@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

गुरुवार, 1 अक्टूबर 2009

शिवराम ने साबित किया कि 'जनता का लेखक मूड का गुलाम नहीं होता'

शिवराम की नाट्य पुस्तकों 'गटक चूरमा' और 'पुनर्नव' का लोकार्पण समारोह - एक रपट




शिवराम के नाटक संग्रह 'गटक चूरमा' और नाट्य रूपांतरणों के संग्रह 'पुनर्नव' के लोकार्पण का अवसर था। मुख्य अतिथि थे, 'विकल्प' अखिल भारतीय जन सांस्कृतिक व सामाजिक मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष, भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर, बिहार के मानविकी विभाग के अध्यक्ष डॉ. रविन्द्र कुमार 'रवि'। उन्हों ने कहा कि शिवराम ने रंगकर्मियों की मांग पर नाट्य सृजन किया, वह भी केवल एक रात में, उस की नाट्य प्रस्तुति तीन दिन बाद ही होनी थी। नाट्य दल ने दो दिन के रिहर्सल के बाद उसे सफलता पूर्वक खेला। इस तरह यह साबित किया कि जनता का लेखक मूड का गुलाम नहीं होता। वह जनता की सामाजिक मांग पर लिखता है और उसकी पूर्ति करता है। इसी लिए उन्हें जन नाट्यकार कहा जाता है। यही नहीं शिवराम की जनता की ग्राह्य क्षमता पर ग़जब की पकड़ है। शिवराम किसी भी बात को अपने नाटक में इतने सहज तरीके से रखते हैं कि वे न केवल दर्शकों को प्रभावित करते हैं, अपितु उन्हें प्रेरित भी करते हैं। उन के नाटकों को बड़े से बड़े मंच पर पूरी साज-सज्जा और साधनों के साथ पेश किया जा सकता है, तो बिना किसी साधन के किसी गांव में अलाव की रोशनी में भी खेला जा सकता है।  दोनों ही रूपों में उन के नाटक समान रूप से प्रभावित करते हैं। यही कारण है कि उन के बिहार पहुँचने के बहुत पहले ही उन के नाटकों ने बिहार के नाट्यकर्मियों और दर्शकों के दिलों में स्थान बना लिया था। शिवराम ने मुंशी प्रेमचंद की कतिपय कहानियों का नाट्य रूपांतरण करके उन्हें आज के संदर्भों में महत्वपूर्ण तो बनाया ही है, अपने संपूर्ण रचनाकर्म से सामाजिक क्रियाशीलता से उन की परंपरा को आगे बढ़ाया है।

डा़. रवि ने कहा कि शिवराम की रचनाओं में वर्तमान समय की सभी समस्याएँ मूर्त होती हैं, वे उन के परिणाम और समाधान के विकल्प प्रस्तुत करती हैं।  वर्गीय समाज में साहित्य भी वर्गीय पक्षों का प्रतिनिधित्व करता है।  शिवराम का रचनाकर्म उन की जनपक्षधरता को बखूबी सामने रखता है।  उन के नाटकों में प्रचुर रूप से उपस्थित हास्य-व्यंग्य उन्हें लोकप्रिय और लोकरंजक बनाता है। उन्हों ने सूचना दी कि उन के विश्वविद्यालय ने हाल ही में एक विद्यार्थी को 'शिवराम के नुक्कड़ नाटकों का सामाजिक अध्ययन' विषय पर शोध के लिए पीएचडी की उपाधि प्रदान की है।  इस सूचना पर समारोह स्थल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।


पुस्तकों का लोकार्पण समारोह अभिव्यक्ति नाट्य एवं कला मंच और 'विकल्प' कोटा ने 'कला दीर्घा' के ह़ॉल में आयोजित किया था। कोटा के सभी साहित्य-कला कर्मी उन्हें कितना मान देते हैं और प्यार करते हैं, इस का पैमाना वहाँ उपस्थित लोग थे, जिनके कारण हॉल छोटा पड़ गया था। बहुत लोगों को हॉल के बाहर ही खड़े रहना पड़ा। समारोह का शुभारंभ मशाल प्रदीप्त कर के किया गया। जिसे स्वयं डॉ. रवि ने समारोह स्थल के बाहर ला कर रोपा।

लोकार्पित पुस्तकों पर वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए कवि-व्यंग्यकार अतुल चतुर्वेदी ने कहा कि शिवराम मात्र एक नाटककार नहीं अपितु संपूर्ण साहित्यिक-सांस्कृतिक व्यक्तित्व हैं। उन्हें रंगमंच और अपने दर्शक-पाठक के मन, रुचि और आवश्यकता की गहरी समझ है। वे नाटकों में गीतों की भाषा का उपयोग करते हैं, उन्हें अपने माध्यम की गहरी समझ है और उस पर मजबूत पकड़ भी। इन में वे समसामयिक समस्याओं को उठाते हैं। वे  'ग्लोबल साहब' और 'एटमी जी' जैसे नए शब्द तथा पात्र गढ़ते हैं जो लोगों के वर्गों और समूहों का प्रतिनिधित्व करते हैं।


बिहार से ही आईं विशिष्ठ अतिथि डॉ. मंजरी वर्मा ने कहा कि बिहार में कोटा को दो कारणों से जाना जाता है। कोचिंग के लिए और शिवराम के नाटकों के लिए।  उन के नाटक गाँव-गाँव में खेले जाते हैं और सामाजिक परिवर्तनकारी प्रभाव पैदा करते हैं। बिहार के कुछ गांवों ने तो उन के नाटकों से प्रेरणा प्राप्त कर बरसों पहले यह  तय किया कि गांव में कोई विवाह में दहेज न लेगा और न देगा। वहाँ विवाह पूरे समाज का दायित्व और समारोह बन चुके हैं, जिस में विवाह करने वाले परिवार को कोई आर्थिक बोझा नहीं उठाना पड़ता।  उन के नाटक देश भर के जनआंदोलनों के एक प्रभावी हथियार की साख रखते हैं।

नाट्यकर्मी संदीप राय ने मुंशी प्रेमचंद की कहानी के शिवराम द्वारा किए गए नाट्य रूपान्तरण 'ठाकुर का कुआँ' के अन्तिम दृश्य की गीत पंक्तियां सस्वर प्रस्तुत कीं...

