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बुधवार, 26 मई 2021

रामायण में बुद्ध की उपस्थिति


बुद्ध पूर्णिमा पर मेरी एक फेसबुक पोस्ट पर यह प्रश्न उठा कि पहले बुद्ध आए कि राम। मेरी वह पोस्ट वाल्मिकी रामायण के गीताप्रेस से प्रकाशित संस्करण के एक श्लोक पर आधारित था, जिसमें बुद्ध का उल्लेख आया है। यह सभी जानते हैं कि बुद्ध एक वास्तविक ऐतिहासिक चरित्र हैं। राम का चरित्र भी प्राचीन है, वह वास्तविक है या काल्पनिक यह कोई नहीं जानता। लेकिन जिस तरह इस चरित्र के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं उससे लगता है कि इस चरित्र का सदियों में विकास हुआ है। मैं इस विवाद में नहीं जाना चाहता। केवल यह कहना चाहता हूँ कि वाल्मिकी रामायण बुद्ध के बाद की रचना है। यह ईसा पूर्व की पहली या दूसरी शताब्दी में रची गयी है। महाभारत की भी ऐसी ही स्थिति है। यहाँ मैं रामायण का वह प्रसंग और श्लोक चित्रों सहित प्रस्तुत कर रहा हूँ।

जब भरत राम को वनवास से लौटाने के लिए चित्रकूट गए. उनके साथ दशरथ के एक मंत्री जाबालि भी भरत के साथ थे जिन्हें रामायण में ब्राह्मण शिरोमणि कहा है।(अयोध्याकाण्ड 108वाँ सर्ग) जब राम को सबने वापस अयोध्या लौटने के लिए अपने अपने मत के अनुसार समझाया। तब जाबालि ने भी अपने नास्तिक मत के अनुसार राम को समझाया। उसने कहा कि जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही नष्ट हो जाता है। पिता जीव के जन्म में निमित्त कारण मात्र होता है। वास्तव में ऋतुमति माता के द्वरा गर्भ में धारण किए हुए वीर्य और रज का परस्पर संयोग होने पर ही जीव का यहाँ जन्म होता है। जो मनुष्य अर्थ का त्याग करके धर्म को अंगीकार करते हैं मैं उनके लिए शोक करता हूँ अन्य के लिए नहीं। क्योंकि वे इस जगत में धर्म के नाम पर केवल दुःख भोग कर मृत्यु के पश्चात नष्ट हो गए हैं। अष्टका आदि जितने श्राद्ध हैं, उन के देवता पितर हैं- श्राद्ध का दान पितरों को मिलता है यही सोच कर लोग श्राद्ध में प्रवृत्त होते हैं किन्तु विचार करके देखिए तो इसमें अन्न का नाश ही होता है। भला मरा हुआ मनुष्य क्या खाएगा? यदि यहाँ दूसरे का खाया हुआ अन्न दूसरे के शरीर में जाता हो तो परदेश में जाने वालों के लिए श्राद्ध ही कर देना चाहिए उनके रास्ते के लिए भोजन देना उचित नहीं है। देवताओं के लिए यज्ञ और पूजन करो, दान दो, यज्ञ की दीक्षा ग्रहण करो, तपस्या करो और घर द्वार छोड़ कर संन्यासी बन जाओ इत्यादि बातें बताने वाले ग्रन्थ बुद्धिमान मनुष्यों ने दान की और लोगों की प्रवृत्ति कराने के लिए बनाए हैं। अतः आप अपने मन में निश्चय कीजिए कि इस लोक के सिवा कोई दूसरा लोक नहीं है। जो प्रत्यक्ष राज्य है उसे संभालिए और परोक्ष को छोड़ दीजिए।

राम इस नास्तिक मत पर बहुत कुपित होते हैं और जाबालि को बहुत बुरा भला कहते हैं। राम जाबालि के तर्कों का उत्तर तर्कों से नहीं देते बल्कि परम्परा का हवाला देते हैं और अन्त में कहते हैं कि “आपकी बुद्धि विषम मार्ग में स्थित है। आपने वेद विरुद्ध मार्ग का आश्रय ले रखा है। आप घोर नास्तिक और धर्म के रास्ते से कोसों दूर हैं। ऐसी पाखण्डमयी बुद्धि के द्वनार अनुचित विचार का प्रचार करने वाले आपको मेरे पिताजी ने अपना याजक (मंत्री) बना लिया, उनके इस कार्य की मैं निन्दा करता हूँ। जैसे चोर दण्डनीय होता है, उसी प्रकार बौद्ध (बुद्ध मतावलम्बी) भी दण्डनीय है। तथागत और नास्तिक को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए। इस कारण को नास्तिक को चोर की तरह ही (मृत्यु दण्ड से) दण्डित किया जाना चाहिए। (अयोध्याकाण्ड सर्ग 109 श्लोक 34)

यह सब वाल्मिकी रामायण के गीताप्रेस संस्करण में है, अनुवाद भी उन्हीं का कराया हुआ है।

यहाँ दोनों अध्यायों के आरम्भिक पृष्ठों के चित्र तथा उस श्लोक का चित्र संलग्न है जिस में बुद्ध का उल्लेख है।








शनिवार, 28 मार्च 2015

कुशनाभ की सौ पुत्रियाँ

रामायण में एक कथा है ...

