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शनिवार, 13 मार्च 2010

चितकबरी ग़ज़ल 'यक़ीन' की

पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की क़लम से यूँ तो हर तरह की ग़ज़लें निकली हैं। उन में कुछ का मिजाज़ बिलकुल बाज़ारू है।  बाजारू होते हुए भी अपने फ़न से उस में वे समाज की हक़ीकत को बहुत खूब तरीके से कह डालते हैं। जरा इस ग़ज़ल के देखिए ......

चितकबरी ग़ज़ल 'यक़ीन' की
  • पुरुषोत्तम 'यक़ीन'
हाले-दिल सब को सुनाने आ गए
ख़ुद मज़ाक अपना उड़ाने आ गए

फूँक दी बीमाशुदा दूकान ख़ुद
फिर रपट थाने लिखाने आ गए

मार डाली पहली बीवी, क्या हुआ
फिर शगुन ले कर दिवाने आ गए

खेत, हल और बैल गिरवी रख के हम
शहर में रिक्शा चलाने आ गए

तेल की लाइन से ख़ाली लौट कर 
बिल जमा नल का कराने आ गए

प्रिंसिपल जी लेडी टीचर को लिए
देखिए पिक्चर दिखाने आ गए

हॉकियाँ ले कर पढ़ाकू छोकरे
मास्टर जी को पढ़ाने आ गए

घर चली स्कूल से वो लौट कर 
टैक्सी ले कर सयाने आ गए

काँख में ले कर पड़ौसन को ज़नाब
मौज मेले में मनाने आ गए

बीवी सुंदर मिल गई तो घर पे लोग
ख़ैरियत के बहाने ही आ गए

शोख़ चितकबरी ग़ज़ल ले कर 'यक़ीन'
तितलियों के दिल जलाने आ गए

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शुक्रवार, 12 मार्च 2010

दिमाग पर स्पेस का संकट

ल अनवरत और आज तीसरा खंबा की पोस्टें नहीं हुई। मैं सोचता रहा कि ऐसा क्यों हुआ? एक तो पिछले सप्ताह बच्चे घर पर थे। सोमवार को वे चले गए। बेटी अपनी नौकरी पर और बेटा नौकरी के शिकार पर। उस का लक्ष्य है कि अच्छा शिकार मिले। पिछले चार माह से जंगल (बंगलूरू) में है, अभी कोई अच्छा शिकार काबू में नहीं आ रहा है। मुझे विश्वास है कि वह शीघ्र ही अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेगा। शाम को बात हुई तो पता लगा आज भी सुबह एक लिखित परीक्षा दे कर आया है।  
च्चों के जाते ही अपना काम याद आया। एक हफ्ता मैं ने भी बच्चों के साथ जो गुजारा उस में कुछ काम  फिर के लिए छोड़ दिए गए। पिछले दिनों हड़ताल के कारण  मुकदमें कुछ इस तरह लग गए कि एक-एक दिन में ही चार-पाँच मुकदमे अंतिम बहस वाले। एक दिन में इस तरह के एक-दो मुकदमों में ही काम किया जा सकता है। लेकिन वकील को तो सभी के लिए तैयार हो कर जाना पड़ता है। पता नहीं कौन सा करना पड़ जाए। उस के लिए अपने कार्यालय में भी अतिरिक्त समय देना पड़ता है। पेचीदा मामलों में सर भी खपाना पड़ता है। नतीजा यह कि दूसरी-दूसरी बातों के लिए स्पेस ही नहीं रहता। पिछले तीन दिनों से तो एक मुकदमे मे रोज बहस होती रही। आज पूरी हो सकी। यह बात मैं यूँ ही नहीं कह रहा, वास्तव में ऐसा होता है।

