अठारह मई का वह दिन कैसे भूला जा सकता है? दो बरस पहले से जिसे देखने और मिलने की आस लगी थी वह इस दिन पूरी होने वाली थी।
हुआ यूँ था ............ गर्मी की छुट्टियां थीं और मौसी की लड़की की शादी। सारा परिवार उस में आया था। सरदार, बाबूजी. माँ, बहनें और छोटे भाई भी। शादी सम्पन्न हुई तो सरदार ने अम्माँ से पूछा मैं मामाजी के यहाँ हो आऊँ? अम्माँ मुस्कुराई और कहा -बाबूजी से पूछो? वह जानती थी कि सरदार बाबूजी से पूछने में कतराता है। लेकिन उस दिन पूछ ही लिया। वह लगभग हर साल गर्मी में कुछ दिन मामाजी के यहाँ गुजारता था। पर अब की वहाँ गए दो बरस हो गए थे और उसे ननिहाल की याद जोरों से सता रही थी। वहाँ गर्मियों में बिताए दो हफ्ते पूरे साल के लिए उसे तरोताजा कर देते थे। रोज सुबह नदी स्नान और तैरना, दिन में पढ़ने को खूब किताबें, शाम फिर नदी पर गुजरती। रात होते ही मंदिर में जमती संगीत की महफिल, मामाजी पक्की शास्त्रीय बंदिशें गाते। बाबूजी से पूछने पर उन्हों ने सख्ती से मना कर दिया –नहीं, इस बार हम सब वहाँ जा रहे हैं। तुम बाराँ जाओगे। वहाँ दाज्जी अकेले हैं और परसों गंगा दशमी है। मन्दिर कौन सजाएगा?
मामा जी के यहाँ जाने की सरदार की योजना असफल हो गई थी, मन में बहुत हताशा थी और गुस्सा भी। अब उसे दूसरे दिन सुबह वापस अपने शहर लौटना था। पर अब मौसी के यहाँ रुकने का मन नहीं रहा। सरदार का मित्र ओम भी शादी में साथ था, उसे उसी समय साथ लौटने को तैयार किया और दोनों चल दिए। पच्चीस किलोमीटर की दूरी बस से तय की, रेलवे स्टेशन तक की। वहाँ पहुँचने पर पता लगा ट्रेन दो घंटे लेट थी। अब क्या करें? स्टेशन से कस्बा डेढ़ किलोमीटर था जहाँ एक अन्य मित्र पोस्टेड था। स्टेशन के बाहर की एक मात्र चाय-नाश्ते की दुकान पर अपनी अटैचियां जमा कीं और पैदल चल दिये कस्बा।
वहाँ मित्र मिला, चाय-पानी हुआ, बातों में मशगूल रहे। ट्रेन का वक्त होने को आया तो वापस चल दिये, स्टेशन के लिए। कस्बे से बाहर आते ही ट्रेन दिख गई। उसे भी स्टेशन तक पहुँचने में एक किलोमीटर की दूरी थी और इन दोनों को भी। ट्रेन छूट जाने का खतरा सामने था। फिर वापस मौसी के यहाँ जाना पड़ता रात बिताने। सुबह के पहले दूसरी ट्रेन नहीं थी। जिस तरह सरदार वहाँ से गुस्से में रवाना हुआ था, उस का वापस वहीं लौटने का मन न था। तय किया कि ट्रेन पकड़ने के लिये दौड़ा जाए। दोनों कुछ दूर ही दौड़े थे कि ओम के पैरों ने जवाब देना शुरु कर दिया। सरदार ने उस के हाथ में अपना हाथ डाल जबरन दौड़ाया। चाय-नाश्ते वाली दुकान के नौकर ने दोनों को दौड़ता देख उन की अटैचियां सड़क पर ला रखी। सरदार ने दोनों अटैचियाँ उठाईं और प्लेटफॉर्म की तरफ दौड़ा। ट्रेन चल दी। डिब्बे के एक दरवाजे में ओम को चढ़ाया, दूसरे व तीसरे में अटैचियाँ और चौथे में सरदार चढ़ा। अन्दर पहुँच कर सब एक जगह हुए। दोनों की साँसें फूल गई थीं, दो स्टेशन निकल जाने तक मुकाम पर नहीं आयीं। आज सरदार उस वाकय़े को स्मरण करता है तो काँप उठता है, अपनी ही मूर्खता पर। उस ने ओम को जबरन दौड़ाया था। उस की क्षमता से बहुत अधिक। अगर उसे कुछ हो गया होता तो?
