@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: ब्लागीर
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शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

यात्रा के पहले काम का एक दिन

सुबह शेव बना कर दफ्तर में आ बैठा था। सुबह से कोहरा और बादल थे तो रोशनी की कमी ने दुपहर चढ़ने का अहसास ही समाप्त कर दिया। काम और आगंतुकों में ऐसा फँसा कि 12 बजे के पहले उठ नहीं सका। आगंतुकों के उठते ही ने उलाहना दिया -आज नहीं नहाना क्या?  मैं तुरंत उठ कर अंदर गया तो देखा भोजन तैयार है। पर स्नान बिना तो भूख दरवाजे के बाहर खड़ी रहती है। शोभा ठहरी शिव-भक्त दो दिन की उपवासी। मैं तुरंत स्नानघर में घुस लिया। बाहर निकला तब तक उपवासी उपवास खोल चुकी थी। 
आज शाम जोधपुर निकलना है। सोमवार की सुबह ही वापस लौटूंगा। उस दिन का अदालत के काम की आज ही तैयारी जरूरी थी, तो भोजन के बाद भी बैठना पड़ा। एक बजे फिर मकान का मौका देखने के लिए एक सेवार्थी का संदेश आया। थका होने से उसे तीन बजे आने को कहा और मैं काम निपटा कर कुछ देर विश्राम के लिए रजाईशरणम् हुआ।
ह साढ़े तीन बजे आया। कोहरा छंट चुका था, धूप निकल आई थी। लेकिन हवा में नमी और ठंडक मौजूद थी। फरवरी के मध्य़ में बरसों बाद ऐसा सुहाना मौसम दीख पड़ा। सेवार्थी का घर नदी पार था। चंबल बैराज पर बांध के सहारे बने पुल पर हो कर गुजरना पडा। बांध के पास बहुत लोग प्रकृति और बांध की विपुल जलराशि का नजारा लेने एकत्र थे और कबूतरों को दाना डाल रहे थे। सैंकड़ों कबूतर दाने चुग रहे थे। सैंकड़ों इंतजार में थे। मौका देख कर वापस लौटा तो फिर से काम निपटाने बैठ गया। प्रिंट निकालते समय लगा कि  इंक-जेट कार्ट्रिज में स्याही रीतने वाली है। तुरंत उसे भरने की व्यवस्था की गई। सूख जाने पर कार्ट्रिज खराब होने का अंदेशा जो रहता है। सिरींज में स्याही जमी थी। शोभा ने प्रस्ताव किया कि सिरींज वह ला देगी। वह चार रुपए की नई कुछ बड़ी सिरिंज तीन मिनट में केमिस्ट से ले आई। हमने स्याही भर कर दुबारा प्रिंट निकाल कर देखा ठीक आ रहा था। काम की जाँच की। अब सोमवार को सुबह कोटा पहुँचने पर अदालती काम ठीक से करने लायक स्थिति है और दफ्तर से उठ रहा हूँ।
ल जोधपुर में काम से निपटते ही हरि शर्मा जी को फोन करना है। उन्हों ने वहाँ एक छोटा ब्लागर मिलन रखा है। तीसरे पहर तक उस से निपट कर कुछ और लोगों से मिलना हो सकेगा। देखते हैं जोधपुर की इस यात्रा में क्या नया मिलता है? कल ब्लागीरी से अवकाश रहेगा।

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

उन्हें अकेला खाने की आदत नहीं है

पिछले छह दिन यात्रा पर रहा। कोई दिन ऐसा नहीं रहा जिस दिन सफर नहीं किया हो। इस बीच जोधपुर में हरिशर्मा जी से मुलाकात हुई। जिस का उल्लेख पिछली संक्षिप्त पोस्ट में मैं ने किया था। रविवार सुबह कोटा पहुँचा था। दिन भर काम निपटाने में व्यस्त रहा। रात्रि को फरीदाबाद के लिए रवाना हुआ, शोभा साथ थी। सुबह उसे बेटी के यहाँ छोड़ कर स्नानादि निवृत्त हो कर अल्पाहार लिया और दिल्ली के लिए निकल लिया वहाँ। राज भाटिया जी से मिलना था। इस के लिए मुझे पीरागढ़ी चौक पहुँचना था। मैं आईएसबीटी पंहुचा और वहाँ से बहादुर गढ़ की बस पकड़ी। बस क्या थी सौ मीटर भी मुश्किल से बिना ब्रेक लगाए नहीं चल पा रही थी। यह तो हाल तब था जब कि वह रिंग रोड़ पर थी। गंतव्य तक पहुँचने में दो बज गए। भाटिया जी अपने मित्र के साथ वहाँ मेरी प्रतीक्षा में थे। मैं उन्हें देख पाता उस से पहले उन्हों ने मुझे पहचान लिया और नजदीक आ कर मुझे बाहों में भर लिया। 
म बिना कोई देरी के रोहतक के लिए रवाना हो गए। करीब चार बजे हम रोहतक पहुँचे। वहाँ आशियाना (रात्रि विश्राम के लिए होटल) तलाशने में दो घंटे लग गए। होटल मिला तब तक शाम ढल चुकी थी। हम दोनों ही थके हुए थे। दोनों ने कुछ देर विश्राम किया। कुछ काम की बातें की जिस के लिए हमारा रोहतक में मिलना तय हुआ था। विश्राम के दौरान भी दोनों बहुत देर तक बातें करते रहे। भाटिया जी अपने जर्मनी के जीवन के बारे में बताते रहे। फिर भोजन की तलाश आरंभ हुई। आखिर एक रेस्तराँ में दोनों ने भोजन किया और फिर रात को वे ले गए उस मोहल्ले में जहाँ उन का बचपन बीता था। वे अपने बचपन के बारे में बताते रहे। हम वापस आशियाने पर पहुँचे तो थके हुए थे। फिर भी बहुत देर तक बातें करते रहे। बीच-बीच में दिल्ली और आसपास के बहुत ब्लागरों के फोन भाटिया जी के पास आते रहे। कुछ से मैं ने भी बात की। फिर सो लिए। दूसरे दिन हम सुबह ही काम में जुट लिए। पैदल और रिक्शे से इधर उधऱ दौड़ते रहे। दोपहर बाद कुछ समय निकाल कर भाटिया जी ने भोजन किया। मैं उस दिन एकाहारी होने से उन का साथ नहीं दे सका तो उन्हों ने अपने साथ भोजन करने के लिए। किसी को फोन कर के बुलाया। 
मुझे उसी दिन लौटना था। जितना काम हो सका किया। भाटिया जी के कुछ संबंधियों से भी भेंट हुई। मुझे उसी रात वापस लौटना था। फिर भी जितना काम हो सकता था हमने निपटाया और शेष काम भाटिया जी को समझा दिया। रात को दस बजे भाटिया जी मुझे बस स्टॉप पर छोड़ने आए। आईएसबीटी जाने वाली एक बस में मैं चढ़ लिया। कंडक्टर का कहना था कि रात बारह बजे तक हम आईएसबीटी पहुँच लेंगे। लेकिन पीरागढ़ी के नजदीक ही चालक ने बस को दिल्ली के अंदर के शॉर्टकट पर मोड़ लिया। रास्ते में अनेक स्थानों पर लगा कि जाम में फँस जाएंगे। लेकिन बस निर्धारित समय से आधे घंटे पहले ही आईएसबीटी पहुँच गई। मेरे फरीदाबाद के लिए साधन पूछने पर चार लोगों ने बताया कि मैं सड़क पार कर के खड़ा हो जाऊँ कोई न कोई बस मिल जाएगी। वहाँ आधे घंटे तक सड़क पर तेज गति से दौड़ते वाहनों को निहारते रहने के बाद एक बस मिली जिस का पिछला दो तिहाई भाग गुडस् के लिए बंद था। उस के आगे के हिस्से में कोई बीस आदमी चढ़ लिए। बस पलवल तक जाने वाली थी। मैं ने शुक्र किया कि मुझे यह बस बेटी के घर से मात्र एक किलोमीटर की दूरी पर उतार सकती थी। एक घंटे बस में खड़े-खड़े सफर करने और एक किलोमीटर तेज चाल से पैदल चलने के बाद में सवा बजे बेटी के घऱ था। बावजूद इस के कि सर्दी भी थी और ठंड़ी हवा भी तेज चलने के कारण मैं पसीने में नहा गया था। 
दूसरे दिन दोपहर मैं पत्नी के साथ कोटा के लिए रवाना हुआ और रात नौ बजे के पहले घर पहुँच गया। आज अपनी वकालत को संभाला। दोपहर बाद भाटिया जी से फोन पर बात हुई। बता रहे थे कि कल वे दिन भर भोजन भी नहीं कर सके। पूछने पर बताया कि कोई खाने पर उन का साथ देने वाला नहीं था और उन्हें अकेला खाने की आदत नहीं है।

