जब मैं वकालत में आया तो अभिभाषक परिषद के पास न बाराँ में पुस्तकालय था और न ही कोटा में। और तब दो या तीन जर्नलों से काम चल जाया करता था। एक एआईआर था जो सब वकील मंगाया करते थे। एक फौजदारी का जर्नल होता था, एक रेवेन्यू का और एक राज्य स्तरीय जर्नल। इन से काम चल जाता था। इन जर्नलों में वे मुख्य मुकदमें प्रकाशित होते थे जिन में कोई नया कानूनी बिंदु तय हुआ करता था। लेकिन फिर जर्नलों की एकाएक बाढ़ सी आ गई। श्रम , उपभोक्ता, दुर्घटना, विवाह-परिवार, मकान मालिक किरायेदार आदि मामलों के अलग अलग जर्नल निकलने लगे। हर विषय पर दो-दो, चार-चार और उस से भी अधिक। उन में प्रतिस्पर्धा प्रारंभ हो गई। जर्नलों के सालाना खंड़ो की संख्या दो से छह तक हो गई और उन में छपने वाले निर्णयों की बाढ़ आ गई। जो कानूनी बिंदु एक मामले में तय हो चुका है उसी पर एक जैसे अनेक निर्णय़ जर्नलों में छपने लगे। अब स्थिति यह हो गई है कि किसी भी जर्नल के एक खंड में नयी नजीर वाले मुकदमे इक्का दुक्का ही होते हैं शेष पिछले निर्धारित बिंदुओं को दोहराने वाले होते हैं। अदालतें भी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बरसों पहले अंतिम रूप से निर्धारित बिंदु पर लेटेस्ट रूलिंग मांगने लगी हैं। स्थिति यह है कि पचासों जर्नल खरीदना किसी भी वकील के बस का नहीं रह गया है और अभिभाषक परिषद के पुस्तकालय आवश्यक हो चले हैं। लगभग सभी जिला स्तर की अभिभाषक परिषदों के पुस्तकालय विकास के दौर में हैं।
शकील अहमद जी ने बताया कि कोई बड़ा कार्यक्रम नहीं रखा है। केवल अभिभाषक संघ की कार्यकारिणी और कुछ वरिष्ठ सदस्यों के साथ ही बैठक रखी गई है जो कि संघ के कार्यालय में रख ली गई है। कुछ देर में सभी वहाँ एकत्र हो रहे हैं। मै ने तब तक न्यायालय परिसर देखना चाहा। मैं और संजीव निकल पड़े। कोई दस मिनट में हम पूरी इमारतों को एक नजर देखते हुए अभिभाषक संघ के कार्यालय पहुँचे। जितनी अदालतों के लिए इमारत बनाई गई थी उस से कहीं अधिक अदालतें वहाँ चल रही थीं। वकीलों के बैठने के स्थान का इमारत बनने के वक्त भी शायद कोई स्थान न रहा होगा। क्यों कि सब वकील अदालत के बाहर की गैलरी में अपनी अपनी टेबलें और कुर्सियाँ इस कदर लगाए थे कि लोगों को आने जाने में भी तकलीफ थी। मैं ने अनेक अदालत परिसरों को देखा है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट परिसरों को छोड़ कर सभी स्थानों की यही स्थिति है। वकील बरामदों और जहाँ खुला स्थान उपलब्ध है वहाँ पेड़ आदि के नीचे ही अपने बैठने का स्थान बना लेते हैं। पता नहीं कब अदालतों की इमारतों में अदालतों के नजदीक ही वकीलों के बैठने के लिए स्थान बनाने की शुरुआत होगी।
अब बरामदों और आने जाने के रास्तों पर वकीलों के बैठने के स्थान के बाद आने जाने के लिए भी स्थान अपर्याप्त हो तो न्यायार्थियों को कहाँ स्थान मिलेगा? मेरे हिसाब से दुर्ग जिला न्यायालय परिसर अपर्याप्त हो चला है। यह तो स्थिति तब है जब कि अदालतों की संख्या एक चौथाई से भी कम है। यदि उस कमी का चतुर्थांश भी पूरा किया जाए तो तुरंत ही न्यायालय परिसर के लिए नया स्थान चाहिए। मेरे विचार में पूरे देश की सरकारों को न्यायालयों के लिए नए परिसरों के निर्माण के लिए नए स्थान नियत कर देने चाहिए जो इतने बड़े हों कि वहाँ वर्तमान की जरूरत की इमारत बनाने के उपरांत कम से कम आठ दस गुना स्थान रिक्त हो, वाहन पार्किंग हो। भारत में प्रत्येक अदालत के पीछे कम से कम पच्चीस वकील हैं इस कारण से हर अदालत के इजलास के पास ही कम से कम एक हॉल हो जिस में कम से कम पच्चीस वकीलों के बैठने और प्रत्येक वकील के साथ कम से कम पाँच व्यक्ति और बैठने का स्थान जरूर बना हो। अदालत परिसर में टाइपिस्ट अनिवार्य हैं जिन का स्थान अब क्म्प्यूटर ऑपरेटर ले रहे हैं। प्रत्येक अदालत परिसर में स्थित वकीलों के प्रत्येक हॉल में कम से कम दो टाइपिस्टों या कम्प्यूटर ऑपरेटरों के लिए स्थान का होना जरूरी है। अदालत में स्टाम्प वेंडर भी जरूरी हैं जो जरूरी फार्म व स्टेशनरी उपलब्ध कराते हैं, उन के लिए भी स्थान निर्धारित होना चाहिए। कुछ फोटो कॉपी मशीनों आदि के लिए और जलपान के लिए भी पर्याप्त स्थान चाहिए। इन सभी जरूरतों से युक्त अदालत परिसर हम कब देख पाएँगे? मैं निकट भविष्य में तो इन की कल्पना तक नहीं कर पाता। अभी तो हमें जितनी अदालतें वर्तमान में हैं उन की चार गुना अदालतों की स्थापना तक बढ़ना है। भारत के मुख्य न्यायाधीश तो केवल दुगनी करने की बात कर रहे हैं। लेकिन जिन राज्य सरकारों को यह सब करना है, उन के किसी मुख्य मंत्री या राज्यपाल के कान पर तो अभी जूँ भी नहीं रेंग रही है।
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1 दुर्ग न्यायालय परिसर का गूगल अर्थ चित्र 2. एक पुस्तकालय 3 व 4 न्यायालय परिसरों के चित्र