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रविवार, 15 फ़रवरी 2009

अवनीन्द्र को सरप्राइज और रेस्टोरेंट केवल परिवार के लिए

मैं, वैभव और पाबला जी तीनों पैदल ही अवनींद्र के घर की ओर चले।   रास्ते में पाबला जी ने बताया कि रायपुर से संजीत त्रिपाठी पूछ रहे थे कि द्विवेदी जी रायपुर कब आ रहे हैं।  संजीव तिवारी ने फोन पर बताया कि दुर्ग बार चाहती है कि मैं वहाँ आऊँ।  लेकिन वह कल व्यस्त रहेगा।  मैं ने रास्ते में ही गणित लगाई कि 30 को शाम पांच बजे मेरी वापसी ट्रेन है इसलिए उस दिन रायपुर जाना ठीक नहीं, हाँ दुर्ग जाया जा सकता है।   मैं ने उन्हें बताया कि कल रायपुर और परसों दुर्ग चलेंगे।  कोई दो-तीन सौ मीटर पर ही हम दूर संचार कॉलोनी पहुँच गए।  गेट पर पूछताछ पर पता लगा कि आखिरी इमारत की उपरी मंजिल के फ्लेट में अवनीन्द्र का निवास है।

निचली मंजिल के दोनों फ्लेट के दरवाजों के आस पास कोई नाम पट्ट नहीं था।  इस से यह पहचानना मुश्किल था कि किस फ्लेट में कौन रहता होगा।  ऊपर की मंजिल पर भी यही आलम हुआ तो गलत घंटी भी बज सकती है। ऊपर पहुंचे तो एक फ्लेट पर अवनींन्द्र के नाम की खूबसूरत सी नाम पट्टिका देख कर संतोष हुआ।  घंटी बजाने पर अवनीन्द्र की पत्नी ज्योति ने दरवाजा खोला।  मुझे और पाबला जी को देख वह आश्चर्य में पड़ गई।  मैं  ने मौन तोड़ा, पूछा-अवनीन्द्र है? हाँ कहती हुई उस ने रास्ता दिया।  अवनीन्द्र ड्राइंग रूम में मिला।  देखते ही जो आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता उस  के चेहरे पर दिखाई दी उसका वर्णन कर पाना संभव नहीं है।  मैं ने बताया ये पाबला जी हैं।  उस ने पाबला जी से हाथ मिलाये।  मेरे संदर्भ से पाबला जी और अवनींद्र फोन पर बतिया चुके थे।
चित्र में अवनीन्द्र, मैं और वैभव
मैं ने बताया, तुम्हें सूचना न देना और अचानक आ कर सरप्राइज देना पाबला जी की योजना का अंग था जिसे मैं ने स्वीकार कर लिया।  पानी आ गया।  ज्योति ने कॉफी के लिए पूछा। तो हमने हाँ कह दी। बातें चल पड़ी घर परिवार की।   इस बीच कुछ मीठा, कुछ नमकीन आ गया।  परिवार की बातों के बीच पाबला जी कुछ अप्रासंगिक होने लगे तो मैं चुप हुआ फिर भिलाई के बारे में पाबला जी और अवनींद्र बातें करते रहे।  शहर के बारे में, बीएसपी के बारे में, बीएसएनएल के बारे में  और भिलाई के एक शिक्षा केन्द्र बनते जाने के बारे में।  पता लगा कि कोटा के सभी प्रमुख कोचिंग संस्थानों की शाखाएँ भिलाई में भी हैं।  भिलाई को कोटा से जोड़ने का एक महत्वपूर्ण बिंदु यह भी था।  इन संस्थानों में कोटा के लोग काम कर रहे थे। ज्योति कॉफी ले आई। उस ने भोजन के लिए पूछा तो मैं ने कहा आज पाबला जी ने इतना खिला दिया है कि खाने का मन नहीं है।  कल शायद दुर्ग या रायपुर जाना हो, तो कल शाम को यहाँ खाना पक्का रहा।  उस ने उलाहना दिया कि मुझे वहीं उस के यहाँ रहना चाहिए था।  उस की बात वाजिब थी।  मैं ने बताया कि मुझे पाबला जी से वेबसाइट का काम कराना है तो वहीं रुकना सार्थक होगा।  उस की शिकायत का यह सही उत्तर नहीं था, शिकायत अब भी उस की आँखों में मौजूद थी।

हम अवनीन्द्र के यहाँ कोई डेढ़ घंटा रुके।  इस बीच अवनींद्र के बारे में मैं ने पाबला जी को बताया कि वह पढ़ने में शुरू से आखिर तक सबसे ऊपर रहा।  एक वक्त तो उस की हालत यह थी कि महिनों वह बिस्तर पर नहीं सोता था।  टेबल कुर्सी पर पढ़ते पढते तकिया टेबल पर रखा और उसी पर सिर टिका कर सो लेता। सुबह उठता तो हमें लगता कि जैसे वह जल्दी उठ कर नहा धो कर तैयार हो लिया है।  उस का राज बुआ ने बताया कि यह नींद से जागते ही मुहँ धोता है और बाल गीले कर, पोंछ तुरंत कंघी कर लेता है।  जिस से वह हमेशा तरोताजा रहता है।  मैं ने भी आज तक ऐसा विलक्षण विद्यार्थी नहीं देखा।  वहाँ से चलने के पहले पाबला जी ने अपने कैमरे से हमारे चित्र लिए।

हम वापस पाबला जी के यहाँ पहुँचे तो पाबला जी की बिटिया सोनिया (रंजीत कौर) से भेंट हुई। सुबह उस से ठीक से भेंट न हो सकी थी वह कब तैयार हो कर अपने कॉलेज चली गई थी हमें पता ही नहीं लगा।  वह बहुत छोटी लग रही थी।  मैं समझा वह ग्रेजुएशन कर रही होगी।  पता लगा वह मोनू से कुछ मिनट बड़ी है और अक्सर यह बात अपने भाई को जब-तब याद दिलाती रहती है।  वह एमबीए कर रही है।   पाबला जी ने संजीत और संजीव को मेरा कार्यक्रम बता दिया।  संजीव ने बताया कि वह सुबह कुछ वकीलों के साथ आएँगे।  कुछ ही देर में पाबला जी ने घोषणा की कि भोजन के लिए बाहर चलना है।  हम चारों मैं, पाबला जी, मोनू और वैभव वैन में लद लिए।  जिस रेस्टोरेंट में हम गए वह बहुत ही विशिष्ठ था। मंद रोशनी और धीमे मधुर संगीत में भोजन हो रहा था और सभी टेबलों पर परिवार ही हमें दिखाई दिए।  मैं ने पूछा तो बताया गया कि इस रेस्टोरेंट में बिना महिलाओं के प्रवेश वर्जित है।  मैं समझ गया कि यह सार्वजनिक स्थल पर शांति बनाए रखने का सुगम तरीका है।  हमारे एक लीडर का वक्तव्य याद आ गया कि किसी भी संस्था की कार्यकारिणी की बैठक में फालतू बातों को रोकना हो तो एक दो महिलाएँ सदस्याएं होना चाहिए।

हमारे साथ कोई महिला न थी फिर भी हम वहाँ थे।  पाबला जी ने बताया कि प्रवेश करने के पहले द्वार पर मैनेजर ने टोका था और उसे यह कहा गया है कि बिटिया पीछे आ रही है।  लेकिन बाद में फोन पर रेस्टोरेंट के संचालक से बात करने पर ही भोजन का आदेश लिया गया।  भोजन स्वादिष्ट था।  हम घर लौटे तो ग्यारह बजे होंगे।  इतना थक गए थे कि वेबसाइट का काम कर पाना संभव नहीं था।  उसे अगली रात के लिए छोड़ दिया गया।  वैभव मोनू के कमरे में चला गया।  मैं भी कुछ देर नेट पर बिताने के बाद बिस्तर के हवाले हुआ।

बुधवार, 14 जनवरी 2009

बड़ी संकरात को राम राम!

आज मकर संक्रांति है। पिछले वर्ष मैं ने मकर संक्रान्ति पर हिन्दी की बोलियों में से एक हाड़ौती बोली में आलेख लिखा था। उसे अधिक लोग नहीं पढ़ पाए थे। कुल तीन टिप्पणियाँ प्राप्त हुई थीं। लेकिन यह बोली व्यापक रूप से राजस्थान के चार जिलों कोटा, बाराँ, बून्दी और झालावाड़ में बोली जाती है। आप का इस से परिचय हो इस लिए आज फिर से इस बोली में अपना आलेख लिखा है। हो सकता है आप को यह बोझिल लगे। लेकिन पढ़िए अवश्य ही। इस से हिन्दी की एक बोली से आप का परिचय तो होगा ही। वैसे थोड़ा प्रयास करेंगे तो समझ भी सभी आएगा। विषय भी आप को रोचक लगेगा। आप पिछले वर्ष का आलेख पढना चाहें तो यहाँ चटका लगा कर पढ़ सकते हैं। उस में हाड़ौती में संक्रान्ति के पर्व से संबंधित परंपराओं का उल्लेख है। साथ वाले मानचित्र में देश और राजस्थान में हाड़ौती की स्थिति दिखाई गई है। 



राम राम! सभी जणाँ के ताईं बड़ी सँकरात को राम राम!!
बहणाँ बरो न मानँ, के जणाँ के ताईं तो राम राम करी। पण जण्याँ के ताईं न करी। पण जणाँन मँ जण्याँ भी तो सामिल छे।

आज बड़ी संकरात छे। बड़ी अश्याँ, के सँकराताँ तो बारा होवे छे, जद जद भी भगवान सूरजनाराण एक रासी सूँ दूसरी मँ परबेस करे, तो उँ सूँ सँकरात खेवे। आसमान मँ बण्या याँ बारा घराँ का सात मालिक बताया। एक घर तो खुद भगवान सूरजनाराण को, एक घर चन्दरमाँ को, अर बाकी मंगळ जी, बुध म्हाराज, बरहस्पति जी, शुक्कर जी अर् शनि म्हाराज का दो-दो घर। 

भगवान सूरजनाराण बरस का बारा म्हींना में हर घर मँ एक म्हीनों रेह छ।  अब शनि म्हाराज व्हाँका ही बेटा छ, ज्याँ का दोन्यूँ घर लाराँ लाराँ ही पड़ छ। जी सूँ दो म्हीनाँ ताईं भगवान सूरजनाराण क ताईं बेटा क य्हाँ रेहणी पड़ छ। अब आज व्ह शनि म्हाराज का घर मँ उळगा तो दो म्हीना पाछे मार्च का म्हीनाँ में ही खड़ेगा। सूरजनाराण एक म्हींना सूँ तो गुरू म्हाराज बरहस्पति का घर म्हँ छा, अब दो म्हींना बेटा शनी का घर म्हँ रहेगा, फेर म्हींनों भर बरहस्पति का घर मं रहेगा। फेर एक म्हीनों मंगळ म्हाराज क य्हाँ, फेर एक म्हीनो शुक्कर जी क य्हाँ, फेर एक म्हीनों बुध जी क य्हाँ। ऊँ क बाद एक म्हीनों चन्दरमा जी का घर रेह र आपणा घरणे फूगगा ज्हाँ फेर एक म्हीनों रेहगा। ऊंक पाछे फेर पाछा ई बुध जी, शुक्कर जी, मंगळ जी, बरहस्पति जी ती घराँ में एक एक म्हींना म्हींना भर रेता हुया जद पाछा बेटा का घरणे पधारेगा तो अगला बरस की बड़ी संकरात आवेगी। 

उश्याँ बरस को आरंभ मंगळ सूँ होणी छावे नँ, जीसूं तेरा अपरेल नँ जद भगवान सूरजनाराण मंगळ म्हाराज का घर मँ परबेस करे तो ऊँ दन बैसाखी मनावे छे। अर ऊं दन ही सूरजनाराण का बरस को आरंभ होवे छे। ऊँ क आस पास ही आपणी गुड़ी पड़वा भी आवे छे। 

दो म्हीनाँ ताईं जद भगवान सूरजनाराण को मुकाम गुरू म्हाराज बरहस्पति जी क य्हाँ रह छ। तो कोई भी आडो ऊँळो काम करबा की मनाही छ। अब आपण परथीबासियाँ का तो सारा काम ही आडा ऊँळा होवे। जीसूँ ही आपण याँ दो म्हीनां क ताईं मळ का म्हीना ख्हाँ छाँ। अर य्हाँ में भगवद् भजन, कथा भागवत अर दान पुण्य का कामाँ क अलावा दूसरा काम न्हँ कराँ। आज ऊ एक म्हींनो पूरो होयो। आज सूँ फेर सारा काम सुरू होता। हर बरस सुरू हो ही जावे छे। पण ईं बरस आज क दन ही बरहस्पति जी खुद भी घरणे फ्हली सूँ ई बिराज रिया छे। अब दोन्यूँ को मिलण अर साथ 10 फरवरी ताँईं रहगो जीसूँ व्हाँ ताईं आडा ऊँळा काम, जासूँ आपण मंगळ काम ख्हाँ छाँ न होवेगा, जश्याँ सादी-ब्याऊ, मुंडन आदी। 

बड़ी संकरात पे अतनो ही खेबो छ!
बड़ी संकरात की फेरूँ घणी घणी राम राम!! 
 
आप को परेमी,
ऊई, दिनेसराई दुबेदी

मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

साथ, सहारा : तीन दृश्य



दोपहर दो बजे, हम चाय पीकर पान की दुकान पर पहुँचे थे। मैं पान वाले को पान बनाते हुए देख रहा था। पान देतो हुए उस ने हमारे एक साथी को छेड़ा। उधर क्या आँख सेक रहे हैं? पान लो। मैं ने मुड़ कर देखा तो सभी सड़क पर जा रहे एक नौजवान जोड़े की ओर देख रहे थे। नौजवान ने अपनी साथी का हाथ पकड़ा था और दोनों तेजी से चौराहा पार कर उस तरफ जा रहे थे जहाँ उन्हें ऑटो रिक्षा मिल सकता था। उन्हें देखते हुए मेरी नजर एक दूसरे ही दृश्य पर पड़ गई और मैं उसी और निहारता रह गया।

एक पचपन की उम्र की महिला एक पाँच वर्ष के बच्चे का हाथ पकड़े होटल के गेट के बाहर खड़ी थी। शायद बच्चा उसे अंदर ले जाना चाहता था और वह उसे रोक रही थी। बच्चा  जाना चाहता था। फिर वे दोनों होटल की सीमा में प्रवेश कर ओझल हो गए। मैं ,सोचता हुआ उसी ओर शून्य में देखता रहा। तभी एक साथी ने मुझे टोका, -अब वहाँ हवा में क्या देखने लगे?

मैं ने जो देखा था वह उन्हें बताया, और कहा -मैं सोच रहा हूँ कि, सब के सामने होते हुए भी वह दृश्य केवल मैं ही क्यों देख पाया? और क्यों नहीं देख पाए?

तभी वह महिला और बच्चा होटल के बाहर वापस आ गया। शायद बच्चे ने किसी वस्तु को, शायद फूलों को देखा था और उन्हें लेने की जिद कर रहा था। शायद होटल का चौकीदार यह सब समझा और उस ने बच्चे को वह लेने दिया।
मेरे एक साथी ने कहा -जवान स्त्री-पुरुष का सार्वजनिक साथ सब की निगाहों में आता है।
हम ने पान लिए और वापस चल दिए। पीछे देखा तो दो बुजुर्ग वकील होटल से बाहर आ रहे थे, उन में से एक को फालिज़ का शिकार हो जाने से चलने में परेशानी थी, दूसरे उन का हाथ पकड़ कर उन्हें सहारा दे रहे थे।
मैं ने अपने साथियों को एक यह दृश्य भी दिखाया।
मैं ने उन्हें कहा -इन तीनों दृश्यों में कुछ बातें समान थीं। एक दूसरे के हाथों का पकड़े होना और सहारा या संरक्षण।

आप ऐसे अनेक दृश्य मानव जीवन में ही नहीं जन्तु और पादप, समस्त जीव जगत में, और निर्जीव जगत में भी देख सकते हैं। उन दृश्यों में अनेक समानताएँ भी खोजी जा सकती हैं। पर लोगों की निगाहें केवल कुछ ही चीजों को अधिक क्यों देखती हैं?

