@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शनिवार, 13 दिसंबर 2025

'साख'

'लघुकथा'

अदालत का काम पूरा होते ही पदार्थीजी ने अपने भीतर एक अजीब हलकापन महसूस किया. जैसे किसी भारी बोझ को उतार दिया हो. बाहर गर्मी और उमस का आलम था, हवा ठहरी हुई, पसीने की महीन बूंदें कनपटी से बहकर कॉलर तक पहुँच रही थीं. दिन भर की थकान अब उनके कदमों में उतर आई थी.

उन्होंने सहायक को बस्ते समेटने को कहा और पार्किंग की ओर बढ़े. कार स्टार्ट होते ही विविध भारती का प्रसारण गूँज उठा. फिल्मी गीतों के बीच बुनी हुई कहानी, और फिर अचानक एक पुराना सुरीला गाना. सारंगी की झंकार जैसे कार की खिड़की से बाहर फैल रही थी, और शब्द भीतर कहीं पुराने घाव कुरेद रहे थे.

गाड़ी गेट नं. 1 पर पहुँची. सहायक का इंतजार करते हुए पदार्थीजी का मन रेडियो की कहानी में डूबा हुआ था. तभी सड़क के उस पार खड़ा ट्रैफिक सिपाही दिखा. उसकी भंगिमा से लगा कि वह किसी वाहन को रोकने वाला है. पदार्थीजी को क्षणभर लगा कि कहीं वह उनसे ही न कह दे, “गाड़ी आगे लगाइए.” लेकिन सिपाही ने पास के स्कूटर वाले को ही टोक दिया. शायद उसने पहचान लिया था कि वकील साहब अब घर लौट रहे हैं.

गाना थम गया, कहानी फिर आगे बढ़ी. तभी सहायक आ पहुँचा, बस्ता पिछली सीट पर रखा और सामने की सीट पर आकर बैठ गया. वह आज बयान कमिश्नर के रूप में गवाह का बयान दर्ज कर के आया था. उसने उसी का किस्सा सुनाना शुरू किया, “कैसे एक जूनियर वकील को उसके ही पिता के शिष्य ने चालाकी से बेवकूफ बनाया और अपने पक्ष के बयान दर्ज करवा लिए.


पदार्थीजी का मन अब दो कहानियों में झूल रहा था, एक रेडियो की कहानी और दूसरी सहायक की. सहायक बोल रहा था, और रेडियो अपनी धुन में कहानी कहे रहा था. उन्होंने सहायक की ओर देखा और कहा, “बयान कमिश्नर का काम गवाह की बात लिखना है, न कि वकील की व्याख्या. जब शब्द निष्पक्ष नहीं रहते, तो न्याय भटक जाता है.”

रेडियो की कहानी भी अपने अंतिम मोड़ पर थी, अभिनेता ने मंच पर नाटक खेलकर पिता और समाज को आईना दिखाया. उसका संवाद गूँजा,

“न्याय वही है जो सबके लिए समान हो, चाहे वह प्रेम हो या कानून.”

पदार्थीजी ने गहरी साँस ली. उन्हें लगा जैसे रेडियो की कहानी, सहायक का किस्सा और सड़क पर खड़ा सिपाही, तीनों एक ही बात कह रहे हों.

न्याय केवल प्रक्रिया नहीं है, वह ऐसी साँस है जो सब को बराबरी से मिलनी चाहिए.

गाड़ी अब पदार्थी जी के घर के सामने थी. संगीत थम चुका था. उन्होंने सहायक से कहा, “आज की सीख यही है,” कहानी हो या अदालत, शब्दों की सच्चाई ही सबसे बड़ा न्याय है. आज से जब भी तुम कमिश्नर ड्यूटी करो, गवाह को ध्यान से सुनो, उसका कहा ही लिखो, किसी पक्ष के वकील का सुझाया हुआ नहीं, वरना न्याय मरने लगेगा. इससे तुम पर अदालत, वकीलों और पक्षकारों का विश्वास बढ़ेगा, तुम्हारी साख कायम होगी. अन्यथा लोग तुम्हें भी उन बहुतेरे वकीलों में शामिल कर लेंगे जो अपनी ‘फीस’ ले कर कुछ भी कर सकते हैं.”

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2025

बधाई हो


अदालत की इमारत उस दिन जैसे मुस्करा रही थी. बरसात में महीनों तक छत टपकती रही, फाइलों पर पानी की बूंदें गिरती रहीं, और मरम्मत के लिए एक चिट्ठी बमुश्किल पीडब्ल्यूडी तक पहुँची. पर आज माहौल अलग था—जैसे दीवारों से सीलन उतर गई हो, जैसे गलियारों में धूप उतर आई हो.

खबर थी, “जज साहब का तबादला हो गया और साथ ही उन्हें रिटायरमेंट के चन्द महीनों पहले डिस्ट्रिक्ट जज बना दिया गया था.”
 
इस खबर से अदालत की दरारों में फँसी नमी तक मानो राहत की साँस ले रही थी. जज साहब वही थे जिनके बारे में मजदूरों और अभियुक्तों की दुनिया में एक ही कहावत चलती थी, "अगर तुम्हारा मामला इनके पास है, तो समझो तुम्हारा पक्ष पहले ही हार गया." दीवानी मामलों में सरकार के खिलाफ़ तब तक फैसला नहीं दिया जब तक कि सरकार की तरफ से पैरवी ही नहीं की गयी हो या फिर ऐसा करना बिल्कुल असंभव हो गया हो. फौजदारी मुकदमों में बरी होना तो मानो अपराध ही था. उनकी अदालत में अभियुक्त को खुद को पाक-साफ़ साबित करना पड़ता था, अभियोजन को कुछ भी साबित करने की ज़रूरत नहीं थी.

फिर जब श्रम न्यायालय में नियुक्त हुए तो मजदूरों की हालत और भी पतली हो गई. एक तो पहले ही उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों ने कानून की पुनर्व्याख्याएँ कर-कर के श्रमिक को सामाजिक न्याय प्रदान करने वाले कानून के झुकाव की दिशा नियोजक पक्ष की ओर मोड़ दी थी, दूसरे इन जज साहब का सोचना कमाल का था. जो कुछ साबित करना है वह मजदूर को ही साबित करना है. वे मजदूर के पक्ष को मजबूत करने वाले दस्तावेजों को जो नियोजक के कब्जे में होते अदालत में पेश करने का आर्डर कभी नियोजक को न देते. फैसले में लिखते यह मजदूर का दायित्व था. मजदूर सोचने लगे थे कि वे इन दस्तावेजों के लिए नियोजक के यहाँ चोरी करें या डाका डालें? नियोजक का पक्ष चाहे कितना भी खोखला हो, मजदूर को राहत मिलना ऊँट के मुहँ में जीरा ही साबित होता. मजदूर की गवाही अदालत की दीवारों तक पहुँचने से पहले ही दम तोड़ देती.

अब जब उनका तबादला हुआ और वे जिला जज बन गए, तो मजदूरों और उनके वकीलों ने राहत की साँस ली. अदालत के गलियारों में जज साहब के लिए बधाइयों की बौछार थी, "बधाई हो साहब बधाई.” मन ही मन बधाई देने वाला कह रहा होता, “अब हम भी चैन की नींद सो पाएंगे."
 
तबादला आदेश आने के तीन दिन बाद जज साहब ने रुखसत ली. वकील लोग आपस में एक दूसरे से पूछते, “फेयरवेल का क्या करें?” तो जवाब में फिर सवाल मिलता, “अब बधाई के चार शब्द बोल दिए वही क्या कम हैं? दूसरे जजों की तरह कर्मचारियों ने साहब के माथे टीका लगा कर माला पहनाई, मिठाई, कचौड़ियों और चाय से जलपान करवा कर फेयरवेल दिया. वकीलों की ओर से कोई विदाई समारोह नहीं हुआ, बस एक सामूहिक मुस्कान थी, जैसे किसी भारी बोझ से मुक्ति मिल गई हो.

जज साहब इस अदालत की अपनी कुर्सी से अन्तिम बार अत्यन्त खुश हो कर उठे, सोचते रहे कि जाते जाते उन्हें जिला जज बनने का मौका मिल ही गया. एक तरह से प्रमोशन ही समझो. लोगों ने इतनी बधाइयाँ दी जितनी इससे पहले उन्हें कभी नहीं मिलीं. यह कोई कम उपलब्धि नहीं थी.
 
अदालत के बाहर मजदूर और वकील आपस में फुसफुसा रहे थे, “आखिर साहब चले ही गए, अब शायद न्यायालय में न्याय भी लौट आए."

गुरुवार, 11 दिसंबर 2025

रैंप और गंगा

लघुकथा
सभागार में रोशनी झिलमिला रही थी.
रैंप पर कदमों की खटखटाहट, जैसे सदियों की चुप्पी पर चोट.

दरवाज़ा धड़ाम से खुला.
कुछ पुरुष भीतर घुसे, आवाज़ें गूँजीं गूंजने लगीं.

पहली पुरुष आवाज थी, "मॉडलिंग खत्म, घर जाओ. संस्कृति बचाओ."
यह आवाज गंगा की धारा को रोकने की कोशिश थी.

प्रतियोगी एक ने मुस्कराकर उत्तर दिया, "संस्कृति इतनी नाज़ुक है अगर, तो दुकानों से पश्चिमी कपड़े हटाइए."

तभी दूसरे पुरुष की आवाज गूंजी, उसमें गुस्सा भरा था. "सभ्यता ऐसे कपड़ों से टूटती है."

प्रतियोगी दो की आँखें चमकी और उसने अपने महीन स्वर में कहा, "और आप कौन हैं यह तय करने वाले, कि सभ्यता किससे टूटेगी?"

हॉल में सन्नाटा छा गया.

पुरुषों की आवाज़ें धीरे-धीरे खोने लगीं.

प्रतियोगी तीन का दृढ़ स्वर गूंजा, "हम यहाँ कपड़े दिखाने नहीं आए, हम अपने सपने सुनाने आए हैं."

रैंप अब लकड़ी का फर्श भर नहीं था.
अब वह एक पुल था, जिस पर से महिलाएँ अपने सपनों को समाज के उस पार ले जा रही थीं.
ऊँची एड़ी की खटखटाहट गूंजी, वह थी साहस की ऊँचाई.
हर कदम एक घोषणा, "हम पीछे नहीं हटेंगे."

बाहर गंगा बह रही थी, उसकी लहरें गा रही थी,
"संस्कृति वही है जो बहती रहती है ...
रुकती नहीं."

बुधवार, 10 दिसंबर 2025

अमूल्य घोड़ा

लघुकथा

अरब में एक साईस था, जो एक अमीर के घोड़ों की देखरेख करता था. अमीर के पास एक से एक बेहतरीन घोड़े थे. साईस की भी इच्छा थी कि उसका अपना घोड़ा हो, पर उसके पास इतना धन नहीं था. आखिर अपनी बचत से उसने मेले से एक घोड़े का बच्चा खरीदा और उसे बेटे की तरह पाला. वह उससे बातें करता, उसे दुलारता और अपनी सारी कमाई उसी पर खर्च करता.

जब घोड़ा जवान हुआ तो साईस को लगा कि ऐसा घोड़ा पूरे अरब में नहीं होगा. उसने सोचा कि इसकी असली पहचान तो मेले में ही होगी जहाँ सारे अरब से घोड़े आते हैं. अमीर से अवकाश लेकर वह अपने घोड़े को मेले में ले गया.

मेले में सबसे महंगे घोड़े की कीमत देखकर उसने अपने घोड़े की कीमत (टैग-प्राइस) उससे भी सवाई रख दी. लोग घोड़ा देखने आते, पर कीमत देखकर लौट जाते. तभी एक अमीर ने बोली लगाई. फिर दूसरा अमीर आया और उसने उससे अधिक बोली लगाई. इस तरह कीमत बढ़ती गई और टैग से भी दुगनी हो गई. जैसे जैसे उसकी कीमत बढ़ती जाती साईस का दिल डूबने लगता कि, मेरा बेटा मुझ से छिन जाएगा.

