'यक़ीन' साहब को कल शाम ही आना था। वे आए भी। लेकिन मैं घर से बाहर था, मुलाकात नहीं हो सकी। आज सुबह उन से फोन पर बात हुई। जो कुछ उन ने बताया वह इतना सरल था कि मुझे भी विश्वास नहीं हुआ। उन की बात सुन मैं ने कुछ चित्र ढूंढ निकाले हैं, एक तो ऊपर ही है, जिसे आप देख चुके हैं। आप इन दोनों चेहरों को यक़ीन साहब की दो ग़ज़लें मान लें। अब जरा इन नीचे वाले चित्रों को भी देखिए.....
इस पैरेलल बार को देखें दो भाग समानांतर स्थिति में मिल कर एक यंत्र बना रहे हैं।
और यहाँ.... इस अँधेरे में ये दो चमकती आकृतियाँ क्या कर रही हैं?
ये दो पृथक-पृथक सजीव रचनाएँ हैं जो आपस में मिल कर एक नई सजीव रचना बनाने में जुटी हैं।
और यहाँ.........
यहाँ तो ये दोनों मिल कर एक हो चुकी हैं
ठीक इसी तरह यक़ीन साहब की दोनों ग़ज़लें भी समानान्तर दशा में मिल कर एक नई ग़ज़ल बन जाती हैं। मजे की बात यह कि उन दोनों ग़ज़लों का आंनंद भिन्न था और इस 'युग्मित ग़जल' का आनंद बिलकुल भिन्न है। आप भी इस का आनंद लीजिए.....
कुछ दिल की कुछ जग की सुन लें
- पुरुषोत्तम 'यक़ीन' -
तू इक राहत अफ़्ज़ा मौसम, नयनों का इक ख़्वाब हसीं तू
तू बादल तू सबा तू शबनम, तू आकाश है और ज़मीं तू
छल करते हैं अपना बन कर, वो अपने मतलब के संगी
मेरे साथी मेरे हमदम, उन अपनों सा ग़ैर नहीं तू
तेरे मुख पर तेज है सच का, दाग़ नहीं तेरे चहरे पर
तेरे आगे सूरज मद्धम, कैसे कह दूँ माहजबीं तू
दर्दे-जुदाई और तन्हाई, तू यह कैसे सह लेता है
क्यूँ न निकल जाता है ये दम, आह! कहीं मैं और कहीं तू
कोई नहीं है तुझ बिन मेरा, तेरे दिल की बात न जानूँ
कह तो दे इतना कम से कम, मेरे दिल में सिर्फ़ मकीं तू
खुल कर बात करें आपस में, कुछ दिल की कुछ जग की सुन लें
कुछ तो कम होंगे अपने ग़म, आ कर मेरे बैठ क़रीं तू
झूठी ख़ुशियों पर ख़ुश रहिए, कौन 'यक़ीन' करेगा सच पर
व्यर्थ 'यक़ीन' यहाँ है मातम, चुप ही रहना दोस्त हसीं तू
आप चाहें तो इसे इस तरह भी देख सकते हैं, यहाँ दोनों ग़ज़लें अपना अलग अस्तित्व, अलग असर और अलग अर्थ रखती हैं -
तू इक राहत अफ़्ज़ा मौसम, नयनों का इक ख़्वाब हसीं तू
तू बादल तू सबा तू शबनम, तू आकाश है और ज़मीं तू
छल करते हैं अपना बन कर, वो अपने मतलब के संगी
मेरे साथी मेरे हमदम, उन अपनों सा ग़ैर नहीं तू
तेरे मुख पर तेज है सच का, दाग़ नहीं तेरे चहरे पर
तेरे आगे सूरज मद्धम, कैसे कह दूँ माहजबीं तू
दर्दे-जुदाई और तन्हाई, तू यह कैसे सह लेता है
क्यूँ न निकल जाता है ये दम, आह! कहीं मैं और कहीं तू
कोई नहीं है तुझ बिन मेरा, तेरे दिल की बात न जानूँ
कह तो दे इतना कम से कम, मेरे दिल में सिर्फ़ मकीं तू
खुल कर बात करें आपस में, कुछ दिल की कुछ जग की सुन लें
कुछ तो कम होंगे अपने ग़म, आ कर मेरे बैठ क़रीं तू
झूठी ख़ुशियों पर ख़ुश रहिए, कौन 'यक़ीन' करेगा सच पर
व्यर्थ 'यक़ीन' यहाँ है मातम, चुप ही रहना दोस्त हसीं तू
यक़ीन साहब ने इसे 'युग्मित ग़ज़ल' नाम दिया है। मैं ने उन्हें कोई उर्दू शब्द तलाश करने को कहा है। आप चाहें तो आप भी इस कारस्तानी को कोई खूबसूरत सा नाम दे सकते हैं।
19 टिप्पणियां:
यकीन साहब को सलाम...दो ग़ज़लों को बहुत खूबसूरती से पिरोया है एक दूसरे में वाह...ये ग़ज़लें अकेले भी उतनी ही कमाल की हैं जितनी की मिल कर लगतीं हैं...ये किसी उस्ताद का ही काम हो सकता है...वाह..यकीन साहब वाह...