स मुकदमे में मैं तीन प्रतिवादियों में से एक का वकील था। वादी ने अपनी गवाही के दौरान एक दस्तावेज  की फोटो प्रति यह कहते हुए मुकदमे में पेश कर दी कि उस की असल उस के पास थी लेकिन गुम हो गई, इस रिकार्ड पर ले लिया जाए। हमारे मुवक्किल ने कहा कि यह फर्जी है, असल की जो प्रति उसे दी गई थी वह कुछ और कहती है। लेकिन वह प्रति तलाश करनी पड़ेगी। प्रति बेटे के पास थी जो रोमानिया में था। बेटा कुछ माह बाद भारत आया तो उस ने तलाश कर के वह दी। दोनों में पर्याप्त अंतर था। यह पहचानना मुश्किल था कि कौन सी सही है और कौन सी गलत। हमने अपने मुवक्किल की प्रति पेश कर उसे रिकॉर्ड पर लेने का निवेदन अदालत से किया। हमारी प्रति रिकार्ड पर नहीं ली गई। हम हाईकोर्ट जा कर उसे रिकार्ड पर लेने का आदेश करा लाए। इस मुकदमे में दोनों को ही एक दूसरे की प्रति को गलत और अपनी को सही साबित करना था। हम इसी कारगुजारी में उलझे रहे। इस मुकदमे में अनेक अन्य बिंदु भी थे। अदालत ने उन सब पर बहस सुनी ,लगातार तीन दिन तक। जब एक ही मुकदमा तीन दिन तक लगातार चले। वही फैल कर  आप के दिमाग की अधिकांश स्पेस को घेर ले साथ में रूटीन काम भी निपटाने हों तो कैसे दिमाग में स्पेस हो सकती है।
स बीच अनेक बातें सामने आई, जिन पर लिखने का मन था। लेकिन स्पेस न होने से वे आकार नहीं ले सकी। उन पर सोचने और काम करने का वक्त तो निकाला जा सकता था, लेकिन दिमाग स्पेस दे तब न। अब आज दिमाग को स्पेस मिली है तो वह कुछ भी सोचने से इन्कार कर रहा है। शायद वह भी थकान के बाद आराम चाहता हो। तो उसे आराम करने दिया जाए। तो आप के साथ उसे भी शुभ रात्रि कहता हूँ। कल मिलते हैं फिर उस के साथ आप से।

बुधवार, 10 मार्च 2010

यूँ समापन हुआ होली पर्व का

यूँ तो हाड़ौती (राजस्थान का कोटा संभाग) में होली की विदाई न्हाण हो चुकने के उपरांत होती है। न्हाण इस क्षेत्र में होली के बारहवें दिन मनाया जाता है। हमारे बचपन में हम देखते थे कि होली के दिन रंग तो खेला जाता था लेकिन केवल सिर्फ गुलाल से। लेकिन गीले रंग या पानी का उपयोग बिलकुल नहीं होता था। लेकिन बारहवें दिन जब न्हाण खेला जाता था तो उस में गीले रंगों और रंगीन पानी का भरपूर उपयोग होता था। सब लोग अपनी अपनी जाति के पंचायत स्थल पर सुबह जुटते थे और फिर टोली बना कर नगर भ्रमण करते हुए जाति के प्रत्येक घर जाते थे। शाम को जाति की पंचायत होती थी जिस में पुरुष एकत्र होते थे। जिस में वर्ष भर के आय-व्यय का ब्यौरा रखा जाता था। पूरे वर्ष में पंचायत ने क्या-क्या काम किए उन पर चर्चा होती थी। अगले वर्ष में क्या-क्या किया जाना अपेक्षित है, इस पर चर्चा होती थी और निर्णय लिए जाते थे और अगले वर्ष के लिए पंच और मुखिया चुन लिए जाते थे। 
पंचायत में भाग लेने वालों को देशी घी के बूंदी के लड़्डू वितरित किए जाते थे जो कम से कम ढाई सौ ग्राम का एक हुआ करता था।पंचायतें अब भी जुटती हैं। लेकिन न्हाण लगभग समाप्त प्राय हो चला है। केवल ग्रामीण इलाकों में ही शेष रह गया है। कोटा जिले के एक कस्बे सांगोद में न्हाण को एक विशेष सांस्कृतिक पर्व के रूप में मनाया जाता है जो होली से ले कर न्हाण तक चलता रहता है। उस के बारे में फिर कभी।
मेरे यहाँ होली का आरंभ हुआ था बेटी और बेटे के आने से। कल दोनों चले गए। हम उन्हें छोड़ने स्टेशन गए। दोनों की ट्रेन में कोई घंटे भर का अंतर था। पहले बेटे को ट्रेन मिली और घंटे भर बाद बेटी को। बेटी सुबह अपने गंतव्य पर पहुँच गई। बेटा अभी सफर में है उस का सफऱ करीब छत्तीस घंटों का है। वह आज दोपहर बाद ही बंगलूरू पहुँच सकेगा। स्टेशन पर जाते समय उन के चित्र लिए जो यहाँ मौजूद हैं। आज घर एकदम सूना सा लगा। होली पर सब के साथ रहने से फेल गए घऱ को पुनः समेटने में आज पत्नी ने पूरा दिन लगा दिया। मेरे घऱ होली समाप्त हो गई है और घऱ सिमट गया है।

