@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

आप ने कुत्ता पाला या नहीं?

हो सकता है आप ने भी कुत्ता पाल रखा हो, यह भी हो सकता है कि आप ने कुत्ते पाल रखे हों। लेकिन मैं ने कभी कुत्ता नहीं पाला। पर इस का ये मतलब कतई नहीं है कि मैं कुत्तों को नापसंद करता हूँ। वे मुझे अक्सर बुरे भी नहीं लगते। लेकिन मुझे उन्हें पालना कतई पसंद नहीं है। यहाँ तक कि मुझे उन्हें रोटी डालना या कुछ खिलाना भी पसंद नहीं है। होता यह है कि आप ने किसी कुत्ते को रोटी डाली नहीं कि वह रोज उसी वक्त आप के घर के बाहर आ कर पूंछ हिलाना शुरू कर देता है। अब उस दिन आप के यहाँ रोटी नहीं है तो आप का मन उदास हो जाएगा। बेचारा कुत्ता दुम हिला रहा है और आप के पास उस के लिए रोटी नहीं है। आप उसे भगाना चाहेंगे तो वह भागेगा नहीं, इधर उधर देखने लगेगा, कुछ देर बाद फिर से आप की और ताकेगा और दुम हिलाएगा।
मेरे नए घर में एक दिन मेरे कनिष्ट साथी आए, मैं छत पर था वे सीधे दफ्तर में घुस गए। मैं छत से नीचे उतर रहा था तो मेरी निगाह गेट की ओर गई तो देखा गेट खुला है और अंदर एक कुत्ता खड़ा है। मैं ने उसे बाहर निकाल कर गेट लगा  दिया। दो-तीन मिनट बाद ही गेट के बाहर से कुत्तों के भोंकने और एक दूसरे को गरियाने की आवाजें आने लगीं। मैं ने गेट खोला तो जो कुत्ता गेट के अंदर आया था वह गेट से चिपका खड़ा था और मुहल्ले के कुत्ते उस पर भोंक रहे थे। गेट के बाहर मुझे देखते ही सब चुप हो गए। मेरे कनिष्ट दौड़ कर आए और कहने लगे यह कुत्ता मेरे साथ आया है और दूसरे मुहल्ले का होने के कारण आप के मुहल्ले के कुत्ते इस पर भोंक रहे हैं। उस की यहाँ उपस्थिति उन्हें यहाँ बर्दाश्त नहीं हो रही है। मैं ने उस कुत्ते को अंदर ले कर गेट लगा दिया। मुहल्ले के कुत्ते चले गए। कुत्ता गेट के पास ही बैठ गया। मैं ने कनिष्ट से पूछा क्या आप ने पाल रखा है। उन का जवाब था, पाल तो नहीं रखा, लेकिन उसे रोज रोटी डालते हैं इस लिए हिल गया है। हमारे पीछे-पीछे चल देता है। मुहल्ले की सीमा आते ही हम उसे वापस भेज देते हैं। आज भूल गए जिस से साथ आ गया। यह हमारे गेट के बाहर बैठा रहता है। इस से घर की सुरक्षा रहती है।
निष्ठ जी और कुत्ते का रिश्ता बड़ा अजीब था। कुत्ते को रोटियाँ चाहिए थीं वे कनिष्ठ जी ने उस पर दया कर के डालना आरंभ किया था। फिर कुत्ते ने रोटियां चुकाने के लिए घर की पहलेदारी आरंभ कर दी। अब उन में अनन्य संबंध स्थापित हो चुका था। वैसे हमारे यहाँ रिवाज है कि पहली रोटी गाय को डाली जाती है और बची हुई कुत्ते को। लेकिन यदि आप ने कुत्ता पाल लिया तो उस के लिए रोटियाँ बनानी पड़ती हैं। अपनी पसंद का कोई खास कुत्ता पालना हो तो उस के नखरे भी उठाने पड़ते हैं। उस के लिए खास भोजन लाना पड़ता है, उसे नहलाना, टहलाना पड़ता है, और भी न जाने क्या क्या करना पड़ता है। अक्सर बड़े बड़े घरों, कोठियों और बंगलों में कुत्ते पाले जाते हैं, वहाँ लिखा होता है, कुत्तों से सावधान! आप ने जैसे ही बंगले की कॉलबेल बजाई नहीं कि कुत्ता भोंकना आरंभ कर देता है। जैसे घन्टी बजा कर आपने अपराध कर दिया हो। वैसे भी कॉलबेल का काम पूरा हो चुका होता है और आगे का कर्तव्य कुत्ता पूरा करता है। कुत्ते की आवाज सुन कर अक्सर कोई बंगले में दिखाई देने लगता है। अगर वह आप को जानता है तो कुत्ते को बांध देता है। यदि कुत्ता पहले से बंधा होता है तो कहता है आप बैखोफ अंदर आ जाइये, कुत्ता कुछ नहीं करेगा। मेरी धारणा है कि सब बड़े-बड़े लोग कुत्ते पालते हैं, कुत्तों के बिना उन का काम नहीं चल सकता। 
