@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शनिवार, 14 मार्च 2009

बालिकाओं से बलात्कार की शर्मनाक घटनाएँ और नागरिकों की सकारात्मक भूमिका।

मेरे नगर कोटा में धुलेंडी की रात को घटी दो बहुत शर्मनाक घटनाएँ सामने आईं।  दोनों बालिकाओं के साथ बलात्कार की घटनाएँ।  नगर के कैथूनीपोल थाना क्षेत्र के कोलीपाडा इलाके में बुधवार को एक अधेड ने सात वर्षीय बालिका के साथ बलात्कार किया।  लेकिन पुलिस ने अभियुक्त को शांतिभंग के आरोप में गिरफ्तार किया जिस से  गुरूवार को उसकी जमानत हो गई।   अभियुक्त ने गुरूवार को पीडिता के परिजनों को धमकाया।   इससे लोगों का आक्रोश फूट पडा और उन्होंने महिला संरक्षण समिति की अध्यक्ष संगीता माहेश्वरी के नेतृत्व में थाने में प्रदर्शन किया।  बाद में पुलिस द्वारा बलात्कार मामला दर्ज करने पर ही लोग शांत हुए।
दूसरी घटना रेलवे कॉलोनी थाना क्षेत्र में हुई जिस में एक ठेकेदार ने उस के यहाँ नियोजित श्रमिक की नाबालिग पुत्री का अपहरण कर बलात्कार किया।  अर्जुनपुरा के पास बारां रोड पर एक ठेकेदार ने सडक का पेटी ठेका ले रखा है।  एक श्रमिक दम्पती अपनी नाबालिग पुत्री के साथ ठेकेदार के पास रहकर मजदूरी करते हैं।  बुधवार रात ठेकेदार श्रमिक की नाबालिग पुत्री को बहला-फुसलाकर भगा ले गया।  पुलिस को जब घटना की जानकारी मिली तो उन्होंने उसकी खोज शुरू की।  इस बीच श्रमिक व उसके साथी ठेकेदार को तलाशते हुए बून्दी जिले के इन्द्रगढ के केशवपुरा गांव पहुंच गए।  गांव में ठेकेदार के छिपे होने की जानकारी पर लोगों ने गांव को घेर लिया।  ठेकेदार एक घर में किशोरी के साथ छिपा मिला जिसे लोगों ने पुलिस को सौंप दिया।  किशोरी की शिकायत पर पुलिस ने धारा 303, 366 व 376 में मामला दर्ज कर लिया।

ये दोनों घटनाएँ बहुत शर्मनाक हैं और दोनों ही घटनाओं में बालिकाएँ कमजोर वर्गों से आती हैं।  लेकिन इन दोनों घटनाओं में नागरिकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।  पुलिस की भूमिका पहली घटना में अपराधी को बचाने और मामले को रफा-दफा करने की रही लेकिन नागरिकों की सजगता और तीव्र प्रतिक्रिया ने पुलिस को कार्यवाही करने को बाध्य. कर दिया।  दूसरी घटना में भी नागरिकों ने खुद कार्यवाही कर अभियुक्त को पकड़ लिया और बालिका को उस के पंजों से छुटकारा दिलाया।  नागरिक इस तरह जिम्मेदारी उठाने लगें तो समाज में बड़ा परिवर्तन देखने को मिल सकता है।   वे सभी नागरिक अभिनन्दनीय हैं जिन्हों ने इन दोनों घटनाओं में अपनी सकारात्मक भूमिका अदा की है।   इन दोनों घटनाओं की आगे की कड़ियों पर भी नागरिक नजर रखेंगे तो अपराधी बच नहीं पाएँगे।

