@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शनिवार, 19 अक्टूबर 2013

गप्पू जी का प्रहसन . . .

ब 'पप्पू' पप्पू नहीं रहा। वह जवान भी हो गया है और समझदार भी। समझदार भी इतना कि उस की मज़ाक बनाने के चक्कर में अच्छे-अच्छे समझदार खुद-ब-खुद मूर्ख बने घूम रहे हैं। विज्ञान भवन में हुए दलित अधिकार सम्मेलन में पप्पू ने भौतिकी के 'एस्केप वेलोसिटी' के सिद्धान्त को दलित मुक्ति के साथ जोड़ते हुए अपनी बात रखी और पृथ्वी और बृहस्पति ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र से बाहर निकलने के ‘पलायन वेग’ का उल्लेख किया। बस फिर क्या था। गप्पू समर्थक पप्पू का मज़ाक बनाने में जुट गए। लगता हैं उन्हें ट्रेनिंग में यही सिखाया गया है कि पप्पू कुछ भी कहे उस का मज़ाक उड़ाना है। वो सही कहे तो भी और वो गलत कहे तो भी। बस यहीं वे फिसलन को पक्की सड़क समझ कर फिसल गए और ऐसे फिसले कि संभलने तक का नहीं बना। ऐसी मूर्खता हुई है कि अब छुपाए नहीं छुपेगी।

प्पू बोला था-'एयरोनॉटिक्स में 'एस्केप वेलॉसिटी' का कॉन्सेप्ट होता है। मालूम है आपको इस बारे में... बताएंगे आप...? 'एस्केप वेलॉसिटी' मतलब अगर आपको धरती से स्पेस में जाना है.. अगर आप हमारी धरती में हैं तो 11.2 किलोमीटर प्रति सेंकंड्स आपकी वेलॉसिटी होनी चाहिए। अगर कम होगी तो आप कितना भी करेंगे आप स्पेस में नहीं जा सकेंगे। ज्यादा होगी तो आप निकल जाएंगे। तो अब जूपिटर की 'एस्केप वेलॉसिटी' होती है 60 किलोमीटर प्रति सेकंड्स। अगर कोई जूपिटर पर खड़ा है और उसे वहां से निकलना होता है तो उसे 60 किलोमीटर प्रति सेकंड्स गति के वेग की जरूरत होती है। यहां हिंदुस्तान में हमारा जात का कॉन्सेप्ट है। यहां भी 'एस्केप वेलॉसिटी' होती है। अगर आप किसी जात के हैं और अगर आपको सक्सेस पानी है तो आपको भी 'एस्केप वेलॉसिटी' की जरूरत होती है। और दलित समुदाय को इस धरती पर जूपिटर जैसी 'एस्केप वेलॉसिटी' की जरूरत है।‘

प्पू तो सही बोला। जैसे किसी चीज को किसी ग्रह की गुरुत्वाकर्षण से बाहर निकलने के लिए एक खास 'पलायन वेग' की जरूरत होती है, उस से कम वेग होने पर वह चीज वापस उसी ग्रह पर गिर पड़ती है। उसी तरह दलितों को दलितपन से निकलने के लिए एक 'पलायन वेग' की जरूरत है। दलित तो समझ गए और समझ जाएंगे, पर जिन्हें उन की मज़ाक बनाने का काम मिला है, वे न तो किसी को सुनते हैं और न ठीक से पढ़ते हैं। उन्हें समझ ही न आया कि पप्पू कह क्या रहा है। वह दलितों को सुझा रहा है कि आप को खुद इतनी ताकत और इच्छाशक्ति पैदा करनी होगी कि अपनी जाति के पिछड़ेपन से निकल सके, दुनिया को अपनी चमक दिखा कर कायल कर सकें।

लो कोई नहीं। गप्पू सम्प्रदाय ऐसी मूर्खताएं करता रहा है, करता रहता है और आगे भी करता रहेगा। उन के ऐसे प्रहसन अभी अगले साल तक खूब दिखाई पड़ेंगे। आप चाहें तो इन प्रहसनों को लाफ्टर शोज से रिप्लेस कर सकते हैं। पप्पू तो पप्पू न रहा पर गप्पू अभी तक भी गप्पू बने हुए हैं।

बुधवार, 16 अक्टूबर 2013

खुली कलई, निकला पीतल

सुमल सिरुमलानी एक साधारण आदमी। काम-धंधे की तलाश, अपराधिक गतिविधियों और अध्यात्म के अभ्यास के बीच उसे जीवन का रास्ता मिल गया। सीधे-सादे, भोले-लोग अपने जीवन के कष्टों के बीच सहज ही साधु-संत टाइप के लोगों पर विश्वास करने लगते हैं कि शायद वे उन के जीवन में कुछ सुख और आनन्द की सृष्टि कर दें, और नहीं तो कम से कम परलोक ही सुधार दें। इसके लिए वे अपना थोड़ा बहुत से ले कर सब कुछ तक समर्पित सकते हैं। उसने अध्यात्म, औषध, योग, संगीत, नृत्य, पुराण आदि आदि... सब को मिला कर घोल बनाया। भक्ति का उद्योग चल निकला, उसके उत्पादन की बाजार में मांग हो गई।