सोमवार, 8 मार्च 2010

और एक हुसैन.........

 और एक हुसैन.........

  •  दिनेशराय द्विवेदी
एक हुसैन ठेला घसीटता है
और पहुँचाता है
सामान, जरुरत मंदों तक
एक हुसैन सुबह-सुबह 
म्युनिसिपैलिटी की गाड़ी आने के पहले
कचरे में से बीनता है
काम की चीजें
अपनी रोटी के जुगाड़ने को

एक हुसैन भिश्ती
दोपहर नालियाँ धोता है
कि बदबू न फैले शहर में

एक हुसैन सुबह अपनी बेटी को छोड़ कर आता है
स्कूल
दसवीं कक्षा के इम्तिहान के लिए 

एक हुसैन अंधेरे मुँह गाय दुहता है
और निकल पड़ता है
घरों को दूध पहुँचाने

एक और हुसैन ........
एक और हुसैन.........
और एक हुसैन.........
कितने हुसैन हैं?

लेकिन याद रहा सिर्फ एक
जिसने कुछ चित्र बनाए
लोगों ने उन्हें अपनी संस्कृति का अपमान समझा
उसे पत्थर मारे
और उसे यादगार बना दिया
ठीक मजनूँ की तरह।

खुशी, जो मिलती है आभासी के वास्तविक होने पर

ल रात मैं भोजन कर निपटा ही था कि मोबाइल घनघना उठा। जहाँ मैं था वहाँ सिग्नल कमजोर होने से आवाज स्पष्ट नहीं आती। मैं ने मोबाइल उठाया तो नमस्ते के बाद कहा गया कि मैं रतलाम से .......... बोल रहा हूँ। नाम स्पष्ट समझ नहीं आया। बाद में संदेश था कि वे सुबह मुंबई-जयपुर एक्सप्रेस से सवाईमाधोपुर जा रहे हैं। साथ में उन  के भतीजे की बेटी भी है। मेरे लिए उन के पास एक पार्सल है। यदि किसी को स्टेशन भेज सकें तो पार्सल उन्हें दे दूंगा। यह ट्रेन कोटा सुबह 8.40 पर पहुँचती है। मुझे सुबह छह बजे अपनी बेटी को स्टेशन छोड़ना था। घर से स्टेशन 12 किलोमीटर पड़ता है। सोचा दो घंटे स्टेशन के किसी मित्र से मिलने में गुजार लेंगे। मैं ने उन्हें कह दिया कि मैं खुद ही स्टेशन हाजिर होता हूँ। इस के बाद बात समाप्त हो गई। 
मुझे समझ नहीं आ रहा था कि रतलाम से किस का फोन हो सकता है। भतीजे की  बेटी साथ है तो निश्चित रूप से  उन की उम्र 55-60 तो होनी ही चाहिए थी। इस उम्र के केवल दो ही व्यक्ति  हो सकते थे। एक विष्णु बैरागी और दूसरे मंसूर अली हाशमी। बैरागी जी की भाषा और आवाज कुछ अलग है। निश्चित ही वे नहीं थे। जरूर वे मंसूर अली हाशमी रहे होंगे। फिर देर रात जी-मेल पर उन का चैट संदेश देखा तो पक्का हो गया कि वे ही हैं।  संदेश का उत्तर दिया, लेकिन वह संदेश शायद फोन करने के पहले का था। रात के बारह बजने वाले थे।  उत्तर का उत्तर नहीं आया। उन की ट्रेन रतलाम से सुबह चार बजे चलती है, जिस के लिए उन्हें निश्चित ही तीन बजे तो तैयारी करनी होगी। निश्चित ही वे तब तक सो चुके होंगे।
सुबह साढ़े चार नींद खुली तो घर में कोई उठा न था। मैं ने शोभा को कहा -उठो पूर्वा को जाना है न। तो उस ने बताया कि उस को रात पेट में बहुत दर्द था। वह नहीं जा रही है। मेरी भी नींद पूरी नहीं हुई थी। मैं फिर से सो गया। सुबह आठ बजे मैं घर से रवाना हुआ। गाड़ी कोई दो-सौ मीटर ही चली होगी कि हाशमी जी का फोन आ गया। मैं ने उन्हें बताया कि उन की गाड़ी दरा घाटी से गुजर रही होगी, वे उस का आनंद लें मैं उन से स्टेशन पर ही मिल रहा हूँ। 
