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रविवार, 24 अप्रैल 2011

इन्द्रगढ़ और बीजासन माता मंदिर

डूंगरली, गैंता, लाखेरी, इंद्रगढ़, कमलेश्वर महादेव और श्योपुर को
एक साथ दिखाता मानचित्र 
सुबह छह बजे पत्नी शोभा ने जगाया तो कॉफी हाजिर थी। तैयार होने में फुर्ती की तब भी घर से निकलते निकलते घड़ी की सुइयाँ आठ से ऊपर निकल चुकी थीं। डेढ़ किलोमीटर दूर चंम्बल पुल पार कर पेट्रोल पम्प से पेट्रोल लिया। तब तक शोभा अपनी छोटी बहिन से बात कर चुकी थी। उस का कस्बा केशवराय पाटन कोटा से 20 कि.मी. की दूरी पर था। उस से पूछा गया कि वह भी साथ चल रही है क्या। पर वह रामनवमी का दिन था और उसे कन्याओं को भोजन कराना था वह हमारे साथ नहीं चल सकती थी। यूँ वह साथ हो जाती तो कार में एक यात्री क्षमता से अधिक हो जाता। पेट्रोल पंप छोड़ा तो सवा आठ बज चुके थे।  इंद्रगढ़ तक की हमारी यह यात्रा कुल 90 किलोमीटर की थी। सड़क काफी अच्छी थी। कोटा-लालसोट हाई-वे अभी कुछ बरस पहले ही बना है। बीच-बीच में कुछ व्यवधान अवश्य थे, लेकिन कार की गति 80-90 बनी हुई थी। हमने केशवराय पाटन को पीछे छोड़ा, फिर आया लबान गाँव और स्टेशन। यहाँ से हमारा गाँव गैंता सिर्फ नौ किलोमीटर था, बाधा थी तो केवल बीच में चंबल नदी जिस पर बरसों से पुल प्रस्तावित है। लेकिन घड़ियाल अभयारण्य होने से सर्वोच्च न्यायालय की अनुमति के लिए रुका हुआ था। पिछले सप्ताह ही सर्वोच्च न्यायालय ने इस पुल को बनाने की अनुमति प्रदान कर दी है। इस पुल के बनने के बाद झालावाड़ और बाराँ सड़क मार्ग से लालसोट, मथुरा और दिल्ली से जु़ड़ जाएंगे। हो सकता है नदी किनारे बसे गैंता को इस से पुनर्जीवन प्राप्त हो जाए।  लबान से कोई सात किलोमीटर पर सीमेंट उत्पादक नगर लाखेरी था। यहाँ आते ही मुझे अपने एक पुराने मुवक्किल ईश्वरीप्रसाद का स्मरण हुआ। मैं ने उसे फोन लगाया तो पता लगा कि वह इंद्रगढ़ से सवाई माधोपुर जाने वाले मार्ग पर इंद्रगढ़ से तीन किलोमीटर दूर किसी मंदिर में अखंड रामायण के आयोजन में व्यस्त है। हम बिना रुके इंद्रगढ़ पहुँचे तो साढ़े नौ बज चुके थे। 

इंद्रगढ़ किला
इंद्रगढ़ का राजप्रासाद
इंद्रगढ़ को बूंदी के राजकुमार इंद्रसाल सिंह ने 1605 में बसाया था। यह पहाड़ी की तलहटी में बसा छोटा सा कस्बा है। जिस की आबादी 2001 की जनगणना के अनुसार 5000 से कुछ ही अधिक थी और अभी भी 6000 के ऊपर नहीं निकली है। पहाड़ी पर छोटा किन्तु सुंदर सा किला और राजप्रासाद है जो दूर से ही दिखाई देता है। राजस्थान में अभी भी यह स्थिति है कि 15000 से अधिक आबादी के अनेक कस्बों में नगरपालिका नहीं है। लेकिन यहाँ आजादी के पहले से नगरपालिका स्थापित थी जिसे यहाँ के राजा ने स्थापित किया था। जब यह स्वतंत्र राज्य राजस्थान में विलीन हुआ तो विलीनीकरण की एक शर्त यह भी थी कि यहाँ की नगरपालिका सदैव बनी रहेगी, इसे ग्राम पंचायत में परिवर्तित नहीं किया जाएगा। इसी कारण आज तक आबादी कम होने पर भी यहाँ नगरपालिका है। इसी कारण इस नगर का स्वरूप भी पूर्ववत  बना हुआ है। हमने इंद्रगढ़ कस्बे को एक तरफ छोड़ा और वहाँ से तीन किलोमीटर दूर बीजासन माता मंदिर पहुँचे। 

मेला और पहाड़ी जिस की चोटी पर बीजासन माता मंदिर स्थित है 
मंदिर एक पहाड़ी पर ऊँचाई पर स्थित है जिस के लिए लगभग साढ़े सात सौ सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। चढ़ाई आरंभ होने के कोई आधा किलोमीटर दूरी पर ही हमें कार छोड़नी पड़ी, आगे नवरात्र पर लगने वाला मेला चल रहा था। सड़क के दोनों ओर दुकानें सजी हुई थीं। इन में ग्रामीणों की आवश्यकताओं की वस्तुओं के अलावा खाने-पीने के सामान और माताजी की पूजा अर्चना के सामान की दुकानें थीं। दुकानदार बुला-बुला कर पूजा का सामान खरीदने का आग्रह कर रहे थे। इस मामले में शोभा चतुर थी। सब सामान कोटा से ही तैयार कर ले चली थी। मेला पार कर के हम उस स्थान पर पहुँचे जहाँ से सीढ़ियाँ आरंभ होती थीं। हमें आरंभ में कम ऊँचाई की चौड़ी सीढ़ियाँ मिलीं। लेकिन जैसे जैसे सीढ़ियाँ चढ़ते गए सीढ़ियों की ऊँचाई बढ़ती गई, और चौड़ाई घटती गई। दर्शनार्थियों की संख्या कम न थी। लगातार पीछे से लोग आते जा रहे थे। इस कारण बीच में रुकना संभव नहीं था। फिर भी किसी चौड़ी सीढ़ी पर एक मिनट साँस लेते और ऊपर चढ़ते जाते। सीढ़ियों पर हमें गेहूँ के दाने बिखरे मिले जिन्हें कुछ लोग लगातार समेट कर अपने झोलों में भरते भी जाते थे।दर्शनार्थी फिर से गेंहूँ के दाने सीढ़ियों पर बिखेर देते थे। मुझे यह कुछ अच्छा नहीं लगा। अधिकतर दर्शनार्थी अपने जूते चप्पल मेले में उतार आए थे और नंगे पैर चढ़ रहे थे। गेहूँ के दानों पर कोई फिसल भी सकता था। हम ने अपने जूते-चप्पल नहीं उतारे थे। जब मंदिर तक पहुँचने में केवल दस-बारह सीढ़ियाँ रह गईं और आने-जाने की सीढ़ियाँ अलग हुई तो हम ने अपने जूते चप्पल वहीं एक चट्टान पर खोल दिए। 
मंदिर में बीजासन माता की प्रतिमा
कुछ ही देर में हम मंदिर में थे। मंदिर दो स्तरीय था। निचले स्तर पर एक कमरे जैसा स्थान था जहाँ एक नाई बैठा कुछ भक्तों का मुण्डन कर रहा था।  पास ही एक युवक और एक महिला सिर हिला रहे थे, जैसे किसी की आत्मा उन में प्रवेश कर गई हो।  पर लोग उन की तरफ केवल एक निगाह डाल कर आगे बढ़ जाते थे। वहाँ रुकने का स्थान न था। दर्शनार्थियों का प्रवाह ऐसा था कि एक मिनट में दर्शन करें और आगे चल दें। रुकने पर मार्ग रुक जाने की संभावना थी। मंदिर के स्वयंसेवक और तैनात पुलिसकर्मी  लोगों को लगातार आगे बढ़ते रहने का निर्देश बार-बार दे रहे थे। हम लोग कुल दो मिनट मंदिर में रुके, दर्शन किए और आगे बढ़ गए। माताजी की प्रतिमा सुंदर और आकर्षक थी। लेकिन वहाँ लोग गेहूँ के इतने दाने बिखेर रहे थे कि पावों के नीचे गेहूँ ही गेहूँ महसूस हो रहा था। हालांकि लगातार लोग उन दानों को समेटते भी जाते थे। मैं सोच रहा था कि इन गेहूँ के दानों का क्या महत्व रहा होगा? (कोई पाठक बताएगा?) 

