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सोमवार, 15 अगस्त 2011

सूर्योदय से आरंभ होने वाला दिन बताएगा कि आगे क्या होने वाला है?

मैं सैडल डेम की पिकनिक के बारे में आप को बता रहा था। लेकिन वे बातें फिर कभी। आज मैं उन्हें रोक कर  कुछ अलग बात करना चाहता हूँ। आज भारत की अंग्रेजी राज से मुक्ति का दिवस था। हम इसे स्वतंत्रता दिवस कहते हैं। लेकिन स्वतंत्रता दिवस और आजादी शब्द बहुत अमूर्त हैं। इस जगत में कोई भी कभी भी परम स्वतंत्र या आजाद नहीं हो सकता। जगत का निर्माण करने वाले सूक्ष्म से सूक्ष्म कण से लेकर बड़े से बड़ा पिंड तक स्वतंत्र नहीं हो सकता। विज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं कि भौतिक जगत में भी अनेक प्रकार के बल प्राकृतिक रूप से अस्तित्व में हैं कि परम स्वतंत्रता एक खामखयाली ही कही जा सकती है। इसलिए जब भी हम स्वतंत्रता और आजादी की बात करते हैं तो वह किसी न किसी विषय से संबंधित होती है। यहाँ हमारा आजादी का दिन या स्वतंत्रता दिवस जिसे भारत भर ने आज 15 अगस्त को मनाया उसे हमें सिर्फ ब्रिटिश राज्य की अधीनता से स्वतंत्र होने के सन्दर्भ में ही देखा जा सकता है। अन्य संदर्भों में उस का कोई अर्थ नहीं है। 

लेकिन जब भारत अंग्रेजी राज से मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहा था तब संघर्षरत लोग केवल अंग्रेजी राज से ही मुक्ति की कामना से आपस में नहीं जुड़े थे। उन में सामन्ती शोषण से मुक्ति, पूंजीवाद के निर्मम शोषण से मुक्ति, जातिवाद के जंजाल से मुक्ति के साथ साथ अशिक्षा, गरीबी, बदहाली से मुक्ति की कामना करने वाले लोग भी शामिल थे। उस में वे लोग भी शामिल थे जो अपना सामन्ती ठाठ बचाए रखना चाहते थे और वे लोग भी शामिल थे जो पूंजी के बल पर देश में सर्वोच्च प्रभुत्व कायम करना चाहते थे। इन विभिन्न इरादों के बावजूद सब का तात्कालिक लक्ष्य अंग्रेजी राज से मुक्ति प्राप्त करना था। उन में अन्तर्विरोध होते हुए भी वे साथ चले। अलग अलग चले तब भी एक दूसरे को सहयोग करते हुए चले। अंततः देश ने अंग्रेजी राज से मुक्ति प्राप्त कर ली। अंग्रेजी राज से मिली इस आजादी के तुरंत बाद ही अलग अलग उद्देश्यों वाले लोग अलग होने लगे। इस आजादी का बड़ा हिस्सा फिर से देश की सामंती ताकतों और पूंजीपतियों ने हथिया लिया। शेष जनता को आजादी के बाद से अब तक मात्र उतना ही मिला जो उस ने आजाद देश की सरकार से लड़कर लिया।

किसानों को जमींदारी शोषण से मुक्ति के लिए लड़ना पड़ा। जमीन जोतने वाले की हो यह आज भी सपना ही है। मजदूरों ने जितने अधिकार हासिल किए सब लड़ कर हासिल किए। मजदूरों के हक में कानून बने लेकिन उन्हें लागू कराने के लिए आज तक मजदूरों को लड़ना पड़ रहा है। कोई पूंजीपति, यहाँ तक कि जनता की चुनी हुई संस्थाएँ और सरकारें तक उन कानूनों का पालन नहीं करती हैं। भारत की केन्द्र सरकार और प्रत्येक राज्य सरकार कानून के अंतर्गत न्यूनतम मजदूरी तय करती है लेकिन वह मजदूरों को केवल वहीं मिलती है जहाँ उस से कम मजदूरी पर मजदूर नहीं मिलता। शेष स्थानों पर मजदूर को न्यूनतम मजदूरी मांगने और सरकारी महकमे में शिकायत करने पर काम से हटा दिया जाता है। सरकारी महकमा उस मजदूर के हकों की रक्षा करने की न तो इच्छा रखता है और न ही उसे इतने अधिकार दिए गए हैं कि वह मजदूर को तुरंत या कुछ दिनों या महिनों में सुरक्षा प्रदान कर सके। कुल मिला कर कानून बने पड़े हैं। लेकिन उन्हीं कानूनों का पालना सरकार करवाती है जिन की पालना करने के लिए मजबूत लोग सामने आते हैं। आज भी इस देश में मजबूत लोग केवल भू-स्वामी, पूंजीपति, गुंडे, बाहुबली, संगठित अपराधी और उन की सेवा में नख से शिखा तक लिप्त राजनेता और अफसर ही हैं। सारे कानून उन्हीं के लिए बनते हैं। जो कानून मजदूरों और किसानों के नाम से बनते हैं उन की धार भी इन मजबूत लोगों के ही हक में ही चलती है। 
 
दाहरण के बतौर हम ठेकेदार मजदूरी उन्मूलन अधिनियम 1970 को देखें तो नाम से लगेगा कि यह ठेकेदार मजदूरी का उन्मूलन करने के लिए बनाया गया कानून है। लेकिन व्यवहार में देखें तो पता लगेगा कि यह कानून ठेकेदार मजदूरी की प्रथा को बचाने और उसे मजबूत बनाने का काम कर रहा है। अब तो इस की आड़ ले कर नियमित सरकारी कर्मचारियों से लिए जाने वाले काम इसी प्रथा के अंतर्गत न्यूनतम मजदूरी की दर पर ठेकेदार को दे कर करवाए जा रहे हैं। सरकारी काम पर लगे इन ठेकेदार मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी कभी नहीं मिलती। जितने मजदूर लगाने के लिए ठेका दिया जाता है उतने मजदूर काम पर लगाए भी नहीं जाते। यह सब चल रहा है। इसे चलाने वाली शक्ति का नाम भ्रष्टाचार है। इस भ्रष्टाचार में लिप्त वही मजबूत लोग हैं जिन का उल्लेख मैं ऊपर कर आया हूँ।

भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए कानून बनाने की बात चल रही है। जनता की ओर से सिविल सोसायटी सामने आ कर खड़ी हुई तो जनता ने उस का समर्थन किया। बवाल बढ़ा तो सरकार समझ गई कि अब कानून बनाना पड़ेगा। सरकार ने हाँ कर दी। सिविल सोसायटी ने अपना विधेयक बताया तो सरकार अड़ गई कि ये नहीं हो सकता विधेयक बनाने का काम सरकार का है उसे कानून में तब्दील करने का काम संसद का है। आप सिर्फ सलाह दे सकते हैं। सिविल सोसायटी ने सरकारी विधेयक को देखा और कहा कि यह भ्रष्टाचार मिटाने का नहीं उसे और मजबूत करने और भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले का मुहँ बन्द करने का काम करेगा। सिविल सोसायटी आंदोलन पर अड़ गई और सरकार उसे रोकने पर अड़ गई। आज का आजादी का दिवस इसी माहौल में मनाया गया। पहले राष्ट्रपति ने भ्रष्टाचार को कैंसर घोषित कर दिया, उन का आशय था कि वह ठीक न होने वाली बीमारी है। फिर सुबह प्रधानमंत्री बोले कि सरकार इस कैंसर से लड़ने को कटिबद्ध है। सिविल सोसायटी के नेता अन्ना हजारे अनशन पर अड़े हैं। सरकार उन की ताकत को तौलना चाह रही है। तरह तरह के भय दिखा रही है। ठीक वैसे ही जैसे रामकथा का रावण अशोक वाटिका में कैद कर के सीता को दिखाया करता था। लेकिन सीता तिनके की सहायता लेकर उस भय का मुकाबला करती रही जब तक कि राम ने रावण को परास्त नहीं कर दिया। 

रकार के दिखाए सभी भय आज शाम उस वक्त ढह गए जब अन्ना अपने दो साथियों के सामने अचानक राजघाट पर बापू की समाधि के सामने जा कर बैठ गए। तब सामन्य रुप से राजघाट पहुँचने वाले लगभग सौ लोग वहाँ थे। जब खबर मीडिया के माध्यम से फैली तो लोग वहाँ पहुँचने लगे। ढाई घंटे बाद जब अन्ना वहाँ से उठे तो दस हजार से अधिक लोग वहाँ जमा थे। तिनका इतना मजबूत और भय नाशक हो सकता है इस का अनुमान शायद सरकार को नहीं रहा होगा। अन्ना घोषणा कर चुके है कि सुबह अनशन होगा। वैसे भी अनशन को स्थान की कहाँ दरकार है? वह तो मन से होता है, और कहीं भी हो सकता है। अन्ना जानते हैं कि भ्रष्टाचार तभी समाप्त हो सकता है जब वह सारी व्यवस्था बदले,  जिस के लिए भ्रष्टाचार का जीवित रहना आवश्यक है। उन्हों ने आज शाम के संबोधन में उस का फिर उल्लेख किया है और पहले भी करते रहे हैं। व्यवस्था परिवर्तन क्रांति के माध्यम से होता है और क्रान्तियाँ जनता करती है,  नेता, संगठन या फिर राजनैतिक दल नहीं करते। वे सिर्फ क्रान्तियों की बातें करते हैं। जब जनता क्रान्ति पर उतारू होती है तो वह अपना नेता भी चुन लेती है, संगठन भी बना लेती है और अपना राजनैतिक दल भी। जनता क्रान्ति तब करेगी जब उसे करनी होगी। लेकिन क्या तब तक सुधि लोग चुप बैठे रहें। वे जनता की तात्कालिक मांगों के लिए लड़ते हैं। तात्कालिक मांगों के लिए जनता की ये लड़ाइयाँ ही जनता को क्रान्ति के पथ पर आगे बढ़ाती है। 
 
रकार समझती है कि उन का बनाया लोकपाल कानून तात्कालिक जरूरतों को पूरा कर सकता है। सिविल सोसायटी की समझ है कि भ्रष्टाचार इस से रुकने के स्थान पर और बढ़ेगा और भ्रष्टाचार के विरुद्ध उठती आवाजों के गले में पट्टा बांध दिया जाएगा। सरकार कानून बनाने के मार्ग पर बढ़ रही है। लेकिन सिविल सोसायटी अपनी समझ जनता के सामने रख रही है कि केवल वैसा कानून भ्रष्टाचार को रोकने में कामयाब हो सकता है जैसा उस ने प्रस्तावित किया है। सिविल सोसायटी के पास जनता के सामने अपना विचार रखने का जो तरीका हो सकता है वही वह अपना रही है, सरकार अपना तरीका अपना रही है। ये जनता को तय करना है कि वह किस के साथ जाती है। अभी तो लग रहा है कि जनता सिविल सोसायटी के साथ खड़ी हो रही है। अन्ना के अनशन को आरंभ होने में अभी देरी है। लेकिन जनता पहले ही उस जगह पहुँच गई है जहाँ अनशन होना था और दिल्ली सरकार ने गिरफ्तारियाँ आरंभ कर दी हैं। इस रात के बाद होने वाले सूर्योदय से आरंभ होने वाला दिन बताएगा कि आगे क्या होने वाला है?
 

