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शनिवार, 18 अप्रैल 2015

‘कायर बुद्धिजीवियों’ का देश बन जाने का ख़तरा

हम अन्याय को संस्थाबद्ध करते जा रहे हैं -अरुंधति रॉय



लीजिए, हिंदी में पढ़िये पंकज श्रीवास्तव से  अरुंधति रॉय की ताजा बातचीत। 

 

गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल के दौरान 23 मार्च को मशहूर लेखिका अरुंधति रॉय से हुई मेरी बातचीत अंग्रेज़ी पाक्षिक “गवर्नेंस नाऊ” में छपी है। लेकिन जब लोग यह जान गये हैं कि यह साक्षात्कार हिंदी में लिया गया था तो सभी मूल ही सुनना-पढ़ना चाहते हैं। इससे साबित होता है कि अपनी भाषा के परिसर में अगर ज्ञान-विज्ञान और विचारों की बगिया लहलहाती हो तो कोई अंग्रेज़ी का मुँह नहीं जोहेगा। इस इंटर्व्यू की करीब 40 मिनट की रिकॉर्डिंग मोबाइल फोन पर है, जिसे फ़ेसबुक पर पोस्ट करना मुश्किल हो रहा है। फ़िलहाल पढ़कर ही काम चलाइये ... पंकज श्रीवास्तव


सवाल----गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल में आप दूसरी बार आई हैं। जो शहर गीताप्रेस और गोरखनाथ मंदिर और उसके महंतों की राजनीतिक पकड़ की वजह से जाना जाता है, वहां ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ दस साल का सफ़र पूरा कर रहा है। इसे कैसे देखती हैं?
अरुंधति रॉय---दूसरी नहीं, तीसरी बार। एक बार आज़मगढ़ फ़ेस्टिवल में भी जा चुकी हूं। दरअसल, ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ एक महत्वपूर्ण अवधारणा है जो सिर्फ गोरखुपर के लिए अहमियत नहीं रखता। यह वाकई प्रतिरोध है जो सिर्फ जनसहयोग से चल रहा है, वरना प्रतिरोध को भी ‘ब्रैंड’ बना दिया गया है। अमेरिका से लेकर भारत तक, जहाँ भी देखो प्रतिरोध को व्यवस्था में समाहित कर के एक ‘ब्रैंड’ बनाने की कोशिश होती है। जब मैंने ‘एंड आफ इमेजिनेशन’ लिखा था, तो पहला रियेक्शन यह हुआ कि बहुत सारे ब्रैंड्स, जिसमें कुछ जीन्स के भी थे, ने विज्ञापन करने के लिए मुझसे संपर्क किया। यह एक पुराना खेल है। अमेरिका में नागरिकों की जासूसी का खुलासा करने वाले एडवर्ड स्नोडेन के बारे में फ़िल्म बनी है जिसके लिए फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन ने पैसा दिया। ‘फ़्रीडम आफ प्रेस फ़ाउंडेशन’ में भी फ़ोर्ड का पैसा लगा है। ये लोग ‘प्रतिरोध’ की धार पर रेगमाल घिसकर उसे कुंद कर देते हैं। भारत में देखिये, जंतर-मंतर पर जुटने वाली भीड़ का चरित्र बदल गया है। तमाम एनजीओ, फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन जैसी संस्थाओं से पैसा लेकर प्रतिरोध को प्रायोजित करते हैं। ऐसे में गोरखपुर जैसे दक्षिणपंथी प्रभाव वाले शहर में प्रतिरोध के सिनेमा का उत्सव मनाना ख़ासा अहमियत रखता है। मैं सोच रही थी कि आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद जैसी संस्थायें अक्सर मेरा विरोध करती हैं, प्रदर्शन करती हैं, लेकिन गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल को लेकर ऐसा नहीं हुआ। इसका दो मतलब है। या तो उन्हें इसकी परवाह नहीं। या फिर उन्हें पता है कि इस आयोजन ने गोरखपुर के लोगों के दिल मे जगह बना ली है। मेरे पास इस सवाल का ठीक-ठीक जवाब नहीं है। लेकिन इस शहर में ऐसा आयोजन होना बड़ी बात है। कोई कह रहा था कि इस फ़ेस्टिवल से क्या फ़र्क़ पड़ा। मैं सोच रही थी कि अगर यह नहीं होता तो माहौल और कितना ख़राब होता।

सवाल---आपकी नज़र में आज का भारत कैसा है? मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य क्या बता रहा है ?
अरुंधति रॉय---जब मई 2014 में मोदी की सरकार बनी तो बहुत लोगों को, जिनमें मैं भी थी, यकीन नहीं हुआ कि यह हमारे देश में हुआ है। लेकिन अगर ऐतिहासिक नजरिये से देखें तो यह होना ही था। 1925 से जब आरएसएस बना, या उससे पहले से ही भारतीय समाज में फ़ासीवादी प्रवृत्तियाँ नज़र आने लगी थीं। ‘घर वापसी’ जैसे कार्यक्रम उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में हो रहे थे। यानी इस दौर से गुज़रना ही था। देखना है कि यह सब कितने समय तक जारी रहेगा क्योंकि आजकल बदलाव बहुत तेज़ी से होते हैं। मोदी ने अपने नाम का सूट पहन लिया और अपने आप को एक्सोपज़ कर लिया। अच्छा ही है कि कोई गंभीर विपक्ष नहीं है। ये अपने आपको एक्सपोज़ करके खुद को तोड़ लेंगे। आखिर मूर्खता को कितने दिनों तक बरदाश्त किया जा सकता है। लोगों को शर्म आती है जब प्रधानमंत्री सार्वजनिक रूप से कहते हैं कि प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी होती थी। गणेश के धड़ पर हाथी का सिर ऐसे ही जोड़ा गया था। फ़ासीवाद के साथ लोग ऐसी मूर्खताएं कब तक सहेंगे।
मैं पहले से कहती रही हूं कि जब राजीव गांधी ने अयोध्या में राममंदिर का ताला खुलवाया तो साथ में ‘बाज़ार’ का ताला भी खोला गया। इसी के साथ दो क़िस्म के कट्टरपंथ को खड़ा किया गया। एक इस्लामी आतंकवाद और दूसरा माओवाद। इनसे लड़ने के नाम पर ‘राज्य’ ने अपना सैन्यीकरण किया। कांग्रेस और बीजेपी, दोनों ने इस रास्ते को अपनाया क्योंकि नव उदारवादी आर्थिक नीतियाँ, बिना सैन्यीकरण के लागू नहीं हो सकतीं। इसीलिए जम्मू-कश्मीर में पुलिस, सेना की तरह काम करती है और छत्तीसगढ़ में सेना, पुलिस की भूमिका में है। यह जो ख़ुफिया निगरानी, यूआईडी, आधार-कार्ड वगैरह की बातें हैं, यह सब उसी का हिस्सा हैं। अदृश्य जनसंख्या को नज़र में लाना है। यानी एक-एक आदमी की सारी जानकारी रखनी है। जंगल के आदिवासियों से पूछा जाएगा कि उनकी ज़मीन का रिकार्ड कहां है। नहीं है, तो कहा जाएगा कि ज़मीन तुम्हारी नहीं है। डिजिटलीकरण का मकसद “अदृश्य” को “दृश्य” बनाना है। इस प्रक्रिया में बहुत लोग गायब हो जाएंगे। इसमें आईएमएफ़, वर्ल्ड बैंक से लेकर फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन तक, सब मिले हैं। वे क़ानून के राज पर खूब ज़ोर देते हैं और क़ानून बनाने का हक़ अपने पास रखना चाहते हैं। ये संस्थायें सबसे ज़्यादा ग़ैरपारदर्शी ढंग से काम करती हैं, लेकिन इन्हें अपनी योजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए आंकड़ों की पारदर्शी व्यवस्था चाहिए। इसीलिए वे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों की मदद करते हैं। फ़ोर्ड फ़ाउंडेशन एक नया पाठ्यक्र गढ़ने में जुटा है। वह चाहता है कि पूरी दुनिया एक ही तरह की भाषा बोले। वह हर तरह के क्रांतिकारी विचारों, वाम विचारों को खत्म करने, नौजवानों की कल्पनाओं को सीमित करने में जुटा है। फिल्मों, साहित्यिक उत्सवों और अकादमिक क्षेत्र में कब्ज़ा करके शोषण मुक्त दुनिया और उसके लिए संघर्ष के विचार को पाठ्यक्रमों से बाहर किया जा रहा है।