 मैं प्लेटफार्म पर कोई पंद्रह मिनट पहले पहुँच गया था, वहाँ एक और ट्रेन खड़ी थी। अगले पाँच मिनट में वह चल दी। फिर कोच के लिए डिस्प्ले आने लगा तो मैं वांछित कोच के स्थान पर बैंच पर जा बैठा। कोई दस मिनट बाद प्रतीक्षित ट्रेन भी आ गई। हाशमी जी कोच के दरवाजे पर ही थे। ट्रेन रुकते ही उतरे और सीधे गले आ लगे। जैसे हम बचपन या किशोरावस्था के बहुत गहरे मित्र हों और बरसों बाद मिल रहे हों। उन्हों ने एक पोली-बैग मेरी तरफ बढ़ाया और बोले -बस रतलाम की सौगात है। मैं भी ऐसे ही एक छोटे बैग में कुछ सौगात लिए था । हमने बैग बदल लिये। पीछे से उन की पौत्री उतरी, यही कोई बाईस से पच्चीस के बीच की रही होगी। उस ने तुरंत हाथ बढ़ाया, मैं ने गौर से उस के चेहरे की ओर देखा। आँखें कह रही थीं -हैलो अंकल! शेक हैंड। मेरा हाथ तुरंत बढ़ गया। इतनी देर में जेब से कैमरा निकाल कर वे मेरा एक चित्र ले चुके थे। मैं लड़की से बात करने लगा। वे बड़ी तेजी से कोई पचास फुट दूर तक गए। लगा जैसे उन की उम्र 62 नहीं 20-22 हो। मैं चौंका, ऐसा क्या हुआ कि वे इतनी इतनी तेजी से दूर गए। उन की ओर देखा तो वे दूर से एक चित्र ले रहे थे। वे फिर पास आए तो मैं ने भी अपने मोबाइल से उन का चित्र लिया।
मारे पास केवल दस मिनट थे जिस में से तीन समाप्त हो चुके थे। इतने में उन की पौत्री ने बोला- वो लड़का डिब्बे में अपना बैग छोड़ कर भाग गया। अब हम दोनों के चौंकने की बारी थी।  बिटिया कह रही थी कि वह सुबह किसी स्टेशन से चढ़ा था और पास वाले से अजीब सी बातें कर रहा था। हाशमी जी ने बोला स्टाल पर कुछ लेने गया होगा। मैं ने कहा -बिटिया की सजगता को हलके से न लेना चाहिए। बिटिया ने कोच में चढ़ कर उस का बैग बताया। रंग में काला बैग पुराना था। मुझे उस में संदेहास्पद कुछ न लगा। हम फिर बातें करने लगे। उन्हें सवाई माधोपुर हो कर श्योपुर जाना था। मैं ने बोला वह तो मध्य प्रदेश में है, अब अलग जिला है पहले मुरैना जिले में हुआ करता था। हाशमी जी की प्रतिक्रिया थी -यानी हम मध्यप्रदेश से चल कर वापस वहीं पहुँच जाएंगे?
फिर रतलाम की बात चली। वे बताने लगे वहाँ मेडीकल स्टोर ठीक चल रहा है। पर मैं ने कुछ कृषि भूमि खरीद ली है और खेती करने का आनंद ले रहा हूँ।  उन्हों ने कैमरे में अपने परिजनों और खेत में गेहूँ की फसल के चित्र दिखाए। मैं न कवि अलीक के बारे में जानना चाहा तो उन्हों ने बताया कि उन का कविता संग्रह छप कर तैयार है बस विमोचन का तय नहीं हो पा रहा है। मैं ने उन से वादा किया कि विमोचन में शिवराम या महेन्द्र नेह अवश्य आएंगे और मैं भी उन के साथ चला आउंगा। वे कहने लगे -मैं ने कोटा आने का काम पूरा कर दिया है, अब आप की बारी है। गाड़ी अब चलने का संकेत दे रही थी। भागा हुआ लड़का दौड़ते हुए वापस आया और अपना बैग ले कर कोच के दूसरे हिस्से में चला गया। उसे वापस आया देख कर हमें संतोष हुआ, सब से अधिक हाशमी जी की पौत्री की चिंता खत्म हुई। गाड़ी चलने लगी तो हाशमी जी ने गाड़ी में चढ़ कर विदा ली।
हाशमी जी से परिचय इसी आभासी दुनिया में हुआ। उन के तीन ब्लॉग हैं आत्म-मंथन, अदब नवाज, और चौथा बंदर। मुझे उन के लेखन में अक्सर उन की जवानी के दिनों का जो उल्लेख होता है उस में और मेरी किशोरावस्था में बहुत समानता प्रतीत हुई। शायद उस जमाने की मेरी और उन की पसंद एक जैसी थी। उन के लेखन में वही जवानी वाली शरारतें अब भी हैं। जो उन्हें मेरी पसंदीदा बनाती हैं।  आज एक आभासी संबंध वास्तविकता में बदला। आप भी महसूस कर रहे होंगे कि आभासी संबंध जब वास्तविक होता है तो कितनी खुशी देता है।