रविवार, 14 अगस्त 2011

सैडल डेम और पाड़ाझर झरना

कोटा से रावतभाटा जाते समय आधी दूरी तक चढ़ाई है जो बोराबास पहुँच कर चढ़ाई समाप्त हो जाती है। यह गूजरों का गाँव है। चारों और निगाह दौड़ाएंगे तो गायों और भैंसों के बाड़े दिखाई देंगे और बीच बीच में घर दिखाई देंगे। कोटा को मिलने वाले दूध में से लगभग एक चौथाई बोराबास और आस पास के गाँवों से ही जाता है।  यहीं से पश्चिम की ओर एक मार्ग जाता है जो लगभग पाँच किलोमीटर चलने पर कोटा डेम अर्थात् जवाहर सागर बांध पहुँचा देता है। बोराबास से निकलते ही  लंबी घाटी आरंभ हो जाती है जो कोलीपुरा गाँव में जा कर समाप्त होती है। यह सुरम्य घाटी 'दरा वन्यजीव अभयारण्य का एक भाग है।'  पूरी घाटी में हरियाली छाई हुई थी। स्थान स्थान पर जलधाराएँ बह रही थीं। पिछले वर्षों में इतनी हरियाली पहली बार दिखाई दे रही थी। देती भी क्यों न, कई वर्षों बाद इस क्षेत्र में होने वाली औसत बरसात तो जुलाई के तीसरे सप्ताह तक हो चुकी थी। अब जो भी बरसात हो रही थी वह सब बोनस थी। बरसात भी इस कायदे से हुई कि उस से नुकसान कम हुआ। बाढ़ें नहीं आई थीं। घाटी से निकलने के बाद ही बायीं ओर चम्बल दिखाई देने लगी। जवाहर सागर बांध के कारण यहाँ चम्बल विस्तार पा गई है। विशाल जलराशि और उस के दोनों ओर जंगल अद्भुत दृश्य उत्पन्न कर रहे थे। मनोरम दृश्यों को निहारते हुए बस रावतभाटा के नजदीक पहुँच रही थी। सड़क के किनारे ही बायीं और बाडोली के प्राचीन शिव मंदिर दिखाई दिए।  मन किया यहीं उतर पड़ूँ। यदि मैं अपने वाहन में होता तो मुझे कम से कम आधा घंटा यहाँ अवश्य लगता। जिन हाथों ने इन मंदिरों के निर्माण के लिए पत्थरों को आकार दिया होगा वे अपनी कला में कितने निपुण होंगे, यह अनुमान करके ही आनन्द की अनुभूति होती है। 

बाडोली के शिव मंदिर
रावतभाटा कस्बे से गुजरते हुए चंबल पुल पार कर के बस ने भैंसरोड़गढ़ वन्यजीव अभयारण्य में प्रवेश किया। इस क्षेत्र को राज्य सरकार ने इसी वर्ष अभयारण्य घोषित किया है। जिस के कारण प्रवेश शुल्क के बिना यहाँ प्रवेश संभव नहीं रह गया है। वन-चौकी पर बसें कुछ देर रुकीं। फिर चढ़ाई आरंभ हो गई। कोई दस मिनट में ही हम सेडल डेम के गेस्ट हाउस के बाहर थे। बरसात जारी थी। हम बसों से उतर कर तेजी से गेस्ट हाउस की तरफ दौड़े, जिस से कम से कम भीगे। मैं बरांडे की ओर से गेस्ट हाउस में घुसा। टीन शेड के नीचे हलवाई खाद्य सामग्री निर्माण में जुटे थे। बहुत सी जलेबियाँ निकाली जा चुकी थीं, पकौड़ियाँ तली जा रही थीं और आलू के मसाले के गोले बेसन के घोल में डूब कर गर्म तेल की कढ़ाई में जाने को तैयार थे। हमें पहुँचते देख। हलवाई ने कोफ्ते बनाने का काम आरंभ कर दिया। बारह बज चुके थे। सभी को भूख लगी थी। भोजन सामग्री बनते देख और खिल गई थी। दस मिनट में तीनों खाद्य पदार्थ चटनियों  और सॉस की बोतलों के साथ हॉल की मेज पर थे। इस के बाद क्या हुआ होगा? यह आप कल्पना कर सकते हैं। मैं प्लेट में नाश्ता ले कर बाहर आ गया। गेस्ट हाउस के बाहर के गार्डन के कोने पर तख्ती लगी थी, जिस पर लिखा था "फूल तोड़ना मना है"। लेकिन वहाँ फूल एक भी नहीं था। पूरे गार्डन में एक भी फूल खिला नहीं था। पहले सोचा मौसम ही फूल खिलने का नहीं है। लेकिन फिर ठीक से देखा तो पता लगा कि गेस्ट हाउस का रख रखाव भी कमजोर हुआ है। मैं समझ गया कि यह सब पिछले कई वर्षों से राजस्थान सरकारों में विभागों द्वारा मस्टर रोल पर कर्मचारी न रखने की जो नीति बनाई गई है यह उस का परिणाम है। अब विभागों के पास इन के रख रखाव के लिए कर्मचारी ही नहीं हैं तो फूल कहाँ से खिलेंगे? मैं ने फिर से तख्ती को देखा तो तख्ती के ठीक आस-पास बहुत ही छोटे आकार के तीन-चार जंगली फूल खिले थे। जैसे कह रहे हों कि हम तख्ती के ठीक पास इसलिए खिले हैं कि कम से कम यहाँ तो सुरक्षित रहेंगे।