राम और लक्ष्मण की सहायता से विश्वामित्र का यज्ञ निर्विघ्न संपन्न हुआ। विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को साथ ले जनक के यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए मिथिला की और चले और शोणभद्र नदी के किनारे रात्रि विश्राम के लिए रुके। राम ने पूछा- महात्मन् यह सुन्दर समृद्ध वन से सुशोभित देश कौन सा है इस के बारे में जानना चाहता हूँ। 
विश्वामित्र ने देश के बारे में बताना आरंभ किया। महातपस्वी राजा कुश साक्षात् ब्रह्मा के पुत्र थे। विदर्भ की राजकुमारी उन की पत्नी थी जिस से उन्हें चार पुत्र हुए। उन में एक पुत्र कुशनाभ था जिस ने महोदय नामक नगर बसाया। महाराजा कुशनाभ ने घ्रताची अप्सरा के गर्भ से सौ पुत्रियों को जन्म दिया जो सब की सब रूप-लावण्य से सुशोभित थीं। जैसे जैसे वे युवा होती गई उन का सौन्दर्य बढता गया। एक दिन वे सभी श्रंगारों से युक्त हो कर उद्यन में आमोद प्रमोद में मग्न थीं। 

इन सुन्दर युवतियों को देख कर वायु देवता उन पर मुग्ध हो गए और उन से निवेदन किया कि मैं तुम सब को अपनी प्रेयसी के रूप में पाना चाहता हूँ।  तुम सब मेरी भार्याएँ हो जाओ और मनुष्य भाव त्याग कर देवांगनाओं की तरह दीर्घ आयु प्राप्त करो और अमर हो जाओ। 

इस पर वे सभी कन्याएँ हँस पड़ीं और बोलीं- आप तो वायु रूप में सब के मन में विचरते हैं इस कारण आप को तो पता होगा कि हमारे मन में आप के प्रति कोई आकर्षण नहीं है। फिर भी आप हमारा यह अपमान किस लिए कर रहे हैं। हम सभी कुशनाभ की पुत्रियाँ हैं देवता होने पर भी आप को शाप दे सकती हैं। किन्तु ऐसा नहीं करना चाहतीं क्यों कि और अपने तप को सुरक्षित रखना चाहती हैं। (इस शाप से हमें भी बदनामी झेलनी होगी और जो मान सम्मान हम ने अपने व्यवहार से कमाया है वह नष्ट हो जाएगा) दुर्मते! ऐसा समय कभी नहीं आएगा जब हम अपने पिता की अवहेलना कर के कामवश या अधर्मपूर्वक अपना वर स्वयं ही तलाश करने लगें। (युवतियों को जैसी शिक्षा और वातावरण मिला था उस में वे जानती थीं कि स्त्री का कोई अधिकार नहीं होता। वे पिता की संपत्ति हैं और वही उस की इच्छा के अनुसार उन का दान कर सकता है) हम पर हमारे पिता का प्रभुत्व है वे हमारे लिए सर्व श्रेष्ठ देवता हैं, वे हमें जिस के हाथ में दे देंगे वही हमारा पति होगा।

युवतियों की ऐसे वचन सुन कर वायुदेवता क्रोधित हो गए। जैसे आज कल के नौजवान ऐसी बात सुन कर युवतियों पर तेजाब डाल कर उन्हें बदसूरत बनाते हैं वैसे वायु देवता को इस के लिए तेजाब की व्यवस्था करने की जरूरत भी नहीं थी। वे उन सौ युवतियों के शरीर में घुस सकते थे। वे उन के शरीरों में घुस गए और उन के सारे अंगों को विकृत कर दिया जिस से वे कुरूप हो गयीं। 

युवतियों ने जब यह घटना पिता को सुनाई तो उन्हों ने पुत्रियों को कहा कि तुमने शाप न देकर ठीक ही किया क्यों कि क्षमा करना बहुत बड़ी बात है और देवताओं के लिए भी दुष्कर है। 

तब कुशनाभ ने गंधर्वकुमारी और ब्रह्मर्षि चूली के पुत्र ब्रह्मदत्त से अपनी सौ कन्याओं का विवाह कर दिया।  

पुत्रियों का विवाह होने के उपरान्त ब्रह्मदत्त युवतियों का पति हो गया तो वायु देवता ने युवतियों का शरीर त्याग दिया और वे पूर्व की तरह सुन्दर हो गयीं। कुशनाभ के गाधि नामक पुत्र जन्मा, यही गाधि मेरे पिता थे। कुश के कुल में जन्म होने के कारण ही मुझे कौशिक भी कहते हैं। इस कारण यह मेरे पूर्वजों का ही देश है। 

उपकथन-

विश्वामित्र को अपने देश का परिचय देने के लिए इन सौ कन्याओं की कहानी कहना बिलकुल अप्रासंगिक था। लेकिन फिर भी रामायण के लेखक ने इस कथा को यहाँ जोड़ा। इसका कारण केवल यही समझ में आता है कि उनका उद्देश्य था कि स्त्रियों को सिखाया जाए कि उन का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता। वे पहले पिता की संपत्ति होती हैं और विवाह के बाद में वे पति की संपत्ति हो जाती हैं। 

महान रामायण यही सिखाती है।