@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: हत्या
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शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

. . . यह भविष्य का युद्ध है।

ये अध्यादेश में अटक कर लटके रह गए। उस ने बिल पास करा लिया। कुछ भी हो, वह कह सकता है – "हम ने कोई कसर ना छोड़ी। बड़ा अच्छा विधेयक है, उस से अच्छा अधिनियम बनेगा। अब हाईकोर्ट चीफ जस्टिस का कोई पंगा नहीं होगा। हम रिटायर्ड या वर्तमान किसी भी हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट जज को लोकायुक्त बना सकेंगे। पांच साल से पुराने मामले की लोकायुक्त जांच नहीं कर सकेगा। अब कोई हम पर उंगली नहीं उठा सकेगा। उठाएगा भी तो कहां उठाएगा? क्या कहा मीडिया में? उस की हम कहां परवाह करते हैं! बहुत सारा मीडिया तो अपने खैरख्वाहों ने खरीद ही लिया है। बाकी का जो है वह प्रीज्यूडिस्ड है, बेईमान है। हमने उस की नाक में नकेल डाल दी है।  लोकायुक्त जांच के दौरान अगर किसी खबरची ने उससे संबंधित खबर छापी या दिखाई तो हम उसे दो साल तक के लिए अन्दर कर सकते हैं। सोशल मीडिया पर तो अपने पैदल मैदान में छाए हैं, वे हर एक उंगली वाले से निपट लेंगे। अब कोई कह के देखे, हमारे यहां लोकायुक्त नहीं है।"

"अब हम होंगे, हमारा स्पीकर होगा, हमारा एक मंत्री होगा, हमारे द्वारा नियुक्त हाईकोर्ट का जज होगा, हमारा अपना सतर्कता आयुक्त होगा। होने को तो विपक्ष का नेता भी होगा। पर वह अकेला क्या कर लेगा? अब कोई नहीं, जो हमे चुनौती दे सके। यही है नया रास्ता, जिस पर हम देश चलाएंगे और उस को चलना होगा।"

ल जाएगा देश . . . ?

“क्यो नहीं चलेगा? हम ने अपने प्रान्त की पार्टी चलाई। क्या छोटा, और क्या बड़ा जो भी हम से टकराया चूर चूर हो गया। अब है कोई इधर हम को कुछ बोलने वाला? फिर हम ने प्रान्त चलाया, जो बोला उस की जुबान बन्द कर दी। बोलने वाले बहुत बोले देश भर में, हाथ पैर पटके, सिर पटके, विदेश में पटके। पर हुआ क्या? इधर अपने प्रान्त में कोई है बोलने वाला? हम काउन्टर को एनकाउंटर करना जानते हैं। कोई नहीं बचा। जो है, उस की हिम्मत नहीं जो जबान को होठों के बाहर निकाले, खाने के लिए चुपचाप इधर-उधर घुमा लेता है वही बहुत है। वह जानता है, जरा भी चूं-चपड़ की कि जुबान से गया। जब इधर हो गया तो पार्टी में डंका बजाने वाले पैदा किए। बहुत उठ उठ कर पड़ रहे थे न वे बुजुर्गवार। क्या हुआ, आ गए न लाइन पर? है अब कोई बोलने वाला उधर पार्टी में? नहीं, न?"

र, सर लोग बात बनाने लगे हैं। सब कुछ खुद ही कर लेंगे, तो बाकी लोग क्या करेंगे?

“हम क्या करेंगे? करेंगे तो वे ही, हम थोड़े ही करेंगे। अब इस पोजीशन पर आ कर हम करते ही थोड़े रहेंगे! पर करेंगे वे ही जो हमारी मर्जी समझेंगे, जो न समझेंगे, वे न रहे हैं, और न अब रहेंगे।  हम सिर्फ कहेंगे, कहेंगे और कहेंगे। जैसे अभी कहते हैं वैसे ही कहेंगे और लोग करेंगे। जैसे अब तक प्रान्त में, पार्टी में करते रहे हैं, वैसे देश में करेंगे। और ना करेंगे, तो तुम्हें पता नहीं? सर हिटलर से मिला हथियार है हमारे पास, वह कभी असफल नहीं होता  ". . . आश्चर्य, आतंक, तोड़फोड़, हत्या से शत्रु की हिम्मत तोड़ कर रख देना, यह भविष्य का युद्ध है।"

बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

न्याय व्यवस्था : पूंजीपति-भूस्वामी वर्गों की अवैध संतान


चारा घोटाला मामले के मुकदमों में से एक का निर्णय आ चुका है। लालू को दोषी ठहराया जा कर उन्हें हिरासत में ले लिया गया। सजा कितनी होगी यह निर्णय कल हो ही आएगा। फिलहाल लालू जी जैल पहुँच कर सजा की अवधि जानने को उत्सुक बैठे हैं। लेकिन इस निर्णय में 17 वर्ष लग गए। अभी कुछ बरस अपीलों आदि में लगेंगे। पक्षकारों में इतनी क्षमता है कि जब तक सर्वोच्च न्यायालय अपना अन्तिम निर्णय इस प्रकरण में नहीं दे देता है तब तक वे लड़ सकते हैं। जमानत मंजूर करवा कर फिर से राजनीति के अखाड़े में अपना खेल दिखा सकते हैं।

लेकिन 17 साल क्यों लगे? यह प्रश्न फिर से उठ रहा है। हर कोई यह नसीहत देता दिखाई देता है कि राजनैतिक मामलों के लिए विशेष अदालतें होनी चाहिए जिस से कोई दोषी दोषी हो कर भी बहुत दिनों तक राजनीति करता नहीं रहे।

हुत लचर तर्क है यह। जब भी किसी तरह के महत्वपूर्ण अपराधिक मामले के निर्णय में देरी होना दिखाई देता है तभी यह मांग उठती है और उस पर चर्चा होती है। कुछ विशेष अदालतों की घोषणा होती है और फिर वह मांग ठंडे बस्ते में चली जाती है। हमारी व्यवस्था यही चाहती है कि जो मामले ऊपर तैरने लगें उन से निपट लिया जाए और जो ढके छुपे रह जाएं उन्हें ढके छुपे ही रहने दिया जाए।

भारतीय समाज के लिए न्याय के बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण मामला है और यह जब तब आकस्मिक रूप से विचारणीय नहीं, अपितु निरंतर गंभीर विचार का विषय होना चाहिए। मेरे 35 वर्षों के वकालत के अभ्यास के जीवन में आज भी कुछ मामले हैं जो मेरी वकालत के आरंभिक वर्ष 1978 में पैदा हुए और आज तक पहले न्यायालय से उन में निर्णय नहीं हो पाए हैं। इसका मुख्य कारण मुकदमों के निपटारे के लिए पर्याप्त अदालतों का न होना, स्थापित अदालतों का जजों के अभाव में खाली पड़े रहना, न्यायालयों में सक्षम जजों का न होना और जजों को उन की योग्यता और क्षमता के अनुरूप न्यायालयों में पदस्थापित न करना और उन की क्षमताओं का सदुपयोग न करना प्रमुख हैं।

क जघन्य बलात्कार, एक आतंकी घटना के अभियुक्त, एक जघन्य हत्यारे और एक भ्रष्टाचारी राजनेता को दंडित करने के लिए न्याय की ट्रेन को त्वरित गति से चला कर गंतव्य तक पहुंचा देना ही पर्याप्त है? लाखों युवा अपने दाम्पत्य विवादों के हल के लिए न्यायालयों का द्वारा खटखटाते हैं। उन में सुलह या तलाक उन के नए जीवन का आरंभ कर सकता है लेकिन धीमी गति वाली यह न्याय व्यवस्था उन्हें युवा से अधेड़ और फिर बूढ़ा कर देती है और उन के जीवन कचहरियों के चक्कर काटते नष्ट हो जाते हैं। लाखों लोग अन्याय पूर्ण तरीके से नौकिरियों से निकाले जाते हैं, उन्हें 10-20-30-40 वर्षों तक न्याय नहीं मिल पाता। हर साल हजारों कारखाने बंद होते हैं, लाखों मजदूर कर्मचारी नौकरी से निकाले जाते हैं। उन्हें अपना जीवन चलाने के लिए दूसरी जगह नौकरी तलाशने जाना होता है या फिर जीवनयापन के दूसरे साधन अपनाने होते हैं। इस मजबूरी का लाभ छंटनी करने वाले उद्योगपति अपनाते हैं। उन्हें कानूनी रूप से दिए जाने वाले लाभों को रोक कर बैठ जाते हैं और आधा-पौना-चौथाई रकम ले कर या कभी कभी सारे लाभों को छोड़ कर चले जाने को मजबूर करते हैं। सरकारें, उन के श्रम विभाग और अदालतें हाथ पर हाथ धर कर शक्तिहीन होने या प्रक्रिया का रोना लेकर बैठी रहती हैं।