कुत्ते बड़े लोगों के बहुत काम सरकाते हैं। जैसे कोई बड़ा उद्योग लगाना हो तो पहले कुत्ता पालना पड़ता है। कोई भी बड़ा काम करना हो तो कुत्ता पालना जरूरी है, वर्ना वह भोंकने लगेगा और सब को पता लग जाता है आप क्या करने जा रहे हैं और क्यों करने जा रहे हैं। इस तरह कुत्ते पालना बड़े लोगों के लिए जरूरी कर्म है। कुत्ता पाल लिया तो वह आप की ओर से दूसरों पर भोंकता है, आप सुरक्षित रहते हैं। बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि एक बड़े आदमी ने पिछले दिनों कहा कि वह हवाई जहाज कंपनी चलाना चाहता था। लेकिन उस के लिए कुत्ते पालना जरूरी था और उसे कुत्ते पालना पसंद नहीं था। मुझे इस बयान पर ज्यादा आश्चर्य नहीं हुआ, क्यों कि मैं पहले से जानता हूँ कि कुत्ते पाले बिना कोई भी उद्योग लगाना और चलाना संभव नहीं है। मैं ही क्या यह बात तो सभी जानते हैं, यहाँ तक कि बच्चा-बच्चा जानता है। मुझे आश्चर्य तो इस बात पर हुआ कि वे दूसरे उद्योग कैसे चला रहे हैं?
ब भले ही यह बयान उन बड़े आदमी ने गलती से दिया हो, पर इस से बड़े आदमियों पर संकट आ गया। संकट कुत्तों पर और उन के मुखियाओं पर भी आया। आखिर यह बात दूसरे बड़े आदमी कैसे सहन करते? यह समझा जाने लगा कि सब बड़े लोग कुत्ते पाल कर ही कारोबार चलाते हैं। दूसरे ने तपाक से कहा कि किसी कुत्ते में हिम्मत नहीं कि रोटी के लिए मेरे सामने दुम हिलाए। एक संन्यासी भी मैदान में आ गए, कहने लगे कि कुछ कुत्ते उन से दुम हिलाते रोटियाँ मांगने आए थे लेकिन उन्हों ने उस की शिकायत उन के मुखिया से की तो मुखिया ने कहा कि कुत्तों को आप से रोटियाँ ऐसे नहीं मांगनी चाहिए थीं जिस से लगे कि वे अपने लिए मांग रहे हों। उन्हें रोटियाँ किसी आश्रम के लिए मांगनी चाहिए थीं। 
खैर, बात कुछ भी हो। यह बात तो सर्व सिद्ध है कि कुत्तों के बिना कारोबार नहीं चल सकता। कुछ खुले आम कुत्ते पालते हैं, कुछ चुपके-चुपके। कुछ पालते तो हैं पर सब के सामने मानते नहीं कि, पालते हैं। मेरा दृढ़ विश्वास है कि कुत्तों के बिना कारोबार एक कदम भी नहीं चल सकता। जो लोग बिना कुत्ते पाले कारोबार चलाने की बात करते हैं, वे या तो निरे बेवकूफ हैं और कारोबार डुबोने में लगे हैं; या फिर वे होशियार बनने की कोशिश करते हैं। गुपचुप तरीके से अंडरग्राउंड में कुत्ते पालते हैं और साफ मुकर जाते हैं कि वे कुत्ते पालते हैं या उन्हें रोटियाँ डाल कर हिलाते हैं। वे जानते हैं कि कुत्ते पालने की यह तकनीक कुछ लोग और सीख गए तो कम्पीटीशन बढ़ जाएगा, इसी लिए झूठ-मूट मना करते हैं। वैसे मैं भी एक निरा बेवकूफ आदमी हूँ। बड़ा होने का गुर जानते हुए भी कुत्ते नहीं पालता। शायद मैं बड़ा ही नहीं बनना चाहता। पर आप बताएँ कि आप का क्या इरादा है? कुत्ते पालने का? या मेरी तरह बने रहने का? 