धुआँ ही धुआँ
धुआँ ही धुआँ
जाति-धर्म भेदभाव
धुआँ ही धुआँ
लिंग-वर्ण भेदभाव
धुआँ ही धुआँ
ठाकुर का कुआँ 
ठाकुर का कुआँ।


उन्हों ने बताया कि किस तरह शिवराम काव्य और गीत पंक्तियों का उपयोग कर, नाटक के प्रभाव को दर्शक के अंतर तक पहुँचा देते हैं। उन्हों ने नाटक हम लड़कियाँ के प्रारंभ और समापन गीत की पंक्तियाँ प्रस्तुत कीं....
हम लड़कियाँ, हम लड़कियाँ, हम लड़कियाँ

हम मुस्काएँ जग मुस्काए
हम चहकें जग खिल-खिल जाए
तपता सूरज बीच गगन में 
पुलकित और मुदित हो जाए....
हम लड़कियाँ, हम लड़कियाँ, हम लड़कियाँ
तूफानों से टक्कर लेती लड़कियाँ
हम रचें विश्व को, सृजन करें हम

दें खुशी जगत को, कष्ट सहें हम
पीड़ा के पर्वत से निकली 
निर्मल सरिता सी सदा बहें
दें अखिल विश्व को जीवन सौरभ
प्रेम के सागर की उद्गम हम 
फिर भी हिस्से आएँ हमारे सिसकियाँ
हम लड़कियाँ,हम लड़कियाँ, हम लड़कियाँ !

शिवराम ने इस अवसर पर कहा कि उन की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ कभी भी उन के रचनाकार पर हावी नहीं रहीं।  उन के प्राथमिक नाटकों ने पीड़ित दर्शकों में संगठित हो कर मुकाबला करने की चेतना जगाई और  वे  खुद उन के आंदोलनों से जुड़ गए। समय और जनता की आवश्यकताओं के अनुरूप रचना कर्म करने के परिणाम स्वरूप ही वे आज  इस स्थान पर पहुँचे हैं। उन्हों ने कहा कि साहित्य की सभी विधाएँ तभी सोद्देश्य हैं जब वे अपनी सार्थकता जनपक्षधरता और जनआंदोलनों में खोजती हैं।

समारोह के अध्यक्ष मंडल के सदस्य डॉ़. नरेन्द्र नाथ चतुर्वेदी ने कहा कि शिवराम के नाटक लोक से उत्पन्न हैं, लोक के बीच ही खेले जाते हैं और लोक को ही समर्पित हैं। अध्यक्ष मंडल के  अन्य सदस्यों शैलेन्द्र चौहान और मास्टर राधाकृष्ण ने भी अपने अभिमत प्रस्तुत किए। विकल्प के शकूर 'अनवर' ने स्वागत वक्तव्य दिया और धन्यवाद ज्ञापन चांद 'शैरी' ने।  समारोह का सफल संचालन महेन्द्र 'नेह'  ने किया।
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दोनों नाटक पुस्तकों की प्रतियाँ स्वयं शिवराम से या प्रकाशक से मंगाई जा सकती हैं। उन के पते सुविधा के लिए यहाँ दिए जा रहे हैं।
  • शिवराम, 4-पी-46, तलवंडी, कोटा (राजस्थान) 
  • बोधि प्रकाशन, ऐंचारा बिल्डिंग, सांगासेतु रोड़, सांगानेर, जयपुर (राजस्थान)
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बुधवार, 30 सितंबर 2009

कौन सी काँग्रेस और कौन सी भाजपा?


कल जब अदालत पहुँचने को ही था तो सरकिट हाउस के कोर्नर पर ही पुलिस वाला वाहनों को डायवर्ट करता नजर आया।  आगे भीड़ जमा थी। मैं भीड़ तक पहुँचा तो वहाँ अदालत परिसर में प्रवेश करने वाला गेट बंद था। बाहर वकीलों और जनता का जमाव था। मैं अपनी कार को वहीं घुमा कर, एक चक्कर लगा कर दूसरे गेट तक पहुँचा। वहाँ भी वही आलम था। गेट बंद था, उस पर संघर्ष समिति का बैनर टंगा था और फिर शामियाने के नीचे दरियाँ बिछा कर वकील और हाईकोर्ट बैंच खोले जाने वाले आंदोलन के समर्थक बैठे थे। दोनों गेटों के बीच सड़क पर लोग फैले हुए थे। एक चकरी वाला गेट चालू था उस के सामने नौजवान वकीलों का जमावड़ा था वे किसी वकील, मुंशी और टाइपिस्ट को अंदर परिसर में न जाने दे रहे थे। हाँ न्यायार्थी जरूर अंदर आ जा रहे थे। मैं ने अंदर झाँक कर देखा तो वहाँ सन्नाटा पसरा था। जो लोग अंदर जा रहे थे मिनटों में वापस आ रहे थे। कोई कहता अदालत में न जज है और न रीडर, कोई कहता रीडर ने कार्यसूची पर सब मुकदमों की तारीखें दे रखी हैं। आज अखबारों ने भी खबरें छापी है और चित्र भी।

वकील, मुंशी, टाइपिस्ट सभी सड़कों पर डोल रहे थे या फिर धऱने पर बैठे थे। धरने पर लगातार वकीलों में से कोई या फिर राजनैतिक दलों, या संस्थाओं के प्रतिनिधि लाउडस्पीकर पर आंदोलन के समर्थन में बोले जा रहे थे। तभी काँग्रेस के प्रान्तीय प्रवक्ता माइक पर आए और कोटा में हाईकोर्ट की बैंच स्थापित किए जाने के समर्थन में जोरदार भाषण दिया। कहा कि मांग जायज है, काँग्रेस इस आंदोलन के साथ है।  मेरा सिर चकरा गया कौन सी काँग्रेस इस आंदोलन के साथ है वह जिस के वे प्रवक्ता हैं? या फिर वह जिस की राज्य सरकार है,? या फिर वह जो केन्द्र सरकार का नेतृत्व करती है?

