कल के आलेख बेरोजगारी से लड़ने का उद्यम कौन करेगा? में मैं ने बताने की कोशिश की थी कि एक ओर लोग सेवाओं के लिए परेशान हैं और दूसरी ओर बेरोजगारों के झुंड हैं तो बच्चे और महिलाएँ भिखारियों में तब्दील हो रहे हैं। कुल मिला कर बात इतनी थी कि इन सब के बीच की खाई कैसे पूरी होगी? उद्यमी ( Entrepreneur) तो रातों रात कमाने के लालच वाले धंधों की ओर भाग रहे हैं। सरकार की इस ओर नजर है नहीं। होगी भी तो वह पहले आयोग बनाएगी, फिर उस की रिपोर्ट आएगी। उस के बाद वित्त प्रबंधन और परियोजनाएँ बनेंगी। फिर अफसर उस में अपने लाभ के छेद तलाशेंगे या बनाएंगे। गैरसरकारी संस्थाएँ, कल्याणकारी समाज व समाजवाद का निर्माण करने का दंभ भरने वाले राजनैतिक दलों का इस ओर ध्यान नहीं है।
आलेख पर बाल सुब्रह्मण्यम जी ने अपने अनुभव व्यक्त करते हुए एक हल सुझाया - "जब हम दोनों पति-पत्नी नौकरी करते थे, हमें घर का चौका बर्तन करने, खाना पकाने, बच्चों की देखभाल करने आदि के लिए सहायकों की खूब आवश्यकता रहती थी, पर इन सबके लिए कोई स्थायी व्यवस्था हम नहीं करा पाए। सहायक एक दो साल काम करते फिर किसी न किसी कारण से छोड़ देते, या हम ही उन्हें निकाल देते। मेरे अन्य पड़ोसियों और सहकर्मियों की भी यही समस्या थी। बड़े शहरों के लाखों, करोड़ों मध्यम-वर्गीय परिवारों की भी यही समस्या है। यदि कोई उद्यमी घर का काम करनेवाले लोगों की कंपनी बनाए, जैसे विदेशी कंपनियों के काम के लिए यहां कोल सेंटर बने हुए हैं और बीपीओ केंद्र बने हुए हैं, तो लाखों सामान्य शिक्षा प्राप्त भारतीयों को अच्छी नौकरी मिल सकती है, और मध्यम वर्गीय परिवारों को भी राहत मिल सकती है। इतना ही नहीं, घरेलू कामों के लिए गरीब परिवारों के बच्चों का जो शोषण होता है, वह भी रुक जाएगा। घरेलू नौकरों का शोषण भी रुक जाएगा, क्योंकि इनके पीछे एक बड़ी कंपनी होगी।"
लेकिन बड़ी कंपनी क्यों अपनी पूंजी इस छोटे और अधिक जटिल प्रबंधन वाले धन्धे में लगाए? इतनी पूँजी से वह कोई अधिक मुनाफा कमाने वाला धन्धा क्यों न तलाश करे? बड़ी कंपनियाँ यही कर रही हैं। मेरे नगर में ही नहीं सारे बड़े नगरों में सार्वजनिक परिवहन दुर्दशा का शिकार है। वहाँ सार्वजनिक परिवहन में बड़ी कंपनियाँ आ सकती हैं और परिवहन को नियोजित कर प्रदूषण से भी किसी हद तक मुक्ति दिला सकती हैं। लेकिन वे इस क्षेत्र में क्यों अपनी पूँजी लगाएँगी? इस से भी आगे नगरों व नगरों व नगरों के बीच, नगरों व गाँवों के बीच और राज्यों के बीच परिवहन में बड़ी निजि कंपनियाँ नहीं आ रही हैं। क्यों वे उस में पूँजी लगाएँ? उन्हें चाहिए कम से कम मेनपॉवर नियोजन, न्यूनतम प्रबंधन खर्च और अधिक मुनाफे के धन्धे।