पाबला जी को मातृशोक

 




श्रीमती हरभजन कौर
'हिन्दी ब्लागरों के जन्मदिन, ज़िंदगी के मेले, इंटरनेट से आमदनी, कल की दुनिया और  कम्प्यूटर सुरक्षा' ब्लॉग वाले श्री बी.एस.पाबला जी की माता जी श्रीमती हरभजन कौर का कल 18 नवम्बर 2010 को  अपरान्ह देहान्त हो गया है। कुछ दिन पहले ही उन का पुत्र गुरुप्रीत सिंह एक सड़क दुर्घटना में घायल हुआ था और अस्पताल में भर्ती था। अपने पौत्र के घायल होने का समाचार दादी बर्दाश्त नहीं कर सकीं और उन्हें ब्रेन हेमरेज हो गया। उन्हें तत्काल अस्पताल ले जाया गया। चिकित्सकों के भरपूर प्रयास के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका। 

श्रीमती हरभजन कौर का अंतिम संस्कार आज 19 नवम्बर शुक्रवार को प्रातः 11 बजे भिलाई में रामनगर मुक्तिधाम में संपन्न होगा। 

पाबला जी की माता जी को 'अनवरत' और 'तीसरा खंबा' की विनम्र श्रद्धान्जलि!!!







गुरुवार, 18 नवंबर 2010

घूम-फिर कर, फिर यहीं आना है, यही मुकम्मल आशियाना है।

एक दिन के वकील
ज 18 नवम्बर हो गई है पिछली 15 नवम्बर के बाद अनवरत पर पोस्ट नहीं हुई। इसे समय की कमी कहा जा सकता है कुछ भौतिक और कुछ मानसिक व्यस्तताएँ रहीं। पिछली पोस्ट डॉ. अरविंद मिश्रा जी को डरावनी लगी, क्यों लगी? यह शोध का विषय है। 16 नवम्बर की दोपहर ललित शर्मा कोटा पहुँचे, ठीक 12 बज कर 3 मिनट पर कोटा की धरती  पर उन के कदम पड़े। मैं तो उन के इंतजार में था ही प्रकृति ने भी उन के स्वागत की तैयारी की हुई थी। बरसात कुछ उन्हों ने पहले ही यहाँ भेज दी थी, कुछ साथ ले कर आए थे। हमारी कार कई दिनों से सेवा की मांग कर रही थी। लेकिन ललित जी के आगमन के एक दिन पहले सेल्फ स्टार्टर ने अपना रंग दिखाया और रूँऊँऊँ......... कर के रह गया। हम ने बाइक से काम चलाया। उन के आने के दिन तो बारिश हो गयी। घर के नजदीक की सड़क के किनारे कुछ दिन पहले सीवर लाइन के पाइप डाले गये थे। मिट्टी ऊपर आई हुई थी, बरसात से वह सड़क पर आ गई। काली चिकनी मिट्टी ने फिसलने का पूरा-पक्का इंतजाम कर दिया। हम ने कार को अस्पताल पहुँचाया पूरी सेवा के लिए। बाइक पर अपना आत्मविश्वास वैसा ही रहता है जैसे साक्षात्कार देते वक्त नौकरी पाने वाले का रहता है। इस लिए बाइक को घर में ही रखा और बीस साल पुराना स्कूटर उठा कर अदालत पहुँचे। सोचा अपने जूनियर को कहेंगे कार ले चलेगा और ललित शर्मा जी को घर ले आएगा। पर ऐन वक्त जूनियर अदालत में फँस गया। 
अधरशिला
खैर, वकील मित्र राघवेंद्रपाल काम आए, अपनी स्विफ्ट डिजायर से ललित जी को स्टेशन से ला कर हमारे घर छोड़ा। रास्ते से हम कोटा की मशहूर कचौड़ियाँ और खम्मन लेते आए थे, ललित जी को उन्हीं का नाश्ता कराया गया, यह बताते हुए कि अमिताभ बच्चन इन्हें खा कर कोलाइटिस के शिकार हो चुके हैं। हालांकि उन की गलती थी कि वे बासी कचौड़ी को गर्म कर के खाए थे, एक दम ताजा है। हम इस नाश्ते में शामिल नहीं थे।  बाद में राघवेंद्र बता रहे थे कि आप के मित्र बड़े इन्फोर्मल हैं, वे मेजबान की तरह मुझे कचौड़ियाँ परोसते रहे। हमें कुछ मुकदमे और निपटाने थे, हम अदालत चले गए। कम्प्यूटर पर मोर्चा संभाला ललित शर्मा ने और एक दिन के वकील हो गए। शाम को चार बजे तक लौटे तब तक न जाने क्या-क्या कर चुके थे। साढ़े पाँच बजे कार अस्पताल से फोन आया कि कार तैयार है। मैं और ललित जी पैदल ही जा कर कार ले आए। अब घूमने का कार्यक्रम था।  
मुक्तिधाम
रसात, भरमार शादियों के पहले का दिन और शहर में कीचड़। कोटा के ब्लागरों को इकट्ठा करने का अवसर ही नहीं था। कुल मिला कर केवल अख़्तर खान अकेला नजर आए, उन्हें टेलीफोन कर बुलाया। ललित जी की चंबल देखने की इच्छा थी। हमने उन्हें कई किनारे सुझाए, पर उन्हें मुक्तिधाम वाला स्थान ही रुचिकर लगा। रात के अंधेरे में हम कोटा के सब से सुंदर शमशान में पहुँचे तो वहाँ सिस्टम पर संगीत बज रहा था। निकट ही अधर शिला थी, अख़्तर ने उस का उल्लेख किया तो हम वहाँ पहुँचे। वहाँ भी कब्रिस्तान निकला। वहाँ से चौपाटी पर कुल्फी और पान खा कर अख्त़र के वकालत दफ्तर में पहुँचे जहाँ भेंट में ललित शर्मा को कोटा की जानकारी देने वाली एक पुस्तक और मुझे कुऱआन की हिन्दी प्रति भेंट में मिली। मैं ने अख़्तर भाई के कान में बोला। यार! ये ललित शर्मा को हमने क्या दिखाया? शमशान और कब्रिस्तान जैसे कह रहे हों, बेटे सारी दुनिया घूम आओ, घूम फिर कर फिर यहीं आना है, यही मुकम्मल आशियाना है।
ललित शर्मा, मैं और अख़्तर
र लौटते ही अख्त़र खिसक लिए, अगले दिन ईद थी और उन्हें  उस की तैयारियाँ भी करनी थीं। हम  ने ललित जी के साथ भोजन किया और उन्हें हिदायत दी कि वे कुछ समय बिस्तर पर बिताएँ। रात दो बजे स्टेशन के लिए निकले। ट्रेन लेट थी। चित्तौड़ जाने वाली इस ट्रेन ने तीन बज कर सात मिनट पर प्लेटफॉर्म छोड़ा। हम घर लौट कर बिस्तरशरण हुए तो सुबह साढ़े नौ बजे आँख खुली। ललित जी को फोन लगाया तो तसल्ली हुई कि वे सुबह छह बजे ही चित्तौड़ पहुँच चुके थे और अब इन्दु गोस्वामी की हिरासत में हैं और मौज कर रहे हैं।
ज फिर समय की कमी है। अदालत की छुट्टी करनी पड़ेगी। हमारे नए मकान के लिए जो भूखंड़ देखा गया है उस पर निर्माण के आरंभ का दिन है। श्रीमती शोभा भूमि पूजा की तैयारी कर रही हैं, हमें हिदायत है कि तुरंत नहा लिया जाए और बाजार से सारा सामान लाया जाए। मुहूर्त पर सब कुछ यथावत हो जाना चाहिए। अच्छा तो टा! टा!  बाय! बाय! फिर मिलते हैं...................