शनिवार, 6 मार्च 2010

दुर्घटना के मुकदमों में दावेदारों की वकालत का विकास

पनी वकालत का यह बत्तीसवाँ साल चल रहा है। वकालत के पहले दस-बारह वर्षों में यदा-कदा मोटर दुर्घटना में घायल होने या मृत्यु हो जाने के मुकदमे सहज रूप से आया करते थे। इसी तरह कामगार क्षतिपूर्ति के मुकदमे सहज रूप से आते ही थे। हम अपने सेवार्थी से मुकदमे का खर्च लेते थे और जो भी फीस तय होती थी उस का आधा पहले लेते थे और शेष आधी फीस मुकदमे में बहस होने के पहले तक सेवार्थी अपनी सुविधा से जमा कर देता था। फीस की राशि निश्चित होती थी और उस का संबंध सेवार्थी को मिलने वाली राशि पर निर्भर नहीं होता था। 
1980 आते-आते स्थिति यह हो गई कि सेवार्थी जिद करने लगे कि वे मुकदमे का खर्च तो देंगे, लेकिन फीस नहीं देंगे। मुकदमे से मिलने वाली क्षतिपूर्ति का निर्धारित प्रतिशत वे क्षतिपूर्ति राशि मिलने पर देंगे। आरंभ में सेवार्थी से हम अपनी शर्त मनवाने के लिए जिद करते थे। लेकिन वकीलों में ही कुछ लोग इन शर्तों को मानने को तैयार हो गए तो हम ने भी इस शर्त को स्वीकार कर लिया। तब फीस का प्रतिशत मिलने वाली क्षतिपूर्ति की राशि का पाँच से आठ प्रतिशत तक हुआ करता था। इस से वकीलों को मिलने वाली फीस की राशि में पर्याप्त वृद्धि होती थी। क्षतिपूर्ति का भुगतान बीमा कंपनी करती थी और यह राशि मिलने पर सेवार्थी फीस वकील को दे दिया करते थे। कोई कोई सेवार्थी ऐसा होता था जो फीस देने में बेईमानी भी कर लेता था। हम लोग उसे भुगत लेते थे या फिर किसी तरह से उस से फीस वसूल कर लेते थे। 
फीस बढ़ने से इस ओर सभी वकीलों का आकर्षण बढ़ा। अब वकीलों में प्रतिस्पर्धा उत्पन्न हो गई। वकीलों ने यह कर दिया कि वे खर्चा भी नहीं लेने लगे लेकिन फीस बढ़ कर दस प्रतिशत तक पहुँच गयी। यह 1990 के आसपास की बात है। इस बीच 1984 में भोपाल में गैस दुर्घटना हुई। क्षतिपूर्ति के मुकदमे करने के लिए अमरीका के वकीलों ने मुवक्किलों से संपर्क किया और मुकदमा करने के लिए दावेदारों को क्षतिपूर्ति की राशि अग्रिम देने का प्रस्ताव किया। इस से देश के उन वकीलों ने सीखा  जो इस व्यवसाय में पूंजी का नियोजन  कर सकते थे उन्हों ने दुर्घटना के मुकदमे हासिल करने के लिए दावेदारों को अपने पास से अग्रिम राशि देने की पेशकश करना आरंभ कर दिया।
