@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शुक्रवार, 10 नवंबर 2023

धन्वन्तरि जयन्ती

आज धन्वन्तरि जयंती है। कहते हैं धन्वन्तरि उज्जयनी के राजा विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्न थे। उन्हें विष्णु का एक अवतार भी कहा जाता है।

यह भी कहते हैं कि 800 या 600 वर्ष ईसा पूर्व प्राचीन काल के महान शल्य चिकित्सक सुश्रुत ने धनवन्तरि से वैद्यक की शिक्षा ग्रहण की थी।

इसी तरह की बहुत सी विरोधाभासी सूचनाएँ हैं जो विभिन्न माध्यमों में मिल जाती हैं।

मनुष्य आदिकाल से बीमारियों और स्वास्थ्य रक्षा के लिए प्रयत्न करता रहा है। जिसने जो खोजा, जो ज्ञान प्राप्त किया उसे आने वाली पीढ़ी को हस्तान्तरित कर दिया। मोर्य और गुप्त काल में जब चिकित्साशास्त्र को संहिताबद्ध किया जा रहा था तो इस विद्या के लिए एक काल्पनिक देवता का आविष्कार कर लिया गया जिसे धन्वन्तरि कहा गया। पुराणों में धन्वन्तरि की उत्पत्ति समुद्र मंथन से कही जाती है। जब समुद्र मंथन का आख्यान रचा गया। चिकित्सा के व्यवसाय में अधिकांश ब्राह्मण ही थे। पुराणों की रचना के दौरान मनुष्य का समस्त ज्ञान और कृतित्व ईश्वर को समर्पित कर दिया गया। तभी चिकित्सा के लिए हुए तब तक के तमाम प्रयास और प्राप्त ज्ञान को भी ईश्वर को समर्पित कर दिया गया।

दादाजी थोड़े बहुत, और पिताजी पूरे वैद्य थे। मैंने भी आयुर्वेद की शिक्षा ग्रहण की। दिल्ली विद्यापीठ से वैद्य विशारद किया और आयुर्वेदिक चिकित्सालय में इन्टर्नशिप भी की। बचपन से ही निकट के आयुर्वेद औषधालयों में धनतेरस के दिन भगवान धन्वन्तरि की पूजा होती देखी है और उन पूजाओं में शामिल भी हुआ हूँ। यह पूजा भारतीय चिकित्साशास्त्र में अपना योगदान करने वाले तमाम चिकित्सकों का स्मरण और आभार प्रकट करने का अवसर है। इस अवसर का हमें कभी त्याग नहीं करना चाहिए। जब से धनतेरस का मिथक धन-संपदा के साथ जुड़ा है तब से धन्वन्तरि को लोग विस्मृत करते चले जा रहे हैं। आज धन्वन्तरि का स्मरण करने वाले बहुत उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। दूसरी ओर बाजार आज जगमग है, भारी भीड़ है। लोग एक दूसरे से सटे हुए निकल रहे हैं।

आज धन्वन्तरि जयन्ती के इस अवसर पर भारत के तथा दुनिया भर के चिकित्सकों और चिकित्साशास्त्र में अपना योगदान करने वाले तमाम वैज्ञानिकों का आभार प्रकट करता हूँ। अनन्त शुभकामनाएँ कि सभी को चिकित्सा और स्वास्थ्य प्राप्त हो।

 

सोमवार, 9 अक्टूबर 2023

इमोजियाँ

पहले मात्र इशारे थे और थे स्वर
व्यंजन सभी भविष्य के गर्भ में छिपे थे
शनैः शनैः मनुष्य ने उच्चारना सीखा
तब जनमें व्यंजन
 
वह पत्थरों पर पत्थरों से
उकेरता था चित्र
वही उसकी अभिव्यक्ति थी

शनैः शनैः चित्र बदलते गए अक्षर लिपियों में
अक्षर लिपियों और उच्चारण के
संयोग से जनमी भाषाएँ

लिखना बदला टंकण में
और कम्प्यूटर के आविष्कार के बाद
चीजें बहुत बदल गईं दुनिया में
अभिव्यक्ति के नए आयाम खुले

अब शब्दों ही नहीं वाक्यों को भी
प्रकट करती हैं इमोजियाँ
लगता है मनुष्य वापस लौट आया है
चित्र लिपियों के युग में

मैंने अपने आप को देखा
मैं खड़ा था बहुत ऊँचे
मैं नीचे झाँका
तो वहाँ बहुत नीचे
ठीक मेरी सीध में दिखाई दिए
आदिम मनुष्य द्वारा अंकित चित्र
और चित्र लिपियाँ

लौट आया था मैं उसी बिन्दु पर
लेकिन नहीं था ठीक उसी जगह
उससे बहुत ऊँचाई पर था।
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गुरुवार, 31 अगस्त 2023

रुक गए और पीछे को लौट रहे लोगों को साथ लेने की कोशिश भी जरूरी है

कल मैंने राखी बांधने के सन्दर्भ को लेकर मुहूर्तों की निस्सारता पर एक पोस्ट लिखी थी। उस पर मुझे दो गंभीर उलाहने मिले। पहला उलाहना मिला मेरे अभिन्न साम्यवादी साथी से। उनका कहना था कि पोस्ट बहुत अच्छी थी, लेकिन पोस्ट के अन्तिम पैरा से पहले वाले पैरा में जिसमें मैंने मुहूर्त चिन्तामणि ग्रन्थ का उल्लेख किया था उसकी बिलकुल आवश्यकता नहीं थी। उससे फिर से लोग उसी दलदल में जा फँसे।

