@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

सोमवार, 22 दिसंबर 2008

पूँजीवाद और समाजवाद/सर्वहारा का अधिनायकवाद

जब हम चाय पीने केन्टीन पहुँचे तो सर्दी की धूप में बाहर की कुर्सियों पर दो वरिष्ठ वकील चाय के इंतजार में मूंगफलियाँ छील कर खा रहे थे। हम भी पास की कुर्सियों पर बैठे और चाय का इन्तजार करने लगे। थोड़ी देर में हमने पाया कि मूंगफलियों की थैली सज्जनदास जी मोहता के हाथों में है और वे दो मूंगफली निकालते हैं एक जगदीश नारायण जी को देते हैं और एक खुद खाते हैं। फिर इसी क्रिया को दोहराते हैं।

मुझे यह विचित्र व्यवहार लगा। मैं ने पूछा ये क्या है भाई साहब?

जवाब मोहता जी ने दिया। यह सर्वहारा का अधिनायकवाद है याने के समाजवाद।

मैं ने पूछा- वो कैसे?

मोहता जी ने जवाब दिया - मूंगफली की थैली मेरे हाथ में है इस लिए मैं इस में से दो निकालता हूँ, एक इसे देता हूँ और एक खुद खाता हूँ। मैं समाजवादी हूँ।


यह काँग्रेसी है, पूँजीपति! थैली इस के हाथ होती तो सारी मूंगफलियाँ ये खुद ही खा जाता।


मुझे उस दिन पूँजीवाद और समाजवाद का फर्क समझ आ गया।

रविवार, 21 दिसंबर 2008

विश्वास पर हमेशा कायम रहने का लाभ

राजस्थान में जब कृषि भूमि की सीलिंग लागू हुई तो अनेक जमींदारों की जमीनें सीलिंग में अधिगृहीत हो गईं। लेकिन अधिगृहीत भूमि का आवंटन अन्य व्यक्ति को होने के तक पूर्व जमींदार ही उस पर खेती करते रहे। जमींदारों के परिवारों में भी पैतृक संपत्ति का विभाजन न हो पाने के कारण स्थिति यह आ गई कि अनेक लोगों के पास बहुत कम कृषि भूमि रह गई। एक ऐसे ही परिवार का एक व्यक्ति सरकार में पटवारी था और अपने परिवार की सीलिंग में गई भूमि पर खेती कर रहा था।

सरकार ने उस भूमि को एक मेहतर को आवंटित कर दिया। उस पटवारी ने मुकदमा कर दिया कि उस भूमि पर वह खुद अनेक वर्षो से खेती कर रहा है और इसे दूसरे को आवंटित नहीं किया जा सकता। वह मेहतर मुकदमे का नोटिस ले कर मेरे पास आ गया और मैं ने उस की पैरवी की।

मुकदमे की हर पेशी पर वह पटवारी मुझ से मिलता और मुझे पटाने की कोशिश करता कि किसी भी तरह मैं कुछ रियायत बरतूँ और वह मुकदमा जीत जाए। वह जाति से ब्राह्मण था और बार बार मुझे दुहाई देता था कि एक ब्राह्मण की भूमि एक हरिजन के पास चली जाएगी। मैं उसे हर बार समझा देता कि मैं अपने मुवक्किल की जम कर पैरवी करूंगा। वह भी अपने वकील को कह दे कि कोई कसर न रखें। मैं ने उसे यह भी कहा कि मैं उसे यह मुकदमा जीतने नहीं दूंगा। बहुत कोशिश करने पर भी जब वह सफल नहीं हुआ तो उस ने कहना बंद कर दिया। लेकिन हर पेशी पर आता जरूर और राम-राम जरूर करता। 

मुकदमा हमने जीतना था, हम जीत गए। भूमि हरिजन को मिल गई। लेकिन उस के कोई छह माह बाद वह पटवारी मेरे पास आया और बोला। आप ने मुझे वह मुकदमा तो हरवा दिया, मेरी जमीन भी चली गई। लेकिन यदि मेरा कोई और मामला अदालत में चले तो क्या आप मेरा मुकदमा लड़ लेंगे। मैं ने उसे कहा कि क्यों नहीं लड़ लूंगा। पर मैं कोई शर्तिया हारने वाला मुकदमा नहीं लड़ता। वह चला गया।

बाद में उस ने मुझे अपना तो कोई मुकदमा नहीं दिया, लेकिन जब भी कोई उस से अपने मुकदमें में सलाह मांगता कि कौन सा वकील किया जाए? तो हमेशा मेरा नाम सब से पहले उस की जुबान पर होता। उस व्यक्ति के कारण मेरे पास बहुत से मुवक्किल आए।

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

अब और नहीं रहना होगा चुप

 वरिष्ठ कवि गीतकार महेन्द्र् नेह की एक सशक्त कविता प्रस्तुत है .......


