सचमुच परिस्थितियाँ बहुत विकट हैं। परसों इसी ब्लाग पर मैं ने लिखा था
सोनवणे की शहादत अपना मोल वसूल कर सकती है। लेकिन इस पोस्ट पर आई टिप्पणियों में निराशा अधिक दिखाई देती थी।
भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा - ईमानदारी! भ्रष्टाचार! बिल्ली के गले में घण्टी बांधेगा कौन? ऊपर से प्रारम्भ होता है किसी भी चीज का, ऊपर ठीक तो नीचे खुद-ब-खुद ठीक..
satyendra...ने कहा -अब हजार-दो हजार रुपये महीने में मिलावटखोरों के लिए काम करने वाले कर्मचारी पकड़े जाएंगे और कर्तव्य की इतिश्री हो जाएगी।
Abhishek Ojha का कहना था - ...जनता ऐसी शहादतों को भुलाने में बहुत वक्त नहीं लगाती।
ललित शर्मा जी का कहना भी कुछ भिन्न नहीं था - राजनेताओं के हाथ माफ़िया की डोरी है। भ्रष्टाचार का पेड़ उल्टा है, जिसकी जड़ें आसमान में हैं। शाखाएं जमीन पर। इस महारोग का इलाज असंभव है।
Raviratlami जी तो पेट्रोल की मिलावट के भुक्तभोगी निकले - मेरे नए वाहन के इंजिन का हेड जिसकी गारंटी अवधि (गनीमत) अभी खत्म भी नहीं हुई थी, मिलावटी पेट्रोल की वजह से ब्लॉक हो गया था... आमतौर पर पेट्रोल में हर जगह भयंकर रूप से मिलावट होती है। अपवाद स्वरूप ही किसी पेट्रोलपंप में शुद्ध पेट्रोल मिलता होगा। जाहिर है, अफ़सरों से लेकर नेताओं तक सभी का मिला-जुला कारनामा होता है यह। मुझे नहीं लगता कि सोनवणे की शहादत से बाल बराबर भी कोई फ़र्क़ कहीं आएगा...
महेन्द्र मिश्र का कहना था - निसंदेह दुखद वाकया है ... इस तरह की घटनाओं से व्यवस्था से विश्वास उठ जाता है।
cmpershad जी का सोचना भी कुछ भिन्न नहीं था - सत्येंद्र दुबे..... सोनवाने.... ना जाते कितने गए इस ईमानदारी की घुट्टी के कारण :( परिणाम तो वही ढाक के तीन पात।
सब से तीव्र प्रतिक्रिया
सुरेश चिपलूनकर जी की थी। मेरे महाराष्ट्र के 18 लाख सरकारी कर्मचारियों के बारे में यह कहने पर कि उन में अधिकांश ईमानदार हैं। वे अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से निर्वाह करते हैं और उन्हें जो कुछ वेतन के रूप में मिलता है उसी से अपना जीवन यापन करते हैं... उन्हों ने एक लंबा ठहाका चस्पा किया, फिर लिखा - हा हा हा, सर जी… मुझे नहीं पता था कि आप इतना बढ़िया "हास्य-व्यंग्य" भी लिख लेते हैं… :) फिर मेरे यह कहने पर कि ये सभी कर्मचारी केवल इतना संकल्प कर लें कि वे सरकारी मशीनरी में कोई भ्रष्टाचार नहीं करेंगे और न होने देंगे…" उन का कहना था कि - यह "सपना" मैं भी देखता हूँ, आप भी देखिये… :)
सुरेश जी की टिप्पणी पर मैं ने प्रतिटिप्पणी की - भ्रष्टाचार को समाप्त करने या नियंत्रित करने के प्रश्न पर अधिकतर टिप्पणीकर्ताओं की राय निराशावादी है। यानी कि वे मानते हैं कि यह वह फोड़ा है जो ठीक नहीं हो सकता, कैंसर ही सही। कैंसर अभी तक लाइलाज है। लेकिन उस की चिकित्सा किए जाने के प्रयास छोड़ नहीं दिए गए हैं। चिकित्सक और शोधकर्ता लगातार उस ओर प्रयासरत हैं। मुझे विश्वास है कि उस की चिकित्सा कभी न कभी संभव हो जाएगी।
चिपलूनकर जी इसे मजाक, व्यंग्य या हास्य समझते हैं कि अधिकांश कर्मचारी ईमानदार हैं। लेकिन यह ठोस हकीकत है। सब लोग कभी बेईमान नहीं हो सकते। एक समूह की केवल अल्पसंख्या ही बेईमान हो सकती है, अधिसंख्या नहीं।
