@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: विवाह
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रविवार, 5 दिसंबर 2010

जरूरी गैरहाजरी

विवाह योग्य उम्र प्राप्त अविवाहित स्त्री-पुरुष चाहें तो दो साक्षियों के साथ विवाह पंजीयक के समक्ष उपस्थित हो कर विवाह कर सकते हैं और उसे पंजीकृत करवा सकते हैं। इस का समाचार वे किसी को दें या न दें, वह जंगल की आग की भांति शीघ्र ही कानों-कान बहुत दूर तक पहुँच जाता है। लेकिन यदि परंपरागत रीति से विवाह का आरंभ हो, लड़की के माता-पिता किसी लड़के को रोकने की रस्म भर कर दें तो उस का समाचार उस से भी अधिक तेजी से लोगों तक पहुँचता है। फिर सगाई और विवाह का तो कहना ही क्या? वह बेहद जटिल प्रक्रिया है। वह केवल न्योते बांट देने, मेहमानों को निमंत्रण पहुँचा देने, विवाह की समस्त व्यवस्था कर लेने मात्र से संपन्न नहीं होता। विवाह में केवल संबंधी, मित्र गण और परिचित ही नहीं जुटते, पूरा समाज जुटता है। न जाने किस-किस को मनाना पड़ता है, उन में विनायक से ले कर नायक तक जितनी भांति के लोग हैं वे सभी शामिल हैं। फिर भी बिना किसी की नाराजगी के विवाह संपन्न हो जाए तो शायद कोई भी उसे विवाह नहीं कह सकते। कुल मिला कर एक भारतीय विवाह अत्यन्त जटिल विधान है। 
ज तो मैं अपने काम से जयपुर जा रहा हूँ, लेकिन तुरंत ही शाम तक लौटूंगा और कल सुबह ही अपने साढू़ भाई श्री बीजी जोशी के पुत्र नीरज के विवाह में सम्मिलित होने चल दूंगा। पत्नी जी पिछले माह की अंतिम तिथि को ही जा चुकी हैं। वे अपने साथ पहली बार मोबाइल ले कर गई हैं। दो-तीन दिन तक जब भी मैं ने घंटी की मोबाइल पत्नी जी के स्थान पर मेरी किसी न किसी साली ने उठाया। (ऐसे पी.ए. सब को मिलें, पर हम पुरुषों की ऐसी किस्मत कहाँ?) कल मैं मेरी ससुराल से जाने वाले माहेरा (भात) (इस में दूल्हे के मौसा लोग अधिक होते हैं, शायद इस लिए इसे हमारे यहाँ मौसाला भी बोलते हैं) के बेड़े में सम्मिलित हो कर शाम तक सीहोर म.प्र. में बीजी जोशी से जा मिलूंगा।
ह सीहोर भोपाल के नजदीक है, वहाँ ग़ज़ल के मास्टर जी पंकज जी सुबीर से मुलाकात होगी। पहले की सीहोर यात्रा के समय वे वहाँ नहीं थे और मुलाकात नहीं हो सकी थी। कुछ मित्र और भी हैं, उन से भी मुलाकात होगी। विवाह आठ दिसंबर को संपन्न हो लेगा। पर पत्नी जी और उन की बहनों का कहना है कि वे विवाह के उपरांत भी दो दिन और रुकेंगी, जिस से बहिन को शेष  काम के निपटारे में सहायता कर सकें। मैं इन दो दिनों का सदुपयोग भोपाल के मित्रों और ब्लागरों से मिलने में करने वाला हूँ। वापसी में एक दिन ससुराल में रुकना पड़ेगा। यह रंजन भी आवश्यक है।
मित्रों! इस तरह मैं आज से पूरे सप्ताह के लिए कोटा के बाहर हूँ। संभावना इस बात की है कि अंतर्जाल संपर्क भी शायद ही हो सके। इस कारण ब्लाग जगत में किसी भी प्रकार की उपस्थिति असंभव ही होगी। इस आवश्यक अनुपस्थिति के लिए आप सभी से और अपने ब्लाग पाठकों से क्षमा चाहता हूँ। विशेष रूप से तीसरा खंबा के उन पाठकों से जो मुझ से कोई कानूनी सलाह तुरंत चाहते हैं, और उन्हें एक-दो सप्ताह प्रतीक्षा करनी होगी।

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

भारतीय विवाह : मेल मुलाकात का अवसर

भारतीय समाज में विवाह अत्यन्त जटिल समारोह है। इतनी बातों का ध्यान रखना पड़ता है कि चूक हो जाना स्वाभाविक है। घर में कोई शादी नहीं है, पर पिछले कुछ महिनों से इस की चर्चा बहुत है। पिछले माह से तो शोभा पूरी तरह व्यस्त है। उस की छोटी बहिन कृष्णा के बेटे का आठ दिसंबर को विवाह है। कृष्णा के सास-ससुर नहीं हैं। वह रस्म-रिवाज़ों के बारे जितना जानती है वह उस ने अपने मायके और ससुराल में हुए विवाहों की स्मृति पर निर्भर है। उसे विवाह की हर एक रस्म और रिवाज़ के बारे में पूछताछ करनी पड़ रही है। शोभा की जानकारी कुछ अधिक है। मायके में सब से बड़ी पुत्री होने और ससुराल में सब से बड़ी पुत्रवधु होने से उसे विवाहों में जिम्मेदार भूमिका इतनी बार अदा करनी पड़ी है कि उसे लगभग सभी कुछ याद है, फिर हर बिन्दु पर औरों की राय जान कर किसी काम को कैसे करना है इस का निर्धारण करना उसे खूब आता है। कृष्णा तैयारी में लगी है वह लगभग प्रतिदिन शोभा से फोन पर बात करती है और एक बार से काम नहीं चलता तो कई बार भी करती है। शोभा ने बहुत सारी खरीददारी की जिम्मेदारी खुद पर ले ली और एक और छोटी बहिन ममता को साथ ले कर खरीददारी की। इस से कृष्णा का काम का बोझ बहुत कम हो गया। 
चूँकि बहिन के पुत्र का विवाह है, पिता को भात (माहेरा) ले जाना है। इस लिए पिता जी का फोन आता है कि शोभा एक दो दिनों के लिए मायके चली जाए और भात की तैयारी करवा दे। भात के लिए बेटी को पिता के यहाँ न्यौता देने आना है। इसे बत्तीसी झिलाना बोलते हैं। इस समय बेटी कुछ मीठा ले कर आती है। आम तौर पर गुड़ की भेली होती है। साथ में मायके में जितने लोग उम्र में उस से छोटे हैं उन के लिए नए वस्त्र ले कर आती है। अब कृष्णा को भात न्यौतने आना था। उन्हीं दिनों शोभा और ममता भी मायके पहुँच जाती हैं। पिता जी बहुत प्रसन्न हैं, वे सब कुछ प्रसन्नता पूर्वक करना चाहते हैं। वे ढोल वाले को बुलवाते हैं, साथ ही बैंड वाले को भी। सारे रिश्तेदारों और व्यवहारियों को बुलावा गया है। सब नियत समय पर इकट्ठे होते हैं। बत्तीसी झिलाई जाती है। मेहमानों को चीनी के बताशे वितरित किए जाते हैं। पिता जी ने भात की सभी तैयारी अपने हिसाब से कर ली है। जो कुछ कमी रह गई है उसे शोभा और ममता दोनों दो दिन और रुक कर करवा देती हैं। 
शोभा और उस की बहनों सनेह और ममता को एक सप्ताह पहले तो अपनी बहिन के यहाँ पहुँचना ही है, जिस से वे कृष्णा को विवाह की तैयारी करवा दें और काम में मदद करें। शोभा मायके से लौटी तो विवाह में जाने में दो दिन शेष रह गए हैं। उस ने आते ही घर को संभाला। जाने की तैयारी की। जो कुछ विवाह के लिए खरीदना शेष बचा था। उसे भी निपटाया। अब आज रवानगी की तारीख आ ही गई। शोभा और ममता तो यहीं हैं। एक मंझली बहिन सनेह को जयपुर से आना था, वह दोपहर शोभा के पास पहुँच गई। एक माह पहले ही रेल यात्रा के लिए रिजर्वेशन कराया गया था। तब  प्रतीक्षा सूची में क्रमांक कोई दो सौ से ऊपर था, आश्वासन मिला था कि हर हालत में कन्फर्म हो जाएगा, यदि रह भी गया तो विशेष कोटे में से व्यवस्था हो जाएगी। 
लेकिन आज चार्ट बनने तक प्रतीक्षा सूची क्रमांक 15 से 17 पर आ कर रुक गया। विशेष कोटे का प्रयोग भी वास्तविक विशिष्ट लोगों ने कर लिया। बस की तलाश आरंभ हुई। पता लगा कि साढ़े-दस की रात  की बस में स्थान है, उसे तुरंत आरक्षित करवाया गया और रेल का टिकट निरस्त करवाया गया। सब्र की बात यह थी कि जितना रुपया बस टिकट में खर्च हुआ उस से कोई पचास रुपया अधिक, बीस रुपये प्रति यात्री कटौती के बाद भी रेल टिकट निरस्त होने से वापस मिल गया। कृष्णा को सूचना दे दी गई है कि बस निकटतम स्थान पर सुबह सात बजे पहुँचेगी। कृष्णा ने उन्हें आश्वस्त कर दिया है कि उन्हें लेने के लिए वाहन नियत से पहले पहुँच जाएगा। तीनों बहिनें बस रवाना होने के पहले ही बस अड्डे पहुँच गई हैं और अपना आरक्षित स्थान हथिया लिया है। सीट पिछले वाले पहिये के ठीक ऊपर है। उन्हों ने अनुमान लगा लिया है कि बस में रात कैसी कटेगी?
अब बस रवाना हो चुकी है।  
मैं अपने साढ़ू भाई को फोन करता हूँ कि तीनों बहिनों को बस में बिठा दिया है। घर लौट आया हूँ। अब पाँच दिसम्बर की शाम तक मुझे अकेले रहना है, जब तक कि मैं स्वयं विवाह में सम्मिलित होने के लिए नहीं चल देता। इस विवाह का मुझे भी इंतजार है। विवाह में बहुत से प्रिय संबंधियों से तो भेंट होगी ही। विवाह ब्लाग जगत के ग़ज़ल के उस्ताद पंकज सुबीर जी के नगर में है। भोपाल निकट है, मुझे वहाँ भी जाना है। बहुत सारे ब्लागरों से मुलाकात का मौका जो मिलेगा।

