नहि सुप्तस्य सिंहस्य: प्रविशन्ति मुखे मृगा:॥
हिन्दी के सक्रियतम ब्लागर (चिट्ठा जगत रेंक) श्री ज्ञानदत्त जी पाण्डेय ने उक्त श्लोक अपनी आज की पोस्ट उद्यम और श्रम में उदृत किया है। इस श्लोक का अर्थ है कि कार्य मात्र मनोरथ से नहीं अपितु उद्यम से सिद्ध होते हैं। सोते हुए सिंह के मुख में मृग प्रवेश नहीं करता। सिंह को अपने लिए आहार जुटाने के लिए किसी पशु को आखेट का उद्यम करना होता है। क्षुधा होने पर सिंह का शिकार का मनोरथ बनता है। तत्पश्चात उसे पहले शिकार तलाशना होता है। फिर उचित अवसर देख उस का शिकार करना पड़ता है। बहुधा उसे शिकार का पीछा कर के उसे दबोचना पड़ता है, मारना पड़ता है और फिर उसे खाना पड़ता है।
सिंह की शारीरिक आवश्यकता से मनोरथ उत्पन्न होता है, लेकिन इस मनोरथ की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार के श्रम करने की जो श्रंखला पूरी करनी होती है उसे ही उद्यम कहा गया है। हम पाते हैं कि श्रम उद्यम का अनिवार्य घटक है। उस की दो श्रेणियाँ हैं। पहली शारीरिक और दूसरी मानसिक। सिंह की शारीरिक अवस्था उस में मनोरथ उत्पन्न करती है, अर्थात शिकार का विचार सिंह की भौतिक परिस्थितियों से उत्पन्न होता है। फिर भौतिक परिस्थितियों में किए गए अनुभव के आधार पर मानसिक श्रम और अपने भौतिक बल के आधार पर शारीरिक श्रम करना पड़ता है।
उक्त उद्धरण संस्कृत भाषा के साहित्य से लिया गया है। वामन शिवराम आप्टे के संस्कृत हिन्दी शब्दकोष में उद्यम और श्रम से संबंधित शब्दों के अर्थ निम्न प्रकार बताए गए हैं-
उद्यमः [उद्+यम्+घञ्] = 1.उठाना, उन्नयन 2. सतत् प्रयत्न, चेष्टा, परिश्रम, धैर्य।
उद्यमिन् [उद्+यम्+णिनि] = परिश्रमी, सतत प्रयत्नशील।
उद्योगः [उद्+युज्+घञ्] प्रयत्न, = चेष्टा, काम धंधा।
उद्योगिन् [उद्+युज्+घिणुन्] प्रयत्न, = चुस्त, उद्यमी, उद्योगशील।
श्रम् = 1.चेष्ठा करना, उद्योग करना, मेहनत करना, परिश्रम करना, 2.तपश्चर्या करना। 3. श्रांत होना, थकना, परिश्रान्त होना।
उद्यमिन् [उद्+यम्+णिनि] = परिश्रमी, सतत प्रयत्नशील।
उद्योगः [उद्+युज्+घञ्] प्रयत्न, = चेष्टा, काम धंधा।
उद्योगिन् [उद्+युज्+घिणुन्] प्रयत्न, = चुस्त, उद्यमी, उद्योगशील।
श्रम् = 1.चेष्ठा करना, उद्योग करना, मेहनत करना, परिश्रम करना, 2.तपश्चर्या करना। 3. श्रांत होना, थकना, परिश्रान्त होना।
श्रमः [श्रम् + घञ्] 1.मेहनत, परिश्रम, चेष्टा, 2.थकावट, थकान, परिश्रांति 3. कष्ट, दुःख, 4. तपस्या, साधना 5. व्यायाम, विशेषतः सैनिक व्यायाम, 6. घोर अध्ययन।
उक्त सभी शब्दों के अर्थों के अध्ययन से स्पष्ट है कि श्रम उद्यम का अविभाज्य अंग है। उस की उपेक्षा करने से उद्यम संभव नहीं है। मनोरथ की पूर्ति के लिए शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम के संयोग को ही उद्यम कहा गया है।
ज्ञान जी ने उक्त आलेख में जिस तरह से श्रम को पूंजी के साथ वर्णित किया है, उस का प्रभाव यह है कि श्रम तुच्छ है और श्रमिक को अपने हक की मांग नहीं करनी चाहिए, उसे उचित हक दिलाने वाले कानून नहीं होने चाहिए और उसे अपने साथ होने वाले अन्याय के प्रति संगठित नहीं होना चाहिए। इस का यह भी प्रभाव है कि आलेख को पढ़ने वाला व्यक्ति श्रम से कतराने लगे। श्रम को उचित सम्मान नहीं देने और उसे एक निकृष्ठ मूल्य के रूप में स्थापित किए जाने से ही समाज में अकर्मण्यता की उत्पत्ति होती है। आज