सोमवार, 15 नवंबर 2010

जोधपुर में लाल सैलाब

भारत की समृद्धि लगातार बढ़ रही है, हमारे पूंजीपति दुनिया भर के पूंजीपतियों से प्रतिस्पर्धा में टक्कर ले रहे हैं। हो सकता है कुछ बरस बाद सुनने को मिले कि दुनिया के सब से अमीर सौ व्यक्तियों में चौथाई भारतीय हैं। हम यह सोच कर प्रसन्न हो सकते हैं। लेकिन दूसरी ओर हमारे गरीब भी दुनिया भर के गरीबों से प्रतिस्पर्धा में टक्कर ले रहे हैं। अमीरी और गरीबी की खाई निरंतर बढ़ती जा रही है। यही भारतीय व्यवस्था का सब से बड़ा अंतर्विरोध है। भारत की मुख्य धारा की राजनीति इस अंतर्विरोध की उपेक्षा करती रही है और लगातार कर रही है। यह अंतर्विरोध लगातार कम होने के स्थान पर बढ़ता जा रहा है। इस अंतर्विरोध को हल करने वाली राजनीति की आवश्यकता लगातार बढ़ती जा रही है।  आम जनता जानती है कि देश में जितना भ्रष्टाचार है वह पूंजीपतियों का फैलाया हुआ है, उस के बिना पूंजीवाद एक कदम आगे नहीं चल सकता, उस के बिना लूट को जारी रख सकना कठिन है, लेकिन उस का इलाज भी किसी के पास नहीं है। आम लोग जानते हैं कि जिस रोग ने देश को ग्रस्त किया हुआ है वह व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन के बिना संभव नहीं है। पूंजीवादी राजनैतिक दलों का देश की परिस्थितियों के बारे में मूल्यांकन सतही है, और वह फटे टाट को पैबंद लगा कर चलाते रहने की चिकित्सा ही प्रस्तुत करते हैं। 
दूसरी और वाम और साम्यवादी दल हैं जिन में देश की परिस्थितियों, राजनैतिक शक्तियों के मूल्यांकन पर राय में विभिन्नता है और उसी के अनुरूप उन के राजनैतिक कार्यक्रम भिन्न हैं। लेकिन उन में एक समानता है कि वे देश के इस अंतर्विरोध को आमूल-चूल परिवर्तन के माध्यम से हल करना चाहते हैं। इस के लिए लगातार विचार-विमर्श करते हैं। हम जानते हैं कि किसी भी देश की व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन अर्थात क्रांति का जनता करती है, कोई राजनैतिक दल नहीं। लेकिन राजनैतिक दलों का काम जनता को संगठित करने और उसे शिक्षित करने का अवश्य है। जब क्रांति नजदीक नहीं होती और उस के लिए किए जा रहे प्रयास परवान चढ़ते नजर नहीं आते तो क्रांतिकारी राजनैतिक शक्तियों में मतभेद होते हैं और अनेक समूह बनते दिखाई देते हैं। इस से ऐसा लगने लगता है कि जब क्रांतिकारी शक्तियाँ ही विभाजित हैं तो क्रांति की बात करना बेमानी है, शायद जनता बेड़ियों में जकड़े रहने को अभिशप्त है। लेकिन ऐसा नहीं है। 
जैसे जैसे मूल अंतर्विरोध तीव्र होता जाता है और क्रांति के लिए परिस्थितियाँ पकने लगती हैं, वैसे ही इन क्रांतिकामी शक्तियाँ एक होने लगती हैं, उन की शक्ति बढ़ने लगती है। ऐसा ही एक अवसर इन दिनों भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत) एमसीपीआई (यू) की दूसरी काँग्रेस में पिछले चार दिनों में देखने को मिला। सीपीआईएम नेतृत्व के गैर जनवादी रैवेये के कारण उस से अलग हुए अथवा अंदरूनी संघर्ष के कारण वहाँ से निकाले गए जुझारू लोगों ने एमसीपीआई का गठन किया था। अपने गठन के साथ ही यह पार्टी एक ऐसी शक्ति बन गई थी जो लगातार जनता के बीच काम करते हुए समान विचारधारा वाले गुटों और पार्टियों के साथ विमर्श करती है और क्रांतिकामी शक्तियों के एकीकरण के काम में जुटी है। शिवराम इसी दल के पॉलिट ब्यूरो सदस्य थे। मुझे भी पार्टी काँग्रेस में सम्मिलित होना था। लेकिन व्यक्तिगत व्यस्तताओं के कारण में इस में शिरकत नहीं कर सका। लेकिन मुझे भी कुछ घंटों के लिए पार्टी काँग्रेस के निकट रहने का सौभाग्य मिल ही गया।
निवार को काँग्रेस का प्रातः कालीन सत्र समाप्त होने के उपरांत रैली और सभा का आयोजन था। मैं ने इस रैली में शिरकत की। जैसे ही रैली स्थल पर पहुँचा देखा कि लाल रंग का सैलाब आया हुआ है। जिधर देखता था उधर लाल कैप पहने लाल झंडे हाथों में थामे पार्टी सदस्य  दिखाई देते थे। रैली आरंभ हुई रैली में विभिन्न प्रांतों से आए कार्यकर्ता सम्मिलित थे और ढोल बजाते, नृत्य करते, नारों से जोधपुर नगर को गुंजाते चल रहे थे। सब से आगे एक झाँकी थी जिस में एक व्यक्ति साम्राज्यवाद का प्रतीक था जो रस्सियों से जकड़ा हुआ था जिन के दूसरे सिरे कुछ लोगों के हाथों में थे जो कि स्वयं मजदूरों, किसानों, बेरोजगार नौजवानों के प्रतीक थे। साम्राज्यवाद हर किसी को खाना चाहता था, लेकिन ये श्रमजीवी शक्तियाँ उसे ऐसा करने से रोक रही थीं। इस झाँकी को सभी ने बहुत सराहा। यहाँ तक कि रैली के साथ और पूरे शहर में तैनात पुलिस कर्मी उस झाँकी और कार्यकर्ताओं के उल्लास भरे नृत्य को देख कर आनंदित थे। वे जानते थे कि इस अनुशासित कार्यकर्ता समूह की रैली की व्यवस्था के लिए उन्हें किसी तरह के श्रम और तनाव की आवश्यकता नहीं है। रैली का जोधपुर नगर के लोगों ने स्थान-स्थान पर स्वागत किया, नेताओं को जोधपुरी साफे और पुष्प मालाएँ पहना कर उन का सम्मान किया। जोधपुर की श्रमजीवी जनता की कामना थी कि यह ताकत यूँ ही तेजी से बढ़ती रहे और अपना लक्ष्य प्राप्त करे। 
समाचार पत्रों में इस रैली के समाचार इस तरह थे.... 


शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

पल्ला झाड़

खुलने लगें जब राज
न लगें लोग जब साथ
तब खिसियाहट होती है
बिल्ली खंबा नोचती है।


जब पता लगता है
कि एक निरा मूर्ख
नौ बरस तक
उन का भगवान स्वरूप
एक-छत्र नेता बना रहा 

तब यही बेहतर कि
भक्त-गण ऐसे भगवान से
पल्ला झाड़ लें
  • दिनेशराय द्विवेदी

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

गृहस्वामी, गृहस्वामिनी, शरलक होम्स औऱ रुस्तमे-हिन्द

कान बीस साल पहले बनना आरंभ हुआ था। पहले दो कमरे, रसोई, स्टोर, बरांडा और टॉयलट बनाया गया। दस साल बाद उन में कुछ परिवर्तन कर के एक बड़ा हॉल, एक शयनकक्ष और एक टॉयलट और जोड़ दिया गया और एक कमरे के आकार में वृद्धि कर दी गई। पाँच साल बीते होंगे कि यह भी छोटा पड़ने लगा। साथ ही मकान की डिजाइन असुविधाजनक लगने लगी। आज की जरूरतों के मुताबिक उसे दुरुस्त करने में बहुत पैसा लगना था। इस लिए एक नया भूखंड खरीदने की योजना बनाई गई। भूखंड की तलाश जारी थी, पर इस पर मकान तभी बन सकता था जब पहले मकान को बेच दिया जाए। गृहस्वामी ने मकान बाजार में खड़ा कर दिया। उस के खरीददार पहले आ गए। समस्या यह थी कि इसे बेचने का सौदा कर दिया तो रहेंगे कहाँ? तब एक मित्र काम आए। उन का मकान नया बना था और वे खुद उस में साल भर बाद रहने जा रहे थे। गृहस्वामी ने मौके का इस्तेमाल किया और उस मकान में रहने आ गए और अपना मकान बेच दिया। कुछ ही दिनों में भूखंड भी खरीद लिया गया। अगले सप्ताह से गृहस्वामी उस पर निर्माण आरंभ कराने वाले हैं।
मित्र के मकान में आए हुए कुछ ही समय हुआ था कि गृहस्वामी को जयपुर जाना पड़ा। जिन के साथ जाना हुआ वे जयपुर की फीणी के शौकीन हैं, वह भी सांभर वाले की फीणी लाजवाब के। उन्हों ने एक किलो खरीदी तो गृहस्वामी भी आधा किलो खरीद लाए। रात को जब घऱ पहुँचे तो खूबसूरत गोल डब्बे में पैक फीणी गृहस्वामी ने अपनी गृहस्वामिनी को सौंप दी। गृहस्वामिनी ने दो दिन बाद ही उस पर चीनी की चाशनी चढ़ा कर उसे मीठी कर दिया। अब इस फीणी चढ़े डब्बे ने भोजन कक्ष में खुलते रसोई के द्वार के बाहर रखे रेफ्रीजरेटर के ऊपर अपना अड्डा जमा लिया। जब जी चाहे डब्बे में से निकाल कर एक फीणी प्लेट में रखो और उस का स्वाद लो। इस बीच जितने भी बालक मेहमान आए सभी ने उस फीणी का स्वाद लिया। 
लेकिन फीणी के चक्कर में कोई और भी था। एक दिन सुबह गृहस्वामिनी उठी तो उस ने पाया कि डब्बे का ढक्कन उठा हुआ है। यानी फीणी किसी ने चुराई थी। अब घर में तो इस बीच गृहस्वामी और गृहस्वामिनी के अलावा कोई और तो आया नहीं था। गृहस्वामिनी ने तुरंत गृहस्वामी के थाने में रपट दर्ज कराई। गृहस्वामी को घरेलू मोर्चे पर एक तफ्तीश मिल गई। मौका-ए-वारदात और आस-पास का मुआयना किया गया। घर के सभी दरवाजे अंदर से बंद थे, चोर कहाँ से आया था इस का पता लगाना कठिन था, खिड़कियाँ आदि भी देख ली गईं। कोई सुराग लग ही नहीं रहा था। गृहस्वामी के अदालत जाने का वक्त हो चला था और वे अभी तक हजामत तक नहीं बना सके थे। 
गृहस्वामी ने तफ्तीश को शाम तक के लिए मुल्तवी किया और तुरंत अपना हजामत का डब्बा संभाला। वाश बेसिन पर पहुँचे तो उन की निगाह उस से निकल कर नीचे जा रहे पाइप पर पड़ी। उस की जाली कुछ हटी हुई थी। पाइप निकाल कर देखा तो वह जाली के अंदर-अंदर कटा हुआ था। गृहस्वामी के भीतर का शरलक होम्स तुरंत जागृत हुआ और मामूली दिमागी कसरत से पता लग गया कि चोर कौन हो सकता है। चोर ने घर में प्रवेश का जो मार्ग बनाया था उसे बंद किया गया उसे तुरंत बंद किया गया। इस बड़े ऑपरेशन से निबटने के बाद ही गृहस्वामी हजामत का अभियान आरंभ कर पाए। हजामत आरंभ होने के पहले तक देख लिया गया था कि और तो कोई स्थान ऐसा नहीं कि चोर घर में प्रवेश कर सके। अब गृहस्वामिनी और गृहस्वामी निश्चिंत थे कि चोर से घर सुरक्षित हो चुका है। लेकिन उन का यह भ्रम दूसरे दिन सुबह ही टूट गया। दूसरे दिन सुबह जब गृहस्वामिनी सो कर उठी तो पाया कि फीणी के गोल डब्बे का ढक्कन फिर से उठा हुआ है।