शुक्रवार, 21 नवंबर 2008

आठवें विषय में एम ए

शाम तीन बजे मैं चिन्ता में डूबा अपनी कुर्सी पर बैठा था कि शाम तक कैसे लक्ष्य पूरा कर सकूंगा। मुझे जल्द से जल्द अदालत के काम पूरे कर अपने लक्ष्य के लिए जाना था। तभी कोई बगल में आ खड़े होने का अहसास हुआ। सीने तक लटकी सलेटी दाढ़ी और कंधों तक झूलते सर के बाल कुर्ता पायजामा पहने कोई खड़ा था। देखा तो चौंक गया, वर्मा जी थे। पुराने बुजुर्ग साथी। मैं खड़ा हुआ, दोनों गले मिले तो आस पास के वकील देखने लगे। मैं ने अपने पास उन्हें बिठाया। पूछा -कैसे हैं? स्कूल कैसा चल रहा है? बेटे क्या कर रहे हैं? आदि आदि। अंत में पूछा -कैसे यहाँ आने का कष्ट किया। कहने लगे -मुझे कोई राय करनी थी। क्या विश्वविद्यालय का परीक्षार्थी एक उपभोक्ता है? मैं विचार में पड़ गया। कहा देख कर बताऊंगा।

मैं ने उन से पूछा कि मामला क्या है? परीक्षा में पेपर दिया,  नंबर आने चाहिए थे 45, मगर आए 00 ही। पुनर्परीक्षण कराया तो 04 हो गए। मैं संतुष्ट नहीं हूँ। अदालत में मुकदमा करना चाहता हूँ। मैं ने पूछा -तो अब तक कारस्तानी जारी है? कहने लगे -जब तक दम है, जारी ही रहेगी।

ये विष्णु वर्मा थे। वर्मा सीनियर सैकंडरी स्कूल के संस्थापक। उन्हों ने बाराँ में आ कर स्कूल खोला था। कि एक कविगोष्ठी में हाजिर हुए, वहीं पहचान हुई। मैं बी. एससी. का विद्यार्थी था। लेकिन नगर में साप्ताहिक गोष्ठियों का एक मात्र आयोजक भी। एक गोष्ठी में कहने लगे -मेरे पास ग्यारहवीं के दस बारह विद्यार्थी कोचिंग के लिए आते हैं और जीव-विज्ञान का शिक्षक नहीं मिल रहा है। आप पढ़ा देंगे? मैं ने हामी भर ली। पढ़ाने लगा। धीरे-धीरे अंतरंगता बनी और बढ़ती गई।

एक दिन मुझे कहने लगे -दिनेश जी पहली कक्षा का एक बच्चा बहुत परेशान कर रहा है। चार माह हो गए हैं। वह कुछ लिखता ही नहीं है। उस के हाथ में बत्ती (खड़िया पैंसिल) पकड़ाते हैं हाथ पकड़ कर लिखना सिखाते हैं तो जहाँ तक हाथ पकड़ कर लिखाते हैं लिखता है। जहाँ छोड़ते हैं वहीं बत्ती पकड़े रखे रखता है। उस की गाड़ी आगे बढ़ ही नहीं रही है। जरा आप देखो।

मैं दूसरे दिन पहली कक्षा में हाजिर। उस बच्चे को देख कर मैं भी दंग रह गया। कोई तरकीब उस पर काम ही नहीं कर रही थी। मैं ने उसे ब्लेक बोर्ड पर बुलाया और बिंदुओं से वर्णमाला का क अक्षर अनेक बार लिखा। उस के सामने पहले अक्षर पर मैं ने चॉक से क बनाया , दूसरे अक्षर पर उस के हाथ में चॉक दे कर उस का हाथ पकड़ कर क बनवाया। तीसरे पर उसे बनाने को कहा। उस का हाथ रुक गया। फिर आधे अक्षर पर उस का हाथ पकड़ कर बनाया और आगे उसे बनाने को कहा तो उस ने पूरा क बना दिया मैं ने ब्लेक बोर्ड पर वर्णमाला के लगभग सभी अक्षर उस दिन बिंदुओं के बना कर उस से उन पर लिखवाया। उस ने बिना किसी सहायता के लिख दिए। फिर उसे बिना बिंदुओं के लिखने को कहा तो वैसे भी उस ने बिना किसी सहायता के लिख दिया। वह वर्णमाला के सभी अक्षर लिखने लगा। मैं उसे वर्मा जी को सौंप कर आ गया। उस के बाद उस बालक को कभी लिखने में समस्या नहीं आई।

वर्मा जी तब किसी एक विषय में एम ए थे, और एलएल बी भी, बी एड भी की हुई थी। फिर जब मैं वकालत में आ गया तो पता लगा कि उन को शौक लगा है, अलग विषय में एम ए करने का। वे फिर पढने लगे। आज पता लगा कि वे सात विषयों में एम. ए. कर चुके हैं। आठवें विषय में कर रहे हैं, तब उन के साथ एक पेपर में 00 अंक आने का हादसा हुआ। हम ने साथ बैठ कर कॉफी पी। उन से पूछा कि -कितने साल के हो गए हैं?  तो बता रहे थे -छिहत्तर में चल रहा हूँ।  यह एम ए कब तक करते रहेंगा? तो बताया -जब तक पढ़ने लिखने की क्षमता रहेगी। जिस साल परीक्षा न दूंगा, तो लगेगा कि कोई काम ही नहीं रह गया है। लगता है प्रोफेशनल विद्यार्थी हो गया हूँ।

चार बजे घड़ी देख कर बोले -अब चलता हूँ ट्रेन का समय हो गया है। तीन-चार दिन में मिलूंगा। मेरा मुकदमा लड़ना है। मैं ने उन्हें ऑटो में बिठाया और अपने काम में जुट गया।

मंगलवार, 18 नवंबर 2008

शाम की दावत और भांवरें

सगाई समारोह से निकले तो दोपहर का पौने एक बज चुका था। कुछ देर में ही लंच शुरू होने वाला था। मैं होटल के कमरे में पहुँचा तो  वहाँ नजारा कुछ और था। पूरा कमरा हमारी ससुराल से कमरा खचाखच भरा था।मैं जैसे घुसा था वैसे ही उलटे पांव बाहर निकला। मैं ने सोचा शहर में किसी से मिल लिया जाए। होटल से बाहर निकलता उस से पहले ही पकड़ा गया। मेहमान आते जा रहे थे। अधिकांश परिचित और संबंधी। उन से बात करना भी तो उपलब्धि थी। हर एक से नयी नयी सूचनाएँ मिलती थीं। उन के साथ होटल के रिसेप्शन पर ही बैठ गया। बातें करता रहा और साथ साथ सुडोकू भी। उस दिन के दोनों अखबारों के सुड़ोकू हल करते करते लंच का बुलावा आ लिया। 

लंच के लिए जमीन पर पट्टियाँ लगी थीं। पत्तलें पत्तों स्थान पर कागज की थीं और दोने भी वैसे ही। भोजन मे कत्त थे, बाफले थे, चावल थे, दाल थी, गट्टे की सब्जी थी और थी हरे धनिये की चटनी। (इन सब की खसूसियत के लिए एक अलग पोस्ट की जरूरी है, वह फिर कभी।) मैं ने अपने लिए बिना घी का बाफला मंगा लिया। सब कुछ बहुत स्वादिष्ट था। अपनी खुराक से कुछ कम ही खा कर उठ लिए। फिर भी खाते ही रात की अधूरी नींद हावी होने लगी। हम खाने आखिरी पंगत (पंक्ति) में थे। होटल के अपने तल पर पहुँचे तो हॉल में मण्डप की कार्यवाही शुरू हो चुकी थी। देवी-देवताओं, पूर्वजों का विवाह में सम्मिलित होने के लिए आव्हान किया जा रहा था। यहाँ हवन होना था, और उस के बाद दुल्हिन के माता-पिता, भाई-भाभी जो पूजा में बैठे थे उन्हें और दुल्हिन और उस के भाई बहनों को कपड़े आदि की पहरावनी होनी थी। हमारा वहाँ कोई काम न था। महिलाओं को वहाँ होना था। हम ने महिलाओं को वहाँ भेजा और खुद बिस्तर के हवाले हो लिए। शाम को  पांच बजे तक मण्डप का काम चलता रहा। तब तक हमने सोने की कोशिश की। लेकिन शादी और निद्रा दोनों एक दूसरे के शत्रु हैं। कोई न कोई आता रहा, जगाता रहा। शाम को उठ कर कॉफी पी और फ्रेश हो कर नीचे आए तो जहाँ शादी की मुख्य दावत होनी थी वहाँ तैयारियाँ चल रही थीं। हम शहर घूमने निकल गए। बाजार देखा। रविवार होने के बावजूद रौनक थी। अभी साप्ताहिक अवकाश की आदत झालावाड़ के बाजार को आम नहीं हुई थी। पान खाया, बींदणी और सालियों के लिए बंधवाया। वापस आए तो सभी महिलाएँ सांझ की दावत के लिए सजने लगी थीं।  कमरे पर पहुँचे तो सलहज अपनी ननदों को विदाई उपहार दे रही थी। उसे पता था कि सब भांवर के वक्त ही निकलना शुरू कर देंगे।

आठ बजे करीब दावत शुरू हो गयी। वहाँ आधे लॉन में बूफे की व्यवस्था थी, आधे में दूल्हा-दुल्हिन के लिए मंच सजा था। हम घूमते हुए देखते रहे क्या क्या है दावत में। नौ बजे करीब जब आधे से अधिक लोग भोजन कर चुके थे तब बारात आई, तोरण मारा गया। दूल्हे को मंच पर लाया गया। वहीं उस के कलश बंधाया गया। फिर वरमाल हुई। हमने इस बीच भोजन पर हाथ साफ करना शुरू किया। वहीं हमारे एक मुवक्किल मिल गए हमें अपनी बाइक पर बिठा कर घर ले गए। हमें  मोबाइल चार्ज करना था यह भी लोभ था कि एक बार नेट देख लेंगे। उन के यहाँ जा कर नेट पर मेल देखी भर, एक दो जरूरी मेल का जवाब दिया अंग्रेजी में, हिन्दी टाइपिंग उपलब्ध नहीं थी। वापस आ गए। दावत का अंत चल रहा था। आते जाते रास्ते में सर्दी लगी थी।खुद भी कॉफी पी और छोड़ने आने वाले को भी पिलाई। कमरे पर पहुँचे तो ससुराल का कुनबा दूल्हे-दुल्हिन की पगपूजा में देने वाले उपहार बींदणी के हवाले कर अकलेरा जा चुके थे। हमारे साथ आई सालियाँ भी उन के साथ हमारे ससुर जी से मिलने के लिए उन के साथ चली गई थीं। कमरा खाली था। रात के एक बज रहे थे। हम वहीं सो गए। सुबह तीन बजे नींद खुली तो पीछे से पंडित जी की आवाज सुनाई दी। नव वर-वधू को गृहस्थी के गुर ऊंची आवाज में सिखाए जा रहे थे। यानी पगपूजा का वक्त हो चला था। बींदणी को उठा कर वहाँ भेजा। साढ़े चार बजे वर-वधू के साथ ऊपर आई तो आगे आगे ढोल बज रहा था। नींद खुल गई। वधू एक कमरे में चली गई, वस्त्र परिवर्तन के लिए। दुल्हे को हॉल में बिठा दिया। करीब एक घंटा लगा। वर-वधू की विदाई का समय हुआ तो वर की जूतियाँ गायब। यही एक अंतिम रस्म रह गई थी। खैर,  कुछ दे दिला कर सालियों से जूतियाँ वापस मिलीं। इस बीच हम फ्रेश हो लिए। इधर वर-वधू की विदाई हुई उधर हम ने अपना सामान अपनी कार में रखा और रात वाले मुवक्किल के घर आए। रात को मोबाइल वहीं छूट गया था। वहाँ चाय पीनी पड़ी। रवाना होते होते सात बज रहे थे।

पूरी शादी में जो खास बात थी कि लेन-देन, दान दहेज का प्रदर्शन न हुआ। वह कुछ खास हुआ भी न था। यह एक अच्छी बात थी। इन के दिखावे से समाज में प्रतियोगिता होती है और इन्हें बढ़ावा मिलता है। बहुत सी परंपराओँ का निर्वाह किया गया था। लेकिन फिर भी वह आनंद नहीं था जो तेंतीस बरस पहले हमारी शादी के वक्त में था। सादगी बहुत कम थी लेकिन आनंद बहुत था। कभी मौज आई तो उस शादी की दास्तान भी आम होगी।

शुक्रवार, 14 नवंबर 2008

मुख्यमंत्री का चुनाव क्षेत्र, शादी और सुड़ोकू

कोटा से आलनिया तक सड़क अच्छी थी। लेकिन जैसे ही आलनिया से चले सड़क की दुर्दशा देखने को मिली। मरम्मत की हुई थी। लेकिन वह बिलकुल बेतरतीब तरीके से, केवल काम चलाऊ। कार 40-45 कि.मि.प्रति घं. की गति से चली। कोटा जिले का अंतिम गांव पड़ा सुकेत, और उसके बाद आहू नदी का पुल था। नदी में अभी भरपूर पानी था। नदी के उस ओर झालावाड़ जिला शुरू हो गया।  बस यहीं से लगा कि मुख्यमंत्री के चुनाव क्षेत्र में आ गए हैं। सड़क पर गाड़ी दौड़ने लगी, कोई खड़का तक नहीं। पन्द्रह किलोमीटर कैसे निकले? पता ही नहीं चला। सड़क पर सफेदे के मार्क लगे हुए, सड़क के किनारे पेड़ों पर भी लाल-सफेद निशान बनाए हुए लगा जैसे सिविललाइन्स में आ गए। झालावाड़ में घुसते ही बायीं और एक नयी विशाल इमारत बनी थी, बिलकुल आधुनिक बाहर से पूरी की पूरी लाल पत्थरों से जड़ी। यह था "मिनि सचिवालय"। यहाँ से अब झालावाड़ जिले का प्रशासन चलता है। जिला कलेक्टर और उस के अधीन जिला मुख्यालय के सभी कार्यालय इसी मिनि सचिवालय में हैं। अभी अदालतें पुराने गढ़ में चल रही हैं लेकिन जल्दी ही वे भी इसी इमारत के पास बनी अदालतों की नयी इमारत में आने वाली हैं।

वसुंधरा राजे सिंधिया ने एक पिछड़े जिले को अपने चुनाव क्षेत्र के रूप में चुना था। जहाँ राज परिवार के प्रति विशेष श्रद्धा अभी कायम थी। उस का लाभ उन्हें मिला, इस विधानसभा क्षेत्र में उन्हें चुनौती देने का साहस अभी भी किसी को नहीं। झालावाड़ जिस की किसी रूप में कोई अहमियत नहीं थी, सिवा इस के कि जालिम सिंह झाला ने इसे बसाया और यहीं से राज चलाया। पास ही छह-सात किलोमीटर की दूरी पर पुराना एतिहासिक नगर झालरापाटन स्थित है जो चन्द्रभागा नदी के पूर्वाभिमुख बहने से तीर्थ है। वहीं वल्लभ संप्रदाय का प्रसिद्ध मंदिर है। ऐतिहासिक प्राचीन सूर्य मंदिर स्थित है। चन्द्रभागा के किनारे बना शिव मंदिर और उस में स्थित छह फुट ऊँचा शिवलिंग दर्शनीय है। सारा कारोबार भी इसी नगर में है। संस्कृति और धर्म सब कुछ यहीं। नतीजा यह कि झालावाड़ केवल प्रशासनिक नगर बन कर रह गया। कोई रोजगार नहीं तो आबादी भी सीमित ही रही।