रविवार, 31 जनवरी 2010

हरि शर्मा जी से एक मुलाकात

क दिन की जोधपुर यात्रा से आज सुबह लौटा हूँ और अब फिर से सामान तैयार हैं शोभा सहित रवाना हो रहा हूँ, फरीदाबाद के लिए। उसे बेटी के पास छोड़ मैं निकल लूंगा दिल्ली। वहाँ राज भाटिया जी से भेंट होना निश्चित है। और किस किस के साथ भेंट हो सकेगी यह तो यह तो वहाँ की परिस्थितियों पर ही निर्भर करेगा।
क दिन की यह जोधपुर यात्रा बार कौंसिल राजस्थान की अनुशासनिक समिति की बैठक के सिलसिले में हुई। इस के अलावा मुझे एक दावत में भी शिरकत करने का अवसर मिला जिस में कानूनी क्षेत्र के बहुत से लोग सम्मिलित थे। लेकिन उस का उल्लेख फिर कभी। 
कोटा से निकलने के पहले जोधपुर के ब्लागर श्री हरि शर्मा का मेल मिला था। मेरे पास समय था। मैं ने काम से निपटते ही उन्हे फोन किया तो पता लगा कि रात को एक दुर्घटना में उन्हें चोट पहुँची है और कार को भी हानि हुई है। उन के सर में एक टांका भी लगा है। पूछने पर पता लगा कि वे अपनी ड्यूटी पर बैंक में उपस्थित हैं। उन का बैंक नजदीक ही था मैं पैदल ही उन से मिलने चल दिया। रास्ते में अटका तो वे खुद लेने आ गए। हरि शर्मा जी के साथ करीब एक घंटा बिताया। वे बात करते हुए भी लगातार अपना बैंक का काम निपटाते रहे। उसी बीच अविनाश वाचस्पति जी से भी बात हुई। हरि शर्मा जी से मिल कर अच्छा लगा।  मैं ने उन्हें बताया कि मुझे तो अब जोधपुर निरंतर आना पड़ेगा। तो कहने लगे कि अब की बार जब भी समय होगा कोई ऐसा कार्यक्रम बना लेंगे जिस से अधिक ब्लागीर एक साथ मिल सकें। हम ब्लागीरों को इस काम में अपना समय लगाने को व्यर्थ समझने वाले लोगों के लिए आभासी संबंधों वाले लोगों को वास्तविकता के धरातल पर एक साथ देखना एक विचित्र अनुभव हो सकता है।

शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

हिन्दी ब्लागीरी बिना पढ़े और पढ़े हुए पर प्रतिक्रिया किए बिना कुछ नहीं


निवार को अविनाश वाचस्पति कह रहे थे कि रविवार को अवकाश मनाया जाए। कंप्यूटर व्रत रखें, उसे न छुएँ। मोबाइल भी बंद रखें। लेकिन रविवार को उन की खुद की पोस्ट पढ़ने को मिल गई। हो सकता है उन्हों ने अवकाश रखा और पोस्ट को शिड्यूल कर दिया हो। लेकिन कभी कभी ऐसा होता है कि अवकाश लेना पड़ता है। कल शाम अदालत से घर लौटा तो ब्रॉड बैंड चालू था। कुछ ब्लाग पढ़े भी। लेकिन फिर गायब हो गया और वह भी ऐसा कि रात डेढ़ बजे तक नदारद रहा। मुझे कुछ अत्यावश्यक जानकारियाँ नेट से लेनी थीं। काम छोड़ना पड़ा। सुबह उठ कर देखा तब भी नदारद थ, लेकिन कुछ देर बाद अचानक चालू हो गया। मैं ने पहले जरूरी काम निपटाया तब तक अदालत जाने का समय हो गया। हो गया न एक दिन का अवकाश। यही कारण था कि कल ब्लागजगत से मैं भी  नदारद रहा। आज शाम ब्रॉडबैंड चालू मिला। अपने पास एकत्र कानूनी सलाह के सवालों में से एक का उत्तर दिया। फिर कुछ काम आ गया तो वहाँ जाना पड़ा। लौट कर पहले अपने काम को संभाला। अब कुछ फुरसत हुई तो ब्लाग मोर्चा संभाला है।
ह तो थी जबरिया छुट्टी। लेकिन 'दुनिया में और भी मर्ज हैं इश्क के सिवा'। हो सकता है आज की यह पोस्ट अनवरत पर इस माह की आखिरी पोस्ट हो। कल शाम जोधपुर के लिए निकलना है। वहाँ बार कौंसिल की अनुशासनिक समिति की बैठक है जिस में किसी वकील की शिकायत पर सुनवाई करनी होगी। मुझे इस समिति का सदस्य चुना गया है। समिति में चेयरमेन सहित तीन सदस्य हैं। तीनों को सुनवाई के उपरांत निर्णय करना होगा। यदि वकील साहब दोषी पाए गए तो उन्हें दंड भी सुनाना होगा। यह सब एक ही सुनवाई में नहीं होगा। कुछ बैठकें हो सकती हैं। अब हर माह कम से कम एक दिन यह काम भी करना होगा। तो माह में कम से कम दो दिन का अवकाश तो इस काम के लिए स्थाई रूप से हो गया। यह हो सकता है कि उस दिन के लिए पोस्ट पहले से शिड्यूल कर दी जाएँ।  
मैं लौटूंगा 31 जनवरी को। लेकिन उसी दिन दिल्ली जाना होगा। वहाँ जर्मनी से आ रहे ब्लागर राज भाटिया जी से मुलाकात होगी। मैं तीन फरवरी को लौटूँगा। लेकिन आते ही एक पारिवारिक विवाह में व्यस्त होना पड़ेगा। जिस से पाँच फरवरी की देर रात को ही मुक्ति मिलेगी। इतनी व्यस्तता के बाद इतने दिनों के वकालत के काम को संभालना भी होगा। अब आप समझ गए होंगे कि अपनी तो ब्लागीरी से लगभग सप्ताह भर की वाट लगने जा रही है।  इस बीच यदि समय और साधन मिले तो ब्लागीरी के मंच पर किसी पोस्ट के माध्यम से मुलाकात हो जाएगी। लेकिन इस बीच ब्लाग पढ़ना और अपने स्वभाव के अनुसार टिप्पणियाँ करने का शायद ही वक्त मिले। इस का मुझे अफसोस रहेगा। हिन्दी ब्लागीरी बिना पढ़े और पढ़े हुए पर प्रतिक्रिया किए बिना कुछ नहीं है। यही शायद उस के प्राण भी हैं। यही बिंदु हिन्दी ब्लागीरी को अन्य किसी भी भाषा की ब्लागीरी से अलग भी करता है। 

शुक्रवार, 27 नवंबर 2009

रात की बारिश और फरीदाबाद से दिल्ली का सफर


रात सोने के पहले तारीख बदल चुकी थी। सर्दी के लिहाज से हलका कंबल  लिया था, एक चादर भी साथ रख लिया। केवल कंबल में भी गर्मी लगी तो उसे हटा कर चादर से काम चलाना पड़ा। सुबह पाँच के आसपास एक बार नींद खुली, यह लघुशंका के लिए थी।  बाथरूम गया तो  रास्ते में बालकनी गीली दिखाई दी। गौर किया तो पता लगा रात बारिश हुई है। सर्दी कम होने का कारण यही था। अभी रात शेष थी। दुबारा बिस्तर पर लेटा तो नींद फिर लग गई।  इस बार उठा तो आठ बज चुके थे। निपटते-निपटाते साढ़े नौ बज गए। झटपट नाश्ता किया और चल दिया। मैं सोचता था कि डेढ़ नहीं तो दो घंटे में तो निश्चित स्थान पर पहुँच ही लूंगा। गंतव्य के लिए मुझे बदरपुर बॉर्डर से जिस बस को पकड़ना था उस का रूट नंबर मुझे अजय झा बता चुके थे। बॉर्डर तक कैसे पहुँचना है इतना जानना था। इस के लिए मकान मालिक ने मदद की और मैं पहुँचा सेक्टर तीन की पुलिया पर।  दो-तीन मरियल से ठुकपिट कर शक्ल बिगाड़े रिक्शा आए लेकिन बॉर्डर के नाम से ही बिदक गए। फिर एक हरे रंग का नया सा मिला, उसने बिठा लिया और बदरपुर बॉर्डर उतारा। मोबाइल ग्यारह में आठ मिनट कम बता रहा था।
विचित्र नजारा था। मेट्रो के लिए चल रहे काम और शायद निर्माणाधीन फ्लाई ओवर के कारण  बेहद अफरातफरी थी। यहाँ भी स्थाई-अस्थाई बाजार उगे थे। पता ही नहीं लग रहा था कि कहाँ से बस मिलेगी? मुझे कुछ पान की दुकानें दिखीं। पूरा एक दिन हो गया था, पान खाए। पास गया तो उन में गुटखे लटक रहे थे और भी बहुत कुछ था पर पान नहीं था। तलाश करने पर एक जगह पान भी दिखे दुकानदार उस की दीवार घड़ी दुरुस्त करने में जुटा था। मैं ने उसे पान बनाने को कहा तो उस ने बस एक नजर मेरी और देख वापस अपने काम में जुट गया। मैं ने एक मिनट उस का इंतजार किया और खुद को उपेक्षित पा कर वहाँ से चल दिया। रास्ते में कुछ लोग मोजे, रुमाल, बटुए आदि बेच रहे थे। मुझे याद आया मैं रुमाल लेना भूल गया हूँ। मैंने दस रुपए में एक रुमाल खरीदा और उसी से पूछा कि बस कहाँ मिलेगी? उस ने दूर खड़ी बसों की ओर इशारा किया। मैं तकरीबन पौन किलोमीटर चल कर बसों तक पहुँचा तो मेरे रूट की बस बिलकुल खाली थी, ड्राइवर-कंडक्टर  अंदर बैठ कर अपना सुबह का टिफिन निपटा रहे थे। मैंने पूछा तो उन्हों ने आगे जाने का इशारा किया। आधा किलोमीटर और आगे चल कर मैं बस तक पहुँचा। सवारियाँ बैठ रही थीं। मैं चढ़ा और खुद को खुशकिस्मत पाया कि वहाँ एक सीट बैठने के लिए खाली मौजूद थी। कुछ देर बैठे रहने के बाद कंडक्टर को पूछा तो उस ने बताया कि बस 11: 38 पर चलेगी। मैं लेट हो चुका था।
चे समय के इस्तेमाल का मेरे पास कोई जरिया नहीं था, लेकिन लोगों के पास था। एक बच्ची हाथ में कमंडल और उस में बिठाई तस्वीर ले कर मांगने के लिए बस में चढ़ गई। वह कुछ नहीं बोल रही थी। हर सवारी के आगे कुछ देर खड़ी होती, कुछ मिलता तो ठीक नहीं तो आगे बढ़ जाती। ऐसे ही बच्चे, महिलाएँ कोटा अदालत में खूब आते हैं, सब के सब पक्के प्रोफेशनल। मेरे एक साथी उन्हें कई बार नसीहतें दे चुके हैं। उन से काम कराने के बदले मजदूरी देने का प्रस्ताव भी करते हैं। पर कौन स्थाय़ी रोजगार छोड़ अस्थाई की और झाँकता है। बच्ची बस से उतरी तो एक युवक नारियल की फांके लिए बेचने चढ़ा, कुछ लोगों ने उस का स्वागत किया। उस के बाद एक पैंसिल बेचने वाला चढ़ा। मेरे पास की सीट पर बेटी के साथ बैठे सज्जन ने पैंसिलें खरीदीं। तभी बस ने हॉर्न दिया। पैंसिल बेचने वाला उतर गया, बस चल दी।