सोमवार, 29 नवंबर 2010

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

पिछली 29 अक्टूबर की पोस्ट में मैं ने ब्लागीरी में पिछले दिनों हुई अपनी अनियमितता का उल्लेख करते हुए दीपावली तक नियमित होने की आशा व्यक्त की थी। मैं ने अपने प्रयत्न में कोई कमी नहीं रखी। उसी पोस्ट पर ठीक एक माह बाद भाई सतीश सक्सेना जी की टिप्पणी ने मुझे स्मरण कराया कि मुझे अपने काम का पुनरावलोकन करना चाहिए, कम से कम नियमितता के मामले में अवश्य ही। तो अनवरत पर मेरी अब तक 15 पोस्टें हो चुकी हैं और यह सोलहवीं है। इस तरह मैं ने अनवरत पर हर दूसरे दिन एक पोस्ट लिखी है। तीसरा खंबा पर इस एक माह में 18 पोस्टें हुई हैं। मुझे लगता है कि इन दिनों जब कि कुछ व्यक्तिगत कामों में व्यस्तता बढ़ गई है, यह गति ठीक है। हालांकि इस बीच हर उस दिन जब कि मैं ने कोई पोस्ट इस ब्लाग पर नहीं की यह लगता रहा कि आज मुझे यह बात लिखनी थी, लेकिन समय की कमी से मैं ऐसा नहीं कर पा रहा हूँ। लगता है कि ब्लागीरी मेरे लिए एक ऐसा कर्म हो गई है, जिस के बिना दिन ढल जाना क्षय तिथि की तरह लगने लगा है जो सूर्योदय होने के पहले ही समाप्त हो जाती है। 
ल से ही अचानक व्यस्तता बढ़ गई। शोभा की बहिन कृष्णा जोशी के पुत्र का विवाह है, और उस के पिता को वहाँ भात (माहेरा) ले जाना है। शोभा उसी की तैयारियों के लिए मायके गई थी, कल सुबह लौटी। चार दिन में घर लौटी तो, सब से पहले उस ने घर को ठीक किया। मुझे भी चार दिन में अपने घर का भोजन नसीब हुआ। वह कल शाम फिर से अपनी बहिन के यहाँ के लिए चल देगी और फिर विवाह के संपन्न हो जाने पर ही लौटेगी। इन दो दिनों में उसे बहुत काम थे। उसे घर को तैयार करना था जिस से उस में मैं कम से कम एक सप्ताह ठीक से रह सकूँ। उसे ये सब काम करने थे। इन में कुछ काम ऐसे थे जो मुझ से करवाए जाने थे। मैं भी उन्हीं में व्यस्त रहा। आज मुझे अदालत जाना था और वहाँ से वापस लौटते ही शोभा के साथ बाजार खरीददारी के लिए जाना था। शाम अदालत से रवाना हुआ ही था कि संदेश आ गया कि अपने भूखंड पर पहुँचना है वहाँ बोरिंग के लिए मशीन पहुँच गई है। मुझे उधर जाना पड़ा। वहाँ से लौटने में देरी हो गई। वहाँ से आते ही बाजार जाना पड़ा। जहाँ से लौट कर भोजन किया है। अभी अपनी वकालत का कल का काम देखना शेष है। फिर भी चलते-चलते एक व्यसनी की तरह यह पोस्ट लिखने बैठ गया हूँ।
ल फिर व्यस्त दिन रहेगा। आज जो नलकूप तैयार हुआ है उसे देखने अपने भूखंड पर जाना पड़ेगा, कल शायद नींव खोदने के लिए रेखाएँ भी बनाई जाएंगी। वहाँ से लौट कर अदालत भी जाना है और शोभा को भी बाजार का काम निपटाने में मदद करनी है। कल उस की एक बहिन और आ जाएगी, एक यहां कोटा ही है। कल रात ही इन्हें ट्रेन में भी बिठाना है। कल भी समय की अत्यंत कमी रहेगी। इस के बाद पाँच दिसम्बर सुबह से ही मैं भी यात्रा पर चल दूंगा। उस दिन जयपुर जाना है, शाम को लौटूंगा और अगले दिन सुबह फिर यात्रा पर निकल पड़ूंगा। इस बार यात्रा में मेरी अपनी ससुराल झालावाड़ जिले में अकलेरा, फिर सीहोर (म.प्र.) और भोपाल रहेंगे। विवाह के सिलसिले में सीहोर तो मुझे तीन दिन रुकना है। एक या दो दिन भोपाल रुकना होगा। मेरा प्रयत्न होगा कि यात्रा के दौरान अधिक से अधिक ब्लागीरों से भेंट हो सके। 
ब आप समझ ही गए होंगे कि मैं 12 दिसम्बर तक व्यस्त हो गया हूँ। दोनों ही ब्लागों पर भी 4 दिसंबर के बाद अगली पोस्ट शायद 13 दिसम्बर को ही हो सकेगी। इस बीच मुझे अंतर्जाल पर आप से अलग रहना और अपनी बात आप तक नहीं पहुँचाने का मलाल रहेगा। लेकिन क्या किया जा सकता है? 
फ़ैज साहब ने क्या बहुत खूब कहा है ....
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजै
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजै
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

बुधवार, 19 मई 2010

उन्नीस मई का दिन, शादी के बाद की पहली रात

पिछली पोस्ट से आगे...
दो घण्टे भी न गुजरे थे कि एक बार फिर से घोड़ी की पीठ पर सवारी करनी पड़ी। बचपन में अपने मित्र बनवारी लखारा की घोड़ी की पीठ पर चढ़ कर उसे नदी किनारे पानी दिखाने खूब गए थे। पर तब आगे न तो बैंड होता था और न नाच हो रहा होता था। शाम को पाँच घण्टे की सवारी से अकड़ी कमर ठीक से सीधी भी न हो सकी थी कि फिर जलूस बन गया। इस बार जलूस सब से छोटे रास्ते से दुल्हिन के घर पहुँचा। तोरण को कटारी से छुआ कर अंदर पहुँचे तो कन्यादान के नाम पर दुल्हा-दुल्हिन के बाएँ हाथ की हथेलियों के बीच मेहन्दी और कुछ अन्य वनस्पतियों की पिसी लुगदी रख सूत के लच्छे से बांध दिए गए। फिर बंधे हाथ ही मंडप में पहुँचाए गए। भाँवरों की कार्यवाही आरंभ हुई। पंडित जी बहुत ही धीमे चल रहे थे। बारात में पंडित ही पंडित जो थे। उन्हें डर लग रहा था कि कहीं ऐसा न हो कोई विधि में कसर निकाल दे। पंडित जी के डर का बोझा सहना पड़ रहा था दुल्हा-दुल्हिन को।  भाँवर निपटते-निपटते सुबह चार बज रहे थे। जैसे ही वह सब निपटा सरदार ने चुपके से पंडित को अपने दाएँ हाथ की कनिष्ठिका दिखाई, वह समझ गया। उस ने तुरंत बंधे हाथ खोले सरदार को बाथरूम का रास्ता दिखा दिया। 
भाँवर से लौटने और दुल्हन को वापस मायके पहुँचा देने के बाद सरदार को कुछ आराम मिला। नौ बजते-बजते उसे फिर उठा दिया गया।  वह जल्दी से वह स्नानादि से निपटा तो उसे फिर से एक बार दुल्हिन के घर पहुँचा दिया गया। विदाई की रस्में हुई। दोपहर तक तक बारात फिर से बस में सवार थी। इस बार बस लाइन की नियमित बस थी। इस से बारात को पास के स्टेशन तक पहुँचना था, फिर वहाँ से ट्रेन से बारात लौटनी थी। सरदार के एक दादा जी बहुत होशियार थे। उन्हों ने पूरी बारात का टिकट लिया लेकिन कंडक्टर को इस बात के लिए मना लिया कि वह दुल्हा-दुल्हिन को फ्री ले जाएगा। जल्दी ही स्टेशन आ गया। वहाँ आधा घंटा विश्राम हुआ। बारात को चाय-पान मिला। इस बीच सरदार इस चक्कर में रहा कि किसी तरह घूँघट में छिपा दुल्हन का मुख मंडल दिख जाए। पर वह बहुत प्रयत्नों के साथ छुपा था, नहीं दिखना था सो नहीं ही दिखा। ट्रेन आई और बारात उस में सवार।  ट्रेन ने घंटे भर में ही बाराँ का प्लेटफॉर्म दिखा दिया।
ट्रेन से उतरते ही, सब बाराती और घर वालों ने सामान संभाला और पैदल अपने-अपने घरों को चल दिए। गाड़ी ने भी स्टेशन छोड़ दिया। प्लेटफॉर्म पर स्थाई रुप से टिके रहने वाले लोग ही रह गए। सरदार को लगा केवल वही अकेला यात्री छूट गया है। बुकस्टॉल से चला तो टिकटघर के बाहर के वेटिंग हॉल में दुल्हन के साथ अपनी दोनों बहनों और दोनों छोटे भाईयों को देख कर रुका। बहनों ने उसे बताया कि पिता जी ने आप के साथ मामा बैज़्जी के घऱ जाने को बोला है। सरदार उन सब को ले कर मामा बैज़्जी के घर पहुँच गया।  छोटे मामा उस पर खूब गुस्सा हुए -“नई लाड़ी (दुल्हन) को इस तरह पैदल लाया जाता है? मैं ने तो ताँगे वाले को स्टेशन भेजा है, वो बेचारा वहाँ हैरान हो रहा होगा। जब तक तुम्हें तुम्हारे घर में न ले लें तुम यहीं रहोगे” छोटे मामाजी की हुक्म उदूली करने का सरदार में बिलकुल माद्दा न था। मामाजी के घर दुल्हन का स्वागत हुआ। वह महिलाओं से घिर गई, सरदार अकेला रह गया, वह टाइमपास के लिए मामाजी के दवाखाने में आ बैठा और पिछले दो दिनों के अखबारों के पन्ने पलटने लगा।
हाँ फिर से दूल्हे की यूनिफार्म पहननी पड़ी, सिर पर साफा, कांधे पर गठजोड़ा ऱख दिया गया। सरदार चला, पीछे पीछे दुल्हन खिंची आती थी। आगे शहर का मशहूर बैंड बजता था। घर पहुँचते पहुँचते पर ढोल लिए ढ़ोली भी चला आया। फर्लांग भर की दूरी सरदार को मीलों लगी थीं। वैसे कोई खास बात नहीं थी, यह उसी का मोहल्ला था, जहाँ बच्चे-बच्चे को पता था सरदार की शादी हो गई है। भोजनोपरांत बाजार  गया और देर रात तक दोस्तों के साथ रहा। पान की दुकान से पान खा कर चलने ही वाला था कि पान वाले ने टोका -भाभी के लिए पान नहीं ले जाओगे? आज तो पहली मुलाकात है। सरदार दुलहन के लिए पान ले कर लौटा। रात  के बारह बजने में सिर्फ कुछ मिनट बाकी थे। उस के कमरे की गैलरी में महिलाएँ बैठी गीत गा रही हैं। घुसते ही बुआ ने टोका-पीछे छत पर जा। वह छत पर कुछ ही देर रहा फिर बुआ पकड़ कर ले गई। सरदार को उस के ही कमरे में अंदर ढकेला गया और खड़ाक से बाहर की कुंडी लग गई। बिजली घर में थी नहीं। कमरे में मात्र एक दीपक रोशन था। कमरा पूरा बंद डब्बा लग रहा था। दरवाजा बंद होने के बाद उस में चार फुट की ऊंचाई पर ‘ए-3 साइज के पेपर’ के बराबर की पोर्टेट ओरिएंटेशन वाली दो खिड़कियाँ दरवाजे के आजू-बाजू थीं, जिन पर भी परदे लटके थे। हवा भी न घुसे इस का पूरा इंतजाम था। अंदर देखा तो कमरे के एक कोने में ससुराल से मिले पलंग की दोनों कुर्सियाँ दीवार से लगी थी और ईंसें कोने में खड़ी थी। पलंग में रखी जाने वाली जिस चौखट पर निवार बुनी जाती है, वह कमरे के दाएँ फर्श पर रखी थी, जिस पर रेशमी चादर से ढका गद्दा बिछा था , जिस के  ऊपर शादी का खास जोड़ा पहने दुल्हन बैठी थी।
रदार को हालात देख कर गुस्सा भी आया और रोना भी। घर में कोई जमाई नहीं था, जो कम से कम पलंग को जोड़ कर खड़ा ही कर देता। बारात में सब थे, नेग लेने को, और जब उन का काम आया तो सब नदारद। वे नहीं तो बुआएँ ही यह काम कर देतीं। आखिर यह हुआ क्या? किसी को भी यह याद नहीं रहा। वह बुआ से पूछने को मुड़ा, दरवाजा खोलने को खींचा तो वह बाहर से कुंडी बंद थी। अब तब तक बाहर नही जा जा सकता था जब तक कि बाहर से कोई कुंडी न खोल देता।  बाहर जगराते में देवताओं को मनाते, गीत गाती औरतें अपने गीत पूरे कर ने के पहले खोल न सकतीं थीं। वह मसोस कर रह गया।
ई के महीने की ऊन्नीस तारीख बीस में तब्दील हो चुकी थी। पसीने से बनियान बदन से चिपक रही थी। सरदार ने अपना कुर्ता-पाजामा उतार, लुंगी पहन ली। बनियान को भी बदन से अलग किया, परांडी पर रखी बीजणी (हाथ-पंखा) ले गद्दे पर जा लेटा और बीजणी से इस तरह बदन पर हवा झलने लगा कि ज्यादा हवा दुल्हन को लगती रहे। सरदार को समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्या करे? जो कम से कम अब तो दुल्हन का चेहरा देखने को मिल जाए। दिमाग में अचानक रोशनी चमकी, उस ने दुल्हन से पूछा–तुम्हें गर्मी नहीं लग रही? दुल्हन क्या जवाब देती, वह पहले ही पसीने से तर-बतर-थी, चुप रही। कुछ देर बाद उठी और बोली–आप उधर मुँह कर के लेटिए, मैं अपने कपड़े बदल लेती हूँ। गर्मी में दुल्हन का जोड़ा जरूर उस के बदन को बुरी तरह काट रहा होगा। सरदार अपना मुहँ दीवार की तरफ कर लेट कर सोचने लगा -अब इंतजार पूरा हुआ। अब तो दुल्हन का मुखड़ा देखने को मिलेगा। सरदार को फिल्मों के सारे रोमांटिक गानों के मुखड़े याद आने लगे थे। कुछ देर बाद दुल्हन का मुखड़ा दिखा, लेकिन ताक पर रोशन एक तेल के दीपक की रोशनी में भीषण गर्मी में बदन से टपकते पसीने को बीजणी से सुखाते हुए। अब ये तो पाठक ही सोच सकते हैं कि दुल्हों के दोस्तों को सेरों खुशबूदार फूलों से दुल्हन की सेज को सजाते देखने पर सरदार और सरदारनी के दिल पर क्या गुजरती होगी?
रदार का अगला दिन बहुत व्यस्त रहा। सुबह ही कॉलेज जा कर पता किया कि कहीं रसायनशास्त्र की प्रायोगिक परीक्षा आज-कल में ही तो नहीं है? दोनों-तीनों फूफाओं और बुआओं की खबर ली गई कि वे एक पलंग नहीं जोड़ सके। फिर पलंग को खुद ही जोड़ा और ढंग से कमरे के एक कोने में लगाया। मंदिर के मैनेजर को पटा कर अनुमति ली गई कि मंदिर से सरदार अपने कमरे तक तार खींच कर बिजली ले जाए। पर्याप्त लंबाई वाला तार कबाड़ कर अपने कमरे तक खींचा और कुछ प्लग-सॉकेट लगाए। बिजली की सप्लाई का टेंपरेरी इंतजाम हो गया। शाम तक ससुराल से दहेज में मिला टेबलफैन चलने लगा और एक अदद बल्ब भी रोशन हुआ। दिन भर दुल्हन सज-धज कर बैठी रही। औरतें मिलने आतीं और मुहँ दिखाई देती रही, लेकिन सरदार को उस का मुखड़ा एक बार भी देखने को न मिला। वह रात होने का इंतजार कर रहा था, जब वह बल्ब की रोशनी और टेबलफेन की हवा में अपनी दुल्हन से मिलेगा और तसल्ली से उस का मुखड़ा देख सकेगा। 