काम हासिल करने का यह तरीका उन वकीलों को रास आया जो वकालत के लिए पूंजी का नियोजन कर सकते थे। धीरे-धीरे काफी वकील इस क्षेत्र में आ गए उन्हों ने पूंजी नियोजित न कर सकने वाले और करने की इच्छा न रखने वाले वकीलों को इस क्षेत्र से विस्थापित कर दिया। अब इस क्षेत्र में केवल वे ही अकेले रह गए। लेकिन पूंजी नियोजित करने वालों की संख्या भी धीरे-धीरे बढ़ती रही। अब उन के बीच भी प्रतिस्पर्धा होने लगी। लोग समाचारों पर निगाह रखने लगे कि कहाँ दुर्घटनाएँ हो रही हैं। वकील दुर्घटना में मृत्यु होने वाले परिवारों से घर जा कर संपर्क करने लगे। इस प्रतिस्पर्धा की स्थिति यह हो गई कि वकील दुर्घटना में मृतक की अंत्येष्टि पर पंहुचने लगे। घायलों से अस्पतालों में ही संपर्क करने लगे। अब तो स्थिति यह है कि मृतक का पोस्टमार्टम जहाँ हो रहा हो वहाँ भी पहुंचने लगे हैं। 
दुर्घटना स्थल पर सब से पहले पुलिस पहुँचती है। पुलिस ने भी जब वकीलों का यह रवैया देखा तो अन्वेषण करने वाले पुलिस अफसरों ने इसे अपनी आय का जरिया बना लिया। अब अन्वेषण अधिकारी पोस्टमार्टम के लिए अस्पताल आते ही सब से पहले उस वकील को सूचना देता है जिस से उसे कुछ कमीशन मिलने वाला होता है और यह बताता है कि यहाँ मृतक के रिश्तेदार मौजूद हैं, वह आ कर मुकदमा हासिल कर ले। वकीलों की सेवाएँ अब यहाँ तक पहुँच गई हैं कि वे दावे के लिए न केवल तमाम दस्तावेजात जुटाते हैं बल्कि दावेदारों को पच्चीस-तीस हजार तक धन राशि स्वयं अपने पास से अग्रिम दे देते हैं जिसे वे मुकदमे में अंतरिम क्षतिपूर्ति राशि मिलने के समय वापस वसूल कर लेते हैं। 
ज हमारे सामने ऐसा ही एक वाकया आया। एक वकील साहब हमारे साथ चाय पी रहे थे कि उन के पास पुलिस अफसर का फोन आया कि वे दुर्घटना में मृतक का पोस्टमार्टम करवा रहे हैं, मृतक के रिश्तेदार आ गए हैं आप बात कर लें। यह कह कर पुलिस अफसर ने फोन मृतक के रिश्तेदार को पकड़ा दिया। मृतक के रिश्तेदार ने फोन पर केवल यह कहा कि वकील साहब आप अग्रिम क्या दे रहे हैं? यहाँ एक वकील साहब पहले से आए हुए हैं और बीस हजार देने को तैयार हैं। वकील साहब का नाम पूछा तो पता लगा कि वह दूसरे जिले का वकील है और मुकदमा हासिल करने के लिए यहाँ तक आ गया है।