कुछ दिन पहले यहीँ, इसी आंदोलन के धरने पर भाजपा के प्रतिनिधि बैठे नारे लगा रहे थे और भाषण देते हुए आंदोलन का पुरजोर समर्थन कर रहे थे और हाईकोर्ट बैंच न खोले जाने के लिए काँग्रेस सरकार की आलोचना भी। यह आंदोलन सात वर्ष पुराना है और तब आरंभ हुआ था जब काँग्रेस की सरकार का आखिरी साल बचा था। फिर चुनाव हुआ और सरकार बदल गई। भाजपा सत्ता में आई और पाँच साल बहुत कुछ कर के और न करके चली गई। अब यहाँ बैठी भाजपा न जाने कौन सी थी? वह जिस की पिछले पाँच साल से सरकार थी, या जो चुनाव हार चुकी है? साल भर से फिर काँग्रेस सरकार में बैठी है। पता नहीं क्या परेशानी है जो हाईकोर्ट का विकेन्द्रीकरण करने में उन्हें परेशानी आ रही है। परेशानी बताई भी नहीं जा रही है।

इधर डेढ़ बजा और धरना समाप्त, गेट खोल दिए गए। आधे घंटे बाद अदालत परिसर के अंदर गए। सब कुछ सामान्य होने लगा। पर तब तक मुकदमों की तारीखें बदली जा चुकी थीं। मुवक्किल गायब हो चुके थे और अधिकांश वकील भी। मैं ने अपने मुंशी को तारीखें लाने को कहा जो वह कुछ ही देर में ले आया। दिन का काम हो चुका था। मैं घर की ओर चल दिया। हड़ताल को एक माह हो चुका है। यही आलम पूरे संभाग में फैला पडा़ है। मैं कल्पना कर सकता हूँ कि यही स्थिति बीकानेर और उदयपुर संभागों की होगी वे भी अपने-अपने यहाँ हाईकोर्ट बैंचे खोलने के लिए आंदोलनरत हैं।

सोमवार, 28 सितंबर 2009

कल को खु़र्शीद भी निकलेगा, सहर भी होगी

वकीलों की हड़ताल का असर महसूस होने लगा है। काम पर मन जम नहीं रहा है। उस का असर अपने ब्लाग लेखन पर भी आया। अनवरत पर पिछले आठ दिनों में मात्र तीन पोस्टें ही हो सकीं। आज ब्लागवाणी ने खुद को समेट लिया। मन दुःखी है। जब कोई अनजान और बिना संपर्क का व्यक्ति भी असमय चल बसे तो दुःख होता है, यह मानवीय स्वभाव है। जब भी नेट चालू होता ब्लागवाणी एक टैब पर खुली ही रहती थी।  ब्लागवाणी ने हिन्दी ब्लागरी के विकास में जो भूमिका अदा की वह ऐतिहासिक है, उसे इतिहास के पृष्ठों से नहीं मिटाया जा सकता।  अभी उस के लिए भूमिका शेष थी, जिसे निभाने से उस के कर्ताओं ने इन्कार कर दिया, या कहें वे पीछे हट गए।  पीछे हटने की जो वजह बताई गई, वह तार्किक और पर्याप्त नहीं लगती। लेकिन यह उस के कर्ताओं का व्यक्तिगत निर्णय है।  उसे कोई चुनौती भी नहीं दे सकता।  खुद कर्ता पहले ही ब्लागवाणी को निजि प्रयास कह चुके हों, तब कोई क्या कह सकता है?  सिवाय इस के कि इस घड़ी का दुख और पीड़ा चुपचाप सहन करे या उसे अभिव्यक्त करे।  मुझे मेरे पिता जी के दिवंगत होने का वक्त स्मरण हो रहा है। जब वे गए तो गृहस्थी कच्ची थी। चार भाइयों में मैं अकेला वकालत में आकर संघर्ष कर रहा था। जब तक मैं कोटा से बाराँ पहुँचा तो मेरे आँसू सूख चुके थे। पिता जी के जाने के ख़याल से अधिक, बचे हुए परिवार को जोड़े रखने और उसे संजोने की चिंता बड़ी हो गई थी। मेरी हालत देख लोग कहने लगे थे कि उसे रुलाओ वर्ना शरीर घुल जाएगा। मुझे आज कुछ वैसा ही महसूस हो रहा है।