साथी की बात कुछ हद तक सही थी। किन्तु मेरा हमेशा से यह मानना रहा है कि मानव विकास की यात्रा में अनेक पड़ाव हैं। मनुष्यों के अनेक दल हैं और ये सभी अलग अलग पड़ाव पर खड़े हैं या किन्हीं दो पड़ावों के मध्य यात्रा पर हैं। जो यात्रा पर हैं उनमें से अनेक प्रगतिशील हैं और हर समय कुछ न कुछ सीख रहे हैं, आगे बढ़ रहे हैं। अनेक ऐसे हैं जो किसी पड़ाव पर रुक गए हैं और आगे बढ़ने से डर रहे हैं या आगे बढ़ने की इच्छा त्याग चुके हैं। अनेक ऐसे भी हैं जो इतने भयभीत हैं कि उन्हें प्रस्थान-बिन्दु ही प्रिय लगता है और वे जहाँ तक आगे बढ़े थे वहाँ से भी पीछे हट कर उस पिछले पड़ाव पर हैं जिसे वे अपने लिए सुरक्षित समझते हैं। कुछ तो ऐसे भी होंगे जो प्रस्थान बिन्दु तक भी पहुँच गए होंगे, वे और पीछे जाना चाहते होंगे लेकिन उस बिन्दु से पीछे जाने का मार्ग जैविक रूप से ही बन्द हो चुका है। यह आगे बढ़ने और पीछे हटने की यात्राएँ हमे निरन्तर दिखाई पड़ती हैं। पीछे जाने वाले दक्षिणपंथी-पुरातनपंथी हैं। यह पंथ शोषक-सत्ताधारियों को बहुत पसंद आता है क्योंकि इससे उन्हें किसी तरह का भय नहीं महसूस होता है। न रुक कर आगे की यात्रा करने वाले प्रगतिशील और वामपंथी हैं, जो अपने अपने पड़ाव पर रुक गए हैं और जिन्हें वहीं स्थायित्व नजर आता है वे यथास्थितिवादी हैं।

मैं उन लोगों में हूँ जो इस विकास यात्रा में अपनी स्थिति से आगे बढ़ना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ सम्पूर्ण मानवजाति एक साथ आगे बढ़े। रुके हुए और पीछे जा रहे लोगों को अपने साथ लाने का काम भी बड़ा काम है। इस काम में जो व्यक्ति जिस स्थान पर रुका है या पीछे जा रहा है उसे उसी स्थान से लाकर साथ साथ लिया जा सकता है जहाँ वह अवस्थित है। जो अलग अलग स्थानों पर खड़े हैं उन्हें समझाने के तरीके भी भिन्न भिन्न होंगे। जिन्होंने मान लिया कि ये मुहूर्त वगैरह निरर्थक हैं, वे मेरे साथ आगे बढ़ने को तैयार थे, ऐसे लोगों को तो इस पोस्ट की बिलकुल भी जरूरत नहीं थी। बहुत लोग ऐसे थे जिनका दम इन परंपराओँ में घुट रहा है लेकिन अभी भी इस निस्सारता को समझने की स्थिति में नहीं हैं। मुझे लगा कि उनके लिए इस पोस्ट में कुछ न कुछ जरूर होना चाहिए जिससे उन्हें उनकी घुटन से कुछ तो राहत मिले और वे आगे की सोच सकें। क्योंकि इस पोस्ट को लिखा तो उन्हीं के लिए था। यह पोस्ट इस मामले में अपनी स्थिति को स्पष्ट करने के लिए स्वान्तः सुखाय तो बिलकुल भी नहीं लिखी थी।

मैं ने साथी की आपत्ति के बाद अपनी पोस्ट का पुनरावलोकन किया। मुझे लगा कि जहाँ मैंने मुहूर्त चिन्तामणि का उल्लेख किया वहीं इस बात का उल्लेख भी पुनः करना चाहिए था कि "यद्यपि अच्छे और मानवजाति के भले के लिए किए जाने वाले काम के लिए किसी मुहूर्त की कोई आवश्यकता नहीं फिर भी जो लोग अभी असमंजस में हैं उनके लिए मैं यह संदर्भ प्रस्तुत कर रहा हूँ।" इस संदर्भ की इसलिए भी आवश्यकता थी कि लोग जानते हैं मैं कम्युनिस्ट हूँ, और असमंजस वाले लोग यह न समझें कि मैं इसीलिए आलोचना कर रहा हूँ। जब कि मेरा वैचारिक परिवर्तन अचानक नहीं हुआ। मुझे पंडताई वाली वे सब विद्याएँ बचपन और किशोरावस्था में सिखाई गयीं। घर में सभी तरह के धार्मिक, कर्मकांड सम्बन्धी और ज्योतिष ग्रन्थ बड़ी मात्रा में थे। मेरे पास उन्हें पढ़ने को पर्याप्त समय भी था। उन्हें पढ़ने और उनके अन्तर्विरोधों को भलीभाँति समझने और गुनने के बाद ही मुझे आगे की चीजें जानने की उत्कंठा हुई जिसके कारण मैं स्वाभाविक रूप से वैज्ञानिक विचार और वैज्ञानिक दर्शन "द्वंद्वात्मक भौतिकवाद" को जान सका। समझ सका कि यह दर्शन वास्तव में हमें स्पष्ट कर देता है कि दुनिया के तमाम व्यवहार किस पद्धति से चल रहे हैं और लगातार परिवर्तित हो रहे हैं। उस दर्शन को दैनंदिन घटनाओं पर अभ्यास करके परखा और फिर उस पर विश्वास किया। मेरा यह विश्वास हर दिन, हर पल, हर नयी जानकारी के साथ मजबूत होता है।

मेरी कल की कोशिश बस इतनी ही थी कि मैं अपने साथ वाले लोगों के कारवाँ के साथ ही आगे न बढ़ता रहूँ, बल्कि रुक गए और पीछे छूट गए लोगों को भी साथ लेता चलूँ। इसके बिना मंजिल पर पहुँचना शायद संभव भी नहीं। मुझे लगता है मेरी यह कोशिश कुछ तो कामयाब हुई ही है। दूसरे उलाहने का यहाँ उल्लेख नहीं करूंगा उसके बारे में अगली किसी पोस्ट में बात करूंगा।