सुमल के आसाराम में रूपान्तरण से उत्पन्न उस का यह उद्योग-व्यापार अच्छा चला तो साधारण आदमी की इच्छाएं जोर मारने लगीं। सबको पूरा करने का साधन जो जुट गया था। अब वह कुछ भी कर सकता था। कोई व्यापारी, उद्योगपति, राजनेता उस के समकक्ष नहीं रहा, वह उन सबसे ऊपर उठ गया। खुद को भगवान के समझने लगा। शायद यह भी समझने लगा हो कि जिन्हें लोगों ने अब तक भगवान समझा है वे भी ऐसे ही बने हों। वह साधारण से विशिष्ट होते-होते खुद को समष्टि समझने लगा। ऊपर उठा तो खुद को विष्णु समझा तो पत्नी लक्ष्मी हो गई, बेटा नारायण साईं और बेटी भारती। सब के सब... सब से ऊपर। लोग, समाज, कानून, राज्य, पुलिस, अदालत, जेल... सब से ऊपर।




र जो ऊपर होते हैं वे ऊपरवालों जैसा व्यवहार भी करते हैं। वह जब भी फंसता तब ऊपराई से काम चलाता लोग झांसे में आ जाते। लेकिन इस बार फंसा तो यह हथियार न चला, पुलिस ने बुलाया तो अपनी ऊपराई से काम चलाने की कोशिश की वह काम न आई तो डर गया। बचने की कोशिश की तो लोगो को फांसने को बनाए गए खुद के जाल में फंसता चला गया। पीछे बचे परिवार ने बचाने की कोशिश की तो वे भी अपनी ऊपराई छोड़ कर साधारण हो गए। कलई खुली तो पीतल नजर आने लगी। उबलती चाशनी में दूध पड़ गया, शक्कर का मैल अपने आप ऊपर आने लगा।

खुद को ऊपर समझने और ऊपराई दिखाने वाले जब साधारण होते हैं तो साधारण व्यक्ति की तरह व्यवहार करते हैं। जब बाकी तीनों के खिलाफ पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज कर ली है और उनसे पूछताछ का सिलसिला शुरू हुआ है तो वे तीनों भी गायब हैं। मूर्ख, ये भी नहीं जानते कि वे कहीं नहीं बचेंगे। आखिर हाथ पड़ ही जाएंगे। वे चाहते तो सीधे पुलिस के पास जा कर कह सकते थे कि जो पूछना है पूछ लो, जो करना है कर लो। हम सच्चे हैं। ईसा ने बादशाह के फैसले से भागने की कोशिश नहीं की थी, फांसी पर चढ़ गया। तब ईसा के अनुयाइयों की संख्या आसाराम के अनुयाइयों के लाखवें हिस्से से भी कम रही होगी। लेकिन आज इक्कीस शताब्दियों के बाद भी वह दुनिया में करोड़ों लोगों का आदर्श है। पर जो सच्चे नहीं हैं, वे कैसे फांसी या जेल की राह का सामना कर सकते हैं? उनमें तो दूसरे विश्वयुद्ध के अपराधी हिटलर जैसा भी साहस नहीं कि जब अपराधों की सजा मिलने की स्थिति बने तो खुद का जीवन समाप्त कर लें।

बुधवार, 9 अक्टूबर 2013

ज़ाजरू से फ्लश शौचालय तक


पुरखे जरूर गांव के थे, लेकिन मैं एक छोटे शहर में पैदा हुआ। वहां कोई जंगल-वंगल नहीं था, जहां लोग जाते। शहर से लगी हुई एक और उस से आधा किलोमीटर दूर दूसरी नदी थी। बहुत से लोग वहां जाते और तटों पर हाज़त खारिज कर के गंदगी फैलाते। हालांकि ख़ास इसी वजह से अल्लाह के भेजे गए प्राणी के वंशज ताक लगाए नथनों से तेजी से सांसें लेते रहते, जिन के नथुनों से आती जाती हवा की आवाजें हाज़त खारिज करने वाले की सांसे रोक देते। जैसे ही वह उठता, वे तेजी से ऐसे टूटते कि उठने वाला जरा सुस्ती दिखाता तो उस की शामत ही आ जाती।