साईस मन ही मन सोचने लगा, ... "मैंने तो कीमत अपनी इच्छा से तय की थी, पर असली कीमत तो वही है जो लोग देने को तैयार हैं. मालिक की चाह अलग है, पर असली मूल्य बाजार ही तय करता है."

आखिरकार पहला अमीर मैदान छोड़ भागा और दूसरा अमीर खुश हुआ कि उसने पहले वाले अमीर को मात दे दी. पर जब मेले के अधिकारी ने रकम जमा करने को कहा तो वह अमीर बोला, "मैंने घोड़ा खरीदना नहीं है, मुझे तो बस दूसरे को पछाड़ने का सुख चाहिए था."

साईस बहुत खुश हुआ कि उसका बेटा-सा घोड़ा अब उसके पास ही रहेगा. वह अपने बेटे को साथ ले कर अमीर के पास लौटा. अमीर ने घोड़ा देखकर पूछा, "यह घोड़ा तुम लाए हो?"

साईस ने विनम्रता से कहा, "हुजूर, मेरी इतनी हैसियत कहाँ कि ऐसा घोड़ा खरीद सकूं. यह घोड़ा मैंने ही पाल-पोसकर अपने बेटे की तरह बड़ा किया है. मेले में इसकी कीमत मैंने सबसे महंगे घोड़े से सवाई रखी थी. पर दो रईस आए और बोली लगाने लगे. आखिर मेरी बताई कीमत से दुगने तक पहुँच गए. अचानक एक रईस ने बोली छोड़ दी. दूसरे ने इसे लेने से इन्कार कर दिया कि मैं तो बस दूसरे अमीर को पछाड़ना चाहता था. मेरा मकसद पूरा हुआ. यह कह कर वह मेला छोड़ कर चला गया.


कुछ रुक कर साईस ने फिर कहा, "असली कीमत वही बनी जो बाजार ने तय की. मैं खुश हूँ कि मेरा बेटा मेरे पास है. मैं इसे वापस ले आया हूँ. इसे आप मेरी ओर से नजराना समझ रख लीजिए. मैं इसी में खुश हूँ कि यह हमेशा मेरे पास रहेगा."

रईस ने खुश हो कर कहा, “भले ही मेले में इस घोड़े की कीमत सबसे अधिक लगी हो, लेकिन यह घोड़ा बेशकीमती ही नहीं, बल्कि अमूल्य है. इसकी कोई कीमत नहीं, जिसे कोई बाप की तरह प्यार करे उसकी कोई कीमत नहीं होती. यह घोड़ा तुम्हारा है और हमेशा तुम्हारा ही रहेगा. आज से यह इस घुड़साल में सबके साथ रहेगा."

मंगलवार, 9 दिसंबर 2025

'पतंगबाज'

'लघुकथा'

रमन अपने दफ्तर जाने के लिए बस-स्टॉप पर खड़ा हो कर बस की प्रतीक्षा कर रहा था. तभी उसकी नजर सड़क के उस पार सामने वाले बस-स्टॉप के निकट फुटपाथ पर बैठे बच्चे पर पड़ी. यह बच्चा पास ही किसी झुग्गी में रहने वाले परिवार से दिखाई पड़ता था. उसने एक पुरानी गंदी निक्कर और पुरानी टी शर्ट पहने था. उसके पास एक लूटी हुई पतंग थी, जो किनारे से थोड़ी फटी थी। उसके पास लूटे हुए लेकिन उलझे हुए धागों के कुछ गुच्छे थे और पतंग के ऊपर रखी एक पुरानी चरखी भी. वह उन लूटे धागों के एक गुच्छे को सुलझा रहा था.

फुटपॉथ पर से गुजरने वाले लोग उस बच्चे को देखते और हँसते हुए गुजर जाते. शायद सोचते कि बच्चा इतनी मेहनत के बाद भी पतंग शायद ही उड़ा पाए, उड़ा कर खुश भी हो लेगा तो पेंच लड़ाने की तो कभी सोच भी न सकेगा.

कुछ देर बाद रमन ने देखा, उसने वह गुच्छा सुलझा लिया था और अब वह अपनी चरखी पतंग के ऊपर से उठा कर उस पर सुलझा हुआ धागा लपेट रहा था. तभी चरखा का वजन हट जाने से उसकी हरे पीले रंग की पतंग हवा के झोंके के साथ उड़ कर सड़क पर आ गयी। बच्चा चरखी वहीं रख तुरन्त पतंग उठाने दौड़ा. पतंग फिर उड़ी और एक स्कूटर का पिछला पहिया उस पर से गुजर गया। पतंग की हालत और खराब हो गयी. बच्चे ने फिर भी उसे न छोड़ा और उसे उठा कर वापस अपनी जगह जा बैठा. अब वह पतंग को देख रहा था कि उसकी हालत कैसी है. उसने पतंग को फिर से पास रख कर उस पर चरखी रख दी और धागों का दूसरा गुच्छा सुलझाने में तल्लीन हो गया. शायद उसे विश्वास हो गया था कि वह पतंग और डोर को फिर से उड़ाने योग्य बना लेगा. रमन की बस आ गयी थी. वह उसमें बैठा और दफ्तर के लिए रवाना हो गया.

शाम को दफ्तर से छूट कर रमन उसी रास्ते से वापस लौटा. अपने बस स्टॉप पर उतरते ही उसे सुबह वाले बच्चे का ध्यान आया. उसकी निगाह उस स्थान पर पड़ गयी जहाँ सुबह वह बच्चा बैठा था. यह जगह उसके बिलकुल नजदीक थी. अब बच्चा वहाँ नहीं था. तभी उसकी निगाह पास के स्कूल के सामने के मैदान पर पड़ी.
स्कूल की छुट्टी हो चुकी थी. वहाँ कुछ बच्चे खेल रहे थे, कुछ पतंग उड़ा रहे थे. मैदान के कोने पर खड़ा सुबह वाला बच्चा उसी मरम्मत की हुई हरी पीली पतंग को उड़ा रहा था. उससे छोटे एक बच्चे ने उसकी चरखी थाम रखी थी. रमन मुस्कराकर अपने घर की ओर चल दिया.

मकर संक्रान्ति का दिन था. पूरे शहर में पतंगें उड़ायी जा रही थी. रमन जिस बिल्डिंग में रहता था उसमें कुल सोलह अपार्टमेंट थे, सबसे ऊपर छत थी, संक्रान्ति के दिन अपार्टमेंट वाले उसी छत से पतंग उड़ाते. दोपहर बाद रमन बाजार से तिल के लड्डू लेकर लौटा ही था कि बिल्डिंग के प्रवेश द्वारा पर वही पतंग वाला बच्चा एक और छोटे बच्चे के साथ खड़ा दिखायी दिया. छोटे बच्चे के हाथ में चरखी थी तो बड़े ने तीन चार सुधारी हुई पतंगें पकड़ रखी थीं. वे दोनों चौकीदार से कह रहे थे, “अंकल जी आपकी छत से पतंग उड़ा लें.”

चौकीदार उसे अंदर घुसने नहीं दे रहा था. रमन को लगा कि आज बच्चे का हुनर जरूर देखना चाहिए. उसने चौकीदार से कहा बच्चों को जाने दो. बच्चे ने चौकीदार की प्रतिक्रिया का इन्तजार के बिना तुरन्त अंदर सीढ़ियों की ओर भागे. कुछ देर बाद वे छत पर थे.

घंटे भर बाद जब रमन छत पर पहुँचा तो उसने देखा कि बच्चा छत पर पतंग उड़ा रहा है. उसकी चरखी बिल्डिंग के ही एक बच्चे ने पकड़ रखी है. तीन चार बच्चे उससे कह रहे हैं कि पास की नीली वाली पतंग पर पेंच डाल दे. तभी बच्चे की पतंग ने उस नीली पतंग पर पेंच डाला और दो ही सेकंड में नीली पतंग कट कर हवा में डोलती हुई नीचे गिरने लगी. छत पर सारे बच्चे हुर्रे करते हुए नाच रहे थे. वह पतंगबाज बच्चा उन सब का हीरो बना हुआ था. रमन को छत पर देख उसका बेटा पास आया और बोला, “ये बच्चा छीतर पतंग उड़ाने में माहिर है, उसने अपने पुराने लूटे हुए मांजे और लूटी हुई पतंगों से तीन पतंगें काट डाली हैं। पक्का पतंगबाज है. रमन उसकी बात सुन कर मुस्कराते हुए पतंगबाज का हौसला बढ़ाने वालों में शामिल हो गया.

सोमवार, 8 दिसंबर 2025

सर्वप्रिय भगवान

लघुकथा
गाँव के चौक में वह आदमी रोज़ खड़ा होता. उसकी आवाज़ में धर्म का जादू था और थी साम्प्रदायिकता की आग. वह लोगों में नफरत बाँटता. लोग उसे सुनते, झूमते, और धीरे-धीरे उसे अपना पथ प्रदर्शक मानने लगे. उसके पीछे चलने लगे. उस आदमी का नाम था ‘सर्वप्रिय’.

लोगों ने सर्वप्रिय को अपने कंधों पर उठा लिया. कंधों पर बैठ वह नगर पहुँचा. वहाँ भी धीरे धीरे लोग उसके पीछे हो लिए और उसे अपने कंधों पर उठाया.
 
वह प्रान्त की राजधानी पहुँचा. फिर इसी तरह वह एक दिन कंधों पर बिठा कर पहाड़ पर बसी देश की राजधानी पहुँचा दिया गया. वह पहाड़ की चोटी पर बैठ देश पर राज करने लगा.
 
उसे कंधों पर ढोने वाले उसे भगवान कहने लगे. इस तरह सर्वप्रिय भगवान हो गया.

लेकिन, धीरे-धीरे समाज टूटने लगा. नफरत ने समाज को अनेक हिस्सों में बाँट दिया.
• पड़ोसी दुश्मन बन गए.
• मज़दूरों की रोज़ी छिन गई.
• बच्चों की दोस्ती दीवारों में कैद हो गई.
• स्त्रियाँ भय में जीने लगीं.

इन आपदाओं से पीड़ित वही आम लोग थे, जिनमें से कुछ ने उसे कंधों पर उठाया था. उसे गाँव से देश की राजधानी की सबसे ऊँची चोटी पर बिठाया था. जिन्हें शांति चाहिए थी, रोटी चाहिए थी, और सम्मान चाहिए था. उनकी पीड़ा का असली जिम्मेदार वही था, जो धर्म और साम्प्रदायिकता को औज़ार बनाकर बाँट रहा था.

कुछ लोग शुरू से ही सच बोलते रहे. वे कहते—"यह भगवान नहीं, समाज का शत्रु है."

भीड़ ने उसे गद्दार कहा.

समय बीतता गया. पीड़ा गहरी होती गई. और एक दिन, पीड़ितों की आँखों से पर्दा हटने लगा. उन्होंने देखा कि उनका भगवान दरअसल उनके दुखों का व्यापारी है.

भीड़ ने पछतावे और गुस्से में कहा, "जिन्हें हमने गद्दार कहा, वही हमें रास्ता दिखाने वाले थे!"
चौक में भीड़ फिर इकट्ठी हुई. इस बार तालियाँ नहीं बजीं. हाथ उठे, और भगवान का मुखौटा टूट गया.
सर्वप्रिय का अंत हुआ.

... और समाज ने पहली बार राहत की साँस ली, जैसे किसी लंबे नशे से जागकर होश में आया हो.

रविवार, 7 दिसंबर 2025

आपदा में अवसर

लघुकथा

खूब बरसात हुई थी. नदी का पानी गाँव में घुस गया.

निचली पट्टी के घर डूब गए, कपड़े-बरतन बह गए, बच्चे भूखे थे.

नेता जी अफसर, बाबू और दो चपरासियों के साथ नाव पर आए. बोले, “घबराइए मत! सरकार आपके साथ है. राहत सामग्री पहुँचेगी, नए घर बनेंगे.”

गाँव वाले थोड़े आश्वस्त हुए.

फिर नेता जी मुस्कराए,

“देखिए भाइयों-बहनों, हर आपदा में अवसर छिपा होता है. पुल टूटा है, नया बनेगा. सड़क बह गई है, अब और चौड़ी बनेगी. आपको काम मिलेगा, जेबों में पैसा आएगा. जिनके कच्चे घर टूटे हैं, वे पक्के बनेंगे. हम इसकी योजना बनाएंगे.”