ज्ञानदत्त जी पाण्डेय ने कहा कि एम्पलॉएबिलिटी सब की नहीं है। एक आईआईटीयन बनाने के लिए सरकार कितना खर्च कर रही है? क्या उस से कम खर्चों में साधारण श्रमिकों की एम्पलॉएबिलिटी बढ़ाने को कोई परियोजनाएँ नहीं चलाई जा सकती? पर क्यों चलाएँ? तब तो उन्हें काम देने की भी परियोजना साथ बनानी पड़ेगी। फिर इस से बड़े उद्योगों को सस्ते श्रमिक कैसे मिलेंगे? वे तो तभी तक मिल सकते हैं जब बेरोजगारों की फौज नौकरी पाने के लिए आपस में ही मार-काट मचा रही हो। इस प्रश्न पर कल के आलेख पर बहुत देर से आई समय की टिप्पणी महत्वपूर्ण है। सच तो यह कि आज का यह आलेख उसी टिप्पणी को शेष पाठकों के सामने रखने के लिए लिखा गया। समय की टिप्पणी इस तरह है-
"जब तक समाज के सभी अंगों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु श्रमशक्ति का समुचित नियोजन समाज का साझा उद्देश्य नहीं बनता तब तक यही नियति है।
अधिकतर श्रमशक्ति यूं ही फुटकर रूप से अपनी उपादेयता ढूंढ़ती रहेगी और बदले में न्यूनतम भी नहीं पाने को अभिशप्त रहेगी। दूसरी ओर मुनाफ़ों के उत्पादनों में उद्यमी उनकी एम्प्लॉयेबिलिटी को तौलकर बारगेनिंग के तहत विशेष उपयोगी श्रमशक्ति का व्यक्तिगत हितार्थ सदुपयोग करते रहेंगे।
बहुसंख्या के लिए जरूरी उत्पादन, और मूलभूत सेवाक्षेत्र राम-भरोसे और विशिष्टों हेतु विलासिता के उद्यम, मुनाफ़ा हेतु पूर्ण नियोजित।
अधिकतर पूंजी इन्हीं में, फिर बढता उत्पादन, फिर उपभोक्ताओं की दुनिया भर में तलाश, फिर बाज़ार के लिए उपनिवेशीकरण, फिर युद्ध, फिर भी अतिउत्पादन, फिर मंदी, फिर पूंजी और श्रमशक्ति की छीजत, बेकारी...........उफ़ !
और टेलर (दर्जी) बारह घंटे के बाद भी और श्रम करके ही अपनी आवश्यकताएं पूरी कर पाएगा। लाखों सामान्य शिक्षा प्राप्त श्रमशक्ति के नियोजन की, मध्यम-वर्गीय परिवारों के घरेलू कार्यों के लिए कितनी संभावनाएं हैं। सभी नियमित कार्यों के लिए भी अब तो निम्नतम मजदूरी पर दैनिक वेतन भोगी सप्लाई हो ही रही है, जिनमें आई टी आई, डिप्लोमा भी हैं इंजीनियर भी। नौकरी के लिए ज्यादा लोग एम्प्लॉयेबिलिटी रखेंगे, लालायित रहेंगे तभी ना सस्ता मिल पाएंगे। अभी साला विकसित देशों से काफ़ी कम देने के बाबजूद लाखों के पैकेज देने पडते हैं, ढेर लगा दो एम्प्लॉयेबिलिटी का, फिर देखों हजारों के लिए भी कैसे नाक रगडते हैं। ...............उफ़ !
मार्केट चलेगा, लॉटरियां होंगी, एक संयोग में करोडपति बनाने के नुस्खें होंगे। बिना कुछ किए-दिए, सब-कुछ पाने के सपने होंगे। पैसा कमाना मूल ध्येय होगा और इसलिए कि श्रम नहीं करना पडे, आराम से ज़िंदगी निकले योगा करते हुए। उंची शिक्षा का ध्येय ताकि खूब पैसा मिले और शारीरिक श्रम के छोटे कार्यों में नहीं खपना पडे। और दूसरों में हम मेहनत कर पैसा कमाने की प्रवृत्ति ढूंढेंगे, अब बेचारी कहां मिलेगी। .................उफ़ !
