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बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

न्याय व्यवस्था : पूंजीपति-भूस्वामी वर्गों की अवैध संतान


चारा घोटाला मामले के मुकदमों में से एक का निर्णय आ चुका है। लालू को दोषी ठहराया जा कर उन्हें हिरासत में ले लिया गया। सजा कितनी होगी यह निर्णय कल हो ही आएगा। फिलहाल लालू जी जैल पहुँच कर सजा की अवधि जानने को उत्सुक बैठे हैं। लेकिन इस निर्णय में 17 वर्ष लग गए। अभी कुछ बरस अपीलों आदि में लगेंगे। पक्षकारों में इतनी क्षमता है कि जब तक सर्वोच्च न्यायालय अपना अन्तिम निर्णय इस प्रकरण में नहीं दे देता है तब तक वे लड़ सकते हैं। जमानत मंजूर करवा कर फिर से राजनीति के अखाड़े में अपना खेल दिखा सकते हैं।

लेकिन 17 साल क्यों लगे? यह प्रश्न फिर से उठ रहा है। हर कोई यह नसीहत देता दिखाई देता है कि राजनैतिक मामलों के लिए विशेष अदालतें होनी चाहिए जिस से कोई दोषी दोषी हो कर भी बहुत दिनों तक राजनीति करता नहीं रहे।

हुत लचर तर्क है यह। जब भी किसी तरह के महत्वपूर्ण अपराधिक मामले के निर्णय में देरी होना दिखाई देता है तभी यह मांग उठती है और उस पर चर्चा होती है। कुछ विशेष अदालतों की घोषणा होती है और फिर वह मांग ठंडे बस्ते में चली जाती है। हमारी व्यवस्था यही चाहती है कि जो मामले ऊपर तैरने लगें उन से निपट लिया जाए और जो ढके छुपे रह जाएं उन्हें ढके छुपे ही रहने दिया जाए।

भारतीय समाज के लिए न्याय के बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण मामला है और यह जब तब आकस्मिक रूप से विचारणीय नहीं, अपितु निरंतर गंभीर विचार का विषय होना चाहिए। मेरे 35 वर्षों के वकालत के अभ्यास के जीवन में आज भी कुछ मामले हैं जो मेरी वकालत के आरंभिक वर्ष 1978 में पैदा हुए और आज तक पहले न्यायालय से उन में निर्णय नहीं हो पाए हैं। इसका मुख्य कारण मुकदमों के निपटारे के लिए पर्याप्त अदालतों का न होना, स्थापित अदालतों का जजों के अभाव में खाली पड़े रहना, न्यायालयों में सक्षम जजों का न होना और जजों को उन की योग्यता और क्षमता के अनुरूप न्यायालयों में पदस्थापित न करना और उन की क्षमताओं का सदुपयोग न करना प्रमुख हैं।

क जघन्य बलात्कार, एक आतंकी घटना के अभियुक्त, एक जघन्य हत्यारे और एक भ्रष्टाचारी राजनेता को दंडित करने के लिए न्याय की ट्रेन को त्वरित गति से चला कर गंतव्य तक पहुंचा देना ही पर्याप्त है? लाखों युवा अपने दाम्पत्य विवादों के हल के लिए न्यायालयों का द्वारा खटखटाते हैं। उन में सुलह या तलाक उन के नए जीवन का आरंभ कर सकता है लेकिन धीमी गति वाली यह न्याय व्यवस्था उन्हें युवा से अधेड़ और फिर बूढ़ा कर देती है और उन के जीवन कचहरियों के चक्कर काटते नष्ट हो जाते हैं। लाखों लोग अन्याय पूर्ण तरीके से नौकिरियों से निकाले जाते हैं, उन्हें 10-20-30-40 वर्षों तक न्याय नहीं मिल पाता। हर साल हजारों कारखाने बंद होते हैं, लाखों मजदूर कर्मचारी नौकरी से निकाले जाते हैं। उन्हें अपना जीवन चलाने के लिए दूसरी जगह नौकरी तलाशने जाना होता है या फिर जीवनयापन के दूसरे साधन अपनाने होते हैं। इस मजबूरी का लाभ छंटनी करने वाले उद्योगपति अपनाते हैं। उन्हें कानूनी रूप से दिए जाने वाले लाभों को रोक कर बैठ जाते हैं और आधा-पौना-चौथाई रकम ले कर या कभी कभी सारे लाभों को छोड़ कर चले जाने को मजबूर करते हैं। सरकारें, उन के श्रम विभाग और अदालतें हाथ पर हाथ धर कर शक्तिहीन होने या प्रक्रिया का रोना लेकर बैठी रहती हैं।