सवाल--- आपको हालात को बदलने की कोई मज़बूत जद्दोजहद नज़र आती है क्या.. भविष्य कैसा लग रहा है?
अरुंधति रॉय--- प्रतिरोध आंदोलन या क्रांति, जो भी शब्द इस्तेमाल कीजिये, उसे पिछले कुछ वर्षों में काफी धक्का लगा है। 1968-70 में जब नक्सलवादी आंदोलन शुरू हुआ, या तमाम सीमाओं के बावजूद जय प्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति के दौर की माँगों पर जरा ग़ौर कीजिये। तब माँग थी- “न्याय”। जैसे ज़मीन जोतने वाली की हो या संपत्ति का समान वितरण हो। लेकिन आज जो माओवादी सबसे “रेडिकल” कहलाते हैं, वे बस यही तो कह रहे हैं कि जो ज़मीन आदिवासियों के पास है, उसे छीना ना जाये। ‘नर्मदा आंदोलन’ की माँग है कि विस्थापन न हो। यानी जिसके पास जो है, उससे वह छीना न जाये। लेकिन जिनके पास कुछ नहीं है, जैसे दलितों के पास ज़मीन नहीं है, उनके लिए ज़मीन तो कोई नहीं मांग रहा है। यानी ‘न्याय’ का विचार को दरकिनार कर मानवाधिकार के विचार को अहम बना दिया गया है। यह बड़ा बदलाव है। आप मानवाधिकार के नाम पर माओवादियों से लेकर सरकार तक को, एक स्वर में कोस सकते हैं। कह सकते हैं कि दोनों ही मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हैं। जबकि ‘अन्याय’ पर बात होगी तो इसके पीछे की राजनीति पर भी बात करनी पड़ेगी।
कुल मिलाकर यह इमेजनिशन (कल्पना) पर हमला है। सिखाया जा रहा है कि ‘क्रांति’ यूटोपियन विचार है, मूर्खता है। छोटे सवाल बड़े बन रहे हैं जबकि बड़ा सवाल गायब है। जो सिस्टम के बाहर हैं, उनकी कोई राजनीति नहीं है। तमाम ख़्वाब टूटे पड़े हैं। राज्य, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के हाथ का उपकरण बना हुआ है। दुनिया की अर्थव्यवस्था एक अंतरराष्ट्रीय पाइपलाइन की तरह है जिसके लिए सरहदें बेमानी हो गयी हैं।


सवाल---- तो क्या प्रतिरोध की ताकतों ने समर्पण कर दिया है, ‘इमेजनिशेन’ की इस लड़ाई में?
अरुंधति रॉय---मेरे ख़्याल में, वे बहुत कमज़ोर स्थिति में हैं। जो सालों से लड़ाई लड़ रहे हैं, वे सोच ही नहीं पा रहे हैं। ‘राज्य’ लड़ाई को इतना थकाऊ बना देता है कि अवधारणा के स्तर पर सोचना मुश्किल हो जाता है। यहाँ तक कि अदालतें भी थका देती हैं। हर तरह से कोशिश करके लोग हार जाते हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर देश में ऐसी कोई संस्था नहीं है जो मानती हो कि उसका काम लोगों की मदद करना है। उन्हें लगता है कि उनका काम “नियंत्रण” करना है। न्याय कल्पना से बाहर की चीज होती जा रही है। 28 साल बाद हाशिमपुरा हत्याकांड का फैसला आया। सारे मुल्ज़िम छोड़ दिये गये। वैसे इतने दिन बाद किसी को सजा होती भी तो अन्याय ही कहलाता।


सवाल------ आपने गोरखपुर फ़िल्म फ़ेस्टिवल का उद्घाटन करते हुए गाँधी जी को पहला “कॉरपोरेट प्रायोजित एनजीओ” करार दिया है। इस पर ख़ूब हंगामा भी हुआ। आपकी बात का आधार क्या है?
अरुंधति रॉय---आजादी के इतने सालों बाद हममे इतना साहस होना चाहिए कि तथ्यों के आधार पर राय बना सकें। मैंने गांधी को पहला कॉरपोरेट प्रायोजित एनजीओ कहा है तो उसके प्रमाण हैं। उन्हें शुरू से ही पूँजीपतियों ने कैसे मदद की, यह सब इतिहास का हिस्सा है। उन्होंने गाँधी की ख़ास मसीहाई छवि गढ़ने में ताकत लगाई। लेकिन खुद गाँधी का लेखन पढ़ने से सबकुछ साफ हो जाता है। दक्षिण अफ्रीका में गाँधी के कामकाज के बारे में हमें बहुत गलत पढ़ाया जाता है। हमें बताया गया कि वे ट्रेन के डिब्बे से बाहर निकाले गये जिसके ख़िलाफ उन्होंने संघर्ष शुरू किया। यह ग़लत है। गाँधी ने वहाँ कभी बराबरी के विचार का समर्थन नहीं किया। बल्कि भारतीयों को अफ्रीकी काले लोगों से श्रेष्ठ बताते हुए विशिष्ट अधिकारों की मांग की। दक्षिण अफ्रीका में गाँधी का पहला संघर्ष डरबन डाकखाने में भारतीयों के प्रवेश के लिए अलग दरवाज़ा खोलने के लिए था। उन्होंने कहा कि अफ्रीकी काले लोग और भारतीय एक ही दरवाजे से कैसे जा सकते हैं। भारतीय उनसे श्रेष्ठ हैं। उन्होंने बोअर युद्ध में अंग्रेजों का खुलकर साथ दिया और इसे भारतीयों का कर्तव्य बताया। यह सब खुद गाँधी ने लिखा है। दक्षिण अफ्रीका में उनकी ‘सेवाओं’ से ख़ुश होकर ही अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें क़ैसर-ए-हिंद के ख़िताब से नवाज़ा था। 