हालांकि ब्लागवाणी निजत्व की सीमा से परे जा चुकी थी। कोई अकेला व्यक्ति भी जब समाज या उस के एक भाग से जुड़ता है तो उस का कुछ भी निजि नहीं रह जाता है।  ब्लागवाणी हिन्दी ब्लाग जगत के ब्लागरों और पाठकों से जुड़ी थी। ब्लागवाणी को बंद कर के उस के कर्ताओं ने हिन्दी ब्लाग जगत को दुःख पहुँचाया है और उन्हें रिक्तता के बीच छोड़ दिया है।  आज जब हिन्दी ब्लाग जगत को और बहुत से विविध प्रकार के ऐग्रीगेटरों और साधनों की जरूरत है, उस समय यह रिक्तता सभी को अखरेगी। लेकिन ऐसा भी नहीं कि इस की पूर्ति नहीं की जा सकेगी। सभी महान कही जाने वाली संस्थाओं और व्यक्तियों के जाने के बाद ऐसा ही महसूस होता है। लेकिन जल्दी ही वह रिक्तता भरने लगती है। कम सक्षम ही सही, लोग आते हैं, काम करते हैं और अपनी भूमिका अदा करते हैं। कभी-कभी अधिक सक्षम लोग भी आते हैं और ऐसा काम कर दिखाते हैं जो पहले कभी न हुआ हो। तब लोग ऐतिहासिक भूमिका अदा करने वालों को भी विस्मृत कर देते हैं। लोगों को स्मरण कराना पड़ता है कि कभी किसी ने ऐतिहासिक भूमिका अदा की थी। ब्लागवाणी के मामले में क्या होगा? यह अभी नहीं कहा जा सकता।  इतना जरूर है कि ब्लागवाणी को बंद हुए अभी बारह घंटे भी न गुजरे थे, कि लोगों ने नए ऐग्रीगेटरों की तलाश आरंभ कर दी। एक एग्रीगेटर तो 'महाशक्ति समूह' तलाश भी कर लाया है। हो सकता है शीघ्र ही ब्लागवाणी के स्थान पर अनेक ऐग्रीगेटर दिखाई देने लगें और उस की छोड़ी हुई भूमिका को अदा करें।

सब से अफसोस-जनक बात जो है, वह यह कि ब्लागवाणी के बंद होने के लिए कुछ लोगों को जबरन जिम्मेदार ठहराया जा रहा है,  जिन में मैं भी एक हूँ।  यहाँ तक कि गालियाँ तक परोस दी गई हैं।  लेकिन मेरी दृढ़ मान्यता है कि जब भी, कुछ भी पुष्ट होता है तो वह अपने अंदर की मजबूती (अंतर्वस्तु)  के कारण और जब वह नष्ट होता है तब भी उस की अंदरूनी कमजोरी (अंतर्वस्तु) ही उस का मुख्य कारण होती है।  बाहरी तत्व उस में प्रधान भूमिका अदा नहीं कर सकते। रोज कपड़े सुखाने वाले से एक दिन डोरी टूट जाती है तो भी सुखाने वाले पर इल्जाम आता है, हालांकि वह टूटती अपनी जर्जरता के कारण है।

मेरे मित्र पुरुषोत्तम 'यक़ीन' के भंडार में इतनी रचनाएँ हैं कि  हर वक्त के लिए कुछ न कुछ मिल जाता है। इस रिक्तता के बीच मुझे उन की रचनाओं में से यह ग़ज़ल मिली है। आप भी पढ़िए। शायद इस ग़मज़दा माहौल में हिम्मत अफ़जाई कर सके।




कल को खु़र्शीद भी निकलेगा, सहर भी होगी
  •   पुरुषोत्तम 'यक़ीन'

हम अंधेरे में चराग़ों को जला देते हैं
हम पे इल्ज़ाम है हम आग लगा देते हैं


कल को खु़र्शीद* भी निकलेगा, सहर भी होगी
शब के सौदागरों! हम इतना जता देते हैं


क्या ये कम है कि वो गुलशन पे गिरा कर बिजली 
देख कर ख़ाके-चमन आँसू बहा देते हैं


बीहड़ों में से गुज़रते हैं मुसलसल** जो क़दम 
चलते-चलते वो वहाँ राह बना देते हैं


जड़ हुए मील के पत्थर ये बजा*** है लेकिन
चलने वालों को ये मंजिल का पता देते हैं


अधखिले फूलों को रस्ते पे बिछा कर वो यूँ 
जाने किस जुर्म की कलियों को सज़ा देते हैं


अब गुनहगार वो ठहराएँ तो ठहराएँ मुझे 
मेरे अश्आर शरारों को हवा देते हैं


एक-इक जुगनू इकट्ठा किया करते हैं 'यक़ीन'
रोशनी कर के रहेंगे ये बता देते हैं





ख़ुर्शीद*= सूरज,  
मुसलसल**=निरंतर,  
बजा***=उचित, सही




शनिवार, 26 सितंबर 2009

बुरे फँसे, वकील साहब!

वकीलों की हड़ताल की खबर से पब्लिक को पता लगा कि वकील साहब फुरसत में हैं, तो हर कोई उस पर डकैती डालने को तैयार था। जिन मुवक्किलों को अब तक वकील साहब से टाइम नहीं मिल रहा था। उन में से कुछ के फोन आ रहे थे, तो कुछ बिना बताए ही आ धमक रहे थे। पत्नी सफाई अभियान में हाथ बंटवा चुकी थीं। उधर शिवराम जी की नाटक की किताबों के लोकार्पण समारोह में वकील साहब को देख महेन्द्र 'नेह' की बांछें खिल गईँ। कहने लगे आप को पत्रकारिता का पुराना अनुभव है, अखबारों के लिए समारोह की रिपोर्टिंग की प्रेस विज्ञप्ति आप ही बना दें।  वकील साहब पढ़ने को गए थे नमाज़, रोजे गले पड़ गए। एक बार टल्ली मारने की कोशिश की।  लेकिन महेन्द्र भाई कब मानने वाले थे। कहने लगे -हमारी कविताएँ ब्लाग पर हमसे पूछे बिना दे मारते हो और हमारा इतना काम भी नहीं कर सकते? अब बचने का कोई रास्ता न था। इरादा तो था कि समारोह में पीछे की लाइन में बैठते, बगल में बिठाते यक़ीन साहब को, गप्पें मारते समारोह का मजा लेते।   पर हाय! हमारे मजे को तो नजर लग चुकी थी। तो पहला डाका डाला महेन्द्र भाई ने। सुन रहे हैं ना, फुरसतिया जी ,उर्फ अनूप शुक्ला जी! अपने थाने में पहली रपट महेन्द्र भाई के खिलाफ दर्ज कीजिएगा।

 बुरे फँसे, वकील साहब!