बुधवार, 30 अगस्त 2023

मुहूर्तों की निस्सारता

लेकिन मुहूर्त देखने का व्यवसाय करने वाले ब्राह्मणों, गैर ब्राह्मणों और अखबारों, वेबसाइटों और मीडिया ने आज भी भद्रा -भद्रा का जाप करके भसड़ मचा रखी है।

मुझे भी अपनी किशोरावस्था में ज्योतिष और पंडताई का काम दादाजी ने सिखाया, उद्देश्य यही था कि यदि जीवन में कुछ सार्थक नहीं कर सका तो ब्राह्मण का बच्चा है यही सब करके पेट भराई तो कर ही लेगा।

उस समय जो सीखा और बाद में खोजबीन करके पढ़ा उसके हिसाब से मेरी समझ में यह सारा ज्ञान मिथ्या है और केवल डराने और रोजी रोटी चलाने का जरिया मात्र है।

मेरी एक कविता है...

क्या जोशी, क्या डाक्टर, क्या वकील
डरे को और डरावे,
फिर डर से निकलने का रास्ता बतावै,
जो ऐसा न करे तो घर के गोदड़े बिकावै।

ज्यादातर ब्राह्मणों को भद्रा के मामले में शास्त्रीय तथ्यों का ज्ञान तक नहीं है, वे भद्रा भद्रा करके लोगों को डराते हैं।

हालाँकि किसी भी ग्रंथ में रक्षाबंधन, प्रथम श्रावणी के अलावा बाद वाले श्रावणी कर्म और श्रवण पूजा हेतु शुभाशुभ देखने की जरूरत होने के बारे में कुछ भी नहीं कह रखा है। इसलिए कभी भी रक्षाबंधन मनाया जा सकता है।

महुर्त चिंतामणि ग्रन्थ कहता है, पूर्णिमा तिथि के पूर्वार्थ में भद्रा रहती है, तथा तिथि के पूर्वार्ध में होने वाली भद्रा रात्रि में शुभ होती है। इस का सीधा अर्थ है कि आज 10.58 सुबह से पूर्णिमा आरंभ हो रही है उसमें पूर्वार्ध में अर्थात रात्रि 9.01 तक भद्रा रहेगी। लेकिन तिथि के पूर्वार्ध की भद्रा होने से रात्रि में शुभ है। जिसका अर्थ है कि सूर्यास्त के बाद वह शुभ है, सूर्यास्त के बाद रक्षाबंधन मनाया जा सकता है।

इसलिए जिन्हें रक्षाबंधन मनाना है मुहूर्त की टेंशन छोड़ो, मस्ती से पूरे दिन और रात कभी भी रक्षाबंधन मनाओ।


मंगलवार, 8 अगस्त 2023

पितृसत्ता खुद ही खुद को नष्ट करने के उपाय कर रही है

आज राजस्थान पत्रिका के संपादकीय पृष्ठ पर समाज शास्त्री और स्तंभकार ऋतु सारस्वत का लेख छपा है "विवाह संस्था को कमजोर करेंगे लैंगिक आधार पर बने कानून"।

इस लेख में अन्य कारकों पर विचार किए बिना महिला सुरक्षा के लिए बने कानूनों के दुरुपयोग के आधार पर यह निष्कर्ष आरोपित किया गया है कि ये कानून ही झगड़े की जड़ हैं। स्वर यह निकल रहा है कि स्त्री सुरक्षा के लिए तथा पुरुषों के अपराधों के लिए उन्हें दंडित किए जाने और अपराधों की रोकथाम के लिए बने कानून ही पुरुषों पर दमन के अपराधी हैं और इन्हें स्टेच्यूट बुक से हटा देना चाहिए।

इस लेख में जो निष्कर्ष निकाले गए हैं उनमें अन्य आधारों का कोई उल्लेख नहीं किया गया है। जब कि पिछले दिनों अनेक घटनाओं से यह पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है कि कानूनों में कोई खामी नहीं है बल्कि किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने और पुलिस जाँच में जो भ्रष्टाचार और राजनैतिक हस्तक्षेप व्याप्त है वही मूल रोग की जड़ है। आज भी पुलिस और राजनीति में पितृसत्ता का बोलबाला है। वहाँ हर बात का रुख पितृसत्ता तय करती है। पुरुषों के विरुद्ध जो गलत मुकदमे दर्ज होते हैं उनके पीछे पुरुषों की योजना और साधन काम करते हैं। लगभग सभी मामलों में स्त्रियाँ पितृसत्ता के लिए औजार बना दी जाती हैं।

कहने को लेखिका समाजशात्री हैं, लेकिन इस पूरे लेख में किसी सामाजिक अध्ययन का उल्लेख नहीं किया गया। तथ्यों और आँकड़े लेख से गायब हैं। इस का सीधा अर्थ है कि खोखले लेखों के जरीए प्रिंट मीडिया भी सत्ता और पितृसत्ता की सेवा में मुब्तिला है। यहाँ तक कि स्त्री सुरक्षा के लिए निर्मित इन कानूनों को परिवार तोड़ने वाला बता कर जो थोड़ी बहुत सुरक्षा और हिम्मत स्त्रियाँ इन कानूनों से प्राप्त करती हैं उसका अंत करने की तैयारी है। वैसे ही दुरुपयोग के आधार पर इन कानूनों के दाँत तोड़ दिए गये है।