जिस तरह बस चल रही थी लग रहा था कि कम से कम एक डेढ़ घंटा जरूर लेगी। मैंने कंडक्टर को अपना गंतव्य बताया। उसने मुझे आश्वस्त किया कि वह मुझे सही स्थान पर उतार देगा। एक स्टॉप पहले ही उस ने मुझे आगे के दरवाजे पर बुलाया और मेरे स्टॉप पर उतार दिया। बाद में पता लगा कि उस ने मुझे एक स्टॉप पहले ही उतार दिया था। अपने राम पैदल चल पड़े। मेट्रो स्टेशन के पास पहुँच कर मैं ने मोबाइल से अजय से संपर्क करना चाहा पर वहाँ सिग्नल गायब थे। मैं एक और चल दिया और सिग्नल मिलने तक चलता रहा। अजय से बात हुई तो वे मुझे लेने आ गए। हम मिलन स्थल पहुँच गए। पाबला जी तो वहाँ पहले से ही थे श्रीमती संजू तनेजा, राजीव तनेजा, कार्टूनिस्ट इरफान, और खुशदीप सहगल भी पहुँचे हुए थे। बातों के साथ नाश्ता चल रहा था। सभी बहुत आत्मीयता के साथ मिले। मैं बैठा ही था कि अचानक पीछे रोशनी चमकी। मुड़ कर देखा तो टेबल पर रखा पाबला जी का कैमरा हमें कैद कर रहा था।



सोमवार, 23 नवंबर 2009

यात्रा में भूली, अनवरत की दूसरी वर्षगाँठ


पिछला सप्ताह पूरा यात्रा में गुजरा। यूँ तो कोटा में 29 अगस्त से वकीलों ने न्यायिक कार्य का बहिष्कार किया हुआ है। कहा जा सकता है कि मैं भी पूरी तरह फुरसत में हूँ। लेकिन यह केवल कहे जाने वाली बात है। वास्तविकता कुछ और ही है। जब वकील अदालत से बाहर होते हैं तो उन के किसी मुकदमे में उस मुवक्किल को जिस की वे पैरवी कर रहे हैं किसी तरह का स्थाई नुकसान न उठाना पड़े, इस की जिम्मेदारी वकील पर आ पड़ती है।  इस के लिए वकील का रोज अदालत परिसर तक जाना और मुकदमों को अदालत में न जाकर भी नियंत्रित करना जरूरी हो जाता है। सामान्य परिस्थितियों में मुकदमे की पैरवी की वैकल्पिक व्यवस्था की जा सकती है लेकिन ऐसे में अपना मुख्यालय छोड़ पाना दुष्कर हो जाता है। इस कारण से मेराअगस्त के अंत से कोटा में ही रहना हुआ। इस बीच मुंबई में अनिता कुमार-विनोद जी के पुत्र के विवाह में जाने की तैयारी अवश्य थी लेकिन उसी समय बेटे को बाहर जाना था सो मुम्बई का टिकट रद्द करवाना पड़ा।  



विगत फरवरी में बेटी पूर्वा ने बल्लभगढ़ (फरीदाबाद) में अपने नए काम पर पद  भार संभाला था। उसे वहाँ छोड़ने गए तो उस के लिए आवास की व्यवस्था की जिस में फरीदाबाद के साथी ब्लागर अरुण जी अरोरा और उन की पत्नी मंजू भाभी ने महति भूमिका अदा की थी। हम चार दिन उन्हीं के मेहमान रहे। अरुण जी के सौजन्य से ही ब्लागवाणी के कार्यालय में मैथिली जी, सिरिल, अविनाश वाचस्पति जी,  आलोक पुराणिक जी और ....... से भेंट हुई थी। पखवाड़े भर बाद जब पूर्वा को एक बार देखने वापस फरीदाबाद जाना हुआ तो अरुण  जी के अतिरिक्त किसी से मिलना नहीं हो सका और किसी भी तरह तीसरी बार उधर का रुख भी नहीं हो सका। पूर्वा अवश्य माह डेढ़ माह में कोटा आती रही। बहुत दिन हो जाने के कारण एक बार पूर्वा के पास जाना ही था। पहले 7 नवम्बर जाना तय हुआ, लेकिन जोधपुर के एक मुवक्किल ने दबाव बनाया उन का काम तुरंत जरूरी है और जोधपुर जाना हो सकता है। यह कार्यक्रम निरस्त हुआ। लेकिन जोधपुर यात्रा भी टल गई। फिर 14-15 नवम्बर को फरीदाबाद जाना तय हुआ। तभी खबर मिली कि पाबला जी भी उन्हीं दिनों दिल्ली आ रहे हैं। सुसंयोग देख कर मैं ने पत्नी शोभा के वहाँ तीन रात्रि रुकने का कार्यक्रम तय कर लिया। इस बहाने दो -दिन एक रात दिल्ली रुकना हुआ और वहीं अनेक ब्लागर साथियों से भेंट हुई जिस का विवरण आप को पाबला जी, अजय कुमार झा और खुशदीप सहगल जी से आप को मिल चुका है और मिलता रहेगा।

दिल्ली में ही मुझे पुनः जोधपुर पहुँचने का संदेश मिला तो मैं 17 की शाम कोटा पहुँच कर 18 की रात ही जोधपुर के लिए लद लिया। दो दिनों में जोधपुर का काम निपटा कर वापस कोटा पहुँचा। दोनों ओर की यात्रा बस से हुई उस ने जो कष्ट और आनंद दिया वह निराला था। 21 नवम्बर की सुबह कोटा पहुँचा तो हालत यह थी कि दिन भर सोता रहूँ। लेकिन सप्ताह भर की अनुपस्थिति ने अदालत जाने को विवश किया। शाम हालत यह थी कि न खुद का पता था, न दुनिया का। पर ब्लागरी ऐसी चीज हो गई कि उस दिन भी अनवरत और तीसरा खंबा पर एक एक आलेख पेल ही दिए। आज शामं अचानक ध्यान आया कि अनवरत की वर्षगांठ इन्हीं दिनों होनी चाहिए। देखा तो पता लगा कि अनवरत का जन्मदिन 20 नवम्बर को ही निकल चुका है।
ब देर से ही सही हम अनवरत की दूसरी वर्षगाँठ को स्मरण किए लेते हैं। 20 नवम्बर 2007 को आरंभ हुआ अनवरत दो वर्ष पूरे कर चुका है, .यह आलेख इस का 370वाँ आलेख है और 41000 से अधिक चटके इस पर लोग लगा चुके हैं।

अनवरत का पहला आलेख



आप सब के आशीर्वाद और स्नेह की आकांक्षा के साथ ......

