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शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

मुश्किल का दूध

दिनांक - 6 अगस्त 2010, प्रातः 5:15,
भी-अभी दूध ले कर लौटे हैं। 
यूँ, छह माह पहले तक दूध घर पर आ जाया करता था। आधा किलोमीटर के दायरे में सात आठ दूध डेयरियाँ हैं। जिन में सरस दूध डेयरी के आउटलेट भी हैं, जिन में थैली बंद दूध भी मिलता है। लेकिन यह दूध कभी श्रीमती शोभाराय को पसंद नहीं आया। न जाने कब का निकला होता है। फिर उन का पेस्चराइजेशन कर के उसे थैलियों में बंद किया जाता है। निश्चित ही दूध का प्राकृतिक स्वाद उस से छिन जाता है। शोभा इन का दूध लाती भी थी तो केवल दही जमाने के लिए। 
गूजर की झौंपड़ी के बाहर भैंसें
हले गाँवों से आने वाले दूधियों से दूध लिया करते थे। सात-आठ साल पहले जब कोटा के आस पास लहसुन की खेती बढ़ गई तो दूध में उस की महक शामिल होने लगी। दूधियों का दूध बंद कर दिया गया। एक गूजर की डेयरी से दूध आने लगा। पाँच-छह साल उस से दूध आता रहा। उस का भी बड़ा अजीब किस्सा था। वह दो-तीन क्वालिटी का दूध सप्लाई किया करता था। एक सब से अधिक कीमत का, एक सब से कम कीमत का और दो उस के बीच की कीमत के। हमारे यहाँ सब से अधिक कीमत का दूध आता रहा। लेकिन उस की गुणवत्ता लगातार गिरती रहती थी। तब तक, जब तक कि कीमतें न बढ़ जातीं। कीमतें बढ़ जाने पर अचानक गुणवत्ता में सुधार हो जाता था। चार-छह माह बाद फिर से उस की गुणवत्ता गिरने लगती थी और तब तक गिरती रहती थी जब तक कि फिर से एक बार दूध की कीमतें न बढ़ जातीं। साल भर पहले इस डेयरी के दूध में भी लहसुन की महक आने लगी। शिकायत की गई तो कहा कि वह ऐसा दूध घर पर सप्लाई नहीं कर सकता, दूध डेयरी से लेने आना पड़ेगा। बिना महक का दूध सिर्फ बोराबास के पठार से आता है। उधर लहसुन की खेती नहीं होती। उधर लहसुन की खेती क्या होती? उधर खेती होती ही नहीं थी, मीलों जंगल जो है। मैं कोई साल भर तक उस के यहाँ से दूध लाता रहा। लेकिन कभी-कभी वहाँ भी गड़बड़ हो जाती। आखिर उस का दूध बंद करना पड़ा। अब समस्या खड़ी हुई कि दूध कहाँ से लाएँ?
गूजर की झौंपड़ी
ब श्रीमती जी ने एक नया स्रोत तलाश किया। कोई एक किलोमीटर पर दशहरा मैदान है। उसी में कोई बीस-तीस गूजरों ने अपनी झोंपड़ियाँ डाल रखी हैं। वे भैंस-गाय पालते हैं। सुबह-शाम ग्राहकों को दूध सामने दुह कर देते हैं। वहीं कुछ व्यापारियों के डेरे भी हैं जो दिन में दो बजे और सुबह दो बजे अपने जानवर दुहते हैं। सुबह का दूध तो खुद दूधिए बस्ती में बेचने के लिए ले जाते हैं और उस में उतना ही पानी मिला कर सस्ते में बेचते हैं। दिन का दूध अवश्य सीधे ग्राहकों को मिल जाता है।  