दूसरे दिन अखबार में समारोह की खबर देखी।  फोटो तो था, लेकिन खबर में विज्ञप्ति का एक भी शब्द न था। खबर एक दम बकवास। वकील साहब खुश, कि अच्छा हुआ भेजी विज्ञप्ति नहीं छपी, वर्ना महेन्द्र भाई तारीफ के इतने पुल बांधते कि अगले डाके का स्कोप बन जाता और बेचारा वकील फोकट में फँस जाता। लेकिन महेन्द्र भाई कम उस्ताद थोड़े ही हैं। अगले ही दिन आ टपके।  वही तारीफों के पुल! हम इतनी मेहनत करते हैं, मजा ही नहीं आता, खबर में। अब देखो आपने बनाई और कमाल हो गया। वकील साहब अवाक! कहने लगे -विज्ञप्ति तो छपी नहीं, जो खबर अखबार में छपी है वह बहुत रद्दी है। अरे आप ने दूसरा अखबार देख लिया। इन को देखो। बगल में से तीन-चार अखबार निकाले और पटक दिए मेज पर। वकील साहब क्या देखते? सब अखबारों में विज्ञप्ति छपी थी, फिर फँस गए। महेन्द्र भाई ने देखा मछली चारा देख ऊपर आगई है, तो झटपट कांटा फेंक दिया। यार! कई पत्रिकाओं को रिपोर्ट भेजनी है, वह भी बना दो।

वकील साहब ने देखा कि महेन्द्र भाई ने काँटा मौके पर डाला है और कोट का कॉलर उलझ चुका है। छुड़ाने की कोशिश की -मैं ने समारोह के नोट्स लिए थे, वह कागज वहीं रह गया है, अब कैसे बनाउंगा? मुझे वैसे भी कुछ याद रहता नहीं है। महेन्द्र भाई पूरी तैयारी के साथ आए थे। अपने फोल्डर से कागज निकाला और थमा दिया। तीन दिन बाद भी वकील साहब के नोट्स का कागज संभाल कर रखा हुआ था। वकील साहब ने फिर बहाना बनाया -आप लोगों के पास बढ़िया-बढ़िया कैमरे हैं और फोटो तक ले नहीं सकते। अभी समारोह के फोटो होते तो ब्लाग पर रिपोर्ट चली गई होती।

वो भी लाया हूँ, इस बार महेन्द्र भाई ने फोल्डर से समारोह के फोटो निकाले और कहा इन्हें स्केन कर लो और मुझे वापस दो।  अब बचने की सारी गुंजाइश खत्म हो चुकी थी। वकील साहब की फुरसत पर डाका पड़ चुका था। फोटो स्केन कर के वापस लौटाए गए। शाम तक रिपोर्ट ब्लाग पर छापने का वायदा किया, तब जान छूटी। जान तो छूटी पर लाखों नहीं पाए।  ताजीराते हिंद का खयाल आया कि यह डाका नहीं है, बल्कि चीटिंग है।  दफा 415 से 420 तक  के घेरे में जुर्म बनता है।  नोट करना फुरसतिया जी। चीटिंग की एफआईआर दर्ज करना महेन्द्र भाई के खिलाफ। यह भी दर्ज करना कि उन्हों ने इतना हो जाने पर भी कोई नई कविता अनवरत के लिए नहीं दी है। हाँ, वकील साहब राजीनामा करने को तैयार हैं बशर्ते कि महेन्द्र भाई कम से कम पाँच कविताएँ अनवरत को दे दें जिस से पाठकों को भी पढ़ने को मिल सकें।

अब फुरसत तो महेन्द्र भाई छीन ले गए।  समारोह की  रिपोर्ट बनाने का काम छोड़ गए।  वकील साहब उस में लगते कि फोन की घंटी बजी, ट्रिन...ट्रिन...! उठाया तो बड़े भाई महेश गुप्ता जी थे।  बार कौंसिल के मेंबर और पूर्व चेयरमेन, बोले क्या कर रहे हो पंडत! कुछ नहीं नहा धो कर अदालत जाने की सोच रहा हूँ। चलो बाराँ हो आएँ। वकील साहब समझ गए, एक से पीछा न छूटा पहले ही दूसरे डकैत हाजिर ..... अब चुनाव प्रचार भी करना पड़ेगा।

गुरुवार, 24 सितंबर 2009

फुरसत पर डाका


पिछले महीने की इकत्तीस तारीख से कोटा के वकील हड़ताल पर चल रहे हैं। हम भी साथ साथ हैं। रोज अदालत जाते हैं। वहाँ कोई काम नहीं, बस धरने पर बैठो, या अपने पटरे पर, या फिर दोस्तों के साथ चाय-कॉफी की चुस्कियाँ मारो। क्या फर्क पड़ता है? पर दिनचर्या बिगड़ गई है। जब काम ही नहीं होना है तो रोज फाइलें कौन निकाले और देखे। फाइलें अलमारी में पड़े पड़े आराम फरमा रही हैं। मुवक्किल भी फोन से पूछ रहे हैं कि हम आएँ या बिना आए काम चल जाएगा? अभी अदालतें सख्ती नहीं कर रही, शायद दुगने-चौगुने काम के बोझ से मारी अदालतें भी हड़ताल से मिले आराम का लाभ उठा रही हैं। मुवक्किलों की भीड़ अदालत में कुछ कम है।  मुंशी जाते हैं, तारीख ले आते हैं। किसी मुवक्किल को जल्दी होती है तो उस की दरख्वास्त पेश कर देते हैं। किसी की जमानत करानी होती है तो मुंशी अर्जी पेश कर देता है, वही फार्म भर देता है। अदालतें हैं कि बिना वकीलों का तनाव झेले बने बनाए ढर्रे पर जमानत ले लेती है, मुलजिम बाहर आ जाता है। जिस ने थोड़ा भी संगीन अपराध किया हो वह मुश्किल में हैं, उस की जमानत अटकी है। पुराना खुर्राट मुंशी एक जूनियर वकील को सलाह देता हुआ हमने सुन लिया "वकील साहब! मुवक्किलों को तो जरूर बुलाया करो। आएंगे तो कुछ तो नामा-पानी कर जाएंगे। वरना हड़ताल में सब्जी कहाँ से आएगी। दीवानी और गैरफौजदारी मुकदमों में कोई कार्यवाही नहीं हो रही है।