उसी साल सरदार ने बी.एससी. के दूसरो वर्ष में दाखिला लिया। कॉलेज का वार्षिकोत्सव का अंतिम दिन था। कॉलेज से लौटा तो साथ कुछ इनाम थे, छोटे-छोटे, कुछ प्रतियोगिताओं में स्थान बना लेने के स्मृति चिन्ह। उन्हीं में था एक मैडल। कॉलेज के इंटर्नल टूर्नामेण्ट की चैम्पियन टीम के कप्तान के लिये। माँ और तो सभी चीजें जान गयी, लेकिन मैडल देख पूछा -ये क्या है?
“घर की शोभा”, सरदार का जवाब था।
जवाब पर छोटी बहन हँस पड़ी। ऐसी कि उस से रोके नहीं रुक रही थी। माँ ने उसे डाँटा। वह दूसरे कमरे में भाग गई।
हुआ यूँ था ............ गर्मी की छुट्टियां थीं और मौसी की लड़की की शादी। सारा परिवार उस में आया था। सरदार, बाबूजी. माँ, बहनें और छोटे भाई भी। शादी सम्पन्न हुई तो सरदार ने अम्माँ से पूछा मैं मामाजी के यहाँ हो आऊँ? अम्माँ मुस्कुराई और कहा -बाबूजी से पूछो? वह जानती थी कि सरदार बाबूजी से पूछने में कतराता है। लेकिन उस दिन पूछ ही लिया। वह लगभग हर साल गर्मी में कुछ दिन मामाजी के यहाँ गुजारता था। पर अब की वहाँ गए दो बरस हो गए थे और उसे ननिहाल की याद जोरों से सता रही थी। वहाँ गर्मियों में बिताए दो हफ्ते पूरे साल के लिए उसे तरोताजा कर देते थे। रोज सुबह नदी स्नान और तैरना, दिन में पढ़ने को खूब किताबें, शाम फिर नदी पर गुजरती। रात होते ही मंदिर में जमती संगीत की महफिल, मामाजी पक्की शास्त्रीय बंदिशें गाते। बाबूजी से पूछने पर उन्हों ने सख्ती से मना कर दिया –नहीं, इस बार हम सब वहाँ जा रहे हैं। तुम बाराँ जाओगे। वहाँ दाज्जी अकेले हैं और परसों गंगा दशमी है। मन्दिर कौन सजाएगा?