ब जनसंख्या के हिसाब से न्यायालयों की संख्या बढ़ाने की जरूरत है। पर्याप्त संख्या में सक्षम जज पैदा करने की जरूरत है। हमारी न्याय व्यवस्था जरूरत का पांचवां हिस्सा है। इसका आकार बढ़ा कर पांच गुना करने की जरूरत है। पर आजादी के 67वें वर्ष में भी उस के लिए कोई योजना हमारे पास नहीं है। आज भी हम न्याय को छीन झपट कर खा रहे हैं। 


जादी से ले कर आज तक भारतीय समाज में अन्याय के इस अजगर ने अपने पैर फैलाए हैं और धीरे-धीरे जीवन के हर पक्ष में वह पहुंच गया है। उस का रूप इतना भयंकर और विशाल हो चुका है कि उस से युद्ध स्तर पर निपटने की जरूरत है। लेकिन उस की जड़ें हमारी व्यवस्था में है। वह इसी शोषणकारी पूंजीपतियों भू-स्वामियों के हितो के लिए संचालित व्यवस्था की अवैध संतान है। चाह कर भी यह व्यवस्था उस से निपटने में अक्षम है। इस से केवल, और केवल वह जन-पक्षधर व्यवस्था ही निपट सकती है और उसे परास्त कर सकती है जिस के नियंत्रण में पूंजीपतियों-भूस्वामियों का कोई दखल न हो।

शनिवार, 29 जनवरी 2011

खुद अपने आसपास तलाश कीजिए, कि आप कैसे आरंभ कर सकते हैं?

