शनिवार, 13 दिसंबर 2025
'साख'
शुक्रवार, 12 दिसंबर 2025
बधाई हो
गुरुवार, 11 दिसंबर 2025
रैंप और गंगा
बुधवार, 10 दिसंबर 2025
अमूल्य घोड़ा
मंगलवार, 9 दिसंबर 2025
'पतंगबाज'
सोमवार, 8 दिसंबर 2025
सर्वप्रिय भगवान
रविवार, 7 दिसंबर 2025
आपदा में अवसर
लघुकथा
शनिवार, 6 दिसंबर 2025
"मकौले का भूत"
शुक्रवार, 5 दिसंबर 2025
बदले का पाठ
पन्नों पर लिखे विचार उसे आकर्षित कर रहे थे, पर भीतर कहीं एक और आवाज़ थी—
"बराबरी से पहले बदला क्यों दिखता है?"
किताब कहती थी—"फेमिनिज़्म बराबरी की लड़ाई है।"
पर राधा को बराबरी से पहले अन्याय का हिसाब दिखता था।
गली में ताने, बस में धक्के, घर में चुप रहने की सीख—ये सब उसके भीतर बदले की आग भरते थे। उसके दिमाग में सोच का तूफान उठ खड़ा हुआ था। बेचैनी में ही उसने आस पास देखा। वहाँ दूसरी टेबल पर मीना दी बैठी थी। वह एम.ए. कर रही थीं। जब कि वह खुद बी.ए. के आखिरी साल में थीं। वह तुरन्त मीना दी के पास जा कर बैठ गयी।
“अरे¡ राधा, तुम? क्या तुम्हारा काम हो गया?”
“नहीं दीदी, मेरे मन में विचारों का बहुत द्वंद्व चल रहा है, नहीं जानती यह कैसे शान्त होगा? शायद आप मेरी कुछ मदद करें?”
“हाँ, बोल। ऐसा क्या है?”
राधा ने पूरी बात बताई। मीना हँस पड़ी। फिर बोली, “राधा¡ फेमिनिज्म हमें बराबरी की लड़ाई सिखाती है, लेकिन हमने इस पुंसवादी समाज में जो यातनाएँ झेली हैं उनका अनुभव हमें बदला लेने को उकसाता ही है। हमें रोज मोहल्ले की आँखें सिखाती हैं। जब पड़ोसी लड़का खुलेआम गाली देता है और सब चुप रहते हैं, तब बदला हमारे भीतर अंकुरित होता है। फेमिनिज़्म तो बस हमें शब्द देता है, आवाज़ देता है। लेकिन, लेकिन हमें उस उकसावे में नहीं आना है, वरना हम अपराधी बन जाएंगे। किसी दिन जेल में होंगे। हमें लड़ना होगा। इस यौनिक बराबरी के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ेगी।"
राधा ने कहा, “ हाँ, दीदी मैं भी यही सोच रही थी। अब चलती हूँ, आपसे फिर मिलती हूँ।”
तभी राधा की निगाहें खिड़की के बाहर उठीं तो उसने देखा कि लाइब्रेरी की खिड़की से बाहर लड़कियों का एक समूह हँसते-बोलते जा रहा था।
उनकी हँसी में भी एक चुनौती थी, जैसे कह रही हों, "हम अब चुप नहीं रहेंगे।"
राधा के मन में विचार आया, “"यह लड़ाई किताबों से नहीं जीती जाएगी। यह लड़ाई उस समाज से है जिसने बदला बोया है और जब तक समाज अपनी ज़मीन साफ़ नहीं करेगा, बदले की फसल बार-बार उगती रहेगी।"
उसने मीना की ओर देखा और कहा, “दीदी, जानती हूँ, बराबरी की राह आसान नहीं होगी। लेकिन हमें समाज से यह ‘बदला’ नाम का शब्द ही विदा करना होगा। तभी बराबरी का पाठ पढ़ा जाएगा।"
मंगलवार, 2 दिसंबर 2025
जय जनतंत्र, जय संविधान¡
"लघुकथा"
सोमवार, 1 दिसंबर 2025
रुकने का साहस