डेयरी से दूध बंद हुआ तो उस के सब से अच्छे दूध का भाव पच्चीस रूपये लीटर था। लेकिन ये सामने दुहने वाले गूजर तीस के भाव सामने भैंस दुह कर दूध देते थे। परेशानी यही थी कि वहाँ दूध दुहने के समय के पहले पहुँचना पड़ता है। जरा भी देरी हुई कि दूध में पानी या गाय का दूध मिला देना गूजरों के बाँए हाथ का खेल है। अब रोज-रोज दशहरा मैदान जाना तो संभव नहीं। हम ने तीन दिनों का दूध एक साथ लाना आरंभ कर दिया। सरस डेयरी ने दूध के भाव बढ़ाए शहर की दूसरी डेयरियों ने भी भाव में वृद्धि कर दी। दशहरा मैदान में भी भैंस का दूध तीस से पैंतीस हो गया। इस साल जुलाई माह बिना बरसात के निकल गया। 
गूजर की झौंपड़ी के पास उपला उद्योग
म जिस गूजर के यहाँ से दूध लाते हैं वह सुबह पौने पाँच बजे और शाम को चार बजे अपने जानवरों को दुहता है। अब इसी समय वहाँ जाया जाए तभी दूध सही मिले। अब अक्सर अदालत से लौटते तो पाँच से ऊपर का समय हो जाता है। हम सुबह के समय दूध लाने लगे। सप्ताह में तीन दिन सुबह साढ़े-चार उठना और कार से दूध लाना आरंभ हो गया। गूजर की झौंपड़ी मुख्य सड़क से कोई सौ-डेढ़ सौ मीटर अंदर मैदान में है। जुलाई में तो बरसात न हुई अगस्त के आरंभ से बरसात होने लगी तो मैदान में कीचड़ होने लगा। पैदल चलना तो कठिन था ही कार का जाना भी कठिन हो गया। आज तो पक्की सड़क पर भी कार चलाना कठिन हो गया। कल सुबह बरसात हुई थी। मैदान में आज सुबह तक कीचड़ था। गाएँ सारी सड़क पर आ बैठी थीं और सारी सड़क उन्हों ने अवरुद्ध कर रखी थी। हम जैसे-तैसे कार ले कर गूजर की झोंपड़ी से बीस मीटर दूर तक पहुँचे। लेकिन वे दस मीटर भी पार करना भारी था। गूजर के यहाँ एक ग्राहक बैठा था और वह भैंस दुह रहा था। श्रीमती जी कार से उतरी लेकिन वे मुश्किल से दस मीटर तक पहुँच सकीं आगे कीचड़ के कारण जाना कठिन था। आखिर शेष दस मीटर गूजर खुद दूध की बाल्टी ले कर आया और दूध नाप गया। श्रीमती जी वापस लौट कर कार में बैठीं तो कार को वापस मोड़ना कठिन हो गया। जैसे-तैसे आगे पीछे कर कार को वापस घुमाया और अपने घर पहुँचे।
गूजर से दूध ले कर लौटती श्रीमती शोभाराय
 मैं ने कहा - आज का दूध बहुत मुश्किल का दूध है, और इस का भरोसा भी नहीं कि इस में पानी मिला है या गाय का दूध। श्रीमती जी कहने लगीं अभी गर्म करते ही पता लग जाता है। खैर पोस्ट समाप्त होने के पहले वे कॉफी का प्याला टेबुल पर रख गईं। मैं टाइप करते-करते उसे खत्म भी कर चुका हूँ। मुझे दूध में कोई खोट नहीं दिखा, न स्वाद का न पानी का।