अब और नहीं
                           * महेन्द्र नेह

    अब और नहीं रहना होगा चुप
    चिकने तालू पर
    खुरदुरी जुबान की रगड़
    अब नहीं आती रास
    कन्ठ में काँटे सा, यह जो खटकता है
    देह को फाड़ कर निकल आने को व्यग्र
    अब नहीं है अधिक सह्य

    लगता है अब रहा नहीं जा सकेगा
    नालियों, गलियों, सड़कों
    परकोटो के भीतर-बाहर
    सब जगह फूटती दुर्गन्ध, बेहूदी गालियों
    और अश्लील माँस-पिन्डों से असम्प्रक्त

    अब और नहीं देनी होंगी
    कोखों में टँगी हुई पीढ़ी को
    जन्म से पहले ही कत्ल कर देने
    वाले ष़ड़यंत्र को स्वीकृतियाँ

    अब और नहीं देनी होंगी
    गीता पर हाथ रखकर
    झूठी गवाहियाँ
    मसीहाओं को देखते ही
    अब और नहीं पीटनी होंगी बेवजह तालियाँ

    अब और नहीं खींचने होंगे
    बे मतलब 'क्रास'
    अब नहीं बनना होगा
    किसी भी पर्दो से ढँकी डोली का कहार

    अब और नहीं ढोना होगा यह लिजलिजा सलीब
    लगातार . . . . . . . . . . लगातार
    अब और नहीं रहना होगा चुप

दिल ढूंढता है, टूटने के बहाने

मैं ने कभी यह सत्य नियम जाना था कि कोई भी चीज तब तक नहीं टूटती-बिखरती जब तक वह अंदर से खुद कमजोर नहीं होती चाहे बाहर से कित्ता ही जोर लगा लो। जब अंदरूनी कमजोरी से कोई चीज टूटने को आती है तो वह अपनी कमजोरी को छुपाने को बहाने तलाशना आरंभ कर देती है।

पाकिस्तान अपने ही देश के आंतकवादियों पर काबू पाने में सक्षम नहीं हो पा रहा है और जिस तरीके से वहाँ आतंकवादियों ने मजबूती पकड़ ली है उस से यह आशंका बहुत तेजी से लोगों के दिलों में घर करती जा रही है कि एक दिन पाकिस्तान जरूर बिखर जाएगा। इस आशंका के चलते पाकिस्तान के लोगों ने बहाने तलाशना आरंभ कर दिया है। वैसे तो तोड़-जोड़ कर बनाया गया पाकिस्तान पहले भी टूट चुका है। लेकिन उस बार उसे तोड़ने का श्रेय खुद पाकिस्तानियों को प्राप्त हो गया था। उन्हों ने देख लिया कि वे पूर्वी बंगाल की आबादी पर अपना कब्जा वोट के जरिए नहीं बनाए रख सकते हैं तो उन्हों ने उसे टूट जाने दिया। अब फिर वही नौबत आ रही है।

अब वे यह तो कह नहीं सकते कि भारत उन्हें तोड़ रहा है। क्यों कि इस में तो उन की हेटी है। इस से तो यह साबित हो जाता कि पाकिस्तान बनाने के लिए भारत को तोड़ा जाना ही गलत था।यह पहलवान चाहे हर कुश्ती में हारता हो लेकिन कभी भी अपने पड़ौसी पहलवान को खुद से ताकतवर कहना पसंद नहीं करता। इस लिए भारत तो इस तोहमत से बच गया कि वह पाकिस्तान को तोड़ने की साजिश कर रहा है। अब किस के सर यह तोहमत रखी जाए? तो भला अमरीका से कोई पावरफुल है क्या दुनिया में? उस के सर तोहमत रखो तो कोई मुश्किल नहीं,  कम से कम यह तो कहा जा सके कि हम पिटे तो उस से, जिस से सारी दुनिया पिट रही है।