गाँव वाले दुःख में भी प्रसन्न हो गए. कुछ ने कहा, “साहब, अभी हम भूखे हैं.”

नेता जी ने आश्वासन दिया,

“भोजन की व्यवस्था हमने कर दी है, अभी पहुँचेगा.”

तभी जमींदार और महाजन पहुँचे, उनके घर ऊँचाई पर बने थे,जहाँ बाढ़ का पहुँचना संभव न था.

नेता जी ने पूछा, “आपके घर तो सुरक्षित हैं?”

जमींदार बोला,“हुजूर, कहाँ? फसलें नष्ट हो गईं, जानवर बह गए. आप खुद देख लीजिए.”

नेता जी जमींदार की गढ़ी पहुँचे. वहाँ कत्त बाफले बन रहे थे.

नेता जी ने कहा, “जब तक बाढ़ का पानी नहीं उतरता, गाँव वालों की मदद करनी होगी. पहले पूरी-सब्जी बनवाइए और स्कूल में शरण लिए लोगों को भेजिए. आपके नुकसान की भरपाई बीमा कर देगा.”
जमींदार हाथ जोड़ बोला, जो हुक्म सरकार.
महाजनों से सामान आया, ब्राह्मणों ने सब्जी-पूरी बनाई.

गाँव वालों को भोजन मिला, पर वे समझ गए कि यह मदद उनकी ही मेहनत और ब्याज की कमाई से आई है.
इस बीच नेता जी और अफसरों ने जमींदार के यहाँ कत्त बाफले की दावत उड़ाई.

दो माह बाद जमींदार उपहारों के साथ नेता जी के घर पहुँचा. बोला, “हुजूर, टेंडर पास हो गया है. पुल और सड़क का काम हमें मिला है.”

नेता जी मुस्कराए, “देखा! आपदा में अवसर.”

अगली बरसात आने को थी.

पुल और सड़क की मरम्मत बिखरने लगी थी. नए पुल और चौड़ी सड़क की योजना अब भी कागज़ पर थी. गाँव वालों के घर टूटे ही थे. राहत का वादा केवल कागज़ पर था.

गाँव वालों ने समझ लिया—आपदा उनकी थी, अवसर दूसरों का.

शनिवार, 6 दिसंबर 2025

"मकौले का भूत"

लघुकथा
दो दोस्त अर्जुन और सलीम यूनिवर्सिटी गार्डन में बरगद के नीचे बैठे चर्चा में लीन थे. दोनों इतिहास के विद्यार्थी, दोनों ही अपने-अपने तर्कों के हथियार से लैस.

बात लॉर्ड मकौले की शिक्षा योजना पर हो रही थी.

अर्जुन कह रहा था, "सलीम, अगर मैकाले की शिक्षा न होती, तो हम आज भी संस्कृत के श्लोकों और अरबी की आयतों में उलझे रहते. रेल, उद्योग, संविधान—सब अंग्रेज़ी शिक्षा से ही आए."

सलीम उसके कथन पर हँस पड़ा, "वाह! तो तुम कहना चाहते हो कि हमारी सारी भाषाएँ सिर्फ़ पूजा-पाठ और ग़ज़ल सुनाने के काम की थीं? संस्कृत में गणित नहीं था? फारसी में साहित्य नहीं था? अरबी में चिकित्सा नहीं थी? यह तो वही मकौले का तर्क है, ‘तीस फ़ीट के राजा और मक्खन का समुद्र’. ... न जाने कब भारत पर से मकौले का भूत विदा लेगा."

अर्जुन मुस्कराया और बोला, "अगर अंग्रेज़ी न होती, तो संसद में आज भी चार भाषाओं में बहस होती. एक मंत्री संस्कृत में बोलता, दूसरा अरबी में, तीसरा फारसी में, चौथा हिन्दुस्तानी में. जनता ताली बजाती—‘वाह, क्या विविधता है!’ लेकिन निर्णय लेने में सालों लग जाते."



"और आज क्या है?” सलीम ने पलटकर व्यंग्य किया. “मंत्री अंग्रेज़ी में बोलते हैं, जनता समझती नहीं, फिर भी ताली बजाती है. ‘वाह, क्या आधुनिकता है!’ फर्क सिर्फ़ इतना है कि पहले हम अपनी भाषा में बेखबर रहते, अब पराई भाषा में. यही तो गुलामी है."

बोलते बोलते सलीम गंभीर हो चला था, "हमारी भाषाओं में संस्कृति का अध्ययन था. वेदांत, सूफ़ी साहित्य, ग़ज़लें, दोहे; ये सब हमारी आत्मा थे. अंग्रेज़ी ने हमें उनसे काट दिया. आज बच्चे शेक्सपियर तो पढ़ते हैं, पर कबीर को नहीं. यही तो समस्या है."

सलीम को गंभीर होते देख अर्जुन शान्त स्वर में बोला, "संस्कृति बेहद ज़रूरी चीज है, किन्तु आधुनिकता भी उतनी ही जरूरी चीज है. अंग्रेज़ी ने हमें दुनिया से जोड़ा. इसी भाषा में हमने स्वतंत्रता और जनतंत्र के अर्थ सीखे और अपनी भाषाओं में अपनी संस्कृति के साथ चलते हुए आजादी के संघर्ष को आगे बढ़ाया. हमने इसी संगम को साथ लेकर आजादी हासिल की. हमने अंग्रेजी में हमने संविधान क्यों लिखा? क्योंकि अंग्रेजी में इंटरप्रिटेशन के नियम स्थिर थे, हम किसी भी अन्य भाषा में इसे लिखते तो उसकी अनेक व्याख्याएं होतीं. संविधान और कानून को प्रभावी बना पाना दुष्कर हो जाता. आज अंग्रेजी के कारण ही ह, वैश्विक मंच पर अपनी बात को मजबूती के साथ रख पाते हैं. हमारी भाषा और बोली पूरी दुनिया में कहीं भी अजनबी नहीं रहती है. और फिर संस्कृति कोई तालाब का ठहरा हुआ पानी नहीं. वह बहती हुई गंगा है जिसका रूप गंगोत्री में अलग है तो हरिद्वार में अलग, काशी में अलग तो प्रयाग में और अलग, गया में उसका रूप फिर बदलता है तो गंगासागर में बिलकुल अलग हो जाता है. संस्कृति में से बहुत कुछ हम सहेजते हुए चलते हैं, लेकिन पुराने पिछड़े मूल्यों को छोड़ते जाते हैं और उनमें नए आधुनिक और प्रगतीशील मूल्यों को जोड़ते जाते हैं. हम इतिहास के विद्यार्थी हैं, हम क्या नहीं जानते कि भारत की संस्कृति एक सी नहीं रही. वह हर युग में बदली है और बदलती रहेगी. ”

अर्जुन कुछ रुकता है तभी सलीम अपनी हाथ घड़ी में समय देख कर कहता है, “अब मैं चलूंगा, अम्मी को डाक्टर के यहाँ ले जाना है.” दोनों चल देते हैं.

उधर टीवी चैनलों पर बहस चल रही है, “हमें मैकाले की शिक्षा और अंग्रेज़ी को छोड़ना चाहिए." यह बहस अंग्रेज़ी में प्रसारित हो रही है.

आईटी दफ़्तरों में कर्मचारी कहते हैं, "हमें अपनी भाषा पर गर्व है." उसके तुरंत बाद ईमेल अंग्रेज़ी में लिखते हैं और कोडिंग तो बिना अंग्रेजी के संभव ही नहीं.

संसद में नेता कहते हैं, "हमें भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देना चाहिए" इसके बाद प्रेस कांन्फ्रेंस अंग्रेजी में कह रहै हैं.

विश्वविद्यालय में छात्र नारा लगाते हैं, "हिन्दी हमारी शान है." लेकिन अपना रिज़्यूमे अंग्रेज़ी में बनाते हैं.

दो दिन बाद दोनों मित्र फिर उसी उद्यान में फिर बैठे हैं. सलीम कह रहा है, "प्रधान मंत्री तक कहते हैं कि हमें उस गुलामी को समाप्त करना है, जिसकी नींव अंग्रेजों ने रखी है. अंग्रेज़ी ने हमें मानसिक रूप से बाँध दिया है."
जवाब में अर्जुन ने व्यंग्य किया, "हाँ, और वही प्रधान मंत्री विदेश जाते हैं तो अंग्रेज़ी में भाषण देते हैं. यही विडंबना है, गुलामी को कोसते हैं, पर उसी भाषा से दुनिया को प्रभावित करते हैं."

अर्जुन की कुछ देर चुप बैठा रहा. सलीम कुछ नहीं बोला रहा था. अर्जुन ने चुप्पी तोड़ी, “अम्मी कैसी हैं? डाक्टर ने क्या कहा.”

नहीं अर्जुन भाई, अम्मी ठीक हैं, बस डाक्टर ने महीने भर बाद एक बार दिखाने को कहा था इसलिए जाना पड़ा. अब तो दवाओं में बस एक गोली रह गयी है, बाकी सब बन्द कर दी हैं.”

“चलो अम्मां की ओर से कुछ तो निश्चिन्तता हुई. तुम भी अपने अध्ययन पर पूरा ध्यान दो सकोगे” अर्जुन ने कहा. फिर अपना वक्तव्य जारी रखा.

"सलीम, ये मकौले वाला मामला बहुत आसान है, प्रधानमंत्री उसे जान बूझ कर हवा दे रहे हैं. लोग धर्मों के आधार पर लोगों को बाँट कर अपनी राजनीति चलाने की उनकी भाषा को समझने लगे हैं. इसी कारण से वे लोगों को बाँटे रखने के लिए नए नए मुद्दए लेकर आते रहते हैं. जबकि समस्या भाषा नहीं, मानसिकता है. अगर हम अंग्रेज़ी को साधन मानें और अपनी भाषा को आत्मा, तो दोनों का मेल ही हमें आगे ले जाएगा."

सलीम ने सिर हिला कर बोला, "शायद तुम सही हो. हमें अंग्रेज़ी से आधुनिकता लेनी है, पर अपनी भाषाओं से संस्कृति और आत्मगौरव." यह कह कर सलीम हँस पड़ा, अर्जुन ने भी उसके जवाब में जोर का ठहाका लगाया.
फिर अर्जुन बोला, "तो तय रहा, “अंग्रेज़ी हमारी रेल है, और अपनी भाषा हमारी आत्मा. रेल बिना आत्मा बेकार, आत्मा बिना रेल ठहरी हुई."

सलीम ने जोड़ा, "और अगर हम फिर भी बहस करते रहे, तो जनता ताली बजाएगी- ‘वाह, क्या विविधता है!’

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2025

बदले का पाठ

कॉलेज की लाइब्रेरी में राधा ने पहली बार "फेमिनिज़्म" शब्द को किताब के पन्नों में देखा।

पन्नों पर लिखे विचार उसे आकर्षित कर रहे थे, पर भीतर कहीं एक और आवाज़ थी—

"बराबरी से पहले बदला क्यों दिखता है?"

किताब कहती थी—"फेमिनिज़्म बराबरी की लड़ाई है।"

पर राधा को बराबरी से पहले अन्याय का हिसाब दिखता था।

गली में ताने, बस में धक्के, घर में चुप रहने की सीख—ये सब उसके भीतर बदले की आग भरते थे। उसके दिमाग में सोच का तूफान उठ खड़ा हुआ था। बेचैनी में ही उसने आस पास देखा। वहाँ दूसरी टेबल पर मीना दी बैठी थी। वह एम.ए. कर रही थीं। जब कि वह खुद बी.ए. के आखिरी साल में थीं। वह तुरन्त मीना दी के पास जा कर बैठ गयी।

“अरे¡ राधा, तुम? क्या तुम्हारा काम हो गया?”

“नहीं दीदी, मेरे मन में विचारों का बहुत द्वंद्व चल रहा है, नहीं जानती यह कैसे शान्त होगा? शायद आप मेरी कुछ मदद करें?”

