@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

यौनिक गाली का अदालती मामला


विगत आलेख में मैं ने लिखा था कि "यौनिक गालियाँ समाज में इतनी गहराई से प्रचलन में क्यों हैं, इन का अर्थ और इतिहास क्या है? इसे जानने की भी कोशिश करनी चाहिए। जिस से हम यह तो पता करें कि आखिर मनुष्य ने इन्हें इतनी गहराई से क्यों अपना लिया है? क्या इन से छूटने का कोई उपाय भी है? काम गंभीर है लेकिन क्या इसे नहीं करना चाहिए? मेरा मानना है कि इस काम को होना ही चाहिए। कोई शोधकर्ता इसे अधिक सुगमता से कर सकता है। मैं अपनी ओर से इस पर कुछ कहना चाहता हूँ लेकिन यह चर्चा लंबी हो चुकी है। अगले आलेख में प्रयत्न करता हूँ। इस आशा के साथ कि लोग गंभीरता से उस पर विचार करें और उसे किसी मुकाम तक पहुँचाने की प्रयत्न करें।"
स आलेख पर पंद्रह टिप्पणियाँ अभी तक आई हैं। संतोष की बात तो यह कि उस पर अग्रज डॉ. अमर कुमार जी ने अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी की, जिन से आज कल दुआ-सलाम भी बहुत कठिनाई से होती है। वे न जाने क्यों ब्लाग जगत से नाराज हैं? इन टिप्पणियों से प्रतीत हुआ कि जो कुछ मैं ने कहा था वह इतनी साधारण बात नहीं कि उसे हलके-फुलके तौर पर निपटा दिया जाए। इस चर्चा को वास्तव में गंभीरता की आवश्यकता है। पिछले लगभग चार माह से कोटा के वकील हड़ताल पर हैं। मैं भी उन में से एक हूँ। रोज अदालत जाना आवश्यकता थी, जिस से अदालतों में लंबित मुकदमों की रक्षा की जा सके। अदालत के बाद के समय को मैं ने ब्लागरी की बदौलत पढ़ने और लिखने में बिताया। उस का नतीजा भी सामने है कि मैं "भारत में विधि के इतिहास" श्रंखला को आरंभ कर पाया। 24 दिसंबर से अवकाश आरंभ हो रहे हैं जो 2 जनवरी तक रहेंगे। इस बीच कोटा के बाहर भी जाना होगा। लेकिन यह पता न था कि मैं अचानक व्यस्त हो जाउंगा। 21 जनवरी कुछ घरेलू व्यस्तताओं में बीत गई और 22 को मुझे दो दिनों की यात्रा पर निकलना है फिर लौटते ही वापस बेटी के यहाँ जाना है। इस तरह कुछ दिन ब्लागरी से दूर रह सकता हूँ और कोई गंभीर काम कर पाना कठिन होगा।

मैं इस व्यस्तता के मध्य भी एक घटना बयान करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ जो यौनिक गालियों से संबद्ध है और समाज में इन के आदतन प्रचलन को प्रदर्शित करती है .....
टना यूँ है कि एक व्यक्ति को जो भरतपुर के एक कारखाने में काम करता था अपने अफसर को 'भैंचो' कहने के आरोप से आरोपित किया गया और घरेलू जाँच के उपरांत नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। मुकदमा चला और श्रम न्यायालय ने उस की बर्खास्तगी को सही माना कि उस ने अपने अफसर के साथ अभद्र बर्ताव किया था। मामला उच्चन्यायालय पहुँचा। संयोग से सुनवाई करने वाले जज स्वयं भी भरतपुर क्षेत्र के थे। बर्खास्त किए गए व्यक्ति की पैरवी करने वाले एक श्रंमिक नेता थे जिन की कानूनी योग्यता और श्रमिकों के क्षेत्र में उन के अनथक कार्य के कारण हाईकोर्ट ने अपने निर्णयों में 'श्रम विधि के ज्ञाता' कहा था और  जज उलझे श्रम मामलों में उन से राय करना उचित समझते थे। जब उस व्यक्ति के मामले की सुनवाई होने लगी तो श्रमिक नेता ने उन्हें कहा कि मैं इस मामले पर चैंबर में बहस करना चाहता हूँ। अदालत ने उन्हें इस की अनुमति दे दी। दोनों पक्ष जज साहब के समक्ष चैंबर में उपस्थित हुए। श्रमिक नेता ने कहा कि इस मामले में यह साबित है कि इस ने 'भैंचो' शब्द कहा है। स्वयं आरोपी भी इसे स्वीकार करता है। लेकिन वह भरतपुर का निवासी है और निम्नवर्गीय मजदूर है। भरतपुर क्षेत्र के वासियों के लिए इस शब्द का उच्चारण कर देना बहुत सहज बात है और सहबन इस शब्द का उच्चारण कर देना अभद्र नहीं माना जा सकता। इस व्यक्ति की बर्खास्तगी को रद्द कर देना चाहिए। हाँ यदि अदालत चाहे तो कोई मामूली दंड इस के लिए तजवीज कर दे।
ज साहब स्वयं भी अपने चैम्बर में होने के कारण अदालत की मर्यादा से बाहर थे। उन के मुख से अचानक निकला "भैंचो, भरतपुर में बोलते तो ऐसे ही हैं।"
इस के बाद श्रमिक नेता ने कहा कि मुझे अब कोई बहस नहीं करनी आप जो चाहे निर्णय सुना दें। आरोपी की बर्खास्तगी को रद्द कर के उसे पिछले आधे वेतन से वंचित करते हुए नौकरी पर बहाल कर दिया गया।