मैं इस बात से इन्कार नहीं करता कि कानूनों का दुरुपयोग नहीं होता। वह होता है, और खूब होता है। लेकिन दुरुपयोग की जड़ हमारी पुलिस, सरकारी अफसर और राजनेता हैं जो पितृसत्ता को बनाए रखते हैं। इस समस्या का गंभीर रूप से सामाजिक अध्ययन होना चाहिए। प्रधानमंत्री गली-गली यूनिवर्सिटी खोलने की बातें करते हैं यहाँ तक कि विदेश तक में कर आते हैं। लेकिन इस लेख में किसी एक विश्वविद्यालय द्वारा किए गए सामाजिक अध्ययन या शोध का कोई उल्लेख नहीं है।

समस्या की सारी जड़ पितृसत्ता में है। आज जब संविधान स्त्री और पुरुष को समान अधिकार देता है, तब समाज हर अधिकार और व्यवहार को पितृसत्ता की कसौटी पर कसने को तैयार रहता है। हम अपने समाज में जनतांत्रिक मूल्यों का विकास ही नहीं कर पाए हैं और न ही उन मूल्यों को समाज में स्थापित करने के बारे में कोई तैयारी नजर आती है। इस लेख में विवाह संस्था के नष्ट होने का खतरा बहुत जोरों से बताया गया है जैसे शहर पर स्काईलेब गिरने वाली हो। लेकिन विवाह संस्था इन कानूनों की वजह से नहीं बल्कि पितृसत्ता के दासयुगीन और सामंती सोच के कारण टूट रही है। उसे खुद पितृसत्ता से खतरा है, किसी कानून से नहीं। हमारे समाज को सामाजिक व्यवहारों में और परिवार में जनतांत्रिक व्यवहार सीखना होगा, स्त्री-पुरुष के मध्य कागजी और कानूनी समानता के स्थान पर वास्तविक समानता स्थापित करनी होगी तभी ये समस्याएँ हल हो सकेंगी। उसके बिना इस समस्या से कोई निजात नहीं है। आज कम संख्या में ही सही पर स्त्रियाँ पितृसत्ता को चुनौती दे रही हैं। पितृसत्ता को यह खतरा सबसे बड़ा नजर आता है उसका परिणाम यह लेख है, जो एक स्त्री से लिखवाया गया है और एक स्त्री अखबार में नाम तथा मामूली पारिश्रमिक के लिए इसे लिख रही है। ऐसी लेखिकाओं को भी सोचना चाहिए कि वे आखिर एक स्त्री हो कर पितृसत्ता का टूल कैसे बन रही हैं।

आप इसी तथ्य से सोच सकते हैं कि पितृसत्ता कितनी घबराई हुई है कि एक मुख्यमंत्री ने यह कहा है वे इस बात पर शोध करवा रहे हैं कि लव मैरिज में कैसे मातापिता की सहमति को अनिवार्य किया जा सकता है। यानी अब एक वयस्क स्त्री और पुरुष से यह अधिकार भी छीन लिया जाएगा कि वह अपनी मर्जी से ऐसा जीवन साथी चुन कर विवाह करे जिसके साथ उसे पूरा जीवन बिताना है। ऐसा कानून बना कर आप विवाहेतर संबंधों को बढ़ावा तो दे ही रहे हैं लेकिन उसके साथ ही विवाह संस्था को क्षतिग्रस्त भी कर रहे हैं क्योंकि तब बहुत सारे स्त्री-पुरुष बिना विवाह किए साथ रहना अर्थात सहजीवन में (Live in) रहना पसंद करेंगे। जो बड़े पैमाने पर अब हमारे महानगरों में देखने को मिल रहा है। कुल मिला कर हालात ये हैं कि पितृसत्ता खुद ही खुद को नष्ट करने के उपाय कर रही है।



मंगलवार, 1 अगस्त 2023

नस्लीय और धार्मिक राष्ट्रवाद लोगों को हत्यारों में तब्दील कर देते हैं

 क्या आप जानते हैं साथ के इस चित्र में यह क्या है? इसे क्या कहते हैं?

इस औजार का नाम fasces है, यह एक लैटिन शब्द है और यह औजार प्राचीन रोम में पाया जाता था।
इस औजार में एक लकड़ी का डंडा है जिस पर कुछ छोटे डंडों का एक गट्ठर बंधा है, उसके भी सिरे पर एक कुल्हा़ड़ी जैसा धारदार औजार बंधा है। यह एक प्राचीन प्रतीक है जो सामुहिक दंडाधिकार को प्रकट करता है। लेकिन इसी अधिकार को यदि किसी नस्लीय, धार्मिक या जातीवादी राष्ट्रवाद से जोड़ दिया जाए तो वह मनुष्यता के लिए सबसे खतरनाक राजनैतिक विचार बन जाता है।
 
यह काम सबसे पहले इटली में मुसोलिनी ने किया और एक रोमन राष्ट्रवाद खड़ा करते हुए इस प्रतीक नाम का उपयोग किया और अपनी राजनैतिक विचारधारा को FASCISM फासीवाद नाम दिया। बाद में पड़ौसी देश जर्मनी में हिटलर ने इसी विचारधारा का उपयोग कर जर्मन राष्ट्रवादी पार्टी नेशनल सोशलिस्ट पार्टी खड़ी की जिसका प्रतीक स्वास्तिक को बनाया। नेशनल सोशलिज्म शब्दों के एन ए सोशलिज्म के इज्म को मिला कर इसे नाजिज्म नाम बना। दोनों ने आपस में गुट बनाया और यूरोप में कत्लेआम मचा दिया, जो दूसरे विश्वयुद्ध का एक आधार बना।

उस समय की वैश्विक आर्थिक परिस्थितियों ने इस विचारधारा के लिए खाद पानी का काम किया। पूंजीवाद भयानक मंदी में फँसा था। साम्राज्यवादी देशों को नए बाजार चाहिए थे। जनता में असन्तोष था। उस असंतोष को दबाने के लिए शासकों को लगा कि राष्ट्रवाद का झुनझुना बढ़िया है और नासमझ जनता में बहुत बढ़िया तरीके से काम करता है।