चमुच परिस्थितियाँ बहुत विकट हैं। परसों इसी ब्लाग पर मैं ने लिखा था सोनवणे की शहादत अपना मोल वसूल कर सकती है। लेकिन इस पोस्ट पर आई टिप्पणियों में निराशा अधिक दिखाई देती थी। भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने  कहा -  ईमानदारी! भ्रष्टाचार! बिल्ली के गले में घण्टी बांधेगा कौन? ऊपर से प्रारम्भ होता है किसी भी चीज का, ऊपर ठीक तो नीचे खुद-ब-खुद ठीक..Blogger satyendra...ने कहा -अब हजार-दो हजार रुपये महीने में मिलावटखोरों के लिए काम करने वाले कर्मचारी पकड़े जाएंगे और कर्तव्य की इतिश्री हो जाएगी।Blogger  Blogger Abhishek Ojha का कहना था - ...जनता ऐसी शहादतों को भुलाने में बहुत वक्त नहीं लगाती।  ललित शर्मा जी का कहना भी कुछ भिन्न नहीं था - राजनेताओं के हाथ माफ़िया की डोरी है। भ्रष्टाचार का पेड़ उल्टा है, जिसकी जड़ें आसमान में हैं। शाखाएं जमीन पर। इस महारोग का इलाज असंभव है।  Raviratlami जी तो पेट्रोल की मिलावट के भुक्तभोगी निकले - मेरे नए वाहन के इंजिन का हेड जिसकी गारंटी अवधि (गनीमत) अभी खत्म भी नहीं हुई थी, मिलावटी पेट्रोल की वजह से ब्लॉक हो गया था... आमतौर पर पेट्रोल में हर जगह भयंकर रूप से मिलावट होती है। अपवाद स्वरूप ही किसी पेट्रोलपंप में शुद्ध पेट्रोल मिलता होगा। जाहिर है, अफ़सरों से लेकर नेताओं तक सभी का मिला-जुला कारनामा होता है यह। मुझे नहीं लगता कि सोनवणे की शहादत से बाल बराबर भी कोई फ़र्क़ कहीं आएगा... Blogger महेन्द्र मिश्र  का कहना था - निसंदेह दुखद वाकया है ... इस तरह की घटनाओं से व्यवस्था से विश्वास उठ जाता है। Blogger cmpershad जी का सोचना भी कुछ भिन्न नहीं था - सत्येंद्र दुबे..... सोनवाने.... ना जाते कितने गए इस ईमानदारी की घुट्टी के कारण :( परिणाम तो वही ढाक के तीन पात।
ब से तीव्र प्रतिक्रिया सुरेश चिपलूनकर  जी की थी। मेरे महाराष्ट्र के 18 लाख सरकारी कर्मचारियों के बारे में यह कहने पर कि उन में अधिकांश ईमानदार हैं। वे अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से निर्वाह करते हैं और उन्हें जो कुछ वेतन के रूप में मिलता है उसी से अपना जीवन यापन करते हैं...  उन्हों ने एक लंबा ठहाका चस्पा किया, फिर लिखा - हा हा हा, सर जी… मुझे नहीं पता था कि आप इतना बढ़िया "हास्य-व्यंग्य" भी लिख लेते हैं… :) फिर मेरे यह कहने पर कि ये सभी कर्मचारी केवल इतना संकल्प कर लें कि वे सरकारी मशीनरी में कोई भ्रष्टाचार नहीं करेंगे और न होने देंगे…"  उन का कहना था कि - यह "सपना" मैं भी देखता हूँ, आप भी देखिये… :)
सुरेश जी की टिप्पणी पर मैं ने प्रतिटिप्पणी की - भ्रष्टाचार को समाप्त करने या नियंत्रित करने के प्रश्न पर अधिकतर टिप्पणीकर्ताओं की राय निराशावादी है। यानी कि वे मानते हैं कि यह वह फोड़ा है जो ठीक नहीं हो सकता, कैंसर ही सही। कैंसर अभी तक लाइलाज है। लेकिन उस की चिकित्सा किए जाने के प्रयास छोड़ नहीं दिए गए हैं। चिकित्सक और शोधकर्ता लगातार उस ओर प्रयासरत हैं। मुझे विश्वास है कि उस की चिकित्सा कभी न कभी संभव हो जाएगी।
चिपलूनकर जी इसे मजाक, व्यंग्य या हास्य समझते हैं कि अधिकांश कर्मचारी ईमानदार हैं। लेकिन यह ठोस हकीकत है। सब लोग कभी बेईमान नहीं हो सकते। एक समूह की केवल अल्पसंख्या ही बेईमान हो सकती है, अधिसंख्या नहीं।