स घटना के उल्लेख के उपरांत मुझे भी आज आगे कुछ नहीं कहना है। कुछ दिन ब्लागीरी के मंच से अनुपस्थित रहूँगा। वापस लौटूंगा तो शायद कुछ नया ले कर। नमस्कार!

रविवार, 20 दिसंबर 2009

एक गाली चर्चा : अपनी ही टिप्पणियों के बहाने

पिछले साल के दिसम्बर में भी गालियों पर बहुत कुछ कहा गया था। मैं ने नारी ब्लाग पर एक टिप्पणी छोड़ी थी ......
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
किसी भी मुद्दे पर बात उठाने का सब से फूहड़ तरीका यह है कि बात उठाने का विषय आप चुनें और लोगों को अपना विषय पेलने का अवसर मिल जाए। गाली चर्चा का भी यही हुआ। बात गाली पर से शुरू हुई और गुम भी हो गई। शेष रहा स्त्री-पुरुष असामनता का विषय।

वैसे गालियों की उत्पत्ति का प्रमुख कारण यह विभेद ही है।
 इस टिप्पणी पर एक प्रतिटिप्पणी सुजाता जी की आई .......
सुजाता said...
वैसे गालियों की उत्पत्ति का प्रमुख कारण यह विभेद ही है।
----
दिनेश जी जब आप मान ही रहे हैं कि स्त्री पुरुष असमानता और गाली चर्चा में प्रमुख सम्बन्ध है फिर आपको यह बात उठाने का फूहड़ तरीका कैसे लग सकता है।
अथवा आप कहना चाहते हैं कि क्योंकि मैने मुद्दे को सही तरीके से उठाया इसलिए कोई cmpershad सरे आम गाली दे जाना जायज़ साबित हो जाता है।
माने आपको मेरी बात पसन्द नहीं आएगी तो क्योंकि आप पुरुष हैं तो आप भी ऐसी ही कोई भद्दी बात कहने के हकदार हो जाएंगे।
मैं नारी ब्लाग की उस पोस्ट पर दुबारा नहीं जा पाया इस कारण से मुझे साल भर तक यह भी पता नहीं लगा कि सुजाता जी ने कोई प्रति टिप्पणी की थी और उस में ऐसा कुछ कहा था। साल भर बाद भी शायद मुझे इस का पता नहीं लगता। लेकिन आज सुबह नारी ब्लाग की पोस्ट "पी.सी. गोदियाल जी अफ़सोस हुआ आप कि ये पोस्ट पढ़ कर ये नहीं कहूँगी क्युकी इस से भी ज्यादा अफ़सोस जनक पहले पढ़ा है।"  पर फिर से कुछ ऐसा ही मामला देखने को मिला। वहाँ छोड़ी गई लिंक से पीछे जाने पर चिट्ठा चर्चा की पोस्ट पर मुझे अपनी ही यह टिप्पणी मिली .....
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said:  
देर से आने का लाभ,
चिट्ठों पर चर्चा के साथ
चर्चा पर टिप्पणी और,
उस पर चर्चा
वर्षांत में दो दो उपहार।
वहाँ से सिद्धार्थ जी के ब्लाग पर पहुँचा और पोस्ट गाली-गलौज के बहाने दोगलापन पर अपनी यह टिप्पणी पढ़ने को मिली ...
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
लोग गालियाँ क्यों देते हैं ? और पुरुष अधिक क्यों? यह बहुत गंभीर और विस्तृत विषय है। सदियों से समाज में चली आ रही गालियों के कारणों पर शोध की आवश्यकता है। समाज में भिन्न भिन्न सामाजिक स्तर हैं। मुझे लगता है कि बात गंभीरता से शुरू ही नहीं हुई। हलके तौर पर शुरू हुई है। लेकिन उसे गंभीरता की ओर जाना चाहिए।
यहाँ से पहुँचा मैं लूज शंटिंग 
पर दीप्ति की लिखी पोस्ट पर वहाँ भी मुझे अपनी यह टिप्पणी देखने को मिली .....
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
लोगों को पता ही नहीं होता वे क्या बोल रहे हैं। शायद कभी कोई भाषा क्रांति ही इस से छुटकारा दिला पाए।
फिर दीप्ती की पोस्ट पर लिखी गई चोखेरबाली की  पोस्ट पर अपनी यह टिप्पणी पढ़ी।
दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...
बस अब यही शेष रह गया है कि यौनिक गालियाँ मजा लेने की चीज बन जाएं। जो चीज आप को मजा दे रही है वही कहीं किसी दूसरे को चोट तो नहीं पहुँचा रही है।
न सब आलेखों पर जाने से पता लगा कि यौनिक गालियों के बहाने से बहुत सारी बहस इन आलेखों में हुई। मैं सब से पहले आना चाहता हूँ सुजाता जी की प्रति टिप्पणी पर। शायद सुजाता जी ने उस समय मेरी बात को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं लिया। मेरी टिप्पणी का आशय बहुत स्पष्ट था कि किसी भी मुद्दे को इस तरीके से उठाना उचित नहीं कि उठाया गया विषय गौण हो जाए और कोई दूसरा ही विषय वहाँ प्रधान हो जाए। यदि हो भी रहा हो तो पोस्ट लिखने वाले को यह ध्यान दिलाना चाहिए कि आप विषय से भटक रहे हैं। मेरा स्पष्ट मानना है कि विषय को भटकाने वालों को सही जवाब दिया जा कर विषय पर आने को कहना चाहिए और यह संभव न हो तो विषय से इतर भटकाने वाली टिप्पणियों को मोडरेट करना चाहिए। सुजाता जी ने अपनी बात कही, मुझे उस पर कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन वे समझती हैं कि मेरी टिप्पणी इस लिए थी कि मैं पुरुष हूँ, तो यह बात गलत है, वह टिप्पणी पुरुष की नहीं एक ब्लागर की ही थी।

खैर, इस बात को जाने दीजिए। मेरी आपत्ति तो इस बात पर है कि पिछले साल गालियों पर हुई चर्चा का समापन अभी तक नहीं हो सका है। वह बहस नारी की आज की पोस्ट पर फिर जीवित नजर आई। हो सकता है यह बहस लम्बे समय तक रह रह कर होती रहे। लेकिन यह एक ठोस सत्य है कि समाज में यौनिक गालियाँ मौजूद हैं और उन का इस्तेमाल धड़ल्ले से जारी है। इस सत्य को हम झुठला नहीं सकते। यह भी सही है कि सभ्यता और संस्कृति के नाम पर स्त्रियों से  इन से बचे रहने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि स्त्रियाँ इस से अछूती रही हों। मुझे 1980 में किराये का घर इसीलिए बदलना पड़ा था कि जिधर मेरे बेडरूम की खिड़की खुलती थी उधर एक चौक था। उस चौक में जितने घरों के दरवाजे खुलते थे उन की स्त्रियाँ धड़ल्ले से यौनिक गालियों का प्रयोग करती थीं, पुरुषों की तो बात ही क्या उन्हें तो यह पुश्तैनी अधिकार लगता था।
मेरे पिता जी को कभी यौनिक तो क्या कोई दूसरी गाली भी देते नहीं देखा। मेरी खुद की यह आदत नहीं रही कि ऐसी गालियों को बर्दाश्त कर सकूँ। ऐसी ही माँ से सम्बंधित गाली देने पर एक सहपाठी को मैं ने पीट दिया था और मुझे उसी स्कूल में नियुक्त अपने पिता से पिटना पड़ा था। 
म बहुत बहस करते हैं। लेकिन  ये गालियाँ समाज में इतनी गहराई से प्रचलन में क्यों हैं, इन का अर्थ और इतिहास क्या है? इसे जानने की भी कोशिश करनी चाहिए। जिस से हम यह तो पता करें कि आखिर मनुष्य ने इन्हें इतनी गहराई से क्यों अपना लिया है? क्या इन से छूटने का कोई उपाय भी है? काम गंभीर है लेकिन क्या इसे नहीं करना चाहिए? मेरा मानना है कि इस काम को होना ही चाहिए। कोई शोधकर्ता इसे अधिक सुगमता से कर सकता है। मैं अपनी ओर से इस पर कुछ कहना चाहता हूँ लेकिन यह चर्चा लंबी हो चुकी है। अगले आलेख में प्रयत्न करता हूँ। इस आशा के साथ कि लोग गंभीरता से उस पर विचार करें और उसे किसी मुकाम तक पहुँचाने की प्रयत्न करें।

