दीपावली के पहले 1 नवम्बर 2013 के बाद 'अनवरत' पर कोई पोस्ट नहीं लिख सका। इस का एक कारण तो यह रहा कि नवभारत टाइम्स (एनबीटी) ऑनलाइन के ऑथर ब्लाग 'समञ्जस' पर लिखता रहा। लेकिन अपने इस ब्लाग पर इतना लंबा अन्तराल ठीक नहीं। आज से इसे फिर से नियमित रूप से आरंभ करने का इरादा किया है। आज यहाँ हाड़ौती भाषा-बोली के गीतकार, कथाकार श्री गिरधारी लाल मालव की एक हाड़ौती कहानी 'तस लागै तो' के हिन्दी अनुवाद का पूर्वार्ध प्रस्तुत है।
‘हाड़ौती कहानी’
वह बाड़े की तरफ झाँका। पीली वायल के लूगड़े में तुरई के फूलों के रंग की सूरत दिखाई दी। नजर मिली तो वह मुस्कुराई तो उस के गालों पर गुलाब उग आए। होठों पर गुलबाँसिये की कलियाँ आ चिपकीं। वह देखता रहा और चलता रहा। उसे शहर की औरतें याद आईं तो मन उबकाई लेने लगा। सोचा गाँव में भी फैशन आ ही गया। लिपिस्टिक लगा रखा था। अंदर ने नाह निकली। नहीं, लिपिस्टिक नहीं है, होठों का रंग ही ऐसा है।
दच्च…..¡ अचानक जैसे आखों के आगे मोर ने मोरपंखियाँ फैला दी हों। अंधेरा छा गया। अंधेरे में तारे नाचने लगे। गाल और आँख के बीच की हड्डी में सुन्न दौड़ गई। कुछ देर में समझ आया कि वह चांदे के कोने से टकरा गया है।
सामने से तीन-चार मधुर कण्ठ खिलखिलाए। उसने जोर लगा कर आखें खोलीं और उन कण्ठों के चेहरे पहचानने का प्रयत्न किया। आँखों को लाल-पीले नाचते तारों के बीच गौने की उम्र की कुछ छोरियों की धुंधली छवि दीखाई पड़े। चोट के झन्नाटे के बीच सुनाई पड़ा।
-भड़बट खा गया बेचारा।
-चांदा भी न दिखा, पता नहीं, कहीं अंधा न हो।
-तेरी तरफ झाँकने का फल चख लिया।
-तेरे फूल¡ जा पट्टी बांध दे। तेरी वजह से भड़बट खाई, उस ने।
हँसी की लहर मोगरे की कलियाँ बिखरेते बालों के साथ फैल गई। लड़कियाँ खेळ के कुएँ पर पानी भरने चल दीं। वह नीचा सिर किए सोचता जा रहा था। “पता नहीं किस किस ने देखा? जो भी सुनेगा, हँसेगा।
फिर कानों ने सुना - लो सुगन जी भी आ गए। अब तक वह सचेत हो चुका था। सामने देखा, मन में सोचा – मेरा नाम जानने वाला यहाँ कौन होगा?