मामा जी के यहाँ जाने की सरदार की योजना असफल हो गई थी, मन में बहुत हताशा थी और गुस्सा भी। अब उसे दूसरे दिन सुबह वापस अपने शहर लौटना था। पर अब मौसी के यहाँ रुकने का मन नहीं रहा। सरदार का मित्र ओम भी शादी में साथ था, उसे उसी समय साथ लौटने को तैयार किया और दोनों चल दिए। पच्चीस किलोमीटर की दूरी बस से तय की, रेलवे स्टेशन तक की। वहाँ पहुँचने पर पता लगा ट्रेन दो घंटे लेट थी। अब क्या करें? स्टेशन से कस्बा डेढ़ किलोमीटर था जहाँ एक अन्य मित्र पोस्टेड था। स्टेशन के बाहर की एक मात्र चाय-नाश्ते की दुकान पर अपनी अटैचियां जमा कीं और पैदल चल दिये कस्बा।
वहाँ मित्र मिला, चाय-पानी हुआ, बातों में मशगूल रहे। ट्रेन का वक्त होने को आया तो वापस चल दिये, स्टेशन के लिए। कस्बे से बाहर आते ही ट्रेन दिख गई। उसे भी स्टेशन तक पहुँचने में एक किलोमीटर की दूरी थी और इन दोनों को भी। ट्रेन छूट जाने का खतरा सामने था। फिर वापस मौसी के यहाँ जाना पड़ता रात बिताने। सुबह के पहले दूसरी ट्रेन नहीं थी। जिस तरह सरदार वहाँ से गुस्से में रवाना हुआ था, उस का वापस वहीं लौटने का मन न था। तय किया कि ट्रेन पकड़ने के लिये दौड़ा जाए। दोनों कुछ दूर ही दौड़े थे कि ओम के पैरों ने जवाब देना शुरु कर दिया। सरदार ने उस के हाथ में अपना हाथ डाल जबरन दौड़ाया। चाय-नाश्ते वाली दुकान के नौकर ने दोनों को दौड़ता देख उन की अटैचियां सड़क पर ला रखी। सरदार ने दोनों अटैचियाँ उठाईं और प्लेटफॉर्म की तरफ दौड़ा। ट्रेन चल दी। डिब्बे के एक दरवाजे में ओम को चढ़ाया, दूसरे व तीसरे में अटैचियाँ और चौथे में सरदार चढ़ा। अन्दर पहुँच कर सब एक जगह हुए। दोनों की साँसें फूल गई थीं, दो स्टेशन निकल जाने तक मुकाम पर नहीं आयीं। आज सरदार उस वाकय़े को स्मरण करता है तो काँप उठता है, अपनी ही मूर्खता पर। उस ने ओम को जबरन दौड़ाया था। उस की क्षमता से बहुत अधिक। अगर उसे कुछ हो गया होता तो?
उसी साल सरदार ने बी.एससी. के दूसरो वर्ष में दाखिला लिया। कॉलेज का वार्षिकोत्सव का अंतिम दिन था। कॉलेज से लौटा तो साथ कुछ इनाम थे, छोटे-छोटे, कुछ प्रतियोगिताओं में स्थान बना लेने के स्मृति चिन्ह। उन्हीं में था एक मैडल। कॉलेज के इंटर्नल टूर्नामेण्ट की चैम्पियन टीम के कप्तान के लिये। माँ और तो सभी चीजें जान गयी, लेकिन मैडल देख पूछा -ये क्या है?
“घर की शोभा”, सरदार का जवाब था।
जवाब पर छोटी बहन हँस पड़ी। ऐसी कि उस से रोके नहीं रुक रही थी। माँ ने उसे डाँटा। वह दूसरे कमरे में भाग गई।
सरदार समझ नहीं पाया उस हँसी को। वह हँसी उस के लिये एक पहेली छोड़ गयी। उसे सुलझाने में सरदार को कई दिन लग गए। सुलझी तो पता लगा जिस दिन उस ने खुद के साथ ओम को दौड़ाया था। उस के दूसरे दिन मामाजी के यहाँ जाने के रास्ते के एक कस्बे में बाबूजी. माँ, बहनें और छोटे भाई किसी के मेहमान बने थे और सरदार की दुल्हिन बनाने के लिए उस परिवार की सबसे बड़ी बेटी देख आए थे। जब सरदार को पता लगा तो वह उस के बारे में लोगों से जानकारियाँ लेता रहा। कल्पना में उस के चित्र गढ़ता रहा, अब उसे देखने और मिलने का दिन आ गया था.....