 नाश्ते के दौरान ही दिनेश रावल ने नयी उम्र के वकीलों को उकसाना आरंभ कर दिया था। यार! पाड़ाझर नहीं चलेंगे क्या? कोटा तो कह रहे थे कि बसें पाड़ाझर जाएंगी, अब कोई बात ही नहीं कर रहा है। बरसात बंद हो चुकी थी और मैं सैड़ल डेम के ऊपर बनी सड़क से बांध के पानी, आस पास की पहाडियों पर बिखरे प्रकृति के सौंदर्य का नजारा देखने के लिए निकल पड़ा था। आधे घंटे बाद वापस लौटा तो बरामदे में ही रावल मिल गए। कहने लगे -तुम कहाँ चले गए थे उस्ताद? बसें पाड़ाझर जाने वाली हैं, चलो बैठो। मैं ने उन्हें बताया कि मैं जरा डेम पर चला गया था। वे कहने लगे -इस बीच बसें चल देतीं तो तुम यहीं रह जाते। हम गेस्ट हाउस के बाहर निकले तो वहाँ सेक्रेट्री सब से कह रहे थे -पाड़ाझर जाने वाले बसों में बैठ जाएँ। लोग तेजी से बसों की ओर जाने लगे। बसों तक जाने का दूसरा मार्ग भी था जो खाली था। मैं उस ओर से गया और सब से पीछे खड़ी बस में बैठ गया। मुझे कुछ लोगों ने कहा -बस तो आगे वाली जा रही है, सब तो उस में बैठ रहे हैं। मैं ने मना किया कि जाएगी तो सब से पहले यही बस जाएगी। मैं अकेला बस में चढ़ गया। कुछ देर बाद ही शेष लोग भी उसी बस में चढ़ने लगे। जब बस भर गई तो एक नया वकील कहने लगा कि -आप ने सही कहा था यही बस पहले जा रही है। दूसरा कहने लगा ये तो अनुभव की बात है।  मैं ने कहा यह अनुभव की नहीं अक्ल की बात है। तुम बसों की स्थिति ठीक से देखते तो तुम्हें भी पता लग जाता कि जब तक यह बस अपने स्थान से हटेगी नहीं दूसरी बस निकलेगी नहीं। ऐसी स्थिति में इसी बस को सब से पहले जाना था। ड्राइवर ने बस को आगे पीछे कर के बस का मुहँ घुमाया और बस पाड़ाझर के लिए चल दी।
प सभी यह सोच रहे होंगे कि यह पाड़ाझर क्या है? सैडल डेम से कोई छह किलोमीटर दूर जंगल के बीच एक झरना है, जो लगभग वर्ष भर बहता है लेकिन बरसात में तो उस का नजारा कुछ और ही होता है। कोई सौ मीटर ऊपर से झरना गिरता है, नीचे झरने के गिरने से कुंड बन गया है। झरने के ऊपर पहुँच कर नीचे कुंड तक जाने के लिए सीढ़ियाँ हैं। बीच में एक गुफा भी है जहाँ शंकर का मंदिर बना हुआ है। तैरने वाले लोग नीचे कुंड में उतर जाते हैं और तैरते हुए झरने के नीचे जा कर झरने से गिरते पानी के नीचे स्नान का आनन्द लेते हैं। सैडल डेम से पाड़ाझर तक की सड़क की हालत बहुत बुरी थी। कहा जा सकता था कि कभी वहाँ डामर भी रहा होगा। अब तो डामर के अलावा वहाँ सब कुछ था जिस में गड्ढे भी थे। बस को छह किलोमीटर की दूरी पार करने में आधा घंटा लगा। आप समझ सकते हैं कि सड़क की हालत क्या रही होगी? बस झरने से आधा किलोमीटर दूर ही रुक गई। आगे बस के जाने का मार्ग नहीं था। वहाँ से हमें पैदल चल पड़े। ठीक झरने के ऊपर पहुँचे तो देखा वहाँ दो बसें और खड़ी थीं। वे किसी दूसरे मार्ग से आई थीं। पहली बार पता लगा कि झरने पर पहुँचने का दूसरा मार्ग भी है।
(जारी)

जीन ऊँट की सवारी में सहायक है
पिछली चिट्ठी पर चंदन कुमार मिश्र की टिप्पणी थी कि सैडल के लिंक से संबंध समझ नहीं आया। मैं समझता था कि कुछ लोगों को यह जिज्ञासा अवश्य होगी कि ये सैडल डेम क्या है और उसे समझने के लिए मैं ने वह लिंक दिया था। वास्तव में सैडल घोड़े, ऊँट आदि पर सवारी करने के लिए उस पर कसी जाने वाली जीन को कहते हैं। इस जीन के अभाव में इन पर ठीक से सवारी की जा सकती है, विशेष रूप से ऊँट पर। उसी तरह यदि किसी बांध की भराव क्षमता अधिक रखने पर किसी स्थान से पानी के निकल जाने की संभावना हो तो वहाँ जो बांध बनाया जाता है उस के बिना मुख्य बांध की क्षमता को बढ़ाया नहीं जा सकता। इस सहायक बांध से मूल बांध की भराव क्षमता बढ़ जाती है। क्षमता में सहायक होने के इस गुण की समानता के कारण ऐसे सहायक बांधों को सैडल डेम कहा जाता है।

पिकनिक पर

र्षा ऋतु में अभिभाषक परिषद, कोटा अपने सदस्यों के लिए एक पिकनिक का आयोजन करती है। अपने सहकर्मी अभिभाषकों के साथ अदालत परिसर के अलावा किसी मनोरम स्थान पर एक दिन बिताना अपने आप में अच्छा सुअवसर है। विगत चार-पाँच वर्षों से मैं इस अवसर से वंचित रहा। इस बार जुलाई के अंतिम सप्ताह में जब यह घोषणा की गई कि 7 अगस्त को अभिभाषक परिषद सैडल डेम पर पिकनिक आयोजित कर रही है तो मैं ने उसी समय तय कर लिया कि कितनी भी बाधाएँ क्यों न हों इस पिकनिक को मैं नहीं छोड़ूंगा। मेरा प्रयास यह भी था कि मेरे सभी सहयोगी भी इस में भाग लें। लेकिन यह संभव नहीं हो सका। उन में से कोई भी विभिन्न कारणों से जाने की स्थिति में नहीं था।

राणाप्रताप सागर बांध
सैडल डेम चित्तौड़ जिले में रावतभाटा में चम्बल नदी पर निर्मित राणाप्रताप सागर बांध का सहयोगी बांध है। राणाप्रताप सागर बांध के निर्माण से चम्बल का जल जिस ऊँचाई तक संग्रहीत किया जाना था उस ऊँचाई तक जल संग्रहण असंभव था। क्यों कि मूल बांध से कोई एक किलोमीटर दूर पहाड़ों के बीच एक दर्रा मौजूद था जिस से जल निकल कर दूसरा रास्ता पकड़ कर वापस चंबल में जा मिलता। इस दर्रे पर भी जल को रोकने के लिए एक बांध बनाया जाना आवश्यक था। दर्रा अधिक चौड़ा न था, इसलिए उस पर भी बांध बनाया गया जिस का एक मात्र उद्देश्य राणाप्रताप सागर बांध की ऊँचाई बढ़ाना था। आम तौर पर जहाँ मूल बांध बनाया जाता है वह कोई मनोरम स्थान नहीं होता और जिस तरह का भारी निर्माण कार्य वहाँ होता है उस से उस की मनोरम छवि और समाप्त हो जाती है। बांध के ऊपर के बहुत से मनोरम स्थान तो रोके गए पानी में हमेशा के लिए डूब जाते हैं। लेकिन यह सैडल डेम जहाँ बना है वहाँ दोनों ओर हरी भरी पहाड़ियाँ मौजूद हैं तो  नीचे घाटी है। बीच में बांध की झील  में भरा हुआ जल। इसी बांध के निकट राजस्थान सरकार के सिंचाई विभाग ने एक गेस्टहाउस बनाया हुआ है। पिकनिक के लिए यह एक आदर्श स्थल है। यदि वर्षा होती रहे तब भी चार-पाँच सौ व्यक्तियों का भोजन बनाया जा सकता है और खिलाया जा सकता है। 