यह मूल्य स्थापित हो गया है कि काम को ईमानदारी से करने वाला गधा है, उस पर लादते जाओ और जो काम न करे उस से बच कर रहो। ज्ञान जी द्वारा प्रस्तुत उदाहरण केवल एक व्यक्ति के श्रम के बारे में है और एक बली और सशक्त पशु से उठाया गया है। जहाँ केवल प्रकृति जन्य साधनों से जीवन यापन किया जा रहा है। इस उदाहरण की तुलना में मनु्ष्य समाज अत्यधिक जटिल है। मनुष्य ही एक मात्र प्राणी है जो प्रकृति से वस्तुओं को प्राप्त कर उन पर श्रम करते हुए उन का रूप परिवर्तित करता है उस के बाद उन्हें उपभोग में लेता है।
आज कल श्रम को एक श्रेष्ठ मूल्य मानने और उसे स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील रहने के विचार को लगातार निम्न कोटि का प्रदर्शित करने का फैशन चल निकला है जो लगातार श्रमशील लोगों में हीन भावना उत्पन्न करता है। का प्रयास इस में उन लालझंडा धारी लोगों का भी योगदान है जिन्हों ने पथभ्रष्ट हो कर श्रम के मूल्य को समाज में स्थापित करने के नाम पर इस मूल्य के साथ बेईमानी की है। इसी मूल्य के नाम पर उन्हों ने श्रम जगत के साथ घोर विश्वासघात किया है। लेकिन इस विश्वासघात से श्रम के एक श्रेष्ट मूल्य होने में कोई बाधा नहीं पड़ती। किसी के कह देने से हीरा कोयला नहीं हो जाता, आग को शीतल कह देने से उस की जलाने की क्षमता पर कोई असर नहीं पड़ता।
ज्ञान जी ने कोटा और सवाई माधोपुर के जो उदाहरण दिए हैं वे सही नहीं हैं। संभवतः उन की जानकारी इस मामले में वही रही जो उन्हें किसी से सुनने को मिली या जो माध्यमों द्वारा प्रचारित की गई। इन दोनों मामलों के बारे में मेरे व्यक्तिगत अनुभव हैं और जो तथ्य हैं वे खुद उन उद्योगों के मालिकों द्वारा अपनी बैलेंसशीटस् से उद्भूत हैं। इन मामलों के निपटारे में अदालतों में देरी भी प्रबंधकों द्वारा की गई है। जिस से जितना माल खिसकाया जा सके खिसका लिया जाए। फिर कंपनी बंद, श्रमिक किस से अपनी मजदूरी और लाभ प्राप्त करेंगे। इन मामलों को अपने ब्लाग के माध्यम से उजागर करने की मेरी इच्छा रही है। लेकिन समय का अभाव इस में बाधक रहा है। बहुत से दस्तावेज अवश्य मेरे कम्प्यूटर के हार्ड ड्राइव में अंकित हैं जिन्हें प्रस्तुत किया जा सकता है। कभी इस का अवसर हुआ तो अवश्य ही प्रस्तुत करने का प्रयत्न करूंगा।
मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि कभी भी कोई उद्योग किसी यूनियन की हड़ताल के कारण बंद नहीं होता। लेकिन उसे प्रत्यक्ष रुप में कारण प्रचारित करने में बहुत धन खर्च किया जाता है। बहुधा वास्तविक कारण कम लाभ के उद्योग से पूंजी निकाल कर अधिक लाभ के उद्योगों में निवेश करना होता है। सभी उद्योग पुराने होने के कारण जीर्ण हो कर बंद होते हैं, पर अधिकांश पहले कारण से जीर्णावस्था प्राप्त होने के पहले ही उद्योगपतियों द्वारा बंद कर दिए जाते हैं। जब उद्योग को बंद करना होता है तो सब से पहले उद्योगपति विभिन्न प्रशासनिक खर्चे बता जितनी पूंजी को काला कर अपनी जेब के हवाले कर सकते हैं कर लेते हैं। जिस से वह उद्योग घाटा दिखाने लगता है। फिर बैंकों से लिए गए उधार में कटौती चाहते हैं। पुनर्चालन (रिवाईवल) के नाम पर उधार में छूट प्राप्त कर लेते हैं। फिर उद्योग को चलाने का नाटक करते हैं। इस के लिए वे हमेशा किसी ऐसी कंपनी को चुनते हैं जिसे कबाड़ा बेचने का अनुभव हो। वह धीरे धीरे अपना काम करता है और उद्योग