बेईमान व्यक्ति भी हर व्यवहार में बेईमान नहीं होता, न हो सकता है।
ईमानदारी मनुष्य का मूल गुण है, बेईमानी नहीं। इस कारण बेईमान से बेईमान व्यक्ति में भी ईमानदारी का गुण मौजूद रहता है। जरूरत तो इस बात की है कि लोगों के अंदर छिपे ईमानदारी के उस गुण को उभारा जाए। बेईमानी को हतोत्साहित किया जाए। यह समूह ही कर सकता है। जब लोग बेईमानी के विरुद्ध उद्वेलित हों तो वे सामूहिक रूप से इस तरह के निर्णय ले सकते हैं। यदि समूह के नेतृत्व में इच्छा हो तो वह इसे अभियान के रूप में ले सकता है।
इसे अभी मजाक, व्यंग्य या हास्य समझा जा सकता है। लेकिन वह दिन तो अवश्य आना है जब यही जनसमूह ऐसे निर्णय करेगा। इतिहास और मिथक ऐसी घटनाओं और कहानियों से भरा पड़ा है। जनता जब करने की ठान लेती है तो कर गुजरती है। मुझे तो जनता की शक्ति पर अटूट विश्वास है। बस देर इस बात की है कि स्वयं जनता उस शक्ति को कब और कैसे पहचानती है।
स पर चिपलूनकर जी ने पुनः टिप्पणी करते हुए लिखा - यह निराशावादी नहीं बल्कि "यथार्थवादी" विचार हैं…। आपने स्वयं स्वीकार किया कि भ्रष्टाचार अब "कैंसर" बन चुका है तब सरकारी कर्मचारियों में "अधिकांश"(?) कैसे ईमानदार रह सकते हैं? कैंसर का इलाज क्रोसिन से होने वाला नहीं है, इसके लिये एक बड़े और दर्दनाक ऑपरेशन की जरुरत है… वरना सोनवणे, सत्येन्द्र दुबे, मंजूनाथ जैसे अधिकारी मारे ही जाते रहेंगे…। जनता तो जागने से रही, फ़िलहाल सरकारी कर्मचारी भी इसलिये "जागे"(?) हैं कि उनका साथी मारा गया है, कुछ दिन बीतने दीजिये सारा उबाल ठण्डा पड़ जायेगा… पिछले 15 साल से महाराष्ट्र में कांग्रेस-NCP की सरकार है, मालेगाँव में राष्ट्रीय जाँच एजेंसियों का "आना-जाना" लगा ही रहता है… क्या सब के सब अंधे-बहरे हैं? कौन नहीं जानता कि कहाँ-कहाँ पर क्या-क्या हो रहा है… यही यथार्थ है, निराशावाद नहीं…  और जिस "जनता" से आप आशा लगाये बैठे हैं, उसे जानबूझकर महंगाई के कुचक्र में ऐसा फ़ँसा दिया गया है, कि उसके पास दो जून की रोटी के बारे में सोचने के अलावा कुछ अन्य सोचने की फ़ुर्सत ही नहीं है…
संयोग से कल मैं चिपलूनकर जी के नगर के ही एक सेवानिवृत्त अधिकारी के सानिध्य में था। मैं ने उन से भी यही प्रश्न पूछा कि सरकारी कर्मचारियों में कितने ईमानदार होंगे? उन का दृष्टिकोण चिपलूनकर जी से बहुत अधिक भिन्न नहीं था। जब मैं ने उन से जिन विभागों में वे रहे उन के बारे में एक-एक कर पूछना आरंभ किया तो उन का कहना था कि ऊपर के अफसरों से ले कर निचले अफसरों तक में मुश्किल से एक प्रतिशत लोग ईमानदार होंगे। लेकिन जब क्लर्कों, चपरासियों और अन्य कर्मचारियों के संबंध में बात की गई और हिसाब लगाया तो पता लगा कि उन में से अधिकांश ईमानदार हैं। फिर मैं ने उन से किसी भी विभाग के सभी कर्मचारियों और अफसरों की संख्या में ईमानदार लोगों के बारे में हिसाब लगाने को कहा तो उन्हें मानना पड़ा कि सरकारी कर्मचारियों में अभी भी आधे से अधिक ईमानदार हैं। 