बेईमान व्यक्ति भी हर व्यवहार में बेईमान नहीं होता, न हो सकता है।
ईमानदारी मनुष्य का मूल गुण है, बेईमानी नहीं। इस कारण बेईमान से बेईमान व्यक्ति में भी ईमानदारी का गुण मौजूद रहता है। जरूरत तो इस बात की है कि लोगों के अंदर छिपे ईमानदारी के उस गुण को उभारा जाए। बेईमानी को हतोत्साहित किया जाए। यह समूह ही कर सकता है। जब लोग बेईमानी के विरुद्ध उद्वेलित हों तो वे सामूहिक रूप से इस तरह के निर्णय ले सकते हैं। यदि समूह के नेतृत्व में इच्छा हो तो वह इसे अभियान के रूप में ले सकता है।
इसे अभी मजाक, व्यंग्य या हास्य समझा जा सकता है। लेकिन वह दिन तो अवश्य आना है जब यही जनसमूह ऐसे निर्णय करेगा। इतिहास और मिथक ऐसी घटनाओं और कहानियों से भरा पड़ा है। जनता जब करने की ठान लेती है तो कर गुजरती है। मुझे तो जनता की शक्ति पर अटूट विश्वास है। बस देर इस बात की है कि स्वयं जनता उस शक्ति को कब और कैसे पहचानती है।
इस पर चिपलूनकर जी ने पुनः टिप्पणी करते हुए लिखा - यह निराशावादी नहीं बल्कि "यथार्थवादी" विचार हैं…। आपने स्वयं स्वीकार किया कि भ्रष्टाचार अब "कैंसर" बन चुका है तब सरकारी कर्मचारियों में "अधिकांश"(?) कैसे ईमानदार रह सकते हैं? कैंसर का इलाज क्रोसिन से होने वाला नहीं है, इसके लिये एक बड़े और दर्दनाक ऑपरेशन की जरुरत है… वरना सोनवणे, सत्येन्द्र दुबे, मंजूनाथ जैसे अधिकारी मारे ही जाते रहेंगे…। जनता तो जागने से रही, फ़िलहाल सरकारी कर्मचारी भी इसलिये "जागे"(?) हैं कि उनका साथी मारा गया है, कुछ दिन बीतने दीजिये सारा उबाल ठण्डा पड़ जायेगा… पिछले 15 साल से महाराष्ट्र में कांग्रेस-NCP की सरकार है, मालेगाँव में राष्ट्रीय जाँच एजेंसियों का "आना-जाना" लगा ही रहता है… क्या सब के सब अंधे-बहरे हैं? कौन नहीं जानता कि कहाँ-कहाँ पर क्या-क्या हो रहा है… यही यथार्थ है, निराशावाद नहीं… और जिस "जनता" से आप आशा लगाये बैठे हैं, उसे जानबूझकर महंगाई के कुचक्र में ऐसा फ़ँसा दिया गया है, कि उसके पास दो जून की रोटी के बारे में सोचने के अलावा कुछ अन्य सोचने की फ़ुर्सत ही नहीं है…
संयोग से कल मैं चिपलूनकर जी के नगर के ही एक सेवानिवृत्त अधिकारी के सानिध्य में था। मैं ने उन से भी यही प्रश्न पूछा कि सरकारी कर्मचारियों में कितने ईमानदार होंगे? उन का दृष्टिकोण चिपलूनकर जी से बहुत अधिक भिन्न नहीं था। जब मैं ने उन से जिन विभागों में वे रहे उन के बारे में एक-एक कर पूछना आरंभ किया तो उन का कहना था कि ऊपर के अफसरों से ले कर निचले अफसरों तक में मुश्किल से एक प्रतिशत लोग ईमानदार होंगे। लेकिन जब क्लर्कों, चपरासियों और अन्य कर्मचारियों के संबंध में बात की गई और हिसाब लगाया तो पता लगा कि उन में से अधिकांश ईमानदार हैं। फिर मैं ने उन से किसी भी विभाग के सभी कर्मचारियों और अफसरों की संख्या में ईमानदार लोगों के बारे में हिसाब लगाने को कहा तो उन्हें मानना पड़ा कि सरकारी कर्मचारियों में अभी भी आधे से अधिक ईमानदार हैं।