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

खिन्नता यहाँ से उपजती है

दो दिन कुछ काम की अधिकता और कुछ देश की न्याय व्यवस्था से उत्पन्न मन की खिन्नता ने  न केवल अनवरत पर अनुपस्थिति दर्ज कराई, पठन कर्म भी नाम मात्र का हुआ।  मैं भी इस न्याय व्यवस्था का ही एक अंग हूँ। अधिक खिन्नता का कारण भी यही है कि देश की ध्वस्त होती न्याय व्यवस्था का प्रत्यक्षदर्शी गवाह भी हूँ। 
32 वर्ष पहले जिस माह में मुझे वकालत की सनद मिली थी। उसी माह आप के सुपरिचित कवि-गीतकार महेन्द्र 'नेह' को अपने एक साथी के साथ बिना किसी कारण नौकरी से हटा दिया गया था। उन्हों ने मुकदमा दायर किया। जो श्रम विभाग में पाँच वर्ष घूमते रहने के उपरांत श्रम न्यायालय को प्रेषित किया गया। इस बीच उन के एक और साथी को नौकरी से हटाया गया। उन का मुकदमा भी उसी वर्ष श्रम न्यायालय में पहुँच गया। 1995 में तीनों व्यक्तियों के मुकदमे अंतिम बहस में लग गए। पाँच जज उस में अंतिम बहस सुन भी चुके। लेकिन हर बार उन के फैसला लिखाने के पहले ही उन का स्थानान्तरण हो जाता है। एक ही मुकदमें में पाँच बार बहस करना वकील के लिए बेगार से कम नहीं। आखिर उसे एक ही काम को पाँच बार करना पड़ रहा है। दूसरी ओर एक व्यक्ति का अदालत में 26 वर्ष से मुकदमा चल रहा है और पाँच बार बहस करने के उपरांत भी उस का निर्णय देने में अदालत सक्षम नहीं हो सकी। खिन्नता यहाँ से उपजती है।
क मुकदमा आज न्यायालय में एक प्रारंभिक प्रश्न पर बहस के लिए था। जब कि उस मुकदमे को चलते बीस साल हो चुके हैं। आज फिर उस प्रारंभिक प्रश्न को दर किनार कर कुछ नए मुद्दे उठाए गए। कर्मचारी से अदालत ने पूछा कि उस की उम्र कितनी हो गई है? उस का उत्तर था साढ़े अट्ठावन वर्ष। अब नौकरी के डेढ़ वर्ष शेष रह गए हैं। मैं जानता था कि इतने समय में उस मुकदमे का निर्णय नहीं हो सकता। दो-तीन साल में उस के पक्ष में निर्णय हो भी गया तो नौकरी पर तो वह जाने से रहा। कुछ आर्थिक लाभ उसे मिल सकते हैं। लेकिन उन्हें रोकने के लिए हाईकोर्ट है। मैं ने कल पता किया था कि हाईकोर्ट का क्या हाल है? पता लगा कि वहाँ अभी 1995-96 में दर्ज मुकदमों की सुनवाई चल रही है, अर्थात पंद्रह वर्ष पूर्व के मुकदमे। अब यदि इस कर्मचारी का मुकदमा हाईकोर्ट गया जिस की 99 प्रतिशत संभावना है को उस के जीवन में हो चुका फैसला!
हस के दौरान ही मैं ने कर्मचारी से कहा -बेहतर यह है कि तुम अदालत को हाथ जोड़ लो और कहो कि अदालत उस का मुकदमा उस के जीवन में निर्णीत करने में सक्षम नहीं है। वह इसे चलाएगा तब भी उसे उस का लाभ नहीं मिलेगा। इस लिए वह इसे चलाना नहीं चाहता। अदालत ने कहा कि इस का जल्दी फैसला कर देंगे। चाहे दिन प्रतिदिन सुनवाई क्यों न करनी पड़े। लेकिन ऐसे मुकदमों की संख्या अदालत में लंबित चार हजार में से पचास प्रतिशत से अधिक लगभघ दो हजार है। उन सब की दिन प्रतिदिन सुनवाई हो ही नहीं सकती। 