सवाल---- आप आजकल गाँधी और अंबेडकर की बहस को नये सिरे से उठा रही हैं। आपके निबंध ‘डॉक्टर एंड द सेंट’ पर भी काफी विवाद हुआ था।
अरुंधति रॉय---यह जटिल विषय है। मैंने इस पर बहुत विस्तार से लिखा है और चाहती हूँ कि लोग पढ़कर समझें। इसकी बुनियाद डॉ.अंबेडकर और गाँधी की वैचारिक टकराहट है। अंबेडकर शुरू से सवाल उठा रहे थे कि हम कैसी आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं। लेकिन गाँधी जाति व्यवस्था की कभी आलोचना नहीं करते, जो गैरबराबरी वाले समाज का इंजन है। वे सिर्फ यह कहकर रुक जाते हैं कि सबके साथ अच्छा व्यवहार होना चाहिए। उन्होंने जाति व्यवस्था को हिंदू समाज का महानतम उपहार बताया। यह सब उन्होंने ख़ुद लिखा है। मैं कोई अपनी व्याख्या नहीं कर रही हूँ। जबकि अंबेडकर लगातार जाति उत्पीड़न और संभावित आज़ादी के स्वरूप का सवाल उठा रहे थे। पूना पैक्ट से पहले गाँधी ने जो भूख हड़ताल की, उसका नतीजा आज भी देश को प्रभावित करता है। हम यह सवाल क्यों नहीं उठा सकते कि क्या सही है और क्या गलत। भारत सरकार की सहायता से रिचर्ड एटनबरो न जो ‘गाँधी’ फ़िल्म बनाई उसमें अंबेडकर का छोटा सा रोल भी नहीं है, जो उनके सबसे प्रभावी आलोचक हैं। अगर हम इतने साल बाद भी बौद्धिक जांच-परख से कतराते हैं तो फिर हम बौने लोग ही हैं। अंबेडकर और गाँधी की बहस बेहद गंभीर विषय है।
वारण्ट अधिकारी एम के गांधी

सवाल--- भगत सिंह और उनके साथियों के भी गाँधी से तमाम मतभेद थे, लेकिन उन्होंने भी कहा था कि भाग्यवाद जैसी तमाम चीज़ों के समर्थन के बावजूद गांधी ने जिस तरह देश को जगाया है, उसका श्रेय उन्हें न देना कृतघ्नता होगी।
अरुंधति रॉय---अब बात शुक्रगुज़ार होने या ना होने से बहुत आगे बढ़ गयी। यह ठीक है कि गाँधी ने आधुनिक औद्योगिक समाज में अंतर्निहित नाश के बीजों की पहचान कर ली थी जो शायद अंबेडकर नहीं कर पाये थे। गाँधी की आलोचना का यह अर्थ भी नहीं है कि गाँधीवादियों से कोई विरोध है। या उन्होंने अलग-अलग क्षेत्रों में कुछ नहीं किया। नर्मदा आंदोलन का तर्क बहुत गंभीर और प्रभावी रहा है, लेकिन सोचना होगा कि वह सफल क्यों नहीं हुआ। आंदोलनों के हिंसक और अहिंसक स्वरूप की बात भी बेमानी है। यह सिर्फ़ पत्रकारों और अकादमिक क्षेत्र की बहस का मसला है। जहां हज़ारों सुरक्षाकर्मियों के साये में बलात्कार होते हों, वहां हिंसा और अहिंसा कोई मायने नहीं रखती। वैसे, अहिंसा के “पोलिटकल थियेटर” के लिए दर्शकवर्ग बहुत ज़रूरी होता है। लेकिन जहां कैमरे नहीं पहुंच सकते, जैसे छत्तीसगढ़, वहां इसका कोई अर्थ नहीं रह जाता।
हमें अंबेडकर या गाँधी को भगवान नहीं इंसान मानकर ठंडे दिमाग से समय और संदर्भ को समझते हुए उनके विचारों को कसौटी पर कसना होगा। लेकिन हमारे देश में यह हाल हो गया कि आप कुछ बोल ही नहीं सकते। न इसके बारे में न उसके बारे में। सेंसर बोर्ड सरकार में नहीं सड़क पर है। नारीवादियों को भी समस्या है है, दलित समूहों को भी है। लेफ्ट को भी है और दक्षिणपंथियों को भी। खतरा है कि हम कहीं “बौद्धिक कायरों” का देश ना बन जायें।


सवाल--- आपने पूँजीवाद और जातिप्रथा से एक साथ लड़ने की बात कही है, लेकिन इधर दलित बुद्धिजीवी अपने समाज में पूँजीपति पैदा करने की बात कर रहे हैं। साथ ही, जाति को खत्म न करके अपने पक्ष में इस्तेमाल करने की कोशिश पर भी ज़ोर है। जाति को ‘वोट की ताकत’ में बदला जा रहा है। अंबेडकरवादियों के इस रुख को कैसे देखती हैं?
अरुंधति रॉय----यह स्वाभाविक है। जब हर तरफ ऐसा ही माहौल है तो इन्हें कैसे रोक सकते हैं। जैसे कुछ बुद्धजीवी लोग कश्मीर में जाकर कहते हैं कि राष्ट्रवाद बड़ी खराब चीज़ है। भाई, पहले अपने घर में तो समझाओ। दलित मौजूदा व्यवस्था में अपने लिए थोड़ी सी जगह खोज रहे हैं। सिस्टम भी उनका इस्तेमाल कर रहा है। मैंने पहले भी कहा है ‘दलित स्टडीज’ हो रही है। अध्ययन किया जा रहा है कि म्युनिस्पलटी में कितने बाल्मीकि हैं, लेकिन ऊपर कोई नहीं देखता । कोई इस बात का अध्ययन क्यों नहीं करता कि कारपोरेट कंपनियों पर बनियों और मारवाड़ियों का किस कदर कब्ज़ा है। जातिवाद के मिश्रण नें पूँजीवाद के स्वरूप को और जहरीला कर दिया है।

सवाल-- कहीं कोई उम्मीद नज़र आती है आपको?
अरुंधति रॉय----मुझे लगता है कि अभी दुनिया की जो स्थिति है, वह किसी एक व्यक्ति के फैसले का नतीजा नहीं हैं। हजारों फैसलों की शृंखला है। फैसले कुछ और भी हो सकते थे। इसलिए तमाम छोटी-छोटी लड़ाइयों का महत्व है। छत्तीसगढ़, झारखंड और बस्तर मे जो लड़ाइयाँ चल रही हैं, वे महत्वपूर्ण हैं। बड़े बाँधों के खिलाफ लड़ाई ज़रूरी है। साथ ही जीत भी ज़रूरी है ताकि ‘इमेजिनेशन’ को बदला जा सके। अभी भी एक बड़ी आबादी ऐसी है जिसके ख़्वाब ख़्त्म नहीं हुए हैं। वह अभी भी परिवर्तन की कल्पना पर यकीन करती है।

चलते-चलते
सवाल- दिल्ली के निर्भया कांड पर बनी बीबीसी की डाक्यूमेंट्री ‘इंडियाज डॉटर’ पर प्रतिबंध लगा। आपकी राय?
अरुंधति रॉय--
जितनी भी खराब फिल्म हो, चाहे घृणा फैलाती हो, मैं बैन के पक्ष में नहीं हूं। बैन की मांग करना सरकार के हाथ में हथियार थमाना है। इसका इस्तेमाल आम लोगों की अभिव्यक्ति के खिलाफ ही होगा।


सवाल---मोदी सरकार ने अच्छे दिनों का नारा दिया था। क्या कहेंगी?