पहाड़ी के नीचे के मंदिर में बीजासन माता मंदिर
जैसे ही हम मंदिर के बाहर निकले मेरे मोबाइल की घंटी बज उठी। ईश्वरी प्रसाद का फोन था। उस ने बताया कि वह मंदिर वाली सडक जहाँ हाई-वे से मिलती है वहाँ हमारा इंतजार कर रहा है। वहाँ लाल झंड़ा लगी जीप खड़ी है वह उसी की है। मैंने उसे कहा हम आधे घंटे में उस तक पहुँचते हैं। मंदिर से नीचे उतरने में हमें अधिक समय न लगा। जैसे ही सीढि़याँ समाप्त हुई हम ने राहत की साँस ली। बच्चों ने झोले में से पानी की बोतल निकाली, हम चारों ने पानी पिया। नीचे पहाड़ी की तलहटी में माताजी का एक और मंदिर बना हुआ था। यात्रियों के साथ कुछ वृद्ध लोग भी होते हैं जो पहाड़ी नहीं चढ़ सकते, वे यहीं दर्शन कर कुछ देर विश्राम करते हैं और अपने सहयात्रियों के पहाड़ी से लौटने पर उन के साथ हो लेते हैं। हमने यहाँ भी दर्शन किए। लोग यहाँ भी गेहूँ के दाने इस तरह उछाल रहे थे कि वे मंदिर के छज्जों पर गिरें। लेकिन छज्जों से गेहूँ के दाने नीचे मंदिर के प्रवेश द्वार पर ही आ गिरते थे। वहाँ भी उन्हें समेटने के काम में कुछ लोग लगे थे। हम ने कार संभाली। हाई-वे पर पहुँचते ही हमें लाल झंडे वाली जीप मिल गई। ईश्वरी प्रसाद वहाँ न दिखे।  जैसे ही जीप के पास जा कर मैंने कार रोकी। एक आदमी जीप से उतरा और कहने लगा मैं बाबा को बुलाता हूँ। एक मिनट में ही ईश्वरी प्रसाद वहाँ हाजिर था, बिलकुल बाबा बना हुआ। सर के बाल जटा में तब्दील हो चुके थे। बदन पर एक बंडी थी और पैरों में लाल धोती लपेट रखी थी। वह मुझे बता रहा था कि वह जिस मंदिर पर 108 रामायण पाठ करवा रहा है उस से सौ मीटर पहले टोल प्लाजा है। यदि वह नहीं आता तो टोल वाले कम से कम पचास रुपए की रसीद बना देते। इसलिए खुद लेने आया है। हम उस की जीप के पीछे-पीछे चल पड़े। ...

कुछ और चित्र 

मेला और पहाड़ी पर बीजासन माता मंदिर

मंदिर के लिए आरंभिक सीढ़ियाँ
सीढ़ियों की उँचाई अब बढ़ चली
सीढ़ियों की चढ़ाई के बाद मंदिर प्रवेश के कुछ पहले
विश्राम करते माँ-बेटे
और उतरते हुए 
मंदिर से नीचे मैदान का दृश्य
मंदिर के ठीक बाहर तैनात सिपाही
इन चित्रों पर क्लिक कर के आप बड़े आकार में देख सकते हैं।

शनिवार, 23 अप्रैल 2011

जहाँ मैं ने पैदल चलना शुरू किया

पिछली चार पोस्टें (बाकी पूजा तू झेलपूर्वजों के गाँव में ...गैता का नगर राज्य और महाराज की बगीची और अपने पूर्वजों के गाँव की बगीची और उस के मंदिर हमारी 10 अप्रेल 2011 की  ग्राम यात्रा से संबंधित थीं। अगले दिन अवकाश नहीं था, अदालत जाना था। उस से अगले दिन रामनवमी का अवकाश था। बहुत दिनों से एक कर्ज था जिसे उतारना था। बचपन में कभी बेटी अस्वस्थ हुई थी तो अम्मा ने कहा था कि मैं ने संकल्प लिया है कि इसे एक बार अवश्य इंद्रगढ़ माताजी के यहाँ ढुकाउंगी। कमजोर और भावुक क्षणों  में ऐसे संकल्प कर लेना भारतीय जन की आम आदत है। अम्मा का घूमने का चाव भी इसी तरह पूरा होता है। यदि वे साल में ऐसे एक-दो संकल्प न करती रहती तो शायद उन्हें घर परिवार से बाहर जाने का अवसर ही नहीं मिलता। इस बार पत्नीजी ने कहा कि बच्चे घर पर हैं, अवकाश भी है, इस ऋण से भी मुक्त हुआ जाए। मुझे भी उस क्षेत्र में जाने का अवसर वर्षों से न मिला था। वहाँ एक वकील मित्र और दो पुराने मुवक्किलों से मिलने की इच्छा थी। मैं ने पत्नी जी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 
यात्रा के मार्ग के खेत, गेहूँ काटा जा चुका है
 ब हम गैंता से लौट रहे थे तो बीच में एक और पुराना कस्बा सुल्तानपुर पड़ता था। डूंगरली जाते समय पत्नी जी ने यहाँ की एक दुकान पर माताजी को चढ़ाने के कपड़े सजे देख लिए थे। वे कह रही थीं कि वहाँ से हमें माताजी के कपड़े लेने हैं। जैसे ही सुल्तानपुर आया मैं ने दुकान देखना आरंभ किया। जैसे ही वह दुकान दिखी मैं ने पास ही कार पार्क कर दी। पत्नी जी दुकान में प्रवेश कर गईं। मैं कॉफी के लिए दुकान तलाशने लगा। आखिर एक दिखी तो मैं ने वहाँ कॉफी बनाने को कहा और पास की दुकान पर पान बनवाने लगा। अचानक मुझे स्मरण हो आया कि इसी कस्बे में दाहजी (दादाजी) का विद्यार्थी जीवन गुजरा था। दाहजी के पिताजी खेड़ली छोड़ गैंता आ गए थे। नए कस्बे में आजीविका आसान न थी। किसी तरह गुजारा होता था। बच्चों की शिक्षा वहाँ हो सकना संभव न था। दाहजी के मामा संपन्न थे, इसी कस्बे सुल्तानपुर में रहते थे। उन्हों ने एक गुरुकुल स्थापित किया था। जहाँ संस्कृत, गणित, ज्योतिष, धर्मशास्त्र, कर्मकांड आदि की शिक्षा प्रदान की जाती थी। दाहजी को उन के पिता ने यहीं भेज दिया। दाहजी ने इसी कस्बे में मामा के गुरुकुल में रह कर शिक्षा ग्रहण की। उन की उस शिक्षा का लाभ मुझे भी मिला। सही मायने में मेरे पहले शिक्षक मेरे दाहजी ही थे। जिन्हों ने मुझे आरंभिक गणित और ज्योतिष सिखाई। मेरी माँ बताती है कि वह किसी समारोह में यहाँ कुछ दिन के लिए आई थीं। मैं ने यहीं पहली बार पैदल चलना आरंभ किया था। 