सैडल डेम
भिभाषक परिषद के सदस्यों की संख्या 1700 से अधिक है, लेकिन नियमित रूप से न्यायालय में अभ्यासरत वकीलों की संख्या इस की आधी ही है। लेकिन पिकनिक पर जाने वालों की संख्या दो सौ से कुछ ही ऊपर थी। इस के लिए तीन बसों की व्यवस्था की गई थी। तीनों बसों को जिला न्यायालय परिसर से रवाना हो कर नगर में चार-पाँच स्थानों पर रुक कर अभिभाषकों को लेते हुए जाना था। सुबह दस बजे तक बसों को कोटा नगर छोड़ देना था। शेष लोग वे थे जो अपने अपने साधनों से पिकनिक स्थल पहुँचना था। जहाँ से मुझे बैठना था वहाँ से बस को दस बजे रवाना होना था। लेकिन सुबह सुबह ही बरसात आरंभ हो गई। इस कारण बसें रवाना होने में देरी हुई। रावतभाटा के नाम से मुझे दो नाम ध्यान आए, उन में एक रविकुमार हैं। मैं ने बस की प्रतीक्षा करते हुए उन्हें फोन किया कि मैं आज उन के क्षेत्र में रहूँगा। यदि मिलना संभव हुआ तो उन्हें फिर फोन करूंगा।

दिनेश रावल
सुबह ग्यारह बजे बसें कोटा से छूट गई थीं। कोटा नगरीय क्षेत्र से निकलते ही जंगल आरंभ हो गया। दोनों ओर देखने पर हरियाली ही हरियाली दिखाई पड़ती थी। जिस के बीच बीच में वर्षा के कारण जंगल से निकल कर आती हुई जल धाराएँ दिखाई पडती थी। ऐसा लगता था जैसे जंगल ने नवयौवना का रूप धारण कर वर्षा के जल में स्नान कर रहा हो। वर्षा स्नान के समय बूंद बूंद मिल कर जलधाराओं का निर्माण कर रही हों। बस की खिड़की से बाहर एक बार जो देख लेता,  उस की निगाहें वहीं ठहरी रह जातीं, बस की गति के साथ ही वन प्रान्तर का दृश्य लगातार परिवर्तित होता हुआ नए नए रूप दिखा रहा था। मेरे पास खिड़की के समीप बैठे सहयात्री अभिभाषक दिनेश रावल इन दृश्यों में इतने डूब गए कि मैं ने  उन की तस्वीर ले कर उन्हें दिखाई तो कहने लगे, इस में तो मैं कोई विचारक जैसा लग रहा हूँ। 

शनिवार, 13 अगस्त 2011

रक्षा संकल्प का त्यौहार

सूर्योदय के साथ ही श्रावण मास की पूर्णमासी का दिन आरंभ हो लेगा। यही वह माह है जिस में भारत के लगभग सभी प्रांतों में मानसून की वर्षा का जोर रहता है। इस मास में धरा जल से परिपूर्ण हो जाती है। सारे जलाशयों से जल छलक कर बहने लगता है, नदियाँ वेगवती हो जाती हैं, झरने पूरे यौवन पर होते हैं, संपूर्ण वन प्रान्तर हरियाली से ढक जाता है। यह मास भारतवर्ष के लोगों के मन इतनी प्रसन्नताओं से भर देता है कि वे भी जल से परिपूर्ण तालाबों की तरह छलकने लगते हैं। श्रावण मास के अंतिम दिन भारत रक्षा बंधन मना रहा होता है। बहनें अपने अपने भाइयों को रक्षासूत्र बांधने के लिए चल पड़ती हैं। वहीं गुरू-शिष्य एक दूसरे को रक्षासूत्र बांध कर परस्पर एक दूसरे की रक्षा का भार अपने ऊपर लेते हैं। पुरोहित अपने यजमानों को रक्षासूत्र बांधते हैं। मित्र आपस में रक्षा सूत्र बांधते हैं। इस तरह हम देखते हैं कि इस त्यौहार की कोई सीमा नहीं है। 

भारतीय जीवन पद्धति (कुछ लोग इसे हिन्दू जीवन पद्धति कहना चाहेंगे, लेकिन यह शब्द भारतवासियों के लिए परदेसियों ने ईजाद किया था, इसलिए,  मैं भारतीय कहना अधिक उचित समझता हूँ) में बहुत सी ऐसी चीजें हैं जिन का वस्तुतः धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है, लेकिन हर धर्मावलम्बी अपनी आदत के अनुसार अपनी हर चीज को धर्म से जोड़ कर देखना चाहता है और इसी प्रवृत्ति के चलते बहुत सी चीजों को धर्म से जोड़ देता है। इसी संकीर्णता के चलते वे चीजों की सीमाएँ बन जाती हैं।  ऐसा ही कुछ रक्षाबंधन के साथ भी हुआ है। मनुष्य जाति का यह अनुपम त्यौहार हिन्दुओँ का घोषित किया जा कर उस की सीमाएँ बांध दी गई हैं।  और उन्हें सीमित कर देता है।