ब जनसंख्या के हिसाब से न्यायालयों की संख्या बढ़ाने की जरूरत है। पर्याप्त संख्या में सक्षम जज पैदा करने की जरूरत है। हमारी न्याय व्यवस्था जरूरत का पांचवां हिस्सा है। इसका आकार बढ़ा कर पांच गुना करने की जरूरत है। पर आजादी के 67वें वर्ष में भी उस के लिए कोई योजना हमारे पास नहीं है। आज भी हम न्याय को छीन झपट कर खा रहे हैं। 


जादी से ले कर आज तक भारतीय समाज में अन्याय के इस अजगर ने अपने पैर फैलाए हैं और धीरे-धीरे जीवन के हर पक्ष में वह पहुंच गया है। उस का रूप इतना भयंकर और विशाल हो चुका है कि उस से युद्ध स्तर पर निपटने की जरूरत है। लेकिन उस की जड़ें हमारी व्यवस्था में है। वह इसी शोषणकारी पूंजीपतियों भू-स्वामियों के हितो के लिए संचालित व्यवस्था की अवैध संतान है। चाह कर भी यह व्यवस्था उस से निपटने में अक्षम है। इस से केवल, और केवल वह जन-पक्षधर व्यवस्था ही निपट सकती है और उसे परास्त कर सकती है जिस के नियंत्रण में पूंजीपतियों-भूस्वामियों का कोई दखल न हो।

शनिवार, 27 मार्च 2010

इस हत्या के हत्यारे को सजा कैसे हो? और क्या हो?

कोटा में जिला अदालत नयापुरा क्षेत्र में स्थित है। यहाँ नीचे पीली रेखाओं के बीच जिला अदालत कोटा का परिसर दिखाई दे रहा है। किसी को भी इस क्षेत्र की हरियाली देख कर ईर्ष्या हो सकती है। लेकिन अब यह परिसर आवश्यकता से बहुत अधिक छोटा पड़ रहा है। इतना अधिक कि अब तक या तो निकट के किसी परिसर को इस में सम्मिलित कर के इस का विस्तार कर दिया जाना चाहिए था। या फिर जिला अदालत के लिए किसी रिक्त भूमि पर नया परिसर बना दिया जाना चाहिए था। लेकिन अभी सरकार इस पर कोई विचार नहीं कर रही है। शायद वह यह निर्णय तब ले जब इस परिसर में अदालतें संचालित करना बिलकुल ही असंभव हो जाए।   