मुसोलिनी से प्रेरणा प्राप्त कर लगभग एक सदी पहले भारत में भी एक संगठन खड़ा किया गया जिसे हम राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ नाम दिया गया। इसने भारत में हिन्दू धार्मिक राष्ट्रवाद को फैलाने की कोशिश की। बाद में जिस तरह नस्लीय राष्ट्रवाद को जर्मनी में नाजिज्म नाम दिया गया था, यहाँ भारत में उसी तरह इस विचारधारा को हिन्दुत्व नाम प्राप्त हुआ है, जो भारतीय सनातन धर्म की मूल शिक्षाओं के बिलकुल विपरीत विचार है।

यह विचारधारा लोगों को व्यक्तिगत रूप से एक हत्यारे के रूप में परिवर्तित कर देती है। इसका उदाहरण कल जयपुर मुंबई एक्सप्रेस में इसी विचार से प्रभावित आरपीएफ के एक सिपाही ने आरपीएफ के ही एक अधिकारी और तीन यात्रियों की हत्या कर दी है।





सोमवार, 31 जुलाई 2023

क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं? – प्रेमचंद



भारत के राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन में राष्ट्रवाद की भूमिका बेहद महत्त्वपूर्ण और निर्णायक रही है. लेकिन उस दौर में राष्ट्रवाद की कई किस्में मौजूद थीं. प्रभावशाली धारा वह थी जो राष्ट्रवाद के नाम पर अपने समाज में मौजूद भेदभाव, शोषण और अन्याय पर पर्दा डालती थी और इस तरह उसे बनाये रखती थी. हमारे राष्ट्र का मौजूदा स्वरूप तय करने में इस धारा ने बहुत बड़ी भूमिका निभायी है. आज जब तरह–तरह के लोग राष्ट्रवादी होने का दावा कर रहे हैं तो उनके निहितार्थों की पहचान के लिहाज से (और राष्ट्रवाद की एक वैकल्पिक समझ निर्मित करने के लिहाज से भी) 8 जनवरी 1934 को ‘हंस’ में प्रकाशित प्रेमचंद का यह लेख महत्त्वपूर्ण है.


यह तो हम पहले भी जानते थे और अब भी जानते हैं कि साधारण भारतवासी राष्ट्रीयता का अर्थ नहीं समझता, और यह भावना जिस जागृति और मानसिक उदारता से उत्पन्न होती है, वह अभी हममें बहुत थोड़े आदमियों में आयी है. लेकिन इतना ज़रूर समझते थे कि जो पत्रों के सम्पादक हैं, राष्ट्रीयता पर लम्बे–लम्बे लेख लिखते हैं और राष्ट्रीयता की वेदी पर बलिदान होने वालों की तारीफों के पुल बांधते हैं, उनमें ज़रूर यह जागृति आ गयी है और वह जात–पांत की बेड़ियों से मुक्त हो चुके हैं, लेकिन अभी हाल में ‘भारत’ में एक लेख देखकर हमारी आंखे खुल गयीं और यह अप्रिय अनुभव हुआ कि हम अभी तक केवल मुंह से राष्ट्र–राष्ट्र का गुल मचाते हैं, हमारे दिलों में अभी वही जाति–भेद का अंधकार छाया हुआ है. और यह कौन नहीं जानता कि जाति भेद और राष्ट्रीयता दोनों में अमृत और विष का अंतर है. यह लेख किन्हीं ‘निर्मल’ महाशय का है और यदि यह वही ‘निर्मल’ हैं, जिन्हें श्रीयुत ज्योतिप्रसाद जी ‘निर्मल’ के नाम से हम जानते हैं, तो शायद वह ब्राह्मण हैं. हम अब तक उन्हें राष्ट्रवादी समझते थे, पर ‘भारत’ में उनका यह लेख देखकर हमारा विचार बदल गया, जिसका हमें दुख है. हमें ज्ञात हुआ कि वह अब भी उन पुजारियों का, पुरोहितों का और जनेऊधारी लुटेरों का हिंदू समाज पर प्रभुत्त्व बनाये रखना चाहते हैं जिन्हें वह ब्राह्मण कहते हैं पर हम उन्हें ब्राह्मण क्या, ब्राह्मण के पांव की धूल भी नहीं समझते. ‘निर्मल’ की शिकायत है कि हमने अपनी तीन–चौथाई कहानियों में ब्राह्मणों को काले रंगों में चित्रित करके अपनी संकीर्णता का परिचय दिया है जो हमारी रचनाओं पर अमिट कलंक है. हम कहते हैं कि अगर हममें इतनी शक्ति होती, तो हम अपना सारा जीवन हिंदू–जाति को पुरोहितों, पुजारियों, पंडों और धर्मोपजीवी कीटाणुओं से मुक्त कराने में अर्पण कर देते. हिंदू–जाति का सबसे घृणित कोढ़, सबसे लज्जाजनक कलंक यही टकेपंथी दल हैं, जो एक विशाल जोंक की भांति उसका खून चूस रहा है, और हमारी राष्ट्रीयता के मार्ग में यही सबसे बड़ी बाधा है. राष्ट्रीयता की पहली शर्त है, समाज में साम्य–भाव का दृढ़ होना. इसके बिना राष्ट्रीयता की कल्पना ही नहीं की जा सकती. जब तक यहां एक दल, समाज की भक्ति, श्रद्धा, अज्ञान और अंधविश्वास से अपना उल्लू सीधा करने के लिए बना रहेगा, तब तक हिंदू समाज कभी सचेत न होगा. और यह दस–पांच लाख व्यक्तियों का नहीं है, असंख्य है. उसका उद्यम यही है कि वह हिंदू जाति को अज्ञान की बेड़ियों में जकड़ रखे, जिससे वह जरा भी चूं न कर सके. मानो आसुरी शक्तियों ने अंधकार और अज्ञान का प्रचार करने के लिए स्वयंसेवकों की यह अनगिनत सेना नियत कर रखी है.