अरुंधति रॉय---अमीरों के अच्छे दिन आये हैं। छीनने वालों के अच्छे दिन आये हैं। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश सबूत है।


सवाल----आपके आलोचक कहते हैं कि गांधी अब तक आरएसएस के निशाने पर थे। अब आप भी उसी सुर में बोल रही हैं।
पंकज श्रीवास्तव
अरुंधति रॉय--आरएसएस गांधी की आलोचना सांप्रदायिक नज़रिये से करता है। आरएसएस स्वघोषित फ़ासीवादी संगठन है जो हिटलर और मुसोलिनी का समर्थन करता है। मेरी आलोचना का आधार गाँधी के ऐसे विचार हैं जिनसे दलितों और मजदूर वर्ग को नुकसान हुआ।

सवाल----दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार के बारे में क्या राय है?
अरुंधति रॉय---जब दिल्ली विधानसभा चुनाव का नतीजा आया तो मैं भी खुश हुई कि मोदी के फ़ासीवादी अभियान की हवा निकल गयी। लेकिन सरकार के काम पर कुछ कहना जल्दबाज़ी होगी। सिर्फ भ्रष्टाचार की बात नहीं है। देखना है कि दूसरे तमाम ज़रूरी मुद्दों पर पार्टी क्या स्टैंड लेती है।

सवाल---आजकल क्या लिख रही हैं..?
अरुंधति रॉय--एक उपन्यास पर काम कर रही हूँ। ज़ाहिर है यह दूसरा ‘गॉड आफ स्माल थिंग्स’ नहीं होगा। लिख रही हूँ, कुछ अलग।

शनिवार, 28 मार्च 2015

कुशनाभ की सौ पुत्रियाँ

रामायण में एक कथा है ...

राम और लक्ष्मण की सहायता से विश्वामित्र का यज्ञ निर्विघ्न संपन्न हुआ। विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को साथ ले जनक के यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए मिथिला की और चले और शोणभद्र नदी के किनारे रात्रि विश्राम के लिए रुके। राम ने पूछा- महात्मन् यह सुन्दर समृद्ध वन से सुशोभित देश कौन सा है इस के बारे में जानना चाहता हूँ। 
विश्वामित्र ने देश के बारे में बताना आरंभ किया। महातपस्वी राजा कुश साक्षात् ब्रह्मा के पुत्र थे। विदर्भ की राजकुमारी उन की पत्नी थी जिस से उन्हें चार पुत्र हुए। उन में एक पुत्र कुशनाभ था जिस ने महोदय नामक नगर बसाया। महाराजा कुशनाभ ने घ्रताची अप्सरा के गर्भ से सौ पुत्रियों को जन्म दिया जो सब की सब रूप-लावण्य से सुशोभित थीं। जैसे जैसे वे युवा होती गई उन का सौन्दर्य बढता गया। एक दिन वे सभी श्रंगारों से युक्त हो कर उद्यन में आमोद प्रमोद में मग्न थीं। 

इन सुन्दर युवतियों को देख कर वायु देवता उन पर मुग्ध हो गए और उन से निवेदन किया कि मैं तुम सब को अपनी प्रेयसी के रूप में पाना चाहता हूँ।  तुम सब मेरी भार्याएँ हो जाओ और मनुष्य भाव त्याग कर देवांगनाओं की तरह दीर्घ आयु प्राप्त करो और अमर हो जाओ। 

इस पर वे सभी कन्याएँ हँस पड़ीं और बोलीं- आप तो वायु रूप में सब के मन में विचरते हैं इस कारण आप को तो पता होगा कि हमारे मन में आप के प्रति कोई आकर्षण नहीं है। फिर भी आप हमारा यह अपमान किस लिए कर रहे हैं। हम सभी कुशनाभ की पुत्रियाँ हैं देवता होने पर भी आप को शाप दे सकती हैं। किन्तु ऐसा नहीं करना चाहतीं क्यों कि और अपने तप को सुरक्षित रखना चाहती हैं। (इस शाप से हमें भी बदनामी झेलनी होगी और जो मान सम्मान हम ने अपने व्यवहार से कमाया है वह नष्ट हो जाएगा) दुर्मते! ऐसा समय कभी नहीं आएगा जब हम अपने पिता की अवहेलना कर के कामवश या अधर्मपूर्वक अपना वर स्वयं ही तलाश करने लगें। (युवतियों को जैसी शिक्षा और वातावरण मिला था उस में वे जानती थीं कि स्त्री का कोई अधिकार नहीं होता। वे पिता की संपत्ति हैं और वही उस की इच्छा के अनुसार उन का दान कर सकता है) हम पर हमारे पिता का प्रभुत्व है वे हमारे लिए सर्व श्रेष्ठ देवता हैं, वे हमें जिस के हाथ में दे देंगे वही हमारा पति होगा।

युवतियों की ऐसे वचन सुन कर वायुदेवता क्रोधित हो गए। जैसे आज कल के नौजवान ऐसी बात सुन कर युवतियों पर तेजाब डाल कर उन्हें बदसूरत बनाते हैं वैसे वायु देवता को इस के लिए तेजाब की व्यवस्था करने की जरूरत भी नहीं थी। वे उन सौ युवतियों के शरीर में घुस सकते थे। वे उन के शरीरों में घुस गए और उन के सारे अंगों को विकृत कर दिया जिस से वे कुरूप हो गयीं। 

युवतियों ने जब यह घटना पिता को सुनाई तो उन्हों ने पुत्रियों को कहा कि तुमने शाप न देकर ठीक ही किया क्यों कि क्षमा करना बहुत बड़ी बात है और देवताओं के लिए भी दुष्कर है। 

तब कुशनाभ ने गंधर्वकुमारी और ब्रह्मर्षि चूली के पुत्र ब्रह्मदत्त से अपनी सौ कन्याओं का विवाह कर दिया।  

पुत्रियों का विवाह होने के उपरान्त ब्रह्मदत्त युवतियों का पति हो गया तो वायु देवता ने युवतियों का शरीर त्याग दिया और वे पूर्व की तरह सुन्दर हो गयीं। कुशनाभ के गाधि नामक पुत्र जन्मा, यही गाधि मेरे पिता थे। कुश के कुल में जन्म होने के कारण ही मुझे कौशिक भी कहते हैं। इस कारण यह मेरे पूर्वजों का ही देश है। 

उपकथन-

विश्वामित्र को अपने देश का परिचय देने के लिए इन सौ कन्याओं की कहानी कहना बिलकुल अप्रासंगिक था। लेकिन फिर भी रामायण के लेखक ने इस कथा को यहाँ जोड़ा। इसका कारण केवल यही समझ में आता है कि उनका उद्देश्य था कि स्त्रियों को सिखाया जाए कि उन का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। वे पहले पिता की संपत्ति होती हैं और विवाह के बाद में वे पति की संपत्ति हो जाती हैं। 

महान रामायण यही सिखाती है।  

रविवार, 22 मार्च 2015

वृत्त की परिधि का आरंभिक बिन्दु

वृत्त गोल होता है। इस से संबंधित बहुत से सवालों के उत्तर भी गोल होते हैं। मसलन किसी वृत्त की परिधि का कोई आरंभिक बिन्दु कहाँ होता है? इस सवाल का उत्तर वास्तव में गोल है। वृत्त की परिधि का कोई आरंभ बिन्दु नहीं होता। वह कहीं से आरंभ नहीं होता न कहीं उस का अंत होता है। कहते हैं सब से छोटा बिन्दु स्वयं एक वृत्त होता है और एक वृत्त वास्तव में बिन्दु का ही विस्तार होता है। अब बिन्दु का कोई आरंभिक बिन्दु कैसे हो सकता है? 