शुक्रवार, 13 मार्च 2009

बदलाव की बयार और जंग लगा ग्रामीण समाज

मेरे राजस्थान के जोधपुर नगर से एक खबर  है कि वहाँ पिता के देहान्त पर उन की लड़कियों ने उन की पार्थिव देह का अंतिम संस्कार वैसे ही किया जिस तरह वे पुत्र हों।  कल एक प्रान्तीय चैनल ने इस खबर को बहुत बार दिखाया।  एक बहस भी चलाने का प्रयत्न किया जिस में एक पण्डित जी से बात चल रही थी कि क्या यह शास्त्र संगत है।  पण्डित जी ने पहले कहा कि यह तो सही है और शास्त्रोक्त है।  लेकिन जब उन से आगे सवाल पूछे गए तो उन्हों ने इस में शर्तें लादना शुरू कर दिया कि यदि भाई, पुत्र, पौत्र आदि न हों और कोई अन्य पुरुष विश्वसनीय न हो तो शास्त्रों को इस में कोई आपत्ति नहीं है।  पण्डित जी ने अपने समर्थन में विपत्ति काल में कोई मर्यादा नहीं होती कह डाला।  कुल मिला कर पण्डित जी बेटियों को यह अधिकार देने को राजी तो हैं लेकिन पुत्र और पौत्र की अनुपस्थिति में ही।  शायद उन को अपने व्यवसाय पर खतरा नजर आने लगा हो।

लेकिन इस के बावजूद उन चारों बेटियों पर कोई असर नजर नहीं आया।  उन में से एक का कहना था कि हमारे पिता ने हमें बेटे जैसा ही समझा, बेटों जैसा ही पढ़ाया लिखाया और पैरों पर खड़ा किया।  हमने अपना कर्तव्य निभाया है।  मुझे आशा है लोग इस से सीख ले कर अनुकरण करेंगे।  बेटियों को बेटो से भिन्न नहीं समझेंगे।  और बेटियाँ भी खुद को पिता के परिवार में पराया समझना बंद करने की प्रेरणा लेंगी।  यह तो एक ऐसा परिवार था जहाँ पुत्र नहीं था।  लेकिन पुत्र के होते हुए भी बेटियों को यह अधिकार समान रूप से मिलने में क्या बाधा है? 

हालाँ कि इस तरह की घटना पहली बार नहीं हुई है इस से पहले भी राजस्थान में यह हुआ है।  लोग इस घटना से सीख ले कर अनुकरण करेंगे तो यह परंपरा बन लेगी।  यह सही रूप में महिला सशक्तिकरण है।

यहीं राजस्थान के हाड़ौती के मालवा से लगे हुए क्षेत्र से एक खबर  है कि हजारी लाल नाम के एक व्यक्ति ने 20 बरस पहले किसी स्त्री से नाता किया था। जिस के कारण उसे गाँव से बहिष्कृत कर दिया गया था।  बीस साल से वह निकट ही कोई दस किलोमीटर दूर अकलेरा कस्बे में रह रहा था, लेकिन गाँव नहीं जा पा रहा था।  बीस साल बाद हजारी लाल ने यह सोचा  कि अब तो गाँव बदल गया होगा।  गाँव के लोग उससे मिलते रहते थे, शायद उस के व्यवहार से उस ने यह अनुमान लगाया हो।  वह बीस साल बाद गाँव में पहुँचा तो भी गाँव निकाले के फरमान ने उस की आफत कर दी।  गाँव के लोगों ने उसे पीटा और एक कमरे में बंद कर दिया।  कुछ लोगों की शिकायत पर पुलिस गाँव पहुँची तो उस पर पथराव हुआ और देशी कट्टे से फायर भी। पुलिस ने अपने एक सहायक इंस्पेक्टर को घायल हो ने की कीमत पर हजारी लाल को गाँव के लोगों से छुड़ाया।

हम गाहे बगाहे अपने व्यक्तिगत कानूनों के खिलाफ लिखते हैं।  लेकिन हमारा समाज अभी भी व्यक्तिगत कानून की सत्ता को ही स्वीकार कर ता है और उस के लिए पुलिस से सामना करने को तैयार हो जाता है।  क्या कभी कहीं देश के इन गाँवों के जंग लगे समाज का मोरचा हटा कर उन्हें चमकाने के  लिए प्रयास करते लोग नजर आते है?