पिछले दिन बंद किए गए चोर-मार्ग की जाँच की गई, वह स्थान सुरक्षित पाया गया। फिर से पूरे घर का निरीक्षण किया गया। कोई स्थान नहीं था जहाँ से चोर घर में घुस सके। शरलक होम्स ने अपना विचार दिया कि चोर घर छोड़ कर गया ही नहीं कहीं घर में ही छुपा हुआ है। फिर से घर की तलाशी आरंभ हो गई। पूरी तलाशी के बाद भी पता नहीं लग सका कि चोर आखिर छुपा कहाँ है? अब तो एक ही मार्ग था कि चोर को पकड़ने के लिए जाल बिछाया जाए। गृहस्वामिनी ने सुझाया कि दो बरस पहले जब पुराने घर में ऐसे ही चोर घुस आए तब एक जाल खरीदा गया था, क्यों न उस का उपयोग कर लिया जाए? गृहस्वामी को इस में क्या आपत्ति हो सकती थी। तुरंत सुझाव पर अमल किया गया। जाल में कुछ रोटियाँ रख दी गईं। रात को जाल के पास से आवाजें आने लगीं, तो गृहस्वामी और गृहस्वामिनी दोनों प्रसन्न हुए कि तरकीब काम कर गई, चोर पकड़ा गया। 
सुबह उठ कर देखा तो जाल की दुर्दशा हो चुकी थी, रोटी गायब थी। लगता था चोर कुछ रुस्तमे हिन्द टाइप का था और जाल उस के लिए पर्याप्त नहीं था। रुस्तमे हिन्द इस सस्ती किस्म के हवालात में बंद होने को तैयार न थे इस लिए तय पाया कि उन के लिए नया, मजबूत और बड़े आकार का जाल लाया जाए। आखिर शाम को दोनों पति-पत्नी शॉपिंग के लिए निकले और पूरे सवा सौ रुपए खर्च कर नया जाल खरीद कर लाए। इस रात उस का उपयोग किया गया। पर सुबह फिर नतीजे के नाम सिफर था। जाल में रखी रोटियाँ बदस्तूर अपने स्थान पर मौजूद थीं। फीणी के डब्बे का ढक्कन रोज उठा हुआ मिलता था। अब गृहस्वामी पूरी तरह निराश हो चले थे। घर में आने जाने के सब मार्ग बंद हैं, आखिर चोर छुपा कहाँ है।
गली रात को जब गृहस्वामिनी सो चुकी थी और गृहस्वामी सोने जा रहे थे तब अचानक शरलक होम्स के दिमाग की बत्ती जल उठी। समझ आ रहा था कि जब फीणी का डब्बा आसानी से उपलब्ध है तो इस गच्च माल को छोड़ कर कौन उल्लू का पट्ठा रोटी की और झाँकने वाला था। हमारे रुस्तमें हिन्द से तो ऐसी अपेक्षा करना मूर्खता के सिवा कुछ नहीं। शरलक होम्स को अफसोस हो रहा था कि दिमाग की बत्ती इतनी देर से क्यूँ रोशन हुई? गृहस्वामी ने तुरंत सारी भोजन सामग्री भोजन कक्ष से हटा कर रसोई में बंद की और एक फीणी निकाल कर जाल में चारे की जगह लगा कर सोने चले गए। 
गली सुबह सफलता शरलक होम्स के कदम चूम रही थी। रुस्तमे हिंद जाल में चीख रहे थे। सांभर वाले की फीणी के शौक ने उन्हें हवालात में डाल ही दिया था। दिन भर उन्हें हवालात में बंद रखा गया। सजा तो उन्हें दी नहीं जा सकती थी। गृहस्वामिनी के संस्कार इस में बाधा उत्पन्न कर रहे थे। रुस्तमे हिन्द आखिर भगवान गणपति के वाहन का रिश्तेदार जो था। आखिर जिस तरह विपक्ष द्वारा पिकेटिंग करने पर गिरफ्तार कार्यकर्ताओं और नेताओं को कुछ देर किसी स्कूल आदि में बंद रख कर शाम को शहर से दूर छोड़ दिया जाता है गृहस्वामी रुस्तमे हिन्द को नहर के नजदीक छोड़ आए। जैसे ही उन्हें जाल से बाहर निकाला गया, उन्हों ने कुलांचे भरी और घास के मैदान में गायब हो गए। 
दिवाली के लिए सफाई अभियान चला तो पता लगा कि रद्दी अखबारों के ढेर के पीछे रुस्तमे हिन्द जी ने अपना विश्राम कक्ष बनाया हुआ था और एक फीणी वहाँ ले जा कर संकटकाल के लिए सुरक्षित रखी गई थी। वैसे जितने दिन वे रहे रोज गोल डब्बे में सैंध लगाते रहे। कुछ भी हो रुस्तमे हिन्द गायब हो चुके थे। लेकिन कल रात फिर उन के दर्शन हुए वे खिड़की के परदे को सीढ़ी बना कर रोशनदान से बाहर जा रहे थे। गृहस्वामी और गृहस्वामिनी का चैन फिर भंग हो चुका है। आज फिर से उन्हों ने जाल रखा है। इस बार फीणी नहीं है, दिवाली पर देसी घी में तले गए शकरपारों ने उस का स्थान ले लिया है। सुबह की प्रतीक्षा है इस बार रुस्तमे हिन्द हवालात में तशरीफ लाते हैं या नहीं?