रविवार, 25 अक्तूबर 2009

राष्ट्रीय संगोष्टी : हिन्दी ब्लागिरी के इतिहास का सब से बड़ा आयोजन

          *                                      चित्र मसिजीवी जी से साभार

आखिर तीन दिनों से चल रहा भ्रम दूर हो गया कि इलाहाबाद में हिन्दी ब्लागरों का कोई राष्ट्रीय सम्मेलन हो रहा था।  बहुत लोगों के पेट में बहुत कुछ उबल रहा था। लगता है वह उबाल अब थम गया होगा। यदि नहीं थमा हो तो इस पोस्ट को पढ़ने के बाद थम ही जाएगा। हालांकि पहले भी यह सब को पता था, लेकिन शायद इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। यह कोई हिन्दी ब्लागर सम्मेलन नहीं था। यह महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा 'हिन्दी चिट्ठाकारी की दुनिया' परआयोजित राष्ट्रीय संगोष्टी थी। जिसे विश्वविद्यालय ने बुलाया चला गया। उस की जैसी सेवा हुई, हो गई। जिन्हें पहले से आमंत्रण दे कर नहीं बुलाया गया था उन्हें चिट्ठे पर छपा आमंत्रण वहाँ खींच ले गया। उन की भी सेवा हो ली।  
जब विश्वविद्यालय एक संगोष्टी आयोजित करता है तो उस में कौन लोग बुलाए जाएँ ? और कौन लोग नहीं बुलाए जाएँ? इन का निर्णय भी विश्वविद्यालय ही करेगा, उस ने वह किया भी। जिन को नहीं बुलाया गया उन्हें हलकान होने और बुरा मानने की जरूरत नहीं है। पहला सत्र उद्घाटन सत्र के साथ ही पुस्तक विमोचन सत्र था। मुख्य अतिथि नामवर सिंह रहे। मैं समझता हूँ कि ब्लागरी को अभी साहित्य के लिए एक नया माध्यम  ही माना जा रहा है। शायद इसी कारण से नामवर जी उस के मुख्य अतिथि थे। उन्हों ने भी उसे ऐसा ही समझा और वैसा ही अपना भाषण कर दिया। इस के बाद के सत्रों में विमर्श आरंभ हुआ।  ब्लाग पर होने वाले विमर्श में और प्रत्यक्ष होने वाले विमर्श में फर्क होना चाहिए था। आखिर एक में ब्लागर पोस्ट लिख कर छोड़ देता है। उस पर नामी-बेनामी टिप्पणियाँ आती रहती हैं। ब्लागर को समझ आया तो उस ने बीच में दखल दिया तो दिया। नहीं तो अगली पोस्ट के लिए छोड़ दिया। प्रत्यक्ष विमर्श का आनंद और ही होता है।  वहाँ कोई बेनामी नहीं होता।  
अब प्रत्यक्ष सम्मेलन में बेनामी पर चर्चा होना स्वाभाविक था, जो कुछ अधिक हो गई। बेनामी लेखक छापे में भी बहुत हुए हैं तो ब्लागरी में क्यों न हुए। जिस बड़े लेखक ने पत्रिका निकाली उसे चलाने के लिए उसे बहुत सी रचनाएँ खुद दूसरों के नाम से लिखनी पड़ीं और यदा-कदा उन पर प्रतिक्रियाएँ भी छद्म नाम से लिखीं। बहुत से अखबारों में भी यह होता रहा है और होता रहेगा।  बेनामियों का योगदान छापे में महत्वपूर्ण रहा है तो फिर ब्लागरी में क्यों नहीं? यहाँ भी वे महत्वपूर्ण हैं और बने रहेंगे।  चिंता की जानी चाहिए थी उन बेनामी चीजों पर जो सामान्य शिष्टता से परे चली जाती हैं। उन पर नियंत्रण जरूरी है। ऐसी टिप्पणियों को मोडरेशन के माध्यम से रोका जा सकता है, जो किया भी गया है। हाँ बेनामी चिट्ठों को नहीं रोका जा सकता। उन के लिए यह नीति अपनाई जा सकती है कि उन चिट्ठों पर टिप्पणियाँ नहीं की जाएँ। यदि विरोध ही दर्ज करना हो तो दूसरे चिट्ठों पर पोस्ट लिख कर किया जा सकता है।  
ब्लागरी केवल साहित्य नहीं है। वह उस के परे बहुत कुछ है। वह ज्ञान की सरिता है। जिस में बरसात की हर बूंद को आकर बहने का अधिकार है।  यह जरूर है कि हिन्दी ब्लागरी के विकास में साहित्य और साहित्यकारों का योगदान रहा है। मैं नेट पर साहित्य तलाशने गया था और उस ने मुझे ब्लागरी से परिचित कराया। वहाँ कुछ टिपियाने के बाद मुझे ब्लागिरी में शामिल होने का न्यौता मिला तो मेरी सोच यह थी कि मैं कानून संबंधी अपनी जानकारियों को लोगों से साझा करूँ। इस तरह 'तीसरा खंबा' का जन्म हुआ।  इस ब्लाग में कोई साहित्य नहीं है, वह कानून की जानकारियों और न्याय व्यवस्था से संबंधित ब्लाग है।  एक साल से वह सामान्य लोगों को कानूनी जानकारी की सहायता उपलब्ध करा रहा है और आज स्थिति यह है कि कानूनी सलाह प्राप्त करने के लिए बहुत से प्रश्न तीसरा खंबा के पास कतार में उपलब्ध रहते हैं।  बहुत लोगों की समस्याओं को ब्लाग पर न ला कर सीधे सलाह दे कर उन का जवाब दिया जा रहा है।  कुछ ब्लाग समाचारों पर आधारित हैं। कुछ ब्लाग तकनीकी जानकारियों पर आधारित हैं। अजित जी का ब्लाग  'शब्दों का सफर' केवल भाषा और शब्दों पर आधारित है। शब्द केवल साहित्य के लिए उपयोगी नहीं हैं वे प्रत्येक प्रकार के संप्रेषण के लिए उपयोगी हैं। ब्लागरी में साहित्य प्रचुर मात्रा में आया है। उस की बदौलत बहुत से लोगों ने लिखना आरंभ किया है। इस कारण से ब्लागिरी में साहित्य तो है लेकिन साहित्य ब्लागिरी नहीं है। वह 'ज्ञान सरिता' ही है।  
कैसी भी हुई यह राष्ट्रीय संगोष्टी हिन्दी ब्लाग जगत के लिए एक उपलब्धि है। एक विश्वविद्यालय ने ब्लागरी से संबंधित आयोजन किया यह बड़ी बात है। बहुत से हिन्दी ब्लागरों को उस में  विशेष रुप से आमंत्रित किया और शेष को उन की इच्छानुसार आने के लिए भी निमंत्रित किया। जो लोग वहाँ पहुँचे उन का असम्मान नहीं हुआ। इस संगोष्टी ने बहुत से हिंदी ब्लागरों को पहली बार आपस में मिलने का अवसर दिया। उन का एक दूसरे के साथ प्रत्यक्ष होना बड़ी बात थी। कुछ ब्लागर अपनी बात वहाँ रख पाए यह भी बड़ी बात है। कुछ नहीं रख पाए, वह कोई बात नहीं है। उन के पास अपना स्वयं का माध्यम है वे अपने ब्लाग पर उसे रख सकते हैं। हिन्दी में ब्लागरों की संख्या आज की तारीख में चिट्ठाजगत के अनुसार 10895 हिन्दी ब्लाग हैं जिन में से दो हजार से ऊपर सक्रिय हैं। सब को तो वहाँ एकत्र नहीं किया जा सकता था और न ही जो पहुँचे उन सब को बोलने का अवसर दिया जा सकता था।
चलते-चलते एक बात और कि मेरे हिसाब से ब्लाग को चिट्ठा नाम देना ही गलत है। ब्लाग वेब-लॉग से मिल कर बना है। इस में वेब शब्द का 'ब' अत्यंत महत्वपूर्ण है चिट्ठा शब्द में उस का संकेत तक नहीं है। इस कारण से उसे चिट्ठा कहना मेरी निगाह में उचित नहीं है, उसे ब्लाग ही कहना ही उचित है।  ब्लाग एक संज्ञा है और मेरे विचार में किसी भी भाषा के संज्ञा शब्द को ज्यों का त्यों दूसरी भाषा में आत्मसात किया जा सकता है। जो कर भी लिया गया है। हाँ, मुझे ब्लागिंग शब्द पर जरूर ऐतराज है। क्यों कि इस का 'इंग' हर दम अंग्रेजी की याद दिलाता रहता है। किसी संज्ञा को एक बार अपनी भाषा में आत्मसात कर लेने के उपरांत उस से संबंधित अन्य शब्द अपनी भाषा के नियमानुसार बनाए जा सकते हैं। इस लिए मैं ब्लागिंग के स्थान पर ब्लागरी या ब्लागिरी शब्द का प्रयोग करता हूँ। मुझे लगता है कुछ ब्लागर इस का अनुसरण और करें तो यह भी आत्मसात कर लिया जाएगा।
कुल मिला कर 'हिन्दी चिट्ठाकारी की दुनिया' पर महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा की गई राष्ट्रीय संगोष्टी ब्लागरी के इतिहास की बड़ी घटना है, जिस ने इतने सारे ब्लागरों को एक साथ मिलने और प्रत्यक्ष चर्चा करने का अवसर प्रदान किया। इस घटना को बड़ी घटना की तरह स्मरण किया जाएगा और यह घटना तब तक बड़ी बनी रहेगी जब तक इस से बड़ी लकीर कोई नहीं खिंच जाती है।


सोमवार, 28 सितंबर 2009

कल को खु़र्शीद भी निकलेगा, सहर भी होगी

वकीलों की हड़ताल का असर महसूस होने लगा है। काम पर मन जम नहीं रहा है। उस का असर अपने ब्लाग लेखन पर भी आया। अनवरत पर पिछले आठ दिनों में मात्र तीन पोस्टें ही हो सकीं। आज ब्लागवाणी ने खुद को समेट लिया। मन दुःखी है। जब कोई अनजान और बिना संपर्क का व्यक्ति भी असमय चल बसे तो दुःख होता है, यह मानवीय स्वभाव है। जब भी नेट चालू होता ब्लागवाणी एक टैब पर खुली ही रहती थी।  ब्लागवाणी ने हिन्दी ब्लागरी के विकास में जो भूमिका अदा की वह ऐतिहासिक है, उसे इतिहास के पृष्ठों से नहीं मिटाया जा सकता।  अभी उस के लिए भूमिका शेष थी, जिसे निभाने से उस के कर्ताओं ने इन्कार कर दिया, या कहें वे पीछे हट गए।  पीछे हटने की जो वजह बताई गई, वह तार्किक और पर्याप्त नहीं लगती। लेकिन यह उस के कर्ताओं का व्यक्तिगत निर्णय है।  उसे कोई चुनौती भी नहीं दे सकता।  खुद कर्ता पहले ही ब्लागवाणी को निजि प्रयास कह चुके हों, तब कोई क्या कह सकता है?  सिवाय इस के कि इस घड़ी का दुख और पीड़ा चुपचाप सहन करे या उसे अभिव्यक्त करे।  मुझे मेरे पिता जी के दिवंगत होने का वक्त स्मरण हो रहा है। जब वे गए तो गृहस्थी कच्ची थी। चार भाइयों में मैं अकेला वकालत में आकर संघर्ष कर रहा था। जब तक मैं कोटा से बाराँ पहुँचा तो मेरे आँसू सूख चुके थे। पिता जी के जाने के ख़याल से अधिक, बचे हुए परिवार को जोड़े रखने और उसे संजोने की चिंता बड़ी हो गई थी। मेरी हालत देख लोग कहने लगे थे कि उसे रुलाओ वर्ना शरीर घुल जाएगा। मुझे आज कुछ वैसा ही महसूस हो रहा है।



