, 3 जुलाई 2008

हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी

चिट्ठाकार समूह पर कल भाई अविनाश गौतम ने पूछा कि 'संस्करण' के लिए उर्दू शब्द क्या होगा तो अपने अनुनाद सिंह जी ने जवाब में जुमला थर्राया कि अपने दिनेशराय जी कहते हैं कि हिन्दी और उर्दू एक ही भाषाएँ हैं और आप संस्करण के लिए उर्दू शब्द पूछ रहे हैं। मेरे खयाल से आप को समानार्थक अरबी या फारसी शब्द चाहिए। और अविनाश जी का आग्रह पुनः आया कि अरबी हो या फारसी या बाजारू आप को पता हो तो बता दीजिए। आग्रह माना गया और शब्द खोज पर शब्द बरामद हुआ वह "अशीयत" या "आशियत" था। इस के साथ ही और भी कुछ खोज में बरामद हुआ।
नॉर्थ केरोलिना स्टेट युनिवर्सिटी के कॉलेज ऑफ ह्युमिनिटीज एण्ड सोशल साइंसेज के विदेशी भाषा एवं साहित्य विभाग मे हिन्दी-उर्दू प्रोग्राम के सहायक प्रोफेसर Afroz Taj अफरोज 'ताज' ने उन की पुस्तक Urdu Through Hindi: Nastaliq With the Help of Devanagari (New Delhi: Rangmahal Press, 1997) में हिन्दी उर्दू सम्बन्धों पर रोशनी डाली है यहाँ मैं उन के विचारों को अपनी भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयत्न कर रहा हूँ:

दक्षिण एशिया में एक विशाल भाषाई विविधता देखने को मिलती है।  कोई व्यक्ति कस्बे से कस्बे तक. या शहर से दूसरे शहर तक, या एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक यात्रा करे तो वह  लहजे में, परिवर्तन, बोलियों में परिवर्तन, और भाषाओं में परिवर्तन देखेगा। भाषाओं के मध्य उन्हें विलग करने वाली रेखाएं अक्सर अस्पष्ट हैं। वे एक दूसरे में घुसती हुई, घुलती हुई, मिलती हुई धुंधला जाती हैं।  यहाँ तक कि एक ही सड़क, एक ही गली  में बहुत अलग-अलग तरह की भाषाएँ देखने को मिलेंगी। एक  इंजीनियरिंग का छात्र, एक कवि, एक नौकर और एक मालिक सब अलग-अलग लहजे, शब्दों और भाषाओं में बात करते पाए जाएँगे।
फिर वह क्या है?  जिस से हम एक भाषा को परिभाषित कर सकते हैं। वह क्या है जो भाषा को अनूठा बनाता है?



क्या वह उस के लिखने की व्यवस्था अर्थात उस की लिपि है? या वह उस का शब्द भंडार है? या वह उस के व्याकरण की संरचना है? हम एक भाषा को उस के लिखने के तरीके या लिपि से पहचानने का प्रयास करते हुए केवल भ्रमित हो सकते हैं। अक्सर असंबन्धित भाषाऐं एक ही लिपि का प्रयोग करती हैं। किसी भी भाषा का रूपांतरण उस की मूल ध्वनियों और संरचना को प्रभावित किए बिना एक नयी लिपि में किया जा सकता हे। विश्व की अधिकांश भाषाओं ने अपनी लिपि अन्य भाषाओं से प्राप्त की है। उदाहरण के रूप में अंग्रेजी, फ्रांसिसी और स्पेनी भाषाओं ने अपनी लिपियाँ लेटिन से प्राप्त की हैं। लेटिन के अक्षर प्राचीन ग्रीक अक्षरों से विकसित हुए हैं। जापानियों ने अपने शब्दारेख चीनियों से प्राप्त किए हैं। बीसवीं शताब्दी में इंडोनेशियाई और तुर्की भाषओं ने अरबी लिपि को त्याग कर रोमन लिपि को अपना लिया। जिस से उन की भाषा में कोई लाक्षणिक परिवर्तन नहीं आया। अंग्रेजी को मोर्स कोड, ब्रेल, संगणक की द्वि-अँकीय लिपि में लिखा जा सकता है। यहाँ तक कि देवनागरी में भी लिखा जा सकता है, फिर भी वह अंग्रेजी ही रहती है।  

तो केवल मात्र व्याकरण की संरचना ही है, जिस के लिए कहा जा सकता है कि उस से भाषा को चिन्हित किया जा सकता है। लिपि का प्रयोग कोई महत्व नहीं रखता, यह भी कोई महत्व नहीं रखता कि कौन सी शब्दावली प्रयोग की जा रही है? एक व्याकरण ही है जो नियमित और लाक्षणिक नियमों का अनुसरण करता है। ये नियम क्रिया, क्रियारूपों, संज्ञारूपों, बहुवचन गठन, वाक्य रचना आदि हैं, जो एक भाषा में लगातार एक जैसे चलते हैं, और विभिन्न भाषाओं में भिन्न होते हैं। इन नियमों का तुलनात्मक अध्ययन हमें एक भाषा को दूसरी से पृथक करने में मदद करते हैं। इन अर्थों में हिन्दी और उर्दू जिन की व्याकरणीय संरचना एक समान और एक जैसी है, एक ही भाषा कही जाएँगी।  