ई लोग इस तरह की दुर्घटना के शिकार हो भी जाते और हफ़्तों तक हाथ या पैर में प्लास्टर चढ़ाए रहते। बच्चे, बूढ़े और औरतें तो नदियों के किनारों तक जा नहीं सकती थीं, इसलिए घरों में ज़ाजरुएं थीं और मुंसिपैल्टी ने भी बम्पुलिस बना रखे थे। ये सब मिला कर भी अपर्याप्त थे। चार-पांच बरस तक के बच्चे जो ज़ाजरू का इस्तेमाल करने के लायक न होते और जिन के ज़ाजरू में गिर कर घायल होने का खतरा रहता, उन्हे चड्डियां उतार कर नालियों पर बैठा दिया जाता, उन की छोड़ी हुई गंदगी को साफ करने के लिए सुअर गलियों में चक्कर लगाते रहते।

ज़ाजरुएं ऐसी थीं कि उन से मैला उठाने के लिए सुबह आठ बजे के करीब सफाई वाले आते, जाजरू के गली या सड़क की तऱफ खुलने वाली खिड़की के पल्ले को हटा कर टोकरी भर कर ले जाते। इस खिड़की का पल्ला अक्सर टूटा होता था जिन से सुअर अपने थूथन अंदर घुसा कर सफाईकर्मी की मेहनत को हल्का करते थे। सफाई के बाद इन में कोई हाजत खारिज करता और जाजरू का पल्ला टूटा न होता तो ज़ाजरु अगले दिन सुबह तक गंध फैलाती रहती। ज़ाजरुओं की खिड़की का पल्ला सफाई कर्मी तोड़ता था या वे सुअरों की कुश्ती का नतीजा होते थे या फिर खुद जाजरू के मालिक उन्हें तोड़ कर रखते थे, यह मेरे लिए आज तक एक रहस्य है।

टूटा हुआ ही सही लेकिन पल्ले का होना इसलिए जरूरी था कि कहीं मुंसिपैल्टी जुर्माना न कर दे। बूढ़ों और बीमारों को जाजरुओं तक पहुंचाने का काम परिवार में किसी को करना पड़ता और जब तक वे सही सलामत बाहर न निकल आते तब तक उसे इस बात की निगरानी रखनी पड़ती कि कोई दुर्घटना न हो जाए या उन्हें किसी मदद की जरूरत न पड़ जाए।

फ्लश जैसा शौचालय पहली बार बड़े शहर में देखने को मिला था। जो पहली मंजिल पर था। लेकिन उस का मल नीचे भूतल पर गिरता था, जिसे उठा कर ले जाने के लिए सफाईकर्मी की जरूरत होती थी। फिर पहला फ्लश वाला शौचालय पिताजी की पोस्टिंग वाले गांव के रेलवे स्टेशन पर देखने को मिला था। चैन खींचते ही ढेर सा पानी ऊपर लटके डिब्बे से निकल पड़ता और सीट एक दम साफ हो जाती। उस का इस्तेमाल कर के बहुत आनन्द हुआ था। रेलवे स्टेशन की बाउंड्री से लगे हुए घर में ही हम रहते थे। स्टेशन पर दिन भर में पांच-छह गाड़ियां रुकतीं, तभी वहां चहल-पहल रहती। बाकी समय प्लेटफॉर्म खाली पड़ा रहता।

स्कूल सुबह जल्दी जाना पड़ता जिस से दोपहर को शौच जाने की जरूरत पड़ती। मैं उस वक्त स्टेशन की बाउंड्री लांघ कर प्लेटफॉर्म पर पहुंच जाता और फ्लश शौचालय का इस्तेमाल कर लेता। स्टेशन कर्मचारी भले थे। उन्हों ने मुझे शौचालय का बेजा इस्तेमाल करने से कभी न रोका।

दादाजी मंदिर के पुजारी थे और मंदिर में ही रहते थे। मंदिर के पिछवाड़े में बनी ज़ाजरू का इस्तेमाल करते। हम भी मंदिर पर होते तो उसी का इस्तेमाल करते। फिर मंदिर के पास का घर पिताजी ने खरीद लिया, लेकिन उस में ज़ाजरू न थी। इसलिए पूरा परिवार मंदिर वाले ज़ाजरू का इस्तेमाल करता। हालांकि इस के लिए पानी भरा डिब्बा या लौटा हाथ में लटका कर घर के दरवाजे से निकल कर पास ही मंदिर परिसर के पिछवाड़े वाले दरवाजे में प्रवेश करना पड़ता था, जो बहुत अज़ीब लगता था। कुछ साल बाद जब फ्लश वाले शौचालय शहर में बनने शुरू हुए तो पिताजी ने एक मिस्त्री से बात कर के घर पर ही दो शौचालय बनवा लिए। तब जा कर मंदिर वाले ज़ाजरू से पीछा छूटा।

बाजी अब पलट गई थी। अब तो मंदिर में रहने वाले परिजन मंदिर वाली ज़ाजरू के बजाए घर आ कर फ्लश वाले शौचालय का इस्तेमाल करने लगे।