वसुंधरा से रिश्ता जुड़ने के बाद यहाँ सब कुछ हुआ। पूरे नगर की गली-गली में लौह-जाल युक्त कंक्रीट की सड़कें बनीं, मिनि सेक्रेट्रियट बना। मेडीकल कॉलेज खुला और पूरा का पूरा अस्पताल नया बना। पुराना अस्पताल अब धऱाशाई कर दिया गया है, उस का भी पुनर्निर्माण चल रहा है। इस तरह एक अच्छा चिकित्सा केन्द्र यहाँ बन गया और लोग चिकित्सा के लिए यहाँ आने लगे। स्नातकोत्तर महाविद्यालय पहले से ही था, उस का भी विकास हुआ।  इंजिनियरिंग, पोलोटेक्नीक और आईटीआई खुले। बीएड कालेज खुले। बीएसटीसी पहले से ही झालरापाटन में था। लॉ-कॉलेज खुला।  विद्यार्थियों की संख्या यहाँ बढ़ गई,  कर्मचारी यहाँ आए और बाजार भी विकसित होने लगा। खेल के लिए क्रिकेट का अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का स्टेडियम बना, उद्यान आदि बने। कुल मिला कर झालावाड़ तरक्की करने लगा। अब वह पहले की तरह सुस्त नहीं है, वहाँ गति पैदा हो चुकी है और जीवन बोलने लगा है।

हम होटल पहुंचे तो हमारे साले साहब की टीम वहाँ विराजमान थी, उन्हें आए हुए भी कोई एक घंटा ही हुआ था। वे रहने वाले तो मनोहरथाना के थे, लेकिन दूल्हा वाले झालावाड़ के उन्हें बारात ले कर जाने में असुविधा रही होगी। उन्हों ने हमारे साले साहब को यहीं बुलवा लिया था। वे भी मस्त थे, सारा इंतजाम दूल्हे वाले ही कर रहे थे, उन्हें कुछ नहीं करना पड़ रहा था। दुल्हन वाले सिर्फ मेहमान थे, और हम उन के भी मेहमान। होटल तीन मंजिला थी। भूतल रोज के ग्राहकों के लिए था। प्रथम तल शादी के मेहमानों के लिए आरक्षित और द्वितीय तल सारा मेडीकल कॉलेज/अस्पताल ने बुक करवा रखा था। उस में वे कर्मचारी रहते थे जो अकेले थे और जिन के परिवार वहाँ थे जहाँ से वे स्थानान्तरित हो कर आए थे। हमें भी पहले तल पर एक कमरा दे दिया गया, अ़टैच टायलट युक्त। उसी में हमने अपना सामान डाला। वह छह लोगों के लिए पर्याप्त था।

थोडी देर बाद साले साहब आए, हमें देख कर प्रसन्न हो गए। तुरंत चाय कॉफी की व्यवस्था की जिस का लंगर इसी तल्ले पर चल रहा था। तुरंत कॉफी आ गई। मैं ने सोचा आस पास कुछ टहल कर आऊँ,  दो घंटे कार जो चलाई थी। पर साले साहब ने रोक लिया, -कहीं मत जाना। बैंड वाला आ चुका है महिलाएँ बासन लेने जाएँगी। वापस आएँगी तो कौन उतारेगा? मैंने कहा -यार! हम तो अब सब से सीनियर हैं, हम से जूनियर चार-पाँच तो हो ही गए हैं। वे बोले -वे आएँगे तब ना, सब कल ही आएँगे। तब तक तो सब काम आप को ही करने होंगे। हम रुक गए। होटल का ही जायजा लिया। होटल के बाहर अच्छी खासी पार्किंग की जगह थी। एक अच्छा सा लॉन था जिस में दावत का स्थाई इंतजाम लगा था और होटल के पिछवाड़े एक टीन शेड में बड़ा सा रसोईघर था। एक और शेड था, बड़े हॉल जैसा जिस में शादी के दीगर कार्यक्रम हो सकते थे। हमने दरयाफ्त की तो पता लगा शाम का भोजन वहीं बन रहा है और उस हॉल नुमा शेड में ही खिलवाया जाएगा।

हम लौटे तब तक महिलाएँ बासन लेने जाने की तैयारी कर रही थीं। हमें कम से कम एक घंटा तो वहीं रुकना था, जब तक बासन नहीं लाए जाते। तब तक क्या करें? वहीं होटल के रिसेप्शन पर रुक गए, वहाँ अखबार थे जिन्हें सुबह ही पढ़ा जा चुका था। तब याद आया कि हमेशा समय की कमी से सुड़ोकू छूट जाती है। हमने तुरंत अखबार लपका और सुड़ोकू वाला पन्ना ले कर पेन निकाला और लगाने लगे अपनी गणित।

सोमवार, 27 अक्तूबर 2008

पता नहीं उन की दीवाली कैसी होगी?

कल से ही घर पर हूँ, दीवाली की तैयारियाँ जोरों पर हैं। बिजली वाला बल्ब लगा गया है, कल रात से ही जलने लगे हैं। शोभा (पत्नी) लगातार व्यस्त है पिछले कई दिनों से। बल्कि यूँ कहूँ कि महिनो से। कभी सफाई, कभी पुताई, कभी धुलाई, बच्चों के लिए कपड़े, त्यौहार के लिए मिठाइयाँ और पकवान निर्माण और इन सब के साथ-साथ घर का रोजमर्रा का काम। कितनी ऊर्जा भरी पड़ी है महिलाओं में, मैं दंग रह जाता हूँ। बच्चे आ गए पहले बेटा आया उस ने कुछ कामों में हाथ बंटाया, बाकी समय अपने मित्रों से मिलने में लगा रहा। सब घर जो आए हैं दीवाली पर। बेटी आई तब से कहीं नहीं गई। एक पुराने काम वाले टॉपर को ठीक करने में लगी है दो दिन से बाकी माँ का हाथ बंटा रही है।  उसे वापसी का रिजर्वेशन दो नवम्बर का चाहिए, चार का उस के पास है। तत्काल में हो सकता है। लेकिन रेल्वे की कोई साइट यह नहीं बता रही है किस ट्रेन में कितनी सीटें खाली हैं। कल ही सुबह रिजर्वेशन विण्डो पर सबसे पहले लाइन में लगने के लिए कितने घंटे पहले जाना होगा हम यही कयास लगाने आज जा कर सुबह आठ बजे विण्डो का नजारा करने गए। कुल मिला कर काम उतना ही कठिन जितना हनुमान के लंका जा कर सीता का पता लगाने का था। वे लंका जला आए थे, हम से तो आज लाइटर से गैस भी न जली, माचिस से जलाना पड़ा। कल रिजर्वेशन करा पाएँगे या नहीं मैं तो क्या भगवान भी न बता पाएंगे।

दोपहर भोजनोपरांत कम्प्यूटर पर बैठा ही था कि फोन घनघना उठा। एक पुराने मुवक्किल का था। कहने लगा एक केस ले कर आ रहा हूँ, घर ही मिलना।  मैं सोच रहा था दीवाली के दिन कैसी विपत्ति आन पड़ी? अदालतें भी शुक्रवार के पहले नहीं खुलेंगी। फिर भी  वह सौ किलोमीटर दूर लाखेरी से कोटा आया हुआ है, तो जरूर कोई विपत्ति ही रही होगी, मैं ने आने को हाँ कह दिया। करीब बीस मिनट बाद वह मेरे घर के कार्यालय में था। करीब साठ की उम्र होगी उस की, साथ में एक तीस-पैंतीस की महिला और एक लड़का करीब पच्चीस साल का साथ था। उस ने बताया कि वह उस की बेटी और भान्जा है। फिर वह कथा बताने लगा।

 अठारह साल पहले बेटी का ब्याह किया था तब वह सोलह की थी। अब कोटा में ही अपने पति के साथ रहती है। उस के छह और आठ वर्ष के दो बेटे हैं। पति पेन्टिंग का काम करता है। बेटी ने बताया कि कई साल से वह सिलाई का काम करती है जिस से करीब तीन-चार हजार हर माह कमा लेती है। पति कभी काम पर जाता है कभी नहीं जाता। जितना कमाता है उस का क्या करता है? पता नहीं। तीन बार मकान बनाए तीनों बार बेच दिए। खुद किराए के मकान में रहते रहे। पिछली बार मकान बनाने पर कर्जा रह गय़ा था जिसे पिता जी से चालीस हजार ले कर चुकाया। लेकिन कुछ दिन बाद ही मकान को बेच कर एक प्लाट खरीद लिया और उस पर निर्माण का काम चालू कर दिया। उसने अपना कमाया एक लाख रुपया मकान बनाने में पति को दे दिया। करीब पचास हजार अपने पिता से ला कर और दे दिया। करीब  तीस हजार अपने सिलाई के ग्राहकों से उधार दिलवा दिया।

तीन माह पहले मकान तैयार होते ही वे उस में जा कर रहने लगे। एक कमरा मेरे पास है, एक ससुर के पास।  अब पति कहता है इस मकान से निकल मकान बेचूंगा। दारू पी कर मारता है। पुलिस में शिकायत भी कर चुकी हूँ। मोहल्ले में बदनाम करता है कि मेरी औरत अच्छी और वफादार नहीं है। झगड़ा शुरू हुआ था, घर खर्च से, घर में सारा खर्च मैं डालती हूँ। बच्चों की फीस मैं देती हूँ। एक दिन बच्चों के रिक्शे वाले को किराया देने को कहा तो झगड़ा हुआ और आदमी से मार खाई। उस के बाद से अक्सर हाथ उठा लेता है। ससुर और देवर पति का साथ देते हैं। मुझे सताने को बच्चों को मारने लगता है। वह कहता है मैं मकान बेचूंगा। मैं कहती हूँ कि मकान में दो लाख से ऊपर तो मेरा लगा है। घर मैं चलाती हूँ। तेरा क्या है? कैसे मकान बेचेगा? एक दिन पीहर गई तो मकान के कागज निकाल कर ले गया और अभी अपनी बहिन से मेरे और खुद के नाम नोटिस भिजवाया है कि मकान बहिन का है हम उस में किराएदार हैं। पांच महीने से किराया नहीं दिया है। मकान खाली कर संभला दो नहीं तो मुकदमा करेगी। अभी पुलिस ने समझौते के लिए बुलाया था, नहीं माना। सहायता केन्द्र से बाहर आते ही धमकी दे दी कि मैं तो चाहता था कि तू मुकदमा करे तो मेरा रास्ता खुले। पुलिस वालों ने 498-ए, 406 और 420 आई पी सी में,  घरेलू हिंसा कानून में और मकान में हिस्से के लिए मुकदमे करने को कहा है। मेरे मुवक्किल, उस के पिता ने कहा कि मार-पीट से बचने को उस ने अपने भान्जे को उस के पास रख छोड़ा है।

खैर तुरंत कुछ हो नहीं सकता था। मैं ने पुलिस द्वारा अब तक की गई कार्यवाही के कागज लाने को कहा और अदालत खुलने पर शुक्रवार को आने को कहा। वे चले गए।

ऐन दिवाली के बीच, जब मैं सब को हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित कर रहा हूँ, परिवार के लिए सर्वांग समृद्धि की कामना कर रहा हूँ। वहाँ एक घर टूट रहा है। एक महिला ने अपने पैरों पर खड़े हो कर एक घर बनाया, उसे वह बचाना भी चाहती है। अच्छे खासे पेंटर पति को जो रोज कम से कम दो सौ रुपए, माह में पाँच हजार कमा सकता है। मकान बना कर बेचने और मुनाफा कमाने का ऐसा चस्का लगा है कि उस में उस ने अपने काम को  छोड़ दिया, पत्नी और अपने ससुर का कर्जदार हो गया, लेकिन उस कर्ज को चुकाना नहीं चाहता। चाहता है पत्नी घर चलाती रहे, वह मकान बनाए और बेचे। जल्दी ही करोड़ पति हो जाए। सम्पत्ति उस के पास रहे और पत्नी मार खाती रहे, बच्चे बिना कसूर पिटते रहें। पत्नी और बच्चे ऐसे रहें कि जब चाहो तब उन्हें घर से बाहर धकेल दो। 

खुद्दार, खुदमुख्तार पत्नी अब पिटना नहीं करना चाहती, वह अपने पैरों पर खड़ी है। केवल इतना चाहती है उस का घर बसे। लेकिन पति भी तो सहयोग करे। अभी वे सब एक ही घर में हैं। पर इस शीत-युद्ध के बीच पता नहीं कैसे उन की दीवाली होगी? और छह-आठ वर्ष के बच्चे पता नहीं उन की दीवाली कैसी होगी? और कब तक उन का घर बचा रहेगा?

बुधवार, 8 अक्तूबर 2008

नवरात्र और दशहरा : जब हम किशोर थे

किशोरावस्था में नवरात्र और दशहरा एक उल्लास भरा त्योहार था। दादा जी नगर के एक बड़े मंदिर के पुजारी थे। दादा जी के साथ मैं मन्दिर पर ही रहता था। दादा जी  की दिनचर्या सुबह चार बजे प्रारंभ होती थी। वे उठते मंदिर बुहारते, कुएँ से पानी लाते, स्नान करते, मंदिर की सुबह की पूजा श्रंगार होता। फिर बारह बजे तक दर्शनार्थी आते रहते। वे साढ़े बारह बजे मंदिर से फुरसत पाते। फिर स्नान कर दुर्गा सप्तशती का पाठ करते। नौ दिनों तक अपना भोजन स्वयं बनाते और एक समय खाते। हमारे लिए वे कोई पवित्र अनुष्ठान कर रहे होते। शाम को तीन बजे से फिर मंदिर खुल जाता। रात नौ बजे तक वे वहीं रहते। नवरात्र के नौ दिन वे मंदिर से बाहर भी नहीं जाते। मैं  ने उन से पूछा आप का इतना कठोर सात्विक जीवन है। आखिर वे इतना कठोर अनुष्ठान क्यों करते है? कहने लगे मैं लोगों को मुहूर्त बताता हूँ, ज्योतिष का काम करता हूँ। यह बहुत अच्छा काम नहीं है। मेरी बताई बहुत सी बातें गलत भी निकलती हैं। उस के लिए वर्ष में दो बार नवरात्र में माँ से क्षमा मांगता हूँ, प्रायश्चित करता हूँ। शायद माँ माफ कर दें मुझे मेरी गलतियों के लिए पापों के लिए। मुझे आश्चर्य होता कि एक व्यक्ति जिसे मैं होश संभालने से देख रहा हूँ, जिसे कभी कोई पाप  या गलत काम करते नहीं देखा, वह भी क्षमा मांगता है, और अपने अनजान पापों के लिए प्रायश्चित करता है। फिर उन का क्या जो जान कर पाप करते हैं?