मुझे गुरुकुल के बारे में जानने की इच्छा हुई। मैं ने पान वाले से पूछा -यहाँ एक पुराना संस्कृत महाविद्यालय होता था, क्या अब भी है? उस ने बताया कि कोई एक फर्लांग आगे इसी सड़क पर बायीँ और एक मंदिर दिखाई देगा, वहीं वह विद्यालय था। लेकिन विद्यालय तो बरसों पहले बंद हो चुका है। दाहजी के मामा जी के संतान न थी। उन्हों ने अपने ही कुल के एक बालक को गोद लिया था। वह उन की संपत्ति का स्वामी हुआ। उस ने अपने जीवन काल में उस संस्कृत विद्यालय को चलाने का प्रयत्न भी किया, शायद इस भय से कि लोग उसे विरासत मिली संपत्ति पर प्रश्नचिन्ह खड़ा न करने लगें। लेकिन उस के जीवनकाल में ही वह विद्यालय दुर्व्यवस्था का शिकार हो कर बंद हो गया। अब केवल इमारत और मंदिर बचा है। मंदिर में पूजा होती है लेकिन इमारत का कोई अन्य उपयोग होने लगा है। दाहजी के मामा जी ने यह सोच कर विद्यालय आरंभ किया होगा कि यह उन के वंश को जीवित रखेगा, किन्तु ऐसा उन्होंने कभी सोचा भी न होगा कि एक पीढ़ी बाद ही वह बंद हो जाएगा। 

कॉफी बन कर आ गई। पहला घूँट स्वादिष्ट था। पर दूसरे ही घूँट में एक अजीब सी महक और स्वाद ने सारा आनंद किरकिरा कर दिया। यह लहसुन था। इस इलाके में लहसुन बहुत होता है। गाय और भैंसैं चराई के दौरान लहसुन के कचरे को खाती हैं। लहसुन की गंद और स्वाद इतना तेज होता है कि वह उन के दूध में आने लगता है। हम लोग लहसुन बिलकुल नहीं खाते, इस लिए इस तरह के स्वाद के दूध से बचते हैं। खैर, जैसे-तैसे मैं ने कॉफी को गले से नीचे उतारा। यदि पत्नी जी को इस दूध की चाय पिला दी जाती तो दो घूँट के बाद वे तो उलटी ही कर देतीं। मैं पान लेकर लौटा तब तक पत्नी जी खरीददारी कर चुकी थीं। हम चल पड़े। मार्ग में बाईं ओर संस्कृत विद्यालय की इमारत और मंदिर दिखाई पड़ा। पर वहाँ रुकने का मन न हुआ। अंधेरा होते होते हम कोटा पहुँच चुके थे। 
कार की पिछली सीट से बच्चों का लिया चित्र
गली सुबह जैसे ही मैं अदालत जाने को तैयार हुआ। पत्नी जी कहने लगी कि आज अष्टमी है, मंदिर जा कर माताजी को नए कपड़े पहना आओ। मैं तो पहना नहीं सकती, वहाँ स्त्रियों का चबूतरे पर चढ़ना वर्जित है।  अब जिस गली में मैं रहता हूँ उस के अंत में एक मंदिर है, जहाँ एक हनुमान जी और एक माताजी की मूर्ति है। पत्नी जी जानतीं हैं कि मेरा पूजा-पाठ, ईश्वर से कोई लेना देना नहीं। लेकिन वह तो विश्वासी है। उसे लगता है कि मेरे अविश्वासी होने के कारण, कहीं ऐसा न हो कोई विपत्ति परिवार को देखनी पड़े, तो वह ऐसे अवसर तलाशती रहती है। मैं ने पूछा ये वस्त्र तो आप इंद्रगढ़ के लिए लाई थीं? तो पत्नी ने बताया कि वे दो लाई हैं। ये कैसे होता कि इंद्रगढ़ की माताजी को तो नए वस्त्र पहना दिए जाएँ और यहाँ गली के माता जी पुराने ही वस्त्रों से नवरात्र  कर लें? मैं ने मना करना उचित न समझा। हम दोनों मंदिर गए। अखंड रामायण पाठ जारी था। वहाँ एक बुजुर्ग मौजूद थे जो नवरात्र के इस अखंड रामायण पाठ के संचालक थे। मैं ने उन से माता जी को नए वस्त्र पहनाने की अनुमति चाही, तो वे कहने लगे आप ने पेंट पहन रखी है, आप कैसे पहनाएंगे, मैं ही पहना देता हूँ। उन्हों ने खुद ने भी पेंट पहनी हुई थी। उन्हों ने उसे उतार कर एक पंजा लपेटा और नए वस्त्र ले कर माताजी तक गए। मैं भी पीछे-पीछे वहाँ पहुँच गया। मुझे देख कहने लगे -अब आप आ गए हैं तो आप ही पहना दीजिए। मैं ने देखा कि माता जी को जो कपड़े पहनाए हुए थे उन पर धूल जमी थी। शायद पिछले नवरात्र के बाद किसी ने उन्हें बदला ही न था। मैं ने माता जी की मूर्ति के पुराने वस्त्र हटा कर उन्हें नए पहना दिए। नए वस्त्र पहनाते ही माता जी की मूर्ति दमकने लगी। बुजुर्ग सज्जन ने बताया कि उन्हों ने मंदिर के भोपा को माताजी के नए वस्त्रों के लिए पहले नवरात्र के दिन ही रुपए दे दिए थे, लेकिन वह आज तक नहीं लाया। अब आप ले आए तो अब उसे मना कर दूंगा। पत्नी ने एक नारियल के साथ ग्यारह रुपए भी वहाँ भेंट किए। हम वापस घर लौट चले। पत्नी के चेहरे पर संतोष के चिन्ह देख मुझे भी अच्छा लगा। 

रात को मैं जब देर तक अपने ऑफिस में बैठा रहा तो पत्नी ने आ कर हिदायत दी कि अब सो जाओ सुबह जल्दी निकलना है, देर हो गई तो इंद्रगढ़ में माता जी की चढ़ाई में परेशानी होगी। मैं ने हिदायत का पालन किया और थोड़ी देर में ही ऑफिस का काम निपटा कर सोने चला गया।

(अगली पोस्ट इंद्रगढ़ की यात्रा पर) 