लेकिन लोग हैं कि जो चीज नहीं होती है उस का कल्पना में निर्माण कर लेते हैं। वे वृत्त की परिधि पर किसी स्थल पर अपनी पेंसिल की नोक धर देते हैं और कहते हैं यही है आरंभिक बिन्दु। इसी कल्पना को वे सत्य मान लेते हैं। अब जब दूसरा कोई व्यक्ति उसी वृत्त की परिधि के किसी दूसरे स्थल पर अपनी पेंसिल की नोक धर देता है तो उसी को वृत्त की परिधि का आरंभिक बिन्दु मान बैठता है। दोनों के पास अपने अपने तर्क हैं दोनों अपने अपने निश्चय पर अटल हैं। दोनों झगड़ा करते हैं ऐसा झगड़ा जिस का कोई अंत नहीं है, जैसे वृत्त की परिधि का कोई अंत नहीं होता। वृत्त की परिधि के सोचे गए अंतिम बिन्दु के बाद भी अनेक बिन्दु हैं और कल्पित आरंभिक बिन्दु के पहले भी अनेक बिन्दु होते हैं। फिर वह अंतिम और आरंभिक बिन्दु कैसे हो सकते हैं?

मारे साथ एक गड़बड़ है कि हमें हर चीज का आरंभ और अंत मानने की आदत पड़ गई है। हम मानना ही नहीं चाहते कि दुनिया में कुछ चीजें हैं जिन का न तो कोई आरंभ होता है और न अंत। हम गाहे बगाए खुद से पूछते रहते हैं कि मुर्गी पहले हुई या अण्डा? और सोचते रह जाते हैं कि अण्डे के बिना मुर्गी कहाँ से आई? और अण्डा पहले आाय़ा तो वह किस मुर्गी ने दिया था। कहीं ऐसा तो नहीं कि कोई और पक्षी अण्डा दे गया हो और उस में से मुर्गी निकल आई हो। हम अण्डे में से मुर्गी निकलने के बीच मुर्गे के योगदान को बिलकुल विस्मृत कर देते हैं।  

भी एक जनवरी को हमें बहुतों ने नव वर्ष की बधाइयाँ दी थीं। साल पूरा भी न निकला था कि फिर से नए वर्ष की बधाइयाँ मिलने लगीं। वह कोई और नव वर्ष था, यह भारतीय नव वर्ष था। एक भारतीय नव वर्ष उस के पहले दीवाली पर निकल गया। अब चार दिन बाद वित्तीय संस्थानों का नव वर्ष टपकने वाला है। उस के बाद तेरह अप्रेल को बैसाखी पर्व पर जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करेगा तो फिर नव वर्ष हो जाएगा। जैसे साल न हुआ वृत्त की परिधि हो गई, जिस पर किसी ने कहीं भी पैंसिल की नोंक रख दी और नव वर्ष हो गया।

ज्योतिर्विज्ञानी कहते हैं कि धरती सूरज के चक्कर लगाती है, जब एक चक्कर लगा चुकी होती है तो एक वर्ष पूर्ण हो जाता है। अब यह तो धरती ही बता सकती है कि उस ने कब और कहाँ से सूरज के चक्कर लगाना आरंभ किया था। धरती से किसी ने पूछा तो कहने लगी कि जहाँ से आरंभ किया था वहाँ कोई ऐसी चीज तो थी नहीं जिस पर मार्कर से निशान डाल देती। अब चक्कर लगाते लगाते इतना समय हो गया है कि मुझे ही नहीं पता कि अब तक कितने चक्कर लगा लिए हैं और कितने और लगाने हैं?  कहाँ से आरंभ किया था और अंत कहाँ है? वह रुकी और बोली कि मुझे लगता है कि मैं सदा सर्वदा से चक्कर लगा रही हूँ और सदा सर्वदा तक लगाती रहूंगी। आप मान क्यों नहीं लेते कि इन चक्करों का कोई आरंभ बिन्दु नहीं है और न ही कोई इति। 

ब इस का मतलब तो ये हुआ कि किसी भी दिन को आरंभ बिन्दु मान लिया जा सकता है और नववर्ष की बधाई दी जा सकती है। ऐसा क्यूँ न करें कि आज के दिन को ही आरंभ बिन्दु मान लें और फिर से बधाइयों का आदान प्रदान कर लें? तो सब से पहली बधाई मैं ही दिए देता हूँ।  आप सब को यह नव वर्ष मंगलकारी हो!!!

रविवार, 28 दिसंबर 2014

'श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी' .... सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

भारत में धर्म और संस्कृति का ऐसा घालमेल हुआ है कि साम्प्रदायिक लोग तमाम सांस्कृतिक मूल्यों को धार्मिक मूल्य प्रदर्शित करते हुए वैसे ही साम्प्रदायिकता का औचित्य सिद्ध करने का प्रयास करते हैं जैसे साम्प्रदायिक लोग विवेकानन्द की छाप का झंडा उठा कर साम्प्रदायिकता उत्थान में जुट जाते हैं।

इन्हीं दिनों मुझे निराला जी की जनवरी 1938 में माधुरी मासिक में छपी कहानी 'श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी' पढ़ने को मिली। कहानी का आरंभिक अंश तमाम धर्मों के बारे में उन की समझ को अभिव्यक्त करता है। देखिए और निराला के व्यंग्य का आनन्द भी लीजिए ...

“श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी श्रीमान पं. गजानन्द शास्त्री की धर्मपत्नी हैं। श्रीमान शास्त्रीजी ने आपके साथ यह चौथी शादी की है -धर्म की रक्षा के लिए। शास्त्रिणी जी के पिता को षोडशी कन्या के लिए पैंतालीस साल का वर बुरा नहीं लगा -धर्म की रक्षा के लिए। वैद्य का पेशा अख्तियार किए शास्त्रीजी ने युवती पत्नी के आने साथ 'शास्त्रिणी' का साइन-बोर्ड टाँगा-धर्म की रक्षा के लिए। शास्त्रीणीजी उतनी ही उम्र में गहन पातिव्रत्य पर अविराम लेखनी चालना कर चलीं-धर्म की रक्षा के लिए। मुझे यह कहानी लिखनी पड़ रही है-धर्म की रक्षा के लिए।