हालांकि ब्लागवाणी निजत्व की सीमा से परे जा चुकी थी। कोई अकेला व्यक्ति भी जब समाज या उस के एक भाग से जुड़ता है तो उस का कुछ भी निजि नहीं रह जाता है।  ब्लागवाणी हिन्दी ब्लाग जगत के ब्लागरों और पाठकों से जुड़ी थी। ब्लागवाणी को बंद कर के उस के कर्ताओं ने हिन्दी ब्लाग जगत को दुःख पहुँचाया है और उन्हें रिक्तता के बीच छोड़ दिया है।  आज जब हिन्दी ब्लाग जगत को और बहुत से विविध प्रकार के ऐग्रीगेटरों और साधनों की जरूरत है, उस समय यह रिक्तता सभी को अखरेगी। लेकिन ऐसा भी नहीं कि इस की पूर्ति नहीं की जा सकेगी। सभी महान कही जाने वाली संस्थाओं और व्यक्तियों के जाने के बाद ऐसा ही महसूस होता है। लेकिन जल्दी ही वह रिक्तता भरने लगती है। कम सक्षम ही सही, लोग आते हैं, काम करते हैं और अपनी भूमिका अदा करते हैं। कभी-कभी अधिक सक्षम लोग भी आते हैं और ऐसा काम कर दिखाते हैं जो पहले कभी न हुआ हो। तब लोग ऐतिहासिक भूमिका अदा करने वालों को भी विस्मृत कर देते हैं। लोगों को स्मरण कराना पड़ता है कि कभी किसी ने ऐतिहासिक भूमिका अदा की थी। ब्लागवाणी के मामले में क्या होगा? यह अभी नहीं कहा जा सकता।  इतना जरूर है कि ब्लागवाणी को बंद हुए अभी बारह घंटे भी न गुजरे थे, कि लोगों ने नए ऐग्रीगेटरों की तलाश आरंभ कर दी। एक एग्रीगेटर तो 'महाशक्ति समूह' तलाश भी कर लाया है। हो सकता है शीघ्र ही ब्लागवाणी के स्थान पर अनेक ऐग्रीगेटर दिखाई देने लगें और उस की छोड़ी हुई भूमिका को अदा करें।

सब से अफसोस-जनक बात जो है, वह यह कि ब्लागवाणी के बंद होने के लिए कुछ लोगों को जबरन जिम्मेदार ठहराया जा रहा है,  जिन में मैं भी एक हूँ।  यहाँ तक कि गालियाँ तक परोस दी गई हैं।  लेकिन मेरी दृढ़ मान्यता है कि जब भी, कुछ भी पुष्ट होता है तो वह अपने अंदर की मजबूती (अंतर्वस्तु)  के कारण और जब वह नष्ट होता है तब भी उस की अंदरूनी कमजोरी (अंतर्वस्तु) ही उस का मुख्य कारण होती है।  बाहरी तत्व उस में प्रधान भूमिका अदा नहीं कर सकते। रोज कपड़े सुखाने वाले से एक दिन डोरी टूट जाती है तो भी सुखाने वाले पर इल्जाम आता है, हालांकि वह टूटती अपनी जर्जरता के कारण है।

मेरे मित्र पुरुषोत्तम 'यक़ीन' के भंडार में इतनी रचनाएँ हैं कि  हर वक्त के लिए कुछ न कुछ मिल जाता है। इस रिक्तता के बीच मुझे उन की रचनाओं में से यह ग़ज़ल मिली है। आप भी पढ़िए। शायद इस ग़मज़दा माहौल में हिम्मत अफ़जाई कर सके।




कल को खु़र्शीद भी निकलेगा, सहर भी होगी
  •   पुरुषोत्तम 'यक़ीन'

हम अंधेरे में चराग़ों को जला देते हैं
हम पे इल्ज़ाम है हम आग लगा देते हैं


कल को खु़र्शीद* भी निकलेगा, सहर भी होगी
शब के सौदागरों! हम इतना जता देते हैं


क्या ये कम है कि वो गुलशन पे गिरा कर बिजली 
देख कर ख़ाके-चमन आँसू बहा देते हैं


बीहड़ों में से गुज़रते हैं मुसलसल** जो क़दम 
चलते-चलते वो वहाँ राह बना देते हैं


जड़ हुए मील के पत्थर ये बजा*** है लेकिन
चलने वालों को ये मंजिल का पता देते हैं


अधखिले फूलों को रस्ते पे बिछा कर वो यूँ 
जाने किस जुर्म की कलियों को सज़ा देते हैं


अब गुनहगार वो ठहराएँ तो ठहराएँ मुझे 
मेरे अश्आर शरारों को हवा देते हैं


एक-इक जुगनू इकट्ठा किया करते हैं 'यक़ीन'
रोशनी कर के रहेंगे ये बता देते हैं





ख़ुर्शीद*= सूरज,  
मुसलसल**=निरंतर,  
बजा***=उचित, सही




शनिवार, 29 अगस्त 2009

पाठक की संवेदना चोटिल होने पर लेखक-प्रकाशक जिम्मेदार नहीं होंगे; पाठक अपनी रिस्क पर पढ़ें

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बहुत कीमती है, जनतंत्र में  आ कर मिली है। कुछ प्रतिबंध भी हैं, लेकिन उन की परवाह कौन करता है? मैं रेलवे की बुक स्टॉल पर सब से ऊपर रखा अखबार देखता हूँ। शीर्षकों में वर्तनी की तीन अशुद्धियाँ दूर से ही दिख गई हैं। मैं अखबार खरीद लेता हूँ। देखना चाहता हूँ अखबारों की दुनिया में आखिर नया कौन आ गया है? मैं एक दो और किताबें खरीदता हूँ, लेकिन देख लेता हूँ कि उन में तो वर्तनी की अशुद्धियाँ नहीं हैं।