की अधिकांश संपत्ति को ठिकाने लगा देता है। कंपनी को न चलने योग्य घोषित कर दिया जाता है। श्रमिकों के बकाया के चुकारे के लिए कुछ शेष छोड़ा ही नहीं जाता। उद्योगों की भूमि हमेशा उद्योग की कंपनी के पास लीज पर होती है। सरकार उसे अधिग्रहीत कर लेती है। उसी समय नेतागण उसे हड़पने के चक्कर में होते हैं। उद्योग के लिए आरक्षित भूमि सस्ते दामों पर नेता लोग हथिया लेते हैं और उसे बाद में आवासीय और व्यावसायिक भूमि में परिवर्तित कर करोडों का वारा न्यारा कर लेते हैं। श्रमिकों को कुछ नहीं मिलता। उन में से अनेक और उन के परिजन आत्महत्या कर लेने को बाध्य होते हैं। शेष अपनी लड़ाई लड़ने में अक्षम हो कर नए कामों पर चले जाते हैं। कुल मिला कर काला धन बनाने वाला उद्यमी सरकार, सार्वजनिक बैंकों की पूंजी और श्रमिकों सब को धता बता कर अपनी पूँजी आकार बढा़ता है। यदि यही उद्यम है तो इसे दुनिया से तुरंत मिट जाना चाहिए।
यह सही है कि हमारा कानून दिखाने का अधिक और प्रायोगिक कम है। इसे वास्तविक परिस्थितियों के अनुकूल बनाया जाना चाहिए। न्याय व्यवस्था को चाक-चौबंद और तीव्र गति से निर्णय करने वाली होना चाहिए। लेकिन उस के लिए कितने लोग संघर्ष करते दिखाई देते हैं? श्रम कानून संशोधित किए जाने चाहिए और उन की पालना भी सुनिश्चित की जानी चाहिए। बीस वर्ष पहले श्रम कानून श्रमिकों के पक्ष में दिखाई देते थे। उन्हें बदलने के लिए 1987 में एक बिल भी लाया गया था। जिसे स्वयं उद्योगपतियों की पहल पर डिब्बे में बंद कर दिया गया। क्यों कि उस बिल की अपेक्षा श्रम कानूनों को लागू करने वाली मशीनरी को पक्षाघात की अवस्था में पहुँचाना उन्हें अधिक उचित लगता था। आज श्रम कानूनों की पालना नहीं हो रही है। न्यायपालिका की सोच उसी तरह बदल दी गई है। बिना एक भी कानून के बदले समान परिस्थितियों में जजों के निर्णय श्रमिकों के पक्ष में होने के स्थान पर मालिकों के पक्ष में होने लगे हैं। जजों की सोच को कंपनियों ने रिटायरमेंट के बाद काम देने का प्रलोभन दे दे कर बदल दिया है।
यह भी सही है कि उद्यम में पूंजी, श्रम और दिमाग सब लगते हैं। दिमाग का काम भी श्रम ही है और पूंजी भी संचित श्रम ही है। यदि उद्यमी को श्रम से प्रथक मानें तो भी प्रत्येक उद्यमी के साथ दसियों/ सैंकड़ों श्रमिक भी चाहिए।
यह भी सही है कि उद्यम में पूंजी, श्रम और दिमाग सब लगते हैं। दिमाग का काम भी श्रम ही है और पूंजी भी संचित श्रम ही है। यदि उद्यमी को श्रम से प्रथक मानें तो भी प्रत्येक उद्यमी के साथ दसियों/ सैंकड़ों श्रमिक भी चाहिए।
आधुनिक श्रमजीवी (एक पूर्णकालिक सोफ्टवेयर इंजिनियर)
आमिर कसाब और अफजल गुरू वाला मामला भी न्याय प्रणाली के पक्षाघात का है। उसे पक्षाघात से निकाला जाना जरूरी है। यह तो कैसे हो सकेगा कि आप कुछ मामलों में चुन कर शीघ्र न्याय करें और शेष को बरसों में निपटने के लिए छोड़ दें। आमिर कसाब और अफजल गुरू को शीघ्र सजा दे कर भारतीय जनता के घावों को ठंडक अवश्य पहुँचाई जा सकती है, लेकिन जनता के घावों को तो समूची न्याय प्रणाली को द्रुत और भ्रष्टाचारहीन बना कर ही किया जा सकता है। जिस के लिए देश में सतत आंदोलन की आवश्यकता है। अभी आमिर कसाब और अफजल गुरू के मामलों की रोशनी में दृढ़ इच्छा शक्ति के राजनैतिक दल या सामाजिक संस्थाएँ यह आंदोलन खड़ा कर सकती थीं। लेकिन न्याय होने में किस की रुचि है?