हां बड़े शहर में आने के बाद जिन जिन घरों में मैं रहा उन सब में फ्लश वाले शौचालय थे लेकिन बिना कमोड वाले। पच्चीस बरस पहले जब मैं ने अपना खुद का मकान बनाया तो एक कमोड वाला और एक इंडियन स्टाइल वाली सीटें लगवाईं। दो बरस पहले जब उस मकान को छोड़ कर हम वर्तमान मकान में आए तो इस में कमोड नहीं था। साल भर पहले घुटने के लिगामेंट में चोट लगी तो उस की जरूरत पड़ी और एक स्नानघर में कमोड लगवाना पड़ा। अब तो इंडियन स्टाइल का शौचालय उपयोग करना पड़े तो पहले से डर लगने लगता है।

पिछले सप्ताह जब से मीडिया में मंदिर और शौचालय की प्रतियोगिता आरंभ हुई सवाल ज़ेहन में उमड़ रहे थे कि हमारे छोटे शहर वाले घर में अभी कमोड लगा होगा या नहीं? मंदिर में अभी भी ज़ाजरू विद्यमान है या नहीं? आखिर भाई को फोन कर के मैंने अपनी जिज्ञासा शान्त कर ही ली। सन्तोष की बात ये है कि अम्मा को घुटनों की तकलीफ के कारण दो बरस पहले ही भाई ने एक शौचालय में कमोड लगवा ली है और मंदिर वाला ज़ाजरू भी अब नहीं है। उसकी जगह फ्लश शौचालय बनवा दिया गया है, हालांकि अभी वहां कमोड लगाने की किसी को नहीं सूझी है।

रविवार, 6 अक्टूबर 2013

आतंक पैदा करने वाली व्यवस्था . . .

प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, यहां तक कि सोशल मीडिया को भी सनसनी चाहिए। उस के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। कोई भी चटपटी बात हुई या किसी की टोपी उछालने का अवसर हो तो उस से लोग चूकते नहीं। जिस की टोपी उछल गई वह अपनी शिकायत ले कर सारे जग घूम आए, तो भी उसे राहत देने वाला कोई नहीं। आखिर ये हालत क्यों है? 
गांधी जयन्ती के दिन मुझे राजस्थान के एक नगर से आए मेल में यह एक सज्जन ने लिखा है- 
“मैं डॉक्टर हूं, मेरी धर्म पत्नी अपने मां बाप की इकलौती संतान है। शादी के बाद मेरे सास ससुर मेरे साथ ही रहते हैं। ससुर जी की चार भाइयों की शामलाती संपत्ति पड़ोस के गांव में है, बाकी भाई उनके हिस्से की संपत्ति का बेचान करना चाहते थे, इससे डरकर ससुर जी ने कोर्ट से बेचने पर स्टे लिया। इस स्टे को तुड़वाने और उस संपत्ति को बेचने के लिए उन पर दबाव बने इसके लिए फोन पर गाली गलौच करना रोजमर्रा की बात है। मेरे डर से उनमें से किसी की हिम्मत नहीं पड़ती इसलिए मारपीट करने वो मेरे घर तक नहीं आ सकते। कल उनके छोटे भाई की पत्नी (जिसका कि चरित्र सत्यापन अनेक बार हो चुका है) अपनी गर्भवती बेटी को साथ में लेकर सुबह सात बजे घर पहुंची जिसका सीधा सीधा इंटेन्शन मुझे और मेरे ससुर को दुष्कर्म जैसे केस में फंसाना था। लगातार डेढ घंटे तक वो घर में आकर मुझे मां बहन की गालियां निकालती रही फिर घर पर बाहर वाले चौक में आकर पूरे वॉल्यूम में उसी रफ्तार से गाली गलौच चालू रहा।

मेरी पत्नि ने उसे बाहर जाने को कहा इतने में उसने मेरी पत्नी से हाथापाई चालू कर दी इस पर मुझे उन्हें छुड़ाना पड़ा। इतने में उसने अपनी चूङियां निकालकर फेंक दी और अपने कपड़े फाड़े और मुझ पर चिल्लाने लगी कि तुमने मुझे छेड़ा उसकी लड़की जैसा कि उनकी पहले योजना थी। घर के बाहर सड़क पर आकर जोर-जोर से रो-रोकर चिल्लाने लगी कि देखो मेरी मां के साथ क्या हो रहा है मैं घबरा कर पीछे हट गया और मैंने पुलिस को फोन किया। तब मेरी पत्नी ने उसे बड़ी मुश्किल से धक्के देकर बाहर निकाला तब तक पुलिस भी आ गई। पर तब तक कोई सौ पचास लोग मेरे घर के सामने इकट्ठा हो गए थे और पुलिस हाथ पांव जोड़कर उसे वहां से लेकर गई। इस हिदायत के साथ कि डॉक्टर साहब इससे समझौता कर लो नहीं तो ये आपको फंसा देगी।