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

अंधों का गीत ..... शिवराम


पिछली पोस्ट चार कदम सूरज की ओर
पर शिवराम जी की इसी शीर्षक की कविता पर विष्णु बैरागी जी ने टिप्पणी की थी कि इस कविता का नुक्कड़ नाटकों के रूप में उपयोग किया जा सकता है। शिवराम हिन्दी के शीर्षस्थ नुक्कड़ नाटककार हैं। 'जनता पागल हो गई है' तो उन का सार्वकालिक बहुचर्चित नाटक है। जिसे नाटक की किसी भी फॉर्म में खेला जा सकता है और खेला गया है। मुझे गर्व है कि इस नाटक की अनेक प्रस्तुतियाँ मैं ने देखी हैं और कुछ प्रस्तुतियों में मुझे अभिनय का अवसर भी प्राप्त हुआ। उन के नाटकों में लोक भाषा और मुहावरों का प्रयोग तो आम बात है, लोकरंजन के तत्व भी बहुत हैं। लेकिन वे उन में गीतों का समावेश भी खूब करते हैं और इस तरह कि वे मर्म पर जा कर चोट करते हैं। 
ऐसा ही एक गीत है "अंधों का गीत" जो सीधे जनता पर चोट करता है। आज प्रस्तुत है यही गीत आप के लिए। तो पढ़िए .......

अंधों का गीत
  • शिवराम
अंधों के इस भव्य देश में
सब का स्वागत भाई!

दिन में भी रात यहाँ पर
बात-बात में घात यहाँ पर
लूटो-मारो, छीनो-झपटो
राह न कोई राही
अंधा राजा, अंधी पिरजा
अंधी नौकरशाही।।


एक के दो कर, दो के सौ कर
या कोई भी घोटाला कर
तिकड़म, धोखा, हेराफेरी 
खुली छूट है भाई
अंध बाजार, अंध भोक्ता
अंधी पूँजीशाही।।


अंधों के इस भव्य देश में
सब का स्वागत है भाई।

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

वडनेरकर जी की टाइम मशीन ने कराई भूतकाल की सैर - लगाई गांठें और बनाए गैजेट्स

अजित वडनेरकर जी के शब्दों के सफर पर प्रकाशित आलेख ने एक टाइम मशीन की तरह काम करते हुए मुझे अपनी किशोरावस्था में पहुँचा दिया। शायद इसे ही कहते हैं भूतकाल की सैर करना। तो इस टाइम मशीन ने मुझे स्काउटिंग के कैंप में पहुँचाया। जहाँ मैं ने देखा कि मैं गाँठें सीख रहा हूँ। मैं ने बहुत सारी गांठें सीख ली हैं, जिन का उपयोग मैं अनेक कामों में कर सकता हूँ। जैसे रीफ नॉट है जिस का उपयोग किसी घाव पर पट्टी को अंतिम रूप देने के लिए किया जाता है, जिस से गांठ तो लगे लेकिन वह घाव में न चुभे। किसी स्तंभ से किसी पशु को बांधना हो तो खूंटा फाँस का उपयोग किया जा सकता है इसे अंग्रेजी में क्लोव हिच कहते हैं। लेकिन किसी पशु के गले में इसे न लगा देना, अन्य़था यह उस के लिए फाँसी का फंदा बन सकती है। वहाँ हमें लूप नॉट का प्रयोग करना होगा।