एक परोसगार पत्तलें हाथ में लिए पाहुनों से पंगत लगाने को कह रहा था। सुगन उसे नहीं पहचान सका। यहाँ गलियारा चौड़े चौक में बदल गया था। भैरू पटेल का मकान गलियारे से पच्चीस-तीस हाथ दूर था जिस से मकान के बाहर एक चौक बन गया था। मकान के आगे बंगले में गौने के पाहुन डोराड़ियों पर बैठे थे। परोसगार उन से बार बार पंगत लगाने का आग्रह कर रहे थे।
सुगन सब के साथ पंगत में बैठ गया।
पाहुन जीम-चूँट कर निपटे तो राव बोलने लगा। “धकड़ोल्या, धन्दोल्या राणा परताप ........। भैरू जी पटेल राणा परताप ........। ऊँटाँ, घोड़ाँ का दातार, घणी खम्माँ परथीनाथ, राजी खुसी बणया रह्यो”। राव लंबी डकारें लेता, लंबी मूँछो पर हाथ फेरता आज के अन्नदाता को आसीसता जा रहा था। दिया-बत्ती होते ही लुगाइयों से पोळ भर गई। पाहुनों के नाम ले ले कर सुरीले गलों से नेह के सुर फूटने लगे। वह डोराड़ी पर पसर गया।
तड़के ही भाई-सगे स्नान-ध्यान के लिए जाने की तैयारी में लगे थे। तभी एक जवान आता दीख पड़ा। सुगन ने दूर से ही पहचान लिया -माधो तू¡ वह सुगन की और मुळकता हुआ आ रहा था। तेल झरते अंग्रेजी कट के बाल, टेरीकोट की कमीज, लाल किनारी वाली सफेद झक्क टखने ढकती धोती और पैरों में दशहरे मेले से खरीदे सस्ते मोल के देसी बूट। माधो साली के गौने में बन-ठन कर आया था।
निकट आते ही सुगन ने मुलकते हुए पूछा। - रात देर से आया क्या?
-नहीं मैं तो जल्दी ही आ गया था। तू कब आया? माधो ने पलट कर पूछा।
-मैं तो दिन रहते ही पहुँच गया था। उत्तर देते देते सुगन का ध्यान कल की घटना पर चला गया।
-मुझे तेरे आने की आस नहीं थी। माधो कह रहा था।
-मुझे तो तुम्हारी पूरी आस थी। सुगन ने कहा। समधी जी समझेंगे कि हमें अब कौन गिनता मानता है। इस लिए आना ही पड़ा।
दोनों मित्र देर तक बातें करते रहे। सुगन और माधो आठवीं तक साथ ही पढ़ते थे। फिर माधो पढ़ाई छोड़ कर काम-धन्धे में लग गया। सुगन हायर सैकण्डरी कर के एस.टी.सी. कर ली। चार कोस दूर के गाँव के सरकारी स्कूल में अध्यापक हो गया।
कलेवा कर निपटते निपटते दुपहर हो गई। लुगाइयाँ पाहुनों के मेहंदी लगाने लगीं। पाहुनों के बोल छेड़खानी पर उतर आए । सुगन अन्न की गेहल से अलसाने लगा। गर्मी की दुपहरी में भोजन के बाद सोने का सुख अनोखा होता है। सुगन ने सब से अलग हो भैरू पटेल के नोहरे का दरवाजा जा खोला। नोहरे के बीच नीम का घेर-घुमेर पेड़ था। पास में बिना मँजे बरतन फैले पड़े थे। वहीं एक चारपाई थी। सुगन की मुराद पूरी हो गई। कोई कच्ची नींद में न जगा दे। यह सोच कर उस ने दरवाजे के किवाड़ लगा कर अन्दर से साँकल चढ़ा दी और चारपाई बिछा कर पसर गया। नोहरे और भैरू पटेल के मकान के बीच के सराड़े में आर-पार जो दरवाजा था उस की ओर सुगन का ध्यान ही नहीं गया।
नींद में उसे लगा कि कोई उसे छेड़ रहा है। सुगन की चमक नींद खुल गई, वह उठ बैठा। चार-पाँच बरस की एक छोरी भागती नजर आई। हरी छींट का घाघरा और लाल वायल का सलूका पहने थी। चार पाँच कदम जा कर पीछे अंगूठा उठाती बोली –ऐ, ब्याई जी मुझे परण ले जाओ ....।
एक गहरी हँसी की गूंज सराड़े के दरवाजे के किवाड़ों के पीछे से आई। निगाह उधर गई तो किवाड़ों के पीछे पीली वायल का लूगड़ा हवा के संग उड़ता दिखाई दिया। सुगन समझ गया क्या चालाकी है? और किस की है? छोरी दौड़ कर किवाड़ों के पीछे गुम हो गई। कानाफूसी सुनाई दी। फिर किवाड़ों के पीछे से झाँक कर छोरी ने हँसी दबाते हुए पूछा – पानी लाऊँ, ब्याई जी¡ ... पियोगे?