कोटा जिला अदालत परिसर का उपग्रह चित्र
धिक अदालतों के लिए अधिक इमारतों की आवश्यकता के चलते इस परिसर में अब कोई स्थान ऐसा नहीं बचा है जिस में और इमारतें बनाई जाएँ। यही कारण है कि कुछ अदालतें सड़क पार पश्चिम में कलेक्टरी परिसर में चल रही हैं तो कुछ अदालतों के लिए निकट ही किराए के भवन लिए जा चुके हैं। परिसर में वाहन पार्किंग के लिए बहुत कम स्थान है, जिस का नतीजा यह है कि अदालत आने वाले आधे से अधिक वाहन बाहर सड़क पर पार्क करने पड़ते हैं। मुझे स्वयं को अपनी कार सड़क के किनारे पार्क करनी पड़ती है। इस परिसर में पहले एक इमारत से दूसरी तक जाने के लिए सड़कें थीं और शेष खुली भूमि। लेकिन बरसात के समय यह खुली कच्ची भूमि में पानी भर जाया करता था और मिट्टी पैरों पर चिपकने लगती थी। इस कारण से परिसर में जितनी भी खुली भूमि थी उस में कंक्रीट बिछा दिया गया। केवल जिला जज की इमारत के सामने और सड़क के बीच एक पार्क में कच्ची भूंमि शेष रह गई। लोगों को चलने फिरने में आराम हो गया। 
सूखा हुआ नीम वृक्ष
कंक्रीट बिछाने पर हुआ यह कि जहाँ जहाँ वृक्ष थे उन के तने कंक्रीट से घिर गए। इस वर्ष देखने को मिला कि अचानक एक जवान नीम का वृक्ष खड़ा खड़ा पूरा सूख गया। सभी को आश्रर्य हुआ कि एक जवान हरा भरा वृक्ष कैसे सूख गया। मै ने कल पास जा कर उस का अवलोकन किया तो देखा कि वृक्ष के तने को अपनी मोटाई बढ़ाने के लिए कोई स्थान ही शेष नहीं रहा है। होता यह है कि वृक्षों को जड़ों से पोषण पहुँचाने वाला तने पुराना क्षेत्र जो वलय के रूप में होता  है वह अवरुद्ध हो जाता है और हर वर्ष एक नया वलय तने की बाहरी सतह की ओर बनता है जो पुराने वलय के स्थान पर वृक्ष को जड़ों से पोषण पहुँचाता है। लेकिन इस नीम के वृक्ष का तना सीमेंट कंक्रीट बिछा दिए जाने के कारण अपने नए वलय का निर्माण नहीं कर पाया और वृक्ष को मिलने वाला पोषण मिलना बंद हो गया। वृक्ष को भूमि से जल व पोषण नहीं मिलने से वह सूख गया। असमय ही एक वृक्ष मृत्यु के मुख में चला गया। 
कंक्रीट से घिरा तना
 इस .युग में जब धरती पर से वृक्ष वैसे ही कम हो रहे हैं। इस तरह की लापरवाही से वृक्ष की जो असमय मृत्यु हुई है वह किसी मनुष्य की हत्या से भी बड़ा अपराध है। यदि कंक्रीट बिछाने वाले मजदूरों, मिस्त्रियों और इंजिनियरों ने जरा भी ध्यान रखा होता और वृक्ष के तने के आस-पास चार-छह इंच का स्थान खाली छोड़ दिया जाता तो यह वृक्ष अभी अनेक वर्ष जीवित रह सकता था। जीवित रहते वह सब को छाया प्रदान करता, ऑक्सीजन देता रहता। कंक्रीट बिछाने का काम राज्य के पीडब्लूडी विभाग ने किया था। कागजों में खोजने से यह भी पता लग जाएगा कि यहाँ कंक्रीट बिछाने का काम किस इंजिनियर की देख-रेख मे हुआ था। लेकिन इतना होने पर भी किसी को इस वृक्ष की हत्या के लिए दोषी न ठहराया जाएगा। यदि ठहरा भी दिया जाए तो उसे कोई दंड भले ही दे दिया जाए, लेकिन इस बात को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता कि भविष्य में इस तरह की लापरवाही से कोई वृक्ष नहीं मरेगा। इस के लिए तो मनुष्यों में वृक्षों के लिए प्रेम जागृत करना होगा। जिस से लोग अपने आस पास वृक्षों के लिए उत्पन्न  होने वाले खतरों पर निगाह रखें और कोई वृक्ष मृत्यु को प्राप्त हो उस से पहले ही उस विपत्ति को दूर कर दिया जाए।
मेरे घर के सामने भी मेरे लगाए हुए दो वृक्ष हैं एक नीम का और एक कचनार का। यहाँ भी कंक्रीट बिछाया गया था। लेकिन मोहल्ले में रहने वाले और स्वैच्छा से सामने के पार्क की देखभाल रखने वाले रामधन मीणा जी ने मुझे बताया कि इन वृक्षों के आस पास के कंक्रीट के तोड़ कर स्थान बनाना चाहिए अन्यथा यह सूख जाएंगे। हमने ऐसा ही किया और वे वृक्ष बच गए। अदालत में भी वृक्षों पर किसी का ध्यान रहा होता तो मरने वाला वृक्ष बचाया जा सकता था।