नीरज
स्तब्ध हूँ यकीन जी की कलम पर । इतना सुन्दर प्रयोग पहले मुझे तो कहीं देखने को नहीं मिला इन गज़लों पर निशब्द हूँ यकीन जी को बहुत बहुत बधाई आपका भी आभार्
शब्दों का खेल है युग्मित ग़ज़ल:) बहुत बढिया॥
अजी हमे तो कविताओ ओर गजलो ्के बारे इतना ग्याण नही, बस अच्छी लगी ओर वाह वाह कर दी.
धन्यवाद
राज भटिया जी की टिप्पणी, डिट्टो!
वाकई कमाल है. अविश्वस्नीय है कम से कम मेरे जैसे अधकचरे जानकार के लिये तो. मैं तो ऐसा पहली बार ही देख पढ रहा हूं.
रामराम.
'युग्मित ग़ज़ल'-एक अभिनव कलात्मक प्रयोग..वाकई जादूई.
पुरुषोत्तम साहेब को नमन!!
बहुत खूब!!
waah! kya kahun vismit hun..
यह प्रयोग वाकई अच्छा लगा...
बेहद अनोखा अहसास हुआ...
ऐसा जैसे कोई चमत्कार सा...
जैसे कोई वाकई जादू सा..
सही कहा था...जादू है...
यह प्रयोग तो पहली बार ही देखा है, चमत्कृत करता हुआ...
शब्दों के अच्छे बाजीगर हैं यक़ीन साहेब...
ये तो सच में जादूगरी है हम तो बहर और कहन में ही उलझ कर रह गए ठ
जादू कुछ और ही निकला
बहुत सुन्दर युग्मित गजल है
वीनस केसरी
सचमुच जादूगरी है ये। उर्दू शायरी की प्रसिद्ध विधा हमरदीफ ग़ज़ल से भी आगे की चीज़ है ये...
जी ।
यक़ीन साहब को सलाम
वाह, बहुत खूब...वाह। उस्ताद जी को सलाम। दो गजल एक रूप, एक रूप दो गजल...बहुत खूब।
शानदार! बड़े कलाकार हैं जी यकीन साहब!
वाकई ये तो जादू है, ऐसा जादू जो सर चढ़ के बोलता है। यकीन साहब ने कमाल किया है इन गज़लों में। शुक्रिया युग्मित गज़ल से परिचय करवाने का।
चलिये, बहुत दूर नहीं रहे हम. यकीन साहब तो जादू दिखा ही गये पर आपने भी चित्रों के चुनाव में बड़ी मेहनत की है. आपको भी बधाई.
दो ग़ज़लों को बहुत खूबसूरती से पिरोया है..
बढिया ग़ज़ल..
वाह ! अभी तो मै फिलहाल इन गज़लों को पढने की एक्सर्साइज़ कर रहा हूँ और द्विवेदी जी द्वारा प्रस्तुत चित्रों को समझने का प्रयास कर रहा हूँ लेकिन इन बेहतरीन युग्मित गज़लो के लिये कोई उर्दू नाम भी तो ढूँढना है भई ।
वाह भाई साहब
कमाल का प्रयोग है
कुछ काकटेल जैसा
एक टिप्पणी भेजें