“हाँ, बोल। ऐसा क्या है?”

राधा ने पूरी बात बताई। मीना हँस पड़ी। फिर बोली, “राधा¡ फेमिनिज्म हमें बराबरी की लड़ाई सिखाती है, लेकिन हमने इस पुंसवादी समाज में जो यातनाएँ झेली हैं उनका अनुभव हमें बदला लेने को उकसाता ही है। हमें रोज मोहल्ले की आँखें सिखाती हैं। जब पड़ोसी लड़का खुलेआम गाली देता है और सब चुप रहते हैं, तब बदला हमारे भीतर अंकुरित होता है। फेमिनिज़्म तो बस हमें शब्द देता है, आवाज़ देता है। लेकिन, लेकिन हमें उस उकसावे में नहीं आना है, वरना हम अपराधी बन जाएंगे। किसी दिन जेल में होंगे। हमें लड़ना होगा। इस यौनिक बराबरी के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ेगी।"



राधा ने कहा, “ हाँ, दीदी मैं भी यही सोच रही थी। अब चलती हूँ, आपसे फिर मिलती हूँ।”

तभी राधा की निगाहें खिड़की के बाहर उठीं तो उसने देखा कि लाइब्रेरी की खिड़की से बाहर लड़कियों का एक समूह हँसते-बोलते जा रहा था।

उनकी हँसी में भी एक चुनौती थी, जैसे कह रही हों, "हम अब चुप नहीं रहेंगे।"

राधा के मन में विचार आया, “"यह लड़ाई किताबों से नहीं जीती जाएगी। यह लड़ाई उस समाज से है जिसने बदला बोया है और जब तक समाज अपनी ज़मीन साफ़ नहीं करेगा, बदले की फसल बार-बार उगती रहेगी।"

उसने मीना की ओर देखा और कहा, “दीदी, जानती हूँ, बराबरी की राह आसान नहीं होगी। लेकिन हमें समाज से यह ‘बदला’ नाम का शब्द ही विदा करना होगा। तभी बराबरी का पाठ पढ़ा जाएगा।"

मंगलवार, 2 दिसंबर 2025

जय जनतंत्र, जय संविधान¡


"लघुकथा"


दिनेशराय द्विवेदी

जिले के सबसे बड़े गाँव चमनगढ़ की आबादी दस हज़ार होने को थी, ग्राम पंचायत भी बड़ी थी। दो बरस पहले यहाँ ग्राम पंचायत ने सरकारी मदद से सामुदायिक भवन बनाया था, जिसका उद्देश्य था कि, जाति, धर्म, वर्ग या समुदाय से परे उसका उपयोग कर सके। पहली बार एक दलित हरखू ने अपनी बेटी की शादी उसी भवन में करने का आवेदन दिया, और सचिव ने सरपंच पंडित शंकरलाल की अनुमति से निर्धारित शुल्क जमा कर के दलित परिवार को सामुदायिक भवन में शादी समारोह करने, बारात ठहराने की अनुमति दे दी।

यह खबर कानों कान गाँव के हर मोहल्ले, हर घर में पहुँच गयी। गाँव में विरोध के स्वर उठने लगे। सवर्णों और ओबीसी समुदायों का मत था कि यह नहीं हो सकता। सामुदायिक भवन दलितों को दिया जाने लगा तो सारी ऊँच-नीच खत्म होने लग जाएगी। कल से ये लोग निजी मंदिरों में भी घुसने लगेंगे, हमारे बीच खाने भी लगेंगे। पंचायत के अधिकांश पंच सरपंच के खिलाफ हो गए और सरपंच को पद से हटाने के लिए अविश्वास प्रस्ताव ले आए।

पंडित शंकरलाल ने गांधीजी के अनुयायी अपने पिता से जनतंत्र के आधारभूत मूल्य आत्मसात किए थे। वे प्राण तज सकते थे लेकिन उन मूल्यों पर समझौता नहीं कर सकते थे। वे चिंतित हो उठे। सवाल था कि, “क्या पंचायत बहुमत के दबाव में जनतंत्र के मूल सिद्धांतों को तोड़ देगी, या स्थायी मूल्यों की रक्षा करेगी?

पंडित शंकरलाल पूर्व अध्यापक थे, वे पीछे न हट सकते थे। उनका शिष्य और युवा पंच अर्जुन उनके साथ कंधे से कंधा मिला कर खड़ा था। दोनों सलाह करके गाँव के घर-घर गए और एक-एक व्यक्ति को समझाया कि सामुदायिक भवन सब का है। उन्होंने बताया कि वर्षों के संघर्षों से सब ने एक साथ यह आजादी, जनतंत्र हासिल किए हैं। दलितों का उसमें योगदान कम नहीं था। देश ने एक संविधान को स्वीकार किया है, जो सब को बराबर का हक देता है, कहता है, “स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा हर नागरिक का अधिकार है।

बहुत मेहनत के साथ यह काम करने के बाद भी उन्हें लगा कि वे लोगों को समझाने में सफल नहीं हुए। इक्का दुक्का लोगों को छोड़ कर कोई उन्हें आश्वासन नहीं दे सका। दोनों निराश होने लगे।

आखिर पंचायत की बैठक का निर्णायक दिन आ गया। पंचायत भवन के बाहर भीड़ जमा थी। नारे गूँज रहे थे, “जनमत ही सर्वोपरि है!, हम ये होने नहीं देंगे” दलित डरे हुए थे, अपने घरों में दुबके हुए, कोई-कोई छुप छुपा कर पंचायत की और नजर दौड़ा कर वापस घर में दुबक जाता। पंच भी दबाव में थे।

कार्यवाही आरंभ हुई, सरपंच ने कहा, “अगर हम बहुमत के दबाव में किसी को रोकते हैं, तो यह भवन सामुदायिक नहीं, जातिगत हो जाएगा। हमारा जनतंत्र और संविधान दोनों की आत्मा का वध हो जाएगा।”

अर्जुन ने साथ दिया, “जनमत क्षणिक है, लेकिन लोकतंत्र के मूल सिद्धांत स्थायी हैं। आज दलितों को रोकोगे, कल महिलाओं को रोकोगे। क्या हम हर बार संविधान को तोड़ देंगे, दुबारा फिर से गुलामी को न्यौता देंगे?”

भीड़ का शोर थम नहीं रहा था। तभी सरपंच का पुत्र रवि नगर के कॉलेज के अपने सहपाठियों और दोस्तों के साथ आगे आया। उसके कंधे पर बैटरी से चलने वाला लाउडस्पीकर लटका था। पंचायत भवन के सामने खड़ा हो कर ऊँचे स्वर में बोलने लगा।

“सोचो, अगर कल आपके बेटे या बेटी को सामुदायिक भवन में विवाह करने से रोका जाए, तो क्या आप इसे स्वीकार करेंगे? यह भवन सरकार ने सबके लिए बनाया है। क्या हम इसे जाति का किला बना देंगे, या भाईचारे का प्रतीक बना रहने देंगे?” सोचिए इस का लोकार्पण किसने किया था? वह कलेक्टर भी एक दलित था। क्या उस दिन कोई विरोध में सामने आया था?

उसके दोस्तों ने भीड़ में जाकर समझाया, “यह भवन हमारे करों से बना है। इसमें हर नागरिक का हिस्सा है। अगर हम किसी को रोकते हैं, तो हम अपने ही अधिकारों को ही कमजोर कर देंगे।”

भीड़ का शोर धीमा पड़ने लगा। लोग सोच में पड़ गए। अब वे आपस में कानाफूसी कर रहे थे।

अंदर पंचायत भवन में बैठक चल रही थी। आखिर पंडित शंकरलाल पंचायत भवन की छत पर आए। उनके साथ पंचायत के सभी पंच थे। उनके हाथ में पंचायत के लाउडस्पीकर का माइक था। वे निर्णय सुनाने लगे,

“हम सारे पंचों ने एक मत से निर्णय लिया है। हम सारे पंचों को विश्वास है कि पूरा गाँव, गाँव के सब लोग एकमत से हुए हमारे इस निर्णय को सम्मान देंगे। सामुदायिक भवन हर नागरिक के लिए है। गाँव के सभी निवासियों को उसके उपयोग का पूरा हक है। हरखू भाई की बेटी की शादी सामुदायिक भवन से ही होगी। यही जनतंत्र और हमारे संविधान का सम्मान है।”

  भीड़ में से किसी ने ताली बजाई, फिर दूसरे ने, फिर तीसरे ने। तुरन्त ही तालियों की गड़गड़ाहट में हर किसी के हाथ शामिल हो गए। रवि और उसके दोस्त खुशी से उछल पड़े। रवि ने अपने लाउडस्पीकर पर घोषणा की हम सब अब हरखू चाचा के घर चलेंगे और उन्हें यह खुश खबर देंगे। हम संविधान जिन्दाबाद के नारे लगाते चलेंगे।

रवि ने लाउडस्पीकर पर नारा लगाया, “जय जनतंत्र, “जय संविधान¡”
भीड़ ने एक स्वर से उत्तर दिया, “जय जनतंत्र, “जय संविधान¡”

भीड़ हरखू के घर की ओर जा रही थी, गाँव में नारा गूंज रहा था, “जय जनतंत्र, “जय संविधान¡”

गाँव के चंन्द लोग अब भी समझ नहीं पा रहे थे कि यह क्या हुआ। वे चुपचाप अपने घरों को चल दिए।

सोमवार, 1 दिसंबर 2025

रुकने का साहस


खूबसूरत शहर था, नदी थी, तालाब थे, नदी और तालाब किनारे बाग थे। शहर में राजा का गढ़ था चार चार यूनिवर्सिटीज थीं। देश भर से पढ़ने आए विद्यार्थियों और उन्हें संभालने आते उनके अभिभावकों का निरन्तर प्रवाह था। यहाँ के लोगों ने शहर खूबसूरत बनाने में कोई कसर न छोड़ी थी। सड़कों पर ट्रैफिक का शोर हमेशा गूँजता रहता था। कुछ वर्ष पहले शहर की सड़कों और तिराहे-चौराहों को इस तरह का रूप दिया गया था कि अब यहाँ चौराहों पर लाल-हरी-पीली बत्तियाँ नहीं थीं, बस गाड़ियों का बहाव था और लोगों का इंतज़ार।

एक दिन, एक कार अचानक धीमी हुई। चालक ने देखा,- बच्चे, महिलाएँ, वृद्ध-सड़क पार करने के लिए ठिठके खड़े हैं। उसने ब्रेक दबाया और हाथ से इशारा किया, “आइए, निकल जाइए।”

पहले तो लोग हिचकिचाए। उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि कोई उनके लिए रुका है। फिर धीरे-धीरे कदम बढ़े, और वे सुरक्षित पार हो गए। पीछे से हॉर्न की आवाज़ आई, जैसे अधीरता का प्रतीक। लेकिन उस कार का चालक मुस्कुराया, क्योंकि उसने समझा कि सड़क पर सबसे बड़ा साहस तेज़ी से भागना नहीं, बल्कि रुकना है।

उसका नाम था अभय। वह एक शिक्षक था। अगले दिन उसने अपने छात्रों को यह अनुभव सुनाया। बच्चों ने कहा—“सर, अगर आप रुक सकते हैं तो हम भी रुकेंगे।”

धीरे-धीरे यह आदत फैलने लगी। अभय ने इसे नाम दिया—“रुकने का साहस अभियान।” उसने पोस्टर बनवाए, जिन पर लिखा था: “अगर ट्रैफिक सिग्नल नहीं है, तो इंसानियत ही सिग्नल बने।”

कुछ लोग हँसे, कुछ ने हॉर्न बजाया, लेकिन कई ने सीखा। राहगीरों के चेहरों पर भरोसा लौटने लगा। बच्चे अब डरते नहीं थे, महिलाएँ अब ठिठकती नहीं थीं।

शहर की सड़कों पर यह छोटा-सा साहस एक आंदोलन बन गया। और अभय को विश्वास था—अगर एक शहर रुकना सीख ले, तो पूरा समाज आगे बढ़ सकता है।









रविवार, 30 नवंबर 2025

चढ़ावा


गाँव के चौक में भीड़ थी. चुनाव का मौसम था. नेता जी की गाड़ी आई और लोगों में हलचल मच गई.