भले ही हड़ताल हो पर पेट हड़ताल नहीं करता। बिजली, पानी टेलीफोन वाले भी उन के बिल नहीं रोकते। पर भला हो उन मुवक्किलों का जो हड़ताल के वक्त अपने वकीलों का खयाल रखते हैं, फीस दे जाते हैं, कुछ तो इतने उदार हैं कि इस वक्त में ज्यादा भी दे जाते हैं। शायद वकील साहब बुरे वक्त में पाए पैसे की लाज रख लें। कुछ ज्यादा तवज्जो उस के मुकदमे पर दें।

हड़ताल तो कोटा के वकील छह साल से करते आए हैं, महीने के आखिरी शनिवार को। चाहते हैं, कोटा में हाईकोर्ट की बैंच खुल जाए।  छह साल से एक हड़ताल चल रही है। किसी के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती। वह स्वैच्छिक अवकाश जैसी चीज बन गई है। लेकिन हड़ताल बदस्तूर जारी है। कभी तो बिल्ली के भाग से छींका टूटेगा। कभी तो हाईकोर्ट और उस की एक बैंच की कमर फाइलों के बोझ से दोहरी होने लगेगी। कभी तो सरकार सोचेगी ही कि और भी बैंचें बनाई जाएँ। वैसे भी बीस बीस जजों को दो जगह बिठाने से क्या फायदा? इस की जगह दस दस जजों को चार जगह बिठा दिया जाए तो जनता को तो सुविधा होगी ही। यह सीधे-सीधे डेमोक्रेसी के डीसेंट्रलाइजेशन का मामला बनता है। पर अभी हड़तालियों का ध्यान अपनी मांग के इस लोजीकल प्रेजेंटेशन की तरफ नहीं गया है।


काम के दिनों में फुरसत निकलती थी। सब समझते थे कि वकील साहब काम में व्यस्त हैं। इधर जब से हड़ताल का पता लगा है। पत्नी से ले कर दोस्तों तक को वकील साहब फुरसत में नजर आ  रहे हैं।  हर कोई हमारी फुरसत पर पिले पड़ा है। पत्नी को दिवाली की सफाई के काम में हाथ बंटवाना है. दोस्तों को कुछ खास काम निकलवाने हैं।  कुछ मुवक्किल भी इसी इंतजार में बैठे थे, वे भी चक्कर लगाने लगे हैं। शायद बहुत दिनों से क्यू में इंतजार कर रहे उन के काम की बारी आ जाए।  सब हमारी फुरसत पर निगाह जमाए बैठे हैं।  कब मौका मिले और हमारी फुरसत हथिया लें। मुश्किल से अब जा कर उन का मौका जो लगा  है। फुरसत पर डाका पड़ रहा है। इस डाके के लिए किसी थाने में रिपोर्ट, तफ्तीश और चालान का कायदा भी नहीं है।

सोमवार, 21 सितंबर 2009

कुछ संवाद 'गटक चूरमा' नाटक से .....

- अपने वो वकील साहब हैं न?
- कौन?
- अरे ! वो ही, जो 'तीसरा खंबा' पे कानूनी बात बतावत हैं, और 'अनवरत' पर भी न जाने क्या क्या लिक्खे हैं।
- हाँ, हाँ वही न, जो सिर से गंजे हो कर भी 'शब्दों का सफर' में सरदार बने बैठे हैं?
- हाँ, वो ही।
- वो दो दिन से कुच्छ भी ना लिख रहे, अनवरत खाली पड्यो है।
- क्या? दो दिन में लिखने को कुच्छ ई ना मिल्यो उन को? आज तो बड़्डे-बड्डे मौके थे जी। एक तो पाबला जी को जनम दिन थो, दूजो करीना कपूर को, तीजो ईद को। कच्छु नाहीं तो मुबारक बाद ही लिक्ख मारते!
-एक दिन तो निकल गयो, शिबराम जी की नाटकाँ की किताबाँ का लोकार्पण में।
-आज दफ्तर में काम करने बैठ गए जी, फेर साम को कोई से मिलने-जुलने निकल गए जी। अब खा पी के लोकार्पण हुई किताब बाँच रहे हैं।
- कौन सी किताब बाँच रिये हैं जी?
- वो, ही जी, का कहत हैं उसे ..... "गटक चूरमा"।
- अब ये गटक चूरमा  का होवे जी?
- य्हाँ तो किताब और नाटक को नाम है जी। पर जे एक चूरन होवे, जो मुहँ में फाँके तो खुद बे खुद पानी आवे और गले से निच्चे उतर जावे।
- वो तो ठीक, पर ई किताब में का लिक्खो होगो?
- चल्ल वा वकील साब से ही पूच्छ लेवें।
- चल!
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- वकील साब! गटक चूरमा पढ़ो हो। कच्छु हमें ही सुना देब, दो-च्चार लाइन।
- तो सुनो.....