खूबसूरत शहर था, नदी थी, तालाब थे, नदी और तालाब किनारे बाग थे। शहर में राजा का गढ़ था चार चार यूनिवर्सिटीज थीं। देश भर से पढ़ने आए विद्यार्थियों और उन्हें संभालने आते उनके अभिभावकों का निरन्तर प्रवाह था। यहाँ के लोगों ने शहर खूबसूरत बनाने में कोई कसर न छोड़ी थी। सड़कों पर ट्रैफिक का शोर हमेशा गूँजता रहता था। कुछ वर्ष पहले शहर की सड़कों और तिराहे-चौराहों को इस तरह का रूप दिया गया था कि अब यहाँ चौराहों पर लाल-हरी-पीली बत्तियाँ नहीं थीं, बस गाड़ियों का बहाव था और लोगों का इंतज़ार।
एक दिन, एक कार अचानक धीमी हुई। चालक ने देखा,- बच्चे, महिलाएँ, वृद्ध-सड़क पार करने के लिए ठिठके खड़े हैं। उसने ब्रेक दबाया और हाथ से इशारा किया, “आइए, निकल जाइए।”
पहले तो लोग हिचकिचाए। उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि कोई उनके लिए रुका है। फिर धीरे-धीरे कदम बढ़े, और वे सुरक्षित पार हो गए। पीछे से हॉर्न की आवाज़ आई, जैसे अधीरता का प्रतीक। लेकिन उस कार का चालक मुस्कुराया, क्योंकि उसने समझा कि सड़क पर सबसे बड़ा साहस तेज़ी से भागना नहीं, बल्कि रुकना है।
धीरे-धीरे यह आदत फैलने लगी। अभय ने इसे नाम दिया—“रुकने का साहस अभियान।” उसने पोस्टर बनवाए, जिन पर लिखा था: “अगर ट्रैफिक सिग्नल नहीं है, तो इंसानियत ही सिग्नल बने।”
कुछ लोग हँसे, कुछ ने हॉर्न बजाया, लेकिन कई ने सीखा। राहगीरों के चेहरों पर भरोसा लौटने लगा। बच्चे अब डरते नहीं थे, महिलाएँ अब ठिठकती नहीं थीं।
शहर की सड़कों पर यह छोटा-सा साहस एक आंदोलन बन गया। और अभय को विश्वास था—अगर एक शहर रुकना सीख ले, तो पूरा समाज आगे बढ़ सकता है।
रविवार, 30 नवंबर 2025
चढ़ावा
शनिवार, 29 नवंबर 2025
सत्यप्रार्थी वध
'लघुकथा'
एक समय की बात है, जब देश की आत्मा दो नगरों में बंटी हुई थी, एक था न्यायपुर, जहाँ दीवारें काली थीं, और दूसरा आस्थागढ़, जहाँ मंदिरों की घंटियाँ हर पल गूंजती थीं।
मुकदमे अब जीवित नहीं थे, वे
कागज़ी प्राणी थे, जिनके पास आँखें थीं, तर्क थे, और कभी-कभी आँसू भी।
"महोदय, मेरा एक
दस्तावेज़ अभी प्रतिवादी से नहीं आया है। कृपया मुझे थोड़ा समय दीजिए, अन्यथा मेरा वध हो जाएगा।"
"यह टारगेट मुकदमा है। देरी नहीं चलेगी।
हमें रोज़ ऊपर जवाब देना होता है।"
और फिर सत्यप्रार्थी का वध हो गया।
उसी दिन, आस्थागढ़ में उत्सव था। ध्वजारोहण की तैयारी थी। मंदिर के शिखर पर केसरिया पताका लहराने वाली थी।
राजा स्वयं आए थे, आरती की थाली लिए। गणेशजी
की मूर्ति के सामने दीप जलाया गया।
घंटियाँ बजीं, पुष्पवर्षा हुई, और सोलह नगरों में रथयात्रा निकली।
न्यायपुर के एक वृद्ध दरबारी ने यह दृश्य देखा और बुदबुदाया,
"जब न्याय कालकोठरी में बंद हो, तब भी उत्सव तो हो ही सकता है।"
उसने अपनी आँखें बंद कर लीं।
एक ओर अंधेरा था, जहाँ सत्य का वध हो रहा था।
दूसरी ओर उजाला था, जहाँ आस्था का जयघोष हो
रहा था।
और देश… ?