15 टिप्पणियां:
राव जी की बात से सहमत।
ज्ञानजी ने बताया है कि इमोशनल ज्ञानदत्त पाण्डेय ने वह लेख लिखा है(शायद दूसरे भाग के लिये ही उन्होंने कहा हो यह)
आपने जिस तरह से चीजो को विश्लेषित किया है उससे एक नये आयाम मे जाने और बातो को समझने का मौका मिला.
बहुत मेहनत से लिखा गया लेख। सही विश्लेषण।
श्रम की भरपायी न हो, श्रम से रोटी अर्जित न की जा सके तो किस काम का। बेगारी करानवाले समजा को नष्ट होना ही चाहिए। आज वैसा तो नहीं है।
सवाल यह है कि श्रमिकों के हितों की बात करनेवाले लेफ्टिस्टों को कितनी परवाह है श्रमिकों की? वो तो सिर्फ सत्ता की गोटियां बैठाते हैं, जातिगत समीकरणों पर अमल करते हैं। सिर्फ हड़तालों के बूते उन्होंने इस देश से ही नहीं दुनियाभर से श्रमिकों के हितों के इस बेहतरीन हथियार अर्थात हड़ताल को नुकसानदेह बना दिया है। आज आप उन शर्तों पर काम करते हैं कि अपना संगठन नहीं बना सकते। बदले में पढ़ेलिखे तबके को ऐसी तनख्वाह भी मिल रही है, मगर बाकी अल्पवेतन भोगियों का क्या? इस देश के श्रमिक नेताओं की जबर्दस्त हार हुई है। वे नाकारा और मतलबपरस्त साबित हुए हैं।
मुझे कुछ कुछ याद है पूर्व में विशेष मामलों में विशेष अदालत गठीत कर तुरंत फुरंत निर्णय लिये गए थे.
गिरिजेश राव जी अपने पंद्रह वर्षों के अनुभव से मानते हैं कि बगैर डंडे के कोई काम नहीं करता.
पहले अनुभव से लोग यह भी मानते थे कि बगैर डंडे के कोई पढाई नहीं करता. लेकिन सिद्धांत इसकी पुष्टि नहीं करता था. डंडे का प्रयोग ख़त्म हो चुका है लेकिन पढने वाले पहले से कम नहीं पढ़ रहे हैं बल्कि कुछ ज्यादा ही पढ़ रहे हैं.
कहा न, गिरिजेश राव जी अनुभव के कारण अनुभववादी हो जाते हैं और सिद्धांत के मामले में बहके से लगते हैं.
ज्ञानजी ने ओर आप ने जो भी कहा सब हमे उचित लगा लेकिन एक मजदुर से तो यह पुछो उसे कया उचित लगेगा, अजी उस गरीब को तो शाम को रोटी चाहिये,
देश हित के लिये कुछ मामले ऎसे होते है जिन पर तुरंत फ़ेंसला करना चाहिये, अगर देश की सीमा पर दुशमन ने हमला कर दिया तो क्या हमारे नेता उस फ़ेसले को भी क्रमश ही लेगे...
लेकिन आज आप ने बहुत मेहनत से यह लेख लिखा, ओर सारी बारीकियो को बहुत ढंग से समझाया, फ़िर भी कई बातो पर आप से असहमति बनी,लेकिन एक वकील होने के नाते आप से सही लिखा. ओर हम एक आम नागरिक होने के नाते अपने विचार रख रहे है.