इस से सिद्ध है, धर्म बहुत ही व्यापक है। सूक्ष्म दृष्टि से देखने वालों का कहना है कि नश्वर संसार का कोई काम धर्म के दायरे से बाहर नहीं। सन्तान पैदा होने के पहले से मृत्यु के बाद-पिण्डदान तक जीवन के समस्त भविष्य, वर्तमान और भूत को व्याप्त कर धर्म-ही-धर्म है।

जितने देवता हैं, चूँकि देवता हैं, इसलिए धर्मात्मा हैं। मदन को भी देवता कहा है। यह जवानी के देवता हैं। जवानी जीवन भर का शुभमुहूर्त है, सबसे पुष्ट कर्मठ और तेजस्वी देवता मदन, जो भस्म हो कर नहीं मरे, लिहाजा काल और काल के देवता, सब से ज्यादा सम्मान्य, फलतः क्रियाएँ भी सबसे अधिक महत्वपूर्ण, धार्मिकता को लिए हुए। मदन को कोई देवता न माने तो न माने, पर यह निश्चय है कि आज तक कोई देवता इन पर प्रभाव नहीं डाल सका। किसी धर्म शास्त्र या अनुशासन को यह मान कर नहीं चले, बल्कि धर्म, शास्त्र और अनुशासन के मानने वालों ने ही इन की अनुवर्तितता की है। यौवन को भी कोई कितना निन्द्य कहे, चाहते सभी हैं, वृद्ध सर्वस्व भी स्वाहा कर। चिन्ह तक लोगों को प्रिय हैं - खिजाब की कितनी खपत है? धातु पुष्ट करने की दवा सब से ज्यादा बिकती है। साबुन, सेण्ट, पाउडर, क्रीम, हेजलीन, वेसलीन, तेल-फुलेल, के लाखों कारखाने हैं इस दरिद्र देश में। जब न थे रामजी और सीताजी उबटन लगाते थे। नाम और प्रसिद्धि कितनी है- संसार की सिनेमा स्टारों देख जाइए। किसी शहर में गिनिए-कितने सिनेमा हाउस हैं। भीड भी कितनी- आवारागर्द मवेशी काइन्ज हाउस में इतने न मिलेंगे। देखिए-हिन्दू, मुसलमान, सिख, पारसी, जैन, बौद्ध, क्रिस्तान-सभी; साफा, टोपी, पगड़ी, कैप, हैट और पाग से लेकर नंगा सिर-घुटन्ना तक; अद्वैतवादी, विशिष्टाद्वैतवादी, द्वैतवादी, द्वैताद्वैतवादी, शुद्धाद्वैतवादी, साम्राज्यवादी, आतंकवादी, समाजवादी, काजी, सूफी से लेकर छायावादी तक, खड़े-बेड़े, सीधे-टेड़े,-सब तरह के तिलक-त्रिपुण्ड; बुरकेवाली, घूंघटवाली, पूरे और आधे और चौथाई बालवाली, खुली और मुंदी चश्मेवाली आँखें तक देख रही हैं; अर्थात् संसार के जितने धर्मात्मा हैं, सभी यौवन से प्यार करते हैं। इसलिए उन के कार्य को भी धर्म कहना पड़ता है। किसी के कहने-न मानने से वह अधर्म नहीं होता।...”

बुधवार, 19 नवंबर 2014

परम्परा की कँटीली पगडंडी


स बार अकलेरा प्रवास मेरे लिए अत्यन्त विकट रहा। ससुर जी के देहान्त के बाद पाँच मिनट में ही मुझे सूचना मिल गयी थी और घंटे भर बाद मैं अपनी कार से निकल पड़ा। यह एक घंटा भी मेरे साढ़ू भाई की प्रतीक्षा में लगा। उस ने फोन कर दिया था कि वह भी पहुँच ही रहा है। यूँ तो हम सुबह जल्दी निकलते तो भी संस्कार से पर्याप्त समय पहले पहुँच जाते। पर पिता के निधन का समाचार मिलने के बाद शोभा को रात भर अपनी माँ और बहनों से दूर रख पाना मेरे लिए असंभव था। हम रात साढ़े नौ पर अकलेरा पहुँचे। 140 किलोमीटर के रास्ते में वहाँ से पाँच छह बार फोन आ गया कि हम कहाँ तक पहुँचे हैं। हो सकता है वहाँ पहले से मौजूद शोभा के भाई-बहनों को चिन्ता लगी हो कि जीजाजी तुरन्त निकले हैं, रात के समय ठीक से गाड़ी चला भी पा रहे हैं या नहीं। हमारे पहुँचने पर उन्हों ने राहत की साँस ली। लेकिन शोभा को देखते ही घर में रोना पीटना मच गया। हमारे पहुँचने के बाद भी हर आधे घंटे बाद कोई न कोई आता रहा। जब भी उन में कोई स्त्री होती वह दरवाजे के निकट आते ही जोर से रोने लगती और उस का स्वर सुनते ही घर के अन्दर से भी स्त्रियों के रोने की आवाजें शुरू हो जाती। कुछ देर बाद यह बन्द हो जाता, औरतें बातें करने लगतीं। यह सिलसिला आधी रात तक चलता रहा। फिर सुबह जल्दी छह बजे से ही लोग आने लगे, उसी के साथ रोने का सिलसिला तेज हो गया। 

काकाजी और ब्रिजेश पिछली बार जब कोटा आए थे

मैं रात को पहुँचा तब तक काकाजी (मेरे श्वसुर डॉ. हीरालाल त्रिवेदी को अकलेरा का बच्चा, जवान और बूढ़ा इसी नाम से संबोधित करता था) की क्लिनिक का फर्नीचर हटा, गद्दे-चादर बिछा कर उसे पुरुषों की बैठक बना दिया गया था। कुछ पुरुष वहाँ बैठे बतिया रहे थे। मैं उन के बीच जा बैठा। आरंभिक औपचारिक बातें जल्दी ही चुक गईं। तब छोटे साले ब्रिजेश के दोस्तों ने मुझ से पूछा अस्थिचयन कब करेंगे? मैं ने उन से स्थानीय परंपरा के बारे में पूछा तो उन का कहना था कि यहाँ तो अन्तिम संस्कार के तीसरे दिन करते हैं। संस्कार मृत्यु के अगले दिन हो तो कोई-कोई संस्कार के अगले दिन भी कर लेते हैं। वे यह सब इस कारण पूछ रहे थे कि अखबार में छपने के लिए जाने वाली सूचना में अस्थिचयन, शुद्ध स्नान और द्वादशा की तिथियाँ भी लिखनी थीं। मैं ने उन्हें कहा- कुछ और लोगों को आने दो तब तय करेंगे। इस तरह अब संस्कार के बाकी के दिनों की तिथियाँ अन्तिम रूप से तय करने की ड्यूटी स्वतः ही मुझे मिल गई थी। जो भी आता मैं उस की राय जानने की कोशिश करता। उस की राय जानने के बाद मैं उस के सामने विपरीत राय प्रकट करता और उस के पक्ष में कुछ तर्क देता तो वह विपरीत राय पर भी सहमत हो जाता। कुल मिला कर स्थिति यह थी कि कुछ भी तय किया जा सकता था, दोनों तरह की परंपराएँ थीं।