उफ़!...उफ़!.....उफ़!
और क्या कहा जा सकता है?
("मैं समय हूँ" समय का अपना ब्लाग है )
17 टिप्पणियां:
केवल बेरोजगारी से लड़ना ही महत्वपूर्ण नहीं, रोजगार भी ऐसा मिले जहां हमारी आत्मा सहज अनुभव कर सकें, लेकिन हर जगह मामूली तनख्वाह में हरि साडू जैसे छोटे-छोटे तानाशाह बेहिचक अपनी हुकुमत चलाते रहते हैं हमें अपने कौशल का विकास कर इससे लड़ना चाहिए और लोगों को इस हेतु प्रोत्साहित करना चाहिए।
बस अब तो इन्तजार उस पल का है कि कोई तूफान आये और इस सिस्टम में आमूल-चूल
परिवर्तन हो।
'समय' की बात दमदार है । उनकी बात में निहित है कि अनावश्यक चीजो का उत्पादन न हो । जब सेवायें कम से कम आबादी के लिए मुहैय्या की जायेंगी तब बेरोजगारी बढेगी ।
आपने 'समया पर अपनी राय नहीं दी ?
बात में दम है भाई जी!! हल्के में नहीं ली जा सकती!!
स्रोतों से अधिक जनसँख्या होने से यही होता है.
द्विवेदी जी,
औद्योगिक जगत में एक कारखाने से जुड़े होने के नाते उठाये गये सवालों से मैं भी दो-चार होता रहता हूँ। कभी इंटरव्यू को आये या कभी किसी कॉलेज में कैम्पस सिलेक्शन के जाने पर।
सार्थक चिंतन को सबसे बाँटने के लिये साधुवाद। वाकई व्यवस्था में लगी दीमकों को झाड़ बुहार कर एक नयी शुरूआत ही करनी होगी, मैं डॉ. शास्त्री से एकमत हूँ।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
दमदार और तथ्यात्मकता से भरपूर आलेख.
रामराम.
दिनेश जी..आपका आलेख पढ़ा...बल्कि ये कहूँ की लगातार पढ़ रहा हूँ..इस पर आयी गुनीजनों की टिप्प्न्नी भी....मुझे लगता है की समस्या की असली वजह है मुट्ठी भर पूंजीपतियों के हाथों में देश की आर्थिक नीती का संचालन और ऊपर से स्थिति इसलिए भी अधिक दुखदाई है क्यूंकि सरकार न जाने किन अज्ञात कारणों से न तो खुद ही एक संतुलित और समग्र आर्थिक (रोजगार परक ) निति बनाने की पहन करती हैं न ही इन औद्योगिक स्तंभों को प्रेरित और बाध्य करती हैं की वे अपने व्यवसाय को सिर्फ निज लाभ तक सिमित रखें..
यदि कुछ प्रयासों से ..ग्रामीण क्षेत्रों के पुराने ग्रामोद्योग के पुनरूत्थान के लिए कुछ किया भी जाए..उन्हें जैसे तैसे शुरू भी किया जाए और लोग जुड़ भी जाएँ ...तो भी असली समस्या तो उनके लिए बाज़ार तलाशने की है..सरकार तो फिलहाल अपने नवरत्नो और वैश्विक मंदी की आंधी और मंहगाई के प्रवाह से निपटने में ही लगी है....ऐसे में आर्थिक संतुलन या सामान रोजगार की बातें तो कहीं से भी उसके एजेंडे में कहीं भी दिख्याई नहीं देता..