धन्यवाद
bahut hi mehanat se likha gaya blog
jyaan ko bistar deti lekh....aatama
@ गिरिजेश राव
नया नया टिप्पणी मोडरेशन लगाया है,गलती से आप की टिप्पणी मोडरेट हो गई। उन की टिप्पणी निम्न प्रकार है।
गिरिजेश राव has left a new comment on your post "उद्यम भी श्रम ही है":
बौद्धिक तर्क सेसन्स भले किसी और सहमति पर पहुँचे लेकिन ब्लण्ट सत्य यही है कि आदमी के सिर से तलवार हटी नहीं कि वह बहका ।
श्रमिक, अधिकारी चाहे जो वर्ग हो; उद्यम कहें या श्रम; शारीरिक हो या मानसिक - डण्डा घूमते रहना चाहिए। अन्यथा कोई काम नहीं करता। औद्योगिक दुर्दशा का एक मुख्य कारण यही है। मुझे अधिक अनुभव तो नहीं है लेकिन 15 साल कम भी नहीं होते।
जो भी हो अकार्यकुशलता पर प्रीमियम चाहने वाले कई लोगों से मैं मिल चूका हूँ और उनसे सहानुभूति नहीं हो सकती !
पिछले कई दिनों से ज्ञान जी के ब्लॉग पर जाने में तकनीकी कठिनाई आ रही है इसलिए उनका पक्ष नहीं पढ़ सका मगर आपके मत से एकाध सहमती और उतने ही मतभेद भी हैं. यह सही है कि बहुत से लोग शारीरिक श्रम को को हेय मानते हैं परन्तु हमारी सारी संस्कृति का आधार ही श्रम, तप और कर्म पर टिका है. श्रम का महत्त्व है मगर जब वह श्रम पूंजी को बेच दिया गया है तब उस श्रम के आधार पर दादागिरी भी उतनी ही गलत है जितना कि श्रमजीवियों का शोषण. सवाल पूंजी और श्रम का नहीं है, सवाल तिकड़मों से दूसरों को उल्लू बनाने का है. चाहे लालची मालिक मजदूर को बनाना चाहे, चाहे हेकड़ मजदूर कमज़ोर मालिक को और चाहे मजदूर संगठन का आराम-तलब और अय्याश नेता मालिक और मजदूर दोनों को बनाना चाहे. कभी भी कोई उद्योग किसी यूनियन की हड़ताल के कारण बंद नहीं होता। का यह अर्थ नहीं है कि ऐसा हो ही नहीं सकता या कभी हुआ नहीं.
@ शहीद भगत सिंह विचार मंच, संतनगर:
शिक्षा जगत में डण्डा अभी भी है बन्धुवर। रूप बदल गया है। जरा बारीकी से किसी भी 'ढंग' के प्राइवेट या सरकारी स्कूल में एक दिन बिताएं, समझ में आ जाएगा। वादी या प्रतिवादी कुछ नही हूँ। एक 'बहका' हुआ 'सिद्धांतहीन' व्यक्ति हूँ। बकबक किया करता हूँ।
@ दिनेश राय द्विवेदी जी
आप का 'तीसरा खम्भा' के हिन्दी फाण्ट मुझे अजीब अजीब ज्यामिति दिखाते हैं। क्या करूँ कि पढ़ना हो सके? कृपया मार्ग दर्शन करें। धन्यवाद, सादर
एक बढि़या आलेख।
हर आदमी के पास छोटी सी जिंदगी है, और मानवजाति के ज्ञान और समझ का विस्तार बहुत अधिक। मनुष्य के अनुभवों का विस्तार उसके क्रियाक्षेत्र के दायरे में सीमित होता है।
इसलिए व्यक्तिगत अनुभवों से चीज़े उसकी ज़िंदगी के लिए तो निर्धारित हो सकती है, समग्र सामाजिक रूप से नहीं। अपने निजी अनुभवों के दम पर अपनी श्रेष्ठता और सामाजिक प्रतिष्ठा पाना पहले आसान था, जब ज्ञान और समझ सीमित थे। इस प्राचीन प्रवृति से बचा जाना चाहिए।
मनुष्य को अपने अनुभवों के इस अंतर्विरोध को समझना चाहिए और उसे समग्रता की ओर विस्तार देना चाहिए, उसे अपने अनुभवों को व्यापक सामाजिक ऐतिहासिक अनुभवों के सापेक्ष देखने की प्रवृति विकसित करनी चाहिए तभी गलत निष्कर्षो से बचा जा सकता है।
आपनें काफी कुछ स्पस्ट कर दिया है .
गम्भीर लेख है…इन दिनों वेतन पर हम भी सोच रहे हैं…
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