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

गोल बनाओ फिर से जाओ

गोल बनाओ फिर से जाओ
  •  दिनेशराय द्विवेदी

जेठ तपी
धरती पर
बरखा की ये
पहली बूंदें

गिरें धरा पर
छन् छन् बोलें
और हवा में
घुलती जाएँ


टुकड़े टुकड़े
मेघा आएँ,
प्यास धरा की
बुझा न पाएँ


मेघा छितराए
डोलें नभ में
कैसे बिगड़ी
बात बनाएँ

 
मानें जो सरदार
की सब तो
बन सकती है
बात अभी भी

मिलकर पहले
मेघा सारे
गोल बनाओ
फिर से जाओ

बहुत तपी है
प्रिया तुम्हारी
और तनिक भी
मत तरसाओ


खूब झमाझम
जा कर बरसो
वसुंधरा का
तन-मन सरसो

 

रविवार, 1 अगस्त 2010

राजा-रानी छू-मंतर, किसान को बनाया नायक मुंशी प्रेमचंद ने

मैं तो कल मुंशी प्रेमचंद जी की जयन्ती नहीं मना पाया। बस उन का आलेख 'महाजनी सभ्यता तलाशता रहा। लेकिन उधर प्रेस क्लब में 'विकल्प जन सांस्कृतिक मंच' ने मुंशी जी का जन्मदिन बेहतरीन रीति से मनाया। इस अवसर पर नगर के सभी जाने माने साहित्यकार और कलाकार एकत्र हुए, जी हाँ वहाँ कुछ ब्लागर भी थे, बस मैं ही नहीं जा सका था। इस अवसर पर "आज की कहानी और प्रेमचंद" विषय पर एक परिचर्चा आयोजित की गई। 
प्रोफेसर राधेश्याम मेहर
रिचर्चा में समवेत विचार यह निकल कर आया कि आज के कथाकारों को केवल परिवेश की अक्कासी ही नहीं अपितु मुंशी प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों से प्रेरणा ले कर आम-आदमी के जीवन की सचाइयों आत्मसात करते हुए समाज को दिशा प्रदान करने वाली रचनाओं का सृजन करना चाहिए।
कवि ओम नागर
रिचर्चा को प्रारंभ करते हुए नगर के चर्चित कथाकार विजय जोशी ने कहा कि आज की कहानियों में भौतिक विकास तो दिखाई पड़ता है लेकिन आत्मिक विकास नदारद है। कवि ओम नागर ने कहा कि आज के गाँवों की स्थितियाँ प्रेमचंद के गाँव से अधिक त्रासद हैं, लेकिन कहानियों में वे प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त नहीं हो रही हैं। 
डॉ. अनिता वर्मा
वि, व्यंगकार और ब्लागर अतुल चतुर्वेदी ने आधुनिक समय की अनेक कहानियों के उदाहरण देते हुए बताया कि इन कहानियों में बाजारवाद तो है लेकिन मनुष्य की मुक्ति की राह दिखाई नहीं देती है। प्रेमचंद की कहानियों के पात्र आज भी गाँव-गाँव में जीवन्त हैं। लेकिन आधुनिक कहानियों में अनुभव की वह आँच नहीं दिखाई देती जो प्रेमचंद की कहानियों में थी।  डॉ. अनिता वर्मा ने कहा कि मनुष्य और समाज से प्रेमचंद को गहरा लगाव था, आज का कथाकार उस गहराई को छू भी नहीं पाता है। 
श्याम पोकरा
विशिष्ठ अतिथि श्याम पोकरा ने कहा कि प्रेमचंद ने जितनी भी कहानियाँ लिखीं वे सभी समाज के कड़वे यथार्थ से उपजी हैं। लेखकों को कृत्रिमता से बचते हुए सहजता के साथ समाज के उत्पीड़ितों की गाथा लिखनी चाहिए।
कथाकार विजय जोशी
 रिचर्चा की अध्यक्षता कर रहे कवि-रचनाकार अम्बिका दत्त ने कहा कि प्रेमचंद के पास समाज के प्रति गहरी निष्ठा, त्यागमय जीवन मूल्य, व प्रगतिशील दृष्टि थी। इसी कारण से वे आज तक बड़े लेखक बने हुए हैं। अध्यक्ष मंडल के ही सदस्य प्रोफेसर राधेश्याम मेहर ने अपने उद्बोधन में कहा कि प्रेमचंद ने कहानियों  के केन्द्रीय पात्रों  राजा-रानी को किसान और मजदूर से प्रतिस्थापित कर दिया। वे ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध स्वातंत्र्य चेतना जगाने वाले महत्वपूर्ण और प्रमुख साहित्यकार थे। समारोह के संचालक शिवराम ने इस में अपनी बात जोड़ी कि आज के साहित्यकारों को जन-स्वातंत्र्य की चेतना जगाने के लिए प्रेमचंद की ही तरह काम करने की आवश्यकता है। विकल्प जन सांस्कृतिक मंच के अध्यक्ष महेन्द्र नेह ने सभी का धन्यवाद ज्ञापित किया।
कवि-रचनाकार अम्बिका दत्त