भोपा और भोपी, वे ही जो राजस्थान में फड़ बांच सुनावें। रामचंदर के गांव बड़ौद पहुंच गए हैं। जबरन रामचंदर के बेटी जमाई भी बन लिए। अब रामचंदर ले जा रहा है उन्हें अपने घर। रास्ते में कुत्ता भोंकता है।
रामचंदर-  तो ..... तो....... (कहते हुए पत्थर मार कर कुत्ते को भगाता है और कहता है) मेहमान हैं, नालायक कोटा से आए हैं ... (फिर भोपा-भोपी से मुखातिब हो कर) कुत्ते हैं, नया आदमी देखते हैं तो भोंकते हैं। कुत्ते तो कोटा में भी भोंकते होंगे।
भोपी- ना, हमारे यहाँ तो काटते हैं, फफेड़ देते हैं, पेट में चौदह इंजेक्शन लगें। नहीं तो कुत्ते के साथ ही जै श्री राम!
भोपा- नही, ये तो झूठ बोलती है। हमारे यहाँ तो कुत्ते दुम हिलाते हैं और पैर चाटते हैं।
भोपी- चाटते हैं, पर बड़े लोगों के। छोटे लोगों को देख कर तो ऐसे झपटते हैं जैसे पुलिस।
भोपा- ऐ भोपी, तू पालतू कुत्तों की बात कर रही है और यहाँ बात चल रही है गली मोहल्ले के कुत्तों की। समझती नहीं है क्या।
रामचंदर- सच कहते हो भाई। उन कुत्तों की तो किस्मत ही निराली है, जो कोठी-बंगलों में रहते हैं। किसन बता रहा था कि बड़े ठाट हैं भाई उन के। हम से तो वे कुत्ते ही बढ़िया।
भोपा- बढ़िया? पाँचों अंगुली घी में...।
भोपी- अरे! मेरे राजा, पाँचों नहीं दसों अंगुलियाँ घी में। साहब और मेम साहब अपने हाथों मालिस करें, नहलावें-धुलावें, बाथरूम, टॉयलट करावें...।
भोपी- (रामचंदर से) मतलब टट्टी पेशाब करावें।
(रामचंदर हँसता है)
भोपी- फस्सकिलास खाना खिलाएँ और गद्दों पर सुलाएँ।
भोपा- और झक्क सैर कराने ले जाएँ।
भोपी- आगे आगे कुत्ता और पीछे-पीछे साब।
भोपी- वाह! क्या दृश्य बनता है।
पता नहीं चल पाता कि इनमें कुत्ता कौन है और साहब कौन...।
(भोपा और रामचंदर ठठा कर हँस पड़ते हैं)
-बस भाई इत्ता ही। वकील साब बोले। आगे या तो किताब खुद बाँचो या फिर कहीं नाटक खेला जाए तो देखो। नहीं तो किताब मंगाओ और खुद खेलो।


भोपा-भोपी
और अंत में-
सब से पहले टिप्पणीकारों, फिर गैरटिप्पणीकार पाठकों और फिर ब्लागर भाइयों को ईद-उल-फित्र की बधाई और शुभकामनाएँ। 
राम! राम!
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शनिवार, 19 सितंबर 2009

अपना मुख जन-गण की ओर -शिवराम


 आज  शिवराम के नाटकों की दो पुस्तकों 'गटक चूरमा' (मूल्य 35 रुपए) और 'पुनर्नव' (मूल्य 50 रुपए) का लोकार्पण है। इन में सम्मिलित सभी नाटक खेले जा चुके हैं और उन का नाटकीय आवश्यकताओं के अनुसार पुनर्लेखन भी हुआ है।  सभी नाटक किसी भी नाटक रूप में खेलने के लिए आदर्श हैं। मैं चाहता था कि इस अवसर पर इन नाटकों के बारे में कुछ लिखूँ। जब मैं उन्हें इस हेतु फिर से पढ़ने बैठा तो लगा कि उन पर कुछ लिखने से बेहतर होगा कि 'गटक चूरमा' की भूमिका में लिखा गया शिवराम का आलेख यहाँ प्रस्तुत करना अधिक प्रासंगिक होगा।  उसे ही बिना किसी टिप्पणी के यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ......

हिन्दी जगत की सक्रिय नाट्य संस्थाओं की सब से बड़ी समस्या कोई है तो वर्तमान  संदर्भों में प्रासंगिक नाटकों की।  नाटक कम लिखे जा रहे हैं। पुराने नाटकों की प्रासंगिकता कम दिखाई देती है। दूसरी भाषाओं से अनुवाद अपनी जगह पर है, पर अपनी भाषा में रचे गए नाटकों का दर्शकों के साथ जो सांस्कृतिक तादात्म्य बनता है वह अनुदित नाटकों का नहीं बनता इसलिए यह भी हो रहा है कि नाट्य दल इम्प्रोवाइजेशन पद्धति से किसी एक थीम या आईडिया पर सामूहिक रूप से आलेख तैयार करते हैं और इस तरह नाटकों के अभाव की पूर्ति करते हैं। लेकिन समर्थ लेखक द्वारा नाट्य रचना का सृजन भिन्न प्रकार की रचना प्रक्रिया है, जीवनानुभव, जीवन दर्शन और मानवीय संवेदनाओं के क्रिया व्यापार के बेहतर समुच्चय की संभावना वहाँ अधिक बनती है। प्रस्तुति के लिए तैयारियों के दौरान निर्देशक और कलाकारों का व्यवहार मंच की आवश्यकतानुसार  उस समृद्ध करता ही है, लेकिन यदि उन के पास 'थीम' या 'आईडिया' के बजाय नाटक-रचना उपलब्ध हो और वे उस पर काम शुरू करें तो यह उन के लिए भी अधिक सुविधाप्रद रहता है और बेहतर नाट्य प्रस्तुति के लिए भी अधिक उपयुक्त रहता है। जाहिर है हिन्दी में वर्तमान सामाजिक यथार्थ पर आधारित नाटकों की जरूरत है।