अगले दिन सुबह भी मैं लोगों से राय करता रहा। किसी का कहना था कि रविवार और बुधवार के दिनों को देहान्त और अस्थिचयन के बीच नहीं लेते। कोई कहता रविवार बुधवार को अस्थिचयन नहीं होना चाहिए। मैं उस का कारण पूछता तो लोग कहते हम यह तो नहीं बता सकते पर हमारे यहाँ ऐसी परंपरा है इसलिए कहते हैं। एक सज्जन ग्रहों आदि का अच्छा ज्ञान रखते थे, वे बताने लगे कि रविवार और बुधवार को क्यों ऐसा नहीं करते। इस बहाने लोगों को पता लग गया कि वहाँ उपस्थित सब लोगों में उन का ज्योतिष ज्ञान सब से बेहतर है।

मैं ने परिस्थितियों पर विचार किया तो पाया कि आज बहुत लोग आ चुके हैं। उन में से अस्थिचयन में बहुत नहीं आएंगे। जो सूचना न मिलने, देरी से मिलने या किसी कारणवश संस्कार में आज शामिल नहीं हो सके हैं वे जरूर आएंगे, लेकिन जो निकट के संबंधी संस्कार में शामिल हो गए हैं वे जरूर अस्थिचयन में उपस्थित रहना चाहेंगे। उन्हें या तो एक दिन अधिक रुकना पड़ेगा, या जा कर फिर से आना पड़ेगा। जब तक अस्थिचयन न हो जाए तब तक किसी न किसी का आना-जाना जारी रहेगा। पहले ही एक रात घर की महिलाएँ परंपरा कँटीली पगडंडी का कष्ट उठा चुकी थीं। संस्कार के तीसरे दिन अस्थिचयन होने पर उन्हें दो रातें और उसी कँटीली पगडण्डी पर गुजारनी होती। बेहतर यही था कि अस्थिचयन अगले दिन हो जाए जिस से उन का कष्ट कुछ तो कम किया जा सकता था। मैं ने संस्कार में आए लोगों में से चुन चुन कर लोगों की राय जानने की कोशिश की तो अधिकांश लोगों की राय मेरे पक्ष में थी।

आखिर में मैं ने अपने बड़े साले से राय की तो उस ने निर्णय का भार पंडितजी पर छोड़ दिया। पंडित जी वही पुरोहित थे जिन्हों ने मेरे और शोभा के विवाह समेत काकाजी की सभी लड़कियों के ब्याह कराए थे। मुझे पता था कि वे अपने किसी नियम पर दृढ़ नहीं रहते। अपितु यजमान की इच्छा भाँप कर अपना फैसला देते हैं, आखिर दक्षिणा तो यजमान से ही मिलती है। मैं ने उन से तब बात की जब कोई नजदीक न था। उन्हों ने परम्परा की बात करते हुए संस्कार से तीसरे दिन की बात की तो मैं ने उन के सामने रवि-बुध का पेंच पेश कर दिया। आगे शुद्ध स्नान और द्वादशा की तिथियों की जटिलता भी बताई। उन्होंने गेंद को मेरे बड़े साले के पाले में फेंकना चाहा। तब मैं ने जब उन्हें बताया कि उस ने तो सब कुछ आप पर छोड़ दिया है, तो वे असमंजस में पड़ गए। मैं ने उन्हें कहा कि जो लोग आज आए हैं और अस्थिचयन के लिए रुकना चाहते हैं उन्हें दो दिन रुकना पड़ेगा या जा कर वापस आना पड़ेगा। इस परिस्थिति में यदि खुद काकाजी होते तो क्या कहते, और आप क्या करते?

इस पर पंडित जी ने कहा कि ऐसी परिस्थिति में काकाजी तो कल ही रखते और मुझ से भी कहलवा लेते। मैं ने उन्हें उन का यही निर्णय सब को बताने को कहा और वे मान गए। पंचलकड़ी देने के उपरान्त कोई और बोले उस के पहले ही मैं ने अगले दिन अस्थिचयन की सूचना सब को दे दी। एक-दो ने मंद स्वर में कहा भी कि, परसों नहीं? मैं ने जोर से कहा नहीं, कल ही। इस तरह अस्थिचयन की तिथि तय हो गई। (क्रमशः)

शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2014

एक दिवाली ऐसी भी ...

दफ्तर सफाई अभियान
स बार श्राद्धपक्ष समाप्त हुआ और नवरात्र आरंभ होने के बीच एक दिन शेष था। यह दिन वार्षिक संफाई की चिन्ता में बीता। उत्तमार्ध शोभा पूछ रही थी, इस बार यह सब कैसे सब होगा? मेरा सुझाव था कि उन्हें एक महिला सहयोगी चाहिए। काम वाली बाई ने उस की विवाहिता भान्जी सुनीता के बारे में सुझाव दिया जो अपने मिस्त्री पति के साथ भवन निर्माण कार्यों पर कुली का काम करने जाती थी। मैं ने अपने मुंशी जी से दफ्तर की सफाई के लिए हिदायत दी की वे भी एक व्यक्ति को जुटाएँ और एक दिन में ही दफ्तर की सफाई का काम पूरा हो ले। हमारी खुशकिस्मती रही कि सुनीता काम पर आई उसी दिन मुंशी जी भी एक सहयोगी को साथ ले कर आ गए। हम दफ्तर की सफाई में लगे और सुनीता घर में शोभा की मदद में। सुनीता ने दफ्तर की धुलाई में भी मदद की और काम एक दिन में निपट गया। सुनीता ने 5-6 दिन काम किया। उस से सफाई का काम पूरा हुआ।  शोभा धीरे धीरे घर जमाने सजाने के काम में लगी। साथ के साथ दीवाली के लिए मीठी नमकीन पापडियाँ और मैदा के नमकीन खुरमे बनाए। सफाई का काम पूरा हो जाने से वह पूरे उत्साह में थी। 

अक्टूबर 17 की रात को खबर मिली कि बेटी पूर्वा को बुखार आ गया। सुबह तक उस का बुखार उतर गया और वह स्नान कर के अपने दफ्तर भी चली गई। मैं ने उसे सुझाया था कि वह रविवार को डाक्टर को दिखा कर दवा ले ले। लेकिन दिन में स्वास्थ्य ठीक रहने से वह आलस कर गई। रात को फिर बुखार ने आ पकड़ा। वह अपने हिसाब से दवा लेती रही। दिन में ठीक रहती और रात को फिर बुखार उसे पकड़ लेता। इधर शोभा पूरे उत्साह से तैयारी में लगी थी कि रविवार 19 अक्टूबर को खबर मिली की शोभा के पापा का स्वास्थ्य चिन्ताजनक है। हम ने तुरन्त उन से मिलने जाना तय किया। शोभा ने उस की बहिन ममता को भी बुला लिया। हम तीनों आधी रात अकलेरा पहुँचे। 