पहले तो कोई किताब खरीदना ही नहीं चाहता। हर कोई मांग कर या मार कर पढ़ना चाहता है। एक दो घंटे में पढ़ी जा सकने वाली किताब क्यों खरीदी जाए? पढ़ने के बाद रद्दी जो हो जाती है। फिर खरीदे तो कम से कम ऐसी तो खरीदे जिस में वर्तनी की अशुद्धियाँ नहीं हों। हमने वर्तनी की अशुद्धियों वाली किताबें कम ही देखी हैं। कभी किताब छापने की जल्दी में अशुद्धियाँ रह जाती हैं। उन का शुद्धिपत्र अक्सर किताब में विषय सूची के पहले ही नत्थी होता है। मूर्ख  हैं वे, जो अशुद्धियों की सूची इस तरह किताब के पहले-दूसरे पन्ने पर चिपका कर खुद घोषणा कर देते हैं कि किताब में अशुद्धियाँ हैं। वे तो किताब पढ़ने वाले को पढ़ने पर पता लग ही जाती हैं। हर पाठक को लेखक की संवेदना का ख्याल रखता है। वह लेखक-प्रकाशक को कभी नहीं बताता कि उस की किताब में  गलतियाँ हैं, बस इतना करता है कि उस लेखक प्रकाशक की किताब खरीदना बंद कर देता है। भला पैसे दे कर गलतियों वाली किताब खरीदने में कोई आनंद है?
ब्लागिंग मजेदार चीज है। इसे पढ़ने के लिए खरीदना नहीं पड़ता। बस यूँ ही नेट पर लोग पढ़ लेते हैं। यहाँ कुछ भी लिख दो, वह जमा रहता है, तब भी, जब कोई पढ़े और तब भी जब कोई न पढ़े। यहाँ अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता है। ब्लागर वर्तनी की अशुद्धियों से बे-चिंत हो कर टाइप कर सकता है, और प्रकाशित भी कर सकता है। हिन्दी में तो यह काम और भी आसान है। राइटर में वर्तनी की अशुद्धियाँ बताने वाला टूल ही गायब है। हिन्दी को उस की जरूरत भी नहीं है। लोग उस के बिना भी अपनी संवेदनाओं को ट्रांसफर कर सकते हैं।  वे लोग निरे मूर्ख हैं जो इस तरह वर्तनी की अशुद्धियाँ जाँचने के टूल बनाते हैं। 
प्राइमरी की छोटी क्लास में वर्तनी की एक अशुद्धि पर डाँट मिलती थी। पाँचवी तक पहुँचते-पहुँचते वह मास्टर जी के पैमाने से हथेली पर बनी लकीर में बदल गई। मिडिल में पहुँचते पहुँचते हम वर्तनी की अशुद्धियों को देखने से वंचित हो गए। वे किसी किताब में मिलती ही नहीं थी। आठवीं के विद्यार्थी छुपा कर कुछ छोटी-छोटी किताबें लाते थे और दूसरों को पढ़ाते थे। सड़क पर बैठा बुकसेलर उन किताबों को के जम कर पैसे वसूल करता था। उन में चड्डी के नीचे के अंगों और उन के व्यवहार के बारे में महत्वपूर्ण सूचनाओं  की अभिव्यक्ति वर्तनी की भरपूर त्रुटियों के साथ होती थी। छात्र अक्सर वर्तनी की अशुद्धियाँ पढ़ने के लिए ही उन किताबों को पढ़ते थे और मध्यान्ह नाश्ते के लिए घर से मिले पैसे आठवीं के उन विद्यार्थियों को दे देते थे। 
हर पाठक को लेखक की संवेदनाओं का पूरा खयाल रखना चाहिए। चाहे वह किताब में हो, अखबार में हो, इंटरनेट के किसी पेज पर हो या फिर ब्लागिंग में हो। कोई ऐसी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए जिस से कोई मासूम लेखक-ब्लागर की संवेदना को चोट पहुँचे, पाठक की संवेदना को पहुँचे तो पहुँचे। अब कोई भूला भटका अगर टिप्पणी से लेखक-ब्लागर की संवेदना को चोट पहुँचा भी दे तो उसे जरूर एक आलेख लिख कर पाठकों को आगाह कर देना चाहिए कि आइंदा वे टिप्पणी कर के ऐसा न करें। पाठक की संवेदना का क्या ?  उसे चोट पहुँच जाए तो इस की जिम्मेदारी लेखक-ब्लागर की थोड़े ही है। पाठक खुद चल कर आता है, पढ़ने के लिए। उसे किसने पढ़ने का न्यौता दिया?  अब वह आता है तो अपनी रिस्क पर आता है, पढ़ने से उस की संवेदनाओं को पहुँचने की जिम्मेदारी लेखक-प्रकाशक की थोड़े ही है। 
अब हम वकील हैं, सलाहकारी आदत है। कोई उस के लिए पैसे ले कर आता है तो तत्पर हो कर करते हैं। पर जब कोई नहीं आता है तो आदतन बाँटते रहते हैं। इसलिए इस आलेख के उपसंहार में भी एक सलाह दिए देते हैं, वह भी बिलकुल मुफ्त। इस से आप की संवेदनाओं को चोट पहुँचे तो इस की कोई गारंटी नहीं है। आप चाहें तो इस आलेख को यहीं पढ़ना छोड़ सकते हैं। 
(सलाह के पहले एक छोटा सा ब्रेक, जो सलाह न चाहें वे अपना ब्राउजर बंद कर सकते हैं) 
सलाह ............
जो हर लेखक को अपनी किताब के पहले पन्ने पर और हर ब्लागर को ब्लाग के शीर्षक के ठीक ऊपर यह  चेतावनी टांक देनी चाहिए....
"इस ब्लाग में वर्तनी की अशुद्धियों से किसी पाठक की संवेदना चोटिल होने पर लेखक-प्रकाशक की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी"
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बुधवार, 22 जुलाई 2009

हम भी देखेंगे एनडीटीवी

अस्वस्थता में वकालत के दायित्वों के कारण मेरा भुर्ता बना हुआ है।  पर मुई बिलागिरी खींच ही लाती है। ज्यादा पोस्टें पढ़ ही नहीं पा रहे तो टिपियाई भी नगण्य हो कर रह गई है।  "चोर चोरी से जाए, पर हेराफेरी से न जाए"। चलो कुछ मुन्नी आलेखिकाऐं ही हो जाएँ...............

पता नहीं एनडीटीवी में और उन के एंकर कम ब्लागर रवीश कुमार जी में न जाने क्या खासियत है?  हर महिने हिन्दी ब्लागरी में उन की एँकरी का जिक्र हो जाता है।  मैं ने अपने टीवी पर एनडीटीवी तलाशा तो गायब था।  मैं ने केबल वाले से लड़ने का मूड बना लिया।  उसे एक गाली फैंकी.....बाटी सेक्या!* हमारे चर्चित वरिष्ठ हिन्दी ब्लागर और एँकर जी का चैनल ही सप्लाई नहीं करता है।  फिर सोचा उस की शक्ल बिगाड़ने के पहले दस्ती समस्वरण (tuning) कर के देखूँ। वहाँ एऩडीटीवी मिल गया। हमने लगाया कि तभी नाक झाड़ने का तकाज़ा हो चला। हम उठ कर वाश बेसिन तक जा कर आए। तब तक श्रीमती जी अपना वाला चैनल लगा चुकीं थीं।  हमारी हिम्मत न हुई कि इस सुप्रीमकोर्ट की अवमानना कर दें। हम श्रीमती जी के सोने की प्रतीक्षा करेंगे। अगर तब तक हम खुद न सो गए तो। वर्ना जुकाम रात को दो-तीन बार जगा ही देता है। तब एनडीटीवी और रवीश कुमार जी के दर्शन-श्रवण लाभ प्राप्त किए जाएँगे।  अब ये कोई जरूरी नहीं कि इस दर्शन-श्रवण लाभ को आप के साथ बांटा ही जाए।

*बाटी सेक्या! = [यह हमारे हाड़ौती की एक गाली है, जो उन लोगों को इंगित करती है जो किसी के मृत्यु की कामना करते हुए उस के तीसरे (अस्थिचयन) के दिन बाटी सेक कर खाने की कामना करते रहते हैं]

शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

पाबला जी के घर और बीएसपी के मानव संसाधन भवन के पु्स्तकालय में

पाबला जी बताते जा रहे थे, यहाँ दुर्ग समाप्त हुआ और भिलाई प्रारंभ हो गया। यहाँ यह है, वहाँ वह है।  मेरे लिए सब कुछ पहली बार था, मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा था।  मेरी आँखे तलाश रही थीं, उस मकान को जिस की बाउण्ड्रीवाल पर केसरिया फूलों की लताएँ झूल रही हों।  और एक मोड़ पर मुड़ते ही वैसा घर नजर आया।  बेसाख्ता मेरे मुहँ से निकला पहुँच गए।  पाबला जी पूछने लगे कैसे पता लगा पहुँच गए? मैं ने बताया केसरिया फूलों से। वैन खड़ी हुई, हम उतरे और अपना सामान उठाने को लपके।  इस के पहले मोनू (गुरूप्रीत सिंह) और वैभव ने उठा लिया। हमने भी एक एक बैग उठाए।  पाबला जी ने हमें दरवाजे पर ही रोक दिया।  अन्दर जा कर अपनी ड़ॉगी को काबू किया। उन का इशारा पा कर वह शांत हो कर हमें देखने लगी।  उस का मन तो कर रहा था कि सब से पहले वही हम से पहचान कर ले।  उस ने एक बार मुड़ कर पाबला  की और शिकायत भरे लहजे में कुछ कहा भी। जैसे कह रही हो कि मुझे नहीं ले गए ना, स्टेशन मेहमान को लिवाने।  डॉगी बहुत ही प्यारी थी।

लॉन में पाबला जी के पिताजी से और बैठक में माता जी से भेंट हुई।  बहुत ही आत्मीयता से मिले।  मुझे लगा मेरे माताजी पिताजी बैठे हैं।  उन के चरण-स्पर्श में जो आनंद प्राप्त हुआ कहा नहीं जा सकता।  जैसे मैं खुद अपने आप के पैर छू रहा हूँ।  पाबला जी ने बैठक में बैठने नहीं दिया।  बैठक के दायें दरवाजे से एक छोटे कमरे में प्रवेश किया जहाँ डायनिंग टेबल थी और उस के पीछे एक छोटा सा कमरा।  जिस में एक टेबल पर पीसी था।  पीसी पर काम करने की कुर्सी, और एक तखत। एक अलमारी जिस में किताबें सजी थीं। पाबला जी बोले, बस यही हमारी सोने और काम करने की जगह है।  अब भिलाई प्रवास तक आप के हवाले। फिर पूछा, क्या? चाय या कॉफी? मैं ने तुरंत कॉफी कहा, चाय मैं ने पिछले सोलह साल से नहीं पी।

कॉफी के बाद हमें टायलट दिखा दी गई। हमने उन का उपयोग किया और प्रातःकालीन सत्कार्यों से निवृत्त हो लिए।  तब तक टेबल पर नाश्ता तैयार था।  दो पराठे हमने मर्जी से लिए, तीसरा पाबला जी के स्नेह के डंडे से। उस के तुरंत बाद पाबला जी हमें ले कर स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लि. के भिलाई स्टील प्लांट के मानव संसाधन भवन पहुँचे।  हमें वहाँ अपने कुछ सह कर्मियों और अधिकारियों से मिलाया।  फिर पुस्तकालय दिखाया। पुस्तकालय में बहुत किताबें थीं।  तकनीकी तो थी हीं,  कानून की महत्वपूर्ण और नई पुस्तकें भी वहाँ मौजूद थीं।  रीडिंग रूम में दुनिया भर की महत्वपूर्ण पत्रिकाएं और जर्नल मौजूद थे।  बहुत कम सार्वजनिक उपक्रमों में ऐसे पुस्तकालय होंगे।  पुस्तकालय घूमते हुए किसी बात पर जरा जोर से हँसी आ गई। पाबला जी ने मुझे तुरंत टोका।  मुझे अच्छा लगा कि वहाँ लोग अनुशासन बनाए रखने का प्रयत्न करते हैं।  उस दिन वैभव के पंजीकरण का काम नहीं होना था, यह पाबला जी पहले ही बता चुके थे।  कुछ आवश्यक कारणों से यह काम कुछ दिनों से केवल सोमवार को होने लगा था।  इस समाचार को जानते ही मैं बिलकुल स्वतंत्र हो गया था।  वैभव का जो भी होना था मेरे वहाँ से लौटने के बाद होना था।  हम घूम फिर कर वापस घर आ गए।