बुधवार, 10 नवंबर 2010

शिवराम के नाटकों की एक आत्मीय प्रस्तुति

कोटा राजस्थान का रंगकर्मी एकता संघ (रास) पिछले चार वर्षों से अपने ही एक दिवंगत साथी नाट्यकर्मी गिरधर बागला की स्मृति में नाट्य संध्या आयोजित करता रहा है।  इस समारोह में प्रतिवर्ष रंगकमल अलंकरण प्रदान कर के किसी न किसी वरिष्ठ रंगकर्मी को सम्मान और आदर प्रदान किया जाता रहा है। कल साँझ पाँचवीं गिरधर बागला स्मृति नाट्य संध्या कोटा के ऐतिहासिक क्षार बाग में स्थित कला दीर्घा के खुले थियेटर में आयोजित की गई। यह मेरा दुर्भाग्य ही रहा कि इस के पहले की चार संध्याओं में मैं उपस्थित नहीं हो सका था बावजूद इस के कि मेरे अभिन्न मित्र और शिवराम जी मृत्युपर्यंत रास के अध्यक्ष थे। कल भी स्वास्थ्य कुछ नरम था लेकिन शिवराम रचित पहला नाटक 'जमीन' का हाड़ौती भाषा में मंचन और मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'ठाकुर का कुआँ' का उन के द्वारा किए गए नाट्य रूपान्तरण को देख पाने तथा इस बहाने कृतित्व के माध्यम से दिवंगत मित्र से साक्षात्कार के लालच ने मुझे वहाँ जाने को बाध्य किया।
मंच स्तुति
दिवंगत गिरधर बागला से मेरा व्यक्तिगत परिचय नहीं था। लेकिन नाट्य संध्या में उन के पिता जी से भेंट हुई तो पता लगा वह मेरे ननिहाल के गाँव मनोहरथाना, जिला झालावाड़ (राज.) के रिश्ते से मेरा भतीजा था और गिरधर के चचेरे भाई नितिन बागला हिन्दी चिट्ठाजगत के जाने माने ब्लॉगर हैं। मैं वहाँ समय पर पहुँच गया था। लेकिन समारोह आरंभ होने में देरी थी, क्यों कि समारोह के मुख्य अतिथि पूर्व विधायक और भाजपा नेता ओम बिड़ला तथा एक बड़े उद्योग के महाप्रबंधक वी.के.जेटली वहाँ समय पर नहीं पहुँचे थे। वे वहाँ लगभग पौन घंटा की देरी से पहुँचे। हालाँकि इस के लिए उन्हें कतई कसूरवार नहीं ठहराया जा सकता। क्यों कि अक्सर ऐसे आयोजनों में दर्शक ही देरी से एकत्र होते हैं और बिना दर्शकों के आयोजन को आरंभ करने का कोई अर्थ नहीं होता। पर इस आयोजन में थियेटर समय पर भर चुका था और अतिथियों की कमी अखर रही थी। आयोजकों को इस रिक्तता को भरने के लिए अपने संगीतकारों से अतिरिक्त काम लेना पड़ा और दर्शकों को हर्षित का बांसुरी वादन बोनस के रूप में सुनने को मिल गया। 
'ठाकुर' का कुआँ एक दृश्य
हले पृथ्वीराज कपूर मेमोरियल ड्रामेटिक सोसायटी द्वारा वरिष्ठ नाट्य निर्देशक प्रभंजन दीक्षित  द्वारा निर्देशित  'ठाकुर का कुआँ' का मंचन किया। नाटक की अंतर्वस्तु, उस के कुशल रूपांतरण और कलाकारों द्वारा टूट कर किए गए अभिनय ने नाटक को दर्शकों के दिल में सीधा उतार दिया। हालांकि रोशनी का जिस तरह से उपयोग किया गया वह नाटक के संप्रेषण में बाधा उत्पन्न कर रही थी। लेकिन कभी-कभी किसी निर्देशक किसी टूल के प्रति आसक्ति इस अवस्था तक पहुँचा देती है। यह नाटक गाँव की में अछूत जातियों के शोषण की स्थितियों को अपने नंगे स्वरूप में सामने रखते हुए यह स्पष्ट कर रहा था कि जाति व्यवस्था किस तरह सामंती शोषण का सब से मजबूत और अमानवीय औजार है। नाटक ने बार-बार यह याद दिलाया कि दुआजादी के तिरेसठ वर्ष बाद भी हम इस औजार से देश को मुक्त नहीं करा पाए हैं और सामंती शोषण आज भी ग्रामीण जीवन में बरकरार है। 