मैं अंदर ही अंदर दहल जाता। मैं गलतियां करता और छिपाने के लिए दादा जी से, माँ से और अपने शिक्षक से झूठ बोलता था। मैं सोचता मुझे भी प्रायश्चित करना चाहिए। पर दादा जी की तरह तो नहीं कर सकता। फिर क्या कर सकता हूँ? मैं चाहता था कि मैं दादा जी से पूछूँ कि मुझे क्या करना चाहिए? पर डर लगता कि मेरे झूठों के बारे में पूछ लिया तो। मैं ने तय कर लिया मैं भी राम चरित मानस का पाठ करूंगा। आखिर एक साल नवान्ह पारायण करने बैठ गया। बड़ा आनंद मिला। लेकिन सिर्फ एक बार। अगले नवरात्र में वह आनंद जाता रहा। फिर कभी वैसा आनंद नहीं आया। हाँ, तुलसी के काव्य को समझने के लिए उसे कई कई बार अपनी रुचि से जब जब पढ़ा बहुत आनंद मिला और ज्ञान भी।

पहले नवरात्र से ही रामलीलाएँ शुरू हो जाती थीं। पहले एक गोल कमरा चौक पर होती। पंडित राधेश्याम की लिखी रामलीला के आधार पर। कुछ आधुनिक लोगों को वह पसंद नहीं आयी तो फुटबाल मैदान पर दूसरी होने लगी। लोग दोनों को देखते। कभी इस को कभी उस को। दोनों रामलीलाएँ शौकिया लोग करते थे। हिन्दू-मुसलमान दोनों ही उस में लगे रहते। वह पूरे शहर का पर्व था और उस में योगदान करना बहुत सम्मान की बात थी। हम भी रोज रामलीला देखने जाते। तीसरे चौथे दिन से दिन में सवारियाँ निकलनी शुरु हो जातीं। जिन में रामायण की घटनाओं और पात्रों को दिखाया जाता। वे शहर के मुख्य बाजार में घुमाई जाती। जगह जगह अखंड रामायण पाठ होते। पूरा शहर राममय हो जाता।

दशहरे के दिन दोपहर बाद सवारी निकलती। पहले रावण का दरबार निकलता। हमारे साथ रोज वाली बॉल खेलने वाले सुख पाल जी रावण बनते। ऐसे ठहाके लगाते कि बच्चे वाकई डर जाते। उस सवारी में एक दो जोकर भी जरूर होते। जो सवारी के आगे पैदल चलते और राहगीरों से चुहल करते चलते। बाद में राम लक्ष्मण की सवारी निकलती जिस में विभीषण, जामवंत, सुग्रीव और हनुमान भी होते और कुछ बालक वानर भी सभी वानर पैदल चलते। सवारी के आगे। हनुमान की हूँकार और राम का जयघोष देखने-सुनने लायक होता और दर्शकों को रोमांचित कर देता।

सवारी के निकलते ही हम दौड़ते हुए उस के आगे निकल जाते और सवारी के पहले दशहरा मैदान पहुँचते। जहाँ रावण, मेघनाद, कुंभकर्ण आदि के बड़े बड़े पुतले सजे होते। उन तक पहुंचने का रास्ता सवारी के लिए खाली होता। रावण के पहले ही एक छोटी सी अशोक वाटिका बनाई जाती जिस में माँ सीता बैठी होतीं जिन के आस पास घास की लंका बनाई जाती। सवारी नजदीक पहुंचती तो हनुमान दौड़ कर आते और माँ सीता से मिलते और लंका में आग लगा कर वापस राम जी की सवारी में जा मिलते। फिर रावण पर हमला होता। रावण जला दिया जाता।

हम रावण जलते ही चल देते। रास्ते में नदी किनारे बंकट की बगीची में। बंकट एक गुरू पहलवान था, ब्रह्मचारी। बगीची में रहता अखाड़ा चलाता और हनुमान जी की पूजा करता। सप्ताह में एक दिन बाजार से चंदा करता। दशहरे पर रावण वध के बाद हनुमान जी की पूजा होती। फिर खीर का प्रसाद बंटता। हम दोने में ले कर वहीं प्रसाद खाते और अपने मंदिर लौटते। वहाँ भी हनुमान जी की मूर्ति थी। पूजा करने की जिम्मेदारी मेरी। तबीयत से हनुमान जी का श्रंगार करता। आरती होती, प्रसाद बंटता। फिर परिवार के सभी बुजुर्गों के पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त करते। सब बच्चों को कुछ न कुछ आना-दो आना जरूर देते। तब तक भूख लगी होती। घऱ जा कर भोजन करते और राम लीला देखने भाग जाते।

दशहरे के दूसरे दिन संध्या काल में दो सवारियाँ निकलतीं जिस में एक में राम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान और वानर सेना होती, अयोध्या को लौटती हुई। दूसरी में भरत होते हाथों में पादुकाएँ लिए हुए वनवासी वेश में। बाजार के बीच चौक में दोनों का मिलन होता। सारे मिलते ही खूब आँसू बहाते। ऐसा दृश्य बनता कि सारे दर्शकों की आँखों से भी आँसू बह रहे होते। वहीं एक मंच बनाया जाता। राम, लक्ष्मण, सीता और भरत कहीं चले जाते। दर्शक इन्तजार करते। फिर चारों राजसी पोशाकों में सज कर आते और राम का राजतिलक होता। लोग खूब रुपया भेंट करते। इतना कि दशहरे के दिनों सवारियों पर किया गया सारा खर्च निकाल कर भी बच जाता जो अगले साल के लिए रख लिया जाता। उन दिनों के नवरात्र और दशहरा कभी नहीं भुलाए जा सकते।
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दुर्गा पूजा और दशहरा पर्व पर सभी को शुभकामनाएँ।
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गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008

सूनिए बापू का प्रिय गान

आज प्रिय बापू का जन्म-दिन है ..
सुनिए उन का प्रिय गान......
वैष्णव जन तो तैने कहिए........

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मंगलवार, 30 सितंबर 2008

नवरात्र को आत्मानुशासन का पर्व बनाएँ

छह माह पहले चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से प्रारंभ नववर्ष का पहला पखवाड़ा नीम की कोंपलों और काली मिर्च के सेवन और एक समय अन्नाहार से प्रारंभ हुआ था। समाप्त हुआ श्राद्ध के सोलह दिनों से जिसमें पूर्वजों की स्मृति के माध्यम से विप्र, परिजनों और मित्रों के साथ खूब गरिष्ठ पकवान्नों का सेवन हुआ। नतीजा कि तुल आएँ तो तीन से चार किलोग्राम वजन अवश्य ही बढ़ गया होगा। यह पतलून के पेट पर कसाव से ही पता लगता है। अवश्य ही कोलेस्ट्रोल भी वृद्धि को ही प्राप्त हुआ होगा। लेकिन वर्ष के उत्तरार्ध ने जैसे ही दस्तक दी नवरात्र के साथ और साथ ही जता दिया कि जितना बढ़ाया है वापस घटाना होगा वरना यह उत्तरार्ध चैन नहीं लेने देगा। एक समय अन्नाहार आज से फिर प्रारंभ हो गया है।

दोनों नवरात्र मौसम परिवर्तन के साथ आते हैं। उधर दिन रात से बड़े होने लगते हैं और इधर रातें दिन से बड़ी। मौसम में तापमान लघु जीवों के लिए इतना पक्षधर होता है कि उन की संख्या बढ़ने लगती है। मनुष्य को यह मौसम कम रास आता है। पेट के रोग, जीवाणुओं और विषाणुओं से उत्पन्न रोगों की बहुतायत हो जाती है। उस का सब से अच्छा बचाव यह है कि आप आहार की नियमितता बना लें।अन्नाहार एक समय के लिए सीमित कर दें और फलाहार करें। शरीर को विटामिनों की मात्रा प्राकृतिक रूप से मिले। आप किसी धार्मिक कर्मकांड को न मानें तो भी स्वाध्याय अवश्य करें। किसी पुस्तक का ही अध्ययन सिलसिलेवार कर डालें। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के बारे में कहा जाता है कि वे अपने पूजा के लंबे समय में पुस्तकों का अध्ययन करते थे। मैं ने इन दिनों धर्म और दर्शन संबन्धी कुछ पुस्तकें हासिल कर ली हैं, अवश्य ही नवरात्र में पढ़ लूंगा। आज के अवकाश में अपनी दुछत्ती की सफाई भी करवा ली है, जहां से बहुत सारी पत्रिकाओं के पुराने अंक बरामद हुए हैं जिन में बहुत सी काम की जानकारी है। मेरा खुद का इतिहास सामने आ गया है।

नवरात्र के पहले दिन ही राजस्थान को एक बहुत बड़े हादसे को झेलना पड़ा है। दो सौ से कुछ कम लोग जोधपुर में चामुंडा मंदिर हादसे में जान गंवा बैठे हैं, इतने ही घायल हैं। यह हादसा किसी आतंकी के कारण नहीं हमारी अपनी अव्यवस्था, अनुशासन हीनता और अंधविश्वास का परिणाम है। भाई ईश्वर है, तो एक ही ना? फिर देवी माँ भी एक ही होंगी। नगर में देवी माँ के अनेक मंदिर होंगे। फिर सब की दौड़ एक ही मंदिर की ओर क्यों? क्यों मन्दिर ही जाया जाए। वहाँ भीड़ लगाई जाए। घर में भी आप घट स्थापना करते ही हैं। हर श्रद्धालु के घर एक चित्र तो कम से कम देवी माँ का अवश्य ही होगा। वहीं उस के दर्शन कर प्रार्थना, अर्चना की जा सकती है। क्यों देवी मंदिर ही देवी माँ और आप के बीच आवश्यक है?  फिर घर में और घर में नहीं तो पड़ौस में कम से कम एक महिला/बालिका तो होगी ही क्यों न उसे ही देवी का रूप मान लेते हैं। उस से भी देवी माँ रुष्ट नहीं होंगी। शायद प्रसन्न ही होंगी। क्यों हम एक मूर्तिकार या चित्रकार की घड़ी मूर्ति या चित्र पर विधाता की घड़ी मूरत से अधिक तरजीह देते हैं?

क्या हमारी यह अनुशासनहीनता, अन्धविश्वास और सामाजिक अव्यवस्था उस आतंकवाद से अधिक खतरनाक नहीं जो अनायास ही सैंकड़ों जानें ले लेते हैं? हम कुछ तो सामाजिक हों। नवरात्र आत्मानुशासन का पर्व है। उसी पर हम उसे खो बैठते हैं। पुलिस और प्रशासन को दोष देने से कुछ नहीं होगा। क्यों नहीं जो नगर 20-25 हजार श्रद्धालु सूर्योदय के पूर्व 400 फुट ऊंचे मंदिर पर चढ़ाई करने को तैयार कर देता है वह 200-250 स्वयंसेवक इस पर्व पर सेवा के लिए तैयार कर पाता है? और भी बहुत से प्रश्न हैं जो कुलबुला रहे हैं। जरूर आप के पास भी होंगे? क्यों न हम किसी सामाजिक संस्था से जुड़ कर उन प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयत्न करें?

कल ईद की नमाज भी होने वाली है। हजारों हजार लोग देश भर की ईदगाहों पर नमाज अदा करेंगे। वैसे वे सभी रमजान के पूरे महीने एक अनुशासन पर्व से गुजर कर निकलें हैं। इतना तो अनुशासन होगा कि किसी हादसे का समाचार सुनने को न मिले। 


आज के लिए बस इतना ही। सभी पाठकों को नवरात्र के लिए और आने वाली ईद के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ।

रविवार, 14 सितंबर 2008

अगले बरस तू जल्दी आ ...


आज गणपति को विदा किया जा रहा है। अगले बरस जल्दी आने की प्रार्थना के साथ। वे हमारी समृद्धि की कामना के संपूर्ण प्रतीक हैं, दुनियाँ के पहले कार्टून नहीं। न ही उन की किसी ने कल्पना की है। वे हमारे इतिहास की धरोहर हैं, इतिहास का महत्वपूर्ण दस्तावेज भी।

मैं ने पिछले आलेख में संक्षेप में बताने की कोशिश की थी कि शिकार के आयुध धारण कर वे मानव की शिकारी अवस्था को प्रदर्शित करते हैं। उन के आयुध भी एक हाथी पर नियंत्रण के आयुध हैं। जंगल के विशालतम और बलशाली जन्तु पर नियंत्रण प्राप्त कर लेना, एक तरह से जंगल के समस्त जन्तु जगत पर विजय प्राप्त कर लेने के समान था। यह मानव विकास के एक महत्वपूर्ण चरण पशुपालन की चरमावस्था को भी प्रदर्शित करता है। इन दोनों अवस्थाओं में सामाजिक संगठन में पुरुष की प्रधानता रही। क्यों कि समूह के पालन के लिए पुरुष की भूमिका प्रधान थी। लेकिन इन अवस्थाओं में स्त्रियाँ फलों, वनोपज और ईंधन के संग्रह का काम करती रहीं। यहीं निरीक्षण और पर्यवेक्षण से उन की मेधा को विकसित होने का अवसर मिला। उन्होंने आवश्यक वन-उत्पादों के लिए जंगल में दूर तक की संकटपूर्ण यात्राओं के विकल्प के रूप में अपने आवास के निकट की भूमि में वनस्पति उत्पादन करने की युक्ति खोज निकाली। यही कृषि का आविर्भाव था।

इस ने  संकट के समय संग्रहीत भोजन के संकट को हल कर दिया। धीरे-धीरे कृषि की विधियों के विकास ने संग्रह किए जाने वाले भोजन के संग्रह में वृद्धि की। शिकार पर निर्भरता न्यूनतम रह गई। इस नयी खोज ने एकाएक स्त्रियों की महत्ता को बढ़ा दिया। वे सामाजिक गतिविधि के केन्द्र में आ गयीं। यह उसी तरह है जैसे आज आई टी सेक्टर और औद्योगिक उत्पादों से संबद्ध लोग केन्द्र में है। कृषि उस समय की आधुनिकतम उत्पादन तकनीक थी जिस ने मनुष्य की शिकार जैसे खतरनाक उद्योग पर निर्भरता को समाप्त कर दिया। बाद में वह केवल शौक मात्र रह गया। आज तो उस पर प्रतिबंध लगा देने की नौबत ही आ चुकी है।

अपनी प्रजनन क्षमता के कारण समूह की संख्या में वृद्धि के लिए उन्हें महत्व हासिल था ही। उस के साथ कृषि की उत्पादकता और जुड़ गई। कुल मिला कर महिलाएँ समृद्धि का संपूर्ण प्रतीक हो गईं। स्त्रियों के मासिक धर्म के रक्त जैसा लाल रंग इस समृद्धि का प्रतीक हो गया। गणपति का सिंदूर अभिषेक इसी से संबद्ध है। गणपति का दूर्वा प्रिय होना, कृषि उत्पादों का उस के हाथों में आयुधों का स्थान लेना, खेती से लायी गई समृद्धि को ही प्रकट करता है। खेती के सब से बड़े शत्रु चूहे की सवारी भी खेती के लिए चूहों पर नियंत्रण रखने की आवश्यकता को प्रतिपादित करती है।

सिंदूर की स्त्रियों से संबद्धता जग जाहिर है। सिंदूर जिन देवताओं से संबद्ध है वे सभी किसी न किसी प्रकार से स्त्रियों से संबद्ध हैं। स्वयं गणेश की उत्पत्ति गौरी से है, यहाँ तक कि गौरी-पति शिव भी उन से उलझ पड़ते हैं। गौरी को आकर बताना पड़ता है कि शिव उन के पति हैं इसलिए गणपति के पिता भी। भैरव भी माता दुर्गा से जुड़े़ हैं। एक और लोक देवता क्षेत्रपाल सिंदूर के अधिकारी हैं, वे खेती की रक्षा से जुड़े हैं। बचे हनुमान जी, वे भी माता सीता से सिंदूर की दीक्षा लेकर ही उस के अधिकारी हुए हैं। इस तरह लाल रंग स्त्री शक्ति का प्रतीक है। हम आज भी प्रत्येक अवसर पर चाहे वह स्वागत का हो या विदाई का, लाल रंग के सिंदूर या रोली का टीका करते हैं, ऊपर से उस पर श्वेत अक्षत चिपकाते हैं। वास्तव में यह एक प्रकार का शुभकामना संदेश है। जो हम टीका लगवाने वाले व्यक्ति को देते हैं कि उसे संपूर्ण समृद्धि प्राप्त हो। वैसे ही, जैसे कहा जाता है 'दूधों नहाओ पूतों फलो'। सिंदूर जहाँ मातृ-शक्ति का प्रतीक है, वहीं अक्षत पुरुष वीर्य का। दोनों के योग के बिना संतानोत्पत्ति संभव नहीं। यही दोनों समृद्धि के प्रतीक हो गए और आज तक प्रचलित हैं। माथे पर सिंदूर धारण करना स्त्रियों की प्रजनन क्षमता का प्रतीक है। कालांतर में स्त्रियों के विधवा हो जाने पर उन्हें सिंदूर धारण करने से प्रतिबंधित होना पड़ा, क्यों कि पति के जीवित न रहने पर उन की यह क्षमता अधूरी रह जाती है।

यह भाद्रपद का उत्तरार्ध और सितंबर माह कृषि के लिए आशंकाओं का समय भी है। फसलें खेत में खड़ी हैं और घर तक आकर समृद्धि लाना पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर करता है। समय पर न कम, न अधिक, केवल उपयु्क्त वर्षा का होना, फसलों के पकने के समय पूरी धूप मिलना, कीटों और चूहे जैसे जंतुओं से उन की रक्षा। यही कारण है कि प्रकृति को इस के लिए मनाना आवश्यक है। उसे मनाने में कोई कमी रह गई तो? उत्पादन प्रभावित होगा।