घर पहुँचे तब तक माता जी दोपहर के भोजन की तैयारी कर चुकी थीं।  मेरे जैसे केवल दो बेर खाने वाले प्राणी को यह ज्यादती लगी।  अभी तो सुबह के पराठों ने पेट के नीचे सरकना शुरू ही किया था।  माता जी ने बनाया है तो भोजन तो करना पड़ेगा, पाबला जी की इस सीख का कोई जवाब हमारे पास नहीं था। फिर याद आयी दादा जी की सीख, कि बने भोजन और मेजबान का अनादर नहीं करते।  हम चुपचाप टेबल पर बैठ गए। सोचा केवल दो चपाती खाएंगे।  इस बार माता जी के आग्रह पर फिर तीन हो गईं।  भोजन के बाद कुछ देर अपनी मेल देखी और पाबला जी के तख्त पर ढेर हो गए।  वैभव बैठक के दूसरी ओर बने मोनू के कमरे में चला गया।  यहाँ तो बाकायदे गर्मी थी। सर्दी का नामोनिशान नहीं।  पंखा चल रहा था। नींद आ गई।

आँख खुली तो डॉगी चुपचाप मेरी गंध ले रही थी।  मन तो कर रहा था उसे सहला दूँ।  पर सोच कर कि यह चढ़ बैठेगी, चुप रहा। तभी पाबला जी ने कमरे में प्रवेश किया।  उन्हें देख कर वह तुरंत कमरे से निकल गई।  पाबला जी ने पूछा, परेशान तो नहीं किया?  -नहीं केवल पहचान कर रही थी।  बाहर देखा तो शाम होने को थी।   मैं ने पूछा- अवनींद्र के यहाँ कब चलेंगे?  बोले छह बजे के बाद चलेंगे, तब तक वे ऑफिस से भी आ लेंगे।  अवनींद्र, मेरा भाई, मेरी बुआ का पुत्र, भिलाई में ही बीएसएनएल में अधिकारी है।  मैं उस को कोटा से रवाना होने के पहले सूचित करना चाहता था।  पर पाबला जी ने मना कर दिया था, कि उस के घर सीधे जा कर बेल बजाएँगे।  सरप्राइज देंगे तो आनंद कुछ और ही होगा।  मैं उन से सहमत हो गया।  समय था, इस लिए कॉफी पी गई और मैं तैयार हो गया।  मैं, वैभव और पाबला जी तीनों पैदल ही अवनींद्र के घर की ओर चले।
चित्र
1. पाबला जी के घर की बाउंड्रीवाल,   2. पाबला जी के पिता जी और माता जी,   3. भिलाई स्टील प्लाण्ट,    4. पाबला जी का घर बाहर से और   5. पाबला जी का पुत्र गुरूप्रीत सिंह (मोनू)
 

और यहाँ नीचे देख सकते हैं मोनू और डॉगी का शानदार वीडियो।

सोमवार, 17 नवंबर 2008

"सगाई कम गोद भराई उर्फ रिंग सेरेमनी"

सुबह खटपट से नींद खुली। देखा तो हॉल के बाहर बरतन खड़क रहे थे, मैं उठ बैठा। रजाई से बाहर निकलते ही सर्दी का अहसास हुआ। सोचा हमें आवंटित कमरा खुला हो तो कुछ गरम पहनने को ले लिया जाए। बाहर निकले तो लंगर वाला गैस सुलगा कर दूध गरम कर रहा था। यानी मेरी कॉफी का इन्तजाम हो चुका था, दूध उबलते ही एक कप में चीनी और कॉफी ही तो मिलानी थी। मैं वहीं काउंटर पर खड़ा हो गया। सामने दूसरे तल पर जा रही सीढ़ियों पर छोटी वाली साली और बींदणी बैठी थी,  शायद चाय के इन्तजार में।  मोबाइल में समय देखा तो सवा चार हो रहे थे।  बींदणी कार्तिक में मुहँ-अंधेरे ही स्नान कर रही थी। मैं ने कहा -सात-आठ किलोमीटर दूर चन्द्रभागा में स्नान करा लाते हैं, आज विष्णु जी ससुराल से लौट रहे हैं, बड़ा पुण्य होगा, हम भी बहते जल में हाथ धो लेंगे। तो बोली -कल अखबार में पढ़ा था कि वहाँ पानी साफ नहीं है। यहाँ बाथरूम में ट्यूबवेल का साफ ताजा पानी आ रहा है, यहीं स्नान करेंगे। उन्हों ने चाय पी और कमरे वालों के लिए साथ ले ली।

कॉफी पी कर हम अपने कमरे में आए। बींदणी स्नान करने घुस गईथी। सालियाँ वहीं किसी कमरे में चली गईं जहाँ सुबह की संध्याएँ गाई जा रही थी। विनायक स्थापना होने के बाद से यह परंपरा है कि सुबह होने के पहले ही घर और पड़ोस की स्त्रियाँ मिल कर देवताओं के गीत और कुछ विवाह गीत गाती हैं। यूँ कहिए गीत से ही विवाह  वाले घर में दिन शुरू होता है। जब तक कमरे वाले सब स्नान न कर लें तब तक हमारा नंबर आने वाला न था। कमरे में बिस्तर खाली थे। रात केवल तीन घंटे ही सो सका था, मैं वापस रजाई के हवाले हो लिया। 

मैं स्नान कर के नीचे उतरा तब तक नौ बज चुके थे। नाश्ते की तैयारी थी। उस के बाद सगाई होनी थी। वैसे सगाई तो शादी होने के बहुत पहले ही हो जाया करती थी, जो रिश्ते के पक्के होने का प्रमाण होती थी। लेकिन सगाई अब दिखावे की होती है, और बहुत सारे लोग उसे न देखें तो उस का कोई अर्थ नहीं। इस लिए आम तौर पर लग्न झिलाने के दिन या  फिर शादी के दिन उस की रस्म पूरी की जाती है। देखने वाले यह देखते हैं कि सगाई में क्या क्या दिया गया? सगाई के पहले या बाद दुल्हन की गोद भरने की रस्म होती थी, उस का अस्तित्व अब खतरे में है। उस के साथ-साथ अंगूठी पहनाने की रस्म होने लगी है उसे नया नाम "रिंग सेरेमनी"  दे दिया गया है। यह काम भी सगाई के उपरांत निपटा लिया जाता है। कुल मिला कर समारोह  "सगाई कम गोद भराई उर्फ रिंग सेरेमनी" हो चुका है।

उधर शेड वाले हॉल  में जहाँ रात को भोजन हुआ था। वहाँ सगाई की तैयारी थी। आधे हॉल में गद्दे और उस पर सफेद चांदनी बिछी थी। एक तरफ बीचों बीच दूल्हे की चौकी थी, पंडित जी बैठे तैयारी कर रहे थे। बाकी आधे हॉल में दूल्हे की चौकी की तरफ मुहँ किये पचास कुर्सियाँ करीने से लगी थीं। हॉल के बाहर के मैदान में मेजें सजी थीं जिन पर नाश्ता लगाया जा रहा था। कुछ ही देर में नाश्ता शुरू हो गया। कोटा की जैसी कचौड़ियां, दही- चटनी, खम्मन ढोकला, कलाकंद और सेव-नमकीन। सब कुछ स्वादिष्ट था। जी चाहता था सब कुछ डट कर खाएँ, पर पेट और दिन में बनने वाले कच्चे भोजन का खयाल कर केवल चखा और कॉफी पी ली। अब तक बहुत मेहमान आ चुके थे। मेरे ससुर जी के अलावा ससुराल पूरी ही आ चुकी थी, साले, उन की पत्नियाँ (सालाहेलियाँ), उन के बच्चे, ब्याहता लड़कियाँ और उन के पति, बच्चे। नजदीक और दूर के लगभग सभी रिश्तेदार, सब आपस में बतियाने लगे। नए नए समाचार मिल रहे थे। किस किस का तबादला हुआ? किसे नौकरी मिली? कौन पास हुआ,  कौन फेल? किस का रिश्ता किस से होने जा रहा है?  आने वाले दो महिनों में किस किस की शादियाँ होने वाली हैं। कौन कौन पिता, दादा, मामा, नाना, चाचा, ताऊ, बुआ, मौसी आदि बन गए हैं।