मंगलवार, 18 मई 2010

अठारह मई का वह दिन !!!

ठारह मई का वह दिन कैसे भूला जा सकता है? दो बरस पहले से जिसे देखने और मिलने की आस लगी थी वह इस दिन पूरी होने वाली थी।

हुआ यूँ था ............ गर्मी की छुट्टियां थीं और मौसी की लड़की की शादी। सारा परिवार उस में आया था। सरदार, बाबूजी. माँ, बहनें और छोटे भाई भी। शादी सम्पन्न हुई तो सरदार ने अम्माँ से पूछा मैं मामाजी के यहाँ हो आऊँ? अम्माँ मुस्कुराई और कहा -बाबूजी से पूछो? वह जानती थी कि सरदार बाबूजी से पूछने में कतराता है। लेकिन उस दिन पूछ ही लिया। वह लगभग हर साल गर्मी में कुछ दिन मामाजी के यहाँ गुजारता था। पर अब की वहाँ गए दो बरस हो गए थे और उसे ननिहाल की याद जोरों से सता रही थी। वहाँ गर्मियों में बिताए दो हफ्ते पूरे साल के लिए उसे तरोताजा कर देते थे। रोज सुबह नदी स्नान और तैरना, दिन में पढ़ने को खूब किताबें, शाम फिर नदी पर गुजरती। रात होते ही मंदिर में जमती संगीत की महफिल, मामाजी पक्की शास्त्रीय बंदिशें गाते। बाबूजी से पूछने पर उन्हों ने सख्ती से मना कर दिया –नहीं, इस बार हम सब वहाँ जा रहे हैं। तुम बाराँ जाओगे। वहाँ दाज्जी अकेले हैं और परसों गंगा दशमी है। मन्दिर कौन सजाएगा?

मामा जी के यहाँ जाने की सरदार की योजना असफल हो गई थी, मन में बहुत हताशा थी और गुस्सा भी। अब उसे दूसरे दिन सुबह वापस अपने शहर लौटना था। पर अब मौसी के यहाँ रुकने का मन नहीं रहा। सरदार का मित्र ओम भी शादी में साथ था, उसे उसी समय साथ लौटने को तैयार किया और दोनों चल दिए। पच्चीस किलोमीटर की दूरी बस से तय की, रेलवे स्टेशन तक की। वहाँ पहुँचने पर पता लगा ट्रेन दो घंटे लेट थी। अब क्या करें? स्टेशन से कस्बा डेढ़ किलोमीटर था जहाँ एक अन्य मित्र पोस्टेड था। स्टेशन के बाहर की एक मात्र चाय-नाश्ते की दुकान पर अपनी अटैचियां जमा कीं और पैदल चल दिये कस्बा।

वहाँ मित्र मिला, चाय-पानी हुआ, बातों में मशगूल रहे। ट्रेन का वक्त होने को आया तो वापस चल दिये, स्टेशन के लिए। कस्बे से बाहर आते ही ट्रेन दिख गई। उसे भी स्टेशन तक पहुँचने में एक किलोमीटर की दूरी थी और इन दोनों को भी। ट्रेन छूट जाने का खतरा सामने था। फिर वापस मौसी के यहाँ जाना पड़ता रात बिताने। सुबह के पहले दूसरी ट्रेन नहीं थी। जिस तरह सरदार वहाँ से गुस्से में रवाना हुआ था, उस का वापस वहीं लौटने का मन न था। तय किया कि ट्रेन पकड़ने के लिये दौड़ा जाए। दोनों कुछ दूर ही दौड़े थे कि ओम के पैरों ने जवाब देना शुरु कर दिया। सरदार ने उस के हाथ में अपना हाथ डाल जबरन दौड़ाया। चाय-नाश्ते वाली दुकान के नौकर ने दोनों को दौड़ता देख उन की अटैचियां सड़क पर ला रखी। सरदार ने दोनों अटैचियाँ उठाईं और प्लेटफॉर्म की तरफ दौड़ा। ट्रेन चल दी। डिब्बे के एक दरवाजे में ओम को चढ़ाया, दूसरे व तीसरे में अटैचियाँ और चौथे में सरदार चढ़ा। अन्दर पहुँच कर सब एक जगह हुए। दोनों की साँसें फूल गई थीं, दो स्टेशन निकल जाने तक मुकाम पर नहीं आयीं। आज सरदार उस वाकय़े को स्मरण करता है तो काँप उठता है, अपनी ही मूर्खता पर। उस ने ओम को जबरन दौड़ाया था। उस की क्षमता से बहुत अधिक। अगर उसे कुछ हो गया होता तो?

सी साल सरदार ने बी.एससी. के दूसरो वर्ष में दाखिला लिया। कॉलेज का वार्षिकोत्सव का अंतिम दिन था। कॉलेज से लौटा तो साथ कुछ इनाम थे, छोटे-छोटे, कुछ प्रतियोगिताओं में स्थान बना लेने के स्मृति चिन्ह। उन्हीं में था एक मैडल। कॉलेज के इंटर्नल टूर्नामेण्ट की चैम्पियन टीम के कप्तान के लिये। माँ और तो सभी चीजें जान गयी, लेकिन मैडल देख पूछा -ये क्या है?

“घर की शोभा”, सरदार का जवाब था।

जवाब पर छोटी बहन हँस पड़ी। ऐसी कि उस से रोके नहीं रुक रही थी। माँ ने उसे डाँटा। वह दूसरे कमरे में भाग गई। 

सरदार समझ नहीं पाया उस हँसी को। वह हँसी उस के लिये एक पहेली छोड़ गयी। उसे सुलझाने में सरदार को कई दिन लग गए। सुलझी तो पता लगा जिस दिन उस ने खुद के साथ ओम को दौड़ाया था। उस के दूसरे दिन मामाजी के यहाँ जाने के रास्ते के एक कस्बे में बाबूजी. माँ, बहनें और छोटे भाई किसी के मेहमान बने थे और सरदार की दुल्हिन बनाने के लिए उस परिवार की सबसे बड़ी बेटी देख आए थे। जब सरदार को पता लगा तो वह उस के बारे में लोगों से जानकारियाँ लेता रहा। कल्पना में उस के चित्र गढ़ता रहा, अब उसे देखने और मिलने का दिन आ गया था.....