निरीह टिप्पणी:
बात में दम है भाई जी!! हल्के में नहीं ली जा सकती!!
bilkul theek bat likhi hai aapne....
सही कह रहे हैं , हमारी तरफ एक कहावत है कि -आदमी नहीं होत है ,समय होत बलवान .
हम 'समय' के साथ हैं. आभार. .
बहुत सुंदर.आप सब से सहमत हुं.
धन्यवाद
शायद मैं ढंग से नहीं समझ पाया ! पर मुझे इसी पोस्ट में कुछ विरोधाभास दिखे और कई बातों से असहमति लगी. जो बातें दिमाग में आई लिखता जा रहा हूँ. अज्ञानी होते हुए धृष्टता के लिए क्षमायाचना सहित.
'उद्यमी ( Entrepreneur) तो रातों रात कमाने के लालच वाले धंधों की ओर भाग रहे हैं। सरकार की इस ओर नजर है नहीं।' सरकार को इस पर क्या करना चाहिए? यकीन मानिए जो हो रहा है वो भी नहीं होता. वो कहते हैं न 'भारत की अर्थव्यवस्था रात में विकसित होती है जब सरकार सो रही होती है.' जग जाए तो... ! एक लालच वाला धंधा क्या रोजगार उपलब्ध नहीं कराता? एक लालच वाले धंधे का उदहारण होता तो ज्यादा क्लियर होता.
बालाजी की सलाह उपयुक्त लगी. और जहाँ तक मेरा मानना है कंपनियाँ जल्दी ही आएँगी इस क्षेत्र में भी. जब तक अन्य क्षेत्रों में आसान अवसर हैं तब तक ही. इस क्षेत्र में भी जल्दी ही कंपनियाँ आएँगी. ठीक वैसे ही जैसे सिक्यूरिटी गार्ड प्रोवाइड कराती ही हैं एजेंसियां ! जब रिक्शों से लेकर एग्री बिजनेस में उद्यमी ( Entrepreneur) आ रहे हैं तो फिर इस क्षेत्र में भी आयेंगे ही.
http://www.economist.com/displaystory.cfm?story_id=12814618
http://www.hotteststartups.in/viewandvote.do?method=fetch&businessFn=viewandvote&startupId=713
क्या सार्वजनिक परिवहन में निजी कंपनियों का आना हर जगह आसानी से संभव है? मुझे पता तो नहीं लेकिन लगता नहीं. वैसे बड़ी कंपनियाँ तो नहीं पर निजी प्लेयर तो हैं ही इस क्षेत्र में... मुंबई-पुणे ही इसका एक उदहारण है बाकी दक्षिण में बहुत अच्छी सुविधा है कम से कम एक शहर से दुसरे शहर जाने के लिए तो है ही. अब मेट्रो जैसे प्रोजेक्ट में बड़ी कम्पनियाँ आ ही रही है जो सार्वजनिक परिवहन ही है. वैसे ही अगर सार्वजनिक परिवहन में बड़ी कंपनियों को आने के लिए अन्य अवसर उपलब्ध हो तो आएँगी ही.
'एक आईआईटीयन बनाने के लिए सरकार कितना खर्च कर रही है? क्या उस से कम खर्चों में साधारण श्रमिकों की एम्पलॉएबिलिटी बढ़ाने को कोई परियोजनाएँ नहीं चलाई जा सकती? पर क्यों चलाएँ?'