रामलाल, दिनभर दिहाड़ी पर काम करता था, हाथ जोड़कर खड़ा हो गया.

नेता जी ने मुस्कराकर कहा, “रामलाल, वोट देना मत भूलना.“ फिर एक थैला देकर कहने लगे, “देखो यह महीने पन्द्रह दिन का राशन है और कुछ दिन का शाम का इन्तजाम भी है.”

रामलाल ने सामान उठाया और मन ही मन सोचा, “भगवान नाराज़ हैं तभी तो मैं गरीब हूँ. शायद नेता जी ही भगवान के भेजे हुए दूत ही हैं. अगर खुश कर दूँ तो मेरी हालत सुधर जाएगी.”

नेताजी गाँव में प्रचार के लिए आए थे. उन्हें गाँव के लोगों की जरूरत थी जो उनके साथ पूरे गाँव में तब तक घूमता. वह नेताजी के पीछे पीछे हो लिया. वह दिन भर नेताजी से चिपका रहा जब तक कि गाँव में सब से मिल कर अगले गाँव के लिए न निकल लिए. नेताजी ने जाते जाते भी रामलाल से कहा, “चुनाव तक तुम ध्यान रखना. कोई खराब खबर हो तो बताना.“

नेताजी से इतनी सी बात सुन रामलाल गदगद हो गया. वह घर की ओर चल दिया. रास्ते में मंदिर मिला. उसने सोचा चलते चलते भगवान जी को ढोक दे चलूँ. आज का दिन अच्छा है. वे खुश हो जाएँ तो जिन्दगी कुछ और सुधर जाए.
मंदिर में भगवान की मूर्ति के सामने प्रसाद, फूलमाला के ढेर लगा था. भगवान के सामने रखे एक थाल में बहुत सारे सिक्के पड़े थे, उनमें कुछ बड़े नोट भी थे. पुजारी इन सब को देख बहुत खुश हो रहा था. वह जानता था कि किसी दिन कोई अमीर आएगा और सोने चांदी जैसे चढ़ावे भी चढ़ाएंगे.

रामलाल भगवान के सामने हाथ जोड़ खड़ा हो गया. उन्हें मन ही मन धन्यवाद देने लगा. उस ने प्रार्थना भी की. फिर उसे ध्यान आया कि भगवान उसकी नहीं उन लोगों की प्रार्थना पर अधिक ध्यान देंगे जिन्होंने वहाँ चढ़ावा चढ़ाया है. उसका हाथ फौरन अपने कुर्ते की जेब में गया. वहाँ बस एक रुपया पड़ा था. उसने वही थाली में चढ़ा दिया. उसके रुपया चढ़ाते ही पुजारी जी ने उस के माथे पर तिलक लगाया और चरणामृत दिया. फिर प्रसाद की थाली में से मिसरी के दो टुकड़े उसके हाथ पर रख बोला, “ईश्वर जरूर तुम पर भी कृपा करेगा, तुम्हारे दिन भी फिरेंगे”. उसने सोचा, “भगवान खुश गए तो जरूर उसकी गरीबी दूर होगी. वह आज से रोज मंदिर आया करेगा.

मंदिर से वह बाहर निकला. मंदिर के नीचे ही पास में उसका दोस्त शंकर मोची बैठता था, लोगों के जूते चप्पल दुरुस्त करता था, कोई कहता तो उसके लिए जूते जूती भी बना देता. शाम हो चली थी शंकर अपनी दुकान समेट रहा. रामलाल ने शंकर से राम- राम की, शंकर ने भी राम-राम कह कर जवाब दिया.

“अपनी दुकान समेट रहे हो?” रामलाल ने पूछा.

“ हाँ, शाम हो गयी है अब कोई ग्राहक नहीं आएगा, रुक कर भी क्या करूँगा. शंकर ने उत्तर दिया.

“ठीक है, मैं भी नेताजी के साथ घूम घूम कर थक गया हूँ, मैं भी घर ही जाता हूँ.“ इतना कह कर रामलाल भी वहाँ से चल दिया.

उस दिन के बाद रामलाल रोज शाम के समय मंदिर जाने लगा. कभी फूलमाला, कभी प्रसाद तो कभी रुपया चढ़ा कर आता. शंकर से उससे रोज राम-राम होती. इस तरह कई दिन हो गए. चुनाव भी बीत गया. नेताजी चुनाव जीत गए थे. एक शाम वह मंदिर से निकला तो शंकर अपनी दुकान पूरी तरह समेट चुका था और घर जाने को तैयार था. दोनों का घर एक ही ओर था तो दोनों साथ घर की ओर चले.

“तुम आज कल रोज मंदिर आते हो?” शंकर ने बात छेड़ी.

“हाँ, भाई आता तो हूँ. रोज कुछ न कुछ चढ़ाता भी हूँ. शायद किसी दिन भगवान सुन लें और जिन्दगी कुछ सुधर जाए.” रामलाल की आवाज में बहुत उदासी थी. वह आगे कहने लगा. नेताजी चुनाव में आए थे, महीने भर का राशन दे गए थे. चुनाव खत्म होते ही वह भी खत्म हो गया. तुम जानते हो आज कल काम तो कम ही मिलता है. घर चलाना मुश्किल हो चला है. रोज आता हूँ कि भगवान प्रसन्न हो गए तो दिन सुधर जाएंगे.“

उसकी बात सुनते ही शंकर हँसा और बोला, “ तुम बेवकूफ हो. रोज मंदिर आने और नेताजी के पीछे पीछे घूमने, थोड़े दिन के राशन और दारू के बदले वोट बेचना ही हमें और गरीब बनाता है. मैं तो कई साल से मंदिर के पास ही बैठता हूँ और जूते बनाता हूँ. रोज मंदिर आने जाने वाले लोगों को देखता हूँ. मंदिर आने से कभी किसी का कुछ न सुधरा. भगवान भी पैसे वालों और समर्थों का ही साथ देता है.“

“बात तो तुम्हारी सही लगती है. पर समझ नहीं आता कि करें तो क्या करें? भगवान ही चाहें तो जीवन सुधर सकेगा.”
“असल में हमारी गरीबी का कारण भगवान की नाराजगी नहीं है, भगवान को चढ़ावा चढ़ाना. चुनाव के वक्त इस या उस उम्मीदवार से राशन-पानी ले कर अपना वोट फैंक देना रिवाज बन गए हैं. इनसे कुछ नहीं बदला है न बदलेगा. हमारी गरीबी का कारण यह शोषणकारी व्यवस्था है. पैसे वालों ने ही सारे कमाई और रोजगार के साधन हथिया रखे हैं. जब तक हम अपने हक़ की लड़ाई नहीं लड़ेंगे तब तक कुछ नहीं बदलेगा.” शंकर ने कहा.

रामलाल चुप रहा. उसे लग तो रहा था कि शंकर की बात सही है. रोज-रोज और हर बार हम यही तो करते रहे हैं लेकिन बदलता कुछ भी नहीं.

शंकर कुछ रुक कर फिर कहने लगा, “ छोटा भाई किशन शहर की मिल में काम करता है. उसने देखा है, जब तक मजदूर अपनी मांगें कंपनी के सामने न रखें, उन्हें मनवाने के लिए हड़ताल न करें तब तक उनकी तनखा बढ़ती ही नहीं. वह कहता है कि ये मिल वाले ही नेताओं को चन्दा देते हैं. उसी से उनकी पार्टियाँ चलती हैं और कैसे भी बहला फुसला कर नेता लोग चुनाव में जीत जाते हैं और फिर उन्हीं का भला करते हैं. हम बैंक से लोन ले लें और भर न पाएँ तो बैंक वाले घर खेत सब नीलाम करने को तैयार रहते हैं, लेकिन पैसे वालों की कोई कंपनी घाटे में चली जाए और बैंक से लिए लाखों करोड़ों का लोन न चुका पाएँ तो नेता लोग उन्हें माफ करवा देते हैं या फिर लाखों के लोन के बदले हजारों में चुकता करवा देते हैं. इसलिए जब तक पैसे वालों की सरकार बनती रहेगी कुछ नहीं होगा.

रामलाल सुन कर अचम्भित था कि ऐसा भी होता है. फिर सोचा शंकर कह रहा है तो सही ही होगा. फिर वह सोचने लगा लेकिन पैसे वालों की सरकार न बनेगी तो किनकी बनेगी. गरीब मजदूरों किसानों की तो बन नहीं सकती. वे कैसे चुनाव लड़ेंगे और कैसे जीतेंगे? प्रचार तो पैसे से ही होता है. उसे सोचता देख शकर आगे कहने लगा.

“किशन तो यह भी कहता है कि ऐसे देश भी हैं जहाँ मजदूर किसानों की सरकारें हैं. कुछ देश ऐसे भी हैं जहाँ देश भर में दस में दो आदमी से ज्यादा कोई भगवान को मानता ही नहीं, और ये देश दुनिया के सबसे खुशहाल देश हैं. उससे भी बड़ी बात ये कि सबसे ज्यादा गरीबी उन्हीं देशों में हैं जिन देशों के सबसे ज्यादा लोग भगवान को मानते हैं.”

“ये मजदूर किसानों की सरकार बनती कैसे है? और अपने यहाँ कैसे बन सकती है?”

शंकर मन ही मन खुश हो रहा था। उसे लगा था कि अब रामलाल उसकी बात समझ रहा है। उसने अपनी बात जारी रखी, “हमारे देश में मजदूर-किसान कितने होंगे? उनकी संख्या चार में से तीन से कम नहीं अधिक ही होगी। अगर ये सब एक हो जाएँ तो क्या नहीं हो सकता?”

“हाँ, बात तो सही है। लेकिन सब एक कैसे होंगे? ये तो मेंढकों को तौलने जैसा लगता है.”

“अरे, सीधी सी बात है. तुम मकान बनाने की मजदूरी करते हो. एक दम तो मकान नहीं बनता. पहले नींव खोद कर भरनी होती है. फिर आहिस्ता आहिस्ता दीवारें उठती हैं, पहली मंजिल बनती है फिर दूसरी, तीसरी और चौथी. ऐसे ही दस-दस बीस-बीस मंजिल के मकान तक खड़े हो जाते हैं. कहीं से तो शुरुआत करनी ही होती है. तुम रुपया रोज मंदिर में खर्च कर आते हो. महीने भर बचाओ तो तीस होते हैं. तुम इसका आधा मजदूर किसानों की एकता बनाने के लिए खर्च कर सकते हो और आधे से अपने लिए कुछ कर सकते हो. ऐसे ही बहुत से लोग मिल जाएँ तो अपनी सरकार बनाने के लिए काम कर सकते हैं. शहरों और कई गाँवों में तो कर भी रहे हैं. किशन भी कहता है कि उसकी यूनियन वाले ग्रामीण किसान मजदूर सभा भी बनाते हैं, उससे कह रहे थे कि अपने गाँव में मजदूरों किसानों की मीटिंग रखो तो यहाँ भी किसान मजदूर सभा बना देंगे. फिर हम खुद अपने भले बुरे के बारे में मिल कर सोच सकते हैं.”

“ऐसा?” रामलाल यह सब सुन कर चकित हो गया था। वह सोच रहा था कि, “यदि किशन की यूनियन वाले मजदूर किसान सभा बनाते हैं तो अब तक किशन ने गाँव में मीटिंग क्यों नहीं की और क्यों नहीं यहाँ भी सभा बनाई? उसने अपनी यही बात शंकर के सामने रखी.

“भाई, यूनियन वाले मजदूरी भी करते हैं, अपनी यूनियन भी चलाते हैं. उसके भी बहुत काम होते हैं। हाँ, आजकल वे महीने में एक दो बार जरूर किसी गाँव में सभा बनाने के लिए जाते हैं. शंकर भी कह रहा था कि हमारे यहाँ भी इसी महीने या अगले महीने आएंगे.”