अंत में अपने वकील से बात की। एफआईआर लिखाने की बात की तो उसने कहा कि वो भी क्रॉस केस करेंगे और उसमें आपके खिलाफ बलात्कार के प्रयास तक की कोई भी झूठी रिपोर्ट लिखा दी जाएगी तो आपको बचाने वाला कोई नहीं है। आपकी इज्जत खराब होना तय है। दस-पांच दिन जेल की हवा खाना तो मामूली बात है। कल को अखबार में आएगी अब हालत ये है कि वो लोग मुझे लगातार धमकियां दे रहे हैं, वो अपनी बेटी का गर्भपात करवा कर रिपोर्ट करवाने पर आमादा हैं तो मेरा फंसना तो तय है। आज तो चलो मैं बच गया पर यदि फिर से मेरे सास ससुर को परेशान करेंगे और फिर यही सीन रिपीट होगा तब क्या होगा? क्योंकि मैं अपने साथ रहने वाले किसी भी व्यक्ति की रक्षा तो फिर भी करूंगा।

ही पूछो तो मैं फ्रस्टेट हो रहा हूं। घबरा रहा हूं डरा हुआ हूं। क्योंकि आज के माहौल में यदि मेरे ऊपर कोई झूठा इल्जाम भी लगा दिया गया तो मुझे जेल तो जरूर जाना पड़ जाएगा। मेरी इज्जत मिट्टी में मिल जायेगी। ऐसे में मैं क्या करूं मेरे पास पास क्या रास्ता है? क्या भारतीय कानून की नजर में किसी शरीफ इज्जतदार व्यक्ति के सम्मान की कोई कीमत नहीं? क्या मेरे मानवाधिकार षड़यंत्रकारियों के अधिकारों के सामने कुछ भी नहीं?”

कानून का बेजा इस्तेमाल लंबे समय से होता आया है लेकिन अब सनसनी की चाहत से यह आम हो रहा है। पुलिस के पास शिकायत दर्ज हो और पुलिस उस पर कार्रवाई न करे और मामला प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पास पहुंच जाए तो बवाल खड़ा हो जाता है। बहुत से राजनीतिक लोग सामने आ जाते हैं। इस माहौल का असर ये है कि पुलिस बजाय इसके कि वह सचाई का पता लगाए और कार्रवाई करे, चुपचाप मामला दर्ज करती है, शिकायतकर्ता द्वारा प्रस्तुत झूठे-सच्चे गवाहों का बयान लेती है, मामला बनाकर आरोपी को गिरफ्तार करती है और अदालत में आरोप पत्र प्रस्तुत कर देती है। बाद में अदालत जाने और अदालत का काम जाने। वह यह जानने की कोशिश ही नहीं करती कि शिकायत सही है या मिथ्या। अदालतों के पास काम भी क्षमता से कई गुना है, वे भी अपना काम यांत्रिक तरीके से करती हैं। जब तक अदालत का निर्णय आता है एक पीड़ित व्यक्ति के सम्मान, आर्थिक स्थिति का जनाजा निकल चुका होता है।

स हालत ने जो समाज में व्यवस्था ने जो आतंकी माहौल उत्पन्न किया है उससे कानून से डरने वाले आम नागरिक जिस भय के माहौल में जी रहे हैं। उस से निकलने पर समाज के राजनैतिक, सामजिक और बौद्धिक क्षेत्रों में कोई चर्चा नहीं है और न समाज को इस आतंक से निकालने के लिए कोई काम हो रहा है।

शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2013

. . . यह भविष्य का युद्ध है।

ये अध्यादेश में अटक कर लटके रह गए। उस ने बिल पास करा लिया। कुछ भी हो, वह कह सकता है – "हम ने कोई कसर ना छोड़ी। बड़ा अच्छा विधेयक है, उस से अच्छा अधिनियम बनेगा। अब हाईकोर्ट चीफ जस्टिस का कोई पंगा नहीं होगा। हम रिटायर्ड या वर्तमान किसी भी हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट जज को लोकायुक्त बना सकेंगे। पांच साल से पुराने मामले की लोकायुक्त जांच नहीं कर सकेगा। अब कोई हम पर उंगली नहीं उठा सकेगा। उठाएगा भी तो कहां उठाएगा? क्या कहा मीडिया में? उस की हम कहां परवाह करते हैं! बहुत सारा मीडिया तो अपने खैरख्वाहों ने खरीद ही लिया है। बाकी का जो है वह प्रीज्यूडिस्ड है, बेईमान है। हमने उस की नाक में नकेल डाल दी है।  लोकायुक्त जांच के दौरान अगर किसी खबरची ने उससे संबंधित खबर छापी या दिखाई तो हम उसे दो साल तक के लिए अन्दर कर सकते हैं। सोशल मीडिया पर तो अपने पैदल मैदान में छाए हैं, वे हर एक उंगली वाले से निपट लेंगे। अब कोई कह के देखे, हमारे यहां लोकायुक्त नहीं है।"

"अब हम होंगे, हमारा स्पीकर होगा, हमारा एक मंत्री होगा, हमारे द्वारा नियुक्त हाईकोर्ट का जज होगा, हमारा अपना सतर्कता आयुक्त होगा। होने को तो विपक्ष का नेता भी होगा। पर वह अकेला क्या कर लेगा? अब कोई नहीं, जो हमे चुनौती दे सके। यही है नया रास्ता, जिस पर हम देश चलाएंगे और उस को चलना होगा।"

ल जाएगा देश . . . ?