वास्तव में होता यह है कि हम जब भी सरकारी कर्मचारियों के बारे में बात करते हैं तो उन के बारे में बात करते हैं जिन से हमारा काम पड़ता है। वहाँ हमें अधिकांश लोग बेईमान दिखाई पड़ते हैं। इस से हमारी यह धारणा बनती है कि अधिसंख्य सरकारी कर्मचारी बेईमान हैं। लेकिन यह यथार्थ नहीं है। यदि हम यह मान लें कि सारा सरकारी अमला बेईमान है तो फिर देश में एक व्यक्ति भी ऐसा नहीं जिसे किसी सरकारी कार्यालय से कभी काम न पड़ा हो। फिर तो जरूर उस ने कभी न कभी अपना काम कराने के लिए कर्मचारी को पैसा दिया होगा।  इस तरह काम कराने के लिए पैसा देना भी तो बेईमानी और भ्रष्टाचार है। इस तरह तो भारत की सम्पूर्ण आबादी बेईमान है। भारत बेईमानों का देश है। इस से निजात एक ही रीति से संभव है कि भारत की तमाम आबादी नष्ट हो जाए। फिर नए सिरे से ईमानदार लोग पैदा हों। नई सृष्टि की रचना हो। यानी प्रलय और पुनः सृजन। यह तो अनीश्वरवादी सांख्य का दृष्टिकोण है जो चिपलूनकर जी के माध्यम  से निसृत हुआ है। 
सा भी नहीं था कि इस पोस्ट पर सारे ही स्वर निराशावादी हों, कुछ स्वर ऐसे भी थे जिन में आशा झलकती थी। Blogger प्रवीण पाण्डेय का कहना था -यही समय है, कमर कसने के लिये। Udan Tashtari वाले समीरलाल जी का कह रहे थे - हद हो चुकी है अब!Blogger राज भाटिय़ा  कहना था -ये ही वे लोग हैं जो चाहें तो दुनिया को पलट सकते हैं।जी आप की इस बात से मै शत प्रति शत सहमत हुं, ओर जिस दिन इस जनता मे एक जुटता आ गई उस दिन इन नेताओ को भागना भी कठिन होगा, ओर यह दिन अब दुर नहीDeleteBlogger Rangnath Singh ने कहा - दुष्यंत के शब्दों में कहें तो, हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए..Blogger निर्मला कपिला जी  का कहना था कि, - 'ये सभी कर्मचारी केवल इतना संकल्प कर लें कि वे सरकारी मशीनरी में कोई भ्रष्टाचार नहीं करेंगे और न होने देंगे। जो भी भ्रष्ट आचरण करेगा उस के विरुद्ध समूहबद्ध हो कर खड़े हो जाएंगे और तब तक चैन से नहीं बैठेंगे जब तक कि भ्रष्टाचार जड़ से समाप्त नहीं हो जाए।' निश्चित रूप से यही विकल्प बचा है लेकिन क्या आम आदमी इस रोग से अछूता है? आखिर हम जैसे लोग भी तो इसमे लिप्त हैं। फिर भी अगर चन्द बचे हुये ईमानदार कोशिश करें तो जरूर सुधार हो सकता है।Blogger रमेश कुमार जैन ने कहा -आपके पोस्ट और टिप्पणियों में व्यक्त विचारों से सहमत हूँ।  मगर कई अन्य लेखकों के विचार भी तर्क पूर्ण है. उनके तर्कों नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। 
जैसा भी समाज और राज्य व्यवस्था मौजूदा समय में है, निश्चित रूप से वह ठीक नहीं। मनुष्य जीवन बहुत बदसूरत हो चला है। उसे यदि ठीक करना है और एक नई खूबसूरत दुनिया बनानी है तो जो कुछ है और जहाँ है उसी से आरंभ करना होगा। कुछ लोगों ने यह भी सही कहा कि सब कुछ ऊपर से चल रहा है, वहीं से दुरुस्त हो सकता है। लेकिन हम तो सब से नीचे बैठे हैं, उसे दुरुस्त कैसे करें?  तो भाई ऊपर चलना होगा। कुतुब की मरम्मत करनी है, ऊपर की मंजिल से आरंभ करनी है। हम नीचे खड़े हैं, ऊपर जाना है। पहले सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर तक पहुँचना होगा। फिर उस के लिए आरंभ नीचे से ही करना होगा। कुतुब की पहली सीढ़ी नीचे ही है जिस पर हम पैर रख कर ऊपर चढ़ेंगे। निश्चित रूप से हमें खुद से, अपने आसपास से आरंभ करना होगा। हम जहाँ हैं वहाँ से इस का आरंभ कर सकते हैं। यह आरंभ कैसे करें? यह मैं बताउंगा तो आप उसे मानेंगे नहीं, और उसे स्वीकार भी नहीं करेंगे, इसलिए नहीं बताउंगा। आप खुद अपने आसपास तलाश कीजिए, कि आप कैसे आरंभ कर सकते हैं?
 