'ठाकुर का कुआँ' के अभिनेता
दूसरा नाटक के.पी. सक्सेना का 'चोंचू नवाब' था। लेखक और नाटक के नाम से ही स्पष्ट था कि वह एक हास्य प्रस्तुति थी। इसे ग्यारह से तेरह वर्ष के बालक अभिनेताओं ने शरद गुप्ता के निर्देशन में प्रस्तुत किया था। कुशल निर्देशन का परिणाम था कि बालकों ने अपने त्रुटिहीन श्रेष्ठ अभिनय से दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया और सभी का स्नेहपूर्ण प्रशंसा प्राप्त की। अंत में शिवराम के नाटक 'जमीन' के ओम नागर 'अश्क' द्वारा किए गए हाड़ौती रूपांतरण को संवेदना शान्ति नारायण संस्थान द्वारा विजय मैथुल के निर्देशन में प्रस्तुत किया।  यह नाटक बहुत मजबूत है, यह केवल समाज में चल रही शोषण की स्थितियों को ही प्रस्तुत नहीं करता, अपितु उन के प्रतिकार के मार्ग को प्रदर्शित  करता है। यह भी बताता है कि एकल प्रतिकार हमेशा दमन लाता है, लेकिन जब प्रतिकार सामूहिक और संगठित हो तो वह शोषकों के लिए चुनौती बन जाता है और उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर सकता है। इस तरह यह शोषितों में संगठन की चेतना का प्रसार का औजार बन जाता है। यही शिवराम के संपूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व की विशेषता भी थी।
शिवराम के पुत्र शशि अलंकरण ग्रहण करते हुए
नाट्य प्रस्तुति के उपरान्त रंगकमल अलंकरण-2010 दिवंगत शिवराम को प्रदान किया गया। इस अवसर पर रास के सभी नाट्यकारों ने घोषणा की कि इस अलंकरण के पहले हकदार शिवराम थे। लेकिन वे स्वयं रास के प्रमुख थे और उन्हें उस पद पर रहते हुए इसे प्रदान करना संभव नहीं था। वस्तुतः यह अलंकरण कोटा के नाट्य कर्मियों की और से उन्हें दिया गया आदर है, उन के प्रति श्रद्धांजलि है। सभी नाट्यकर्मियों की ओर से मुख्य अतिथि बिड़ला ने शिवराम के भाई शायर पुरुषोत्तम  'यक़ीन' और मंझले पुत्र शशि स्वर्णकार को यह अलंकरण सौंपा। ये दोनों भी नाटकों से जुड़े हुए हैं। 
बिड़ला के साथ शशि
मुख्य अतिथि बिड़ला ने अपने समापन भाषण में नाट्यकर्मियों की कला की बहुत प्रशंसा की और कहा कि उन्हें यहाँ से एक नाटक देख कर दूसरे कार्यक्रम में जाना था लेकिन नाटकों ने उन्हें ऐसा बांधा कि वे नहीं जा सके और उन्हें एक कार्यक्रम रद्द् करना पड़ा। अपने संबोधन में वे नाटकों की समाज परिवर्तन की जो भूमिका थी उस के सम्बन्ध में कुछ भी कहने से चूक गये, यह भी कहा जा सकता है कि वे इस विषय पर कहने से एक चतुर राजनीतिज्ञ की तरह कतरा गए, शायद इस लिए कि हो सकता है यह बात समाचार पत्रों में जाए तो  कहीं यथास्थितिवादियों की नाराजगी उन्हें न झेलनी पड़े।