मंगलवार, 10 मार्च 2009

होली के रंग, हमारे संग

 
लीजिए जल गई होली

रंगिए पर जरा बच के, यहाँ लट्ठ चलते हैं
.
 
बोल मेरी मछली कितना पानी?
रंग से रंग दें आज कृष्ण-राधा संग संग
हम भी रंग ही गए होली के रंग में
और
वे भी कम नहीं 
 
जरा गौर से देखिए
अरे! आप कहाँ घुस आईं कैमरे में 
अब आ ही गई हैं तो ठीक से आइए जी! 

और बेटे जी आप को क्या हुआ है?


 
अरे! बिटिया कैसे बच गई, या नहा ली?
 

।।इति हो-ली।।

रविवार, 8 मार्च 2009

तुम्हारी जय !

महिला दिवस पर महेन्द्र 'नेह' का गीत  




तुम्हारी जय !


अग्नि धर्मा
ओ धरा गतिमय
तुम्हारी जय !

सृजनरत पल पल
निरत अविराम नर्तन
सृष्टिमय कण-कण
अमित अनुराग वर्षण

विरल सृष्टा
उर्वरा मृणमय
तुम्हारी जय !

कठिन व्रत प्रण-प्रण
नवल नव तर अनुष्ठन
चुम्बकित तृण तृण
प्राकाशित तन विवर्तन

क्रान्ति दृष्टा
चेतना मय लय
तुम्हारी जय !
                    ... महेन्द्र नेह



  