शनिवार, 31 जुलाई 2010

नहीं मना सका मैं, मुंशी प्रेमचंद जी का जन्मदिन

ज मुंशी प्रेमचंद का जन्मदिन है। वे भारतीय साहित्य की अमूल्य निधि हैं। उन्होंने भारतीय जन जीवन, उस की पीड़ाओं को गहराई से जाना और अभिव्यक्त किया। उन की कृतियाँ हमें उन के काल के उत्तर भारतीय जीवन का दर्शन कराती हैं। 
न का बहुत सा साहित्य अन्तर्जाल पर उपलब्ध है। लेकिन उन का एक महत्वपूर्ण आलेख 'महाजनी सभ्यता' अभी तक अंतर्जाल पर उपलब्ध नहीं है। मैं ने सोचा था कि उन के इस जन्मदिन पर मैं इसे अंतर्जाल पर चढ़ा दूंगा। लेकिन जब कल तलाशने लगा तो वह आलेख जिस पुस्तक में उपलब्ध था नहीं मिली। मुझे उस पुस्तक के न मिलने का भी बहुत अफसोस हुआ, मैं ने उसे करीब पिछले तीस वर्षों से सहेजा हुआ था। 
मुझे कुछ तलाशते हुए परेशान होते देख पत्नी शोभा ने पूछा -क्या तलाश रहे हो? मैं ने बताया कि कुछ किताबें और पत्रिकाएँ नहीं मिल रही हैं। रद्दी में तो नहीं दे दीं? तब उस ने कहा कि कोई किताब और पत्रिका रद्दी में नहीं दी गई है। हाँ, दीपावली पर सफाई के वक्त कुछ किताबें ऊपर दुछत्ती में जरूर रखी हैं। मैं तुरंत ही दुछत्ती से उन्हें निकालना चाहता था। लेकिन वहाँ पहुँचने का एक मात्र साधन स्टूल टूट कर चढ़ने लायक नहीं रहा है। खैर महाजनी सभ्यता को इस जन्मदिन पर अंतर्जाल पर नहीं चढ़ा पाया हूँ। लेकिन जैसे ही वह पुस्तक मेरे पल्ले पड़ी इसे अविलंब चढ़ाने का काम करूंगा। प्रेमचंद जी के अगले जन्मदिन का इंतजार किए बिना।

