अनवरत के पिछले अंकों में आप यादवचंद्र जी के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के छह सर्ग पढ़ चुके हैं। अब तक प्रकाशित सब कड़ियों को यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग परिवर्तन के साथ ही यादवचंद्र जी के काव्य का रूप भी परिवर्तित होता जाता है। इसे आप इस नए सर्ग को पढ़ते हुए स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का सप्तम सर्ग "गुलाम तब जागे" प्रस्तुत है .........
'गुलाम तब जागे'
युद्ध-भूमि हूँकार रही, जन-जीवन को ललकार रही है
देख, अयश की करवालें दुश्मन की, तुझे पुकार रही है
आत्म समर्पण कर दे, बस तेरा कोई उद्धार नहीं है
करने को प्रतिकार, छूट है-प्राण बशर्ते भार नहीं है,
हाय कबीलों की धरती-अलविदा ! जिन्दगी हार रही है
आग व्यक्ति में भड़की जो, बाजी पर बाजी मार रही है
घुटनों के बल, सिर झुका मनुज बैठा है, असि गुर्राती है
समता के शव दे पाँव शान्ति, शासन की रानी आती है
होंठ सिले जिन लोगों के, 'उफ' करना है अपराध भयंकर
पेट पीठ से सटे हुए, पर मरना है अपराध भयंकर
पत्थर से सिर मार, बहाने गढ़ना है अपराध भयंकर
बहे सहारा की रेती में उन के खून पसीना बन कर
बहन हरम में बन्द, शान्त हो भाई पी ले खून-जहर
आजादी तुझे उबलने की जैसे चूल्हे पर घी कड़-कड़
तड़-तड़ कोड़ों की मार पीठ पर, दोपहरी घुघुआती है
दासों के कन्धों पर चढ़ लो, कला कुमारी आती है
गढ़ने को वास्तु कला का जो आदर्श, पिरामिड गढ़ना है
बढ़ने को इच्छित मंजिल का जो ध्येय, पूर्णता-बढ़ना है
उत्कर्ष चतुर्दिक जीवन का युग मांग रहा, तम हरना है
है पौरूष तो दुर्जेय घाव का चिन्ह धरा पर करना है
इतिहास बनाने को अपना, पन्नों को खूँ से भरना है
निर्माण यज्ञ यह पहला है, बलि के पशुओं को मरना है
दासों के कन्धों पर चढ़ लो, कला कुमारी आती है
गढ़ने को वास्तु कला का जो आदर्श, पिरामिड गढ़ना है
बढ़ने को इच्छित मंजिल का जो ध्येय, पूर्णता-बढ़ना है
उत्कर्ष चतुर्दिक जीवन का युग मांग रहा, तम हरना है
है पौरूष तो दुर्जेय घाव का चिन्ह धरा पर करना है
इतिहास बनाने को अपना, पन्नों को खूँ से भरना है
निर्माण यज्ञ यह पहला है, बलि के पशुओं को मरना है
कटते हैं मुण्ड करोड़ों के, काली त्योहार मनाती है
मुर्दों का लेकर हव्य सभ्यता की देवी मुसकाती है
निर्माण यज्ञ-जा भूल मनुज अस्तित्व तुम्हारा बाकी है
आ थाम जुआ यह बे लगाम, हाँ, नाम हमारा बाकी है
जो प्यास लगे तो चाट होंठ हाँ, काम हमारा बाकी है
जो भूख लगे तो खा ठोकर, आराम हमारा बाकी है
निर्माण यज्ञ-खूँ से खेतों को पाट, 'सहारा' बाकी है
सब काम अधूरा बाकी है, अन्जाम करारा बाकी है
रख लाश नींव में पहले, फिर ईंटों की बारी आती है
शासन-दर्शन-विज्ञान नीति के गीत दिशाएँ गाती हैं
निर्माण यज्ञ-समिधा, देवों की शक्ति इला के देश खड़ी
अधिकार धरा का चुरा, स्वर्ग की लिए वितण्डा हुई बड़ी
मुट्ठी भर आदमखोरों की सम्पदा-कठोर हिया, बहरी
श्रम का अपमान सदा करती, श्रमिकों के दल से सदा लड़ी
समिधा-जो जलती हवन-कुण्ड में, श्रम के दाग ललाट, तरी
नर हव्य बना जिस दिव्या का, संस्कृति की सब से मधुर कड़ी
'ब्राह्मण' मैं देता फूँक तुझे, उफ, दाल न गलने पाती है
यह यज्ञ ? गुलामी की तौकें जग को पहनाई जाती हैं
रेशम के चिकने वस्त्र बना, पर तेरे भाग लंगोटी है
केशर उपजा, पर तेरे हिस्से बस सूखी दो रोटी है
कन्या कर पैदा दे मुझ को-दीनों में न हया होती है