“क्यो नहीं चलेगा? हम ने अपने प्रान्त की पार्टी चलाई। क्या छोटा, और क्या बड़ा जो भी हम से टकराया चूर चूर हो गया। अब है कोई इधर हम को कुछ बोलने वाला? फिर हम ने प्रान्त चलाया, जो बोला उस की जुबान बन्द कर दी। बोलने वाले बहुत बोले देश भर में, हाथ पैर पटके, सिर पटके, विदेश में पटके। पर हुआ क्या? इधर अपने प्रान्त में कोई है बोलने वाला? हम काउन्टर को एनकाउंटर करना जानते हैं। कोई नहीं बचा। जो है, उस की हिम्मत नहीं जो जबान को होठों के बाहर निकाले, खाने के लिए चुपचाप इधर-उधर घुमा लेता है वही बहुत है। वह जानता है, जरा भी चूं-चपड़ की कि जुबान से गया। जब इधर हो गया तो पार्टी में डंका बजाने वाले पैदा किए। बहुत उठ उठ कर पड़ रहे थे न वे बुजुर्गवार। क्या हुआ, आ गए न लाइन पर? है अब कोई बोलने वाला उधर पार्टी में? नहीं, न?"

र, सर लोग बात बनाने लगे हैं। सब कुछ खुद ही कर लेंगे, तो बाकी लोग क्या करेंगे?

“हम क्या करेंगे? करेंगे तो वे ही, हम थोड़े ही करेंगे। अब इस पोजीशन पर आ कर हम करते ही थोड़े रहेंगे! पर करेंगे वे ही जो हमारी मर्जी समझेंगे, जो न समझेंगे, वे न रहे हैं, और न अब रहेंगे।  हम सिर्फ कहेंगे, कहेंगे और कहेंगे। जैसे अभी कहते हैं वैसे ही कहेंगे और लोग करेंगे। जैसे अब तक प्रान्त में, पार्टी में करते रहे हैं, वैसे देश में करेंगे। और ना करेंगे, तो तुम्हें पता नहीं? सर हिटलर से मिला हथियार है हमारे पास, वह कभी असफल नहीं होता  ". . . आश्चर्य, आतंक, तोड़फोड़, हत्या से शत्रु की हिम्मत तोड़ कर रख देना, यह भविष्य का युद्ध है।"

बुधवार, 2 अक्टूबर 2013

न्याय व्यवस्था : पूंजीपति-भूस्वामी वर्गों की अवैध संतान


चारा घोटाला मामले के मुकदमों में से एक का निर्णय आ चुका है। लालू को दोषी ठहराया जा कर उन्हें हिरासत में ले लिया गया। सजा कितनी होगी यह निर्णय कल हो ही आएगा। फिलहाल लालू जी जैल पहुँच कर सजा की अवधि जानने को उत्सुक बैठे हैं। लेकिन इस निर्णय में 17 वर्ष लग गए। अभी कुछ बरस अपीलों आदि में लगेंगे। पक्षकारों में इतनी क्षमता है कि जब तक सर्वोच्च न्यायालय अपना अन्तिम निर्णय इस प्रकरण में नहीं दे देता है तब तक वे लड़ सकते हैं। जमानत मंजूर करवा कर फिर से राजनीति के अखाड़े में अपना खेल दिखा सकते हैं।

लेकिन 17 साल क्यों लगे? यह प्रश्न फिर से उठ रहा है। हर कोई यह नसीहत देता दिखाई देता है कि राजनैतिक मामलों के लिए विशेष अदालतें होनी चाहिए जिस से कोई दोषी दोषी हो कर भी बहुत दिनों तक राजनीति करता नहीं रहे।

हुत लचर तर्क है यह। जब भी किसी तरह के महत्वपूर्ण अपराधिक मामले के निर्णय में देरी होना दिखाई देता है तभी यह मांग उठती है और उस पर चर्चा होती है। कुछ विशेष अदालतों की घोषणा होती है और फिर वह मांग ठंडे बस्ते में चली जाती है। हमारी व्यवस्था यही चाहती है कि जो मामले ऊपर तैरने लगें उन से निपट लिया जाए और जो ढके छुपे रह जाएं उन्हें ढके छुपे ही रहने दिया जाए।