नाश्ता चल रहा था कि उधर सगाई में चल कर बैठने का हुकुम हो गया। दुल्हन के पिता गैर हाजिर थे। उन्हों ने रात को ही मुझे बता दिया था कि वे अकलेरा जाएँगे जहाँ उन का पदस्थापन है क्यों कि उस दिन निर्वाचन की महत्वपूर्ण बैठक है और उस से मुक्ति नहीं मिल सकी है। मुझे कह गए थे सगाई के वक्त उन की कमी मैं पूरी करूँ। मै वहाँ पहुँचा तो, लेकिन वहाँ दुल्हन के मामा मौजूद थे। मैं वह जिम्मेदारी उन्हें पूरी करने को कह कर आजाद तो हो गया लेकिन इस जिम्मेदारी से बरी नहीं कि सब कुछ ठीक से संपन्न हो जाए। मैं अपने फूफाजी के पास आ बैठा और बतियाने लगा। वे अपने बड़े बेटे के साथ कोटा से आए थे जो यहीं पड़ोस के मेडीकल कॉलेज अस्पताल में सीनियर स्पेशलिस्ट रेडियोलॉजी है। उसे सप्ताह में दो दिन इमर्जेंसी सेवा के लिए झालावाड़ रहना पड़ता है, एक दिन अवकाश का मिल जाता है, सप्ताह में दो-तीन दिन अदालतों में गवाहियों के लिए जाना पड़ता है। बचा एक दिन उस दिन वह कोटा से आ कर डूयूटी कर वापस चला जाता है। बाकी दिन अस्पताल जूनियर स्पेशलिस्ट से काम चलाता है। हर सरकारी नौकरी में ये अतिरिक्त काम न केवल मूल काम में बाधक हो जाते हैं अपितु काम पर से केन्द्रीयता को हटा देते हैं। पूफाजी से ही पता लगा उन का एक बेटा अब भोपाल से रायपुर स्थानांतरित हो गया है और भिलाई रहता है। वहाँ तो हमारे संपर्क के एक ब्लागर भी हैं। तो हमने दोनों से फोन पर बात की और दोनों को मिलवा दिया। दोनों बहुत प्रसन्न हुए।

उधर सगाई का काम चलता रहा। दूल्हे और उस के परिजनों को सुंदर कपड़ों और उपहार दिए गए। सगाई संपन्न होते ही दूल्हे की दायीं ओर एक चौकी और लगाई गई वहाँ  दुल्हन को बैठाया गया। वहाँ दोनों ने एक दूसरे को अंगूठियाँ पहनाई गईं और दुल्हन की गोद भरी गई। यह समारोह भी संपन्न हुआ। मैं ने फूफाजी को कहा -शादी के पहले तक दूल्हा लेफ्टिस्ट होता है और शादी के बाद दुल्हन (पत्नी)। वे कहने लगे बात सही है। (जारी)

शनिवार, 19 जुलाई 2008

नीन्द की साँकळ उतारो, किरन देहरी पर खड़ी है।

पिछले आलेख पर अब तक जो टिप्पणियां मिलीं हैं, उन से एक बात पर सहमति दिखाई दी, कि अभी हिन्दी ब्लागिरी का शैशवकाल ही है। अनेक को तो पता भी नहीं कि हिन्दी ने भी एक ब्लागीर बालक को जन्म दे दिया है। लेकिन यह संकेत भी इन टिप्पणियों से मिला कि इस बालक ने अपने शैशवकाल में ही जितनी ख्याति अर्जित की है उस से उस के लच्छन पालने में ही दिखाई पड़ने लगे हैं। हमारे ब्लागीरों ने जो नारे उछाले हैं, जिन शब्दों में साहस बढ़ाने और ढाँढस बंधाने के प्रयत्न किए हैं वे कमजोर नहीं हैं। उन्हें प्रेरणा वाक्यों के रूप में प्रयोग किया जा सकता है, जैसे......

  • ब्लॉग्गिंग आएगा और जब ये आएगा तो लोग इसी में पिले रहेंगे जैसे हम ब्लॉगर पिले हुए हैं..... :)
  • जल्द ही वह दिन आएगा जब आप ब्लागिंग पर अपने इंटरव्यू में बताएँगे ..धीरे धीरे इसका नशा सब पर होगा ..:)
  • अजी उन्हे छोड़िए. हम है ना ब्लॉगिंग के बारे में सवाल पूछने के लिए..
  • वो सुबह कभी तो आएगी...जब ब्लोगिगं धूम मचाएगी।
  • जल्द ही एक बडी संख्या इसे जानने लगेगी।
  • सुबह होगी जल्द ही।


ये सभी अच्छे संकेत हैं। अंतरजाल तेजी से बढ़ने वाला है और ब्लागिरी भी। जरूरत है लोगों की जरूरत को समझने की। अगर ब्लागिरी आम लोदों की जरूरत को पूरा करने लगती है तो धीरे-धीरे यह जीवन का आवश्यक अंग बन जाएगी और अच्छे व सिद्धहस्त ब्लागर लोगों को बताने लायक कमाई भी कर सकेंगे।  जिस तेजी से हिन्दी ब्लागीरों की संख्या बढ़ रही है। (औसतन 10 चिट्ठे प्रतिदिन) उस से लगता है। कि पाठकों की संख्या भी बढ़ेगी।
जमाना वह नहीं रहा कि हम में काबिलियत है, जिस को जरूरत होगी हमारे पास आएगा। जमाना इस से बहुत आगे जा चुका है। अब लोगों को जरूरत पैदा की जाती है और अपना माल बेचा जाता है। ब्लागीरों को भी जरूरत पैदा कर पाठक पैदा करने पड़ेंगे। एक ब्लागर चाहे तो कम से कम दस नए पाठक ब्लागिरी के लिए नए ला सकता है और उसे लाना चाहिए। उसे इस के लिए सतत प्रयास करना चाहिए। ब्लागीरों को अपने स्तर को भी सभी प्रकार से उन्नत करते रहना चाहिए, तकनीकी रूप से भी और अपने माल के बारे में भी।

सभी ब्लागीरों को ब्लागिरी से एक लाभ जो हो रहा है वह यह कि वे आपस में जबर्दस्त अन्तरक्रिया कर रहे हैं जिस से उन की क्षमताएँ तेजी से विकसित हो रही हैं। वे लेखन की हों या अपने अपने क्षेत्र की जानकारियों की हों।

आज मेरे स्टूडियों से निकलने के बाद मैं ने कुछ मित्रों को संदेश दिया कि मेरा साक्षात्कार केबल पर प्रसारित होने वाला है। उन में से कुछ ने उसे देखा भी। जिस ने भी देखा उसे खूब सराहा भी। कुछ लोगों ने उसे अनायास देखा। आज अदालत मे अनेक वरिष्ठ वकीलों ने मुझे बधाई भी दी और यह भी कहा कि मेरी क्षमताएँ बहुत विकसित हैं और इस की उन्हें जानकारी नहीं थी। इस साक्षात्कार को सांयकालीन पुनर्प्रसारण में बहुत लोगों ने देखा। पूरे प्रसारण के दौरान और उस के बाद मुझे अनेक मित्रों और परिचितों के फोन आते रहे। आज के एक दिन ने मुझे बहुत बदल दिया। मैंने महसूस किया कि लोगों ने आज मुझे एक भिन्न दृष्टिकोण से देखा जा रहा है। कल जब मैं अदालत पहुँचूंगा तो मुझे और भिन्न दृष्टिकोण से देखा जाएगा।

लेकिन क्या यह आज से दस माह पूर्व हो सकता था? बिलकुल नहीं क्यों कि तब में एक वकील मात्र था। इस ब्लागिरी ने मुझे एक नया आयाम प्रदान किया, एक नया रूप दिया। यदि मैं ने इन दस माहों में 162 आलेख न लिखे होते उन पर आई सैकड़ों टिप्पणियों और दूसरे ब्लागीरों की सैंकड़ों पोस्टों को पढ़ कर सैंकड़ों टिप्पणियाँ नहीं की होतीं तो यह सब नहीं हो सकता था। ब्लागिरी ने मेरी क्षमताओं को विकसित किया। वह लगातार सभी ब्लागीरों की क्षमताओं को विकसित कर रही है।

ब्लागीरों को समाचार पत्रों में स्थान मिलने लगा है। अनेक ब्लागीरों की रचनाएँ समाचार पत्र पुनर्प्रकाशित कर रहे हैं। जल्दी ही वह समय भी आने वाला है कि जब ब्लागिरी और ब्लागीरों की चर्चा टीवी और अन्य प्रचार माध्यमों के लिए एक स्थाई स्तंभ होंगे। ब्लाग आज भी ज्ञान और जानकारी के स्रोत हैं इन का दायरा भी बढ़ेगा और वे प्रचार के माध्यम भी बनेंगे। अभी कुछ अभिनेता ब्लागिरी में आए हैं। लालू जैसे नेता इस में आए हैं। समय आने वाला है जब सभी प्रोफेशन के लोगों के लिए ब्लागिरी एक जरूरी चीज बनेगी। उन की ब्लागिरी से ही उन की क्षमताओं का मूल्यांकन किया जाने लगेगा।

अंत में मैं लावण्या दीदी की टिप्पणी यहाँ पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ जिस में वे कहती हैं.......

आपसे मेरा सविनय अनुरोध है कि आप ब्लोगिंग पर और सिंदुर पर और अन्य विषयों पर दूसरों की चिन्ता किये बिना लिखिये -"वीकिपीडीया की तरह या डिक्शनरी की तरह ये जानकारियाँ आज नहीं आनेवाले समय तक नेट पर कायम रहेंगी और काम आयेंगी- जब आम का नन्हा बिरवा उगा ही था तब किसे पता था कि यही घना पेड बनेगा जिस के रसीले आम बरसोँ तक खाये जायेँगे -ये मेरा मत है ..कोई विषय ऐसा भी होता है जो भविष्य मेँ आकार लेता है, और वर्तमान उसे हैरत से देखता है ..कम से कम, यह मेरा विश्वास है....                           

- लावण्या
18 July, 2008 10:39 PM

और अब मुझे स्मरण हो रही हैं राजस्थानी के कवि हरीश 'भादानी' के एक गीत की मुख्य पंक्तियाँ जो सभी ब्लागीरों को कह रही हैं.....

भोर का तारा उगा है,
जाग जाने की घड़ी है।
नीन्द की साँकळ उतारो,
किरन देहरी पर खड़ी है।