सुगन ने अब सीधी बात करना ठीक समझा। वह जोर से बोला – क्यों न पिएंगे? आप लाओ और हम न पिएँ? ये कैसे हो सकेगा?
कुछ देर में छोरी अपने नन्हें हाथों में एक पानी भरा लोटा लिए हाजिर थी। लेकिन सुगन का ध्यान तो किवाड़ों के पीछे लहराते पीले लूगड़े पर था। कल बाड़े में दिखी वही है। आधी किवाड़ों के पीछे और आधी दीखती खड़ी थी। इमली के कच्चे कटारों सी आँखें किनारे से पलकों तक बिखर बिखर हँस रही थीं। सुनहरी कढ़ाई वाला मूंगियां रंग का कब्जा और लाल चिकन का घाघरा पहने थी, पैरों में बाजणी पाजेब।
छोरी के लोटा पकड़े हाथ दुखने लगे, छूट कर लोटा नीचे गिरा। आवाज से सुगन चौंक कर होश में लौटा तो लोटा जमीन पर लुढ़क रहा था। छिटक कर पानी गिरने से उड़े धूल के गीले कणों ने सुगन की पेंट को चित्रित कर दिया था। उधर हँसी दरवाजे के किवाड़ों से न रुकी। छोरी सिटपिटा कर भाग गई। बाहर गलियारे में अभी भी बोल छेड़खानी पर उतारू थे। किसी ने आवाज लगाई – अरी..ई .... चम्पा...आ....¡ सुनते ही पीली वायल का लूगड़ा दरवाजे के पीछे गायब हो गया।
दो बरस पीछे सुगन का तबादला उसी गाँव में हो गया। उस ने स्कूल में उपस्थिति दी तब फागुन लग गया था। खेतों के ओढ़े सरसों के फूलों के लूगड़े फगुनाई हवा में लहराते थे। मानुष मन प्रकृति परिवर्तन से अप्रभावित कैसे रहता? सुगन के मन में भी रंगों का मेला सजा। पीले वायल का लूगड़ा स्मृति के किवाड़े खोल फागुन की हवा में लहराने लगा। मन कहता था वह अवश्य मिलेगी। स्मृति ने खुद का ही स्वर दोहरा दिया “क्यों न पिएंगे? आप लाओ और हम न पिएँ?” उस ने खुद से शरमा कर चारों ओर देखा। आस-पास कोई न दिखा तो संतोष हुआ।
पहले दिन का स्कूल कर के निकला तो उस के पैर सीधे भैरू पटेल के मकान की ओर चल पड़े। दरवाजे के बाहर जा कर आवाज लगाई तो अंदर से एक बदरंग लूगड़ा लपेटे एक बायर बाहर आई। देख कर सुगन सोच में पड़ गया। उनियारा तो चम्पा जैसा ही है पर इतना बदरंग कैसे? वह एकटक देखता रह गया। बायर ने ही मौन तोड़ा।
-ऐसे क्या झाँक रहे हो, निस्संग की नाईं? हँस कर उस ने पुरानी बात दोहराई तो विश्वास हुआ कि वह चम्पा ही है और उसे भूली नहीं। लेकिन? उस का मन दुख भरे विस्मय से भर गया। सचेत हो कर उस ने पूछा –पर ये क्या हुआ?