शनिवार, 7 मार्च 2009

अधिवक्ता संघ दुर्ग ने किया विधि ब्लागिरी का सम्मान

अधिवक्ता संघ के सचिव श्री ओम प्रकाश शर्मा बैठक का संचालन करते हुए
अधिवक्ता संघ दुर्ग शायद देश का पहला जिला स्तरीय अधिवक्ता संघ है जो जुलाई 2008 से अपना मासिक अखबार संचालित करता है और उस का नेट संस्करण भी ब्लाग के माध्यम से प्रस्तुत करता है।  यह नेट संस्करण ही मेरा इस संघ के साथ संपर्क का माध्यम बना।  दुर्ग अधिवक्ता संघ के कार्यालय का कमरा न्यायालय परिसर में ही प्रथम तल पर स्थित कोई 12 गुणा 20 फुट के कमरे में स्थित था।  उसे एक बैठक की तरह सजाया हुआ था।  एक तरफ चार पांच कुर्सियाँ लगी थीं उन के सामने मेज थी और उस के सामने मेज की ओर मुँह किए शेष कुर्सियां लगी थीं कुल बीस-पच्चीस व्यक्तियों के बैठने की व्यवस्था। मुझे भी चार कुर्सियों में से एक पर बैठने को कहा गया वहाँ पहले से अधिवक्ता संघ की अध्यक्षा सुश्री नीता जैन, सचिव ओम प्रकाश शर्मा मौजूद थे।  हमारे वहाँ पहुँचने के कुछ देर बाद ही औपचारिक बैठक आरंभ हुई। सचिव शर्मा जी ने कार्यक्रम का संचालन किया अतिथि (मैं) और अध्यक्षा को माल्यार्पण और बुके भेंट के बाद मुझ से इंटरनेट की वकीलों के लिए उपयोगिता पर प्रकाश डालने को कहा गया। 
 अभिभाषक वाणी के संपादक शकील अहमद सिद्दीकी बोलते हुए
मैं ने उन्हें बताया कि हमारी पीढ़ी तो शायद इंटरनेट का उपयोग बहुत ही कम कर पाए लेकिन आने वाली पीढी़ का काम इस के बिना नहीं चलेगा।  सर्वौच्च न्यायालय के 1950 से ले कर आज तक के सभी महत्वपूर्ण निर्णय सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर मुफ्त उपलब्ध हैं और 2000 के बाद तो लगभग सभी उच्चन्यायालयों के निर्णय भी उपलब्ध होने लगे हैं।  आज जब सैंकड़ों की संख्या में विधि जर्नल प्रकाशित होने लगे हैं।  महत्वपूर्ण निर्णयों तक पहुँचना कठिन हो चला है।  आगे आने वाले वर्षों में और भी कठिन होता जाएगा।  उन तक पहुँच केवल इंटरनेट के माध्यम से ही संभव हो सकेगी।  तब बिना इंटरनेट की सुविधा के वकील को योग्य वकील ही नहीं समझा जाएगा।  जैसे मुवक्किल आज वकील के दफ्तर की किताबों की संख्या को देख कर वकील की योग्यता का अनुमान करता है। तब प्रत्येक वकील के दफ्तर में एक कंप्यूटर और इंटरनेट कनेक्शन आवश्यक होगा।
स्वागत और परिचय
मुफ्त साधनों के साथ बहुत से डा़टाबेस भी उपलब्ध हैं। जिनका हम उपयोग कर सकते हैं जहाँ सभी निर्णयों के साथ साथ वकालत की अन्य सामग्री भी तुरंत उपलब्ध हो सकती है।  अधिकांश कानून और नए संशोधनों की जानकारी अभी भी इंटरनेट के माध्यम से प्राप्त की जा सकती है।  लोग इस का उपयोग प्रारंभ करें तो जल्द ही उस के बहुत से नतीजे भी सामने आने लगेंगे।  मैं ने उन्हें तीसरा खंबा, जूनियर कौंसिल, अभिभाषक वाणी और अदालत ब्लॉगों के बारे में भी बताया।  यह सौभाग्य ही था कि तीनों के मॉडरेटर या प्रतिनिधि वहाँ उस बैठक में उपस्थित थे।  मैं ने अदालतों की कमी और साधनों की कमी के बारे में उन्हें बताया और यह भी कहा कि हम वकील यदि छोटी छोटी समस्याओं पर काम बंदी के स्थान पर अदालतों की संख्या वृद्धि और साधनवृद्धि के मामले में आंदोलित हों तो सरकारों को चेतन होना पड़ेगा।  वकीलों के आंदोलित हुए बिना इस समस्या की ओर सरकारें ध्यान नहीं देंगी।   इस छोटी सी बैठक को अधिवक्ता संघ की अध्यक्षा सुश्री नीता जैन ने भी संबोधित किया।  सभा का संचालन न केवल रोचक था अपितु काव्यत्मक भी था।  अनपेक्षित रूप से मुझे संघ की ओर से श्रीफल और एक शॉल भी एक सम्मान पत्र के साथ भेंट किया गया।
स्वागत और परिचय
इस संक्षिप्त सभा के उपरांत कार्यकारिणी ने हमारे साथ पास ही एक रेस्तराँ में दोपहर का भोजन किया।  वहाँ से  अभिभाषक वाणी के संपादक शकील अहमद सिद्दीकी, संजीव तिवारी और कुछ अन्य अधिवक्ता मुझे स्टेशन तक छोड़ने भी आए पाबला जी और वैभव तो साथ थे ही।  अधिवक्ता संघ दुर्ग ने जो सम्मान मुझे दिया वह केवल मेरा सम्मान नहीं था।  वह मेरी सवा वर्ष की कानून और न्याय व्यवस्था से संबंधित ब्लागिरी और हि्दी ब्लागिरी का भी सम्मान था।  यह इस बात का भी द्योतक था कि ब्लागिरी केवल व्यक्तिगत विचारों को प्रकट करने का साधन नहीं है। अपितु यदि इस का उपयोग किया जाए तो यह समाज के विभिन्न भागों को जोड़ने और उपयोगी सूचनाओं को जनसाधारण तक पहुँचाने का एक प्रभावकारी माध्यम भी हो सकती है।