“बढ़िया शंकर भाई, यदि ऐसी कोई मीटिंग हो तो मुझे मत भूल जाना मैं जरूर आऊंगा. मैं सभा का मेम्बर जरूर बनूंगा और हर महीने पन्द्रह रुपए भी दूंगा। मुझे किसी ने अब तक ऐसा कुछ बताया ही नहीं. भगवान को किसने देखा है. ऐसे लोग तो खुद प्रत्यक्ष हैं. मैं जरूर आऊंगा, मुझे मत भूलना. मेरा घर आ गया है, फिर कल मिलते हैं.”
“कल मंदिर आओगे?” शंकर ने पूछा तो रामलाल हँस पड़ा.

‘’कल मंदिर आऊंगा या नहीं यह तो पता नहीं, अभी सोचूंगा. पर तुम से मिलने जरूर आऊंगा.”

“राम-राम.” शंकर ने कहा.

रामलाल ने जवाब दिया, “राम-राम.”

शनिवार, 29 नवंबर 2025

सत्यप्रार्थी वध

'लघुकथा'

एक समय की बात है, जब देश की आत्मा दो नगरों में बंटी हुई थी, एक था न्यायपुर, जहाँ दीवारें काली थीं, और दूसरा आस्थागढ़, जहाँ मंदिरों की घंटियाँ हर पल गूंजती थीं।

 न्यायपुर की अदालतें अब युद्धभूमि बन चुकी थीं। वहाँ जज नहीं, सेनापति बैठते थे। उनके हाथों में न्याय की कलम नहीं, आदेश की मुहर थी। हर सुबह उन्हें एक सूची मिलती, "इन मुकदमों का आज एनकाउंटर करना है।"

मुकदमे अब जीवित नहीं थे, वे कागज़ी प्राणी थे, जिनके पास आँखें थीं, तर्क थे, और कभी-कभी आँसू भी।

 एक दिन, एक मुकदमा, नाम था सत्यप्रार्थी, काँपते हुए न्यायाधीश के सामने आया।

"महोदय, मेरा एक दस्तावेज़ अभी प्रतिवादी से नहीं आया है। कृपया मुझे थोड़ा समय दीजिए, अन्यथा मेरा वध हो जाएगा।"

 जज ने उसकी ओर देखा, जैसे कोई पत्थर किसी फूल को देखता है।

"यह टारगेट मुकदमा है। देरी नहीं चलेगी। हमें रोज़ ऊपर जवाब देना होता है।"

और फिर सत्यप्रार्थी का वध हो गया।

उसी दिन, आस्थागढ़ में उत्सव था। ध्वजारोहण की तैयारी थी। मंदिर के शिखर पर केसरिया पताका लहराने वाली थी।

राजा स्वयं आए थे, आरती की थाली लिए। गणेशजी की मूर्ति के सामने दीप जलाया गया।
घंटियाँ बजीं, पुष्पवर्षा हुई, और सोलह नगरों में रथयात्रा निकली।

न्यायपुर के एक वृद्ध दरबारी ने यह दृश्य देखा और बुदबुदाया,

"जब न्याय कालकोठरी में बंद हो, तब भी उत्सव तो हो ही सकता है।"

उसने अपनी आँखें बंद कर लीं।

एक ओर अंधेरा था, जहाँ सत्य का वध हो रहा था।

दूसरी ओर उजाला था, जहाँ आस्था का जयघोष हो रहा था।

और देश… ?

कुछ कहते थे, “उसका गौरव बढ़ रहा है”।

कुछ अंधेरे में आँसुओं के साथ कहते थे, “देश मर रहा है।

शुक्रवार, 28 नवंबर 2025

रामजी बेगा आज्यो

'हाडौ़ती लघुकथा'

दाज्जी
ने आता देख मोबाइल देखर्यो छोट्या ने मोबाइल पर गाणो लगाद्यो, " रामजी मेरे घर आना".

दाज्जी आया तो गोडे पड़ी खाट पे बैठ ग्या.

गाणो पूरो भी न होयो छो के, दाज्जी खेबा लाग्या, "रे छोट्या यो काँईं गाणो लगा मेल्यो छे. गाणा सुणणी होवे तो ढंग का सुणबू कर.

'काँई होग्यो दाज्जी? रामजी को ही तो गाणो लगा मेल्यो छे' छोट्या ने खी.

'काँई को छोखो गाणो छे? जे घर घर आबा लाग्या ने तो रामजी ही बावळ्या हो जाणा छे. बंद कर ईं गाणा ने. पीबा के कारणे एक गिलास पाणी ला, अर् थोड़ी देर चैन से लेटबा दे.

गुरुवार, 27 नवंबर 2025

एन्काउन्टर

'लघुकथा'

शहर की अदालतों में इन दिनों अजीब सा माहौल था. हर जज की मेज़ पर मुकदमों की फाइलें ऐसे गिर रही थीं जैसे किसी युद्धभूमि में लाशें.

जजों को रोज़ वीडियो कॉन्फ़्रेंस पर हाईकोर्ट को जवाब देना पड़ता था—कितने मुकदमे निपटाए, कितने "टारगेट केस" खत्म किए.

एक दिन, एक मुवक्किल ने जज से कहा—

"महोदय, यह दस्तावेज़ तो प्रतिवादी से मंगवाया ही नहीं गया. अगर इसे देखे बिना फैसला हुआ तो हमारे साथ अन्याय होगा."

जज ने चश्मा उतारते हुए ठंडी आवाज़ में कहा—

"मैं कुछ नहीं जानता. अगर आपकी दरख़्वास्त मंज़ूर करूँगा तो मुकदमे में देरी होगी. यह टारगेट मुकदमा है."

और अगले ही दिन वह मुकदमा "एनकाउंटर" कर दिया गया.

इसी बीच शहर में खबर गूँजी—राम मंदिर पूरा हो गया है. कल वहाँ ध्वजारोहण होगा.

सोलह जिलों में रूट डायवर्जन होगा, लोग उमड़ेंगे, झंडा फहरेगा.

मुवक्किल ने अदालत से बाहर निकलते हुए सोचा—

"न्याय तो कालकोठरी में कैद है, लेकिन ध्वजारोहण तो समय पर हो ही जाएगा."

उसने आकाश की ओर देखा. मंदिर की घंटियाँ बज रही थीं, और अदालत की दीवारें चुप थीं.

गुरुवार, 9 अक्टूबर 2025

सिक्के और डाक टिकट

मेरे पर्स में एक-दो-पाँच-दस-बीस वाले सिक्कों की कुल संख्या छह-सात से अधिक नहीं होती। उसे भी तुरन्त ही पाँच के नीचे लाना पड़ता है। वर्ना पर्स की उम्र पर संकट आ जाता है। उसे अकाल मृत्यु का सामना करना पड़ जाता है। जेबों के साथ भी यही संकट है। अब सिक्के कौन अपने पास रखता है। अपने पर्स में कुछ नकद रखना हो तो 500 से ले कर पाँच दस रुपए के नोट रखना पसंद करता है। सिक्के अब आउट ऑफ डेट हो चले हैं। वैसे भी आज कल जमीन के ऊपर नकद भुगतान जितना होता है उससे बहुत अधिक यूपीआई हो चला है। नकद भुगतान पूरा का पूरा जमीन के नीचे का मामला हो चला है। जैसे रिश्वत देनी हो या चुनाव में वोटों के लिए नोट बाँटने हों। हालाँकि बिहार ने उसकी भी जरूरत खत्म करना शुरू कर दिया है। अब नोट सीधे वोटरों के बैंक खातों में भेजे जा रहे हैं जैसे स्त्रियों को और बेरोजगारों को। खैर!

लगभग यही किस्सा डाकटिकटों का है। एक वक्त हुआ करता था जब डाक टिकट रखे होते थे पर्स में। अब वे गायब हैं दो-चार रख भी लें तो रखे रखे खराब हो जाते हैं किसी लिफाफे चिट्ठी पर चिपकाने के काम नहीं आते। वैसे भी डाक कौन भेजता है। केवल जरूरी चीजें जैसे कानूनी और सरकारी कागजात। बाकी तो सब अब कूरियर सर्विस वालों के हवाले है। डाक टिकट की महत्ता घटाने में प्राइवेट कूरियर वालों की भूमिका महान है। सरकार भी यही चाहती है कि कम से कम लोग डाक के भरोसे रहें। डाक अब स्पीड पोस्ट हो गयी है उसे चाहो जो करवा लो, चाहे तो पार्सल, चाहे तो रजिस्टर्ड वगैरा वगैरा। अब डाक विभाग डाक में भेजे जाने वाले सामान के वजन और दूरी के हिसाब से फीस वसूल करता है।
 
तो मित्रो!
शताब्दी सिक्के और डाक टिकट पर अधिक उछलने की जरूरत नहीं है। कारपोरेट सेवा में जब जिन्दगी झंड होने लगती है तो बीच बीच में ऐसे जश्न करने पड़ते हैं जिससे अपने वाले झण्डू उछलते रहें।

-दिनेशराय द्विवेदी

बुधवार, 8 अक्टूबर 2025

सामाजिक जीवन में बकवास का स्थान - दिनेशराय द्विवेदी

अच्छी बातें कोई भी कर सकता है। यहाँ तक कि बुरा से बुरा से व्यक्ति भी अच्छी बातें कर सकता है। इसी तरह कोई भी व्यक्ति बकवास भी कर सकता है। अच्छी और बकवास बातों पर किसी का एकाधिकार नहीं है।
 
बकवास बातों पर लोग कह देते हैं कि, अरे, छोड़ो यार! उससे कहाँ मुहँ लगना, बकवास कर रहा है, कभी कभी यह भी कह देते हैं कि कहाँ उस बकवास आदमी से उलझ रहे हो।
 
बकवास बहुत लोगों को जिन्दा रखे हुए है। उनमें सभी तरह के लोग हैं। उनमें साधारण लोग हैं, उनमें डाक्टर, वकील, इंजिनियर जैसे पेशेवर लोग हैं। उसमें अध्यापक और पुलिस वालेे हैं, दुकानदार और उत्पादक हैं। विज्ञापन बनाने वालों ने तो सिद्ध कर दिया है कि बकवास करने से बुरा से बुरा माल भी बाजार में खूब बेचा जा सकता है। इन लोगों में राजनीति करने वाले लोग हैं और ऐसे लोग हैं जो सभी स्तरों पर पहुँच चुके हैं। विश्व के बहुत सारे देशों के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, सेनापति वगैरा वगैरा अत्यन्त महत्वपूर्ण लोग भी कम नहीं हैं।

बकवास के अनेक प्रकार हैं, लेकिन वे सभी प्रकार इस तरह घुले मिले हैं कि बकवास करना भानुमति के कुनबे का महत्वपूर्ण गुण प्रतीत होने लगता है। वहाँ थोक से बकवादी लोग मिलेंगे। अभी तक किसी ने बकवासों का कोई वर्गीकरण नहीं किया है। यदि रामचन्द्र शुक्ल साहित्य का इतिहास लिखते समय यह नहीं समझ पाए कि साहित्य में बकवादी धारा और बकवादी युग भी हो सकते हैं तो मेरा बूता तो बिलकुल नहीं है कि मैं बकवादी धारा और बकवादी युगों की बात कर सकूँ। वैसे रामचंद्र शुक्ल ने हर युग के बकवादी साहित्य की पहचान भी की होती तो वे अधिक महान हो सकते थे। उनकी कीर्ति पताका साहित्य के बाहर भी फहराती नजर आती। 75 वर्ष के होने पर स्वर्ण जयन्ती मना लेने के बाद भी हमारे भक्तानांप्रियदर्शी प्रधानमंत्री जी ने कभी उनका नाम तक नहीं लिया। यदि शुक्ल जी ने बकवादी साहित्य की पहचान कर ली होती तो जब भी किसी स्कूल विश्वविद्यालय में प्रधानमंत्री का प्रवचन होता तो वे शुक्ल जी को महान घोषित करते और बताते कि देश को और कम से कम प्नोफेसरों को उनके आदर्शों पर चलना चाहिए। वे रामचंद्र शुक्ल के नाम का कोई स्मारक भी बनवा सकते थे।