हिन्दी और उर्दू का विकास कैसे हुआ? और इस के दो नाम क्यों है? इस के लिए हमें भारत की एक हजार वर्ष के पूर्व की भाषाई स्थिति में झांकना चाहिए। भारतीय-आर्य भाषा परिवार ने दक्षिण एशिया में प्राग्एतिहासिक काल में आर्यों के साथ प्रवेश किया और पश्चिम में फारसी काकेशस से पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक फैल गईं। संस्कृत की परवर्ती बोलियाँ जिन में प्रारंभिक हिन्दी की कुछ बोलियाँ, मध्यकालीन पंजाबी, गुजराती, मराठी और बंगाली सम्मिलित हैं, साथ ही उन की चचेरी बोली फारसी भी इन क्षेत्रों में उभरी। पूर्व में भारतीय भाषाओं ने प्राचीन संस्कृत की लिपि देवनागरी को विभिन्न रूपों में अपनाया। जब कि फारसी ने पश्चिम में अपने पड़ौस की अरबी लिपि को अपनाया। हिन्दी अपनी विभिन्न बोलियों खड़ी बोली, ब्रजभाषा, और अवधी समेत मध्य-उत्तरी भारत में सभी स्थानों पर बोली जाती रही।

लगभग सात शताब्दी पूर्व दिल्ली के आसपास के हिन्दी बोलचाल के क्षेत्र में एक भाषाई परिवर्तन आया। ग्रामीण क्षेत्रों में ये भाषाएँ पहले की तरह बोली जाती रहीं। लेकिन दिल्ली और अन्य नगरीय क्षेत्रों में फारसी बोलने वाले सुल्तानों और उन के फौजी प्रशासन के प्रभाव में एक नयी भाषा ने उभरना आरंभ किया, जिसे उर्दू कहा गया।  उर्दू ने हिन्दी की पैतृक बोलियों की मूल तात्विक व्याकरणीय संरचना और शब्दसंग्रह को अपने पास रखते हुए, फारसी की नस्तालिक लिपि और उस के शब्द संग्रह को भी अपना लिया। महान कवि अमीर खुसरो (1253-1325) ने उर्दू के प्रारंभिक विकास के समय फारसी और हिन्दी दोनों बोलियों का प्रयोग करते हुए फारसी लिपि में लिखा। 

विनम्रता पूर्वक कहा जाए तो सुल्तानों की फौज के रंगरूटों में बोली जाने वाली होच-पोच भाषा अठारवीं शताब्दी में सुगठित काव्यात्मक भाषा में परिवर्तित हो चुकी थी।

यह महत्वपूर्ण है कि शताब्दियों तक उर्दू मूल हिन्दी की बोलियों के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर विकसित होती रही। अनेक कवियों ने दोनों भाषाओं में सहजता से रचनाकर्म किया। हिन्दी और उर्दू में अन्तर वह केवल शैली का है। एक कवि समृद्धि की आभा बनाने के लिए उर्दू-फारसी के सुंदर, परिष्कृत शब्दों का प्रयोग करता था और दूसरी ओर ग्रामीण लोक-जीवन की सहजता लाने के लिए साधारण ग्रामीण बोलियों का उपयोग करता था। इन दोनों के बीच बहुमत लोगों द्वारा दैनंदिन प्रयोग में जो भाषा प्रयोग में ली जाती रही उसे साधारणतया हिन्दुस्तानी कहा जा सकता है।
क्यों कि एक हिन्दुस्तानी की रोजमर्रा बोले जाने वाली भाषा किसी वर्ग या क्षेत्र विशेष की भाषा नहीं थी, इसी हिन्दुस्तानी को आधुनिक हिन्दी के आधार के रूप में भारत की ऱाष्ट्रीय भाषा चुना गया है।  आधुनिक हिन्दी अनिवार्यतः फारसी व्युत्पन्न साहित्यिक उर्दू के स्थान पर संस्कृत व्युत्पन्न शब्दों से भरपूर हिन्दुस्तानी है। इसी तरह से उर्दू के रूप में हिन्दुस्तानी को पाकिस्तान की राष्ट्रीय भाषा के रूप में अपनाया गया। क्योंकि वह भी आज के पाकिस्तान के किसी क्षेत्र की भाषा नहीं थी।
इस तरह जो हिन्दुस्तानी भाषा किसी की वास्तविक मातृभाषा नहीं थी वह आज दुनियाँ की दूसरी सब से अधिक बोले जाने वाली भाषा हो गई है और सबसे अधिक आबादी वाले भारतीय उप-महाद्वीप में सभी स्थानों पर और पृथ्वी के अप्रत्याशित कोनों में भी समझी जाती है।