लाहौर हाईकोर्ट की बार एसोसिएशन ने सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित कर दिया है कि अमरीका पाकिस्तान में आतंकवाद फैला रहा है और मुम्बई हमला भी उसी के इशारों पर काम कर रहे आतंकवादियों का कारनामा है। यह कारनामा इस लिए किया गया है जिस से पाकिस्तान पर इस हमले को करवाने के आरोप की जद में अपने आप आ जाए।

वकीलों से खचाखच भरी इस बैठक में पारित इस प्रस्ताव में कहा गया कि अमरीका यह सब इस लिए कर रहा है जिस से उस की बनाई योजना के मुताबिक यूगोस्लाविया के पैटर्न पर पाकिस्तान को तोड़ा जा सके। (खबर यहाँ पढ़ें) बैरिस्टर ज़फ़रउल्लाह खान द्वारा पेश किए गए इस प्रस्ताव में कहा गया है कि अमरीका के इस मुंबई कारनामे पर ब्रिटेन सब से अधिक ढोल बजा रहा है जिस से किसी की निगाह अमरीका के इस कुकृत्य पर न पड़ सके। इस प्रस्ताव में पाकिस्तान पर अमरीकी हमलों की निन्दा  करते हुए कहा गया है कि ये हमले पाकिस्तान के उत्तरी भाग को आगाखान स्टेट में बदलने का प्रयास है। जिस के लिए आगाखान फाउंडेशन हर साल तीस करोड़ डालर खर्च कर रहा है।

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

बहत्तर घंटे पूरे होने का इंतजार

जुकाम का आज तीसरा दिन है।  परसों शुरू हुआ था तो समझा गया था कि होमियो बक्से की दवा से स्टे मिल जाएगा। पर नहीं मिला। रात बारह बजे बाद तक नाक की जलन के मारे नींद नहीं आ सकी थी और सुबह चार बजे ही खुल गई। तब से नाक  एक तरफ से उस बरसाती छत की तरह टपकती रही जिस के टपके से डर कर शेर गधा हो गया था और कुम्हार ने उसे बांध लिया था। दुबारा नींद आई ही नहीं। मजबूरी यह कि अदालत जाना जरूरी है, सो गए। वरना कोई न कोई मुकदमा लहूलुहान हो सकता था। रात तक टपका जारी रहा। घर लौटे तो पत्नी जी की सलाह से कुछ नयी दवाओं को आजमाया गया। पर नाक ने अपना स्वभाव दिन भर की तरह जारी रखा।
शाम को ब्लाग पढ़ने बैठे तो अलग सा पर एक बिमारी, जिसे कोई बिमारी ही नहीं मानता पढ़ कर तसल्ली मिली कि एक आदमी, नहीं ब्लागर, तो है जिस  को हमारे जुकाम का पता लगा। पढ़ कर बहुत तसल्ली मिली कि दवा करो तो तीन दिन में और न करो तो बहत्तर घंटों में आराम आ जाता है। हम दवा कर चुके थे। बड़ा अफसोस हुआ कि नहीं करते तो दिनों के बजाए घंटों में ठीक हो जाते। फिर कुछ गणित लगाई तो पता लगा। बात एकै ही है।

रात को वही बारह बजे बाद जैसे तैसे नींद आई। सुबह उठे तो सवा छह बजे थे। यानी बहत्तर में छह और कम हुए। नाक दोनों सूखी थी। लेकिन लग रहा था कि सांस के साथ अंदर तक कुछ असर हुआ है। सफाई वफाई करने पर पता लगा कि बहना बंद है। हम खुश हो गए। पर कुछ देर बाद ही दूसरी वाली साइड चालू हो गई। यानी नाक की साइडें शिफ्टों में काम कर रही थी।

आज भी काम कम नहीं है। एक मुकदमे में बाहर भी जाना था। मुवक्किल को कल ही बता दिया था कि नाक ने साथ दिया तो जा पाऊँगा वरना नहीं। अब लगता है कि नहीं जा सकता। उस का फोन आया तो ठीक, वरना मुवक्किल इतना होशियार है कि अपना इंतजाम खुद कर लेगा। हाँ कोटा की अदालत तो जाना ही पड़ेगा। तैयारी सब कर ली है। बहत्तर घंटे शाम को छह-सात बजे पूरे हो रहे हैं। उस के बाद भी बरसात जारी रही तो फिर अपनी नाक को नुक्कड़ वाले डाक्टर धनराज आहूजा हवाले ही करना पड़ेगा।

अब अदालत के लिए तैयार होते हैं। शाम को फिर मिलेंगे।

पुनश्च- डाक्टर प्रभात टंडन ने फरमाया है...ख़ुश रहिए और सर्दी से बचिए
कहा है जुकाम का कारण तनाव है। अब तलाशता हूँ कि कोई तनाव था क्या? और था तो क्यों, किस कारण से?