समृद्धि प्रदाता गणपति प्रकृति के देवता हैं। वे प्रति वर्ष ऋद्धि-सिद्धि के साथ आते हैं, और अकेले वापसी करते हैं। मनुष्यों को दोनों चाहिए। इस लिए वे आज गणपति को विदा कर रहे हैं, इस प्रार्थना के साथ कि गणपति बप्पा! अगले बरस जल्दी आना।

गुरुवार, 11 सितंबर 2008

जलझूलनी एकादशी और बाराँ का डोल ग्यारस मेला

मैंने गणेश चौथ से लेकर अनंत चौदस तक के समय को खेती से जुड़े लोक अनुष्ठानों का समय कहा था। जिस में गणपति पूजा, गौरी स्थापना और विसर्जन हो चुका है। कल राजस्थान में वीर तेजाजी और बाबा रामदेव के मेले हुए। आज डोल ग्यारस shreeji1s(जलझूलनी एकादशी) है। आज मेरे जन्म-नगर बाराँ में जो अब राजस्थान के दक्षिणी पश्चिमी क्षेत्र का मध्यप्रदेश से सटा एक सीमावर्ती जिला मुख्यालय है, एक पखवाड़े का मेला शुरु हो चुका है। यूँ तो इस मेले का अनौपचारिक आरंभ एक दिन पहले तेजादशमी पर ही हो जाता है। दिन भर तेजाजी के मन्दिर पर पूजा के बाद मेले में दसियों जगह गांवों से आए लोग रात भर ढोलक और मंजीरों के साथ खुले हुए छाते उचकाते हुए वीर तेजाजी की लोक गाथा गाते रहते हैं। आज की सुबह होती है मेले के शुभारंभ से। 
भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मथुरा में जन्मे कृष्ण, उसी दिन नन्द के घर जन्मी कन्या, जिसे कंस ने मार डाला। कन्या के स्थान पर पर कृष्ण पहुँचे तो नन्द के घर आनंद हो dolmela3s गया। अठारह दिन बाद भाद्रपद शुक्ल एकादशी को माँ यशोदा कृष्ण को लिए पालकी में बैठ जलस्रोत पूजने निकली। इसी की स्मृति में इस दिन पूरे देश में समारोह मनाए जाते हैं। राजस्थान में इस दिन विमानों में ईश-प्रतिमाओं को नदी-तालाबों के किनारे ले जाकर जल पूजा की जाती है।
इस दिन बारां के सभी मंदिरों में विमान सजाए जाते हैं और देवमूर्तियों को इन में पधरा कर उन्हें एक जलूस के रूप में नगर के बाहर एक बड़े तालाब के किनारे ले जाया जाता है। सांझ पड़े dolmela11sवहाँ देवमूर्तियोँ की आरती उतारी जाती है और फिर विमान अपने  अपने मंदिरों को लौट जाते हैं। मेरे लिए इस दिन का बड़ा महत्व है। नगर के सब से बड़े एक दूसरे से लगभग सटे हुए दो मंदिरों में से एक भगवान सत्यनारायण के मंदिर में ही मैं ने होश संभाला, और बीस वर्ष की उम्र तक वही मेरे रहने का स्थान रहा। दादा जी इस मंदिर के पुजारी थे, हम उन के एक मात्र पौत्र। अभी दादा जी के छोटे भाई के पुत्र, मेरे चाचा वहाँ पुजारी हैं।
तेजा दशमी के दिन ही काठ का बना छह गुणा छह फुट का विमान बाहर निकाला जाता, उस की सफाई धुलाई होती और उसे सूखने के लिए छोड़ दिया जाता। यह वर्ष में सिर्फ एक दिन dolmela14s ही काम आता था। दूसरे दिन सुबह दस बजे से इसे सजाने का काम शुरू हो जाता। पहले यह काम पिताजी के जिम्मे था। 14-15 वर्ष का हो जाने पर यह मेरे जिम्मे आ गया, हालांकि मदद  सभी करते थे। विमान के नौ दरवाजों के खंबे सफेद पन्नियाँ चिपका कर सजाए जाते। ऊपर नौ छतरियों पर चमकीले कपड़े की खोलियाँ जो गोटे से सजी होतीं चढ़ाई जातीं। हर छतरी पर ताम्बे के कलश जो सुनहरे रोगन से रंगे होते चढ़ाए जाते। विमान के अंदर चांदनी तानी जाती। विमान के पिछले हिस्से में जो थोड़ा ऊंचा था वहाँ एक सिंहासन सजाया जाता जिस पर भगवान की प्रतिमा को dolmela15s पधराना होता। आगे का हिस्सा पुजारियों के बैठने के लिए होता। विमान के सज जाने के बाद नीचे दो लम्बी बल्लियाँ बांधी जातीं जिन के सिरे विमान के दोनों ओर निकले रहते। हर सिरे पर तीन तीन कंधे लगते विमान उठाने को।
दोपहर बात करीब साढ़े तीन बजे भगवान का विग्रह लाकर विमान में पधराया जाता। आगे के भाग में एक और मेरे दादा जी या पिता जी बैठते, दूसरी ओर मैं बैठता। लोग जय बोलते और विमान को कंधों पर उठा लेते। विमान शोभायात्रा में शामिल हो जाता। सब से पीछे रहता  भगवान श्री जी का विमान और उस dolmela13s से ठीक आगे हमारा भगवान सत्यनारायण का। इस शोभा यात्रा में नगर के कोई साठ से अधिक मंदिरों के विमान होते। तीन-चार विमानों के अलावा सब छोटे होते, जिन में पुजारी के बैठने का स्थान न होता। शोभा यात्रा में आगे घुड़सवार होते, उन के पीछे अखाड़े और फिर पीछे विमान। हर विमान के आगे एक बैंड होता, उन के पीछे भजन गाते लोग या विमान के आगे डांडिया करते हुए कीर्तन गाते लोग। सारे रास्ते लोग फल और प्रसाद भेंट करते जिन्हें हम विमान में एकत्र करते। अधिक हो जाने पर उन्हें कपडे की गाँठ बना कर नीचे चल रहे लोगों को थमा देते।
शाम करीब पौने सात बजे विमान तालाब पर पहुंचता। सब विमान तालाब की पाल पर बिठा दिए जाते। लोग फलों पर टूट dolmela9sपड़ते, और लगते उन्हें फेंकने तालाब में जहाँ पहले ही बहुत लोग  केवल निक्करों में मौजूद होते और फलों को लूट लेते। फिर भगवान की आरती होती। जन्माष्टमी के दिन बनी पंजीरी में से एक घड़ा भर पंजीरी बिना भोग के सहेज कर रखी जाती थी। उसी पंजीरी का यहाँ भोग लगा कर प्रसाद वितरित किया जाता।
फिर होती वापसी। विमान पहले आते समय जो रेंगने की गति से चलता, अब तेजी से दौड़ने की गति से वापस मन्दिर लौटता। बीच में dolmela2sअनेक जगह विमान रोक कर लोग आरती करते और प्रसाद का भोग लगा कर लोगों को बांटते। 
मेला पहले की तरह इस बार भी तालाब के किनारे के मैदान में ही लगा है और पूरे पन्द्रह दिन तक चलेगा। अगर मेले के एक दो दिन पहले बारिश हो कर खेतों में पानी भर जाए तो किसान फुरसत पा जाते हैं और मेला किसानों से भर उठता है।

रविवार, 31 अगस्त 2008

'भगवान' शब्द के शब्दार्थ

हिन्दुस्तानी बन्धु ने आज एक आलेख अपने ब्लॉग पर लिखा है- हमारा हिन्दुस्तान...: भगवान का शाब्दिक अर्थ यह है !! इसे पढ़ कर इन हिन्दुस्तानी बन्धु बुद्धि पर केवल और केवल तरस खाने के अलावा और कुछ नहीं किया जा सकता है? यह पाँचवीं कक्षा के किसी छात्र का भदेस और कक्षा से लम्बे निष्कासन के उपाय के रूप में दिया गया जवाब लगता है।

इन सज्जन ने अपने आलेख में जो बताया है  कि भग स्त्री जननांग को कहते हैं इस लिए स्त्री का स्वामी अर्थात उस का पति भगवान हुआ, जैसे बल का स्वामी बलवान।

  • संस्कृत में 'भगः' शब्द है, जिस के अर्थ हैं -सूर्य के बारह रूपों में से एक, चन्द्रमा, शिव का रूप, अच्छी किस्मत, प्रसन्नता, सम्पन्नता, समृद्धि, मर्यादा, श्रेष्ठता, प्रसिद्धि, कीर्ति, लावण्य, सौन्दर्य, उत्कर्ष, श्रेष्टता, प्रेम, स्नेह, सद्गुण, प्रेममय व्यवहार, आमोद-प्रमोद, नैतिकता, धर्मभावना, प्रयत्न, चेष्ठा, सांसारिक विषयों में विरति, सामर्थ्य, और मोक्ष, और ... ...  योनि भी। 
  • लेकिन,  योनि केवल स्त्री जननांग को ही नहीं, उद्गम स्थल, और जन्मस्थान को भी कहते हैं।
  • यह जगत जिस योनि से उपजा है उसे धारण करने वाले को भगवान कहते हैं। 
  • इन सज्जन के अर्थ को भी ले लें, तो भी योनि का स्वामित्व तो स्त्री का ही है। इस कारण से स्त्री ही भगवान हुई न कि उस का पति।

स्वयं को हिन्दुस्तानी कहने वाले इन महाशय जी को यह गलत और संकीर्ण अर्थ करने के पहले कम से कम इतना तो सोचना ही चाहिए था, कि वे जो हिन्दुस्तानी नाम रखे हैं  यह उस के अनुरूप भी है अथवा नहीं। भाई,क्यों अपनी चूहलबाजी के लिए इस विश्वजाल पर हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानियों की मर्यादा को डुबोने में लगे हैं। कम से कम भगवान का ही खयाल कर लिया होता।

शनिवार, 2 अगस्त 2008

क्या व्यवस्था अव्यवस्था में से जन्म लेगी ?

“एक रविवार, वन आश्रम में” श्रंखला की 1, 2, 3, 4, 5, और 6 कड़ियों को अनिल पलुस्कर, अनिता कुमार, अरविन्द मिश्रा, अशोक पाण्डे, डॉ. उदय मणि कौशिक,ज्ञानदत्त पाण्डे, इला पचौरी, Lलावण्या जी, नीरज रोहिल्ला, पल्लवी त्रिवेदी, सिद्धार्थ,स्मार्ट इंडियन, उडन तश्तरी (समीरलाल), अनुराग, अनूप शुक्ल, अभिषेक ओझा, आभा, कुश एक खूबसूरत ख्याल, डा० अमर कुमार, निशिकान्त, बाल किशन, भुवनेश शर्मा, मानसी, रंजना [रंजू भाटिया], राज भाटिय़ा, विष्णु बैरागी और सजीव सारथी जी की कुल 79 टिप्पणियाँ प्राप्त हुईं। आप सभी का बहुत-बहुत आभार और धन्यवाद। आप सभी की टिप्पणियों ने मेरे लेखन के पुनरारंभ को बल दिया है। मेरा आत्मविश्वास लौटा है कि मैं वैसे ही लिख सकता हूँ, जैसे पहले कभी लिखता था।

इस श्रंखला में अनेक तथ्य फिर भी आने  से छूट गए हैं। मुझे लगा कि उद्देश्य पूरा हो गया है और मैं ने उन्हें छूट जाने दिया। ब्लाग के मंच के लिए आलेख श्रंखला फिर भी लम्बी हो चुकी थी। छूटे प्रसंग कभी न कभी लेखन में प्रकट अवश्य हो ही जाएंगे।  इस श्रंखला से अनेक नए प्रश्न भी आए हैं। जैसे लावण्या जी ने सिन्दूर के बारे में लिखने को कहा है। यह भी पूछा है कि यह कत्त-बाफले क्या हैं? इन प्रश्नों का उत्तर तो मैं कभी न कभी दे ही दूंगा। लेकिन इन प्रश्नों से अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि पहले जो इस तरह के आश्रम आध्यात्म, दर्शन, साहित्य, संगीत और अन्य कलाओं व ज्ञान के स्रोत हुआ करते थे सभी का किसी न किसी प्रकार से पतन हुआ है। दूसरी ओर हम सोचते हैं कि ज्ञान के क्षेत्र में भारत आज भी दुनियाँ का पथ प्रदर्शित करने की क्षमता रखता है। तो फिर आध्यात्म, दर्शन, साहित्य, संगीत और अन्य कलाओं व ज्ञान के नए केन्द्र कहाँ हैं? वे है भी या नहीं?

हर कोई चाहे वह साधारण वस्त्रों में हो या फिर साधु, नेता और किसी विशिष्ठ पोशाक में। केवल भौतिक सुखों को जुटाने में लगा है। लोगों को अपना आर्थिक और सामाजिक भविष्य असुरक्षित दिखाई पड़ता है। लोगों को जहाँ भी सान्त्वना मिलती है उसी ओर भागना प्रारंभ कर देते हैं। निराशा मिलने तक वहीं अटके रहते हैं। बाद में कोई ऐसी ही दूसरी जगह तलाशते हैं।

अब वे लोग कहाँ से आएंगे जो यह कहेंगे कि पहले स्वयं में विश्वास करना सीखो (स्वामी विवेकानन्द), और जब तक हम खुद में विश्वास नहीं करेंगे। तब तक इस विश्व में भी अविश्वास बना ही रहेगा। हम आगे नहीं बढ़ सकेंगे और न ही नए युग की नयी चुनौतियों का सामना कर सकेंगे। पर जीवन महान है। वह हमेशा कठिन परिस्थितियों में कुछ ऐसा उत्पन्न करता है जिस से जीवन और उस की उच्चता बनी रहती है। हमें विश्वास रखना चाहिए कि जीवन अक्षुण्ण बना रहेगा।

किसी ने जो ये कहा है कि व्यवस्था अव्यवस्था में से ही जन्म लेती है, मुझे तो उसी में विश्वास है।

गुरुवार, 31 जुलाई 2008

एक रविवार, वन-आश्रम में (6) ... ज्ञान और श्रद्धा

दुकानदार 24-25 वर्ष का नौजवान था। यहां तो बहुत लोग आते हैं? मैं ने उस से पूछा।

-हाँ, मंगल और शनिवार तो बहुत लोग आते हैं। उन दो दिनों में दुकानदारी भी अच्छी होती है। यूँ कहिए कि सप्ताह भर की कमाई इन दो दिनों में ही निकलती है। कुछ लोग रविवार या किसी छुट्टी के दिन आते हैं। बाकी दिन तो घटी-पूर्ती के ही हैं।

-स्टेशन से यहाँ तक की सड़क तो कच्ची है, गड्ढे भी बहुत हैं। जीपें भी दो ही चल रही हैं। बड़ी परेशानी होती होगी?

नहीं उस दिन तो आस पास के स्टेशनों पर रुकने वाली सभी ट्रेनें बीच में, आश्रम के नजदीक खड़ी हो जाती हैं। लोग उतर कर पैदल आ जाते हैं, एक किलोमीटर से भी कम पड़ता है।

यह व्यवस्था रेल्वे प्रशासन स्तर पर है या मौखिक इसे पता करने का साधन मेरे पास नहीं था। लेकिन लोग कह रहे थे कि यह रेल चालकों के सहयोग से ही होता है और, यह कुछ वर्षों से स्थाई व्यवस्था बन गई है।

-आश्रम कब से है यहाँ?

