इस बैनर पर लिखा है -
तोरस, मोरस, गंधक, पारा
इनहीं मार इक नाग संवारा।
नाग मार नागिन को देही
सारा जग कंचन कर लेही।।
मैं तीन-चार दिनों से इस छंद को पढ़ रहा हूँ, इस का गूढ़ार्थ निकालने की कोशिशें भी कर चुका हूँ। लेकिन अभी तक असफल रहा हूँ। आखिर आज मैं ने इन्हीं सज्जन से पूछ लिया -भाई इन पंक्तियों का क्या अर्थ है। उन्होंने बताया तो मैं अवाक् रह गया। उन का कहना है कि यह सोना बनाने का सूत्र है।
मैं ने पूछा -आप ने कोशिश की? तो उन का कहना था कि कोशिश तो की है, लेकिन हर बार कुछ न कुछ कसर रह जाती है। कभी रंग सही नहीं बैठता और कभी घनत्व सही नहीं बैठता। मैं ने और दूसरे देसी कीमियागरों को भी सोना बनाने की कोशिशें करते देखा है। लेकिन कभी किसी को सफल होते नहीं देखा। यह संभव भी नहीं है। सोना एक मूल तत्व है जिसे नहीं बनाया जा सकता। यह केवल तभी संभव है जब किसी दूसरे मूल तत्व के नाभिक और उस के आस पास चक्कर लगा रहे इलेक्ट्रोनों को बदल कर स्वर्ण प्राप्त किया जाए। लेकिन वह एक नाभिकीय प्रक्रिया है, यदि उस तरह से स्वर्ण बनाना संभव हो भी जाए तो वह प्रकृति में प्राप्त स्वर्णँ से कई सौ या हजार गुना महंगा हो सकता है।
फिर भी जिस किसी ने ये पंक्तियाँ लिखी हैं, उस के लिखने का कुछ तो लक्ष्य रहा होगा। हो सकता है वह मनुष्य से उस के अंदर का विष मार कर उसे कंचन की भाँति बन जाने की बात ही कह रहा हो? क्या कोई पाठक या ब्लागर साथी, इस का सही-सही अर्थ बता सकेगा?