निकासी निपटी तो आधी रात हो गई थी। तारीख सत्रह से अठारह हो चुकी थी। बारात के लिए बस आ चुकी थी। सरदार चाहता था कि कुछ खास दोस्त बारात में जरूर चलें। सब से कह भी चुका था। पर वे नहीं आए। जो दोस्त साथ गए उन में दो-चार हम उम्र थे तो इतने ही बुजुर्ग भी। बाराती बस में अपनी-अपनी जगह बैठ चुके थे।
बस में सरदार के लिए ही सीट न बची थी। एक दो बुजुर्गों ने उसे अपना स्थान देना चाहा पर वह अशिष्टता होती। एक पीपे में सामान का था। उसे ही सीटों के बीच रख कर बैठने की जगह बनाई ससुराल तक का पहला सफर किया। ऐसे में सोने का तो प्रश्न ही न था। पास की सीट पर मामा जी और एक बुजुर्ग मित्र वर्मा जी बैठे थे। बस रूट की पुरानी बस थी, जिस के ठीक बीच में एक दो इंच की दरार थी ऐसा लगता था दो डिब्बों को जोड़ दिया हो और बीच में माल भरना छूट गया हो। जब भी वर्मा जी सोने लगते, मामाजी उन्हें जगा देते, कहते वर्मा जी आप पीछे के हिस्से में हैं, देखते रहो, अलग हो गया तो बरात छूट जाएगी। भोर होने तक बस चलती रही। सड़क के किनारे के मील के पत्थर बता रहे थे कि नगर केवल चार किलोमीटर रह गया है। तभी धड़ाम......! आवाज हुई और कोई तीन सौ मीटर दूर जा कर बस रुक गई। शायद बस से कुछ गिरा था। जाँचने पर पता लगा कि बस के नीचे एक लंबी घूमने वाली मोटी छड़ (ट्रांसमिशन रॉ़ड) होती है जो इंजन से पिछले पहियों को घुमाती है वह गिर गई थी। बस का ड्राइवर और खल्लासी उसे लेने पैदल पीछे की ओर चल दिए। उजाला हो चुका था, शीतल पवन बह रही थी। यह सुबह के टहलने का समय था। सरदार और उस के कुछ हम उम्र दोस्त पैदल नगर की ओर चल दिए। एक किलोमीटर चले होंगे कि बस दुरुस्त हो कर पीछे से आ गई। उस में बैठ गए।

सुबह से दोपहर बाद तक बारातियों का चाय-नाश्ता, नहाना, सजना, भोजन और विश्राम चलता रहा। शाम चार बजे अगवानी हुई और उस के बाद बारात का नगर भ्रमण। पाँच बजे सरदार की घुड़चढी हुई। नगर घूमते आठ बज गए। बारात का अनेक स्थानों पर स्वागत हुआ। कहीं फल, कहीं ठण्डा पेय कहीं कुल्फी। मालाएँ तो हर जगह पहनाई गई। हर मोड़ पर दूल्हे के लिए कोई न कोई पान ले आता। घोड़ी पर बैठे बैठे थूकना तो असभ्यता होती, सब सीधे पेट में निगले जा रहे थे। सरदार सोच रहा था, आज पेट, आँतों और उस से आगे क्या हाल होगा? साढे तीन घंटे हो चुके थे, अब तो लघुशंका हो रही थी और उसे रोकना अब दुष्कर हो रहा था। एक स्थान पर स्वागत कुछ तगड़ा था, आखिर वहाँ घोड़ी से नीचे उतरने की जुगत लग ही गई। वहाँ एक सजे हुए तख्त पर दूल्हे को मसनद के सहारे बैठाने की व्यवस्था थी। पर सरदार ने अपने एक मित्र से कहा -बाथरूम? उस ने किसी और को कहा, तब बाथरूम मिला। वहाँ खड़े-खड़े दस मिनट गुजर गए। लघुशंका पेशियों के जंगल में कहीं फँस गयी थी और निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी। तीन घंटे से रोकते-रोकते रोकने वाली पेशियाँ जहाँ अड़ाई गई थीं जाम हो चुकी थीं और वापस अपनी पूर्वावस्था में लौटने को तैयार न थी। अब बाथरूम में अधिक रुकना तो मुनासिब न था। सरदार ने पैंट फ्लाई के बटन बंद किए और जैसे गया था वैसे ही बाहर लौट आया।

नगर भ्रमण दुल्हन के मकान के सामने भी पहुँचा। वहाँ महिलाओं ने खूब स्वागत किया। हर महिला टीका करती, नारियल पर कुछ रुपये देती। सरदार वहाँ तलाश करता रहा शायद कहीं से उसे उस की होने वाली जीवन साथी देख रही हो और उसे दिख जाए। वह दिखाई नहीं ही दी, दिखी भी हो तो चीन्हने का संकट भी था, न उसे पहले देखा था और न उस का चित्र। साढ़े दस बजे वापस जनवासे में लौटे तो बाराती सीधे भोजन पर चले गए। सरदार ने यहाँ भी आते ही कोशिश की लेकिन शंका सरकी तक नहीं, फँसी रही। उस से भोजन के लिए कहा जा रहा था। पर मन और शरीर दोनों शंका में उलझे थे। पता लगा कच्चे आम का शरबत (कैरी का आँच) बना है। बस वही दो-तीन गिलास पिया तो पेशियाँ नरम पड़ीं और शंका को जाने का अवसर मिला। कुछ देर विश्राम किया। कलेंडर में तारीख बदल कर उन्नीस मई हो चुकी थी। साईस जनवासे के बाहर मैदान में दूल्हे को तोरण और भाँवर पर ले जाने के लिए फिर से घोड़ी को तैयार कर रहा था............ (आगे पढ़ें)

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

ऐसा सिर्फ टीवी सीरियलों और फिल्मों में ही संभव है।

ल अदालत से आने के बाद से ही मैं बहुत परेशान था। आज पाँच मुकदमे एक ही अदालत में आखिरी बहस में नियत थे। मैं जानता था कि इन में से कम से कम एक में और अधिक से अधिक दो में बहस हो सकती है। परेशानी का कारण यही था कि मैं उन पाँच में से किन दो मुकदमों का चुनाव करूँ और पूरी तैयारी के साथ अदालत में पहुँचूँ? मेरे लिए यह चुनाव बहुत मुश्किल था। मैं ने पहले सभी पाँच मुकदमों को सरसरी तौर पर देखा। एक अवलोकन हो जाने के उपरांत उन में से दो को छाँटा और उन में बहस की तैयारी कर ली। सुबह अदालत पहुँचने तक यह अंदेशा बना रहा कि यदि खुद अदालत के जज ने यह कह दिया कि मैं तो दूसरे दो मुकदमों को पढ़ कर आया हूँ तो सारी मेहनत अकारथ जाएगी। मुझे उन एक या दो मुकदमों में बहस करनी पड़ेगी जिन में मेरी तैयारी आत्मसंतोष वाली नहीं है।
मैं अदालत पहुँचा तो सोचा पहले दूसरे मुकदमो से निपट लिया जाए, क्यों कि पहले यदि बहस वाले मुकदमों में चले गए तो इन अदालतों में जाना नहीं हो सकेगा और मुकदमों में मेरी अनुपस्थिति में कुछ भी हो सकता है। पहली ही अदालत में जज साहब एक अन्य वकील को बता रहे थे कि आज फिर किसी वकील की मृत्यु हो गई है और शोकसभा ग्यारह बजे हो चुकी है। अब काम नहीं हो सकेगा। बार एसोसिएशन की सूचना आ चुकी है। मैं समझ गया कि जिन दो मुकदमों में मैंने पूरी तैयारी करने की मेहनत की है और शेष तीन को सरसरी तौर पर देखने की जहमत उठाई है वह बेकार हो चुकी है। आज बहस नहीं होगी। जज भी नहीं सुनेंगे। क्यों कि आज का दिन उन के कार्य दिवस की गणना से कम हो गया है और आज के दिन वे अपना विलंबित काम पूरा कर के अपनी परफोरमेंस बेहतर करने का प्रयत्न करेंगे। मैं जिस जिस अदालत में गया वहाँ पहले से ही मुकदमों में तारीखें बदली जा चुकी थीं।
कुछ ही देर में मुझे विपक्षी वकील के कनिष्ट का फोन आया कि उन पाँच मुकदमों में भी अगली तारीख दी जा चुकी है। मेरा उधर जाना मुल्तवी हो गया। अब मैं भी मुतफर्रिक काम निपटाने लगा। किसी मुकदमें की अदालत की फाइल का निरीक्षण करना था, वह कर लिया। कुछ नकलों की दरख्वास्तें लगानी थीं वे लगा दीं। इतने में मध्यान्ह अवकाश हो गया और सभी लोग चाय पर चले गए। 
चाय से निपटते ही मेरे एक वरिष्ट वकील ने कहा -पंडित! मेरे साथ मेरे दफ्तर चलो, कुछ काम है। वरिष्ठ का निर्दश कैसे टाला जा सकता था। मैं उन के साथ उन के दफ्तर पहुँचा। मस्अला यह था कि एक पति-पत्नी और उन के रिश्तेदार उन के दफ्तर में मौजूद थे। मेरे वरिष्ठ उन की रंजामंदी से तलाक लेने की अर्जी हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13 (बी) में तैयार कर चुके थे और दोनों को पढ़ने और समझने के लिए दी हुई थी। पत्नी पक्ष उस में यह जुड़वाना चाहता था कि दोनों के बीच विवाह के उपरांत साथ रहने के बावजूद भी यौन संबंध स्थापित नहीं हुए थे। इस बात से दोनों पक्ष सहमत थे। इस लिए वरिष्ट वकील साहब ने उस तथ्य को यह लिखते हुए कि दोनों में वैचारिक मतभेद बहुत अधिक थे और वे कम नहीं होने के बजाए बढ़ रहे थे इस कारण से दोनों के बीच यौन संबंध भी स्थापित नहीं हो सके थे। 
र्जी में इस तरमीम के बावजूद भी पत्नी के पिता को आपत्ति थी। वे जो कुछ कहना चाहते थे लेकिन कह नहीं पा रहे थे और जो कहना चाहते थे उस के आसपास की ही बातें करते रहे। वे कह रहे थे कि हम सब कुछ आप को बता ही चुके हैं। आखिर मेरे वरिष्ट वकील साहब को कुछ क्रोध सा आ गया और उन्हों ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि मैं इस अर्जी को इस तरह तैयार नहीं करवा सकता कि यह पति की नंपुसकता का प्रमाण-पत्र बन जाए। उन के यह कहते ही मामला ठंडा पड़ गया। अब पत्नी पक्ष द्वारा अर्जी के नए ड्राफ्ट को स्त्री के भाई को दिखा लेने की बात हुई जो अब अमरीका में है। उसे फैक्स भेज कर पूछ लिया जाए कि यह ठीक है या नहीं। अर्जी का ड्राफ्ट प्रिंट निकाल कर उन्हे दे दिया गया जिस से वे उसे फैक्स कर सकें।  
ब पत्नी जो वहीं उपस्थित थी यह पूछने लगी कि कोई ऐसा रास्ता नहीं है क्या कि कल के कल तलाक मंजूर करवाया जा सके और दोनों स्वतंत्र हो जाएँ। हम ने उन्हें बताया कि अर्जी दाखिल होने और प्रारंभिक बयान दर्ज हो जाने के उपरांत छह माह का समय तो अदालत को देना ही होगा। क्यों कि कानून में यह लिखा है कि रजामंदी से तलाक की अर्जी यदि छह माह बाद भी दोनों पक्ष अपनी राय पर कायम रहें तो ही मंजूर की जा सकती है। इस का कोई दूसरा मार्ग नहीं है। उन्हों ने कहा कि कोई ऐसा रास्ता नहीं है कि दोनों पक्ष तलाक के कागजात पर दस्तखत कर दें और तहसील में जा कर रजिस्टर करवा दें, जिस से फौरन तलाक हो जाए। हम ने उस के लिए मना कर दिया। यह भी कहा कि ऐसा फिल्मों और टीवी सीरियलों में तो संभव है लेकिन वास्तव में नहीं। खैर सब लोग अर्जी दाखिल करने के लिए अगले सोमवार को मिलने की कह कर चले गए।