हिन्दी ब्लागिरी का सम्मान
 
छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस के आने तक प्लेटफार्म पर भी बातों का सिलसिला जारी रहा।  एक एक कॉफी वहाँ पी ली गई।  जो मेरी छत्तीसगढ़ की इस संक्षिप्त यात्रा की अंतिम कॉफी थी।  मैं पाबला जी से कह रहा था कि समय की कमी से बहुत कुछ छूट गया है।  मेरी पंकज अवधिया से मुलाकात नहीं हो सकी वे बाहर थे और उसी दिन सुबह लौट कर आए थे, जिस दिन मैं वापस लौट रहा था।  एक और महत्वपूर्ण व्यक्ति जिस से मुलाकात नहीं हो सकी वे अदालत ब्लाग के मॉडरेटर और पाबला जी के साथी लोकेश थे।  अदालत वह ब्लाग है जिस ने तीसरा खंबा को बहुत सहयोग किया।  अदालत यदि महत्वपूर्ण अदालती खबरें हिन्दी ब्लाग जगत तक निरंतर नहीं पहुंचाता तो शायद यह काम सीमित दायरे में रह कर तीसरा खंबा को करना पड़ता और जो काम तीसरा खंबा के माध्यम से अब तक हो सका है वह उतना नहीं हो सका जितना होना चाहिए था।
दुर्ग के एक वरिष्ठ वकील मिलते हुए
ट्रेन आई और मुझे ले कर चल दी।  सब लोग जो मुझे छोड़ने आए थे हाथ हिला कर मुझे विदा कर रहे थे।  मुझे लग रहा था कि मैं अपने पुत्र के अतिरिक्त बहुत कुछ यहाँ छोड़े जा रहा हूँ।  मैं ने बहुत कुछ यहाँ पाया और जो छोडे़ जा रहा हूँ उसे पकड़ने के लिए जल्द ही मुझे वापस यहाँ आना पडे़।
संजीव तिवारी (जूनियर कौंसिल) मैं और बी. एस. पाबला जी

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

जी, वकालत करता हूँ।

अंग्रेजी शब्दों का हिन्दी में अनुवाद करना और उन का प्रचलित होना भी अजीब झमेला है।  भारत का हिन्दी बोलने और व्यवहार करने वाला क्षेत्र बहुत ही व्यापक है, और इसी लिए जो नतीजे सामने आते हैं वे भी बहुत विविध होते हैं।  अब अंग्रेजी में दो शब्द हैं, लॉ'यर (Lawyer) और एड'वॅकेट (Advocate)।  पहले शब्द का अर्थ होता है जो विधि (कानून) की जानकारी रखता है और उसी का व्यवसाय करता है।  दूसरे शब्द का अर्थ है किसी अन्य की पैरवी करने वाला।  भारत में अंग्रेजी का प्रभाव आरंभ होने के सदियों पहले से इन दोनों शब्दों के लिए एक बहुत ही सुंदर शब्द प्रचलित है 'वकील' जिस में ये दोनों भाव मौजूद हैं।  मुस्लिम निकाह के दौरान जहाँ वधू पर्दे में होती है और सब के सामने नहीं आ सकती, वहाँ वर की ओर से वधू को अपनी जीवन संगिनी बनाए जाने का प्रस्ताव ले कर वधू के पास जाने वाले और उस का उत्तर ले कर काजी तक पहुँचाने वाले व्यक्ति को भी वकील कहते हैं।  क्यों कि वह वर का प्रस्ताव ले जा कर वधू को देता है।  इस से यह स्पष्ट है कि इस शब्द में दूसरे की बात को किसी तीसरे के सामने रखने वाले व्यक्ति को वकील कहा जाता है।  सामान्य रूप से यदि कहीं किसी विवाद में हम अनपेक्षित रूप से किसी को अचानक किसी उपस्थित या अनुपस्थित व्यक्ति का तर्क सहित समर्थन करता देखें तो तुरंत उसे यह कह बैठते हैं कि, तुम उस के वकील हो क्या?  कुल मिला कर वकील एक व्यापक शब्द है जो अंग्रेजी के उक्त दोनों शब्दों के लिए पूरी तरह उपयुक्त है, व्यवहार में आसान है और इसलिए हिन्दी भाषियों के बीच बहुप्रचलित है।