अभी जो बाबा हैं उन के पिता जी ने ही बनाया था। मंदिर भी उन के ही जमाने का है। वे बहुत पहुँचे हुए थे। उन के पास बहुत लोग आते थे। उन के बाद से आना कम हो गया था। पर कुछ बरसों से अभी वाले बाबा पर भी बहुत लोगों का विश्वास जमने लगा है। लोगों का आना बढ़ता जा रहा है। मंदिर का तो कुछ खास नहीं, पर लोग बाबा से ही मिलने आते हैं।

इतनी बात हुई थी कि मेरा लिपिक जीतू वहाँ आ गया, बोला –भाई साहब आप की कॉफी तो बनेगी नहीं पर नीबू बहुत हैं, मैं शिकंजी बना देता हूँ। मैं उस के साथ लौट कर आ गया। उसी ने याद दिलाया कि मेरी जेब में विजय भास्कर चूर्ण के पाउच पड़े हैं। उसने पूछा –आप ने नहीं लिया। मैं ने कहा –नहीं।

मैं विजया लेने का अभ्यासी नहीं। पर कहीं पार्टी-पिकनिक में उस से मुझे कोई परहेज नहीं। शायद मेरा शरीर ही ऐसा है कि मुझ पर उस का कोई विपरीत असर नहीं होता। मैं ने एक पाउच चूर्ण निकाल कर खा लिया, वह कुछ हिंग्वाष्टक के जैसे स्वाद वाला था। थोड़ी देर में जीतू मेरी शिकंजी ले आया। उस के पीने के बाद मेरा टहलने का मन हुआ तो मैं परिक्रमा पद-पथ पर चल पड़ा। दूसरे छोर पर शिव-मंदिर के पीछे हो कर दूसरे कोने पर पहुँचा तो वहाँ निर्माणाधीन सड़क दिखाई दी तो आश्रम का मानचित्र पूरी तरह साफ हो गया। उधर आश्रम और मंदिर का प्रवेश द्वार बनना था। जिस ओर जीप ने हमें उतारा था वह बाद में पिछवाड़ा हो जाना था। इस निर्माणाधीन सड़क के पार कुछ सौ मीटर से पहाड़ी श्रंखला शुरू होती थी, जो दूर तक चली गई थी। पहाड़ियों के बीच से एक बरसाती नाला निकलता था, जो ठीक आश्रम के पास हो कर जा रहा था। आश्रमं के ऊपर सड़क के उस पार पहाड़ी के नीचे आसानी से एनीकट बनाया जा सकता था। जिस में बरसात का पानी रुक कर एक तालाब की शक्ल ले सकता था। ऊपर पहाड़ियों में भी एक-दो स्थानों पर पानी को रोक कर भूमि और क्षेत्र में पानी की उपलब्धता बढ़ाई जा सकती थी। पर यह सब जंगल क्षेत्र था और शायद इस खर्च को सरकार फिजूल समझ रही थी। पर यह काम तो आश्रम के भक्त एक श्रमदान योजना के तहत भी कर सकते थे। इस से आश्रम का पड़ौस सुन्दर तो हो ही सकता था। आश्रम की भूमि के लिए सिंचाई का साधन भी उपलब्ध हो सकता था। मैं ने यह सुझाव लौट कर आश्रम भक्तों को दिया भी। लेकिन उन की इस में कोई रुचि नहीं थी। आश्रम में ट्यूबवैल पानी के लिए उपलब्ध था ही। यदि आश्रम के नेतृत्व में वाकई ऐसा कुछ हो जाए और उस का क्षेत्र में अनुसरण हो, तो सवाई माधोपुर व करौली जिलों में पानी की जो कमी दिखाई देती है उस का कुछ हद तक हल निकाला जा सकता है।

मैं परिक्रमा पूरी कर वापस लौट आया। मुझे पूरे परिक्रमा पद-पथ पर सभी लोग उलटे आते हुए दिखे तो मुझे शंका हुई कि मैं ने कहीं विपरीत परिक्रमा तो नहीं कर ली है। मैं ने खुद को जाँचा तो मैं सही था। मैं ने पूछा भी तो वहाँ के एक साधू ने बताया कि यहाँ विपरीत दक्षिणावर्त परिक्रमा ही की जाती है। क्यों कि यहाँ केवल शिव और हनुमान के मंदिर हैं और हनुमान भी शिव के रुद्र रूप ही हैं। मैं इस का अर्थ नहीं समझा। मैं ने पहली बार विपरीत परिक्रमा करते लोगों को देखा था। वापस लौटा तो भोजन को तैयार होने में आधे घंटे की देरी थी। अब यहाँ भोजन और रवानगी के सिवाय कुछ बचा न था।

मैं सुबह देखे स्नानघर की ओर चल दिया। वहाँ शौचादि से निवृत्त हो स्नान किया तो दिन भर की गर्मी का अहसास धुल गया। स्नान से विजया ने अपना असर दिखाना प्रारंभ कर दिया था, भूख सताने लगी थी। भोजन के स्थान पर पहुँच मंदिर के लिए भोग की पत्तल तैयार करवाई और नन्द जी के भाई को लेकर मंदिर भेजा। इधर महिलाओं को भोजन कराने को बैठाया। दूसरी पंगत में हम बैठे और तीसरी में बाकी लोग निपटे। उधर जीप आ चुकी थी। एक ही होने से लोगों को कई किस्तों में स्टेशन पहुँचाया। मैं अन्तिम किस्त में स्टेशन पहुँचा। हमें रेल का अधिक इंतजार नहीं करना पड़ा, कुछ ही देर में जोधपुर भोपाल गाड़ी आ गई और हम रात्रि को ग्यारह बजने तक अपने घर पहुँच गए।

इस यात्रा में एक कमी मुझे बहुत अखरी। मैं जब घर से निकला था तो मुझे विश्वास था कि इस आश्रम में मुझे कुछ तो आध्यात्मिक और दर्शन चर्चा का अवसर प्राप्त होगा। लेकिन वहाँ उस का बिलकुल अभाव था। अध्ययन-अध्यापन बिलकुल नदारद। उस के स्थान पर कोरी अंध-श्रद्धा का ही फैलाव वहाँ नजर आया। नगरीय वातावरण से दूर पर्वतीय वनांचल में स्थित ऐसे आश्रम में जिसे जन सहयोग भी प्राप्त हो, कम से कम संस्कृत और भारतीय दर्शन के अध्ययन का केन्द्र आसानी से विकसित किया जा सकता है। इसे किसी विश्वविद्यालय से मान्यता भी दिलाई जा सकती है। ज्ञान का वहाँ प्रवेश हो सकता है। लेकिन शायद वहाँ ऐसा कभी नहीं हो सकेगा। मुझे आश्रम के वर्तमान विकास का प्रेरणा स्रोत अंध-श्रद्धा में दिखाई दिया, और जहाँ ज्ञान का प्रकाश फैलता है वहाँ अंध-श्रद्धा का कोई स्थान नहीं होता।

बुधवार, 30 जुलाई 2008

एक रविवार, वन-आश्रम में (5) .... बाबा की कीर्ति

मैं -बाबा, समस्या तो नहीं कहूँगा, हाँ चिन्ताएँ जरूर हैं। बेटी पढ़-लिख गई है, नौकरी करती है। उस की शादी होना चाहिए, योग्य वर मिलना चाहिए।

बाबा -बेटी की आप फिक्र क्यों करते हैं। वह स्वयं सक्षम है, और आप की चिन्ता वह स्वयं ही दूर कर देगी। बाबा बोले।

मैं -समस्या ही यही है कि बेटी कहती है कि वर तलाशना पिता का कर्तव्य है उस का नहीं। फिर वह शुद्ध शाकाहारी, ब्राह्मण संस्कार वाला, उसे और उस के काम को समझने वाला वर चाहती है, और जहाँ तक मेरा अपना दायरा है, मुझे कोई उस की आकांक्षा जैसा दिखाई नहीं देता।

बाबा –हाँ, तब तो समस्या है। फिर भी आप चिंता न करें। वर्ष भर में सब हो लेगा। आप की चिंता दूर हो जाएगी। और बताएँ।

मैं –बेटे के अध्ययन का आखिरी साल है। वह चिंतित है कि उस का कैम्पस सैलेक्शन होगा या नहीं। नौकरी के लिए चक्कर तो नहीं लगाने पड़ जाएंगे?

बाबा -केंम्पस तो नहीं हो सकेगा। लेकिन प्रयत्न करेगा, तो उसे बिलकुल बैठा नहीं रहना पड़ेगा। वैसे, आप को दोनों ही संतानों की ओर से चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है।

मैं ने कहा –बाबा, एक नया मकान भी बनाना चाहता हूँ, अपने हिसाब का?

बाबा -आप की वह योजना दीपावली के बाद ही परवान चढेगी। ..... और कुछ?

मुझे बाबा थके-थके और विश्राम के आकांक्षी प्रतीत हुए। वे आराम चाहते थे। मैं भी वहाँ से खिसकना चाहता था। हम ने बाबा को नमस्कार किया और वहाँ से चल दिए। हमारे साथ के लोग भी सब चले आए। हम सीढ़ियों से नीचे उतर कर आए ही थे कि पीछे से किसी ने आ कर सीढ़ियों का दरवाजा अंदर से बन्द कर लिया। बाबा अब विश्राम कर रहे थे।

जो काम बाबा कर रहे थे, वह मैं अपने परिवार में हमेशा से होता देखता आया था। मेरे दादा खुद ज्योतिषी थे। वे जन्म पत्रिकाएँ बनाते थे। लोग उन के पास समस्याएँ ले कर आते थे, और वे परंपरागत ज्योतिष ज्ञान के आधार पर उन्हें सलाह देते थे, उन की चिन्ताएँ कम करते थे और उन्हें समस्याओं के हल के लिए कर्म के मार्ग पर प्रेरित करते थे। पिता जी खुद श्रेष्ठ अध्यापक थे। परंपरागत ज्योतिष ज्ञान उन्हों ने भी प्राप्त किया था। प्रधानाध्यापक के पद से सेवानिवृत्त होने पर वे नित्य दोपहर तक घर पर आने वाली लड़कियों को पढ़ाते थे, जिन में अधिकांश उन के अपने विद्यार्थियों की बेटियाँ होती थीं। अपरान्ह भोजन और विश्राम के उपरांत उन के पास उन के परिचित मिलने आते और तरह तरह की समस्याएँ ले कर आते। वे उन्हें ज्योतिष के आधार पर या अपने अनुभव व ज्ञान के आधार पर कर्म के लिए प्रेरित करते थे। जहाँ हो सकता था उन की सहायता भी करते। अधिकांश लोगों की समस्याएं हल हो जाती थीं। दादाजी और पिताजी को इस तरह लोगों की समस्याएँ हल करने में सुख मिलता था। दोनों ही अच्छे ज्योतिषी जाने जाते थे। लेकिन न तो दादा जी ने और न ही पिता जी ने ज्योतिष को अपने जीवन यापन का आधार बनाया था।

मेरे दादाजी, पिताजी और 'बाबा' में एक मूल अंतर था। दादाजी और पिताजी ने कभी इस बात का उपक्रम नहीं किया था कि कोई अतीन्द्रिय शक्ति है, जिस से वे लोगों का कल्याण कर रहे थे। लेकिन बाबा यह कर रहे थे। वे लोगों को अपने अनुभव और सामान्य अनुमान से सांत्वना देते थे। बाबा के उत्तरों में कुछ भी असाधारण नहीं था। वे केवल लोगों को उन की समस्याओं को निकट भविष्य में हल होने का विश्वास जगाते थे। असंभव हलों के होने से इन्कार कर देते थे। और संभव हलों को हासिल करने के लिए लोगों को प्रयत्न करने को प्रेरित करते थे। मेरे समक्ष तो ऐसी कोई बात सामने नहीं आई थी, लेकिन मुझे अनेक लोगों ने यह भी बताया था कि लोग समस्याओं के हल के लिए उपाय करने के लिए भी उन से पूछते थे और वे लोगों को उपाय भी बताते थे। इन उपायों में एक उपाय यह भी था कि भक्त यहाँ या कहीं भी हनुमान मंदिर की 11, 21, 51 परिक्रमा लगाना जैसे उपाय सम्मिलित थे। ये उपाय ऐसे थे जिन में समय तो खर्च होता था पर पैसा नहीं, और जो लोगों में, स्वयं में विश्वास जगाते थे तथा समस्या के हल के लिए कर्म करने को प्रेरित करते थे। अधिकांश लोग स्वयं के प्रयासों से ही समस्याओं का हल कर लेने में समर्थ होते थे। लोगों का बाबा में विश्वास उपज रहा था। कुछ जंगल में स्थित मंदिर में बैठे हनुमान जी का लोगों पर प्रभाव था। बाबा के भक्तों की संख्य़ा में निरंतर वृद्धि होती जा रही थी, उन में अतीन्द्रीय शक्तियाँ होने के विश्वासियों की संख्या लगातार बढ़ रही थी,  जो आश्रम और बाबा की कीर्ति और भौतिक समृद्धि का विस्तार कर रही थी।

सीढ़िय़ों से नीचे उतर कर घड़ी देखी तो चार बज चुके थे। मुझे कॉफी की याद आने लगी थी। चाय मैं सोलह वर्षों से नहीं पीता और कॉफी यहाँ उपलब्ध नहीं थी। सुबह रवाना होने की हड़बड़ी में मुझे कॉफी के पाउच साथ रखने का ध्यान नहीं रहा था। मैं ने बाहर दुकानों पर जा कर पता किया तो एक दुकान वाला रखता ही नहीं था। दूसरे ने कहा -उस के यहाँ खतम हो गई है। शायद वह अधिक होशियार था जो यह प्रदर्शित नहीं करना चाहता था वह कॉफी रखता ही नहीं। मैं दुकानदारों से आश्रम के बारे में बातें करने लगा। (अगले आलेख में समाप्य)

शुक्रवार, 25 जुलाई 2008

एक रविवार वन आश्रम में (4) .... बाबा से मुलाकात... और.............. दो दिन में तीसमार खाँ