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

संतानों के प्रति उन के जन्मदाताओं के दायित्व और संतानों के अधिकार कानून द्वारा निश्चित हों

ये मोटे-मोटे आंकड़े हैं-
2001 की जनगणना के मुताबिक भारत की कुल जन संख्या में 80% हिन्दू, 12% मुस्लिम, 2% से कुछ अधिक ईसाई, 2% सिख, 0.7% बौद्ध और 0.5 प्रतिशत जैन हैं। 0.01 प्रतिशत पारसी और कुछ हजार यहूदी हैं। शेष न्य धर्मों के लोग अथवा वे लोग हैं जो जनगणना के समय अपना धर्म नहीं प्रदर्शित नहीं करते। 
चूंकि हिन्दू विवाह अधिनियम  मुस्लिमों, ईसाइयों, पारसियों और यहूदियों के अतिरिक्त सभी पर प्रभावी है। इस कारण से इस के प्रभाव क्षेत्र की जनता की जनसंख्या हम 85 प्रतिशत के लगभग मान सकते हैं। 
हिन्दू विवाह अधिनियम अनुसूचित जन-जातियों के लोगों पर प्रभावी नहीं है। जिन की जनसंख्या भारत में मात्र 8.2 प्रतिशत है।  इन्हें कम करने पर हम इस अधिनियम से प्रभावित जनसंख्या 77% रह जाती है। 
भारत में अनुसीचित जाति के लोगों की जन संख्या 16.2 प्रतिशत है और अन्य पिछड़ा वर्ग की जनसंख्या 52 प्रतिशत है। सभी अनुसूचित जातियों और लगभग सभी अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों में नाता प्रथा प्रचलित है। यदि इस आधार पर हम इन्हें भी हिन्दू विवाह अधिनियम के पूर्ण प्रभाव क्षेत्र अलग मानें तो शेष लोगों की जनसंख्या केवल 9 प्रतिशत शेष रह जाती है। 
नाता प्रथा देश के लगभग सभी भागों में प्रचलित है। होता यह है कि कोई भी विवाहित स्त्री घोषणा कर देती है कि वह अपने पति से परेशान है और उस के साथ नहीं रहना चाहती। इस के लिए वह स्टाम्प पेपर पर शपथ पत्र निष्पादित कर देती है। इस शपथ पत्र के निष्पादन के उपरांत यह मान लिया जाता है कि वह स्त्री अब अपने पति के बंधन से आजाद हो गई है। कोटा की अदालत में प्रत्येक कार्य दिवस पर इस तरह आजाद होने वाली स्त्रियों की संख्या औसतन तीन होती है। जब कि कोटा के पारिवारिक न्यायालय में माह में मुश्किल से पाँच तलाक भी मंजूर नहीं होते।
जाद होने के बाद वह स्त्री एक अन्य शपथ पत्र निष्पादित कर अपने इच्छित पुरुष के साथ रहने की सहमति दे देती है। पुरुष भी उसे भली तरह रखने के लिए एक शपथपत्र निष्पादित करता है। इस के उपरांत दोनों स्त्री-पुरुष साथ साथ कुछ फोटो खिंचाते हैं। जिस की सुविधा आज कल अदालत परिसर में चल रहे कंप्यूटर ऑपरेटरों के यहाँ उपलब्ध है। अब दोनों स्त्री-पुरुष साथ रहने को चले जाते हैं। इसी को नाता करना कहते हैं। इन स्त्री-पुरुषों के साथ इन के कुछ परिजन साथ होते हैं।
बाद में जब पति को इस की जानकारी होती है तो वह अपनी पत्नी के परिजनों को साथ लेकर उस पुरुष के घर जाते हैं जहाँ वह स्त्री रहने गई है और झगड़ा करते हैं। इस झगड़े का निपटारा पंचायत में होता है।  जिस पुरुष के साथ रहने को वह स्त्री जाती है वह उस स्त्री  के पति को  पंचायत द्वारा निर्धारित राशि मुआवजे के बतौर दे देता है। 
न्य पिछड़ा वर्ग की जातियों में नाता बहुत कम होता है लेकिन इन जातियों में इसे गलत दृष्टि से नहीं देखा जाता। इस तरह भारत की 85 प्रतिशत हिन्दू जनसंख्या में से लगभग 15 से 20 % को छोड़ कर शेष  65-70 % जनसंख्या में विवाह के कानूनी और शास्त्रीय रूप के अलावा अन्य रूप प्रचलित हैं और समाज ने उन्हें एक निचले दर्जे के संबंध के रूप में ही सही पर मान्यता दे रखी है। विवाह के इन रूपों में समय के साथ परिवर्तन भी होते रहे हैं। लिव-इन-रिलेशन को ले कर इन जातियों में कोई चिंता नहीं दिखाई देती है। जितनी भी चिंता दिखाई देती है या अभिव्यक्त की जा रही है वह केवल इस 15-20% जनता में से ही अभिव्यक्त की जा रही है। लिव-इन-रिलेशन को ले कर भी चिंता अधिक इसी बात की है कि इस संबंध से उत्पन्न होने वाली संतानों के क्या अधिकार होंगे।  
कानून में कभी भी बिना विवाह किए स्वतंत्र स्त्री-पुरुष के संबंध को अपराधिक नहीं माना गया है। आज के मानवाधिकार के युग में इसे अपराधिक कृत्य ठहराया जाना संभव भी नहीं है। सरकार की स्थिति ऐसी है कि वह वर्तमान वैवाहिक विवादों के तत्परता के हल के लिए पर्याप्त न्यायालय स्थापित करने में अक्षम रही है। मेरा तो यह कहना भी है कि वैवाहिक विवादों के हल होने में लगने वाला लंबा समय भी लिव-इन-रिलेशन को बढ़ावा देने के लिए एक हद तक जिम्मेदार है। ऐसे में यही अच्छा होगा कि लिव-इन-रिलेशन अथवा विवाह के अतिरिक्त नाता जैसे संबंधों से उत्पन्न होने वाली संतानों के प्रति उन के जन्मदाताओं के दायित्व और इन संतानों के अधिकार कानून द्वारा निश्चित किए जाने आवश्यक हैं।

सोमवार, 29 मार्च 2010

लिव-इन-रिलेशनशिप को शीघ्र ही कानून के दायरे में लाना ही होगा

नवरत पर पिछली पोस्ट में शकुन्तला और दुष्यंत की कहानी प्रस्तुत करते हुए यह पूछा गया था कि उन दोनों के मध्य कौन सा रिश्ता था? मैं  ने यह भी कहा था कि भारतीय पौराणिक साहित्य में  शकुन्तला और दुष्यंत के संबंध को गंधर्व विवाह की संज्ञा दी गई है। मेरा प्रश्न यह भी था कि क्या लिव-इन-रिलेशनशिप गंधर्व विवाह नहीं है? इस पोस्ट पर पाठकों ने अपनी शंकाएँ, जिज्ञासाएँ और कतिपय आपत्तियाँ प्रकट की हैं। अधिकांश ने लिव-इन-रिलेशनशिप को गंधर्व विवाह मानने से इन्कार कर दिया। उन्हों ने गंधर्व विवाह को आधुनिक प्रेम-विवाह के समकक्ष माना है। सुरेश चिपलूनकर जी को यह आपत्ति है कि हिन्दू पौराणिक साहित्य से ही उदाहरण क्यों लिए जा रहे हैं?  इस तरह तो कल से पौराणिक पात्रों को ....... संज्ञाएँ दिए जाने का प्रयत्न किया जाएगा। मैं उन संज्ञाओं का उल्लेख नहीं करना चाहता जो उन्हों ने अपनी टिप्पणी में दी हैं। मैं उन्हें उचित भी नहीं समझता। लेकिन इतनी बात जरूर कहना चाहूँगा कि जब मामला भारतीय दंड विधान से जुड़ा हो और हिंदू विवाह अधिनियम  से जुड़ा हो तो सब से पहले हिंदू पौराणिक साहित्य पर ही नजर जाएगी, अन्यत्र नहीं।
पिछले दिनों भारत के न्यायालयों ने जो निर्णय दिए हैं उस से एक बात स्पष्ट हो गई है कि हमारा कानून दो वयस्कों के बीच स्वेच्छा पूर्वक बनाए गए सहवासी रिश्ते को मान्यता नहीं देता, लेकिन उसे अपराधिक भी नहीं मानता, चाहे ये दो वयस्क पुरुष-पुरुष हों, स्त्री-स्त्री हों या फिर स्त्री-पुरुष हों। इस से यह बात  भी स्पष्ट हो गई है  कि इस तरह के रिश्तों के कारण एक दूसरे के प्रति जो दीवानी कानूनी दायित्व और अधिकार उत्पन्न नहीं हो सकते। कानून की मान्यता न होने पर भी इस तरह के रिश्ते सदैव से मौजूद रहे हैं। परेशानी का कारण यह  है कि समाज में इस तरह के रिश्तों का अनुपातः बढ़ रहा है।  अजय कुमार झा ने अपनी पोस्ट लिव इन रिलेशनशिप : फ़ैसले पर एक दृष्टिकोण में बहुत खूबसूरती से अपनी बात को रखा है। लिव-इन-रिलेशनशिप स्त्री-पुरुष के बीच ऐसा संबंध है जिस में दोनों एक दूसरे के प्रति किसी कानूनी दायित्व या अधिकार में नहीं बंधते। जब कि विवाह समाज विकास के एक स्तर पर विकसित हुआ है, जो पति-पत्नी को एक दूसरे के प्रति कानूनी दायित्वों और अधिकारों में बांधता है। जहाँ तक पितृत्व का प्रश्न है वह तो लिव-इन-रिलेशन में भी रहता है और संतान के प्रति दायित्व और अधिकार भी बने रहते हैं। इस युग में जब कि डीएनए तकनीक उपलब्ध है कोई भी पुरुष अपनी संतान को अपनी मानने से इंन्कार नहीं कर सकता।
म इतिहास में जाएंगे तो भारत में ही नहीं दुनिया भर में विवाह का स्वरूप हमेशा एक जैसा नहीं रहा है। 1955 के पहले तक हिन्दू विवाह में एक पत्नित्व औऱ विवाह विच्छेद अनुपस्थित थे। यह अभी बहुत पुरानी बात नहीं है जब दोनों पक्षों की सहमति से वैवाहिक संबंध विच्छेद हिन्दू विवाह अधिनियम में सम्मिलित किया गया है। भारत में जिन आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख मिलता है। वस्तुतः वे सभी विवाह हैं भी नहीं। स्त्री-पुरुष के बीच कोई भी ऐसा संबंध जिस के फलस्वरूप संतान उत्पन्न हो सकती है उसे विवाह मानते हुए उन्हें आठ विभागों में बांटा गया। जिन में से चार को समाज और राज्य ने कानूनी मान्यता दी और शेष चार को नहीं। गंधर्व विवाह में सामाजिक मान्यता, समारोह या कर्मकांड अनुपस्थित था। यह स्त्री-पुरुष के मध्य साथ रहने का एक समझौता मात्र था। जिस के फल स्वरूप संतानें उत्पन्न हो सकती थीं। सामाजिक मान्यता न होने के कारण उस से उत्पन्न दायित्वों और अधिकारों का प्रवर्तन भी संभव नहीं था। मौजूदा हिन्दू विवाह अधिनियम इस तरह के गंधर्व विवाह को विवाह की मान्यता नहीं देता है। 
लिव-इन-रिलेशन भी अपने अनेक रूपों के माध्यम से भारत में ही नहीं विश्व भर में मौजूद रहा है लेकिन आटे में नमक के बराबर। समाज व राज्य ने उस का कानूनी प्रसंज्ञान कभी नहीं लिया। नई परिस्थितियों में इन संबंधों का अनुपात कुछ बढ़ा है। इस का सीधा अर्थ यह है कि विवाह का वर्तमान कानूनी रूप समकालीन समाज की आवश्यकताओं के लिए अपर्याप्त सिद्ध हो रहा है। कहीं न कहीं वह किसी तरह मनुष्य के स्वाभाविक विकास में बाधक बना है। यही कारण है कि नए रूप सामने आ रहे हैं। जरूरत तो इस बात की है कि विवाह के वर्तमान कानूनों और वैवाहिक विवादों को हल करने वाली मशीनरी पर पुनर्विचार हो कि कहाँ वह स्वाभाविक जीवन जीने और उस के विकास में बाधक बन रहे हैं?  इन कारणों का पता लगाया जा कर उन का समाधान किया जा सकता है। यदि एक निश्चित अवधि तक लिव-इन-रिलेशन में रहने वाले स्त्री-पुरुषों के दायित्वों और अधिकारों  को नि्र्धारित करने वाला कानून भी बनाया जा सकता है। जो अभी नहीं तो कुछ समय बाद बनाना ही पड़ेगा। यदि इस संबंध में रहने वाले स्त्री-पुरुष आपसी दायित्वों और अधिकारों के बंधन में नहीं बंधना चाहते तो कोई बाद नहीं क्यों कि वे वयस्क हैं। लेकिन इन संबंधों से उत्पन्न होने वाले बच्चों के संबंध में तो कानून तुरंत ही लाना आवश्यक है। आखिर बच्चे केवल उन के माता-पिता की नहीं समाज और देश की निधि होते हैं।