अगर हिंदू समाज को पृथ्वी से मिट नहीं जाना है, तो उसे इस अंधकार–शासन को मिटाना होगा. हम नहीं समझते, आज कोई भी विचारवान हिंदू ऐसा है, जो इस टके पंथी दल को चिरायु देखना चाहता हो, सिवाय उन लोगों के जो स्वयं उस दल में हैं और चखौतियां कर रहे हैं. निर्मल, खुद शायद उसी टकेपंथी समाज के चौधरी हैं, वरना उन्हें टकेपंथियों के प्रति वकालत करने की ज़रूरत क्यों होती? वह और उनके समान विचारवाले उनके अन्य भाई शायद आज भी हिंदू समाज को अंधविश्वास से निकलने नहीं देना चाहते, वह राष्ट्रीयता की हांक लगाकर भी भावी हिंदू समाज को पुरोहितों और पुजारियों ही का शिकार बनाये रखना चाहते हैं. मगर हम उन्हें विश्वास दिलाते हैं कि हिंदू–समाज उनके प्रयत्नों और सिरतोड़ कोशिशों के बावजूद अब आंखें खोलने लगा है और इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि जिन कहानियों को ‘निर्मल’ जी ‘वर्तमान’ के सम्पादक श्री रमाशंकर अवस्थी, ‘सरस्वती’ के सम्पादक श्री देवीदत्त शुक्ल, ‘माधुरी’ के सम्पादक पं. रूपनारायण पांडे, ‘विशाल भारत’ के सम्पादक श्री बनारसीदास चतुर्वेदी आदि सज्जनों को ब्राह्मण समझते हैं या नहीं, पर इन सज्जनों ने उन कहानियों को छापते समय ज़रा भी आपत्ति न की थी. वे उन कहानियों को आपत्तिजनक समझते, तो कदापि न छापते. हम उनका गला तो दबा न सकते थे. मुरौवत में पड़कर भी आदमी अपने धार्मिक विश्वास को तो नहीं त्याग सकता. ये कहानियां उन महानुभावों ने इसीलिए छापीं, कि वे भी हिंदू समाज को टके पंथियों के जाल से निकालना चाहते हैं, वे ब्राह्मण होते हुए भी इस ब्राह्मण जाति को बदनाम करनेवाले जीवों का समाज पर प्रभुत्व नहीं देखना चाहते. हमारा खयाल है कि टकेपंथियों से जितनी लज्जा उन्हें आती होगी, उतनी दूसरे समुदायों को नहीं आ सकती, क्योंकि यह धर्मोपजीवी दल अपने को ब्राह्मण कहता है. हम कायस्थ कुल में उत्पन्न हुए हैं और अभी तक उस संस्कार को न मिटा सकने के कारण किसी कायस्थ को चोरी करते या रिश्वत लेते देखकर लज्जित होते हैं. ब्राह्मण क्या इसे पसंद कर सकता है, कि उसी समुदाय के असंख्य प्राणी भीख मांगकर, भोले–भाले हिंदुओं को ठगकर, बात–बात में पैसे वसूल करके, निर्लज्जता के साथ अपने धर्मात्मापन का ढोंग करते फिरें. यह जीवन व्यवसाय उन्हीं को पसंद आ सकता है जो खुद उसमें लिप्त हैं और वह भी उसी वक्त तक, जब तक कि उनकी अधः स्वार्थ भावना प्रचंड है और भीतर की आंखें बंद हैं. आंखें खुलते ही वह उस व्यवसाय और उस जीवन से घृणा करने लगेंगे. हम ऐसे सज्जनों को जानते हैं, जो पुरोहितकुल में पैदा हुए, पर शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद उन्हें वह टकापंथपन इतना जघन्य जान पड़ा कि उन्होंने लाखों रुपये साल की आमदनी पर लात मार स्कूल में अध्यापक होना स्वीकार कर लिया. आज भी कुलीन ब्राह्मण पुरोहितपन और पुजारीपन को त्याज्य समझता है और किसी दशा में भी यह निकृष्ट जीवन अंगीकार न करेगा. ब्राह्मण वह है, जो निस्पृह हो, त्यागी हो और सत्यवादी हो. सच्चे ब्राह्मण महात्मा गांधी, म. मालवीय जी हैं, नेहरू हैं, सरदार पटेल हैं, स्वामी श्रद्धानंद हैं. वह नहीं जो प्रातःकाल आपके द्वार पर करताल बजाते हुए– ‘निर्मलपुत्र देहि भगवान’ की हांक लगाने लगते हैं, या गनेश–पूजा और गौरी पूजा और अल्लम–गल्लम पूजा पर यजमानों से पैसे रखवाते हैं, या गंगा में स्नान करनेवालों से दक्षिणा वसूल करते हैं, या विद्वान होकर ठाकुर जी और ठकुराइन जी के शृंगार में अपना कौशल दिखाते हैं, या मंदिरों में मखमली गाव तकिये लगाये नर्तकियों का नृत्य देखकर भगवान से लौ लगाते हैं.