करीब तीन बजे नन्द जी ने मेरी तंद्रा को भंग किया। वे कह रहे थे -बाबा से मिल आएँ।
बाबा? आजकल इस आश्रम के महन्त, नाम सत्यप्रकाश, आश्रम के आदि संस्थापक बंशीधर जी के पाँच पुत्रों में से एक। शेष पुत्र सरकारी नौकरियों में थे। इन्हों ने पिता की गद्दी को संभाला था।
नन्द जी यहाँ पहुँचते ही मुझे उन से मिलाना चाहते थे, लेकिन तब बाबा भोजन कर रहे थे और उस के बाद शायद आराम का समय था।  उन में मेरी रुचि उन्हें जानने भर को थी। लेकिन इस यात्रा में अनेक थे जो उन से इसलिए मिलना चाहते थे कि उन से कुछ अपने बारे में अच्छा या बुरा भविष्य जान सकें। नन्द जी को दो वर्ष पहले उन के गाँव का एक सीधा-सादा व्यक्ति जो उन के भाई साहब का मित्र था तब वहाँ ले कर आया था, जब उन के भाईसाहब जेल में बंद थे और मुकदमा चल रहा था। तब बाबा ने उन्हें कहा था कि भाईसाहब बरी हो जाएँगे। यह बात मैं ने भी नन्द जी को कही थी। उन्हें मेरे कौशल पर पूरा विश्वास भी था। इसीलिए उन्हों ने कोटा के नामी-गिरामी फौजदारी वकीलों का पल्ला नहीं पकड़ा, जब कि मेरे कारण उन्हें वे बिलकुल निःशुल्क उपलब्ध थे। पर किसी के कौशल पर विश्वास की तुलना पराशक्ति के बल पर भविष्य बताने का दावा करने वाले लोगों के विश्वास से कैसे की जा सकती है। हाँ, यह विश्वास मनोवैज्ञानिक रूप से लोगों में आत्मविश्वास जाग्रत रखता है और संघर्ष के लिए मनोबल प्रदान करता है। लेकिन? यह विश्वास प्रदान करने वाले "पहुँचे हुए लोग" उस की जो कीमत वसूलते हैं, वह समाज को गर्त की ओर भी धकेलती है।
नन्द जी के बाबा के बारे में बताए विवरणों से शोभा बहुत प्रभावित थी, और उन्हें बड़ा ज्योतिषी समझती थी। यही कारण था कि उस ने मेरी और बेटे-बेटी की जन्मपत्रियाँ बनखंडी रवाना होने के पहले अपने झोले में डाल ली थीं। लेकिन बाद में नन्द जी ने मना कर दिया कि वे ज्योतिषी नहीं हैं। वैसे ही सब कुछ बता देते हैं। तो जन्मपत्रियाँ झोले में ही बन्द रह गईं।
मैं ने तंद्रा और गर्मी से बेहाल अपने हुलिए को नल पर जा कर चेहरे पर पानी डाल तनिक सुधारा, और नन्द जी के पीछे हो लिया।  पीछे बनी सीढ़ियों से होते हुए बाबा के मकान के प्रथम तल पर पहुँचे। आधी छत पर निर्माण था, आधी खुली थी। जीना जहाँ समाप्त हो रहा था, वहीं एक दरवाजा था जो बाबा की बैठक में खुलता था।
कोई दस गुणा पन्द्रह फुट का कमरा था। एक और दीवान पर बाबा बनियान-धोती में अधलेटे थे, तीन-चार कुर्सियाँ थीं। जिन पर पुरुष बैठे थे, बाकी जगह में फर्श बिछा था और महिलाओं, बच्चों और कुछ पुरुषों ने कब्जा रखा था। दीवान के बगल की खुली अलमारी में कोई बीसेक पुस्तकें थीं, कुछेक को छोड़ सब की सब गीता प्रेस प्रकाशन। दीवारों पर कैलेंडर लटके थे। एक तस्वीर उन के महन्त पिता की लगी थी।
हमारे वहाँ पहुँचते ही बाबा ने 'आइये वकील साहब!' कह कर स्वागत किया। हमारा उन से अभिवादन का आदान प्रदान हुआ। हमारे बैठने के लिए कुर्सियाँ तुरंत खाली कर दीं। उन पर बैठे लोग बाबा को प्रणाम कर बाहर आ गए। हम बैठे तो नन्द जी ने मेरा परिचय उन्हें दिया। बाबा की पहले से चल रही वार्ता फिर चल पड़ी।
कोई पेंतीस वर्ष की महिला बहुत ही कातर स्वरों में बाबा से कह रही थी। बाबा इन का कुछ तो करो, इन का धंधा नहीं चल रहा है, कुछ काम भी नहीं मिल रहा है। ऐसे कैसे चलेगा? सारा घऱ ही बिक जाएगा हम सड़क पर आ जाएंगे।
बाबा बोल पड़े। ये व्यवसाय में सफल नहीं हो सकते। इन्हें काम तो कोई टेक्नीकल या खेती से सम्बन्धित ही करना पड़ेगा। मैं ने तो इन्हें प्रस्ताव दिया था कि ये आश्रम आ जाएँ। मैं एक ट्रेक्टर खरीद कर इन्हें दे देता हूँ, उसे चलाएँ आस पास के किसानों के खेत जोतें। आश्रम की जमीन की खेती संभालें। जो भी मुनाफा होगा आधा इन का आधा आश्रम का। पर ये इस प्रस्ताव को गंभीरता से ले ही नहीं रहे। आज तो ये यात्री बन कर आए हैं। मेरा प्रस्ताव मानें तो फिर इसी काम से आएँ मुझ से बात करें। मैं सारी योजना इन के सामने रखूंगा। इतना कह कर बाबा ने करवट सुधारी तो धोती में से उन का एक पैर उघड़ गया। महिलाओं के सामने वह अच्छा नहीं लग रहा था। लेकिन बाबा का शायद उधर ध्यान नहीं था। कोई उन को कुछ कहने की स्थिति में नहीं था। शायद कोई भी उन्हें लज्जा के भाव में देखना नहीं चाहता था। मैं लगातार उन की टांग को देखता रहा। शायद मैं ही वहाँ नया व्यक्ति था, इसलिए बाबा बीच बीच में मेरी और दृष्टि डाल ले रहे थे। दो-एक नजर के बाद उन्हों ने मुझे एकटक अपनी टांग की ओर देखता देख भाँप लिया कि टांग में कुछ गड़बड़ है। वाकई वहाँ गड़बड़ पा कर उसे ठीक भी कर लिया।
बाबा की सारी बातें किसी जमींदार द्वारा किसी कामगार को साझेदारी का प्रस्ताव रख, उस की आड़ में कम मजदूरी पर कामवाला रख लेने की तरकीब जैसी लग रही थीं। महिला होशियार थी। उसे यह तो पसंद था कि उसके पति के रोजगार का कुछ हल निकल आए, लेकिन यह मंजूर नहीं कि उस का पति नगर में बसे घर-बार को छोड़ यहाँ जंगल में काम करने आए और आश्रमवासी हो कर रह जाए। वह बोली -अब मैं क्या कर सकती हूँ? आप इन्हीं को समझाएँ। ये यहाँ आना ही नहीं चाहते। शहर में कोई व्यवस्था नहीं बैठ सकती इन के रोजगार की?
-शहर में भी बैठ सकती है, मगर समय लगेगा। किसी की मदद के बिना संभव नहीं हो सकेगा। यहाँ तो मैं मदद कर सकता हूँ। वहाँ तो मददगार इन को तलाशना पड़ेगा।
बाबा के उत्तर से कुछ देर शांति हुई थी कि नन्द जी की पत्नी बोल पड़ी -बाबा वे बून्दी वाले, उन के लड़के की शादी हमारी बेटी से करने को कह रहे हैं। यह होगा कि नहीं? मैं जानता था कि नन्द जी के पास एक बड़े व्यवसाय़ी परिवार से शादी का प्रस्ताव है। उस से नन्द जी का परिवार प्रसन्न भी है। उन की पत्नी बस भविष्य में बेटी-जमाँई के बीच के रिश्तों की सघनता का अनुमान बाबा से पूछना चाहती हैं।
बाबा कहने लगे -आप का परिवार और बच्ची सीधी है और वे तेज तर्रार। शादी तो हो जाएगी, निभ भी जाएगी। पर उस परिवार के व्यवसाय और सामाजिक व्यस्तता के बीच बच्ची बंधन बहुत महसूस करेगी और घुटन भी। यह रिश्ता सुखद तो रहेगा, लेकिन बहुत अधिक नहीं।
इस बीच शोभा भी आ कर महिलाओं के बीच बैठी मुझे इशारा कर रही थी कि मैं भी कुछ पूछूँ अपने व्यवसाय, आमदनी, बच्चों की पढ़ाई, नौकरी और विवाह के बारे में। नन्द जी ने भी कहा आप भी बात कर लो, भाई साहब। इतने में बाबा भी बोले पूछ ही लो वकील साहब, मैं भी आज भोजन करते ही यहाँ बैठ गया हूँ। फिर थोड़ा विश्राम करूँगा। मुझे समझ गया था कि कुछ पूछे बिना गुजर नहीं होगा। बाबा भी अधलेटी अवस्था को त्याग सतर्क हो कर बेठ गए थे। मैं भी इस अध्याय को शीघ्र समाप्त करना चाहता था। (जारी)


और अंत में ..... दो दिन में तीसमारखाँ!
अंतरजाल पथ पर फुरसतिया से हुई संक्षिप्त बातचीत का संक्षिप्त अंश.....

अनूप: नमस्ते
मैं: नमस्ते जी। कैसे हैं?
अनूप: आप देखिये आज ज्ञानजी ने अपने काम का खुलासा कर ही दिया
http://chitthacharcha.blogspot.com/
मैं: देखते हैं। वैसे वे मक्खियाँ मारने में सिद्धहस्त हैं।
अनूप: हां वही।
मैं: मैं वहीं कहना चाहता था। फिर सोचा, फिर आप क्या कहेंगे।
अनूप:उन्होंने बताया कि उन्होंने एक दिन में दफ़्तर में दस-पन्द्रह मक्खियां मारी, और उपलब्धि के एहसास से लबालब भर गये।
मैं:  दो दिन में तीसमार खाँ?
अनूप: हां, यह सही है, उनकी प्रगति बड़ी धीमी है। ऐसे कैसे चलेगा?
मैं:  कम से कम एक दिन के स्तर पर लानी पड़ेगी, प्रोडक्टिविटी का प्रश्न है।

गुरुवार, 24 जुलाई 2008

एक रविवार, वन-आश्रम में -3.......... मन्दिर में

पदपथ समाप्त होने पर कोई दस फुट की दूरी पर दीवार में साधारण सा द्वार था, बिना किवाड़ों के। उस में घुसते ही दीवार नजर आई जिस के दोनों सिरों पर रास्ता निकल रहा था। जीवन के बीस वर्ष मंदिर में गुजारने के अनुभव ने बता दिया कि तुम मंदिर की परिक्रमा में हो और परिक्रमा के पिछले द्वार से प्रवेश कर गए हो। दादा जी जिस मंदिर के पुजारी थे वहाँ भी हमारे प्रवेश का द्वार यही था। पीछे एक बाड़ा था और उस के पीछे घर। हम घर से निकलते और परिक्रमा वाले द्वार पर जूते चप्पल उतारते और मंदिर में प्रवेश करते थे। बिलकुल वही नजारा था मैं बायीँ ओर चला। तो सीधे मंदिर के गर्भगृह के सामने वाले हॉल में पहुँच गया। फर्श पर संगमरमर जड़ा था।

गर्भगृह के सामने की छह फुट चौड़ी मध्य पट्टिका के उस पार एक रेलिंग लगी थी जहाँ एक छोटे मंदिर में एक वृद्ध संत की साधारण वेशभूषा वाली मूर्ति थी। यही इस आश्रम के जन्मदाता की मूर्ति थी। यह रेलिंग हॉल को दो बागों में बांट रही थी। मूर्ति वाले हिस्से में उन से सट कर ही एक मंच पर अखंड रामायण पाठ चल रहा था। मैले कपड़े पहने नौजवान विलम्बित लय में रामचरितमानस का पाठ कर रहा था। सामने एक माइक था जिस से जुड़े लाउडस्पीकर के जरिए पाठ के स्वर आश्रम की सीमा के बाहर जंगल में भी गूँज रहे थे। मूर्ति वाले हिस्से के बाकी स्थान को रामायण पाठ करने वालों और मंदिर को सम्भालने वाले पुजारी के उठने बैठने, विश्राम करने के स्थान में परिवर्तित कर दिया गया था और अन्दर वाली परिक्रमा को बंद कर दिया गया था। जिस की पूर्ति बाहर वाला पदपथ कर रहा था।

मैं गर्भगृह की ओर झाँका, तो वहाँ लाल रंग का पर्दा लटका था, इस तरह की बीच से मूर्ति के दर्शन न हो सकें लेकिन पर्दे के दोनों ओर से झाँका जाए तो हनुमान जी की मूर्ति के दर्शन हो जाएं। साधारण सी मूर्ति और उस पर सिंदूर से चढ़ा चोला। सफेद चमकीली रंगीन पन्नियों से हनुमान जी के आकार को स्पष्ट कर दिया गया था। कोई विशेष सज्जा नहीं। गर्भगृह के बाहर एक जगह बिना आग का धूप दान जिस में सेरों भभूत (राख)। वही एक चौकी जिस पर श्रद्धालुओं द्वारा अर्पित माला, अगरबत्ती, प्रसाद और पूजा के सामानों की थैलियाँ रखी थीं। यह हनुमान जी के सोने का समय था। और यह सब उन्हें जागने पर अर्पित किया जा कर प्रसाद वापस लौटाना था। मेरा प्रसाद शोभा के पास बैग में था। मेरी घंटा बजाने की इच्छा हुई थी, लेकिन हनुमान जी को सोया देख उन्हें होने वाली परेशानी को देख पीछे हट गया। अपने आप को वहाँ अवांछित पा कर सामने के द्वार से बाहर आ गया।

मंदिर के सामने चौक था फर्श पर कच्ची मिट्टी पर उगी दूब भली लग रही थी। बाहर एक और लम्बे काष्ठ स्थम्भ पर हनुमान जी का लाल झंडा फहरा रहा था। चौक की दूसरी ओर भी एक मंदिर जैसा निर्माण था। जिस का द्वार भी साधारण बना था। पूछने पर जानकारी मिली कि वहाँ शिव मंदिर है। वहाँ से हमारी अस्थाई भोजनशाला दिखाई दे रही थी। पकौड़े तले जा चुके थे। उन्हें कागज की प्लेटों में रख कर वितरण की तैयारी थी। दूसरी मंदिर में स्थापित देवों के विश्राम में खलल उत्पन्न करने के स्थान पर जाग्रत अन्न देवता को तरजीह देना उचित समझ, उधर चल पड़ा। राह में ही हमारे कनिष्ट उपाध्याय जी और लिपिक दुर्गेश मिल गए। दुर्गेश ने सूचना दी, भाई साहब¡ यहाँ तो विजय भास्कर (95 प्रतिशत भंग मिश्रित स्वादिष्ट चूर्ण) भी उपलब्ध है, लाऊँ? मैं उसे कुछ कहता उस से पहले ही हमारे कनिष्ठ ने आदेश दिया- ले आ, पाँच-दस पुड़िया। पर यहाँ जंगल में, विजय भास्कर? दुर्गेश ने बताया कि बाहर दुकानदार रखता है छुपा कर मांगने पर दे देता है। राजस्थान में इस पर पाबंदी है पर पुलिसवालों ने ऐसे धार्मिक स्थानों पर अपने स्तर पर छूट दे रखी है, छिपा कर बेचने की। दुर्गेश गायब हो गया था। मैं भोजनशाला के नजदीक पहुँचा तो एक ने मुझे पकौड़े ला कर दिए, प्लेट में सॉस भी था। मैं वहीं पदपथ पर पैर लटका कर बैठ खाने लगा। समय देखा तो एक बज रहा था। मैं स्नान के बाद पाँच मिनट भूख बर्दाश्त न करने वाला करीब पाँच घंटों के संयम के उपरांत उन पर टूट पड़ रहा था। इस बीच दुर्गेश विजय-भास्कर के पाउच ले कर लौटा। कहने लगा। आधे पकौड़े निकल चुके हैं बाकी के घोल में डाल दूँ? उस की आँखों में शरारत थी। मैं ने उसे आँखें दिखाईं और सारे पाउच ले कर अपनी जेब के हवाले किए। उसे कहा कि किसी को जरूरत होगी तो मुझ से ले लेगा। पकौड़े खत्म होते तब तक और आ गए। सब ने जम कर छके। पेट पूजा होते ही सब को सफर की थकान सताने लगी। मैं भी स्थान देख रहा था जहाँ झपकी ली जा सके। उधर बाबा के मकान के पास एक पेड़ के नीचे सारी महिलाएँ बतिया रहीं थीं। इधर नन्द जी के गाँव से आया एक नौजवान लड़का छैला बना था, सभी उस की मजाक बना रहे थे। ट्रेन भर में उस के जोड़ की लड़की तलाश करते रहे। कभी इसे पसंद कराते, कभी उसे। इस काम में कुछ महिलाएँ भी पीछे नहीं थीं। मजे का विनोद चल रहा था। जीप में उसे किसी दूसरे यात्री दल की लड़कियों के बीच बिठा दिया गया था। जैसे तैसे अपने छैलेपन की सजा भुगतते उस ने आश्रम तक का सफर किया था। अब दूसरे दल की दूर खाना बनाने में व्यस्त उन्हीं दो लड़कियों को इंगित कर उसे कहा जा रहा था कि वह जा कर उन की मदद करे, तो उन में से एक जरूर उसे पसंद कर लेगी।

पकौड़े पेट में जाते ही दो प्रतिक्रियाएं हुईं। दोनों दिमाग में। एक तो सुस्ती छाई, नीन्द सी आने लगी। दूसरे सुबह ठीक से शौच न होने का तनाव कि किसी भी वक्त जाने की जरूरत पड़ सकती थी। मैं पूछताछ करने लगा कि यहाँ जंगल में पानी कहाँ और कितनी दूर होगा? कोई भी ठीक से नहीं बता सका। फिर एक ने बताया कि आप को शौचादि की जरूरत हो तो आश्रम के पश्चिम में नीचे, गौशाला की बगल शौचालय और स्नानघर बने हैं। मैं ने तुरंत उन का निरीक्षण किया। वे अच्छे और साफ थे। एक शौचालय में एंग्लो इंडियन कमोड भी लगा था। दो स्नानघर थे। साफ और पानी की निरंतर व्यवस्था। उन्हें देख कर मुझे बहुत राहत मिली। उस समय उन की जरूरत नहीं थी मैं वापस लौटा तो। पेड़ के नीचे दरी बिछा कर बैठी महिलाएँ मन्दिर जा चुकीं थीं। दरी पर बहुत स्थान रिक्त था। मैं वहीं लमलेट हो गया। हवा नहीं थी। ऊमस बहुत थी। बादल बहुत कम और हलके थे। विपरीत परिस्थितियों में भी दिमाग के भारी पन से मुझे झपकी लग गई। (जारी)

कुछ पाठकों ने तस्वीरें चाहीं हैं। मेरे पास कैमरा नहीं था, मोबाइल में भी नहीं। एक अन्य मोबाइल से तस्वीरें ली गईं थी। पर वह जिन सज्जन का था। उन के साथ चला गया। वह उपलब्ध हो सका तो तस्वीरें भी दिखेंगी। लेकिन मैं ने तस्वीरों की कमी अपने शब्दों से करने की कोशिश की है। आप ही बताएँगे कि कितनी सफलता मुझे मिल सकी है?