रविवार, 28 मार्च 2010

दुष्यंत और शंकुन्तला के बीच कौन सा संबंध था?

हाभारत संस्कृत भाषा का महत्वपूर्ण महाकाव्य (धर्मग्रंथ नहीं)। हालांकि महत्वपूर्ण धर्म ग्रंथ का स्थान ग्रहण कर चुकी श्रीमद्भगवद्गीता इसी महाकाव्य का एक भाग है। महाभारत बहुत सी कथाओं से भरा पड़ा है। इन्हीं में एक कथा आप सभी को अवश्य स्मरण होगी। यदि नहीं तो आप यहाँ इसे पढ़ कर अपनी स्मृति को ताजा कर कर लें .....
"हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत आखेट के लिए वन में गये। उसी वन में कण्व ऋषि का आश्रम था। ऋषि के दर्शन के लिये महाराज दुष्यंत उनके आश्रम पहुँचे। पुकार लगाने पर एक अति लावण्यमयी कन्या ने आश्रम से निकल कर कहा, “हे राजन्! महर्षि तो तीर्थ यात्रा पर गये हैं, किन्तु आपका इस आश्रम में स्वागत है।” उस कन्या को देख कर महाराज दुष्यंत ने पूछा, “बालिके! आप कौन हैं?” बालिका ने कहा, “मेरा नाम शकुन्तला है और मैं कण्व ऋषि की पुत्री हूँ।” उस कन्या की बात सुन कर महाराज दुष्यंत आश्चर्यचकित होकर बोले, “महर्षि तो आजन्म ब्रह्मचारी हैं फिर आप उनकी पुत्री कैसे हईं?” उनके इस प्रश्न के उत्तर में शकुन्तला ने कहा, “वास्तव में मैं मेनका और विश्वामित्र क पुत्री हूँ। मेरी माता ने मुझे जन्मते ही वन में छोड़ दिया था जहाँ शकुन्त  पक्षी ने मेरी रक्षा की। बाद में ऋषि की दृष्टि मुझ पर पड़ी तो वे मुझे अपने आश्रम में ले आये। उन्होंने ही मेरा भरण-पोषण किया। जन्म देने वाला, पोषण करने वाला तथा अन्न देने वाला – ये तीनों ही पिता कहे जाते हैं। इस प्रकार कण्व ऋषि मेरे पिता हुये।”
कुन्तला के वचनों को सुनकर महाराज दुष्यंत ने कहा, “शकुन्तले! तुम क्षत्रिय कन्या हो। तुम्हारे सौन्दर्य को देख कर मैं अपना हृदय तुम्हें अर्पित कर चुका हूँ। यदि तुम्हें किसी प्रकार की आपत्ति न हो तो मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ।” शकुन्तला भी महाराज दुष्यंत पर मोहित हो चुकी थी, अतः उसने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। दोनों नें गन्धर्व विवाह कर लिया। कुछ काल महाराज दुष्यंत ने शकुन्तला के साथ विहार करते हुये वन में ही व्यतीत किया। फिर एक दिन वे शकुन्तला से बोले, “प्रियतमे! मुझे अब अपना राजकार्य देखने के लिये हस्तिनापुर प्रस्थान करना होगा। महर्षि कण्व के तीर्थ यात्रा से लौट आने पर मैं तुम्हें यहाँ से विदा करा कर अपने राजभवन में ले जाउँगा।” इतना कहकर महाराज ने शकुन्तला को अपने प्रेम के प्रतीक के रूप में अपनी स्वर्ण मुद्रिका दी और हस्तिनापुर चले गये। 
क दिन उसके आश्रम में दुर्वासा ऋषि पधारे। महाराज दुष्यंत के विरह में लीन होने के कारण शकुन्तला को उनके आगमन का ज्ञान भी नहीं हुआ और उसने दुर्वासा ऋषि का यथोचित स्वागत सत्कार नहीं किया। दुर्वासा ऋषि ने इसे अपना अपमान समझा और क्रोधित हो कर बोले, “बालिके! मैं तुझे शाप देता हूँ कि जिस किसी के ध्यान में लीन होकर तूने मेरा निरादर किया है, वह तुझे भूल जायेगा।” दुर्वासा ऋषि के शाप को सुन कर शकुन्तला का ध्यान टूटा और वह उनके चरणों में गिर कर क्षमा प्रार्थना करने लगी। शकुन्तला के क्षमा प्रार्थना से द्रवित हो कर दुर्वासा ऋषि ने कहा, “अच्छा यदि तेरे पास उसका कोई प्रेम चिन्ह होगा तो उस चिन्ह को देख उसे तेरी स्मृति हो आयेगी।”
दुष्यंत के सहवास से शकुन्तला गर्भवती हो गई थी। कुछ काल पश्चात् कण्व ऋषि तीर्थ यात्रा से लौटे तब शकुन्तला ने उन्हें महाराज दुष्यंत के साथ अपने गन्धर्व विवाह के विषय में बताया। इस पर महर्षि कण्व ने कहा, “पुत्री! विवाहित कन्या का पिता के घर में रहना उचित नहीं है। अब तेरे पति का घर ही तेरा घर है।” इतना कह कर महर्षि ने शकुन्तला को अपने शिष्यों के साथ हस्तिनापुर भिजवा दिया। मार्ग में एक सरोवर में आचमन करते समय महाराज दुष्यंत की दी हुई शकुन्तला की अँगूठी, जो कि प्रेम चिन्ह थी, सरोवर में ही गिर गई। उस अँगूठी को एक मछली निगल गई।
दुष्यंत के पास पहुँच कर कण्व ऋषि के शिष्यों ने शकुन्तला को उनके सामने खड़ी कर के कहा, “महाराज! शकुन्तला आपकी पत्नी है, आप इसे स्वीकार करें।” महाराज तो दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण शकुन्तला को विस्मृत कर चुके थे। अतः उन्होंने शकुन्तला को स्वीकार नहीं किया और उस पर कुलटा होने का लाँछन लगाने लगे। शकुन्तला का अपमान होते ही आकाश में जोरों की बिजली कड़क उठी और सब के सामने उसकी माता मेनका उसे उठा ले गई।
जिस मछली ने शकुन्तला की अँगूठी को निगल लिया था, एक दिन वह एक मछुआरे के जाल में आ फँसी। जब मछुआरे ने उसे काटा तो उसके पेट अँगूठी निकली। मछुआरे ने उस अँगूठी को महाराज दुष्यंत के पास भेंट के रूप में भेज दिया। अँगूठी को देखते ही महाराज को शकुन्तला का स्मरण हो आया और वे अपने कृत्य पर पश्चाताप करने लगे। महाराज ने शकुन्तला को बहुत ढुँढवाया किन्तु उसका पता नहीं चला।
कुछ दिनों के बाद देवराज इन्द्र के निमन्त्रण पाकर देवासुर संग्राम में उनकी सहायता करने के लिये महाराज दुष्यंत इन्द्र की नगरी अमरावती गये। संग्राम में विजय प्राप्त करने के पश्चात् जब वे आकाश मार्ग से हस्तिनापुर लौट रहे थे तो मार्ग में उन्हें कश्यप ऋषि का आश्रम दृष्टिगत हुआ। उनके दर्शनों के लिये वे वहाँ रुक गये। आश्रम में एक सुन्दर बालक एक भयंकर सिंह के साथ खेल रहा था। मेनका ने शकुन्तला को कश्यप ऋषि के पास लाकर छोड़ा था तथा वह बालक शकुन्तला का ही पुत्र था। उस बालक को देख कर महाराज के हृदय में प्रेम की भावना उमड़ पड़ी। वे उसे गोद में उठाने के लिये आगे बढ़े तो शकुन्तला की सखी चिल्ला उठी, “हे भद्र पुरुष! आप इस बालक को न छुयें अन्यथा उसकी भुजा में बँधा काला डोरा साँप बन कर आपको डस लेगा।” यह सुन कर भी दुष्यंत स्वयं को न रोक सके और बालक को अपने गोद में उठा लिया। अब सखी ने आश्चर्य से देखा कि बालक के भुजा में बँधा काला गंडा पृथ्वी पर गिर गया है। सखी को ज्ञात था कि बालक को जब कभी भी उसका पिता अपने गोद में लेगा वह काला डोरा पृथ्वी पर गिर जायेगा। सखी ने प्रसन्न हो कर समस्त वृतान्त शकुन्तला को सुनाया। शकुन्तला महाराज दुष्यंत के पास आई। महाराज ने शकुन्तला को पहचान लिया। उन्होंने अपने कृत्य के लिये शकुन्तला से क्षमा प्रार्थना की और कश्यप ऋषि की आज्ञा लेकर उसे अपने पुत्र सहित अपने साथ हस्तिनापुर ले आये।
हाराज दुष्यंत और शकुन्तला के इस पुत्र का नाम भरत था। बाद में वे भरत महान प्रतापी सम्राट बने और उन्हीं के नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष हुआ।
ति कथाः।  क्या यह गंधर्व विवाह "लिव-इन-रिलेशनशिप" नहीं है? यदि है, तो उसे कोसा क्यों जा रहा है? आखिर हमारे देश का नाम उसी संबंध से उत्पन्न व्यक्ति के नाम पर पड़ा है। कैसे कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति को 'लिव-इन-रिलेशनशिप' से खतरा है?