क्यों नहीं ! फिर से मुझे नहीं पता कि ऐसी योजनायें हैं या नहीं, पर इतना तो पता है... ज्यादा तो नहीं पर औसतन एक आईआईटीअन १०० लोगों को रोजगार उपलब्ध कराता है. http://timesofindia.indiatimes.com/India/IITians-contribution-to-economy-is-Rs-20-lakh-crore-Study/articleshow/3752658.cms
'अभी साला विकसित देशों से काफ़ी कम देने के बाबजूद लाखों के पैकेज देने पडते हैं, ढेर लगा दो एम्प्लॉयेबिलिटी का, फिर देखों हजारों के लिए भी कैसे नाक रगडते हैं।' अगर ऐसा है तो फिर इसकी क्या जरुरत:
'क्या उस से कम खर्चों में साधारण श्रमिकों की एम्पलॉएबिलिटी बढ़ाने को कोई परियोजनाएँ नहीं चलाई जा सकती? '
diwedi ji....
aapne jo mera hosla badaya....uske liye dil se aabhar...
asha karta hun aap aage bhi isi tarah meri hoslaafzai aour margdarshan karte rahenge.....
एक सार्थक आलेख पर एक उतनी ही सार्थक टिप्पणी और सोने पे सुहागा के रूप में अभिषेक ओझा के कथन...
आजकल ऐंप्लोएबिलिटी (नियोजनीयता) शब्द को खूब उछाला जा रहा है, मानो सब मनुष्य निकम्मे ही पैदा होते हों और उन्हें झाड़-तराशकर ऐंप्लोएबल बनाना होता है।
पर यह तो उल्टी खोपड़ी वाली सोच है। होना यह चाहिए कि जैसी मानव-शक्ति उपलब्ध हो, वैसे उद्योग खड़े किए जाए। यही सीधी खोपड़ीवाली बात गांधी जी ने कही थी, पर बाकी सबकी खोपड़ी उल्टी होने से किसी ने उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया।
उधर चीन के लोगों की खोपड़ी सीधी है। उन्होंने शुरू में ऐसे ही उद्योग विकसित किए जिनमें करोड़ों लोगों को रोजगार मिल सके, जैसे खिलौने बनाना, जूते बनाना, वस्त्र बनाना, इत्यादि और उन्हें उन्होंने दुनिया के कोने-कोने में बेचकर इतना पैसा कमाया कि बड़े से बड़े उद्योग भी अब वहां लगने लगे हैं। तो उनकी प्राथमिकताएं सही थीं, पहले लोगों को रोजगार दो, फिर आदमी को चांद पर भेजो। यहां सब उल्टा-पुल्टा चलता है। पता नहीं दोष किसे दें।
व्यक्तिगत रूप से मैं इसका दोष अंग्रेजी शिक्षण को दूंगा। एक तो अंग्रेजी शिक्षण लोगों की खोपड़ी को उल्टा कर देता है, और वे अमरीका-कनाडा की ज्यादा सोचने लगते है, न कि मेरठ-सिमलीपाल की। इससे हमारे देश की समस्याओं पर पढ़े-लिखे (पढ़ें अंग्रेजी में पढ़े-लिखे) लोग ध्यान ही नहीं देते।
अंग्रेजी के कारण जो दूसरा नुकसान हो रहा है, वह यह है - हमारे देश में सरकारी तंत्रों में तथा निजी क्षेत्र में अंग्रेजी का प्रयोग बहुत हो रहा है। इससे देश के शिक्षण तंत्रों से एमए तक पढ़कर आया व्यक्ति भी इनमें खप नहीं सकता। वे सब इन्हें अनऐंप्लोएल लगते हैं।
इसलिए दोष आम आदमी का नहीं है कि सरकार और निजी क्षेत्र उससे काम नहीं ले पा रहे हैं, बल्कि दोष सरकार और निजी क्षेत्र का है कि वे अपने कामकाज में अंग्रेजी का उपयोग करते हैं।
यदि वे अंग्रेजी के स्थान पर हिंदी आदि भाषाओं का उपयोग करने लगे (जो उनके लिए बिलकुल संभव है) तो जिन करोड़ों ग्रेजुएट और मास्टर स्तर तक पढ़े विद्यार्थियों को वे अब अनऐंप्लोएबल कह रहे हैं, उन्हें तुरंत नौकरियां मिल सकती हैं और वे रातों-रात ऐंप्लोएबल बन सकते हैं।
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