बुधवार, 23 जुलाई 2008

एक रविवार, वन-आश्रम में -2

आश्रम द्वार बहुत बड़ा था, इतना कि ट्रक आसानी से अंदर चला जाए। द्वार पर लोहे के मजबूत फाटक थे। द्वार के बाहर बायीँ और दो छप्पर थे। जिन में पत्थर के कातलों की बैंचें बनी थीं और चाय बनाने और कुछ जरूरी सामानों की दुकानें थीं। दायीँ ओर खुली जगह थी जहाँ आश्रम तक आने वाले वाहन खड़े थे। द्वार के बाहर एक सूचना चस्पा थी " अपने वाहन गेट के बाहर ही खड़े करें। द्वार के अन्दर घुसते ही एक चौक था, जिस में द्वार पर चस्पा सूचना को धता बताती एक जीप खड़ी थी। सामने ही एक इमारत थी। बाद में पता लगा वह आश्रम की भोजन शाला थी। दायीं ओर नीचे सीढ़ियाँ थीं और नीचे कुछ इमारतें बनी हुई थी। बगल में एक कच्ची गौशाला जैसी थी।
बायीं और एक और चौक था जिस में कुछ दुकानें जैसी बनी थीं। बाद में पता लगा उन में से एक बरतन स्टोर था जहाँ से हम ने खाना बनाने के लिए बरतन वगैरा किराए पर प्राप्त किए। एक में आश्रम का कार्यालय था। जिस में साधु वेषधारी दो लिपिक हिसाब-किताब कर रहे थे। कुछ दरी-पट्टियाँ रखी थीं। कार्यालय के बाहर एक सूचना लिखी थी, कि सुबह व शाम के भोजन के लिए निश्चित समय के पूर्व कूपन प्राप्त कर लें। पूछने पर पता लगा कि यात्रियों के कूपन प्राप्त कर लेने से भोजन शाला को पता लग जाता है कि कितने व्यक्तियों का भोजन तैयार करना है।
दुकानों के सामने भोजनशाला से कुछ दूरी पर ही एक बड़ा सा कुआँ था। जिस में गहरी बोरिंग थी और बिजली की मोटर लगी थी। अर्थात आश्रम में बिजली थी। दुकानों से सटा हुआ एक दुमंजिला मकान था। जिस में पीछे की ओर मकान में ऊपर जाने सीढ़ियाँ बनी थीं। इस मकान में बाबा का निवास था। बाबा यानी आश्रम के अधिष्ठाता महन्त। मकान और कुएँ के मध्य एक विशाल और स्वस्थ पीपल का वृक्ष था, जिस के नीचे एक नयी नवेली बिना नंबर की कार खड़ी थी। कार किसी धनिक ने खरीदी थी और पूजा कराने के लिए आश्रम ले कर आया था। अंदर खड़ी जीप आश्रम की ही थी।
पीपल का पेड़ अब तक दृष्टिगोचर हुई तमाम वस्तुओं में एक मात्र आकर्षण था। अपने पूरे व्यास में उस की शाखाएं इस तरह फैली हुई थीं कि कोई भी चार फुटा व्यक्ति बिना श्रम किए हाथ ऊंचे कर उस के पत्तों को छू सकता था। पीपल के पेड़ के बाद एक चार फुट चौड़ा पदपथ नजर आ रहा था। जो अब तक दिखाई दिए निर्माणों की सीमा था। यह पदपथ लगभग डेढ़ सौ फुट लम्बा था जिस के दोनों सिरों से 90 डिग्री मुड़ कर दो भुजाएँ निकल कर आगे दूर तक चली गई थीं। ये भुजाएँ भी चार फुट चौड़ी दीवारों पर थीं पदपथ वहाँ भी था। कोई पांच सौ फुट आगे जाने पर। दोनों भुजाएं फिर आपस में मिल गई थीं। इस तरह यह पदपथ एक आयत बनाता था। सारे जूते-चप्पल इस पदपथ की सीमा के पहले ही खुले हुए थे। इस आयत के अंदर दो मंदिर नजर आ रहे थे एक उस ओर, और एक इस और।
मैं ने सब से पहले कुएँ पर लगे नल पर अपनी प्यास बुझाई। बाद में देखा तो भोजन शाला और कुएँ के मध्य एक और इमारत थी जो अंदर दूर तक चली गयी थी। दूर वाला आधा हिस्सा अभी निर्माणाधीन था। जानकारी मिली कि ये अतिथि शालाएं थीं। एक पुरानी और एक निर्माणाधीन। इन का निर्माण किन्हीं धनिकों ने करवाया था। निर्मित अतिथिशाला की छत पर एक सिन्टेक्स की काली टंकी रखी थी, जिस से नलों में पानी आ रहा था।
मैं जूते पहने-पहने ही पदपथ पर चल पड़ा। पदपथ पर सीमेंट की बनी टाइलें जड़ी थीं। बायीं भुजा पर लगभग तिहाई से आगे पदपथ के बायीँ और ही नीचे कच्ची भूमि पर एक पेड़ की छाया में भोजन बनाने की सामग्री सजा कर रख दी गई थी, जिस से जरूरत पड़ने पर उचित सामग्री तक तुरंत पहुँचा जा सके। यह सजावट भोजन-पंडित का काम था। सहूलियत भी उसी को होनी थी। वह कंड़ों का जगरा लगा चुका था। एक और पत्थरों का चूल्हा था, जिस में उपले सुलग रहे थे, ब्रेड़ पैकेट खोल कर परात में रख ली गईं थीं, भोजन-पंडित एक भगोने में बेसन में मसाला मिला कर घोल बनाने में व्यस्त था। मैं समझ गया, कुछ देर में गर्मागरम ब्रेड-पकौड़े मिलने वाले हैं। हमारे साथ आए कुछ लोग पंडित की मदद कर रहे थे। मेरे लिपिक दुर्गेश के पिता राष्ट्रीयःउच्च-मार्ग पर ढाबा चलाते हैं, ढाबे में ही वह बड़ा हुआ। अपना कौशल दिखाने के मकसद से वह तुरंत पंडित की मदद को पहुँच गया।
मैं पदपथ पर ही बाहर की ओर, जिधर हमारी अस्थाई भोजन शाला सजी थी, पैर लटका कर बैठ गया। हमारी अस्थाई भोजन शाला से कुछ ही आगे पत्थर की दीवारों पर चद्दरों के छप्पर डाल कर दो-तीन कमरों का आवास बनाया हुआ था। पूछने पर पता लगा कि यहाँ आश्रम के साधु निवास करते हैं। पकौडे. तले जाने में अभी देर थी। मैं ने तब तक मन्दिर देखना उचित समझा। मैं जूते पहने-पहने ही वापस पीपल के पेड़ की और पदपथ पर चल पड़ा। सामने से एक साधु आ रहा था। साधारण मैली सी धोती और कपड़े की बनियान पहने, नंगे पैर ही चल रहा था। गले में रुद्राक्ष और तुलसी मालाएँ थीं। दाढ़ी और बाल बढ़े हुए। माथे पर चंदन का टीका लगा था। पास आने पर उसने मुझे जूते पहन कर पदपथ पर चलने से रोका। मेरे माथे पर प्रश्नवाचक पढ़ कर बताने लगा कि यह पदपथ मंदिरों की परिक्रमा है। इस पर जूते क्यों लाए जाएँ? मैं ने अपनी अनभिज्ञता जताते हुए क्षमा मांगी और जूते पदपथ की सीमा के बाहर खोल। मंदिर की और बढ़ चला।

सोमवार, 21 जुलाई 2008

एक रविवार, वन-आश्रम में

कल रविवार था। रविवार? सब के लिए अवकाश का दिन, लेकिन मेरे लिए सब से अधिक काम का दिन। उसी दिन तो मेरे सेवार्थियों (मुवक्किलों) को अवकाश होता है और वे मुझसे सम्पर्क कर सकते हैं। लेकिन कल का रविवार हम ने कोटा के बाहर बिताया।
मेरे सहयोगी वकील नन्दलाल शर्मा, जिन्हें हम संक्षेप में नन्दजी कहते हैं, लम्बे समय से वनखंडी आश्रम जाने को कह रहे थे। वजह थी कि उन के बड़े भाई एक गंभीर अपराधिक मुकदमे में फँसाए गए थे और उस में जमानत भी नहीं हुई थी। नन्द जी ने संकल्प किया था कि यदि उन के भाई मुकदमे में बरी हो गए तो वे वनखंडी आश्रम में हनुमान जी को भोग लगायेंगे। उन्हें संकल्प पूरा करना था। मुकदमे में मैं ने पैरवी की थी। इस कारण वे मुझे भी वहाँ ले जाना चाहते थे। मेरे कारण ही वे तारीखें आगे बढ़ाते रहे। शुक्रवार को उन्हों ने पूछा -भाई साहब, इस रविवार को वनखंडी चलें? तो व्यस्तता होते हुए भी मैं ने चलने को हाँ कर दी।
वहाँ कारें नहीं जा सकती थीं। वैसे भी कोटा-सवाईमाधोपुर सड़क मार्ग को चौड़ा किए जाने का काम चल रहा होने के कारण परेशानी थी। तो हम ने कोटा से रेल द्वारा रवाँजना डूँगर स्टेशन, और वहाँ से जीपों से वनखंडी तक का 5 किलोमीटर की यात्रा जीप से करने का तय किया। कोई तेजगति गाड़ी रवाँजना रुकती नहीं, इस कारण से सुबह 7 बजे रवाना होने वाली कोटा-जमुना ब्रिज पैसेंजर से ही जाना था। रात काम करते हुए 1 बज गए थे। सुबह अलार्म 4 बजे का लगाया गया। अलार्म ने शोभा (मेरी पत्नी) को तो जागने में मदद की लेकिन मुझ पर उस का कोई असर नहीं हुआ। मुझे शोभा ने सुबह साढ़े पाँच पर जगाया। देर हो चुकी थी। मैं झटपट तैयार हुआ तो मेरे एक अन्य सहयोगी और क्लर्क भी आ गए। हम चारों अपनी गाड़ी में लद कर नन्द जी के घर से कुछ सामान लादते हुए समय पर स्टेशन पहुँचे। गाड़ी रवाना होने में अभी भी 15 मिनट थे। हम ने चैन की साँस ली। गाड़ी ने पूरे पौन घंटे देरी से स्टेशन त्यागा। हम एक साथ जाने वालों की संख्या 30 हो गई थी। ऐसा लग रहा था जैसे वर्षाकाल के वन विहार पर जा रहे हों।
बहुत दिनों में पैसेन्जर का सफर किया था। अनेक प्रकार के स्थानीय निवासियों से गाड़ी भरी थी और हर स्टेशन पर रुकती, सवारियाँ उतारती-चढ़ाती चल रही थी। गाड़ी में जहाँ मुझे बैठने को स्थान मिला वहाँ सब महिलाएँ थीं। उन में एक थीं लगभग साठ की उम्र की नन्द जी की विधवा जीजीबाई (बहिन)। वे बातें करने लगीं। कुछ देर बाद ही पता लग गया कि वे पक्की स्त्री समर्थक थीं। वे अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थीं। सारा जीवन एक घरेलू महिला की तरह बिताया। उन के अध्ययन और जानकारियों का प्रमुख स्रोत उन के द्वारा बहुत से कथावाचकों से सुनी धार्मिक कथाएँ और उन के बीच-बीच सुनाए जाने वाली दृष्टान्त कथाएं थीं। काफी सारा धार्मिक साहित्य उन का पढ़ा हुआ था। वे लगातार बात करती रहीं। उन के स्वरों में जरा भी आक्रामकता नहीं थी, लेकिन वे एक-एक कर समाज की पुरुष प्रधानता पर आक्रमण करती रहीं। उन्हें इस का अवसर हमारे साथ ही जा रहे नन्द जी के बच्चों के ट्यूशन-शिक्षक के कारण मिल गया, जिन का अपनी पत्नी से विगत सात-आठ वर्षों से विवाद चल रहा था। उन की पत्नी उन के साथ आ कर रहने को तैयार नहीं थी। वे लगातार इस बात पर जोर देती रहीँ कि भाई अपनी पत्नी को मना कर ले आओ, उसी में जीवन का सार है। गन्तव्य स्टेशन तक का सफर उन्हीं की बातों में कब कट गया पता ही न चला।
इस बीच उस पण्डित की तलाश हुई जिस ने हमारा भोजन बनाना था। भोजन, यानी कत्त-बाफले। पण्डित कोटा स्टेशन तक तो आ चुका था। लेकिन ट्रेन पर चढ़ पाया था, या नहीं इस का पता नहीं चल रहा था। सोचा, चढ़ लिया होगा तो अवश्य ही उतरने वाले स्टेशन पर मिल जाएगा। नहीं मिला तो? लेकिन नन्द जी आश्वस्त थे।
गाड़ी पैसेंजर थी, लेट चली थी, तो किसी भी तेजगति गाड़ी या मालगाड़ी को निकालने के लिए उसे खड़ा कर दिया जाता। नतीजा सवा नौ के स्थान पर ग्यारह बजे स्टेशन पर उतरे। गाड़ी चली गई। हम ने भोजन-पंड़ित को तलाश किया तो वह नदारद था। खैर, तय हुआ कि वनखंडी में ही किसी की तलाश कर ली जाएगी या फिर खुद हाथों से बनाएंगे। स्टेशन के बाहर दो ही जीपें उपलब्ध थीं। पता लगासवारियों को पहुँचाने के लिए फेरे करेंगी। हम सब से पीछे वाले फेरे के लिए रुक गए। जीपें जब दूसरा फेरा कर रही थीं तब फोन आया कि पंडित किसी एक्सप्रेस ट्रेन को पकड़ कर सवाई माधोपुर पहुँच गया था, वहाँ से बस पकड़ कर पास के बस स्टेंड पहुँच गया है और वहां से वनखंड़ी की ओर रवाना हो चुका है। हमारी भोजन बनाने की चिन्ता दूर हो चुकी थी।
जीप के तीसरे और आखिरी फेरे ने हमें स्टेशन से मात्र पांच किलोमीटर दूर आश्रम तक पहुंचाया। बीच में केवल एक छोटा गाँव था। उसी गांव से कोई डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर आश्रम दो स्टेशनों के मध्य रेलवे लाइन से कोई पौन किलोमीटर दूर स्थित था। दो ओर खेत थे, तीसरी ओर जंगल और चौथी तरफ एक कम ऊंचा पहाड़ी श्रंखला। आदर्श स्थान था। मेरे मन में आश्रम की जो काल्पनिक छवि बनी थी उस के मुताबिक एक बड़े से घेरे में कुटियाएँ बनी होंगी, मन्दिर होगा, आश्रम में छोटा ही सही पर विद्यालय चलता होगा, जिस में संस्कृत अध्ययन होता होगा। निकट ही कहीं जल स्रोत के लिए कोई झरना होगा, जहाँ से निर्मल जलधारा निकल बह रही होगी। आश्रमवासी कुछ खेती कर रहे होंगे। लोग वहाँ आध्यात्म सीखने और अभ्यास करने जाते होंगे। आश्रम के महन्त अवश्य ही कोई ज्ञानी पुरुष होंगे, आदि आदि। लेकिन जैसे ही जीप से उतरे आश्रम का द्वार दिखाई पड़ा और उस के पीछे पक्के निर्माण देखते ही मन में निर्मित हो रहा काल्पनिक आश्रम तिरोहित हो गया। (जारी)