भारतीय समाज के लिए न्याय के बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण मामला है और यह जब तब आकस्मिक रूप से विचारणीय नहीं, अपितु निरंतर गंभीर विचार का विषय होना चाहिए। मेरे 35 वर्षों के वकालत के अभ्यास के जीवन में आज भी कुछ मामले हैं जो मेरी वकालत के आरंभिक वर्ष 1978 में पैदा हुए और आज तक पहले न्यायालय से उन में निर्णय नहीं हो पाए हैं। इसका मुख्य कारण मुकदमों के निपटारे के लिए पर्याप्त अदालतों का न होना, स्थापित अदालतों का जजों के अभाव में खाली पड़े रहना, न्यायालयों में सक्षम जजों का न होना और जजों को उन की योग्यता और क्षमता के अनुरूप न्यायालयों में पदस्थापित न करना और उन की क्षमताओं का सदुपयोग न करना प्रमुख हैं।

क जघन्य बलात्कार, एक आतंकी घटना के अभियुक्त, एक जघन्य हत्यारे और एक भ्रष्टाचारी राजनेता को दंडित करने के लिए न्याय की ट्रेन को त्वरित गति से चला कर गंतव्य तक पहुंचा देना ही पर्याप्त है? लाखों युवा अपने दाम्पत्य विवादों के हल के लिए न्यायालयों का द्वारा खटखटाते हैं। उन में सुलह या तलाक उन के नए जीवन का आरंभ कर सकता है लेकिन धीमी गति वाली यह न्याय व्यवस्था उन्हें युवा से अधेड़ और फिर बूढ़ा कर देती है और उन के जीवन कचहरियों के चक्कर काटते नष्ट हो जाते हैं। लाखों लोग अन्याय पूर्ण तरीके से नौकिरियों से निकाले जाते हैं, उन्हें 10-20-30-40 वर्षों तक न्याय नहीं मिल पाता। हर साल हजारों कारखाने बंद होते हैं, लाखों मजदूर कर्मचारी नौकरी से निकाले जाते हैं। उन्हें अपना जीवन चलाने के लिए दूसरी जगह नौकरी तलाशने जाना होता है या फिर जीवनयापन के दूसरे साधन अपनाने होते हैं। इस मजबूरी का लाभ छंटनी करने वाले उद्योगपति अपनाते हैं। उन्हें कानूनी रूप से दिए जाने वाले लाभों को रोक कर बैठ जाते हैं और आधा-पौना-चौथाई रकम ले कर या कभी कभी सारे लाभों को छोड़ कर चले जाने को मजबूर करते हैं। सरकारें, उन के श्रम विभाग और अदालतें हाथ पर हाथ धर कर शक्तिहीन होने या प्रक्रिया का रोना लेकर बैठी रहती हैं।

ब जनसंख्या के हिसाब से न्यायालयों की संख्या बढ़ाने की जरूरत है। पर्याप्त संख्या में सक्षम जज पैदा करने की जरूरत है। हमारी न्याय व्यवस्था जरूरत का पांचवां हिस्सा है। इसका आकार बढ़ा कर पांच गुना करने की जरूरत है। पर आजादी के 67वें वर्ष में भी उस के लिए कोई योजना हमारे पास नहीं है। आज भी हम न्याय को छीन झपट कर खा रहे हैं। 


जादी से ले कर आज तक भारतीय समाज में अन्याय के इस अजगर ने अपने पैर फैलाए हैं और धीरे-धीरे जीवन के हर पक्ष में वह पहुंच गया है। उस का रूप इतना भयंकर और विशाल हो चुका है कि उस से युद्ध स्तर पर निपटने की जरूरत है। लेकिन उस की जड़ें हमारी व्यवस्था में है। वह इसी शोषणकारी पूंजीपतियों भू-स्वामियों के हितो के लिए संचालित व्यवस्था की अवैध संतान है। चाह कर भी यह व्यवस्था उस से निपटने में अक्षम है। इस से केवल, और केवल वह जन-पक्षधर व्यवस्था ही निपट सकती है और उसे परास्त कर सकती है जिस के नियंत्रण में पूंजीपतियों-भूस्वामियों का कोई दखल न हो।

गुरुवार, 29 अगस्त 2013

दिखाने के लिए ही सही कुछ तो सम्मान शेष रहता

1985 में मैं ने अपने लिए पहला वाहन लूना खरीदी थी, दुबली पतली सी। लेकिन उस पर हम तीन यानी मैं, उत्तमार्ध और बेटी पूर्वा बैठ कर सवारी करते थे। स्कूटर के भाव ऊँचे थे और बजाज स्कूटर  आसानी से नहीं मिलता था। फिर पाँच सात साल उसे चला लेने के बाद एक विजय सुपर सैकण्ड हैंड खरीदा, उसे पाँच सात साल चलाने के बाद एक सेकण्ड हैंड बजाज सुपर से उसे बदल डाला। 2003 से मारूति 800 मेरे पास है। उसी साल बेटे के लिए एक हीरो होंडा स्पेंडर बाइक खरीदी थी जो इस साल निकाल दी उस के स्थान पर होंडा एक्टिवा स्कूटर ले लिया है।