वास्तव में होता यह है कि हम जब भी सरकारी कर्मचारियों के बारे में बात करते हैं तो उन के बारे में बात करते हैं जिन से हमारा काम पड़ता है। वहाँ हमें अधिकांश लोग बेईमान दिखाई पड़ते हैं। इस से हमारी यह धारणा बनती है कि अधिसंख्य सरकारी कर्मचारी बेईमान हैं। लेकिन यह यथार्थ नहीं है। यदि हम यह मान लें कि सारा सरकारी अमला बेईमान है तो फिर देश में एक व्यक्ति भी ऐसा नहीं जिसे किसी सरकारी कार्यालय से कभी काम न पड़ा हो। फिर तो जरूर उस ने कभी न कभी अपना काम कराने के लिए कर्मचारी को पैसा दिया होगा। इस तरह काम कराने के लिए पैसा देना भी तो बेईमानी और भ्रष्टाचार है। इस तरह तो भारत की सम्पूर्ण आबादी बेईमान है। भारत बेईमानों का देश है। इस से निजात एक ही रीति से संभव है कि भारत की तमाम आबादी नष्ट हो जाए। फिर नए सिरे से ईमानदार लोग पैदा हों। नई सृष्टि की रचना हो। यानी प्रलय और पुनः सृजन। यह तो अनीश्वरवादी सांख्य का दृष्टिकोण है जो चिपलूनकर जी के माध्यम से निसृत हुआ है।
ऐसा भी नहीं था कि इस पोस्ट पर सारे ही स्वर निराशावादी हों, कुछ स्वर ऐसे भी थे जिन में आशा झलकती थी। प्रवीण पाण्डेय का कहना था -यही समय है, कमर कसने के लिये।
Udan Tashtari वाले समीरलाल जी का कह रहे थे - हद हो चुकी है अब!
राज भाटिय़ा कहना था -ये ही वे लोग हैं जो चाहें तो दुनिया को पलट सकते हैं।जी आप की इस बात से मै शत प्रति शत सहमत हुं, ओर जिस दिन इस जनता मे एक जुटता आ गई उस दिन इन नेताओ को भागना भी कठिन होगा, ओर यह दिन अब दुर नही
Rangnath Singh ने कहा - दुष्यंत के शब्दों में कहें तो, हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए..
निर्मला कपिला जी का कहना था कि, - 'ये सभी कर्मचारी केवल इतना संकल्प कर लें कि वे सरकारी मशीनरी में कोई भ्रष्टाचार नहीं करेंगे और न होने देंगे। जो भी भ्रष्ट आचरण करेगा उस के विरुद्ध समूहबद्ध हो कर खड़े हो जाएंगे और तब तक चैन से नहीं बैठेंगे जब तक कि भ्रष्टाचार जड़ से समाप्त नहीं हो जाए।' निश्चित रूप से यही विकल्प बचा है लेकिन क्या आम आदमी इस रोग से अछूता है? आखिर हम जैसे लोग भी तो इसमे लिप्त हैं। फिर भी अगर चन्द बचे हुये ईमानदार कोशिश करें तो जरूर सुधार हो सकता है।
रमेश कुमार जैन ने कहा -आपके पोस्ट और टिप्पणियों में व्यक्त विचारों से सहमत हूँ। मगर कई अन्य लेखकों के विचार भी तर्क पूर्ण है. उनके तर्कों नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
जैसा भी समाज और राज्य व्यवस्था मौजूदा समय में है, निश्चित रूप से वह ठीक नहीं। मनुष्य जीवन बहुत बदसूरत हो चला है। उसे यदि ठीक करना है और एक नई खूबसूरत दुनिया बनानी है तो जो कुछ है और जहाँ है उसी से आरंभ करना होगा। कुछ लोगों ने यह भी सही कहा कि सब कुछ ऊपर से चल रहा है, वहीं से दुरुस्त हो सकता है। लेकिन हम तो सब से नीचे बैठे हैं, उसे दुरुस्त कैसे करें? तो भाई ऊपर चलना होगा। कुतुब की मरम्मत करनी है, ऊपर की मंजिल से आरंभ करनी है। हम नीचे खड़े हैं, ऊपर जाना है। पहले सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर तक पहुँचना होगा। फिर उस के लिए आरंभ नीचे से ही करना होगा। कुतुब की पहली सीढ़ी नीचे ही है जिस पर हम पैर रख कर ऊपर चढ़ेंगे। निश्चित रूप से हमें खुद से, अपने आसपास से आरंभ करना होगा। हम जहाँ हैं वहाँ से इस का आरंभ कर सकते हैं। यह आरंभ कैसे करें? यह मैं बताउंगा तो आप उसे मानेंगे नहीं, और उसे स्वीकार भी नहीं करेंगे, इसलिए नहीं बताउंगा। आप खुद अपने आसपास तलाश कीजिए, कि आप कैसे आरंभ कर सकते हैं?