यह नवभारत टाइम्स में प्रकाशित समाचार का शीर्षक है। समाचार यह है कि इन घटनाओं में कोई हताहत नहीं हुआ है। लेकिन तीन ट्रेनों को रोक कर उन्हें आग के हवाले कर देना कोई मामूली घटनाएं नहीं है। इस से न केवल राष्ट्रीय संपत्ति को हानि पहुँची है अपितु रेल यातायात बाधित हुआ है। सैंकड़ो लोग गन्तव्य तक पहुँचने के पहले ही किसी अनजान स्थान पर उतार दिए गए। यातायात बाधित होने से सैंकड़ो लोग स्टेशनों पर अटके पड़े होंगे।
यह सब हुआ रेलवे के एक निर्णय अथवा अनिर्णय से। दानापुर रेलमंडल के जनसंपर्क अधिकारी आर.के. सिंह का कहना था कि बिहार के 33 विभिन्न रेलवे स्टेशनों पर विभिन्न ट्रेनों का अस्थायी तौर पर स्टॉपेज था। रेलवे बोर्ड ने गत 26 मई को एक आदेश जारी कर इस स्टॉपेज पर रोक लगा दी, जिसका नागरिकों ने विरोध किया। अंतत: सोमवार को बोर्ड ने अपने उस आदेश को तात्कालिक तौर पर वापस ले लिया है। बाद में इन स्टेशनों पर होने वाली टिकटों की बिक्री की समीक्षा करने के बाद इस बारे में निर्णय लिया जाएगा कि यहां ट्रेनों के स्टॉपेज आगे भी जारी रखे जाएं या नहीं।
जब रेलवे किसी भी रूप में एक सुविधा को जारी करती है तो उसे बिना बिक्री की समीक्षा किए और जनता को पहले से सूचना दिए बिना बंद क्यों कर दिया जाता है। एक सुविधा लोगों को बहुत कठिनाई से प्राप्त होती है। यदि उसे अनायास ही छीन लिया जाए तो नागरिकों का गुस्साना स्वाभाविक लगता है। लेकिन रेल प्रशासन को कतई यह गुमान न था कि इन सुविधाओं को छीन लेने मात्र से ऐसी प्रतिक्रिया देखने को मिलेगी। यह रेलवे प्रशासन की सोच का दिवालियापन ही कहा जा सकता है। रेलवे कोई निजि उद्योग नहीं है वह एक सार्वजनिक उद्योग है और उस में उसी जनता का धन निवेशित है जिस के एक हिस्से ने उस में आग लगा दी और अपना रोष जाहिर किया।
सार्वजनिक क्षेत्र के उन उद्योगों को जो नागरिक सेवाएं प्रदान करते हैं यह ध्यान तो रखना ही होगा कि उन के किसी प्रशासनिक निर्णय या अनिर्णय से जनता के किसी हिस्से को ऐसा धक्का न लगे कि वह हिंसा पर उतारू हो जाए। इन प्रायोगिक ठहरावों को बंद करने के पहले समीक्षा की जा सकती थी और जनता को पर्याप्त नोटिस दिया जा सकता था कि इन स्टेशनों से एक निश्चित अवधि में यात्री मिलना निश्चित मात्रा से कम रहा तो इन टहरावों को बंद कर दिया जाएगा। इस तरह से जनता को विश्वास में ले कर यह कदम उठाया जाता तो इस तरह की हिंसा से बचा जा सकता था और रेलवे का यह व्यवहार जनतांत्रिक भी होता। सार्वजनिक उद्यम होने के कारण उस से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा जनता रखती है। आशा है नई रेल मंत्री रेलवे बोर्ड में जनता को प्रभावित करने वाले निर्णयों को जनतांत्रिक तरीके से लिए जाने की पद्यति विकसित करने का प्रयास करेंगी।
पुनश्चः
यह आलेख कल शाम 5.30 पर लिखा गया था, किन्तु इस के प्रकाशन के ठीक पूर्व चौड़ा पट्टा धोखा दे गया। बीएसएनएल के अधिकारी दफ्तर छोड़ चुके थे। आज उन्हों ने जाँच कर मेरा पोर्ट बदला, उस के बाद पास वर्ड की समस्या आ गई। अभी 5.12 पर चौड़ा पट्टा बहाल हो सका है। गति भी पहले से तेज मिल रही है। इस कारण से इसे देरी से प्रकाशित किया जा सका है।
9 टिप्पणियां:
आप की बात अपनी जगह बिलकुल सही है परन्तु जनता के द्वारा इस तरह का उग्र व्यवहार अवांछनीय है.