लॉ'यर (Lawyer) शब्द जिन के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है, जरूरी नहीं कि वे किसी की पैरवी भी करते हों।  वे केवल कानून के व्याख्याकार भी हो सकते हैं।  किसी समस्या के समय उपस्थित होने वाले इस प्रश्न को कि, कानून उन्हें किस प्रकार से व्यवहार करने को कहता है?  हल करने वाले को भी लॉ'यर (Lawyer) कहते हैं।  भारत की अदालतों में जब पैरवी करने वालों के व्यवसाय के नियमन के लिए कानून की जरूरत हुई तो  एडवोकेट, शब्द का उपयोग हुआ और एडवोकेट एक्ट बनाया गया। जो व्यक्ति बार कौंसिल में पंजीकृत हो और व्यावसायिक रूप से अदालतों के समक्ष पैरवी करने को अधिकृत हो उसे एडवोकेट कहा गया।  इस कानून के पहले तक इस व्यवसाय को करने वालों को सामान्य रूप से वकील ही कहा जाता था।  वे लोग भी वकील कहे जाते थे जो बिना किसी विशिष्ठ शैक्षणिक प्रमाण पत्र या डिग्री के भी स्वयमेव अभ्यास से हासिल योग्यता के आधार पर पैरवी करने के लिए मान्यता हासिल कर लेते थे।  इस कानून के बनने के बाद बिना मानक शैक्षणिक योग्यता के पैरवी का अधिकार प्राप्त करना असंभव हो गया।

जब केवल मानक शैक्षणिक योग्यता वाले लोग ही वकील बनने लगे तो उन्हों ने खुद को पुराने अभ्यास के आधार पर वकील बने लोगों से खुद को अलग दिखाने के लिए खुद को एडवोकेट लिख कर प्रचारित करना प्रारंभ कर दिया जिस से वे ये दिखा सकें कि वे केवल अभ्यासी नहीं अपितु विधि स्नातक की योग्यता धारी वकील हैं।  जब अंग्रेजी शब्दों का हिन्दीकरण शुरू हुआ तो इस एडवोकेट शब्द का भी हिन्दीकरण आरंभ हो गया।  जो कहीं अभिभाषक हुआ तो कहीं अधिवक्ता हो गया।  इस का नतीजा यह हुआ कि यहाँ राजस्थान में हम एडवोकेट को अभिभाषक कहते हैं और बार ऐसोसिएशन अभिभाषक  परिषद लेकिन छत्तीसगढ़ में उसे हिन्दी में अधिवक्ता और अधिवक्ता संघ कहते हैं।  लेकिन यह लिखने भर को ही है।  एडवोकेट शब्द के लिए अब वकील शब्द ही सर्वाधिक उपयोग में लिया जाता है और वकीलों के संगठन के लिए बार एसोसिएशन शब्द।

शब्दों के उपयोग और उनके प्रचलन के अनेक आधार हैं।  यहाँ उन की चर्चा अप्रासंगिक होगी और उस का अधिकार केवल भाषा-शास्त्रियों को है, मुझे नहीं।  लेकिन शब्दों का उपयोग लोग अपनी सुविधा के अनुरूप करते हैं,  किसी कानून और कायदे से नहीं।  यही कारण है कि भाषाओं के विकास को कभी भी नियंत्रित किया जाना संभव नहीं हो सका है और न कभी हो पाएगा।  अंत में इतनी सी बात और कि कोई खुद को एडवोकेट, अभिभाषक, अधिवक्ता या वकील कुछ भी कहना-कहलाना पसंद करता हो लेकिन जब उस से पूछा जाता है कि वह क्या करता है तो वह यही कहता है,  जी, वकालत करता हूँ !