भले ही बकवासों का वर्गीकरण न हुआ फिर भी लोग बकवासों को पहचान लेते हैं। तनिक देर में ही पहचान कर बता देते हैं कि क्या चीज बकवास है। कुछ पारखी लोग तो यह भी पहचान लेते हैं कि बकवास किस तरह टाइप की है। वह अस्थायी है या स्थायी है, वह क्षण भंगुर है या फिर सनतान टाइप की है। इस तरह बकवास का वर्गीकरण भी हो लेता है। किसी शोधार्थी ने ध्यान दिया होता तो अब तक इन स्वाभाविक वर्गीकरणों पर अध्ययन करता, शोध करता और एक नहीं अनेक शोध पत्र लिख सकता था। साहित्य में इन दिनों शीर्ष बहसें सनातन बकवास पर हो रही होती। कोई न कोई अवश्य सनातन बकवास के साहित्य का इतिहास जैसे महत्वपूर्ण विषय पर पीएचडी किए लोगों के वीसी बनने का चांस सबसे उत्तम होता।

मुझे तो लगता है कि साहित्यिक गोष्ठियों में साल की किसी गोष्ठी का विषय बकवास साहित्य होना चाहिए। जैसे "मोदी युग में बकवास साहित्य का स्थान" या यह भी रखा जा सकता है, भक्ति या रीतिकाल में बकवास साहित्य। प्रकाशक चाहें तो इन नामों की किताबें भी प्रकाशित कर सकते हैं। यहाँ तक कि बकवास साहित्य के इतिहास तक लिखे जा सकते हैं।जैसे हिन्दी के बकवास साहित्य का इतिहास"। अंग्रेजी में लिखना हो तो "ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ बकवास" जैसा टाइटल रखा जा सकता है। पता नहीं अब तक किसी प्रोफेसर या विद्यार्थी को यह क्यों न सूझा कि बकवास साहित्य विषय पर अनेक शोधें की जा सकती हैं। प्राथमिक शोध विषय "समाज में बकवास का स्थान" हो सकता है।

खैर, बकवास करते बहुत समय बीत चुका है, आपको भी इसे पढ़ते हुए कोई जोर नहीं पड़ा होगा, सर्र से पढ़ा होगा और बकवास दिमाग से होते हुए किसी नर्व के रास्ते पेट में उतर चुकी होगी। बकवास के पेट में उतर जाने से वह पेट को कभी खराब नहीं करती। यदि आपको यह अहसास होने लगे कि बकवास ने पेट में गैस टाइप कुछ उपद्रव किया है तो उसे सीधे रास्ते से निकालने की कोशिश कभी न करें, बल्कि सबसे अच्छा और सटीक उपाय यह है कि उसे मुहँ के रास्ते पहला पात्र मिलते ही उसके कान में उड़ेल दें।

शनिवार, 6 सितंबर 2025

भारतीय समाज में जाति, भाषा और राष्ट्रीयता का सवाल : दिनेशराय द्विवेदी

जोधपुर में हो रही आरएसएस की समन्वय बैठक में आरएसएस ने देश में जाति, भाषा, प्रांत और पंथ के नाम पर भेदभाव पैदा करने के षड्यंत्रों पर चिंता जताई। आरएसएस ने कहा कि देश में एकता और अखंडता को चुनौती देने वाली शक्तियां लगातार सक्रिय हैं, जो देश के लिए हितकारी नहीं हैं। इस तरह उनका मानना है कि जाति, भाषा, स्थानीय राष्ट्रीयता (प्रान्तीयता) और धर्म (पंथ) का उद्भव भारत की ऐतिहासिक परिस्थितियों से नहीं उपजा है बल्कि यह कृत्रिम है और इन सब भेदों के जनक तथाकथित षडयंत्रकारी शक्तियाँ हैं। इन षडयंत्रकारी शक्तियों से उनका तात्पर्य मुस्लिमों, ईसाइयों, सिख आतंकवादियों, सेक्युलर लोगों और कम्युनिटों से है। यही कुल मिला कर भारत में विपक्ष का निर्माण करते हैं। यदि ये सब षडयंत्र कर रहे हैं तो उससे उनका सीधा अर्थ यह है कि राज्य को उनका दमन करने का अधिकार है।


असल में संघ की यह दृष्टि ही एक कृत्रिम दृष्टि है। उसके नजरिए का आधार यह मिथ्या धारणा प्राचीन भारत एक हिन्दू राष्ट्र है, उस पर इतिहास में बहुत दमन हुए और अब यह वक्त उस दमन का बदला लेने का है और उसे फिर से हिन्दू राष्ट्र बनना चाहिए। संघ का यह दृष्टिकोण ही उसे एक खतरनाक फासीवादी संगठन बना देता है। भारतीय समाज की संरचना ऐतिहासिक रूप से जटिल और बहुआयामी रही है। जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्रीय पहचानों के अंतर्संबंधों ने एक ऐसा सामाजिक ताना-बाना बुना है जिसकी व्याख्या बिना वर्गीय विश्लेषण के अधूरी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) द्वारा "हिन्दू राष्ट्र" की परिकल्पना और जाति, भाषा व प्रान्तीयता को "षड्यंत्र" के रूप में प्रस्तुत करना, एक प्रतिक्रियावादी परियोजना है जो सामाजिक यथास्थिति को बनाए रखने का काम करती है।


यथार्थ तो यह है कि जाति और भाषाई राष्ट्रीयताओं का उदय और विकास एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है, न कि कोई "षड्यंत्र"। ये पहचानें भारत में उत्पादन के खास तरीकों और सामाजिक संबंधों की उपज हैं। जाति व्यवस्था, जो मूल रूप से श्रम के विभाजन का एक रूप थी, शोषण के एक सुदृढ़ तंत्र में तब्दील हो गई। यह सामंती और पूर्व-सामंती उत्पादन प्रणालियों का अभिन्न अंग बन गई, जहाँ शासक वर्गों ने श्रमिक जनता के शोषण और दमन के लिए इन्हें एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया।


इसी तरह, भाषाई और क्षेत्रीय पहचानें लंबे ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विकास की परिणति हैं। पंजाबी, बंगाली, तमिल आदि राष्ट्रीयताओं का अस्तित्व एक सामाजिक यथार्थ है। इन्हें "उभारा" नहीं जा रहा, बल्कि ये पहले से मौजूद हैं। सवाल यह है कि इन पहचानों के साथ किस तरह का राजनीतिक-सामाजिक व्यवहार किया जाए।


आरएसएस की "हिन्दू राष्ट्र" की परिकल्पना एक अवैज्ञानिक, प्रतिक्रियावादी और जनविरोधी परियोजना है। यह परियोजना भारत की वास्तविक, भौतिक समस्याओं—जैसे आर्थिक असमानता, शोषण, बेरोजगारी, गरीबी—से ध्यान भटकाने का काम करती है। एक कृत्रिम "हिन्दू" एकता का निर्माण करके, यह सामंती और पूंजीवादी ताकतों के हितों की रक्षा करती है, जिनके लिए जातिगत, धार्मिक और भाषाई विभाजन शोषण की व्यवस्था को बनाए रखने के लिए आवश्यक हैं।

सरसंघचालक का यह कहना कि जाति और भाषा के भेद एक "षड्यंत्र" हैं, वास्तव में इन गहरी जड़ें जमाए सामाजिक विभाजनों और शोषण के इतिहास को नकारना है। यह बयानबाजी शासक वर्गों के हित में है, क्योंकि यह मेहनतकश जनता की वास्तविक एकता—जो कि जाति, धर्म और भाषा की दीवारों को तोड़कर ही संभव है—को रोकती है। इसका उद्देश्य शोषितों और दलितों को एक ऐसी काल्पनिक एकता में बाँधना है जो वास्तव में शोषकों के वर्चस्व को ही मजबूत करती है।

आज हम जाति, भाषा या क्षेत्रीय पहचानों के अस्तित्व को नकारता नहीं सकते। बल्कि इन पहचानों के आधार पर होने वाले उत्पीड़न और शोषण का अंत करने के लिए इन्हें मान्यता देना और इनके खिलाफ संघर्ष करना जरूरी है। जाति और भाषाई उत्पीड़न, वर्गीय शोषण से अलग नहीं हैं, बल्कि उसी के विशेष रूप हैं। समाधान इन पहचानों के "दमन" में नहीं, बल्कि इनके आधार पर होने वाले भेदभाव और शोषण के उन्मूलन में निहित है। इसके लिए आवश्यक है कि जाति व्यवस्था, जो श्रम के विभाजन और शोषण का एक साधन है, का पूर्ण उन्मूलन जरूरी है। यह केवल सामाजिक जागरूकता और एक जनवादी और समाजवादी क्रांति से ही संभव है।

राष्ट्रीयताओं (प्रान्तीयताओं) और भाषा के अधिकार को सम्मान देना आवश्यक है। भाषाई और सांस्कृतिक राष्ट्रीयताओं की स्वायत्तता के अधिकार को मान्यता देना और उसे बढ़ावा देना आवश्यक है। एक स्वैच्छिक और वास्तविक संघ ही विभिन्न राष्ट्रीयताओं की एकता को मजबूत कर सकता है।

अंततः, सभी शोषितों—चाहे वे किसी भी जाति, धर्म, भाषा या प्रांत के हों—की वर्गीय एकता ही सामंती-पूंजीवादी शोषण के खिलाफ संघर्ष में जीत दिला सकती है। "हिन्दू राष्ट्र" का भ्रम इस वर्गीय एकता को तोड़ने का काम करता है।

आरएसएस की "हिन्दू राष्ट्र" की परियोजना और जाति-भाषा के भेद को "षड्यंत्र" बताने की कोशिश, भारत के शोषक वर्गों की एक राजनीतिक चाल है। इसका उद्देश्य जनता का ध्यान वास्तविक समस्याओं—पूंजीवादी शोषण, सामंती अवशेष, और साम्राज्यवादी नियंत्रण—से हटाकर काल्पनिक दुश्मनों की ओर मोड़ना है। एक यथार्थवादी दृष्टिकोण इन विभाजनों को नकारता नहीं, बल्कि उनके ऐतिहासिक और भौतिक आधार को समझते हुए, शोषण के इन सभी रूपों के खिलाफ मेहनतकश जनता की वर्गीय एकता को मजबूत करने पर जोर देता है।

सोमवार, 11 अगस्त 2025

नागरिकता की कसौटी पर लोकतंत्र: बिहार की मतदाता-सूची पर उठते सवाल

बिहार में चुनावी मौसम दस्तक दे चुका है, लेकिन इस बार चर्चा न तो घोषणापत्रों की है, न ही गठबंधनों की। इस बार बहस उस बुनियादी दस्तावेज़ पर है, जो लोकतंत्र की पहली सीढ़ी है—मतदाता-सूची। भारत निर्वाचन आयोग द्वारा 24 जून 2025 को जारी आदेश ने इस प्रक्रिया को एक ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है, जहां नागरिकता और मताधिकार के बीच एक नई दीवार खड़ी होती दिख रही है।

 

लोकतंत्र की नींव पर प्रहार

 

बिना पर्याप्त तैयारी और प्रशिक्षण के, एक महीने के भीतर नई मतदाता-सूची तैयार करने क निर्देश ने प्रशासनिक अव्यवस्था को जन्म दिया। बीएलओ को फॉर्म भरवाने, फोटो और हस्ताक्षर लेने की जिम्मेदारी दी गई, लेकिन समय के दबाव में नियमों की अनदेखी आम हो गई। जनसुनवाइयों और रिपोर्टों से यह स्पष्ट है कि कई बार केवल आधार कार्ड और फोन नंबर लेकर फर्जी हस्ताक्षर के साथ फॉर्म अपलोड किए गए। यह प्रक्रिया न केवल अव्यवस्थित थी, बल्कि इसने लोकतंत्र की आत्मा—विश्वसनीयता और समावेशिता—को भी आहत किया है।

 

लाखों मतदाता सूची से बाहर: यह कैसा लोकतंत्र है?


1 अगस्त को जारी मसौदा सूची में 7.24 करोड़ मतदाता शामिल हैं, जबकि पहले की सूची में यह संख्या 7.89 करोड़ थी। यानी लगभग 65 लाख लोग गायब हैं। यह आंकड़ा सिर्फ संख्या नहीं, बल्कि उन नागरिकों की पहचान है जिन्हें उनके मताधिकार से वंचित किया जा रहा है। क्या यह लोकतंत्र का अपमान नहीं?