मैं तीसरा खंबा के लिए लिखी जा रही भारत मे विधि का इतिहास श्रंखला के लिए पढ़ रहा था तो मुझे उल्लेख मिला कि 1813 में लॉर्ड हेस्टिंग्स के बंगाल का गवर्नर जनरल बनने के समय लगभग ऐसे ही हालात थे। वर्षों तक निर्णय नहीं होने से लोगों की आस्था न्याय पर से उठ गई थी। लोग संपत्ति और अन्य विवादों का हल स्वयं ही शक्ति के आधार पर कर लेते थे। तब राजतंत्र था। आज जनतंत्र है लेकिन शायद हालात उस से भी बदतर हैं। उस समय भी यह समझा जाता था कि आर्थिक कारणों से अधिक अदालतें स्थापित नहीं की जा सकती हैं। लेकिन लॉर्ड हेस्टिंग्स ने उस समय की आवश्यकता को देखते हुए न केवल न्यायालयों की संख्या में वृद्धि की अपितु शीघ्र न्याय के लिए आवश्यक कदम उठाए। आज देश में न्याय व्यवस्था की स्थिति बदतर है, देश के मुख्य न्यायाधीश कह चुके हैं कि देश में 60000 के स्थान पर केवल 16000 न्यायालय हैं। इन की संख्या तुरंत बढ़ा कर 35 हजार करना जरूरी है अन्यथा देश में विद्रोह हो सकता है।
लेकिन देश के शासनकर्ताओं पक्ष-विपक्ष के किसी राजनेता के कान पर जूँ  तक नहीं रेंगती। उन्हें न्याय से क्या लेना-देना। शायद इसलिए कि न्याय उन की गतिविधियों में बाधक बनता है? केन्द्र सरकार ने जो ताजा बजट पेश किया है उस में सु्प्रीम कोर्ट के लिए जिस धन का प्रावधान किया गया है वह पिछले वर्ष से कम धन का है। जब कि इसी अवधि में महंगाई के कारण रुपए का अवमूल्यन हुआ है।