बुधवार, 4 मार्च 2009

दुर्ग जिला अदालत परिसर का हाल भी भारत भर जैसा ही बुरा

दुर्ग जिला न्यायालय परिसर में जब पाबला जी की वैन ने प्रवेश किया तो वहाँ का नजारा वैसा ही था जैसा लगभग सभी स्थानों पर अदालत परिसरों का है।  सारा खाली स्थान दुपहिया, चौपहिया वाहनों से अटा पड़ा था।  लगता था कि वैन अब रोकनी पड़ेगी।  पर पाबला जी का इस परिसर का अनुभव शानदार निकला। वे वैन को अंतिम छोर तक इस कुशलता से ले गए कि वैन को देख रहे दर्शक भी चकित रह गए।  वैन से उतरे तो सामने ही अभिभाषक परिषद का पुस्तकालय था।  मैं ने समय देखा तो दो बजने में कुछ मिनट शेष थे।  किसी को वहाँ न पा कर पाबला जी ने संजीव तिवारी को फोन किया।  कुछ देर बाद ही वे आ गए।  उन के साथ ही शकील अहमद थे।  हम ने सब से पहले पुस्तकालय देखा।  पुस्तकालय में पुस्तकें कोटा  अभिभाषक परिषद के पुस्तकालय से आधी से भी कम रही होंगी।  बताया कि पुस्तकालय अभी कुछ वर्षों पूर्व ही प्रारंभ हुआ है और धीरे धीरे इसे धनी बनाने के प्रयत्न जारी हैं।  पुस्तकालय में ही टीवी रखा था, कुछ वकील उसे देख रहे थे, कुछ पुस्तकें पढ़ने और तलाशने में मशगूल थे। 

जब मैं वकालत में आया तो अभिभाषक परिषद के पास न बाराँ में पुस्तकालय था और न ही कोटा में।  और तब दो या तीन जर्नलों से काम चल जाया करता था। एक एआईआर था जो सब वकील मंगाया करते थे।  एक फौजदारी का जर्नल होता था, एक रेवेन्यू का और एक राज्य स्तरीय जर्नल।  इन से काम चल जाता था।  इन जर्नलों में वे मुख्य मुकदमें प्रकाशित होते थे जिन में कोई नया कानूनी बिंदु तय हुआ करता था।  लेकिन फिर जर्नलों की एकाएक बाढ़ सी आ गई।  श्रम , उपभोक्ता, दुर्घटना, विवाह-परिवार, मकान मालिक किरायेदार आदि मामलों के अलग अलग जर्नल निकलने लगे। हर विषय पर दो-दो, चार-चार और उस से भी अधिक। उन में प्रतिस्पर्धा प्रारंभ हो गई।  जर्नलों के सालाना खंड़ो की संख्या दो से छह तक हो गई और उन में छपने वाले निर्णयों की बाढ़ आ गई।   जो कानूनी बिंदु एक मामले में तय हो चुका है उसी पर एक जैसे अनेक निर्णय़ जर्नलों में छपने लगे।  अब स्थिति यह हो गई है कि किसी भी जर्नल के एक खंड में नयी नजीर वाले मुकदमे इक्का दुक्का ही होते हैं शेष पिछले निर्धारित बिंदुओं को दोहराने वाले होते हैं।  अदालतें भी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बरसों पहले अंतिम रूप से निर्धारित बिंदु पर लेटेस्ट रूलिंग मांगने लगी हैं।  स्थिति यह है कि पचासों जर्नल खरीदना किसी भी वकील के बस का नहीं रह गया है और अभिभाषक परिषद के पुस्तकालय आवश्यक हो चले हैं।  लगभग सभी जिला स्तर की अभिभाषक परिषदों के पुस्तकालय विकास के दौर में हैं। 