मुझे समझ नही आता कि इस तरह रेल बोगी फ़ूंक कर क्या होगा?
रामराम.
सुविधा लोगों को बहुत कठिनाई से प्राप्त होती है यदि उसे अनायास ही छीन लिया जाए तो नागरिकों का गुस्साना स्वाभाविक लगता है....
शतप्रतिशत आपके विचारो से सहमत हूँ . यदि एकाएक कोई सुविधा बंद कर दी जाए तो लोगो का भड़कना स्वाभाविक है . जनहित से जुड़े मामलों पर सरकार / रेलवे बोर्ड को सावधानीपूर्वक विचार करना चहिये
ऐसे आग लगा देना तो किसी भी तरह से जस्टिफाइड नहीं है. पर सत्ता परिवर्तन होते ही बिना सोचे ऐसे फैसले... पता नहीं इसमें ममता मैडम का कितना हाथ है. पर जनता तो शायद यही सोच कर भड़की होगी... बनते ही ये हाल है तो पांच सालों में जाने क्या हो ! वैसे भी पिछले कई रेल मंत्री बिहार से रहे हैं तो रेलों का वहां विस्तार भी खूब हुआ है. तो....
रेलवे बोर्ड को इस तरह बिना सोचे समझे निर्णय नहीं लेना चाहिए लेकिन जनता द्वारा इस तरह आक्रोश व्यक्त करने का तरीका एकदम गलत है इस तरह की हरकत कभी बर्दास्त नहीं होनी चाहिए | सोचिए उन लम्बी दुरी के यात्रियों की जो इस घटना में घायल तो नहीं हुए लेकिन यात्रा में व्यवधान से कितने परेशान हुए होंगे |
दिनेश जी बिरोध करने के ओर भी बहुत से ढंग है, देश की समप्ति को नुकसान पहुचा कर .... अच्छा हो जिस भी प्रदेश मै वहां की जनता समप्ति कॊ नुकसान पहुचाये, वो चीज उस प्रदेश से छीन ली जाये, ओर वो लोगो फ़िर से उस का भुगतान करे जो पकडेगेये है,यह बहादुरी नही वेबकुफ़ी है, अगर इस जनता मै इतना ही दम है तो क्यो नही गुंडे मवालियो से अपनी मां बहन की इज्जत बचाते, क्यो इन गुंडे नेताओ कि जुतियां खाते रहते है
एक बहुत ही व्यावहारिक विषय पर आपने बहुत ही सुलझे और विश्लेषणात्मक तरीके से लिखा है.
दर असल सरकारी तंत्र बहुत से काम बिना सोचेसमझे करता है. इससे जनता भडक जाती है और एक बार जब नियंत्रण टूट जाता है तो उनको भलेबुरे की समझ नहीं रहती और वे राष्ट्रीय संपत्ति को नाश करते हैं.
वैसे भी नागरिक शास्त्र पढाते समय विद्यार्थीयों में देशप्रेम और देशभक्ति जगाने की कोई कोशिश नहीं होती है.
सस्नेह -- शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
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सबसे ज्यादा प्रभावित तो मेरे गाँव जाने वाली ट्रेनें ही हुई हैं इससे....
वैसे सच पूछिये तो ये होना लाजिमी था। कितने लोग खार खाये बैठे थे बिहार में मिली अतिरिक्त रेल-सुविधाओं से लालू के रेल-राज के दौरान
यह सब घटिया राजनीतिक हताशा है .
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