कुछ कहते थे, “उसका गौरव बढ़ रहा है”।
कुछ अंधेरे में आँसुओं के साथ कहते थे, “देश मर
रहा है।
शुक्रवार, 28 नवंबर 2025
रामजी बेगा आज्यो
दाज्जी आया तो गोडे पड़ी खाट पे बैठ ग्या.
गाणो पूरो भी न होयो छो के, दाज्जी खेबा लाग्या, "रे छोट्या यो काँईं गाणो लगा मेल्यो छे. गाणा सुणणी होवे तो ढंग का सुणबू कर.
'काँई होग्यो दाज्जी? रामजी को ही तो गाणो लगा मेल्यो छे' छोट्या ने खी.
'काँई को छोखो गाणो छे? जे घर घर आबा लाग्या ने तो रामजी ही बावळ्या हो जाणा छे. बंद कर ईं गाणा ने. पीबा के कारणे एक गिलास पाणी ला, अर् थोड़ी देर चैन से लेटबा दे.
गुरुवार, 27 नवंबर 2025
एन्काउन्टर
जजों को रोज़ वीडियो कॉन्फ़्रेंस पर हाईकोर्ट को जवाब देना पड़ता था—कितने मुकदमे निपटाए, कितने "टारगेट केस" खत्म किए.
एक दिन, एक मुवक्किल ने जज से कहा—
"महोदय, यह दस्तावेज़ तो प्रतिवादी से मंगवाया ही नहीं गया. अगर इसे देखे बिना फैसला हुआ तो हमारे साथ अन्याय होगा."
जज ने चश्मा उतारते हुए ठंडी आवाज़ में कहा—
"मैं कुछ नहीं जानता. अगर आपकी दरख़्वास्त मंज़ूर करूँगा तो मुकदमे में देरी होगी. यह टारगेट मुकदमा है."
और अगले ही दिन वह मुकदमा "एनकाउंटर" कर दिया गया.
इसी बीच शहर में खबर गूँजी—राम मंदिर पूरा हो गया है. कल वहाँ ध्वजारोहण होगा.
सोलह जिलों में रूट डायवर्जन होगा, लोग उमड़ेंगे, झंडा फहरेगा.
मुवक्किल ने अदालत से बाहर निकलते हुए सोचा—
"न्याय तो कालकोठरी में कैद है, लेकिन ध्वजारोहण तो समय पर हो ही जाएगा."
उसने आकाश की ओर देखा. मंदिर की घंटियाँ बज रही थीं, और अदालत की दीवारें चुप थीं.
गुरुवार, 9 अक्टूबर 2025
सिक्के और डाक टिकट
बुधवार, 8 अक्टूबर 2025
सामाजिक जीवन में बकवास का स्थान - दिनेशराय द्विवेदी
शनिवार, 6 सितंबर 2025
भारतीय समाज में जाति, भाषा और राष्ट्रीयता का सवाल : दिनेशराय द्विवेदी
सोमवार, 11 अगस्त 2025
नागरिकता की कसौटी पर लोकतंत्र: बिहार की मतदाता-सूची पर उठते सवाल
बिहार में चुनावी मौसम दस्तक दे चुका है, लेकिन इस बार चर्चा न तो घोषणापत्रों की है, न ही गठबंधनों की। इस बार बहस उस बुनियादी दस्तावेज़ पर है, जो लोकतंत्र की पहली सीढ़ी है—मतदाता-सूची। भारत निर्वाचन आयोग द्वारा 24 जून 2025 को जारी आदेश ने इस प्रक्रिया को एक ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है, जहां नागरिकता और मताधिकार के बीच एक नई दीवार खड़ी होती दिख रही है।
लोकतंत्र की नींव
पर प्रहार
बिना पर्याप्त तैयारी और प्रशिक्षण के, एक महीने के भीतर नई मतदाता-सूची तैयार करने के निर्देश ने प्रशासनिक अव्यवस्था को जन्म दिया। बीएलओ को फॉर्म
भरवाने, फोटो और हस्ताक्षर लेने की जिम्मेदारी दी गई,
लेकिन समय के दबाव में नियमों की अनदेखी आम हो गई। जनसुनवाइयों और
रिपोर्टों से यह स्पष्ट है कि कई बार केवल आधार कार्ड और फोन नंबर लेकर फर्जी
हस्ताक्षर के साथ फॉर्म अपलोड किए गए। यह प्रक्रिया न केवल अव्यवस्थित थी, बल्कि इसने लोकतंत्र की आत्मा—विश्वसनीयता और समावेशिता—को भी आहत किया
है।
लाखों मतदाता
सूची से बाहर: यह कैसा लोकतंत्र है?