गुरुवार, 27 जनवरी 2011

सोनवणे की शहादत अपना मोल वसूल कर सकती है

तिरिक्त कलेक्टर यशवंत सोनवणे को तेल माफिया द्वारा जिंदा जलाकर मारने के विरोध में महाराष्ट्र के 18 लाख सरकारी कर्मचारी आज हड़ताल पर रहे। कर्मचारियों के इस दबाव में महाराष्ट्र सरकार को मजबूर कर दिया कि वह तेल माफिया के खिलाफ दिखाई देने वाली कार्यवाही करे। आज ही महाराष्ट्र में करीब 200 जगहों पर तेल में मिलावट करने वालों पर छापा डाला गया है। और इस कार्रवाई में अब तक 180 लोगों को गिरफ्तार करने की सूचना है। पुलिस ने इस हत्याकांड के 11 आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया है। लेकिन महाराष्ट्र में यह आम चर्चा है कि तेल माफियाओं की कमान प्रदेश के राजनेताओं के हाथों में है, कहीं कहीं दबी जुबान से इस बात को मीडिया ने भी कहा है।उधर नई दिल्ली में भी केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी ने आपात बैठक बुलाई है जिस में तेल कंपनियों के अधिकारी और अन्य वरिष्ठ अधिकारी भाग ले रहे हैं। इस बैठक का दिखता हुआ  उद्देश्य देश भर में पेट्रोल में चल रहे मिलावट के गोरखधंधे पर लगाम लगाने के लिए योजना बनाना है।
प्रश्न सामने हैं कि महाराष्ट्र सरकार, उस की पुलिस और केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्रालय यह सब कार्यवाही करने के लिए अब तक क्या यशवंत सोनवणे की हत्या किए जाने की प्रतीक्षा कर रहा था? यह सब कार्यवाही पहले क्यों नहीं की जा सकती थी? क्या ये सब कार्यवाहियाँ लगातार नहीं चलती रहनी चाहिए थीं? वास्तविकता यह है कि यशवंत सोनवणे की हत्या से महाराष्ट्र सरकार, उस की पुलिस और केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्रालय को कोई फर्क नहीं पड़ता। ये सब उसी मशीनरी के हिस्से हैं जो इस माफिया को पनपाता है। इस व्यापार में इन सब की भी कहीं न कहीं भागीदारी है। फिर भी महाराष्ट्र सरकार, उस की पुलिस और केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्रालय को कार्यवाही इसलिए करनी पड़ रही है कि इस घटना ने महाराष्ट्र के सरकारी कर्मचारियों, तेल उपभोक्ताओं और आम जनता को उद्वेलित किया है। उद्वेलित जनता कुछ भी कर सकती है। उसी के भय से इन्हें यह सब करना पड़ रहा है। हमारा अनुभव है कि समय गुजरने के साथ ये सब कार्यवाहियाँ दिखावा या आत्मरक्षा के लिए की गई फौरी कार्यवाहियाँ साबित होती हैं।
न 18 लाख सरकारी कर्मचारियों में, जो आज हड़ताल पर रहे हैं अधिकांश ईमानदार हैं। वे अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से निर्वाह करते हैं  और उन्हें जो कुछ वेतन के रूप में मिलता है उसी से अपना जीवन यापन करते हैं या फिर कुछ कमी हो तो उस के लिए नौकरी के बाद कुछ न कुछ काम करते हैं। वे श्रमजीवी हैं, वे ही हैं जो सारी मार झेलते हैं, चाहे वह महंगाई हो, या फिर मिलावट कर के फैलाया जा रहा ज़हर हो। ये ही वे लोग हैं जो चाहें तो दुनिया को पलट सकते हैं। कमी है तो इस बात की है कि उन्हें अपनी इस शक्ति का बोध नहीं है। उस के इस्तेमाल के लिए वे उस तरह से संगठित भी नहीं हैं जैसे उन्हें होना चाहिए था। यह ही वह शक्ति है जो केवल दिनों में नहीं घंटों में भ्रष्टाचार से निपट सकती है, उसे क़ब्र में दफ़्न कर सकती है। केवल एक चेतना और एक साथ कार्यवाही करने की क्षमता इन में उत्पन्न हो जाए तो यह बात कोई स्वप्न नहीं है, यह हो सकता है और एक दिन हो कर रहेगा। ये सभी कर्मचारी केवल इतना संकल्प कर लें कि वे सरकारी मशीनरी में कोई भ्रष्टाचार नहीं करेंगे और न होने देंगे। जो भी भ्रष्ट आचरण करेगा उस के विरुद्ध समूहबद्ध हो कर खड़े हो जाएंगे और तब तक चैन से नहीं बैठेंगे जब तक कि भ्रष्टाचार जड़ से समाप्त नहीं हो जाए। निश्चित रूप से महंगाई, भ्रष्टाचार, मिलावट के ज़हर से सताई हुई जनता भी इन्हीं के साथ खड़ी होगी। यह वक्त है जब वे यह संकल्प कर सकते हैं और उस पर चल सकते हैं। यही वह रास्ता है जिस से यशवंत सोनवणे की शहादत अपना मोल वसूल कर सकती है।