म अपने मिथक और इतिहास में जाएँ तो रक्षाबंधन के बारे में हमें बहुत कथाएँ मिलती हैं। सब से प्राचीन कथा भविष्य पुराण में मिलती है जिस के अनुसार देवासुर संग्राम में जब असुरों का पक्ष भारी पड़ने लगा तो इंद्र बृहस्पति के पास गए। वहाँ बैठी इंद्र की पत्नी ने एक धागा इंद्र की कलाई पर बांधा। उस धागे ने इंद्र और देवों में वह आत्मविश्वास उत्पन्न किया कि वे असुरों पर विजय प्राप्त कर सके। इस कथा में एक पत्नी द्वारा अपने पति को रक्षा सूत्र बांधने का विवरण मिलता है। दूसरा विवरण अधिकांश पुराणों में वामनावतार के रूप में मिलता है जिस में बलि से तीन पग भूमि दान में प्राप्त कर वामन रूपी विष्णु तीनों लोक नाप डालते हैं और बलि को रसातल में भेज देते हैं। लेकिन बलि विष्णु से सदैव अपने सामने रहने का वचन ले लेता है। विष्णु जब देवलोक वापस नहीं लौटते तो विष्णु पत्नी लक्ष्मी बलि को रक्षा सूत्र बांधती है और बदले में विष्णु को मुक्त करवा कर वापस देवलोक ले आती है। इन दोनों ही कथा प्रसंगों का किसी विशिष्ठ धर्म से कोई संबंध नहीं है। अपितु दोनों ही प्रसंगों में रक्षा सूत्र बांधा जाना मनुष्यों के बीच एक दूसरे की रक्षा करने के संकल्प के रूप में सामने आता है। 

गे हम इतिहास में पाते हैं कि संकल्प के इस मानवीय रिश्ते को बहुत लोगों ने निभाया। राजपूत जब युद्ध में जाते थे तो महिलाएँ उन के माथे पर तिलक कर के हाथ में रक्षा सूत्र बांधती थीं जो उन्हें याद दिलाता था कि वे युद्ध भूमि से पीछे छूट गई स्त्री, बालक, वृद्धों की रक्षा के लिए युद्ध के मैदान में हैं। यह भाव ही राजपूत योद्धाओं में अद्भुत वीरता उत्पन्न कर देता था। बहादुरशाह द्वारा आक्रमण कर देने पर अपनी रक्षा करने में असमर्थ मेवाड़ की रानी कर्मावती ने रक्षा के लिए मुगल बादशाह हुमायूँ को रक्षासूत्र भेजा। इस रक्षा सूत्र का मान रखने के लिए हुमायूँ ने आ कर बहादुरशाह के साथ युद्ध कर के मेवाड़ की रक्षा की। सिकंदर महान की पत्नी ने राजा पुरुवास को रक्षा सूत्र बांध कर अपना भाई बनाया और युद्ध में अपने पति की जीवन रक्षा की मांग की। पुरुवास ने अवसर आने पर सिकंदर की जान बख्श दी। लेकिन बाद में युद्ध बंदी बना लिए जाने पर जब सिकंदर ने पुरुवास से पूछा कि उस के साथ अब कैसा व्यवहार किया जाए तो पुरुवास ने कहा कि वैसा ही जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है। सिकन्दर ने पुरुवास के साथ वैसा ही व्यवहार किया। इसी तरह महाभारत युद्ध के पूर्व कृष्ण द्वारा पाण्डवों को रक्षाबंधन का पर्व मनाने की सलाह देना, कृष्ण की उंगली घायल होने पर द्रोपदी द्वारा उन्हें अपनी ओढ़नी फाड़ कर उस से घाव को बांधना, बदले में कृष्ण द्वारा द्रोपदी की लज्जा बचाने के प्रसंग भी हैं। इन में से कोई भी प्रसंग किसी धार्मिक परंपरा को नहीं दर्शाता अपितु मानवीय संबंधों में संकल्प के महत्व को प्रदर्शित करता है। इसलिए हमें इस त्यौहार को धर्म की परिधि से बाहर निकाल कर परस्पर रक्षा-संकल्प के त्यौहार के रूप में ही मनाना चाहिए। 

ज समीक्षा ब्लाग पर अनामिका जी ने यह प्रश्न उठाया था कि क्या ये त्यौहार केवल हिन्दू भाई बहन के लिए ही है?  मेरा उन्हें उत्तर यह है कि यह संपूर्ण मानव जाति का त्यौहार है। हर कोई इस त्यौहार को मना सकता है, बशर्ते कि इसे मनाने वाले परस्पर रक्षा के संकल्प को आजीवन निभाने को तैयार हों। इस त्यौहार में कोई धार्मिक कर्मकांड भी नहीं है। बस एक धागा ही तो संकल्प के बतौर अपने प्रिय की कलाई पर बांधना है। इस संकल्प को यादगार बनाने के लिए कुछ करना चाहता है तो जो भी इसे मनाए अपनी रीति से यादगार बना सकता है। मेरी तो इच्छा है कि इस त्यौहार को विश्वव्यापी हो जाना चाहिए।

बुधवार, 10 अगस्त 2011

शव उठाना भारी पड़ रहा है

र महिने कम से कम एक दर्जन निमंत्रण पत्र मिल जाते हैं। इन में कुछ ऐसे समारोहों के अवश्य होते हैं जिस में किसी न किसी का सम्मान किया जा रहा होता है। जब ऐसे निमंत्रण पढ़ता हूँ तो दिल बहुत उदास हो जाता है। कहीं कोई कविताबाजी के लिए सम्मानित हो रहा होता है तो कोई साहित्य में बहुमूल्य योगदान कर रहा होता है। किसी को इसीलिए सम्मान मिलता है कि उस ने बहुत से सामाजिक काम किए होते हैं।  किसी के बारे में तो सम्मान समारोह से ही पता लगता है कि वह कविताबाजी भी करता है या उस ने साहित्य में कोई योगदान भी किया है या फिर वह सामाजिक कार्यकर्ता है। किसी किसी के तो नाम की जानकारी ही पहली बार निमंत्रण पत्र से मिलती है।  तब मैं निमंत्रण पत्र देने वाले से कहता हूँ कि भाई जिस का सम्मान होना है उस के बारे में तो बताते जाओ, मैं तो उसे जानता ही नहीं हूँ। जब सम्मानित होने वाले का नाम और उस के किए कामों की जानकारी मिलती है तो मन बहुत उदास हो जाता है।