नक्सलवाद से निपटने का चिदम्बरम बाबू का नया फार्मूला

चिदम्बरम् बाबू ने फिर कहा है कि वे तीन साल में नक्सलवाद पर काबू पाएंगे। लेकिन कैसे? इस के खुलासे में उन्हों ने अपना नया फार्मूला पेश किया है वह बिलकुल दिलासा देने काबिल नहीं है। उन का कहना है कि वे विकास और सुरक्षा उपायों के माध्यम से इस पर काबू पाएंगे। 'विकास' और 'सुरक्षा ' इन दो शब्दों का अर्थ चिदम्बरम बाबू के लिए कुछ हो सकता है और जनता के लिए कुछ। यह भी हो सकता है कि नक्सलवादियों के लिए उस का अर्थ कुछ और हो। 
म जनता तो सुरक्षा के नाम पर नगरों और कस्बों में कायम 'आरक्षी केन्द्रों' को जानती है। उन में तैनात पुलिस तो जनता की सुरक्षा कर नहीं पाती अपितु कहीं अकेले में कोई व्यक्ति किसी पुलिस वाले के पल्ले पड़ जाए तो खुद को असुरक्षित महसूस करने लगता है। पिछले दिनों मेरे स्वयं के पास कुछ मामले ऐसे आए हैं जहाँ पुलिस ने सुरक्षा करने के स्थान पर जनता की सुरक्षा की भावना को पलीता लगा दिया। किसी मोटर सायकिल वाले का चालान किया गया। उस के पास जुर्माना भरने को पैसा नहीं था तो उस की बाइक ही जब्त कर ली गई। अदालत से उसे वापस पाने का आदेश लेकर जब वह बाइक लेने 'आरक्षी केंद्र' पहुँचा तो पता लगा कि उस की मोटर सायकिल का छह महिने पहले डलवाया गया नया टायर एक पुराने और घिसे हुए टायर से बदल दिया गया है। पुलिस टायर बदलने का इल्जाम लगा कर उसे कोई आफत तो मोल लेनी नहीं थी। जब टायर बदलवाने बाजार पहुँचा तो उसे पता लगा कि छह महिने में टायर की कीमत में 80 % का इजाफा हो चुका है। जो टायर पहले 800 रुपए का था अब 1500 रुपये में मिल रहा था। ऐसी ही एक घटना का कोई बीस बरस पहले मैं खुद शिकार हो चुका हूँ। गलती से मेरी मोपेड को टक्कर मारने वाले के विरुद्ध मैं ने रिपोर्ट दर्ज करवा दी। मेरी मोपेड को मुआयने के लिए जब्त किया गया। बताया गया कि टेक्नीकल रिपोर्ट लिखने वाले को सौ-पचास देना बनता है। मैं ने नहीं दिया। नतीजे में अदालत के आदेश से जब मोपेड वापस ले ने पहुँचा तो आधी टंकी पेट्रोल होने के बाद भी वह स्टार्ट नहीं हुई। मिस्त्री को दिखाने पर पता लगा कि उस में पेट्रोल की जगह पानी भरा हुआ था। अब चिदम्बरम बाबू इस पुलिस के भरोसे कैसे अपना सुरक्षा तंत्र चलाएँगे? ये तो वही बता सकते हैं। 
हाँ तक बात विकास की है, जनता अब तक विकास के नाम पर सिर्फ सड़कें देखती आई है। जो चुनावों के ठीक पहले चमचमाती हैं और सरकारें बनने के बाद उन के उखड़ने का सिलसिला तुरंत शुरू हो जाता है। इस के अलावा जनता तमाम नेताओं और उन के कुनबे को फलता फूलता देखती है। दूसरी और जनता का जीवन और दूभर होता जाता है। पिछले दिनों महंगाई ने जो कमर तोड़ी है उस के सीधे होने के आसार दूर दूर तक नजर नहीं आते। उस पर शरद पंवार जैसे बयान-बाज के बयान दुखते नंगे घावों पर नमक और छिड़क जाते हैं। चिदम्बरम बाबू किस विकास के माध्यम से नक्सलवाद की हवा खिसकाना चाहते हैं? जरा उसे परिभाषित तो कर दें। 
क्सलवाद आज जंगलों में अपनी जड़ें जमाए बैठा है। उस की वजह है  कि जंगलों की आबादी को उन्हीं जंगलों में बेशकीमती खनिजों का खनन करने वालों ने उजाड़ा है, बरबाद और बेइज्जत किया है। नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों का तो मुझे प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है लेकिन इतना जानता हूँ कि राजस्थान के गिने चुने जंगलों में जितनी खानें सरकारी कागजों में दिखाई गई हैं उस से संख्या में दुगनी से भी अधिक खानें वास्तव में चल रही हैं। वन नष्ट हो रहे हैं। उन के साथ ही वनवासी और उन का जीवन नष्ट हो रहा है। यह नक्सलवादी प्रचार कि सरकार जंगलों को देशी-विदेशी पूंजीपतियों के हवाले कर देना चाहती है, जनता को सच लगता है। क्यों नहीं चिदम्बरम बाबू इस का जवाब इस तरह देते कि जंगलों में कोई भी नया खनन तब तक नहीं होगा जब तक उस इलाके के वनवासी उस से सहमत नहीं होते। पुराने खनन क्षेत्रों की जाँच की जाएगी और यदि यह पाया गया कि इस से वन और वनवासी जीवन को हानि पहुंच रही है तो उसे रोक दिया जाएगा। चिदंबरम बाबू आप घोषणा करें और इस ओर पहला कदम उठा कर तो देखें। और फिर उस का चमत्कार देखें। पर आप कैसे ऐसा कर पाएंगे? किया तो अपने आकाओं को क्या मुहँ दिखाएँगे?