 


नागरिकता साबित करने की शर्त: एक खतरनाक मोड़

 

अब मतदाताओं से अपेक्षा की जा रही है कि वे 11 दस्तावेज़ों में से कम से कम एक प्रस्तुत करें, जिससे उनकी नागरिकता सिद्ध हो सके। सुप्रीम कोर्ट में आयोग द्वारा प्रस्तुत हलफनामे में कहा गया कि नागरिकता साबित करना अब मतदाता की जिम्मेदारी है। यह एक खतरनाक बदलाव है। अब तक नागरिकता की जांच केवल संदेह की स्थिति में होती थी, लेकिन अब यह एक सामान्य शर्त बनती जा रही है। इस तरह कानून की अवधारणा को पूरी तरह उलट दिया गया है। देश में निवास कर रहे व्यक्ति को यदि कोई (सरकार या कोई भी संस्था) भी कहता है कि वह नागरिक नहीं है तो इसे साबित करने की जिम्मेदारी उस किसी व्यक्ति, सरकार या संस्था की है। लेकिन इसे उलटा जा रहा है, यह जिम्मेदारी अब नागरिक पर डाली जा रही है, यह सरासर गलत है। यह पूरी तरह फासीवादी अवधारणा है और पूरी तरह असंवैधानिक ही नहीं है, बल्कि उन करोड़ों नागरिकों के लिए अपमानजनक है जिनके पास ये दस्तावेज़ नहीं हैं।

 

मनमानी का खतरा और लोकतंत्र की गिरती साख

 

निर्वाचन पंजीकरण अधिकारी (ईआरओ) को यह अधिकार दिया गया है कि वे तय करें कि कोई व्यक्ति नागरिक है या नहीं। यह अधिकार, यदि बिना पारदर्शी दिशा-निर्देशों के लागू होता है, तो मनमानी और भेदभाव की आशंका को जन्म देता है। विशेष रूप से गरीब, वंचित और हाशिए पर खड़े समुदायों के लिए यह प्रक्रिया एक नए प्रकार के उत्पीड़न का माध्यम बन चुका है।

 

यह सिर्फ बिहार नहीं, पूरे देश की चिंता है

 

यह विशेष गहन पुनरीक्षण केवल बिहार तक सीमित नहीं है। यह पूरे देश में लागू होना है। ऐसे में यह सवाल उठाना जरूरी है—क्या हम एक समावेशी लोकतंत्र की ओर बढ़ रहे हैं, या एक ऐसे तंत्र की ओर, जहां नागरिकता साबित करना ही नागरिक होने की शर्त बन जाए?

 

मतदाता-सूची का पुनरीक्षण यदि समावेशिता, पारदर्शिता और संवेदनशीलता के साथ नहीं किया गया, तो यह लोकतंत्र की आत्मा को आहत करेगा। नागरिकता कोई दस्तावेज़ नहीं, बल्कि एक जीवंत अनुभव है—जिसे हर नागरिक अपने अधिकारों के माध्यम से जीता है। उसे कागज़ों की कसौटी पर तौलना, लोकतंत्र को कमजोर करना है।

इस प्रक्रिया पर पुनर्विचार करना आवश्यक है, क्योंकि सवाल सिर्फ मतदाता-सूची का नहीं, लोकतंत्र की आत्मा को जीवित बचाने का है।

शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2024

एक उद्योगपति की मौत

एक खेत मजदूर अक्सर खेत मजदूर के घर या छोटे किसान के घर पैदा होता है, मजदूरी करना उसकी नियति है, वह वहीं काम करते हुए अभावों में जीवन जीता है। उसकी आकांक्षा होती है कि उसके बच्चे जैसे तैसे कुछ पढ़ लिख जाएँ, खेत की मजदूरी करने के बजाए कहीं शहर में बाबू, या किसी कारखाने की नौकरी करें, वहीं घर वर बना लें और इस नर्क से निकल जाएँ। शहर के कारखानों में मशीनों पर काम करने वाले, लोडिंग अनलोडिंग में बोझा उठाने वाले, निर्माण में काम करने वालेे, खानों में काम करने वाले, मंडियों में बोझा ढोने वाले मजदूर चाहते हैं कि वे अपने इस नर्क से निकलें कोई सफेद कालर वाला काम कर लें। पर अधिकांश नहीं कर पाते और उसी नर्क में मर जाते हैं। किसान जिनके पास खेत हैं वे भी अपने खेतों में फसलें उगाते हुए , कर्जों और मौसम की मार झेलते हुए जीते रहते हैं उनमें से थोड़े बहुत निकल कर सफेदपोश भले ही हो जाएँ। पर रहते उसी किसानी में हैं।

इनके बाद आते हैं नगरीय टटपूंजिए वे हमेशा सपना देखते हैं कि डंडी मार कर या कोई तिकड़म कर के, या उनमें से कोई सरकारी नौकरी में लग गया हो तो रिश्वत खाते हुए थोड़ी बड़ी पूंजी इकट्ठा कर लें और ऐसा धंधा करें जिससे दिन दूनी और रात चौगुनी कमाई कर लें और वे नहीं तो उनके बच्चे ही ऐश की जिन्दगी जी लें। पर ऊपर की पायदान पर चढ़ने की कोशिश करने वालों में से ज्यादातर दूसरी तीसरी मंजिल पर चढ़ते हुए ऊँचाई से गिर कर घायल होते हैं, या मर जाते हैं और उनकी संतानें उसी नगरीय मजूरों की श्रेणी में शामिल हो जाते हैं। कुछ जरूर ऐसे होते हैं जो बड़े पूंजीपतियों और अफसरों की चम्पी मारते हुए तीसरी चौथी मंजिल पर चढ़ने में कामयाब हो जाते है, पर उन्हें अपने ही लोगों की तरह नीचे गिरने और घायल हो कर पड़े रहने या मर जाने का भय हमेशा सताता रहता है। इन्हीं में वे लोग भी हैं जो ऊंचाई चढ़ने का स्वप्न नहीं देखते बस चाहते हैं किसी तरह उनके बच्चे उनसे थोड़ा बेहतर कर लें या उन्हीं की तरह जी लें और नीचे न गिरें।

इनके बाद बड़े सरकारी अफसर हैं जिन्हें आप ब्यूरोक्रेट्स कहते हैं इनसे नाभिनालबद्ध नेता हैं जो कभी इस और कभी उस सरकार में बने रहते हैं, या लगातार सरकार में होने का प्रयत्न करते रहते हैं। ये सभी इस मौके में लगे रहते हैं कि अपना कोई बड़ा उद्योग या बिजनेस स्थापित कर लें और नीचे की पायदान के लोगों के श्रम का उपयोग करते हुए अतिरिक्त श्रम का दोहन करते हुए टॉप के 10-20-50-100 या 1000 पूंजीपतियों की श्रेणी में पहुँच जाएँ।

सबसे ऊपर ये टॉप के 10-20-50-100 या 1000 पूंजीपति हैं, जो बाकी सबको हाँकते रहते हैं, देश की जमीन के ऊपर की और जमीन के नीचे की तमाम संपदा को निचोड़ते रहते हैं। इनकी सारी ताकत इस बात में लगी रहती है कि कैसे उनकी पूंजी दिन चौगुनी और रात अठगुनी होती रहे। इनमें कौन लोग शामिल हैं ये हर कोई जानता है।

मंदिर का एक निर्धन संपत्तिहीन पुजारी, ज्योतिषी और कथावाचक जो टटपूंजिए बनियों की बिरादरी के मंदिर की पूजा करने की नौकरी करता था, उसके दोनों बेटे सरकारी अध्यापक हो गए थे। बड़े बेटे के घर दूसरे बच्चे ने जन्म लिया। पहली बेटी थी जो पैदा होने के चंद दिन बाद मर गयी। दूसरे के बाद अनेक बच्चे पैदा हुए लेकिन चार बेटे और दो बेटियाँ जीवित रहे। बड़े बेटे को जब गणित और भाषा पढ़ने हुनर आ गया तो घर में रखी धार्मिक पुस्तकों को पढ़ने का अवसर मिला। स्कूल में भर्ती होने के साथ ही विज्ञान से साबका पड़ा। वह दोनों के बीच झूलता हुआ जब इस हालत में पहुँचा कि उसे जीवन जीने के लिए कुछ करना पड़ेगा, तब उसने बहुत सपने देखे। कभी कलट्टर जैसा अफसर बनने का, वैज्ञानिक बनने का पर वह पुजारी, ज्योतिषी, कथावाचक और अध्यापक कतई नहीं बनना चाहता था, क्योंकि इन पेशों की हकीकत जान चुका था।

उसका ध्यान इंजिनियरिंग की तरफ था लेकिन उसे जीवविज्ञान पढ़ना पड़ा। कुछ दिन उसके आसपास के लोग उसे डाक्टर कहते रहे कि शायद बन जाए। लेकिन वह लोगों को सचाई बताने के चक्कर मेंं पत्रकार हो गया। भीतर घुस कर देखने पर पता लगा कि वे अर्धसत्य के वाहक भर हैं। ज्यादातर सच वह होता है जो अखबारों के मालिक बताना चाहते हैं। क्रूर सच तो शायद कभी बाहर ही नहीं आता। तब उसने सब कुछ छोड़ कर वकील बनना चुना जो मजदूरों की पैरवी करना चाहता था। वकालत करते हुए उसे 45 साल से ज्यादा हो गया है।

रतन टाटा मर गया। वकील की पत्नी कल रात काम से निपटने के बाद मोबाइल पर कोई वीडियो देख रही थी। वकील के पूछने पर उसने बताया कि रतन टाटा के बारे में बता रहे हैं, बहुत बड़ा उद्योगपति था। वकील बोला, वह देश के टॉप के उद्योगपति घराने का बेटा था, उससे ऊपर जाने की इस दुनिया में कोई जगह नहीं थी। उसने दुनिया के टॉप उद्योगपतियों में शामिल होने की कोशिश जरूर की होगी, पर सफल नहीं हुआ। लेकिन नीचे गिरने से बचता रहा, इस तरह गिरने से बचना ही उसकी सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है। हम अपने पिता दादा से बेहतर स्थिति में आ सके और अपने से नीचे की श्रेणी के लोगों के साथ जो अन्याय होता है उस को थोड़ा बहुत कम करने की कोशिश करते हुए, अपने जीवन के लिए जीने के साधन जुटाते हुए जी रहे हैं। हमारे बच्चे हम से बेहतर मजदूरी करते हुए जी रहे हैं और चाहते हैं कि समाज एक ऐसी शक्ल ले ले जिसमें सभी यथाशक्ति काम करें और उन्हें अपनी जरूरत की तमाम चीजें मिलती रहें। जिससे समाज के तमाम लोग बराबरी महसूस करते हुए जी सकें। न कोई छोटा हो न महान हो। न कोई टाटा बिरला, डालमिया, अम्बानी, अडानी हो और न कोई बोझा ढोते हुए या मशीन चलाते हुए बीमार हो कर बिना इलाज और भोजन, कपड़ा और छत के अभाव में जिए। हम थोड़ा बहुत हमारे इस लक्ष्य से काम करते भी हैं। मुझे लगता है हम बेहतर हैं और थोड़ा बेहतर करने की कोशिश करते रहते हैं। ये अखबार, ये मीडिया कभी नहीं छापता कि कोई मजदूर अभावों में मर गया। कभी किसी दुर्घटना में मजदूर मर जाते हैं तो उनकी केवल संख्या छपती है इस तरह कोई विरुदावली नहीं गाता। ये उन्हीं टॉप के 10-20-50-100 या 1000 लोगों के चाकर हैं। ये टॉप के 10-20-50-100 या 1000 लोग समाज में न रहें, एक वर्ग के रूप में हमेशा हमेशा के लिए समाप्त हो जाएँ। मेरी सोच में दुनिया में कोई वर्ग ही नहीं रहे, हमारा समाज वर्गहीन हो जाए तो साँस में साँस आए। मनुष्य और प्रकृति दोनों साँस लेते हुए चैन से जी सकें।

इति संवाद:।।
11.10.2024