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

जज के पिता और भाई की हत्या - राजस्थान में बिगड़ती कानून और व्यवस्था

राजस्थान में कानून और व्यवस्था की गिरती स्थिति का इस से बेजोड़ नमूना और क्या हो सकता है कि एक पदासीन जज के वकील पिता और वकील भाई की दिन दहाड़े गोली मार कर हत्या कर दी गई। गोली बारी में जज की माँ और उस का एक अन्य वकील भाई और उस की पत्नी गंभीर रूप से घायल हैं। 
ह घटना भरतपुर जिले के कामाँ कस्बे में गुरुवार सुबह आठ बजे घटित हुई। कुछ नकाबपोशों ने घर में घुस कर गोलीबारी की जिस में बहरोड़ में नियुक्त फास्ट ट्रेक जज रामेश्वर प्रसाद रोहिला के वकील पिता खेमचंद्र और वकील भाई गिर्राज की हत्या कर दी गई। जज के एक भाई राजेन्द्र और उस की पत्नी व जज की माँ इस घटना में गंभीर रूप से घायल हो गई हैं। इस घटना का समाचार मिलते ही कस्बे में कोहराम मच गया और भरतपुर जिले में वकीलों में रोष व्याप्त हो गया जिस से समूचे जिले में अदालतों का कामकाज ठप्प हो गया।  हा जा रहा है कि ये हत्याएँ जज के पिता खेमचंद और उस के पड़ौसी के बीच चल रहे भूमि विवाद के कारण हुई प्रतीत होती हैं।
दि यह सच भी है तो भी हम सहज ही समझ सकते हैं कि राज्य में लोगों का न्याय पर से विश्वास उठ गया है और वे अपने विवादों को हल करने के लिए हिंसा और हत्या पर उतर आए हैं। इस से बुरी स्थिति कुछ भी नहीं हो सकती। जब राज्य सरकार इस बात से उदासीन हो कि राज्य की जनता को न्याय मिल रहा है या नहीं, इस तरह की घटनाओं का घट जाना अजूबा नहीं कहा जा सकता। राज्य सरकार आवश्यकता के अनुसार नयी अदालतें स्थापित करने में बहुत पीछे है। राजस्थान में अपनी आवश्यकता की चौथाई अदालतें भी नहीं हैं। जिन न्यायिक और अर्ध न्यायिक कार्यों के लिए अधिकरण स्थापित हैं और जिन का नियंत्रण स्वयं राज्य सरकार के पास है वहाँ तो हालात उस से भी बुरे हैं। श्रम विभाग के अधीन जितने पद न्यायिक कार्यों के लिए स्थापित किए गए हैं उन के आधे भी अधिकारी नहीं हैं। दूसरी और कृषि भूमि से संबंधित मामले निपटाने के लिए जो राजस्व न्यायालय स्थापित हैं उन में प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त किए जाते हैं। उन पर प्रशासनिक कार्यों का इतना बोझा है कि वे न्यायिक कार्ये लगभग न के बराबर कर पाते हैं। राजस्व अदालतों की तो यह प्रतिष्ठा जनता में है कि वहाँ पैसा खर्च कर के कैसा भी निर्णय हासिल किया जा सकता है।  
दि राज्य सरकार ने शीघ्र ही प्रदेश की न्यायव्यवस्था में सुधार लाने के लिए कड़े और पर्याप्त कदम न उठाए तो प्रदेश की बिगड़ती कानून व्यवस्था और बिगड़ेगी और उसे संभालना दुष्कर हो जाएगा। इस घटना से प्रदेश भर के वकीलों और न्यायिक अधिकारियों में जबर्दस्त रोष है और शुक्रवार को संभवतः पूरे प्रदेश में वकील काम बंद रख कर अपने इस रोष का इजहार करेंगे।

शनिवार, 27 मार्च 2010

इस हत्या के हत्यारे को सजा कैसे हो? और क्या हो?

कोटा में जिला अदालत नयापुरा क्षेत्र में स्थित है। यहाँ नीचे पीली रेखाओं के बीच जिला अदालत कोटा का परिसर दिखाई दे रहा है। किसी को भी इस क्षेत्र की हरियाली देख कर ईर्ष्या हो सकती है। लेकिन अब यह परिसर आवश्यकता से बहुत अधिक छोटा पड़ रहा है। इतना अधिक कि अब तक या तो निकट के किसी परिसर को इस में सम्मिलित कर के इस का विस्तार कर दिया जाना चाहिए था। या फिर जिला अदालत के लिए किसी रिक्त भूमि पर नया परिसर बना दिया जाना चाहिए था। लेकिन अभी सरकार इस पर कोई विचार नहीं कर रही है। शायद वह यह निर्णय तब ले जब इस परिसर में अदालतें संचालित करना बिलकुल ही असंभव हो जाए।   