हिंदू बालक जब से धरती पर आता है और जब तक वह धरती से प्रस्थान नहीं कर जाता, इसी अंधविश्वास और अज्ञान के चक्कर में सम्मोहित पड़ा रहता है. और नाना प्रकार के दृष्टांतों से मनगढ़ंत किस्से कहानियों से, पुण्य और धर्म के गोरख–धंधों से, स्वर्ग और नरक की मिथ्या कल्पनाओं से, वह उपजीवी दल उनकी सम्मोहनावस्था को बनाये रखता है. और उनकी वकालत करते हैं हमारे कुशल पत्रकार ‘निर्मल’ जी, जो राष्ट्रवादी हैं. राष्ट्रवाद ऐसे उपजीवी समाज को घातक समझता है और समाजवाद में तो उसके लिए स्थान ही नहीं. और हम जिस राष्ट्रीयता का स्वप्न देख रहे हैं उसमें तो जन्मगत वर्णों की गंध तक न होगी, वह हमारे श्रमिकों और किसानों का साम्राज्य होगा, जिसमें न कोई ब्राह्मण होगा, न हरिजन, न कायस्थ, न क्षत्रिय. उसमें सभी भारतवासी होंगे, सभी ब्राह्मण होंगे, या सभी हरिजन होंगे.

कुछ मित्रों की यह राय हो सकती है कि माना टकेपंथी समाज निकृष्ट है, त्याज्य है, पाखंडी है, लेकिन तुम उसकी निंदा क्यों करते हो, उसके प्रति घृणा क्यों फैलाते हो, उसके प्रति प्रेम और सहानुभूति क्यों नहीं दिखलाते, घृणा तो उसे और भी दुराग्रही बना देती है और फिर उसके सुधार की सम्भावना भी नहीं रहती. इसके उत्तर में हमारा यही नम्र निवेदन है कि हमें किसी व्यक्ति या समाज से कोई द्वेष नहीं, हम अगर टकेपंथीपन का उपहास करते हैं, तो जहां हमारा एक उद्देश्य यह होता है कि समाज में से ऊंच–नीच, पवित्र–अपवित्र का ढोंग मिटावें, वहां दूसरा उद्देश्य यह भी होता है कि टकेपंथियों के सामने उनका वास्तविक और कुछ अतिरंजित चित्र रखें, जिसमें उन्हें अपने व्यवसाय, अपनी धूर्तता, अपने पाखंड से घृणा और लज्जा उत्पन्न हो, और वे उसका परित्याग कर ईमानदारी और सफाई की ज़िंदगी बसर करें और अंधकार की जगह प्रकाश के स्वयंसेवक बन जायें. ‘ब्रह्मभोज’ और ‘सत्याग्रह’ नामक कहानियों ही को देखिए, जिन पर ‘निर्मल’ जी को आपत्ति है. उन्हें पढ़कर क्या यह इच्छा होती है कि चौबे जी या पंडित जी का अहित किया जाय? हमने चेष्टा की है कि पाठक के मन में उनके प्रति द्वेष न उत्पन्न हो, हां परिहास–द्वारा उनकी मनोवृत्ति दिखायी है. ऐसे चौबों को देखना हो, तो काशी या वृंदावन में देखिए और ऐसे पंडितों को देखना हो तो, वर्णाश्रम  स्वराज्य संघ में चले जाइए, और निर्मल जी पहले ही उस धर्मात्मा दल में नहीं जा मिले हैं, तो अब उन्हें चटपट उस दल में जा मिलना चाहिए, क्योंकि वहां उन्हीं की मनोवृत्ति के महानुभाव मिलेंगे. और वहां उन्हें मोटेराम जी के बहुत से भाई–बंधु मिल जायेंगे, जो उनसे कहीं बड़े सत्याग्रही होंगे. हमने कभी इस समुदाय की पोल खोलने की चेष्टा नहीं की, केवल मीठी चुटकियों से और फुसफुसे परिहास से काम लिया, हालांकि ज़रूरत थी बर्नाडशा जैसे प्रतिभाशाली व्यक्ति की, जो घन से चोट लगाता है.

निर्मल जी को इस बात की बड़ी फिक्र है कि आज के पचास साल बाद के लोग जो हमारी रचनाएं पढ़ेंगे, उनके सामने ब्राह्मण समाज का कैसा चित्र होगा और वे हिंदू समाज से कितने विरक्त हो जायेंगे. हम पूछते हैं कि महात्मा गांधी के हरिजन आंदोलन को लोग आज के एक हजार साल के बाद क्या समझेंगे? यह कि हरिजनों को ऊंची जाति के हिंदुओं ने कुचल रखा था. हमारे लेखों से भी आज के पचास साल बाद लोग यही समझेंगे कि उस समय हिंदू समाज में इसी तरह के पुजारियों, पुरोहितों, पंडों, पाखंडियों और टकेपंथियों का राज था और कुछ लोग उनके इस राज को उखाड़ फेंकने का प्रयत्न कर रहे थे. निर्मल जी इस समुदाय को ब्राह्मण कहें, हम नहीं कह सकते. हम तो उसे पाखंडी समाज कहते हैं, जो अब निर्लज्जता की पराकाष्ठा तक पहुंच चुका है. ऐतिहासिक सत्य चुप–चुप करने से नहीं दब सकता. साहित्य अपने समय का इतिहास होता है, इतिहास से कहीं अधिक सत्य. इसमें शर्माने की बात अवश्य है कि हमारा हिंदू समाज क्यों ऐसा गिरा हुआ है और क्यों आंखें बंद करके धूर्तों को अपना पेशवा मान रहा है और क्यों हमारी जाति का एक अंग पाखंड को अपनी जीविका का साधन बनाये हुए है, लेकिन केवल शर्माने से तो काम नहीं चलता. इस अधोगति की दशा सुधार करना है. इसके प्रति घृणा फैलाइए, प्रेम फैलाइए, उपहास कीजिए या निंदा कीजिए सब जायज है और केवल हिंदू–समाज के दृष्टिकोण से ही नहीं जायज है, उस समुदाय के दृष्टिकोण से भी जायज है, जो मुफ्तखोरी, पाखंड और अंधविश्वास में अपनी आत्मा का पतन कर रहा है और अपने साथ हिंदू–जाति को डुबोए डालता है. हमने अपने गल्पों में इस पाखंडी समुदाय का यथार्थ रूप नहीं दिखाया है, वह उससे कहीं पतित है, मगर यह हमारी कमज़ोरी है कि बहुत–सी बातें जानते हुए भी उनके लिखने का साहस नहीं रखते और अपने प्राणों का भय भी है, क्योंकि यह समुदाय कुछ भी कर सकता है. शायद इस साप्रदायिक प्रसंग को इसीलिए उठाया भी जा रहा है कि पंडों और पुरोहितों को हमारे विरुद्ध उत्तेजित किया जाय.