जो लोग सामाजिक दायित्वबोध से संचालित हैं और जनता के बीच सास्कृतिक-सामाजिक आंदोलन निर्मित किए जाने के पक्षधर हैं, उन्हें कलाओं और साहित्य की जनोन्मुखी विधाओं और प्रवृत्तियों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।  अभिजनोन्मुखी साहित्यिक सांस्कृतिक मठाधीशों की दुनिया जनोन्मुखी कला कर्म का उपहास और तिरस्कार करेगी ही, उन्हें अपने काम में लगे रहने दें। भविष्य उसी कला कर्म का है, सार्थकता उसी कलाकर्म की है जो अपने समय में सार्थक हस्तक्षेप करता है। अपना मुख जनगण की ओर रखता है।

नाटक एक ऐसी विधा है जो काव्य भी है और कहानी भी।  मंच पर प्रस्तुति के समय तो सभी कला विधाएँ उस के साथ समुच्चित होने लगती हैं। अतः यह कविता या कहानी से कम महत्वपूर्ण विधा नहीं है। बल्कि अधिक महत्वपूर्ण है। नाट्य रचना कठिन काम है, कविता या कहानी से अधिक कठिन है। वर्तमान हिन्दी साहित्य जगत में उस का कम मान है तो यह अभिजनोन्मुखता की प्रवृत्तियों के वर्चस्व के कारण है। जिन्हें अभिजन समाज की सेवा चाकरी में अपने कला कर्म को परोसना है और उन से प्राप्त इनामों-इकरामों से जीवन यापन करना है वे अपने इस चारण-विदूषक-चाटुकार कर्म में लगे रहें और कुंठित हो हो कर भूलुंठित होते रहे, उन के दिए ताजों-भूषणों से अलंकृत हो हो कर दुमें ऊँची कर-कर के ऐंठते-गुर्राते रहें। ऐसे लोगों को ठेंगा दिखाओ और हो सके तो इन बेचारों पर दया करो, लेकिन जो साहित्य और कलाओं को मनुष्य के सांस्कृतिक उन्नयन की साधना मानता है और इस हेतु जन-गण को समर्पित है उन की दुनिया अलग है, उन का मार्ग अलग है। कठिनाई तब होती है जब दोनों दुनियाओं में स्थान बनाने की आकांक्षा उछल-कूद करती है। इस दुविधा से मुक्त होना चाहिए। या तो इस और या उस ओर। तिकड़मों, हुक्मरानों की कृपाओं, संसाधनों के बल पर पाए प्रचारों से कुछ समय के लिए अपनी श्रेष्ठता का भ्रम पैदा किया जा सकता है। साहित्य और कलाओं की दुनिया अंततः वही बचता है, जिसे लोक सहेजता है।

नाटक, गीत, पोस्टर, चित्रकला, आदि जन सांस्कृतिक अभियान के प्रमुख अंग हैं।  हमें इन्हें पुष्ट और समृद्ध करना चाहिए।

ये नाटक ऐसी ही जरूरतों के अंतर्गत लिखे गए हैं। इस संग्रह में चार नाटक हैं; 'गटक चूरमा', 'हम लड़कियाँ', 'बोलो-हल्ला बोलो' और 'ढम ढमा ढम ढम'। 'दुलारी की माँ', एक गाँव की कहानी' और 'रधिया की कहानी' नाटकों को भी मैं इस में शामिल करना चाहता था लेकिन ये तीनों नाटक अलग अलग पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं और अभी उपलब्ध भी हैं, इस लिए फिर इन्हें इस संग्रह में शामिल करने का इरादा छोड़ दिया।

ये नाटक मेहनतकश अवाम की जिंदगी, उन की समस्याओं और साम्राज्यवादी भू-मंडलीकरण के यथार्थ से रूबरू होते हैं और दर्शकों को रूबरू कराते हैं। इन्हें नुक्कड़ों, चौपालों, खुले मंचों और रंगमंच पर सभी रूपों में खेला जा सकता है।

'अभिव्यक्ति' नाट्य एवं कला मंच कोटा ने इस पुस्तक के प्रकाशन में दायित्वपूर्ण सहयोग किया है।  सच तो यह है कि मेरे नाटकों को इस संस्था से सम्बद्ध रंगकर्मियों ने मुझ से अधिक जिया है। मैं उन के प्रति अपना आभार व्यक्त करता हूँ।  मैं उन सभी मित्रों और निर्देशकों का आभारी हूँ, जिन्हों ने  इस हेतु प्रेरणा दी और सहयोग किया। उनि सभी रंग संस्थाओं और रंग कर्मियों का भी मैं आभारी हूँ। जिन्हो ने इन नाटकों की प्रस्तुतियाँ दी और इन्हें जन-नाटक बनाया।

मुझे विश्वास है कि जनता के बीच सक्रिय जनोन्मुखी रंगकर्मी इन नाटकों को उपयोगी पाएँगे।

इन नाटकों के गैर व्यावसायिक मंचन के लिए पूर्व स्वीकृति की आवश्यक नहीं है। मंचन की सूचना् देंगे तो अच्छा लगेगा।
-शिवराम



दोनों नाटक पुस्तकों की प्रतियाँ स्वयं शिवराम से या प्रकाशक से मंगाई जा सकती हैं। उन के पते सुविधा के लिए यहाँ दिए जा रहे हैं।

  • शिवराम, 4-पी-46, तलवंडी, कोटा (राजस्थान) 
  • बोधि प्रकाशन, ऐंचारा बिल्डिंग, सांगासेतु रोड़, सांगानेर, जयपुर (राजस्थान)