दासत्व ग्रहण कर पैर दबा, तेरी किस्मत ही खोटी है
आचार नीति सब कहते हैं-सब ठीक, बात जो होती है
शासक का न्याय निराला है, शासित की दुनिया छोटी है
यूनान, मिश्र, ईरान, सिन्धु की, दुनिया गाथा गाती है
मन थिरक नाचता है छमछम और बुद्धि खड़ी चकराती है
सौ का ले कर के भाग एक कानून बनाये जाता है
खेतों में गलते लाखों जन की एक कमाई खाता है
हैं हाथ हुनर के फौलादी, खटने-खपने से नाता है
लाखों हाथों के बने महल में, एक खाट फैलाता है
जब मुफ्तखोर, ईमानचोर, अपने ........ .......... है*
हर शास्त्र विगत युग का उस के डाके को सत् ठहराता है
धरती जो दुनिया से ऊपर, जब वही विधान बनाती है
तब श्राद्ध सत्य का होता है, तब मानवता झुक जाती है
चौखटा चरर-मर करता है जब बहुत पुराना होता है
जो धर्म ग्रन्थ इक तरफा है वही निशाना होता है
मत धूल झोंक इन आँखों में-'होगा' जो हरदम होता है
वह देख नियति सर्पिणी त्रस्त, 'सर्वज्ञ' देख ले रोता है
करवट चौखटा बदलता है, उपदेश धर्म-गुरू देता है
इस पर भी काम न चलता है तब ढोंग न्याय का होता है
माँ गई, हमारा राज गया, परिवर्तन मेरी थाती है
जब तर्क खड़ा हो जाता है तब क्रान्ति खड़ी हो जाती है
हे भाग्य विधायक कृषक-मजूरे, धरती के भगवान हमीं
हे त्याग मूर्ति ध्यानस्थ मनीषी, मन्दिर के पाषाण हमीं
ता-थेई-छमाछम महलों में नूपुर ध्वनि, मदिरा-पान हमीं
व्यापार, सम्पदा, लक्ष्मी की है कृपा हमीं, मुस्कान हमीं
तारों को देख उंगलियों पर जो गिनते उसके मान हमीं
चीनी दीवार, पिरामिड की जब कीर्ति-ध्वजा फहराती है
तब घाव पीठ के गिनता हूँ वो सूरज इस का साक्षी है
दासत्व हमें मंजूर नहीं - दासत्व हमें मंजूर नहीं
मजदूर सही हैं किन्तु बदलने में खुद को मजबूर नहीं
शोषण के पुतले होशियार अब अन्त तुम्हारा दूर नहीं
आँखों में उंगली देंगे अजगरी दृगों से घूर नहीं
देवता तू सही मेरा है पर, मानव तो अंगूर नहीं
जो बेच हमें तू कह दे-है यह पुण्य विधान, कसूर नहीं
सामन्त हमारा बाप? - झूठ वह कुलांगार, कुलघाती है
जब बात करें हम जीने की तो फटती उस की छाती है
उठ पर्ण कुटी दे चिनगारी महलों में आग लगा दूंगा
खेतों में नाचे सर्वनाश, लक्ष्मी का गर्व मिटा दूंगा
जो दाग लुकाठी मुझे तरी उस पर तेल पटा दूंगा
रे नर भक्षी, ले मांस नोच - ले नोच, मगर बदला लूंगा
लूंगा मैं तेरा सर उतार, मिट्टी में खान मिला दूंगा
दे मार हथौड़ा तोड़ पोत वो-प्रलय घटा घहराती है
मुण्डों की माला दिए गले में क्रांति कराली आती है
दासों की साँसों में बहने लग गए देख-उन्चास पवन
खौलते खून की दरिया में नाचती भवानी खोल वसन
इतिहास कमीना काँप रहा, ले देख, निपोड़े दीन दशन
युग-युग के घुटते प्राण मनाते आज मौत का पर्व, जशन
है कहाँ धर्म, दर्शन, शासन के दगाबाज मक्कार नियम
कह दे आका से जा कर - अब दाल न गलने पाती है
युग से जो आग सुलगती थी अब धधक-धधक चिल्लाती है
खामोश गुलामी ! वृत्त देख, वापस जा कगारों में
जब तक यह खड़ी व्यवस्था है, दम क्या तेरे हूँकारों में
मेरी हैं गहरी जड़ें जमीं धरती में, चांद सितारों में
दस-बीस विटप तू काटेगा, होगी कमी क्या बहारों में
तू गर्म, अभी क्या समझे आ, शासन की छाँव, सुधारों में
तू भोला क्या जाने, तेरा सुख है मेरी तलवारों में
भावी विघ्नों ! हो शान्त, महीषी स्वस्ति पाठ करवाती है
सम्राट वरण करने को देखो वसुंधऱा अकुलाती है
* यहाँ पाण्डुलिपि में कुछ शब्द अपाठ्य हैं।