चम्पा की लंबी पलकें टप-टप गिरते मोतियों को न रोक सकीं। सुगन थैला लिए हक्का-बक्का खड़ा रह गया। चम्पा पहले होश में आई। मुड़ कर झट से घर के अंदर चली गई। जाती जाती कहती गई –बैठने को बिछावन लाती हूँ।
पीछे से चम्पा की माँ आ गई। खेत से हरे चनों का गट्ठर लाई थी। दरवाजे पर पाहुन दिखा तो थोड़ा पल्ला खींच लिया। सुगन ने उन्हें देख अभिवादन किया – ढोक देता हूँ।
आवाज सुन कर चम्पा की माँ समझ गई कि सुगन है। वारणे लेती हुई बोली – कब पधारया? सुगन कुछ बोलता उस के पहले ही हाँक लगा दी – चम्पा ... आ....¡ कुछ बिछाने को ला। पाहुन खड़े हैं। पानी का लोटा भी भर लाना ....।
चम्पा नई कथरी लाई और चबूतरे पर बिछा दी. फिर “पानी लाती हूँ” कहते हुए तुरन्त ही अंदर चली गई। चम्पा की माँ ने बूटों का गट्ठर चबूतरे पर एक ओर पटका और पाहुन से कुछ दूर बैठ घूंघट लिए लिए ही बतियाने लगी।
-भाग फूट गए बेचारी के। दो दिन भी सुहाग का सुख न देखा। ठीक से आती जाती भी न हुई थी। ...... बुढ़िया बिना किसी की हाँ हूँ के धाराप्रवाह बोलने लगी जैसे खुद से ही बतिया रही हो। चम्पा ने पानी का लोटा ला कर सुगन को थमा दिया था और वहीं माँ के समीप ही बैठ गई थी।
सुगन के पल्ले कुछ न पड़ा। वह बोला – मेरे तो कुछ भी समझ नहीं आ रहा है। आखिर ऐसा दुःख कैसे आन पड़ा?
चम्पा की माँ अनवरत बोलती रही। जवाँईं भी कैसा? देवता जैसा था। ऐसा तो कभी मेरे पाहुन भी न आया। कभी नीचे से ऊपर न देखा उस ने। ससुर के तो सामने भी न बोला। पर न जाने क्या हुआ बेचारे को। एक रात में ही .....। सुगन बीच बीच में हाँ हूँ करने लगा था। पर बुढ़िया उस पर ध्यान दिए बिना ही कहती जा रही थी।
-घर वालों ने भी ऐसी करी, नामुरादों ने कि बारह दिन भी साता से न काटने दिए। ताने देने लगे। ये आई है न सतवन्ती जो आते ही निहाल कर दिया। आते ही आदमी को खा गई। पटेल जी को सारी हालत का पता लगा तो पगफेरे के बहाने ले कर आए। तब जा कर साता आई इसे। सूख के पंजर हो गई थी।
-मैं कहती हूँ। रात दिन आँसू बहाने से क्या होगा? अभी तो तेरे खाने-खेलने के दिन हैं। पटेल जी से कह कर अच्छा घर-बार देख दूंगी। पर ये समझती नहीं। कुछ कहते ही मोरनी की तरह आँसू टपकाने लगती है। एक दिन ज्यादा कही तो बोली – मेरे भाग में सुख होता तो ऐसा क्यों होता?
उस दिन के बाद सुगन उस घर बे-रोक टोक आने जाने लगा। छोटा गाँव, मानुष बातों की लहरें बुनने लगे। गोबर फेंकती लुगाइयाँ रेवड़ी पर मिल जातीं तो चम्पा और नए मास्टर जी बात करने लगतीं।
-आज तो चम्पा बाई काजल लगाए थी। एक चर्चा छेड़ती तो दूसरी टीप लगाती।
-नए मास्टर जी रात ग्यारह बजे भैरू जी पटेल के यहाँ से आ रहे थे। मेरे वो जब बाहर निकले तो पूछा- कौन है? तो बोला –मैं हूँ, सुगन। राख होए को शरम भी नहीं आती। दो को बतियाते देख तीसरी भी रस लेने आ जाती और बात का सींग-पूँछ जाने बिना ही बीच में बोल जाती।
- इस से तो सब के सामने हाथ पकड़ ले वही अच्छा। कुछ न कुछ उल्टा-सीधा हो जाएगा तो बेचारी की जिन्दगी खराब हो जाएगी।
गाँव के उठती रेखाओं और भरी कलाइयों वाले जवान भी सुगन को रास्ते में देखते ही खखारने लगे।
... क्रमशः
संपर्क- गिरधारी लाल मालव, ग्राम बरखेड़ा, अंता, जिला बाराँ (राजस्थान) मोबाइल - 09636403452
‘हाड़ौती कहानी’
प्यास लगे तो .....