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

मत चूके चौहान !!!

ज कल अदालतों के निर्णय बहुत चर्चा में हैं। अभी-अभी लिव-इन-रिलेशन के संबंध में आया निर्णय खूब उछाला जा रहा है। टीवी चैनलों की तो पौ-बारह हो गई है। एक-दो कौपीन और दाढ़ी वाले पकड़े कि  हो गया अच्छा खासा तमाशा। ऐसा मौका मिल जाए तो फिर क्या है? जो चूके वो चौहान नहीं। मौका बार-बार थोड़े ही मिलता है। वैसे मौका मिलने की थियरी अब पुरानी हो चुकी है। अब मौके का इंतजार नहीं किया जाता , उसे  झपट लिया जाता है। झपट्टा मारने के खेल में मीडिया का कोई जवाब नहीं है। जैसे अर्जुन को मछली की आँख में तीर मारना होता था तो उसे सिर्फ उस की आँख दिखती थी, बाकी सब कुछ दिखना बंद हो जाता था। बोलिए फिर निशाना गलत कैसे हो। हमारी पत्रकार बिरादरी में कोई अर्जुनों की कमी है?
भारत सरकार खिलाड़ियों को अर्जुन पुरस्कार दे कर कोई अकल वाला काम नहीं कर रही है। वास्तव में यह नाम तो मीडिया कर्मियों के लिए बुक कर दिया जाना चाहिए था। फैसला सुप्रीम कोर्ट का हो या हाईकोर्ट का ,या फिर किसी जिला या निचली अदालत का। उन्हें फैसलों में सिर्फ अपने काम की बात दिखाई देती हैं। बाकी  की पंक्तियाँ  औझल हो जाती हैं। अब ऐसे कर्मवीरों को छो़ड़ भारत सरकार खिलाड़ियों को अर्जुन पुरस्कार  बांट रही है।  खिलाड़ियों को  ये पुरस्कार देने से क्या लाभ? वैसे भी अर्जुन तीरंदाज भले ही हो, खिलाड़ी बिलकुल न था। अवसर होता था तो फाउल खेलता था। शिखंडी को आगे कर के पितामह के हथियार डलवा दिए और निपटा दिया। ऐसा कोई मीडिया कर्मी ही कर सकता था और कोई नहीं।
ब मीडियाकर्मी जानते हैं कि नहीं यह तो मुझे पता नहीं कि अदालतें सिर्फ कानून के मुताबिक फैसले देती हैं। उन्हें कानून बनाने का अधिकार नहीं। अब अदालत बोले कि अविवाहित या विवाह के बंधन से बाहर के बालिग स्त्री-पुरुष या पुरुष-पुरुष या स्त्री-स्त्री साथ रहें तो यह अपराध नहीं। इस में अदालत ने क्या गलत कहा? उन्हों ने तो अपराधिक कानूनों के मुताबिक इस बात को जाँचा और अपना फैसला लिख दिया। यह तय करना उन का काम नहीं कि कानून क्या हो। हाँ वे यह जरूर कह सकते हैं कि क्या कानून नहीं हो सकता? वो भी संविधान पढ़ कर।  कानून बनाना संसद या विधानसभा का काम ठहरा। कौन सा कृत्य या अकृत्य अपराध होगा? औरकौन सा  नहीं? पर अजीब रवायत है इस देश की कि संसद और विधानसभाओं में बैठ कर कानूनों पर मुहर लगाने वाले अदालत के फैसलों पर टिप्पणी करने से कभी नहीं चूकते। उन में चौहानवंशियों की कमी थोड़े ही है। जब कानून बन रहा होता है तो तो वे संसद और विधानसभा से नदारद होते हैं और होते हैं तो नींद निकाल रहे होते हैं।  अदालत के  फैसले के बहाने संस्कृति का रक्षक बनने का अवसर मिले  चौहान कभी नहीं चूकता।
 पुरुषों की बिरादरी भी कम नहीं, वो ब्लागर हों या लेखक, क्या फर्क पड़ता है? बस पुरुष होने चाहिए। जब सब बोलने में पीछे नहीं हट रहे हों तो ये क्यो चूकें, लिखने और टिपियाने से? शादी पर लानत भेजने से न चूके। ये बताने से न चूके कि यदि जीवन  में सब से बड़ी मूर्खता कोई है तो वो शादी है।  मूर्खता भी बला की खूबसूरत, ऐसी कि जो कर पाए सो भी पछताए और जो न करे वो भी पछताए। जिस जिस ने कर ली वो भुगत रहा है। रोज मर्दाने में जा कर अपनी व्यथा-कथा सुना आता है। अदालत का फैसलाआता है कि बिना ये किए भी साथ रहा जाए तो कोई जुर्म नहीं। तो पीड़ा से कराह उठता है, लगता है किसी ने दुखती रगों को छेड़ दिया है। अंग-अंग दुख ने लगता है। मन ही मन सोचता है हाय! ये फैसला पहले क्यूँ न आया? कम से कम जिन्दगी की सब से बड़ी मूर्खता से तो बच जाता। वह सोचते सोचते बेहोस हो लेता है। फिर जैसे ही तनिक होश आता है, सोचता है यहे बात मुहँ से न निकले। कह दी तो मर्दानगी पर सवाल खड़ा हो जाएगा। उसे भगवान के दर्शनार्थ नकटे हुए लोगों का किस्सा याद आने लगता है। वह कहने, लिखने और ब्लागियाने लगता है -अदालत ने संस्कृति पर बहुत बड़ा हमला कर दिया है। चाहे वह अपराध न हो, पर इस से भगवान तो नहीं दिखता। उस के लिए तो नाक कटाना जरूरी है।

बुधवार, 9 दिसंबर 2009

दुल्हन ले आए, ताऊ-ताई को छोड़ आए




भारतीय विवाह एक बहुत जटिल और संष्लिष्ट समारोह है। इस में बहुत से सूत्र इस तरह एक दूसरे से गुंथे होते हैं कि अनेक गुत्थियों को समझना बहुत कठिन होता है। एक मित्र के पुत्र का विवाह था। मित्र के पिता तो बहुत वर्ष पहले गुजर गए। मित्र के काका अभी मौजूद हैं। हालांकि वृद्ध हो चुके हैं। मित्र जब भी गांव जाता हमेशा उन से कहता कि बेटे की शादी है, काकाजी आप को उस की बारात में चलना है।  शादी में काका जी दो दिन पहले ही आ गए। परिवार में सब से बड़ी उम्र के पुरुष। परिवार और मित्र जो भी जिस जिस समारोह में पहुँचा उन से मिल कर प्रसन्न होता। वे अधिक चल फिर नहीं रहे थे, लेकिन वे एक स्थान पर बैठे सब का अभिवादन स्वीकार करते और आशीर्वाद देते। 

बारात 350 किलोमीटर बसों से जानी थी। कुछ कारें भी साथ थीं। दस घंटे जाने का सफर और इतना ही आने का भी। और करीब बारह से चौदह घंटे का ठहराव. काका जी की अवस्था देख मित्र के मन में आया कि उन्हें बारात में बहुत कष्ट होगा। उन्हें आराम न मिलेगा, कहीं सर्दी में उन का स्वास्थ्य खराब न हो जाए। मित्र ने उन से अपने मन की बात कह दी। वे नाराज हो गए। कहने लगे मेरे पहले पोते का ब्याह है औऱ मैं ही न जाऊँ बारात में यह कैसे हो सकता है। कुछ देर बाद मैं पहुँचा तो मित्र ने बताया कि काकाजी मान नहीं रहे हैं। उन से बारात के कष्ट बता कर न जाने को कहा तो नाराज हो गए, बोल ही नहीं रहे हैं। मैं ने कहा सही बात है, उन्हें नहीं ले जाओगे तो बारात का क्या आनंद होगा। उन की तीन बेटियाँ, दामाद, एक बेटा-बहू साथ जा रहे हैं सब संभाल लेंगे। तुम उन से जा कर कहो कि मैं तो मजाक कर रहा थाष आप के बिना कोई बारात कैसे जा सकती है। यह बात मित्र ने कही तो काका जी खुश हो गए और बारात में गए और सकुशल वापस भी लौट आए। एक जरा सी बात ने काकाजी को नाराज किया और शादी में कुछ घंटों के लिए ही सही प्रसन्नता के स्थान पर अवसाद आ गया था वह दूर हो गया।

बारात जिस दिन जाना था उस से पहली रात मेरा हाजमा खराब हो गया। रात को अम्लता ने बहुत कष्ट दिया। मैं किसी तरह बारात में जाने से बच गया था। आज जब दुल्हन के लिए आशीर्वाद समारोह में पहुँचा तो वहाँ एक और विचित्र घटना पता लगी। बारात की एक बस रात को 12 बजे ही रवाना हो गई और करीब आधे बाराती उस से वापस रवाना हो गए। चार घंटे बाद जब दुल्हन की विदाई हुई तो बारात की फाइनल खेप वहाँ से रवाना हुई। दुल्हे के ताऊ भाँवर के बाद आ कर होटल के कमरे में कुछ आराम करने के लिए लेटे और उन्हें नींद लग गई। उसी कमरे में कुछ देर बाद ताई वहाँ आई तो बिस्तर खाली देख वह भी कुछ देर आराम के लिए लेट गई। होटल में और कोई बाराती था नहीं, तो उन्हों ने कमरे को अंदर से बंद कर दिया। बारात की दूसरी बस रवाना हो गई और ताऊ-ताई सोते रह गए। जब बस आधी दूर आ गई होटल वालों ने कमरे संभालना आरंभ किया तो एक कमरा बंद पाया। ताऊ-ताई को जगा कर कमरा खुलवाया गया। बारात को मोबाइल से खबर भेजी गई। ताऊ-ताई को दुल्हन के पिता ने बस में बिठा कर विदा किया। वे सकुशल वापस पहुँच भी गए। पर नाराज तो वे हो ही गए थे कि आखिर बारात उन्हें छोड़ कर कैसे आ गई। वे गुस्से के मारे या लज्जा के कारण आशीर्वाद समारोह में नहीं आए। अब उन्हें मनाने में मित्र को कई महिने लगेंगे, हो सकता है साल भी लगें। मुझे ही जा कर मनाना होगा। वैसे ताऊ-ताई थोड़ा साहस जुटाते और आशीर्वाद समारोह में इस विचित्र दुर्घटना का आंनंद ले कर शामिल होते तो समारोह का आनंद कुछ और ही होता।