कोटा जिला अदालत परिसर का उपग्रह चित्र
धिक अदालतों के लिए अधिक इमारतों की आवश्यकता के चलते इस परिसर में अब कोई स्थान ऐसा नहीं बचा है जिस में और इमारतें बनाई जाएँ। यही कारण है कि कुछ अदालतें सड़क पार पश्चिम में कलेक्टरी परिसर में चल रही हैं तो कुछ अदालतों के लिए निकट ही किराए के भवन लिए जा चुके हैं। परिसर में वाहन पार्किंग के लिए बहुत कम स्थान है, जिस का नतीजा यह है कि अदालत आने वाले आधे से अधिक वाहन बाहर सड़क पर पार्क करने पड़ते हैं। मुझे स्वयं को अपनी कार सड़क के किनारे पार्क करनी पड़ती है। इस परिसर में पहले एक इमारत से दूसरी तक जाने के लिए सड़कें थीं और शेष खुली भूमि। लेकिन बरसात के समय यह खुली कच्ची भूमि में पानी भर जाया करता था और मिट्टी पैरों पर चिपकने लगती थी। इस कारण से परिसर में जितनी भी खुली भूमि थी उस में कंक्रीट बिछा दिया गया। केवल जिला जज की इमारत के सामने और सड़क के बीच एक पार्क में कच्ची भूंमि शेष रह गई। लोगों को चलने फिरने में आराम हो गया। 
सूखा हुआ नीम वृक्ष
कंक्रीट बिछाने पर हुआ यह कि जहाँ जहाँ वृक्ष थे उन के तने कंक्रीट से घिर गए। इस वर्ष देखने को मिला कि अचानक एक जवान नीम का वृक्ष खड़ा खड़ा पूरा सूख गया। सभी को आश्रर्य हुआ कि एक जवान हरा भरा वृक्ष कैसे सूख गया। मै ने कल पास जा कर उस का अवलोकन किया तो देखा कि वृक्ष के तने को अपनी मोटाई बढ़ाने के लिए कोई स्थान ही शेष नहीं रहा है। होता यह है कि वृक्षों को जड़ों से पोषण पहुँचाने वाला तने पुराना क्षेत्र जो वलय के रूप में होता  है वह अवरुद्ध हो जाता है और हर वर्ष एक नया वलय तने की बाहरी सतह की ओर बनता है जो पुराने वलय के स्थान पर वृक्ष को जड़ों से पोषण पहुँचाता है। लेकिन इस नीम के वृक्ष का तना सीमेंट कंक्रीट बिछा दिए जाने के कारण अपने नए वलय का निर्माण नहीं कर पाया और वृक्ष को मिलने वाला पोषण मिलना बंद हो गया। वृक्ष को भूमि से जल व पोषण नहीं मिलने से वह सूख गया। असमय ही एक वृक्ष मृत्यु के मुख में चला गया। 
कंक्रीट से घिरा तना
 इस .युग में जब धरती पर से वृक्ष वैसे ही कम हो रहे हैं। इस तरह की लापरवाही से वृक्ष की जो असमय मृत्यु हुई है वह किसी मनुष्य की हत्या से भी बड़ा अपराध है। यदि कंक्रीट बिछाने वाले मजदूरों, मिस्त्रियों और इंजिनियरों ने जरा भी ध्यान रखा होता और वृक्ष के तने के आस-पास चार-छह इंच का स्थान खाली छोड़ दिया जाता तो यह वृक्ष अभी अनेक वर्ष जीवित रह सकता था। जीवित रहते वह सब को छाया प्रदान करता, ऑक्सीजन देता रहता। कंक्रीट बिछाने का काम राज्य के पीडब्लूडी विभाग ने किया था। कागजों में खोजने से यह भी पता लग जाएगा कि यहाँ कंक्रीट बिछाने का काम किस इंजिनियर की देख-रेख मे हुआ था। लेकिन इतना होने पर भी किसी को इस वृक्ष की हत्या के लिए दोषी न ठहराया जाएगा। यदि ठहरा भी दिया जाए तो उसे कोई दंड भले ही दे दिया जाए, लेकिन इस बात को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता कि भविष्य में इस तरह की लापरवाही से कोई वृक्ष नहीं मरेगा। इस के लिए तो मनुष्यों में वृक्षों के लिए प्रेम जागृत करना होगा। जिस से लोग अपने आस पास वृक्षों के लिए उत्पन्न  होने वाले खतरों पर निगाह रखें और कोई वृक्ष मृत्यु को प्राप्त हो उस से पहले ही उस विपत्ति को दूर कर दिया जाए।
मेरे घर के सामने भी मेरे लगाए हुए दो वृक्ष हैं एक नीम का और एक कचनार का। यहाँ भी कंक्रीट बिछाया गया था। लेकिन मोहल्ले में रहने वाले और स्वैच्छा से सामने के पार्क की देखभाल रखने वाले रामधन मीणा जी ने मुझे बताया कि इन वृक्षों के आस पास के कंक्रीट के तोड़ कर स्थान बनाना चाहिए अन्यथा यह सूख जाएंगे। हमने ऐसा ही किया और वे वृक्ष बच गए। अदालत में भी वृक्षों पर किसी का ध्यान रहा होता तो मरने वाला वृक्ष बचाया जा सकता था।