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

अपने पूर्वजों के गाँव की बगीची और उस के मंदिर

ल मैं ने वादा किया था कि अगली चलेंगे बगीची में। मैं भी इस से पहले कभी इस बगीची में नहीं गया था। लेकिन वह बगीची मेरे दाहजी (दादाजी), चाचाजी और पिताजी की स्मृतियों में रची बसी थी। चाचा जी और पिताजी को गर्मी के मौसम में जब रामलीला होती तो पूरा पखवाड़ा बगीची में ही बिताना होता था। मैं चाहता था कि पिताजी जिन संत के सब से प्रिय शिष्य थे उन का यह स्थान कैसा रहा होगा और कैसा है" काका लक्ष्मीचन्द कार में आगे मेरे पास की सीट पर बैठ गए और रास्ता बताते चले। बगीची नगर के मुख्य द्वार से कोई दो सौ मीटर की दूरी पर ही आज की मुख्य सड़क से कुछ हट कर स्थित थी। बगीची के चारों ओर पत्थर की चारदिवारी थी और दक्षिण दिशा में लोहे की छड़ों से बना गेट लगा हुआ था, इस गेट से एक ट्रक तक बगीची में प्रवेश कर सकता था।

बगीची में शिव मंदिर (दक्षिण दिशा से)
गेट से प्रवेश करते ही सामने मैदान था जिस में बड़े बड़े पुराने वृक्ष खड़े थे जो बगीची की प्राचीनता के साक्षी थे। पश्चिम दिशा की ओर एक विशाल पक्के चबूतरे पर यज्ञशाला थी जिसकी छत टीन से इस तरह बनाई गई थी कि हवन का धुआँ आसानी से बाहर निकल सके। बगीची के ईशान कोण (उत्तर-पूर्व के कोने में एक मंदिर समूह था जिस में सब से पहले एक बड़ा सुंदर सा मंदिर दिखाई दे रहा था। मंदिर का रख रखाव उत्तम था। शिखर और गर्भगृह को बाहर से गेरुए रंग से रंगा हुआ था। मंदिर का आधार नीले रंग से और मण्डप पर बने शिखर चूने के सफेद रंग से रंगे हुए थे। शेष मंदिर को तेल रंगों से रंगा हुआ था। मंदिर का मुख पूर्व की ओर था। मैं ने चप्पलें उतारी और मंदिर में गया। वहाँ एक बड़े आकार का काले पत्थर का सुंदर शिवलिंग स्थापित था। इस के चारों ओर मुख बने हुए थे जो शंकर की चार भिन्न-भिन्न मुद्राओं को अभिव्यक्त करते थे। यह शिवलिंग कम से कम दो-तीन सौ वर्ष पुराना प्रतीत होता था। क्यों कि इसी तरह के कुछ शिवलिंग कोटा नगर के कुछ प्राचीन शिव मंदिरों में स्थापित हैं और वे भी इतने ही प्राचीन हैं। गर्भगृह के सामने मण्डप के नीचे सफेद संगमरमर से निर्मित नन्दी विराजमान थे, जो एकदम नवीन लग रहे थे। पूछने पर पता लगा कि इन्हें अभी इसी वर्ष स्थापित किया गया है।
मंदिर में स्थापित शिवलिंग
शिवमंदिर के उत्तर में कुछ पूर्व की ओर एक इमारत बनी हुई थी। मुझे बताया गया कि इस इमारत के दक्षिण-पूर्वी कोने में  हनुमान मंदिर है। यह छोटा था लेकिन अंदर से बहुत साफ और सुंदर था। दीवारों पर ग्रेनाइट के रंगीन पत्थर लगाए हुए थे और फर्श संगमरमर का था। हनुमान प्रतिमा को देख कर लगता था कि यहाँ हनुमान जी का सिर्फ सिर ही स्थापित था या पूरी प्रतिमा थी तो वह गर्दन तक भूमि में चली गई थी। हनुमान जी को सिंदूर और चांदी के वर्क से खूबसूरती से श्रृंगारित किया हुआ था। वहाँ सफाई भी बहुत अच्छी थी। इन दोनों मंदिरों को देख कर लगा कि यहाँ के भक्त सुरुचिपूर्ण, सौंदर्यप्रेमी और सफाई पसंद हैं। मुझे नगर में भी गंदगी दिखाई न दी थी। हो सकता है यह सद्गुण महाराज चेतनदास जी से यहाँ के लोगों को मिला हो। पिताजी को भी गंदगी बिलकुल पसंद न थी। जरा सा तिनका या धूल उन्हें दिखाई देती तो उसे तुंरत हटाते थे।
हनुमान प्रतिमा
नुमान मंदिर से पूर्व में दो छतरियाँ बनी हुई थीं। जिन्हें चारों ओर से लोहे की छड़ों की जाली से सुरक्षित किया गया था। इन छतरियों में महाराज चेतन दास जी के चरणों के चिन्ह संगमरमर पर बनाए हुए थे और उन की स्मृति के रूप में यहाँ स्थापित थे।

महाराज चेतनदास जी के चरण चिन्ह


गैंता में तो मुझे महाराज चेतनदास जी के चमत्कारों के विषय में कोई चर्चा सुनने को न मिली, वहाँ उन्हें लोग अपने पथप्रदर्शक और मार्गदर्शक के रूप में ही जानते हैं। लेकिन आस पास के कस्बों और गाँवों में उन के चमत्कारी होने के बारे में अनेक कथाएँ प्रचलित हो गई हैं। लेकिन मुझे लगता है वे सभी काल्पनिक हैं। दाहजी और पिताजी उन के निकट कई वर्षों तक रहे। लेकिन कभी उन के मुहँ से उन के इस रूप की चर्चा न सुनी। वे जो कहते थे उस से जान पड़ता है कि महाराज बहुत गुणी थे। वे आयुर्वेद के विद्वान थे। रोगी उन के पास आते थे और स्वस्थ हो कर जाते थे। बच्चों को वे संगीत, गणित और भाषा की शिक्षा प्रदान करते थे। गरीब और कमजोर लोगों को अपने धनी शिष्यों से आर्थिक सहायता भी उपलब्ध कराते थे। नगर की सांस्कृतिक गतिविधियों के वे मुखिया थे। गर्मी के मौसम में जो रामलीला आयोजित करते थे उस का निर्देशन वे स्वयं करते थे। वे लोगों को और लोग उन को असीम प्यार करते थे। यही वजह थी कि लोगों ने उन्हें चमत्कारी पुरुष मान लिया था। गाँव के लोग उन की स्मृतियों और धरोहर को आज भी संजोए हुए थे। 
शिव मंदिर सामने (पूर्व दिशा से)
नुमान मंदिर में एक ओर एक व्यक्ति सस्वर रामायण पाठ कर रहा था। मंदिर के पश्चिम दिशा की ओर एक बड़ा और लंबा बरामदा बना हुआ था। इस में कुछ भक्तगण भोजन बनाने में व्यस्त थे। मैं ने काका लक्ष्मीचंद से पूछा तो उन्हों ने बताया कि गाँव के कुछ लोग नवरात्र में नौ दिन यहीँ बगीची में रहते हैं। वे नवरात्र पर नौ दिन तक रामायण का अखंड पाठ करते हैं। अपना भोजन भी सब मिल कर यहीँ बनाते हैं। हमें काफी समय हो गया था, इतना कि यदि तुरंत न चलते तो कोटा पहुँचते पहुँचते रात्रि हो जाती। मेरा मन कर रहा था कि यहीँ एक-दो दिन इन लोगों के बीच रुकूँ। लेकिन अगले दिन मुझे तो अदालत करनी थी। बच्चों को भी अवकाश न था। हम बगीची के बाहर आ गए। काका लक्ष्मीचंद ने वहीं से हम से विदा ली। हम ने अपनी कार हाँकी और कोटा के लिए रवाना हो गए। मैं रास्ते भर सोचता रहा कि मुझे यहाँ कुछ दिन आ कर गाँव में रहना चाहिए। अपना घर तो गिर कर टीला हो चुका है, पर रहने को बगीची तो है ही और उस से अच्छा हो भी क्या सकता है।
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सोमवार, 18 अप्रैल 2011