गिरधारी लाल ‘मालव’
अनुवाद : दिनेशराय द्विवेदी
(1)
गाँव के निकट पहुँचा तो अभी बाँस भर दिन शेष था। पहले पहल खेळ का कुआ, फिर मोती बलाई की झौंपड़ी और उस के बाद गाँव का सीधा गलियारा। इस के दो घर बाद ही उन का मकान। यहाँ गलियारा संकरा है। दोनों तरफ के दो चाँदे, बाएँ चांदे के सहारे बाड़ा जिस की टाँटी गलियारे से लगी हुई है।
वह बाड़े की तरफ झाँका। पीली वायल के लूगड़े में तुरई के फूलों के रंग की सूरत दिखाई दी। नजर मिली तो वह मुस्कुराई तो उस के गालों पर गुलाब उग आए। होठों पर गुलबाँसिये की कलियाँ आ चिपकीं। वह देखता रहा और चलता रहा। उसे शहर की औरतें याद आईं तो मन उबकाई लेने लगा। सोचा गाँव में भी फैशन आ ही गया। लिपिस्टिक लगा रखा था। अंदर ने नाह निकली। नहीं, लिपिस्टिक नहीं है, होठों का रंग ही ऐसा है।
दच्च…..¡ अचानक जैसे आखों के आगे मोर ने मोरपंखियाँ फैला दी हों। अंधेरा छा गया। अंधेरे में तारे नाचने लगे। गाल और आँख के बीच की हड्डी में सुन्न दौड़ गई। कुछ देर में समझ आया कि वह चांदे के कोने से टकरा गया है।
सामने से तीन-चार मधुर कण्ठ खिलखिलाए। उसने जोर लगा कर आखें खोलीं और उन कण्ठों के चेहरे पहचानने का प्रयत्न किया। आँखों को लाल-पीले नाचते तारों के बीच गौने की उम्र की कुछ छोरियों की धुंधली छवि दीखाई पड़े। चोट के झन्नाटे के बीच सुनाई पड़ा।
-भड़बट खा गया बेचारा।
-चांदा भी न दिखा, पता नहीं, कहीं अंधा न हो।
-तेरी तरफ झाँकने का फल चख लिया।
-तेरे फूल¡ जा पट्टी बांध दे। तेरी वजह से भड़बट खाई, उस ने।
हँसी की लहर मोगरे की कलियाँ बिखरेते बालों के साथ फैल गई। लड़कियाँ खेळ के कुएँ पर पानी भरने चल दीं। वह नीचा सिर किए सोचता जा रहा था। “पता नहीं किस किस ने देखा? जो भी सुनेगा, हँसेगा।
फिर कानों ने सुना - लो सुगन जी भी आ गए। अब तक वह सचेत हो चुका था। सामने देखा, मन में सोचा – मेरा नाम जानने वाला यहाँ कौन होगा?
एक परोसगार पत्तलें हाथ में लिए पाहुनों से पंगत लगाने को कह रहा था। सुगन उसे नहीं पहचान सका। यहाँ गलियारा चौड़े चौक में बदल गया था। भैरू पटेल का मकान गलियारे से पच्चीस-तीस हाथ दूर था जिस से मकान के बाहर एक चौक बन गया था। मकान के आगे बंगले में गौने के पाहुन डोराड़ियों पर बैठे थे। परोसगार उन से बार बार पंगत लगाने का आग्रह कर रहे थे।
सुगन सब के साथ पंगत में बैठ गया।
पाहुन जीम-चूँट कर निपटे तो राव बोलने लगा। “धकड़ोल्या, धन्दोल्या राणा परताप ........। भैरू जी पटेल राणा परताप ........। ऊँटाँ, घोड़ाँ का दातार, घणी खम्माँ परथीनाथ, राजी खुसी बणया रह्यो”। राव लंबी डकारें लेता, लंबी मूँछो पर हाथ फेरता आज के अन्नदाता को आसीसता जा रहा था। दिया-बत्ती होते ही लुगाइयों से पोळ भर गई। पाहुनों के नाम ले ले कर सुरीले गलों से नेह के सुर फूटने लगे। वह डोराड़ी पर पसर गया।
तड़के ही भाई-सगे स्नान-ध्यान के लिए जाने की तैयारी में लगे थे। तभी एक जवान आता दीख पड़ा। सुगन ने दूर से ही पहचान लिया -माधो तू¡ वह सुगन की और मुळकता हुआ आ रहा था। तेल झरते अंग्रेजी कट के बाल, टेरीकोट की कमीज, लाल किनारी वाली सफेद झक्क टखने ढकती धोती और पैरों में दशहरे मेले से खरीदे सस्ते मोल के देसी बूट। माधो साली के गौने में बन-ठन कर आया था।
निकट आते ही सुगन ने मुलकते हुए पूछा। - रात देर से आया क्या?