निर्मल जी ने हमें ‘आदर्शवाद’ और कला के विषय में भी कुछ उपदेश देने की कृपा की है, पर हम यह उपदेश ऐसों से ले चुके हैं, जो उनसे कहीं ऊंचे हैं. आदर्शवाद इसे नहीं कहते कि अपने समाज में जो बुराइयां हों, उनके सुधार के बदले उनपर परदा डालने की चेष्टा की जाय, या समाज को एक लुटेरे समुदाय के हाथों लुटते देखकर जबान बंद कर ली जाय. आदर्शवाद का जीता–जागता उदाहरण हरिजन–आंदोलन हमारी आंखों के सामने है. निर्मल जी को मंदिरों का खुलना और मंदिरों के ठेकेदारों के प्रभुत्व का मिटना, ज़हर ही लग रहा होगा, मगर बेचारे मजबूर हैं, क्या करें?

निर्मल जी हमें ब्राह्मण द्वेषी बताकर संतुष्ट नहीं हुए. उन्होंने हमें हिंदू द्रोही भी सिद्ध किया है, क्योंकि हमने अपनी रचनाओं में मुसलमानों को अच्छे रूप में दिखाया है. तो क्या आप चाहते हैं, हम मुसलमानों को भी उसी तरह चित्रित करें जिस तरह पुरोहितों और पाखंडियों को करते हैं? हमारी समझ में मुसलमानों से हिंदू जाति को उसकी शतांश हानि नहीं पहुंचती है, जितनी इन पाखंडियों के हाथों पहुंची और पहुंच रही है. मुसलमान हिंदू को अपना शिकार नहीं समझता, उसकी जेब से धोखा देकर और अश्रद्धा का जादू फैलाकर कुछ ऐंठने की फिक्र नहीं करता. फिर भी मुसलमानों को मुझसे शिकायत है कि मैंने उनका विकृत रूप खींचा है. हम ऐसे मुसलमान मित्रों के खत दिखा सकते हैं, जिन्होंने हमारी कहानियों में मुसलमानों के प्रति अन्याय दिखाया है. हमारा आदर्श सदैव से यह रहा है कि जहां धूर्तता और पाखंड और सबलों द्वारा निर्बलों पर अत्याचार देखो, उसको समाज के समाने रखो, चाहे हिंदू हो, पंडित हो, बाबू हो, मुसलमान हो, या कोई हो. इसलिए हमारी कहानियों में आपको पदाधिकारी, महाजन, वकील और पुजारी गरीबों का खून चूसते हुए मिलेंगे, और गरीब किसान, मज़दूर, अछूत और दरिद्र उनके आघात सहकर भी अपने धर्म और मनुष्यता को हाथ से न जाने देंगे, क्योंकि हमने उन्हीं में सबसे ज़्यादा सच्चाई और सेवा–भाव पाया है. और यह हमारा दृढ़ विश्वास है कि जब तक यह सामुदायिकता और साप्रदायिकता और यह अंधविश्वास हममें से दूर न होगा, जब तक समाज को पाखंड से मुक्त न कर लेंगे तब तक हमारा उद्धार न होगा. हमारा स्वराज्य केवल विदेशी जुए से अपने को मुक्त करना नहीं है, बल्कि सामाजिक जुए से भी, इस पाखंडी जुए से भी, जो विदेशी शासन से कहीं अधिक घातक है, और हमें आश्चर्य होता है कि निर्मल जी और उनकी मनोवृत्ति के अन्य सज्जन कैसे इस पुरोहिती शासन का समर्थन कर सकते हैं. उन्हें खुद इस पुरोहितपन को मिटाना चाहिए, क्योंकि वह राष्ट्रवादी हैं. अगर कोई ब्राह्मण, कायस्थों की दहेज–प्रथा, उनके मदिरा सेवन की, या उनकी अन्य बुराइयों की निंदा करे, तो मुझे ज़रा भी बुरा न लगेगा. कोई हमारी बुराई दिखाये और हमदर्दी से दिखाये, तो हमें बुरा लगने या दांत किटकिटाने का कोई कारण नहीं हो सकता.

अंत में मैं अपने मित्र निर्मल जी से बड़ी नम्रता के साथ निवेदन करूंगा कि पुरोहितों के प्रभुत्व, के दिन अब बहुत थोड़े रह गये हैं और समाज और राष्ट्र की भलाई इसी में है कि जाति से यह भेद-भाव, यह एकांगी प्रभुत्व यह खून चूसने की प्रवृत्ति मिटायी जाय, क्योंकि जैसा हम पहले कह चुके हैं, राष्ट्रीयता की पहली शर्त वर्णव्यवस्था, ऊंच-नीच के भेद और धार्मिक पाखंड की जड़ खोदना है. इस तरह के लेखों से आपको आपके पुरोहित भाई चाहे अपना हीरो समझें और मंदिर के महंतों और पुजारियों की आप पर कृपा हो जाय, लेकिन राष्ट्रीयता को हानि पहुंचती है और आप राष्ट्र-प्रेमियों की दृष्टि से गिर जाते हैं. आप यह ब्राह्मण समुदाय की सेवा नहीं, उसका अपमान कर रहे हैं.