गैता का नगर राज्य और महाराज की बगीची

गैंता राज का पाईपेपर और
उस पर राजा का चित्र
गैंता ठिकाना 25° 34' 60 उत्तरी अक्षांश तथा 76° 17' 60 पूर्व देशान्तर पर चम्बल नदी के पूर्व में कोई पचास वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में स्थापित था। इसे एक नगर राज्य जैसा कहा जा सकता है। क्यों कि गैंता नगर के अतिरिक्त शायद ही कोई बस्ती या गाँव इस  की सीमा में आता हो। इस की सीमा में बस नगर था, कृषिभूमि और मामूली जंगल था। ठिकाने के लगभग सभी निवासी इसी नगर में निवास करते थे। जनसंख्या भी दो हजार के आसपास रही होगी। नदी किनारे होने से यह बंदरगाह का काम करता था। ठिकाने से लगे हुए अन्य ठिकानों के क्षेत्रों में बाहर से आने वाला सारा माल नदी से ही आता था।  इन ठिकानों से बाहर जाने वाला माल भी नदी के रास्ते ही बाहर जाता था। गैंता ठिकाने से हो कर गुजरने वाले माल में से केवल कुछ मालों पर नाम मात्र का कर था। जिस के कारण नगर व्यापार का केंद्र अवश्य बन गया था। यही व्यापार इस की संपन्नता का आधार भी था। व्यापार का केंद्र होने के कारण नित्य ही व्यापारिक सौदे होते थे। इन सौदों में विवाद उत्पन्न होने पर उन्हें सुलझाने और कानून व्यवस्था बनाए रखने के  लिए एक सक्षक्त पुलिस और न्यायप्रणाली होना आवश्यक था। इसी की स्थापना के लिए ठिकाने की अपनी  पुलिस और न्याय व्यवस्था थी। राजा सत्ता का केंद्र था।  

गैंता राज का आठ आने का कोर्ट फी स्टाम्प
ह सारी व्यवस्था कैसी रही होगी? इस का निश्चय करने के लिए गढ़ को देखना और वहाँ के निवासियों से बात करने की इच्छा होना स्वाभाविक था। इस के लिए कम से कम एक-दो दिन यहाँ रुकना आवश्यक था। लेकिन हमें तो तुरंत ही लौटना था। इस काम को अगली यात्रा के लिए स्थगित किया। इस से अधिक मेरी रुचि इस बात में थी कि मैं बगीची को अवश्य देखूँ। बगीची नगर के परकोटे के बाहर नगर के पूर्वी द्वार से लगभग तीन सौ मीटर दूर स्थित है। इस बगीची में एक संत निवास करते थे। सब लोग उन्हें महाराज चेतनदास जी के नाम से जानते थे और संक्षेप में उन्हें महाराज कहते थे। महाराज को गैंता राज्य के राजा से भी अधिक सम्मान प्राप्त था। इस का कारण उन का ज्ञान और जनसेवा थी। वे संस्कृत, संगीत, गणित और वैद्यक के विद्वान थे। उन के पास से कोई खाली हाथ न जाता था। बीमार की बीमारी की चिकित्सा होती थी, कुछ दवा से कुछ उन के विश्वास से। निराश को आशा प्राप्त होती थी। कोई गरीब व्यक्ति यदि यह कह देता कि बेटी का ब्याह सर पर है और घर में कानी कौड़ी भी नहीं, अब तो आप का सहारा है। तो महाराज कह देते कि जा चिंता न कर सब हो जाएगा। महाराज इस बात को राजा और नगर के सेठों तक पहुँचाते तो उस की बेटी का ब्याह हो जाता। होनहार बालकों को वे अपनी बगीची में ही शिक्षा प्रदान करते। अपने इन गुणों के कारण महाराज चेतनदास जी को उन के जीवनकाल में ही चमत्कारी मान लिया गया था। ग्रीष्म काल में जब फसलें आ जाने के उपरांत घर अन्न से भरे होते तो महाराज एक पखवाड़े तक रामलीला का आयोजन करते। बगीची में रौनक हो जाती। रामलीला करने वाले बालकों को पूरे पन्द्रह दिन बगीची में ही रहना होता। वहीं दिन में रामलीला का अभ्यास होता वहीं भोजनादि। मेरे पूर्वजों का इस बगीची से गहरा संबंध रहा था।

मेरे दाहजी (दादाजी) पं. रामकल्याण शर्मा स्वयं संस्कृत, गणित तथा ज्योतिष के विद्वान, कर्मकांडी गृहस्थ   ब्राह्मण थे और महाराज  ब्रह्मचारी संन्यासी। लेकिन दोनों एक दूसरे का सम्मान करते। पिताजी का बचपन तो बगीची में ही गुजरा। पिताजी सात वर्ष के हुए तो दाहजी ने उन का प्रवेश इटावा के विद्यालय में करवा दिया। वहाँ दाहजी के दूर के रिश्ते के एक भाई अध्यापक और छात्रावास के अधीक्षक थे। अब पिताजी को पढ़ने के लिए इटावा में ही रहना था। पिताजी को इटावा छोड़ कर वापस गैंता पहुँचे तो महाराज ने दाहजी की खूब खबर ली। इतने छोटे बालक को दूर के विद्यालय में रख दिया, अकेला कैसे रह पाएगा? क्या मैं यहाँ उसे न पढ़ाता था? पर दाहजी ने उन्हें समझाया कि नए जमाने में नई शिक्षा आवश्यक है, गुरुकुल की पढ़ाई से काम न चलेगा। फिर भी पिताजी जब भी गैंता लौटते उन का अधिकांश समय बगीची में गुजरता। वहाँ उन्हें जीवन की शिक्षा मिलती। वहीं पिताजी को चिकित्सा, संगीत और संस्कृति की शिक्षा मिली। गर्मियों की रामलीला में पूरा परिवार ही बगीची मे इकट्ठा हो जाता। रामलीला में दाहजी विश्वामित्र, उन के छोटे भाई जनक, पिताजी राम और चाचा जी भरत के चरित्रों का अभिनय करते। पिताजी बताते थे कि महाराज चिलम पिया करते थे। लेकिन  जैसे ही हम लोग अपना मेकअप कर के राम, लक्ष्मण आदि के रूप में आ जाते तो हमें उच्चासन पर बैठाते, कभी चिलम न पीते, और अपने आराध्य जितना मान देते। महाराज रामलीला में स्वयं परशुराम का अभिनय करते और सदैव दर्शकों के बीच हाथ में कपड़े का बुना कोड़ा लिए उसे फटकारते हुए प्रवेश करते। जैसे ही उन का प्रवेश होने को होता दर्शक अपने बीच दस फुट चौड़ी गैलरी बना देते थे। दर्शकों को भय लगता था कि परशुराम का कोड़ा किसी को लग न जाए। 
गूगल मैप में दिखाई देती गैंता में महाराज की बगीची
बाराँ में एक बार चार वर्ष की छोटी बहिन मेले से एक बाँसुरी खरीद लाई और दिन भर उस में फूँक मार कर पेंपें किया करती। मैं ने भी उस पर कोशिश की पर मैं भी बहिन से अधिक अच्छी कोशिश न कर सका। दो-दिन बाद पिताजी घर लौटे तो अचानक बांसुरी ले कर झूले पर बैठ गए और बजाने लगे। मैं उन का बाँसुरी वादन देख कर चकित था कि वे इतनी सुंदर बाँसुरी भी बजा सकते हैं। पूछने पर उन्हों ने बताया की कभी महाराज के सानिध्य में सीखी थी। मैं ने उस के पहले कभी पिताजी को बाँसुरी बजाते न सुना था और बाद में भी मुझे कभी इस का अवसर न मिला। पिता जी और दादा जी अक्सर ही गैंता में बिताए अपने समय के बारे में बातें किया करते थे। उन की बातों में हर बार महाराज चेतनदास जी उपस्थित रहते। इसी से मेरे मन में महाराज चेतनदास जी के प्रति  बहुत सम्मान औऱ बगीची के प्रति आकर्षण बन गया था। बगीची मैं ने अब तक कल्पना में ही देखी थी।  लेकिन मेरी इस छोटी सी यात्रा में मैं बगीची अवश्य ही जाना चाहता था। ... 