-नहीं मैं तो जल्दी ही आ गया था। तू कब आया? माधो ने पलट कर पूछा।
-मैं तो दिन रहते ही पहुँच गया था। उत्तर देते देते सुगन का ध्यान कल की घटना पर चला गया।
-मुझे तेरे आने की आस नहीं थी। माधो कह रहा था।
-मुझे तो तुम्हारी पूरी आस थी। सुगन ने कहा। समधी जी समझेंगे कि हमें अब कौन गिनता मानता है। इस लिए आना ही पड़ा।
दोनों मित्र देर तक बातें करते रहे। सुगन और माधो आठवीं तक साथ ही पढ़ते थे। फिर माधो पढ़ाई छोड़ कर काम-धन्धे में लग गया। सुगन हायर सैकण्डरी कर के एस.टी.सी. कर ली। चार कोस दूर के गाँव के सरकारी स्कूल में अध्यापक हो गया।
कलेवा कर निपटते निपटते दुपहर हो गई। लुगाइयाँ पाहुनों के मेहंदी लगाने लगीं। पाहुनों के बोल छेड़खानी पर उतर आए । सुगन अन्न की गेहल से अलसाने लगा। गर्मी की दुपहरी में भोजन के बाद सोने का सुख अनोखा होता है। सुगन ने सब से अलग हो भैरू पटेल के नोहरे का दरवाजा जा खोला। नोहरे के बीच नीम का घेर-घुमेर पेड़ था। पास में बिना मँजे बरतन फैले पड़े थे। वहीं एक चारपाई थी। सुगन की मुराद पूरी हो गई। कोई कच्ची नींद में न जगा दे। यह सोच कर उस ने दरवाजे के किवाड़ लगा कर अन्दर से साँकल चढ़ा दी और चारपाई बिछा कर पसर गया। नोहरे और भैरू पटेल के मकान के बीच के सराड़े में आर-पार जो दरवाजा था उस की ओर सुगन का ध्यान ही नहीं गया।
नींद में उसे लगा कि कोई उसे छेड़ रहा है। सुगन की चमक नींद खुल गई, वह उठ बैठा। चार-पाँच बरस की एक छोरी भागती नजर आई। हरी छींट का घाघरा और लाल वायल का सलूका पहने थी। चार पाँच कदम जा कर पीछे अंगूठा उठाती बोली –ऐ, ब्याई जी मुझे परण ले जाओ ....।
एक गहरी हँसी की गूंज सराड़े के दरवाजे के किवाड़ों के पीछे से आई। निगाह उधर गई तो किवाड़ों के पीछे पीली वायल का लूगड़ा हवा के संग उड़ता दिखाई दिया। सुगन समझ गया क्या चालाकी है? और किस की है? छोरी दौड़ कर किवाड़ों के पीछे गुम हो गई। कानाफूसी सुनाई दी। फिर किवाड़ों के पीछे से झाँक कर छोरी ने हँसी दबाते हुए पूछा – पानी लाऊँ, ब्याई जी¡ ... पियोगे?