सी ही बहुत सी गांठे मैं ने सीखीं। फिर बहुत से स्काउटिंग के कैंपों में होता हुआ मैं एक कैंप में पहुँचा। यह भी एक प्रशिक्षण शिविर था जो माउंट आबू में लगाया गया था। इस में सब स्काउट प्रथम श्रेणी स्काउट का प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे थे। मैं अकेला था जो यह प्रशिक्षण पहले ही प्राप्त कर प्रमाण पत्र ले चुका था, मुझे राष्ट्रपति स्काउट का प्रशिक्षण लेना पड़ा। यहाँ रस्सियों, लट्ठों, बाँसों, केम्प क्षेत्र के वृक्षों आदि की सहायता से गाँठें लगा लगा कर मैं ने अनेक गैजेट्स बनाए। एक पेड़ से दूसरे पेड़ के बीच एक पुल बनाया। दोनों और पुल तक पहुँचने के लिए रस्सियों की सीढ़ियाँ लगाई गईं। केम्प में उपस्थित प्रत्येक स्काउट और स्काउट मास्टर सीढ़ी पर हो कर पुल पर जाता है और पुल पार करता है फिर दूसरी ओर की सीढ़ी से उतरता है।




सा ही एक और शिविर है चम्बल के किनारे,  जहाँ प्रतियोगिता है। मैं एक गैजेट नाव बनाता हूँ जिस में एक बाईसिकल चढ़ाई जाती है। यह क्या? बाईसिकल पर बैठ कर  पैड़ल चलाते हुए नदी पार की जा सकती है। यानी अब बाईसिकल अब नदी में भी चल रही है।
मैं वापस वर्तमान में लौट आता हूँ। वडनेरकर जी के शब्दों के सफर  पर एक टिप्पणी करता हूँ। फिर एक वेबसाइट तलाशता हूँ। बहुत शानदार है यह वेबसाइट यहाँ गाँठें हैं और उन्हें सिखाने का पूरा प्रबंध है। आप इन्हें सीखना चाहते हैं तो नीचे के चित्र पर  या यहाँ क्लिक कीजिए, जो वेब-पृष्ठ खुले उस पर मौजूद किसी गाँठ पर क्लिक कीजिए। अरे वाह! यहाँ तो ऐनीमेशन पूरी गाँठ लगाना सिखा रहा है।




देखते हैं आप कितनी गाँठें कितने दिन, मिनटों या सैकंडों में सीखते हैं।

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

चार कदम सूरज की ओर

आज कल व्यस्तता के कारण स्वयं कुछ लिख पाने में असमर्थ रहा हूँ। लेकिन इस असमर्थता का लाभ यह हुआ है कि  मैं शिवराम जी की कविताएँ आप के सामने प्रस्तुत कर पा रहा हूँ। उन के सद्य प्रकाशित तीन काव्य संग्रहों में से एक कुछ तो हाथ गहों से एक गीत आप के पठन के लिए बिना किसी भूमिका के प्रस्तुत है .....

चार कदम सूरज की ओर
  • शिवराम
चोरी लूट ठगी अपराध
आपाधापी भीतरघात
भ्रष्टाचार और बेकारी
चारों ओर है मारामारी

महंगाई का ओर न छोर
चार कदम सूरज की ओर

ऐसे उदार रघुराई
कुतिया चौके में घुस आई
इतने खोले चौपट द्वार
हुए पराए निज घर-बार

बर्बादी में उन्नति शोर 
चार कदम सूरज की ओर

कर्ज के पैसे जेब में चार 
कैसे इतराते सरकार
उछले जाति धर्म के नारे
नेता बन गए गुण्डे सारे

धुआँ धुआँ सांझ और भोर
चार कदम सूरज की ओर

भावी पीढ़ी को उपहार
सेक्स, नशा और व्यभिचार
आजादी को रख कर गिरवी
भाषण देते तन कर प्रभुजी