ड़तीस साल पहले लूना खरीदी थी तो अपने घर से अदालत तक साढ़े छह किलोमीटर के सफर में बमुश्किल पाँच दस कारें रास्ते में दिखाई पडती थीं। दस साल पहले जब मारूति खरीदी तब अदालत परिसर में 11 बजे के बाद पहुँचने पर उसे पार्क करने की जगह आराम से मिलती थी। लेकिन अब हालत ये है कि अदालत परिसर के भीतर तो उसे पार्क करने के लिेए 10 बजे के पहले ही जगह नहीं रहती। यदि मैं 11 बजे के बाद अदालत पहुँचूँ तो अदालत के आसपास सड़क पर जो पार्किंग की जगह है वहाँ भी उसे पार्क करने की जगह नहीं मिलती मुझे अदालत से कोई तीन सौ मीटर दूर जा कर अपनी कार पार्क करनी पड़ती है। पिछले दस वर्षों में बहुत तेजी से मोटर यानों की संख्या बढ़ी है।

2003 में मैं ने अपने एक मित्र का मुकदमा लड़ा था। वे उस की फीस मुझे कार खरीदवाने में खर्च करना चाहते थे। मैं सकुचा रहा था कि इस कार के पेट्रोल का खर्च सहन कर पाउंगा या नहीं। हम डीलर के यहाँ पहुंचे मारूती 800 पसंद की और डीलर ने मात्र 500 रुपए जमा कर के कार हमें सौंप दी। बाकी सारा पैसा बैंक ऋण से डीलर के पास आ गया। हमें कार की कीमत का 20 प्रतिशत बैंक को देना था वह उन मित्र ने जमा कराया। उस वक्त आप की जेब में पाँच सौ रुपए हों तो आप नयी कार घर ला सकते थे। सरकार की नीतियों ने कार खरीदना इतना आसान कर दिया था। इस आसानी ने ग्राहक की इस संकोच को कि वह कार के रख रखाव का खर्च उठा पाएगा या नहीं दूर भगा दिया था। 

रकार, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों, निजि बैंकों और निजि फाइनेंसरों की इस कर्ज नीति ने मोटर यान खरीदना इतना आसान बना दिया था कि सड़कें कुछ ही सालों में इन वाहनों से पट गई। नगर में पार्किंग की जगह का अकाल हो गया। घरों में खरीदे गए वाहनों को रखने की जगह नहीं थी। इस कारण कालोनी की 20 से 40 फुट चौड़ी सड़कों पर रात-दिन भर वाहन खड़े नजर आने लगे। यहाँ तक कि कालोनी वासियों में पार्किंग को ले कर झगड़े होने लगे, पुलिस के पास मामले बढ़ने लगे, यहाँ तक कि इन झगड़ों में हत्याएँ होने के मामले भी अनेक नगरों में दर्ज हुए। खैर, पब्लिक का क्या? वह आपस में लड़ती-झगड़ती रहे तो देश के पूंजीपति शासकों को बहुत तसल्ली मिलती है कि उन की  लूट की कारगुजारियों पर तो लोगों की निगाह नहीं जाती।


मारा देश तेल का बहुत बड़ा उत्पादक नहीं है। उसे क्रूड बहुत बड़ी संख्या में आयात करना पड़ता है जो डालर में मिलता है। इस तरह देश को इन वाहनों के लिए क्रूड का आयात बढ़ाना पड़ा, उस के लिए डालर देने पड़े। हर साल डालर की जरूरत बढ़ने लगी। देश हर जायज नाजायज तरीकों से डालर लाता रहा। डालर की कीमत बढ़ती रही। हम ने 2005 से आज तक किस तरह क्रूड ऑयल का आयात बढ़ाया है इस सारणी में देखा जा सकता है।  


1986 में हमारा क्रूड का आयात 300 हजार बैरल प्रतिवर्ष के लगभग था। 1999 में यह 800 हजार बैरल, 2001 1600 हजार बैरल, 2007 में 2400 हजार बैरल, 2009 में 3200 बैरल तक पहुँच गया। इसी मात्रा में हमें डालर खरीद कर तेल के बदले देने पड़े। इन डालरों को खरीदने के लिए हमें अपना क्या क्या बेचना पड़ा है इस का हिसाब और अनुमान आप खुद लगा सकते हैं। अब तो शायद बेचने के लिए हमारे पास मिथ्या सम्मान तक शायद ही बचा हो। देश के आजाद होने से जो थोड़ा सा स्वाभिमान हम ने अर्जित किया था वह तो हम कभी का बेच चुके हैं या गिरवी रख चुके हैं जिसे छुड़ाने की कूवत अभी दूर दूर तक पैदा होनी दिखाई नहीं देती। 

ब तक की सरकारों ने यदि देश में सार्वजनिक परिवहन को तरजीह दी होती तो हमें इतना क्रूड खरीदने की जरूरत नहीं होती न स्वाभिमान गिरवी रखना पड़ता और दिखाने के लिए ही सही कुछ तो सम्मान शेष रहता।