सुगन ने अब सीधी बात करना ठीक समझा। वह जोर से बोला – क्यों न पिएंगे? आप लाओ और हम न पिएँ? ये कैसे हो सकेगा?
कुछ देर में छोरी अपने नन्हें हाथों में एक पानी भरा लोटा लिए हाजिर थी। लेकिन सुगन का ध्यान तो किवाड़ों के पीछे लहराते पीले लूगड़े पर था। कल बाड़े में दिखी वही है। आधी किवाड़ों के पीछे और आधी दीखती खड़ी थी। इमली के कच्चे कटारों सी आँखें किनारे से पलकों तक बिखर बिखर हँस रही थीं। सुनहरी कढ़ाई वाला मूंगियां रंग का कब्जा और लाल चिकन का घाघरा पहने थी, पैरों में बाजणी पाजेब।
छोरी के लोटा पकड़े हाथ दुखने लगे, छूट कर लोटा नीचे गिरा। आवाज से सुगन चौंक कर होश में लौटा तो लोटा जमीन पर लुढ़क रहा था। छिटक कर पानी गिरने से उड़े धूल के गीले कणों ने सुगन की पेंट को चित्रित कर दिया था। उधर हँसी दरवाजे के किवाड़ों से न रुकी। छोरी सिटपिटा कर भाग गई। बाहर गलियारे में अभी भी बोल छेड़खानी पर उतारू थे। किसी ने आवाज लगाई – अरी..ई .... चम्पा...आ....¡ सुनते ही पीली वायल का लूगड़ा दरवाजे के पीछे गायब हो गया।
दो बरस पीछे सुगन का तबादला उसी गाँव में हो गया। उस ने स्कूल में उपस्थिति दी तब फागुन लग गया था। खेतों के ओढ़े सरसों के फूलों के लूगड़े फगुनाई हवा में लहराते थे। मानुष मन प्रकृति परिवर्तन से अप्रभावित कैसे रहता? सुगन के मन में भी रंगों का मेला सजा। पीले वायल का लूगड़ा स्मृति के किवाड़े खोल फागुन की हवा में लहराने लगा। मन कहता था वह अवश्य मिलेगी। स्मृति ने खुद का ही स्वर दोहरा दिया “क्यों न पिएंगे? आप लाओ और हम न पिएँ?” उस ने खुद से शरमा कर चारों ओर देखा। आस-पास कोई न दिखा तो संतोष हुआ।
पहले दिन का स्कूल कर के निकला तो उस के पैर सीधे भैरू पटेल के मकान की ओर चल पड़े। दरवाजे के बाहर जा कर आवाज लगाई तो अंदर से एक बदरंग लूगड़ा लपेटे एक बायर बाहर आई। देख कर सुगन सोच में पड़ गया। उनियारा तो चम्पा जैसा ही है पर इतना बदरंग कैसे? वह एकटक देखता रह गया। बायर ने ही मौन तोड़ा।
-ऐसे क्या झाँक रहे हो, निस्संग की नाईं? हँस कर उस ने पुरानी बात दोहराई तो विश्वास हुआ कि वह चम्पा ही है और उसे भूली नहीं। लेकिन? उस का मन दुख भरे विस्मय से भर गया। सचेत हो कर उस ने पूछा –पर ये क्या हुआ?