स दूल्हे के पिता और बारात व्यवस्थापक यदि बारात की फाइनल खेप रवाना होते समय होटल के कमरे ठीक से चैक कर लेते तो यह घटना नहीं होती। उन की इस एक गलती ने समारोह का मजा खराब कर दिया। हालांकि पुराने जमाने की शादियाँ इसी तरह की विचित्र घटनाओं के लिए अविस्मरणीय बन जाती थीं और बार बार स्मरण की जाती हैं।

मंगलवार, 9 जून 2009

जुगाड़ स्कूल -बस और शादी से वापसी

राजस्थान के  कोटा संभाग के बाराँ जिले का कस्बा अंता है जहाँ के हाट के चित्र आप ने कल देखे।  राष्ट्रीय राजमार्ग 76 पर कोटा से बाराँ-शिवपुरी की ओर चलने पर 45 किलोमीटर पर कालीसिंध नदी पार करने के चार किलोमीटरबाद यह कस्बा पड़ेगा।  राजस्थान का कोटा संभाग विद्युत उत्पादन में प्रमुख है यहाँ विद्युत उत्पादन का हर तरीका अपनाया जा रहा है।  रावतभाटा का परमाणु बिजलीघर चित्तौड़ जिले में है, लेकिन कोटा से 50 किलोमीटर पर स्थित होने से उस का जुड़ाव कोटा से अधिक और चित्तौड़गढ़ से कम है। जवाहर सागर में पनबिजलीघर है तो कोटा में कोयले से चलने वाले ताप बिजलीघर की सात इकाइयाँ स्थित हैं। अभी छबड़ा में एक इकाई और स्थापित की जा रही है।  राष्ट्रीय ताप विद्युत निगम (एनटीपीसी) का एक बिजलीघर  इसी अंता कस्बे से मात्र चार किलोमीटर दूर स्थित है।  कस्बे से दूर होने और सीधे कोटा से जुड़ाव के कारण इस बिजलीघर ने अंता कस्बे के विकास को विशेष प्रभावित नहीं किया।  लेकिन शिक्षा के प्रति रुचि का विकास अवश्य हुआ है।  15000 आबादी के इस कस्बे में अनेक निजि विद्यालय हैं। कुछ बहुत संपन्न तो कुछ विकास की अवस्था में हैं।

इन्हीं विद्यालयों में से एक श्रीनाथ शिक्षण संस्थान उसी धर्मशाला में संचालित होता है जिस में कल विवाह के भोजन की व्यवस्था थी।  कल आप ने भोजन के भंडार और रसोई के चित्र देखे थे।  हमने इसी धर्मशाला के बरांडों में बैठ कर भोजन किया।

भोजनोपरांत लोग सुस्ताने के लिए या तो कमरों में लगे कूलरों की शरण हो गए। वहाँ स्थान न रहने पर नीम के पेड़ों के नीचे गपशप में लीन हो गए। 

वहीं हमें इस जुगाड़ स्कूल-बस के दर्शन हुए।  ऐसी स्कूल बस जिस का कहीं कोई पंजीकरण नहीं। यह भी जरूरी नहीं कि उसे कोई लायसेंसधारी चालक चला रहा होगा।  विद्यालय को समुचित शुल्क देने वाले माता-पिता इस वाहन में अपने बच्चों को विद्यालय भेज रहे हैं।  फिलहाल विद्यालय गर्मी की छुट्टियों में बंद हैं और यह विद्यालय वाहन भी यार्ड में खड़ा है।  कोई इसे न छेड़े इस के लिए ड्राइवर सीट और सवारियों के बैठने के स्थान पर करीर के कांटों वाले झाड़ रख दिए गए हैं।  हाँ, इतना जरूर सोचा जा सकता है कि इस में बैठने वाले बच्चे अवश्य ही तमाम खतरों से अनजान इस अनोखे वाहन का आनंद अवश्य लेते होंगे।

 
 दूल्हे के नाना-मामा अपने पूरे परिवार सहित (माहेरा) ले कर आए थे।  
 
 
 
 
उन्हों ने अपनी बेटी को इस अवसर पर सुहाग के सब चिन्ह, चूनरी, गहने और कपड़े उपहार में दिए।  साथ ही बेटी के पूरे परिवार को भी कपड़े भेंट किए।  

हमारे मेजबान
 
दूल्हे के अध्यापक पिता

दूल्हे के चाचा और मेरे साढ़ू भाई

............... और इन से मिलना तो रह ही गया 
ये हैं दूल्हे मियाँ,  कम्प्यूटर प्रशिक्षक


चलते-चलते रात हो गई, कुछ देर बिजली भी चली गई

तब झाँका नीम के पीछे से चंदा, जैसे झाँकी हो दुलहिन......

सोमवार, 8 जून 2009

विवाह का मंडल, दोपहर का भोजन और साप्ताहिक हाट बाजार

घर से निकलते निकलते ग्यारह बज गए। रास्ते में पेट्रोल लिया, टायरों में हवा पूरी ली और चल दिए। कुल पचपन किलोमीटर, पौन घंटे में पहुँच लिए।  ब्याह वाले घर में मंडल का कार्यक्रम चल रहा था।  इसी के लिए तो हमारा आना निहायत जरूरी था। वधू के घर भांवर के एक दिन पहले या उसी दिन सुबह और वर के घऱ बारात रवाना होने के दिन या एक दिन पहले मंडल होता है। घर के चौक में मंडप बनाया जाता है जिस के नीचे बैठ कर वर या वधू जो भी हो उस के माता-पिता,और परिवार के सभी युगल सदस्य पूजा और हवन करते हैं। पूजा की समाप्ति पर परिवार की सभी बहुओं के नैहर के रिश्तेदार उन्हें कपड़े उपहार में देते हैं।   इस परंपरा का कारण तो पता नहीं पर शायद यह रहा हो कि कपड़े उपहार में देने के दायित्व के कारण अधिक से अधिक लोग विवाह में उपस्थित हों और विवाह की सामाजिकता बनी रहे।  एक लाभ और यह होता है कि बहुत सारे संबंधी जो बहुत दिनों से नहीं मिले होते हैं, यहां मिलने का अवसर पा जाते है और कुछ समय साथ बिता लेते हैं।

अब हमारी साली साहिबा, शोभा की छोटी बहिन वर की चाची थी। शोभा का उसे और दूल्हे को यह उपहार समय पर देना था  इस लिए हमारा मंडल के समापन के पहले पहुँचना आवश्यक था।   खैर, मंडल सम्पन्न होते ही सब को भोजन के लिए कहा गया। उस के लिए फर्लांग भर दूर स्थित एक धर्मशाला जाना था।  हम चल दिए। रास्ते में साप्ताहिक हाट लगी थी।  मुझे छोटे कस्बे की साप्ताहिक हाट देखे बहुत दिन हो गए थे।  मैं उसे निहारता चला।

हाट बाजार

धर्मशाला बनाम स्कूल

कच्चे-पक्के माल का भंडार

और भंडारी बने साले साहब

धर्मशाला एक बगीची जैसे स्थान में बनी थी। बहुत खुला स्थान था।  इमारत में तीन बड़े-कमरे थे। पास में शौचालय और स्नानघऱ थे। अनवरत पानी के लिए टंकियाँ रखी गई थीं। इमारत पर धर्मशाला और विद्यालय दोनों के नाम प्रमुखता से लिखे थे।  इमारत दोनों कामों में आती थी।   इमारत के एक और खुले स्थान में तंबू तान कर पाक शाला बना दी गई थी।  वहाँ शाम के लिए सब्जियाँ बनाई जा रही थीं और दोपहर के भोजन के लिए गरम गरम पूरियां तली जा रही थीं।  एक बड़े कमरे को भोजन का भंडार बना दिया गया था।  जिस में भोजन बनाने का कच्चा माल और तैयार भोजन सामग्री का संग्रह था।  मेरे बड़े साले साहब वहाँ जिम्मेदारी से ड्यूटी कर रहे थे।  बीच बीच में साढ़ू भाई आ कर संभाल जाते थे।  सुबह नाश्ता किया था, भूख अधिक नहीं थी। फिर भी सब के साथ मामूली भोजन किया। कच्चे आम की लौंजी बहुत स्वादिष्ट बनी थी।  दो दोने भर वह खाई। गर्मी के मौसम में पेट को भला रखने के लिए उस से अच्छा साधन नहीं था। 

 
 शाम की सब्जी की तैयारी के लिए कद्दू के टुकड़े

गर्म-गर्म पूरियाँ तली जा रही हैं
भोजन के घंटे भर बाद इसी धर्मशाला में वर के ननिहाल से आए लोगों द्वारा भात (माहेरा) पहनाने का कार्यक्रम था।  भोजन कर लोग वहीं  सुस्ताने लगे। हम साले साहब को भंडार से मुक्ति दिलवा कर बाजार ले चले कॉफी पिलवाने के बहाने।  हमें हाट जो देखनी थी। रास्ते में एक मुवक्किल मिल गए, वे हमें चाय की दुकान ले गए और बहुत शौक से न केवल कॉफी पिलाई, ऊपर से पान भी खिलाया।  वापसी में हमने हाट देखी और चित्र भी लिए। लीजिए आप खुद देख लें हाट की कुछ बानगियाँ।


 
प्याज और अचार के लिए कच्चे आम खरीदें, अच्छे हैं, पर जरा महंगे हैं 

 
 आंधी में झड़े कच्चे आम, सस्ते हैं, बस पाँच रुपए प्रति किलोग्राम

  
 और अचार के लिए मसाला यहाँ से खरीद लें
 
कच्चे आम को काटना भी तो होगा, कैरी कट्टा यहाँ लुहारियों से खरीद लें 

   मीठे के लिए गुड़ और तीखे के लिए हरी मिर्च भी तो चाहिए

 
 विकलांग होने का खतरा मत उठाइए, जरा शंकर जी के वाहन नन्दी से बचिए 

 
घर की सुरक्षा के लिए ताला लेना न भूलें

शादी में आई हैं तो नई काँच की चूड़ियाँ तो पहन लें
यह बहुत नहीं हो गया?                                                                          शेष अगली किस्त में.......