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

जज के पिता और भाई की हत्या - राजस्थान में बिगड़ती कानून और व्यवस्था

राजस्थान में कानून और व्यवस्था की गिरती स्थिति का इस से बेजोड़ नमूना और क्या हो सकता है कि एक पदासीन जज के वकील पिता और वकील भाई की दिन दहाड़े गोली मार कर हत्या कर दी गई। गोली बारी में जज की माँ और उस का एक अन्य वकील भाई और उस की पत्नी गंभीर रूप से घायल हैं। 
ह घटना भरतपुर जिले के कामाँ कस्बे में गुरुवार सुबह आठ बजे घटित हुई। कुछ नकाबपोशों ने घर में घुस कर गोलीबारी की जिस में बहरोड़ में नियुक्त फास्ट ट्रेक जज रामेश्वर प्रसाद रोहिला के वकील पिता खेमचंद्र और वकील भाई गिर्राज की हत्या कर दी गई। जज के एक भाई राजेन्द्र और उस की पत्नी व जज की माँ इस घटना में गंभीर रूप से घायल हो गई हैं। इस घटना का समाचार मिलते ही कस्बे में कोहराम मच गया और भरतपुर जिले में वकीलों में रोष व्याप्त हो गया जिस से समूचे जिले में अदालतों का कामकाज ठप्प हो गया।  हा जा रहा है कि ये हत्याएँ जज के पिता खेमचंद और उस के पड़ौसी के बीच चल रहे भूमि विवाद के कारण हुई प्रतीत होती हैं।
दि यह सच भी है तो भी हम सहज ही समझ सकते हैं कि राज्य में लोगों का न्याय पर से विश्वास उठ गया है और वे अपने विवादों को हल करने के लिए हिंसा और हत्या पर उतर आए हैं। इस से बुरी स्थिति कुछ भी नहीं हो सकती। जब राज्य सरकार इस बात से उदासीन हो कि राज्य की जनता को न्याय मिल रहा है या नहीं, इस तरह की घटनाओं का घट जाना अजूबा नहीं कहा जा सकता। राज्य सरकार आवश्यकता के अनुसार नयी अदालतें स्थापित करने में बहुत पीछे है। राजस्थान में अपनी आवश्यकता की चौथाई अदालतें भी नहीं हैं। जिन न्यायिक और अर्ध न्यायिक कार्यों के लिए अधिकरण स्थापित हैं और जिन का नियंत्रण स्वयं राज्य सरकार के पास है वहाँ तो हालात उस से भी बुरे हैं। श्रम विभाग के अधीन जितने पद न्यायिक कार्यों के लिए स्थापित किए गए हैं उन के आधे भी अधिकारी नहीं हैं। दूसरी और कृषि भूमि से संबंधित मामले निपटाने के लिए जो राजस्व न्यायालय स्थापित हैं उन में प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त किए जाते हैं। उन पर प्रशासनिक कार्यों का इतना बोझा है कि वे न्यायिक कार्ये लगभग न के बराबर कर पाते हैं। राजस्व अदालतों की तो यह प्रतिष्ठा जनता में है कि वहाँ पैसा खर्च कर के कैसा भी निर्णय हासिल किया जा सकता है।  
दि राज्य सरकार ने शीघ्र ही प्रदेश की न्यायव्यवस्था में सुधार लाने के लिए कड़े और पर्याप्त कदम न उठाए तो प्रदेश की बिगड़ती कानून व्यवस्था और बिगड़ेगी और उसे संभालना दुष्कर हो जाएगा। इस घटना से प्रदेश भर के वकीलों और न्यायिक अधिकारियों में जबर्दस्त रोष है और शुक्रवार को संभवतः पूरे प्रदेश में वकील काम बंद रख कर अपने इस रोष का इजहार करेंगे।

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

पूछा था अच्छा ऑर्थोपेडिस्ट, मुझे कसाई याद आता रहा .....