शकील अहमद जी ने बताया कि कोई बड़ा कार्यक्रम नहीं रखा है।  केवल अभिभाषक संघ की कार्यकारिणी और कुछ वरिष्ठ सदस्यों के साथ ही बैठक रखी गई है जो कि संघ के कार्यालय में रख ली गई है।  कुछ देर में सभी वहाँ एकत्र हो रहे हैं।  मै ने तब तक न्यायालय परिसर देखना चाहा।  मैं और संजीव निकल पड़े।  कोई दस मिनट में हम पूरी इमारतों को एक नजर देखते हुए अभिभाषक संघ के कार्यालय पहुँचे।  जितनी अदालतों के लिए इमारत बनाई गई थी उस से कहीं अधिक अदालतें वहाँ चल रही थीं। वकीलों के बैठने के स्थान का इमारत बनने के वक्त भी शायद कोई स्थान न रहा होगा।  क्यों कि सब वकील अदालत के बाहर की गैलरी में अपनी अपनी टेबलें और कुर्सियाँ इस कदर लगाए थे कि लोगों को आने जाने में भी तकलीफ थी।  मैं ने अनेक अदालत परिसरों को देखा है।  हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट परिसरों को छोड़ कर सभी स्थानों की यही स्थिति है। वकील बरामदों और जहाँ खुला स्थान उपलब्ध है वहाँ पेड़ आदि के नीचे ही अपने बैठने का स्थान बना लेते हैं।  पता नहीं कब अदालतों की इमारतों में अदालतों के नजदीक ही वकीलों के बैठने के लिए स्थान बनाने की शुरुआत होगी।

अब बरामदों और आने जाने के रास्तों पर वकीलों के बैठने के स्थान के बाद आने जाने के लिए भी स्थान अपर्याप्त हो तो न्यायार्थियों को कहाँ स्थान मिलेगा?  मेरे हिसाब से दुर्ग जिला न्यायालय परिसर अपर्याप्त हो चला है।  यह तो स्थिति तब है जब कि अदालतों की संख्या एक चौथाई से भी कम है।  यदि उस कमी का चतुर्थांश भी पूरा किया जाए तो तुरंत ही न्यायालय परिसर के लिए नया स्थान चाहिए।  मेरे विचार में पूरे देश की सरकारों को न्यायालयों के लिए नए परिसरों के निर्माण के लिए नए स्थान नियत कर देने चाहिए जो इतने बड़े हों कि वहाँ वर्तमान की जरूरत की इमारत बनाने के उपरांत कम से कम आठ दस गुना स्थान रिक्त हो,  वाहन पार्किंग हो।   भारत में प्रत्येक अदालत के पीछे कम से कम पच्चीस वकील हैं इस कारण से हर अदालत के इजलास के पास ही कम से कम एक हॉल हो जिस में कम से कम पच्चीस वकीलों के बैठने और प्रत्येक वकील के साथ कम से कम पाँच व्यक्ति और बैठने का स्थान जरूर बना हो।  अदालत परिसर में टाइपिस्ट अनिवार्य हैं जिन का स्थान अब क्म्प्यूटर ऑपरेटर ले रहे हैं।  प्रत्येक अदालत परिसर में स्थित वकीलों के प्रत्येक हॉल में कम से कम दो टाइपिस्टों या कम्प्यूटर ऑपरेटरों के लिए स्थान का होना जरूरी है। अदालत में स्टाम्प वेंडर भी जरूरी हैं जो जरूरी फार्म व स्टेशनरी उपलब्ध कराते हैं,  उन के लिए भी स्थान निर्धारित होना चाहिए। कुछ फोटो कॉपी मशीनों आदि के लिए और जलपान के लिए भी पर्याप्त स्थान चाहिए।  इन सभी जरूरतों से युक्त अदालत परिसर हम कब देख पाएँगे? मैं निकट भविष्य में तो इन की कल्पना तक नहीं कर पाता। अभी तो हमें जितनी अदालतें वर्तमान में हैं उन की चार गुना अदालतों की स्थापना तक बढ़ना है।  भारत के मुख्य न्यायाधीश तो केवल दुगनी करने की बात कर रहे हैं।  लेकिन जिन राज्य सरकारों को यह सब करना है, उन के किसी मुख्य मंत्री या राज्यपाल के कान पर तो अभी जूँ भी नहीं रेंग रही है।

चित्र  
1 दुर्ग न्यायालय  परिसर का गूगल अर्थ चित्र  2. एक पुस्तकालय 3 व 4 न्यायालय परिसरों के चित्र