जैसे चोर मचाए शोर
चार कदम सूरज की ओर।

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

समूह का जिम्मेदार हिस्सा

खिर आज बार  (अभिभाषक परिषद) के चुनाव संपन्न हो गए। मेरा वकालत में इकत्तीसवाँ वर्ष भी इसी माह पूरा हुआ है। दिसंबर 1978 में मुझे बार कौंसिल ने पंजीकरण की सूचना दे दी थी। हालांकि मैं ने इस के भी करीब छह माह पहले से ही अदालत जाना आरंभ कर दिया था। मैं कभी भी अभिभाषक परिषद की गतिविधियों के केंद्र से अधिक दूर नहीं रहा। कुछ कारणों से पिछले पाँच वर्षों से स्वयं को दूर रखना पड़ा।  लेकिन तीसरा खंबा आरंभ करने के बाद इस सब से दूर रहना संभव नहीं था। यदि वकीलों तक अपनी बात को सही ढंग से पहुँचाना है तो वही एक मात्र मंच ऐसा है जिस से यह काम किया जा सकता है। इस बार अपने एक कनिष्ठ अभिभाषक  रमेशचंद्र नायक को कार्यकारिणी की सदस्यता के लिए चुनाव लड़ाया। सामान्य रूप से वह एक बहुत अच्छा उम्मीदवार था। लेकिन चुनाव में जिस तरह की प्रतियोगिता थी उस से मुझे भी उस में व्यस्त होना पड़ा। पिछले चार पांच दिन तो इसी में निकल गए। उस श्रम का ही नतीजा रहा कि नायक चुनाव में सफलता हासिल कर  नए वर्ष में  अभिभाषक परिषद कोटा का काम संभालने वाली नई कार्यकारिणी की सदस्यता हासिल कर सका। रमेशचंद्र नायक का यह पहला अवसर है जब उस ने वकीलों के समूह की जिम्मेदारी को हाथ में लिया है। वह इसे मन से पूरी करेगा और साल के अंत में उस से बड़ी जिम्मेदारी को उठाने के लिए सक्षम होगा और तन-मन से तैयार भी।

 रमेशचंद्र नायक
र समूह के लोगों की अपनी समस्याएँ होती हैं, चाहे वह समूह घर पर परिवार के रूप में हो, नजदीकी रिश्तेदारों का समूह हो, मोहल्ले की सोसायटी का समूह हो या साथ काम करने वाले लोगों का समूह हो। हर जगह यह समूह किसी न किसी तरह की समस्याओं का सामना कर रहा होता है। हम सभी स्थानों पर वैयक्तिक समस्याओं के हल के लिए जूझते हैं लेकिन समूह की समस्याओं से कतरा जाते हैं। नतीजा यह होता है कि सामुहिक समस्याएँ बढ़ती रहती हैं और हम वैयक्तिक मार्ग तलाशते रहते हैं और आगे बढ़ते रहते हैं। इन वैयक्तिक मार्गों पर वही व्यक्ति सर्वाधिक सफल रहता है जो सब से चालाक होता है, सब से सीधे व्यक्ति का मार्ग सब से पहले बंद होता है और उसे एक बंद सुरंग में छोड़ देता है।

प इस वैयक्तिक मार्ग पर चल कर किसी सुरंग में अकेले फँसे रह जाएँ, उस से अच्छा है कि आप सामुहिक समस्याओं के हल के लिए आगे आएँ। इस के लिए कहीं न कहीं समूह की कोई न कोई सामुहिक जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी। जब आप समूह में रहेंगे तो हमेशा किसी अंधेरी सुरंग से दूर रहेंगे और किसी सुरंग में फँस भी गए तो अकेले नहीं होंगे। रमेशचंद्र नायक की इस सफलता के साथ-साथ हमारे वकालत के दफ्तर के सभी  साथी महसूस कर रहे हैं कि वे अब समूह का अधिक जिम्मेदार हिस्सा हैं।

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

रात इतनी भी नहीं है सियाह

"माटी मुळकेगी एक दिन" से शिवराम की एक और कविता ...

 'कविता'
रात इतनी भी नहीं है सियाह 
                                     शिवराम




चंद्रमा की अनुपस्थिति के बावजूद
और बावजूद आसमान साफ नहीं होने के
रात इतनी भी नहीं है सियाह
कि राह ही नहीं सूझे

यहाँ-वहाँ आकाश में अभी भी
टिमटिमाते हैं तारे
और ध्रुव कभी डूबता नहीं है
पुकार-पुकार कर कहता है 
बार बार
उत्तर इधर है, राहगीर! 
उत्तर इधर है


न राह मंजिल है
न पड़ाव ठिकाने

जब सुबह हो
और सूरज प्रविष्ठ हो 
हमारे गोलार्ध में
हमारे हाथों में हों 
लहराती मशालें


हमारे कदम हों 
मंजिलों को नापते हुए

हमारे तेजोदीप्त चेहरे करें
सूर्य का अभिनन्दन।