निकासी निपटी तो आधी रात हो गई थी। तारीख सत्रह से अठारह हो चुकी थी। बारात के लिए बस आ चुकी थी। सरदार चाहता था कि कुछ खास दोस्त बारात में जरूर चलें। सब से कह भी चुका था। पर वे नहीं आए। जो दोस्त साथ गए उन में दो-चार हम उम्र थे तो इतने ही बुजुर्ग भी। बाराती बस में अपनी-अपनी जगह बैठ चुके थे।
बस में सरदार के लिए ही सीट न बची थी। एक दो बुजुर्गों ने उसे अपना स्थान देना चाहा पर वह अशिष्टता होती। एक पीपे में सामान का था। उसे ही सीटों के बीच रख कर बैठने की जगह बनाई ससुराल तक का पहला सफर किया। ऐसे में सोने का तो प्रश्न ही न था। पास की सीट पर मामा जी और एक बुजुर्ग मित्र वर्मा जी बैठे थे। बस रूट की पुरानी बस थी, जिस के ठीक बीच में एक दो इंच की दरार थी ऐसा लगता था दो डिब्बों को जोड़ दिया हो और बीच में माल भरना छूट गया हो। जब भी वर्मा जी सोने लगते, मामाजी उन्हें जगा देते, कहते वर्मा जी आप पीछे के हिस्से में हैं, देखते रहो, अलग हो गया तो बरात छूट जाएगी। भोर होने तक बस चलती रही। सड़क के किनारे के मील के पत्थर बता रहे थे कि नगर केवल चार किलोमीटर रह गया है। तभी धड़ाम......! आवाज हुई और कोई तीन सौ मीटर दूर जा कर बस रुक गई। शायद बस से कुछ गिरा था। जाँचने पर पता लगा कि बस के नीचे एक लंबी घूमने वाली मोटी छड़ (ट्रांसमिशन रॉ़ड) होती है जो इंजन से पिछले पहियों को घुमाती है वह गिर गई थी। बस का ड्राइवर और खल्लासी उसे लेने पैदल पीछे की ओर चल दिए। उजाला हो चुका था, शीतल पवन बह रही थी। यह सुबह के टहलने का समय था। सरदार और उस के कुछ हम उम्र दोस्त पैदल नगर की ओर चल दिए। एक किलोमीटर चले होंगे कि बस दुरुस्त हो कर पीछे से आ गई। उस में बैठ गए।
निकासी निपटी तो आधी रात हो गई थी। तारीख सत्रह से अठारह हो चुकी थी। बारात के लिए बस आ चुकी थी। सरदार चाहता था कि कुछ खास दोस्त बारात में जरूर चलें। सब से कह भी चुका था। पर वे नहीं आए। जो दोस्त साथ गए उन में दो-चार हम उम्र थे तो इतने ही बुजुर्ग भी। बाराती बस में अपनी-अपनी जगह बैठ चुके थे।
बस में सरदार के लिए ही सीट न बची थी। एक दो बुजुर्गों ने उसे अपना स्थान देना चाहा पर वह अशिष्टता होती। एक पीपे में सामान का था। उसे ही सीटों के बीच रख कर बैठने की जगह बनाई ससुराल तक का पहला सफर किया। ऐसे में सोने का तो प्रश्न ही न था। पास की सीट पर मामा जी और एक बुजुर्ग मित्र वर्मा जी बैठे थे। बस रूट की पुरानी बस थी, जिस के ठीक बीच में एक दो इंच की दरार थी ऐसा लगता था दो डिब्बों को जोड़ दिया हो और बीच में माल भरना छूट गया हो। जब भी वर्मा जी सोने लगते, मामाजी उन्हें जगा देते, कहते वर्मा जी आप पीछे के हिस्से में हैं, देखते रहो, अलग हो गया तो बरात छूट जाएगी। भोर होने तक बस चलती रही। सड़क के किनारे के मील के पत्थर बता रहे थे कि नगर केवल चार किलोमीटर रह गया है। तभी धड़ाम......! आवाज हुई और कोई तीन सौ मीटर दूर