चम्पा की लंबी पलकें टप-टप गिरते मोतियों को न रोक सकीं। सुगन थैला लिए हक्का-बक्का खड़ा रह गया। चम्पा पहले होश में आई। मुड़ कर झट से घर के अंदर चली गई। जाती जाती कहती गई –बैठने को बिछावन लाती हूँ।
पीछे से चम्पा की माँ आ गई। खेत से हरे चनों का गट्ठर लाई थी। दरवाजे पर पाहुन दिखा तो थोड़ा पल्ला खींच लिया। सुगन ने उन्हें देख अभिवादन किया – ढोक देता हूँ।
आवाज सुन कर चम्पा की माँ समझ गई कि सुगन है। वारणे लेती हुई बोली – कब पधारया? सुगन कुछ बोलता उस के पहले ही हाँक लगा दी – चम्पा ... आ....¡ कुछ बिछाने को ला। पाहुन खड़े हैं। पानी का लोटा भी भर लाना ....।
चम्पा नई कथरी लाई और चबूतरे पर बिछा दी. फिर “पानी लाती हूँ” कहते हुए तुरन्त ही अंदर चली गई। चम्पा की माँ ने बूटों का गट्ठर चबूतरे पर एक ओर पटका और पाहुन से कुछ दूर बैठ घूंघट लिए लिए ही बतियाने लगी।
-भाग फूट गए बेचारी के। दो दिन भी सुहाग का सुख न देखा। ठीक से आती जाती भी न हुई थी। ...... बुढ़िया बिना किसी की हाँ हूँ के धाराप्रवाह बोलने लगी जैसे खुद से ही बतिया रही हो। चम्पा ने पानी का लोटा ला कर सुगन को थमा दिया था और वहीं माँ के समीप ही बैठ गई थी।
सुगन के पल्ले कुछ न पड़ा। वह बोला – मेरे तो कुछ भी समझ नहीं आ रहा है। आखिर ऐसा दुःख कैसे आन पड़ा?
चम्पा की माँ अनवरत बोलती रही। जवाँईं भी कैसा? देवता जैसा था। ऐसा तो कभी मेरे पाहुन भी न आया। कभी नीचे से ऊपर न देखा उस ने। ससुर के तो सामने भी न बोला। पर न जाने क्या हुआ बेचारे को। एक रात में ही .....। सुगन बीच बीच में हाँ हूँ करने लगा था। पर बुढ़िया उस पर ध्यान दिए बिना ही कहती जा रही थी।
-घर वालों ने भी ऐसी करी, नामुरादों ने कि बारह दिन भी साता से न काटने दिए। ताने देने लगे। ये आई है न सतवन्ती जो आते ही निहाल कर दिया। आते ही आदमी को खा गई। पटेल जी को सारी हालत का पता लगा तो पगफेरे के बहाने ले कर आए। तब जा कर साता आई इसे। सूख के पंजर हो गई थी।
-मैं कहती हूँ। रात दिन आँसू बहाने से क्या होगा? अभी तो तेरे खाने-खेलने के दिन हैं। पटेल जी से कह कर अच्छा घर-बार देख दूंगी। पर ये समझती नहीं। कुछ कहते ही मोरनी की तरह आँसू टपकाने लगती है। एक दिन ज्यादा कही तो बोली – मेरे भाग में सुख होता तो ऐसा क्यों होता?
उस दिन के बाद सुगन उस घर बे-रोक टोक आने जाने लगा। छोटा गाँव, मानुष बातों की लहरें बुनने लगे। गोबर फेंकती लुगाइयाँ रेवड़ी पर मिल जातीं तो चम्पा और नए मास्टर जी बात करने लगतीं।
-आज तो चम्पा बाई काजल लगाए थी। एक चर्चा छेड़ती तो दूसरी टीप लगाती।
-नए मास्टर जी रात ग्यारह बजे भैरू जी पटेल के यहाँ से आ रहे थे। मेरे वो जब बाहर निकले तो पूछा- कौन है? तो बोला –मैं हूँ, सुगन। राख होए को शरम भी नहीं आती। दो को बतियाते देख तीसरी भी रस लेने आ जाती और बात का सींग-पूँछ जाने बिना ही बीच में बोल जाती।
- इस से तो सब के सामने हाथ पकड़ ले वही अच्छा। कुछ न कुछ उल्टा-सीधा हो जाएगा तो बेचारी की जिन्दगी खराब हो जाएगी।
गाँव के उठती रेखाओं और भरी कलाइयों वाले जवान भी सुगन को रास्ते में देखते ही खखारने लगे।
... क्रमशः
संपर्क- गिरधारी लाल मालव, ग्राम बरखेड़ा, अंता, जिला बाराँ (राजस्थान) मोबाइल - 09636403452