ट्रेक्टर दुर्घटना में वह घायल हुआ है। उस की छाती स्टेयरिंग के नीचे दब गई थी।  उस की सारी पसलियाँ टूटी हुई हैं और नीचे का जबड़ा अलग हो कर लटक गया है। फिर जब क्रेन ट्रेक्टर को निकालने आई तो उस ने ट्रेक्टर को गड्ढे से बाहर निकालने के लिए उठाया और ट्रेक्टर छिटक गया। वह भी ट्रेक्टर के साथ ही नीचे गिरा, उस के साथ ही फिर से उछला, फिर गिरा। उसे फिर से क्रेन ने उठा कर बाहर निकाला। उसे जिले के सरकारी अस्पताल लाया गया। यह मेडिकल कॉलेज से संबद्ध अस्पताल है। 
से प्राथमिक चिकित्सा दी गई। डाक्टर ने देखा तो बताया कि जबड़ा यदि तुरंत बांधा नहीं गया तो हमेशा के लिए ऐसा ही रह जाएगा। जबड़ा बांधने की राशि दस हजार मांगी गई। उस के पिता के पास पैसा कहाँ था। उस ने डाक्टर से अनुनय-विनय की, गिड़गिड़ाया। डाक्टर ने रकम पाँच हजार कर दी। पर पिता के पास तो देने को वे भी नहीं थे। उस ने कहा सरकारी अस्पताल में तो मुफ्त में इलाज होना चाहिए। डाक्टर ने कहा करते हैं मुफ्त में इलाज। डाक्टर ने जबड़े को सुन्न कर उस के एक सिरे पर सुए से तार डाला  सुआ वापस निकाल कर उसे प्लास जैसे किसी औजार से पकड़ा। तार का दूसरा सिरा लड़के के पिता को पकड़ा दिया। कहा इसे कस कर पकड़े रहना। डाक्टर ने तार को जोर से खींचा। इतना जोर से कि तार जबड़े को चीरता हुआ बाहर आ गया। खून बहने लगा। डाक्टर झल्ला गया था। एक तो उसे मजदूरी नहीं मिली थी, दूसरे उस से जोर ज्यादा लग गया था।
उस ने दुबारा पास ही एक और स्थान पर यही क्रिया दोहराई। इस बार तार बाहर तो न आया। लेकिन कहीं दांत में अटक गया और उस ने एक दाँत को जबड़े से अलग कर दिया। तब तक डाक्टर की झल्लाहट कम हो चुकी थी। लेकिन लड़का खून से तरबतर था और पिता का खून सूख चुका था।
खैर डॉक्टर ने तीसरे प्रयास में जैसे-तैसे जबड़े को बांध दिया। लड़के को ले कर उस का पिता वापस वार्ड में आ गया। दूसरे दिन उसे डिस्चार्ज कर दिया। पिता कहने लगा। अभी तो इस की सारी पसलियाँ टूटी पड़ी हैं। इसे कैसे घर ले जाऊँ? कम्पाउंडर ने कहा-भाई वे तो ठीक होते ही होंगी, हम तो जितना कर सकते थे कर चुके।
..... असल में आज मैं ने अपने एक सहायक वकील से पूछा था कि कोई अच्छा ऑर्थोपेडिस्ट बताओ। तो उस ने यह किस्सा सुनाया। फिर बोला -अब अच्छा कैसे बताऊँ, लड़के का पिता दस हजार दे देता तो वही अच्छा ऑर्थोपेडिस्ट हो जाता। मुझे उस डाक्टर के साथ कसाई याद आता रहा। हालांकि मैं ने कभी कोई कसाई देखा नहीं है। उस के बारे में सुनता और पढ़ता ही रहा हूँ।