जा कर बस रुक गई। शायद बस से कुछ गिरा था। जाँचने पर पता लगा कि बस के नीचे एक लंबी घूमने वाली मोटी छड़ (ट्रांसमिशन रॉ़ड) होती है जो इंजन से पिछले पहियों को घुमाती है वह गिर गई थी। बस का ड्राइवर और खल्लासी उसे लेने पैदल पीछे की ओर चल दिए। उजाला हो चुका था, शीतल पवन बह रही थी। यह सुबह के टहलने का समय था। सरदार और उस के कुछ हम उम्र दोस्त पैदल नगर की ओर चल दिए। एक किलोमीटर चले होंगे कि बस दुरुस्त हो कर पीछे से आ गई। उस में बैठ गए।
सुबह से दोपहर बाद तक बारातियों का चाय-नाश्ता, नहाना, सजना, भोजन और विश्राम चलता रहा। शाम चार बजे अगवानी हुई और उस के बाद बारात का नगर भ्रमण। पाँच बजे सरदार की घुड़चढी हुई। नगर घूमते आठ बज गए। बारात का अनेक स्थानों पर स्वागत हुआ। कहीं फल, कहीं ठण्डा पेय कहीं कुल्फी। मालाएँ तो हर जगह पहनाई गई। हर मोड़ पर दूल्हे के लिए कोई न कोई पान ले आता। घोड़ी पर बैठे बैठे थूकना तो असभ्यता होती, सब सीधे पेट में निगले जा रहे थे। सरदार सोच रहा था, आज पेट, आँतों और उस से आगे क्या हाल होगा? साढे तीन घंटे हो चुके थे, अब तो लघुशंका हो रही थी और उसे रोकना अब दुष्कर हो रहा था। एक स्थान पर स्वागत कुछ तगड़ा था, आखिर वहाँ घोड़ी से नीचे उतरने की जुगत लग ही गई। वहाँ एक सजे हुए तख्त पर दूल्हे को मसनद के सहारे बैठाने की व्यवस्था थी। पर सरदार ने अपने एक मित्र से कहा -बाथरूम? उस ने किसी और को कहा, तब बाथरूम मिला। वहाँ खड़े-खड़े दस मिनट गुजर गए। लघुशंका पेशियों के जंगल में कहीं फँस गयी थी और निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी। तीन घंटे से रोकते-रोकते रोकने वाली पेशियाँ जहाँ अड़ाई गई थीं जाम हो चुकी थीं और वापस अपनी पूर्वावस्था में लौटने को तैयार न थी। अब बाथरूम में अधिक रुकना तो मुनासिब न था। सरदार ने पैंट फ्लाई के बटन बंद किए और जैसे गया था वैसे ही बाहर लौट आया।
नगर भ्रमण दुल्हन के मकान के सामने भी पहुँचा। वहाँ महिलाओं ने खूब स्वागत किया। हर महिला टीका करती, नारियल पर कुछ रुपये देती। सरदार वहाँ तलाश करता रहा शायद कहीं से उसे उस की होने वाली जीवन साथी देख रही हो और उसे दिख जाए। वह दिखाई नहीं ही दी, दिखी भी हो तो चीन्हने का संकट भी था, न उसे पहले देखा था और न उस का चित्र। साढ़े दस बजे वापस जनवासे में लौटे तो बाराती सीधे भोजन पर चले गए। सरदार ने यहाँ भी आते ही कोशिश की लेकिन शंका सरकी तक नहीं, फँसी रही। उस से भोजन के लिए कहा जा रहा था। पर मन और शरीर दोनों शंका में उलझे थे। पता लगा कच्चे आम का शरबत (कैरी का आँच) बना है। बस वही दो-तीन गिलास पिया तो पेशियाँ नरम पड़ीं और शंका को जाने का अवसर मिला। कुछ देर विश्राम किया। कलेंडर में तारीख बदल कर उन्नीस मई हो चुकी थी। साईस जनवासे के बाहर मैदान में दूल्हे को तोरण और भाँवर पर ले जाने के लिए फिर से घोड़ी को तैयार कर रहा था............ (आगे पढ़ें)