.....अब की बार चलेंगे महाराज की बगीची में

रविवार, 17 अप्रैल 2011

पूर्वजों के गाँव में ...

मेरा जन्म बाराँ (अब राजस्थान का स्वतंत्र जिला मुख्यालय) में हुआ, लेकिन यहाँ जन्म लेने वाला मैं परिवार का पहला सद्स्य था। शेष सभी की यादें गैंता से जुड़ी हुई थीं। पिता जी, दाहजी, छोटे दाहजी, बुआ और दोनों चाचा वहीं जन्मे थे। दाहजी के पिता जी, मेरे परदादा अवश्य गैंता में खेड़ली से आए थे। दो-ढाई वर्ष की उम्र में मुझे शायद एक बार गैंता ले जाया गया था। तब की केवल इतनी स्मृति थी कि वहाँ मकान में कुछ कमरे बनाने के लिए नींवे खोदी जा रही थीं, और सब बड़ों को कान में जनेऊ चढ़ा कर मूत्रत्याग करते देख मुझे ऐसा ही करने की धुन सवार हुई थी और मैं ने घर में कहीं से जनेऊ तलाश कर पहन ली थी और उसे कान पर चढ़ा कर मूत्रत्याग कर के देखा था कि इस से क्या फर्क पड़ता है। उस के बाद कोई पैंतीस वर्ष पहले किसी काम से वहाँ जाना पड़ा था और मैं इटावा से 9 किलोमीटर पैदल गया था। चलते-चलते अंधेरा हो चुका था और कुछ सूझ नहीं रहा था। तब पीछे से एक ट्रेक्टर ने मुझे लिफ्ट दी थी जो इतनी कारगर सिद्ध हुई थी कि केवल सौ मीटर में ही गैंता का प्रवेशद्वार आ गया था। तभी की कुछ स्मृतियाँ मन में थीं। इस बार वैसे ही इटावा से डूंगरली जाते समय बच्चों से पूछा था कि गैंता देखोगे? बच्चों के मौन को स्वीकृति समझ अपने मन की पूरी करने वापसी में इटावा से कार का रुख गैंता की ओर मोड़ लिया था। कार चली जा रही थी। नौ किलोमीटर में बीच में कोई गाँव नहीं पड़ा था, सब सड़क से दूर थे। मैं सोचता जा रहा था कि वहाँ जाते ही कहाँ जाया जाए? 

गैंता ग्राम पश्चिम में बहती चंबल नदी 
मुझे अचानक गणपत काका के बड़े भाई काका लक्ष्मीचंद का स्मरण हुआ, वही तो गैंता में हमारा निकटतम पड़ौसी था। मैं  ने गैंता के प्रवेशद्वार के बाहर पूछा कि क्या कार को काका लक्ष्मीचंद के घर तक ले जाया जा सकता है? जवाब हाँ में मिलने पर मैं आगे बढ़ गया। बाजार में जहाँ से घर की ओर रास्ता जाता है उस से कुछ पहले एक दुकान पर रास्ता पूछा तो वहाँ से एक बुजुर्ग काका लक्ष्मीचंद के घर के लिए कार में बैठ गए। ठीक घर की बगल में कार रुकी तो काका का घर पहचान में आ गया। लेकिन वहाँ मैदान मिट्टी का था जहाँ हमारा घर हुआ करता था। काका घर पर नहीं सोसायटी के गोदाम पर थे, काका की लड़की बाहर आई, पीछे पीछे घूंघट निकाले काकी थी। दोनों ने हमें न पहचाना। मैं ने काका से फोन पर बात करने के लिए मोबाइल का नंबर पूछा तो काका की बेटी ने कहा उन को तो मैं बुला दूंगी, पर पहले यह तो पता लगे कि आप कौन हैं। मैं तब तक अपने पूर्वजों के घर की मिट्टी ही देख रहा था। मैं ने कहा यहाँ किस का मकान था? इतना कहते ही साथ आए बुजुर्ग ने मुझे पहचान लिया -तो आप वकील साहब हैं, नन्द किशोर जी के लड़के? ... जी, हाँ! मैं ने कहा। 



काकी हमें अंदर ले गई। कमरे में बिठाया। बिजली गई हुई थी, पंखा नहीं चल रहा था। पर कमरा ठंड़ा था। फिर बातें होने लगी। घर को किसी ने नहीं संभाला और गिर गया। लकड़ी का सामान आप का हाली अपने घर ले गया। जमीन बँटाई से होती है। बँटाई पर लेने वाला खुद ही बाराँ चला जाता है और छोटे चाचा से बँटाई तय कर पैसा उन्हें ही दे आता है। छोटे चाचा या उन के लड़कों को गाँव आए कई वर्ष हो चुके हैं। बाजार में दो दुकानें हैं, वे भी लावारिस पड़ी हैं। अभी तो उन्हें खरीदने वाले हैं। गिर जाएंगी तो जितने पैसे अभी आ रहे हैं उतने फिर नहीं आएंगे। मैं उदास सा सब सुनता रहा। पिताजी की बाराँ नौकरी लग जाने के बाद दाहजी सारे परिवार सहित बाराँ चले आए थे। गाँव की सारी सम्पत्ति छोटे दाहजी संभालते रहे। दाहजी, पिताजी, चाचाजी वगैरह ने उस संपत्ति के बारे में सोचना बिलकुल छोड़ दिया। आज उस संपत्ति की दुर्दशा सुन कर मुझे अजीब सा लग रहा था। इतने में काका लक्ष्मीचंद आ गए, साथ आए बुजुर्ग उन के ताऊ थे वे कोटा ही रहते थे और किसी काम से गाँव आए थे। वे वापस दुकान की ओर चले गए। हम ने वहाँ चाय पी। चाचा और चाची अपने अपनी आप बीती सुनाने लगे।