बाबूजी डॉ. हीरालाल त्रिवेदी
बाबूजी को आक्सीजन लगी थी। फेफड़ों में कफ भरा था जो बाहर निकलना चाहता था। लेकिन कमजोरी के कारम वे निकाल न सकते थे। खांसी के डर से कुछ खा भी न पा रहे थे। अगले दिन द्रव-भोजन के लिए भी पाइप लगा दिया गया। डाक्टर रोज दो बार उन्हें देखने घर आ रहा है। मेल नर्स दिन में हर दो घंटे बाद चक्कर लगा रहा था। रात को भी तुरन्त उपलब्ध था। मैं ने चिकित्सक से बात की तो जानकारी मिली की  85 वर्षी उम्र और  अस्थमेटिक होने के कारण उन के फेफड़ों में कफ के बनना नहीं रुक पा रहा है और सारी तकलीफों की जड़ वही है। चिकित्सक पूरे प्रयास में थे कि किसी भी तरह से उन की तकलीफ को कम किया जा सके और वे सामान्य जीवन में लौट सकें। मैं अगले दिन शाम शोभा को वही छोड़ वापस लौट आया। पूर्वा को सोम की रात को भी बुखार आया। मंगल की शाम वह कोटा आने के लिए ट्रेन में बैठ गई। बुध की सुबह उसे ले कर घर वापस लौटा तो रात के पौने दो बज रहे थे। सुबह 12 बजे तक बेटा वैभव भी कोटा पहुँच गया। उस के आते ही मैं पूर्वा को ले कर डाक्टर के यहाँ पहुँचा और उसे दवाएँ आरंभ कराईं।

यह इस दिवाली की पूर्व पीठिका थी। त्यौहार का उत्साह पूरा नष्ट हो चुका था। बच्चे घर आ पहुँचे थे उन में भी एक बीमार थी और उन की माँ घर पर नहीं थी।  अब और कुछ व्यंजन घऱ पर बनाने का तो कुछ नहीं हो सकता था। मैं बिजली के बल्बों की कुछ इन्डिया मेड लड़ियाँ पहले से ला चुका था। मैं ने और बेटे ने उन्हें अपने घर के बाहर की दीवारों पर सजाया। घर को भी कुछ ठीक ठाक किया।  बच्चों के घऱ आने पर माँ के हाथ का भोजन उन की सब से प्रिय वस्तुएँ होती हैं। लेकिन वे इस बार इस से महरूम थे। हम तीनों ने घर के काम बाँट लिए थे और करने लगे थे। 

दीवाली की रात हमारा घर
वैभव बाजार से कुछ मिठाइयाँ और नमकीन ले आया, अब दीवाली इन्हीं से मनानी थी। दीवाली की शाम आ गई। दीपक तैयार किए गए। शोभा हर त्यौहार और उस से जुड़े धार्मिक कर्मकाण्डों को निभाना मेरी अरुचि के बावजूद नहीं भूलती। बल्कि सतर्क रहती है कि मेरे कारण कोई चीज छूट न जाए। मुझ से इन सब की तार्किकता पर बात करने को कभी तैयार नहीं होती। मैं भी उस के इस जनवादी अधिकार को कभी नहीं छेड़ता और घर में "शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व बनाए रखने का पक्षधऱ हूँ। वह अपने पापा की सेवा में होने पर भी फोन से पूर्वा और वैभव को निर्देश देती जा रही थी कि उन्हें क्या क्या करना है? कैसे दीपक जलाने हैं, कैसे लक्ष्मीपूजा करनी है आदि आदि....  दोनों उन निर्देशों का पालन भी अपने तरीके से कर रहे थे। पहली बार ऐसा हुआ की वैभव पटाखे नहीं लाया। मै ने पूछा भी तो कहने लगा , बेकार की चीज है, धन भी बहाओ, कान खराब करो, गन्दगी फैलाओ और हवा भी खराब करो, क्या मतलब है? हमारी यह दिवाली पूरी तरह आतिशबाजी विहीन रही। पर रात को जो बाहर पटाखे चलने लगे तो त्यौहार के शोर-शराबे की कमी भी जाती रही। रात को भाई अनिल उस की पत्नी और बेटी शिवेशा सहित मिलने आ गया तो घर में कुछ रौनक हो गयी।

पूर्वा और शिवेशा
पूर्वा को रात बुखार कम था। सुबह तक बिलकुल जाता रहा। आज वह ठीक है। सुबह का भोजन पूर्वा और वैभव ने मिल जुल कर बनाया।  लेकिन पिछले 5-6 दिनों के बुखार की कमजोरी से उसे बार बार नीन्द आए जा रही है।  दिन में मेरे दो सहयोगी वकील मिलने आए और दो घंटे उन के साथ बिताए। वैभव का नियोजन मुम्बई में है वह साल में तीन चार बार ही घऱ आ पाता है। वह अपने मित्रों से मिलने निकल गया है। मैं भी कहीं जाना चाहता था पर पूर्वा को अकेला घर पर छोड़ कर जाना अच्छा नहीं लग रहा है। अब तो शायद वैभव के लौटने पर ही जा सकूंगा या फिर पूर्वा साथ जाने को तैयार हुई तो उस के साथ कहीं जा सकता हूँ।

 दोनों बच्चे रविवार को फिर से अपने अपने नियोजनों के लिए निकल लेंगे। वे हैं तब तक दिवाली शेष है। वैसे भी दिवाली हो चुकी है, बस उस का उपसंहार शेष है। वह भी जैसे तैसे हो लेगा। पूर्वा उठ गई है, पूछ रही है वैभव कहाँ गया है? शायद उसे चाय की याद आ रही होगी। चलो मैं पूछता हूँ, वह बनाएगी या मैं बनाऊँ .....

शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

‘मेड इन इण्डिया’

‘मेड इन इण्डिया’  
  • दिनेशराय द्विवेदी
आइए हुजूर
मेहरबान, कद्रदान
आइए हमारे याँ
डॉलर की जरूरत नहीं,
बस कौड़ियाँ ले आइए
हमारी जमीन, जंगल, नदियाँ
मजदूर हाजिर हैं, सब
आप की सेवा में तत्पर, सावधान¡

हमें और कुछ नहीं चाहिए
बस मजदूरों को दे दीजिए काम
उन्हें मजूरी न भी दें, तो कुछ नहीं
हमारे यहाँ मजदूर मजूरी वसूले
ऐसी उस की औकात कहाँ?
चाहें तो खूब बेगार कराइए

कानून?
वे तो हैं ही नहीं
कुछ हैं भी तो हमारे इन्सपेक्टर,
सब हम ने बधिया कर दिए हैं
कुछ सींग-वींग मारते हैं,
तो क्या?
उन को सैंडविच का टुकड़ा डालना
आप बेहतर जानते हैं।

अदालत?
वे हम ने खोली हैं
पर अफसर हम लगाते नहीं
वे खाली पड़ी रहती हैं।
अफसर कभी लगाते भी हैं
तो वह कुछ करे
उस के पहले उसे हम
हटा देते हैं

वहाँ तक मजूर जाता नहीं
चला जाए तो कई साल
कुछ पाता नहीं
मजूर अनुभवी है, जानता है
काम छोड़, कुछ दिन-महिनों की
मजूरी के लिए
बरसों चक्कर काटना फिजूल है
न्याय से उस का नहीं
केवल सेठों का नाता है

आप आइए तो हुजूर
मेहरबान, कद्रदान
आपके लिए तैयार हैं
सभी सामान
यहीं का माल, यहीं का मजूर
खूब बनाइए
जो भी बिक जाए
दुनिया के बाजारों में
हमें कुछ नहीं चाहिए
बस केवल
‘मेड इन इण्डिया’
की मोहर लगाइए