1 अगस्त को जारी मसौदा सूची में 7.24 करोड़
मतदाता शामिल हैं, जबकि पहले की सूची में यह संख्या 7.89
करोड़ थी। यानी लगभग 65 लाख लोग गायब हैं। यह आंकड़ा सिर्फ संख्या नहीं, बल्कि उन नागरिकों की पहचान है जिन्हें उनके मताधिकार से वंचित किया जा
रहा है। क्या यह लोकतंत्र का अपमान नहीं?
नागरिकता साबित
करने की शर्त: एक खतरनाक मोड़
अब मतदाताओं से अपेक्षा की जा रही है कि वे 11
दस्तावेज़ों में से कम से कम एक प्रस्तुत करें, जिससे उनकी
नागरिकता सिद्ध हो सके। सुप्रीम कोर्ट में आयोग द्वारा प्रस्तुत हलफनामे में कहा
गया कि नागरिकता साबित करना अब मतदाता की जिम्मेदारी है। यह एक खतरनाक बदलाव है।
अब तक नागरिकता की जांच केवल संदेह की स्थिति में होती थी, लेकिन
अब यह एक सामान्य शर्त बनती जा रही है। इस तरह कानून की अवधारणा को पूरी तरह उलट
दिया गया है। देश में निवास कर रहे व्यक्ति को यदि कोई (सरकार या कोई भी संस्था)
भी कहता है कि वह नागरिक नहीं है तो इसे साबित करने की जिम्मेदारी उस किसी व्यक्ति,
सरकार या संस्था की है। लेकिन इसे उलटा जा रहा है, यह जिम्मेदारी अब नागरिक पर
डाली जा रही है, यह सरासर गलत है। यह पूरी तरह फासीवादी अवधारणा है और पूरी तरह असंवैधानिक
ही नहीं है, बल्कि उन करोड़ों नागरिकों के लिए अपमानजनक है
जिनके पास ये दस्तावेज़ नहीं हैं।
मनमानी का खतरा
और लोकतंत्र की गिरती साख
निर्वाचन पंजीकरण अधिकारी (ईआरओ) को यह अधिकार
दिया गया है कि वे तय करें कि कोई व्यक्ति नागरिक है या नहीं। यह अधिकार, यदि बिना पारदर्शी दिशा-निर्देशों के लागू होता है, तो
मनमानी और भेदभाव की आशंका को जन्म देता है। विशेष रूप से गरीब, वंचित और हाशिए पर खड़े समुदायों के लिए यह प्रक्रिया एक नए प्रकार के
उत्पीड़न का माध्यम बन चुका है।
यह सिर्फ बिहार
नहीं, पूरे देश की चिंता है
यह विशेष गहन पुनरीक्षण केवल बिहार तक सीमित
नहीं है। यह पूरे देश में लागू होना है। ऐसे में यह सवाल उठाना जरूरी है—क्या हम
एक समावेशी लोकतंत्र की ओर बढ़ रहे हैं, या एक ऐसे तंत्र की
ओर, जहां नागरिकता साबित करना ही नागरिक होने की शर्त बन जाए?
मतदाता-सूची का पुनरीक्षण यदि समावेशिता,
पारदर्शिता और संवेदनशीलता के साथ नहीं किया गया, तो यह लोकतंत्र की आत्मा को आहत करेगा। नागरिकता कोई दस्तावेज़ नहीं,
बल्कि एक जीवंत अनुभव है—जिसे हर नागरिक अपने अधिकारों के माध्यम से
जीता है। उसे कागज़ों की कसौटी पर तौलना, लोकतंत्र को कमजोर
करना है।
इस प्रक्रिया पर पुनर्विचार करना आवश्यक है, क्योंकि
सवाल सिर्फ मतदाता-सूची का नहीं, लोकतंत्र की आत्मा को जीवित
बचाने का है।