फिर मुझे गाँव देखने की इच्छा हुई तो काका हमें बाजार तक लाए। बाजार लगा था। सभी तरह की दुकानें थीं और सड़क पर सब्जीमंडी लगी हुई थी। ताजा सब्जियाँ देख पत्नी का मन मचल गया, उस ने ढेर सी सब्जी खरीद ली। हर कोई हमें देख जानना चाहता था कि हम कौन हैं, गाँव में चार नए चेहरे एक साथ दिखने पर यह तो होना ही था। एक को काका लक्ष्मीचंद ने दाहजी का हवाला दे कर बताया तो वे समझ गए। कुछ ही देर में कानों कान सब को पता लग गया कि हम कौन हैं। बाजार की सभी दुकानें सौ से दो सौ वर्ष पुरानी थीं। उन्हें देख लगता था कि किसी जमाने में इस बाजार में रौनक रहा करती होगी। बाजार में तीन-चार मंदिर भी थे, आगे चौपड़ थी। जहाँ से चारों दिशाओं में रास्ते निकलते थे। एक रास्ता गढ़ की ओर जाता था, जहाँ गैंता के पूर्व महाराजा के वंशज रहते थे। यह बस्ती जो अब गाँव कहलाती है, कभी न केवल नगर था, अपितु कोटा रियासत का एक ठिकाना (जागीर) थी। इस जागीर का मुखिया वंश परम्परा से होता था जो महाराजा कहा जाता था। जागीर को रियासत को निश्चित मात्रा में वार्षिक शुल्क (नजराना) देना होता था। जागीर अपने यहाँ शासन चलाने में स्वतंत्र थी, जिस की अपनी पुलिस और कचहरी थी। जागीर का महाराजा कचहरी के लिए कोर्ट फीस स्टाम्प और पाई पेपर जारी करता था। मेरी घूम कर गाँव देखने की इच्छा थी, लेकिन उस के लिए कम से कम एक रात तो गाँव में रुकना ही पड़ता। अभी इस का अवसर नहीं था। लेकिन मैं बगीची अवश्य जाना चाहता था। हम वापस काका के घर लौट आए, एक बार और शीतल जल पिया। काका को कार में बिठाया और बगीची तक ले चलने को कहा। .......

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

बाकी पूजा तू झेल

हुत दिनों से ये कहा जा रहा था कि डूंगरली और इंद्रगढ़ जाना है। पर मौका ही नहीं मिल रहा था। इस बार नवरात्र के अंत में यह मौका आ गया। बेटे को बंगलूरू से भोपाल तक किसी आवश्यक काम से आना पड़ा और वह वहाँ से कोटा चला आया। उस के आने का समाचार मिलते ही बेटी भी अवकाश ले कर शनिवार की रात्रि को घर आ पहुँची।  रविवार की सुबह हम अपनी आठवें वर्ष में चल रही मारूती-800 से डूंगरली के लिए रवाना हुए। डूंगरली कोटा जिले की पीपल्दा तहसील का एक छोटा सा गाँव है, और पंचायत मुख्यालय भी। इस गाँव का कोई बड़ा महत्व नहीं। इस के पास ही कोई दो किलोमीटर दूर एक अन्य छोटा गाँव है 'खेड़ली बैरीसाल' इस गाँव  में मुझ से पाँचवीं पीढ़ी और उस के पहले कोई दो-तीन पीढ़ी तक के पूर्वज रहा करते थे।  डूंगरली में गाँव के बाहर एक ऊंचे गोल चबूतरे पर एक चौकोर चबूतरा इस पर एक आदमकद हनुमान मूर्ति स्थापित है। इस के बारे में यह किवदन्ती प्रचलित है कि हनुमान मूर्ति पहले लकड़ी की थी, गाँव वाले उन्हें बहुत मानते थे और हनुमान जी गाँव के रक्षा करते थे। कभी चोरी चकारी तक न होती थी। फिर एक रात कोई चोर गाँव में घुस आया तो हनुमान जी ने उसे ठोक-पीट कर अपने दाहिने पैर के नीचे दबा लिया। गाँव वालों की नींद खुली तो चोर मूर्ति के नीचे दबा मिला। पर इस ठोक-पीट में लकड़ी की मूर्ति क्षतिग्रस्त हो गई। गाँव वालों ने वहाँ प्रस्तर मूर्ति बनवा कर लगा दी। इस किवदंती के कारण इस मूर्ति की मान्यता हो गई। हमारे पूर्वजों ने भी इसी मूर्ति में अपने इष्ट को देखा और हर काम में उन का दखल स्थापित हो गया। शादी हो, संतान जन्म हो तो हनुमान जी को ढो़कना जरूरी। पहली पुरुष संतानों के केशों का प्रथम मुंडन यहीं होने लगा। मेरा भी प्रथम मुंडन पाँच वर्ष की उम्र में यहीं हुआ था। 

हाड़ौती में हाड़ा राजपूतों का राज्य स्थापित होने के पहले लंबे समय तक ब्राह्मण राज्य करते रहे। बाद में यह ब्राह्मण राज्य नष्ट होने पर राजवंश के लोगों को चित्तौड़ राज्य में शरण लेनी पड़ी। कुछ सौ वर्षों तक वहाँ रहने के बाद उन के वंशज पुनः हाड़ौती में लौट आए। यहाँ के निवासियों से उन्हें सम्मान मिला, राजा तो वे हो नहीं सकते थे। लेकिन वे वापस लौट कर जहाँ भी बसे वहाँ तुंरत ही ग्राम-गुरु हो गए और हाड़ा सामंतों से भी उन्हें सम्मान मिला। पूर्वजों के राजा होने का स्वाभिमान शायद उन में अब भी शेष था। इस लिए यदि कभी किसी सामंत से टकराहट हो जाती तो वे गाँव छोड़ दिया करते थे। यही कारण हमारे पूर्वजों का खेड़ली ग्राम को छोड़ने का रहा। उन्हों ने सामंत से अपने रिश्ते न तोड़े लेकिन गाँव छोड़ दिया। मेरे दादा जी कहा करते थे कि उन के पिताजी खेड़ली छोड़ कर गैंता आ गए थे और कहते थे कि खेड़ली जाना तो सही पर कभी रात वहाँ न रुकना। गैंता कोटा राज्य का भाग होते हुए भी काफी स्वतंत्र था। वहाँ किसी तरह के व्यापार पर कोई टैक्स न था। चंबल के किनारे होने के कारण नदी में चलने वाली नावों से माल गैंता आता और इलाके के लोग वहीं से माल खरीदते। इस तरह गैंता व्यापारिक केंद्र होने से बहुत संपन्न था। आज उसे भले ही गाँव की संज्ञा दी जाती हो, पर सत्तर-अस्सी वर्ष पहले तक वह एक नगर की भाँति ही रहा होगा। 

