अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बहुत कीमती है, जनतंत्र में आ कर मिली है। कुछ प्रतिबंध भी हैं, लेकिन उन की परवाह कौन करता है? मैं रेलवे की बुक स्टॉल पर सब से ऊपर रखा अखबार देखता हूँ। शीर्षकों में वर्तनी की तीन अशुद्धियाँ दूर से ही दिख गई हैं। मैं अखबार खरीद लेता हूँ। देखना चाहता हूँ अखबारों की दुनिया में आखिर नया कौन आ गया है? मैं एक दो और किताबें खरीदता हूँ, लेकिन देख लेता हूँ कि उन में तो वर्तनी की अशुद्धियाँ नहीं हैं।
पहले तो कोई किताब खरीदना ही नहीं चाहता। हर कोई मांग कर या मार कर पढ़ना चाहता है। एक दो घंटे में पढ़ी जा सकने वाली किताब क्यों खरीदी जाए? पढ़ने के बाद रद्दी जो हो जाती है। फिर खरीदे तो कम से कम ऐसी तो खरीदे जिस में वर्तनी की अशुद्धियाँ नहीं हों। हमने वर्तनी की अशुद्धियों वाली किताबें कम ही देखी हैं। कभी किताब छापने की जल्दी में अशुद्धियाँ रह जाती हैं। उन का शुद्धिपत्र अक्सर किताब में विषय सूची के पहले ही नत्थी होता है। मूर्ख हैं वे, जो अशुद्धियों की सूची इस तरह किताब के पहले-दूसरे पन्ने पर चिपका कर खुद घोषणा कर देते हैं कि किताब में अशुद्धियाँ हैं। वे तो किताब पढ़ने वाले को पढ़ने पर पता लग ही जाती हैं। हर पाठक को लेखक की संवेदना का ख्याल रखता है। वह लेखक-प्रकाशक को कभी नहीं बताता कि उस की किताब में गलतियाँ हैं, बस इतना करता है कि उस लेखक प्रकाशक की किताब खरीदना बंद कर देता है। भला पैसे दे कर गलतियों वाली किताब खरीदने में कोई आनंद है?
ब्लागिंग मजेदार चीज है। इसे पढ़ने के लिए खरीदना नहीं पड़ता। बस यूँ ही नेट पर लोग पढ़ लेते हैं। यहाँ कुछ भी लिख दो, वह जमा रहता है, तब भी, जब कोई पढ़े और तब भी जब कोई न पढ़े। यहाँ अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता है। ब्लागर वर्तनी की अशुद्धियों से बे-चिंत हो कर टाइप कर सकता है, और प्रकाशित भी कर सकता है। हिन्दी में तो यह काम और भी आसान है। राइटर में वर्तनी की अशुद्धियाँ बताने वाला टूल ही गायब है। हिन्दी को उस की जरूरत भी नहीं है। लोग उस के बिना भी अपनी संवेदनाओं को ट्रांसफर कर सकते हैं। वे लोग निरे मूर्ख हैं जो इस तरह वर्तनी की अशुद्धियाँ जाँचने के टूल बनाते हैं।
प्राइमरी की छोटी क्लास में वर्तनी की एक अशुद्धि पर डाँट मिलती थी। पाँचवी तक पहुँचते-पहुँचते वह मास्टर जी के पैमाने से हथेली पर बनी लकीर में बदल गई। मिडिल में पहुँचते पहुँचते हम वर्तनी की अशुद्धियों को देखने से वंचित हो गए। वे किसी किताब में मिलती ही नहीं थी। आठवीं के विद्यार्थी छुपा कर कुछ छोटी-छोटी किताबें लाते थे और दूसरों को पढ़ाते थे। सड़क पर बैठा बुकसेलर उन किताबों को के जम कर पैसे वसूल करता था। उन में चड्डी के नीचे के अंगों और उन के व्यवहार के बारे में महत्वपूर्ण सूचनाओं की अभिव्यक्ति वर्तनी की भरपूर त्रुटियों के साथ होती थी। छात्र अक्सर वर्तनी की अशुद्धियाँ पढ़ने के लिए ही उन किताबों को पढ़ते थे और मध्यान्ह नाश्ते के लिए घर से मिले पैसे आठवीं के उन विद्यार्थियों को दे देते थे।
हर पाठक को लेखक की संवेदनाओं का पूरा खयाल रखना चाहिए। चाहे वह किताब में हो, अखबार में हो, इंटरनेट के किसी पेज पर हो या फिर ब्लागिंग में हो। कोई ऐसी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए जिस से कोई मासूम लेखक-ब्लागर की संवेदना को चोट पहुँचे, पाठक की संवेदना को पहुँचे तो पहुँचे। अब कोई भूला भटका अगर टिप्पणी से लेखक-ब्लागर की संवेदना को चोट पहुँचा भी दे तो उसे जरूर एक आलेख लिख कर पाठकों को आगाह कर देना चाहिए कि आइंदा वे टिप्पणी कर के ऐसा न करें। पाठक की संवेदना का क्या ? उसे चोट पहुँच जाए तो इस की जिम्मेदारी लेखक-ब्लागर की थोड़े ही है। पाठक खुद चल कर आता है, पढ़ने के लिए। उसे किसने पढ़ने का न्यौता दिया? अब वह आता है तो अपनी रिस्क पर आता है, पढ़ने से उस की संवेदनाओं को पहुँचने की जिम्मेदारी लेखक-प्रकाशक की थोड़े ही है।
अब हम वकील हैं, सलाहकारी आदत है। कोई उस के लिए पैसे ले कर आता है तो तत्पर हो कर करते हैं। पर जब कोई नहीं आता है तो आदतन बाँटते रहते हैं। इसलिए इस आलेख के उपसंहार में भी एक सलाह दिए देते हैं, वह भी बिलकुल मुफ्त। इस से आप की संवेदनाओं को चोट पहुँचे तो इस की कोई गारंटी नहीं है। आप चाहें तो इस आलेख को यहीं पढ़ना छोड़ सकते हैं।
(सलाह के पहले एक छोटा सा ब्रेक, जो सलाह न चाहें वे अपना ब्राउजर बंद कर सकते हैं)
सलाह ............
जो हर लेखक को अपनी किताब के पहले पन्ने पर और हर ब्लागर को ब्लाग के शीर्षक के ठीक ऊपर यह चेतावनी टांक देनी चाहिए....
"इस ब्लाग में वर्तनी की अशुद्धियों से किसी पाठक की संवेदना चोटिल होने पर लेखक-प्रकाशक की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी"
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