विता के लिए किए जा रहे एक व्यक्ति के सम्मान समारोह में पहुँचा तो देखा कि जिस व्यक्ति का सम्मान किया जा रहा है उसे तो मैं बहुत पहले से जानता हूँ। वह कलेक्ट्री में बाबू है और किसी का काम बिना कुछ लिए दिए नहीं करता। एक दो बार उस से पाला भी पड़ा तो अपनी लेने-देने की आदत के कारण उस की उस के अफसर से शिकायत करनी पड़ी। अफसर ने उसे मेरे सामने बुला कर झाड़ भी पिलाई कि तुम आदमी को देखते तक नहीं। आइंदा किसी से ऐसी शिकायत मिली तो तुम्हारी नौकरी सुरक्षित नहीं रहेगी। उस झाड़ के बाद  बाबू के व्यवहार में मेरे प्रति तो बदलाव आ गया, लेकिन बाकी सब के साथ पहले जैसा ही व्यवहार करता रहा। शायद वह मुझे पहचानने लगा था। उस का कभी कुछ नहीं बिगड़ा। अफसर आते और चले जाते, लेकिन बाबू वहीं प्रमोशन पा कर उसी तरह काम करता रहा। आज अ...ज्ञ साहित्य समिति उस का सम्मान कर रही है। यह जान कर मुझे आश्चर्य हुआ कि वह बाबू कविता भी करता है वह भी ऐसी करता है कि उस का सम्मान किया जाए। 

खैर, बाबू ने मुझे देखा तो सकुचाया, फिर नमस्ते किया। औपचारिकतावश मैं ने भी नमस्ते किया। पर मेरे न चाहते हुए भी और रोकते रोकते भी बरबस ही मेरे होठों पर मुस्कुराहट नाच उठी। उस के चेहरा अचानक पीला हो गया। शायद उसे लगा हो कि मैं उस पर व्यंग्य कर रहा हूँ। मैं ने उस के नजदीक जा कर पूछा -तुम कविता भी करते हो, यह आज पता लगा। उसने और पीला होते हुए जवाब दिया -कविता कहाँ? साहब, कुछ यूँ ही तुकबाजी कर लेता हूँ। मैं हॉल में पीछे की कुर्सी पर जा कर बैठा। समारोह आरंभ हुआ। सरस्वती की तस्वीर को माला पहनाई गई, दीप जलाया गया। फिर सरस्वती वंदना हुई। स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियाँ थीं, साथ में तबला और हारमोनियम वाला भी था। शायद किसी स्कूल से बुलाया गया हो। मैं ने एक से पूछा तो पता लगा कि यह हारमोनियम वाले का आयोजन था। वह पाँच सौ में इस का इंतजाम किसी भी समारोह के लिए कर देता है। समारोह आगे बढ़ा। बाबू जी की तारीफ में कसीदे पढ़े जाने लगे। उन के दो प्रकाशित संग्रहों की चर्चा हुई। फिर बाबूजी बोलने लगे, उन की स्वरों में बहुत विनम्रता थी, वैसी जैसी लज्जा की अनुभूति होने पर किसी नववधु को होती है। उन्हों ने चार कथित काव्य रचनाएँ भी पढ़ीं। मुझे उन्हें कविता समझने में बहुत लज्जा का अनुभव हुआ।  समारोह समाप्त हुआ तो सभी को कहा गया कि बिना जलपान के न जाएँ। पास के हॉल में जलपान की व्यवस्था थी। जलपान क्या? पूरा भोजन ही था। छोले-भटूरे, गुलाब जामुन, समौसे और कचौड़ियाँ। मैं पिछले पाँच सालों में जितने सम्मान समारोहों में गया था, उन सब में जलपान के लिहाज से यह समारोह सब से जबर्दस्त था।

मेरे जैसे ही एक और मित्र थे वहाँ। मैं उन से चर्चा करने लगा। यार! सम्मान समारोह खूब जबर्दस्त हुआ। कहने लगे पूरे पच्चीस हजार खर्च किए हैं अगले ने जबर्दस्त क्यों न होता। मैं ने पूछा -अगला कौन? तो उस ने बताया कि अगला तो बाबू ही है। फिर भी मुझे पच्चीस हजार अधिक लग रहे थे। मैं ने मित्र से जिक्र किया तो कहने लगा ... खर्च तो बीस भी न हुए होंगे। आखिर पाँच तो सम्मान करने वाली संस्था भी बचाएगी, वर्ना कैसे चल पाएगी। ... तो पैसे पा कर यह संस्था किसी का भी सम्मान कर देती है क्या? .... और नहीं तो क्या?  ... आप अपना करवाना चाहो तो दस हजार में इस से बढ़िया कर देगी। मुझे उस की बात जँची नहीं। मैं ने पूछ ही लिया -वह कैसे? ... यार! संस्था साल में पाँच बाबुओं का सम्मान करेगी, तो दो आप जैसों का कम खर्चे में भी करना पड़ेगा, आखिर संस्था को अपनी साख और इज्जत भी तो बचानी पड़ती है। मेरे पास मित्र की इस बात का कोई उत्तर नहीं था। मैं ने अगला प्रश्न किया -यार! इस की किताब किसने छापी? उत्तर था - कौन छापेगा? चित्रा प्रकाशन ने छापी है। मेरे लिए स्तंभित होने का फिर अवसर था। मैं हुआ भी और हो कर पूछा भी -ये चित्रा प्रकाशन कहाँ का है? कौन मालिक है इस का? ... यार! तुम बिलकुल बुद्धू हो। चित्रा बाबू की बीबी का नाम है और इस प्रकाशन ने अब तक दो ही किताबें छापी हैं और दोनों बाबू की हैं। 

स समारोह के पहले मैं सोचता था कि कभी तो किसी को सुध आएगी, अपना भी सम्मान होगा। इस समारोह के बाद से मैं सम्मान समारोहों में बहुत सोच समझ कर जाने लगा हूँ। अपनी खुद की तो सम्मान की इच्छा ही मर गई है। इच्छा का शव उठाना भारी पड़ रहा है। सोचता हूँ कि कल सुबह जल्दी जा कर बच्चों के शमशान में दफना आऊँ।

रविवार, 7 अगस्त 2011

नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम

कविता

नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम


नाच ..!     नाच ...!     नाच ...! 
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम
 
तनिक रुक कर साँस तक नहीं लेते
उखड़ने लगी हैं साँसें, लड़खड़ाने लगे हैं पैर,
फिर भी 
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम


हतप्रभ, हताश लोग छोड़ने लगे हैं नाचघर
ब्लेक में खरीदी गई टिकटें बिखरने लगी हैं
नाचघर के बाहर
लोग चीख रहे हैं, रुको-रुको-रुको 
अब रुक भी जाओ, फिर भी रुक नहीं रहें हैं
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम

दिखाई नहीं दे रहे हैं उन्हें 
नाचघर छोड़ते हताश लोग
सुनाई नहीं दे रही हैं उन्हें 
लोगों की चीखें, चीत्कार 
अनिच्छा से थिरक रहे हैं अंग 
अनिच्छा से उठ रहे हैं पैर 
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम

 
नहीं रुकेंगे वे, रुक नहीं सकते वे
नाचते ही रहेंगे, नाचते ही रहेंगे 
देखो! देखो! देखो!
वे खुद नहीं नाच रहे हैं
हाथ, पैर, कमर और सिर 
पारदर्शी धागों से बंधे हैं 
धागे ही नचाए जा रहे हैं, और 
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम

कौन पकड़े है? इन धागों के सिरे
कौन है? जो नचाए जा रहा है
वही पवित्र (?) भूरी आँखों वाली बिल्ली 
निष्प्राण! वित्तीय पूंजी
उसी की पकड़ में है, सारे धागों के सिरे
वही नचाए जा रही है, और 
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम


है कोई! जो काट दे इन धागों को 
वरना, मर जाएंगे, अंकल सैम
कोई तो काटो, काट डालो इन धागों को
अरे! अन्न और कपास उपजाने वालों!
कारखानों में काम करने वालों!
पसीना बहा सब कुछ बनाने वालों 
अपने अपने औजार लाओ, और 
काट डालो इन धागों को
वरना, मर जाएंगे, अंकल सैम

नाच ..!     नाच ...!     नाच ...! 
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम


  • दिनेशराय द्विवेदी


बुधवार, 3 अगस्त 2011

परिस्थितियाँ निर्णायक होती हैं

हजीवन मनुष्य का स्वाभाविक गुण भी है और आवश्यकता भी। बालक को जन्मते ही अपनी माँ का साथ मिलता है। उसी के माध्यम  से उसे विकसित होने का अवसर प्राप्त होता है और उसी के माध्यम से वह जगत से परिचित होता है। फिर आते हैं पिता, दादा-दादी, चाचा-चाची, बुआ, मामा, नाना .... आदि। फिर जैसे जैसे बड़ा होता है उसे अपने हम उम्र मिलते चले जाते हैं। वह माँ से सीखना आरंभ कर के सारी दुनिया में जो कोई भी उस के संपर्क में आता है उस से सीखता जाता है। ये सीखें कभी समाप्त नहीं होती, जीवन पर्यन्त चलती रहती हैं। जो सोच लेता है कि अब उसे सीखने को कुछ शेष नहीं वह मुगालते में रहता है। उस के सीखने की प्रक्रिया मंद पड़ जाती है और धीरे-धीरे बंद भी हो जाती है। बस यही वह क्षण है जब वह मृत्यु की और कदम बढ़ाने लगता है। कभी लगता है सीखते जाना, लगातार सीखते जाना ही जीवन है। 

बालक बड़ा होता है विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करता है, अपने जीवन यापन के लिए सीखता है। इसी बीच वह जवान होता है। उस का शारीरिक विकास विपरीत लिंगी साथी की आवश्यकता महसूस कराने लगता है। वे भाग्यशाली हैं जिन्हें एक अच्छा जीवनसाथी मिल जाता है।  जीवन की अगली पायदान आरंभ हो जाती है।  जीवन संघर्ष यहीं से आरंभ होता है। अब दोनों को मिल कर जीवन चलाना है, एक सहजीवन। वे मिल कर श्रम करते हैं, साधन अर्जित करते हैं, गाड़ी के दो पहियों की तरह। यदि एक भी बराबर साथ न दे तो गाड़ी डगमगाने लगती है। पथ पर चलने में कठिनाई आने लगती है। कभी गाड़ी पथ से उतर जाती है, कभी रुक जाती है, कभी गलत राह पर चल पड़ती है। मंजिल पर पहुँचने के स्थान पर किसी अनजान पथ पर अनजान दिशा में चलने लगती है। 

सलिए जरूरी है, दोनों पहियों के बीच तालमेल और बराबरी से एक दूसरे का साथ निभाते चलना। यह तभी संभव है जब दोनों पहिए साथ चले ही नहीं अपितु एक दूसरे का ध्यान भी रखें। जब कभी कोई मोड़ आए और एक पर भार कम और एक पर अधिक हो तो कोई किसी का साथ न छोड़े। समझे कि यह मोड़ है, मोड़ पर तो यह होगा ही कि एक पर भार कम औऱ एक पर अधिक होगा। हो सकता है, अगले ही मोड़ पर दूसरे को अधिक भार उठाना पड़े। दोनों पहिए कब हर मोड़ पर यह समझ पाते हैं? जरा सी असुविधा में एक पहिया दूसरे को दोष देने लगता है।  दूसरा जान रहा है कि यह उस का नहीं मार्ग का, परिस्थितियों का दोष है। उसे अच्छा नहीं लगता। उसे चोट पहुँचती है। यह अक्सर होने लगे तो चोट गहरी होने लगती है। चोट खाने वाला बिलबिला उठता है। यही वह समय है, जब दोनों पहियों को सोचना चाहिए, एक दूसरे के बारे में सोचने से अधिक उन परिस्थितियों के बारे में जो दोनों में भेद उत्पन्न कर रही हैं।  उन्हें सोचना चाहिए कि प्रयास और परिश्रम करने पर भी कभी कभी इच्छित परिणाम नहीं मिलते। विचार, प्रयास और परिश्रम तो मनुष्य के हाथ में है, वे इन पर काम कर सकते हैं। लेकिन ये निर्णायक नहीं होते। निर्णायक होती हैं परिस्थितियाँ। उन्हें एक दूसरे को दोष देने के स्थान पर परिस्थितियों को समझना चाहिए। परिस्थितियों के अनुसार अपने विचारों, प्रयासों और परिश्रम का उपयोग करना चाहिए। अनुकूल परिस्थितियों की प्रतीक्षा करते हुए, एक दूसरे को पहुँचाई गई चोटों को सहलाते हुए, आगे इस बात का ध्यान रखते हुए कि वे दूसरे को चोट नहीं पहुँचाएंगे पथ पर चलते रहना चाहिए।