पारिवारिक कामों से मैं बचपन से ही डूंगरली जाता रहा। वहाँ जो मूर्ति अब स्थापित है वह मुझे आकर्षित करती रही। इस मूर्ति में हनुमान जी के बाएँ पैर के नीचे एक शत्रु दबा हुआ है, दायाँ पैर नीचे भूमि पर है, दायाँ हाथ मुड़ कर कमर पर टिका हुआ है और बायाँ हाथ सिर के ऊपर है। यह एक नृत्य मुद्रा है। जैसे हनुमान जी शत्रु को परास्त कर उस की छाती पर पैर रख कर नृ्त्य कर रहे हों। किवदन्ती को बचपन में मैं सही मानता था। लेकिन धीरे-धीरे उस पर से विश्वास समाप्त हो गया और मैं उस मूर्तिकार का प्रशंसक होता चला गया जिस ने उस मूर्ति को गढ़ा था। उस ने शत्रु को परास्त करने के बाद के उल्लास को उस मूर्ति में व्यक्त करने का प्रयत्न किया था। बाद में मुझे यह भी पता लगा कि इस रूप की यह मूर्ति अकेली नहीं है। भीलवाड़ा जिले में एक प्राचीन स्थान मैनाल में और जयपुर के जौहरी बाजार के प्रसिद्ध हनुमान जी की मूर्तियाँ भी इसी मूर्ति की प्रतिकृति हैं, जैसे एक ही मूर्तिकार ने इन तीनों मूर्तियों को गढ़ा हो।  

कोटा से कोई बीस किलोमीटर चले होंगे कि आगे एक कार और दिखाई दी। उसे देख पत्नी जी कहने लगी ये भी कहीं पूजा करने जा रहे हैं, कार में पीछे माला दिखाई दे रही है। मैं ने कार की ओर ध्यान दिया तो पता लगा वह चाचा जी के लड़के राकेश की कार है। कोई पाँच किलोमीटर तक मैं उस कार के पीछे-पीछे चलाता रहा। पर वह अत्यन्त धीमी चाल से चल रही थी। आखिर मैं ने अपनी कार आगे निकाल ली। रास्ते में इटावा में रुक कर हमने पान लिए। यह पान की दुकान मेरे एक मित्र की होती थी, लेकिन वह या उस के परिवार का कोई दुकान पर दिखाई न दिया। पूछने पर पता लगा कि मित्र इटावा छोड़ कर श्योपुर रहने लगा है, दुकान किराए पर दे दी है। इटावा से ही एक सड़क गैंता तक जाती है। गैंता में हमारे पूर्वजों चार पीढ़ियों ने निवास किया है। अभी भी वहाँ परिवार की कुछ कृषि भूमि, मकान और दो दुकानें मौजूद हैं। मैं ने पत्नी और बच्चों को उकसाया। गैंता देखना हो तो वापसी में चल चलेंगे। उन में से किसी ने कभी इस गाँव में कदम भी न रखा था। वे कहने लगे चले चलेंगे। 

म डूंगरली मंदिर पर पहुँचे तो जैसी मुझे आशा थी हनुमान मूर्ति पर श्रृंगार किया हुआ था। लेकिन इस से मूर्ति के दोनों हाथ दब गए थे और दिखाई ही नहीं पड़ रहे थे। इस श्रृंगार ने मूर्ति के उस स्वाभाविक सौन्दर्य और भाव को नष्ट कर दिया था जिस के लिए मूर्तिकार ने उसे गढ़ा था। मेरा मन श्रृंगारिकों के प्रति निराशा से भर गया। पहले जब हम आते थे तो कई दिनों से मूर्ति का श्रंगार नहीं हुआ होता था। हम मूर्ति को स्नान करवा कर उस पर चमेली के तेल और सिंदूर चढ़ाते थे। फिर सफेद और रंगीन पन्नियों से इस तरह सजाते थे कि मूर्तिकार का भाव सौन्दर्य द्विगुणित हो जाए। लेकिन जिस तरह का श्रंगार किया हुआ था उस पर ऐसी गुंजाइश न थी। हम ने दर्शन किए। पत्नी जी ने पूजा की सामग्री दी जिस से पूजा कर दी गई। तेल की पूरी शीशी मूर्ति में हनुमान के पैरों तले दबे शत्रु पर उड़ेल दी गई, फिर वहीं कुछ सिंदूर पोत कर चांदी वर्क चढ़ा दिया गया। शेष पूजा भी वहीं शत्रु पर समर्पित हो गई। कुछ ही देर में चाचा जी, राकेश, राकेश की पत्नी और पुत्र व राकेश के छोटे भाई का पुत्र भी वहाँ पहुँच गए। उन की पूजा आरंभ हो गई। यह पूजा भी पूरी तरह शत्रु को ही झेलनी पड़ी।   मैं हनुमान की शत्रु पर हुई कृपा पर मुस्कुरा उठा। लगता था हनुमान जी भी अपने सैंकड़ों भक्तों द्वारा बार-बार की जा रही पूजा से तंग आ गए हों और पैर के नीचे दबे शत्रु से कह रहे हों भाई तेरी वजह से मुझे इतना महत्व मिला है, मुझे तो इसी श्रंगार में रहने दो, मैं सदियों से नृत्य मुद्रा में खड़े-खड़े थक भी गया हूँ, अब अधिक पूजा मुझ से झेली नहीं जाती, बाकी की पूजा तू ही झेल! चाचा जी भोजन तैयार कर लाए थे। हम से बहुत आग्रह किया कि हम भी भोजन करें। लेकिन हम चल दिए, हमें गैंता भी जाना था। 

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

इस के हिस्से में आख़िर ये रोशनी क्यूँ है

हमद सिराज फ़ारूक़ी एम.ए. (उर्दू) हैं, लेकिन यहाँ कोटा में अपना निजि व्यवसाय करते हैं। जिन्दगी की जद्दोजहद के दौरान अपने अनुभवों और विचारों को ग़ज़लों के माध्यम से उकेरते भी हैं। 'विकल्प' जनसांस्कृतिक  मंच कोटा द्वारा प्रकाशित बीस रचनाओं की एक छोटी सी पुस्तिका उन का पहला और एक मात्र प्रकाशन है। अपने और अपने जैसे लोगों के सच को वे किस खूबी से कहते हैं, यह इस ग़ज़ल में देखा जा सकता है .......

'ग़ज़ल'

इस के हिस्से में आख़िर ये रोशनी क्यूँ है

  • हमद सिराज फ़ारूक़ी

बढ़ी है मुल्क में दौलत तो मुफ़लिसी क्यूँ है
हमारे घर में हर इक चीज़ की कमी क्यूँ है

मिला कहीं जो समंदर तो उस से पूछूंगा
मेरे नसीब में आख़िर ये तिश्नगी क्यूँ है

इसीलिए तो है ख़ाइफ ये चांद जुगनू से 
कि इस के हिस्से में आख़िर ये रोशनी क्यूँ है

ये एक रात में क्या हो गया है बस्ती को
कोई बताए यहाँ इतनी ख़ामुशी क्यूँ है

किसी को इतनी भी फ़ुरसत नहीं कि देख तो ले
ये लाश किस की है कल से यहीँ पड़ी क्यूँ है

जला के खुद को जो देता है रोशनी सब को
उसी चराग़ की क़िस्मत तीरगी क्यूँ है

हरेक राह यही पूछती है हम से 'सिराज' 
सफ़र की धूल मुक़द्दर में आज भी क्यूँ है



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