मंगलवार, 16 दिसंबर 2008

कहाँ है अब्दुल करीम तेलगी? उसे बुलाओ !

आज अब्दुल करीम तेलगी याद आ रहा है। काश वह पकड़ा न गया होता, उस का कारोबार बदस्तूर जारी होता और मुझे मिल जाता। मैं उस से छोटा सा सौदा करता कि वह मुझे जरूरत के स्टाम्प सप्लाई करता रहे।

कुछ दिन पहले एक दावा पेश किया था। मात्र ढाई लाख रुपए की वसूली का था। कोर्ट फीस अर्थात न्याय शुल्क के लिए स्टाम्प चाहिए थे, कुल रुपए 12, 115 रुपयों के। पाँच-पाँच हजार के दो स्टाम्प मिले और शेष 2515 के लिए 75 रुपए के 33 स्टाम्प और चालीस रुपए के चिपकाने वाले टिकट लगाकर 12, 115 रुपयों का सेट बनाया गया। कुल 35 स्टाम्प पेपर हुए। इन में से दावा टाइप हुआ केवल चार पेज पर शेष 31 पेपर पर लिखना पड़ा कि यह कोर्टफीस स्टाम्प फलाँ दावे के साथ संलग्न है।

एक स्टाम्प पेपर का कागज कम से कम एक रुपए का जरूर होगा। इस से अधिक का भी हो सकता है। उस पर उस की तकनीकी छपाई। वह भी कम से कम एक-दो रुपए की और होगी। इस तरह एक पेपर पर तीन रुपए का खर्च।  31 स्टाम्प बेकार हुए यानी 100 रुपए पानी में गए। 31 स्टाम्पों पर इबारत लिखने में श्रम हुआ वह अलग। इस से फाइल मोटी हो गई। उस के रख रखाव के लिए अदालत को अधिक जगह चाहिए। उठाने रखने में अधिक श्रम होगा वह अलग। फाइल की मोटाई देख कर जज डरेगा कि न जाने क्या होगा इस फाइल में ? तो अदालत में मुकदमों की इफरात के इस युग में फाइल की मोटाई दूर से देख कर ही जज रीडर को उस की तारीख बदलने को बोलेगा। मुकदमे के निपटारे में देरी लगेगी सो अलग। अगर हजार रुपए वाले और पाँच सौ रुपए के तो स्टाम्प होते केवल पाँच। 29 बेशकीमती कागज बचते। उन्हें बनाने के लिए काटे जाने वाला एक आध पेड़ बचता।

राजस्थान सरकार ने कोर्टफीस बढ़ा दी। पता लगा 4640 रुपए के कोर्टफीस स्टाम्प और लगाने होंगे। खरीदने गए तो पता लगा पाँच हजार से नीचे केवल पचास रूपए का स्टाम्प उपब्ध है। 4640 रुपयों के लिए गिनती में आएंगे कम से कम 93 स्टाम्प। इन सब पर लिखना पड़ेगा कि ये किस दावे के साथ संलग्न है। वरना दावा आगे नहीं बढ़ेगा। अब 93 बेशकीमती कागज और नत्थी होंगे। फाइल चार गुना मोटी हो जाएगी। क्या हाल होगा मुकदमे का? कितने पेड़ काटे जाएँगे?

चक्कर यह है कि स्टाम्प कहीं छपते हैं। फिर राज्य सरकार उन्हें खरीदती है। फिर जिला कोषागारों को भेजती है। जहाँ से स्टाम्प वेण्डर इन्हें खरीदते हैं। स्टाम्प वेंडर  क्या करें जिला कोषागार में ही स्टाम्प उपलब्ध नहीं है। तेलगी पता नहीं किस जेल में सश्रम कारावास काट रहा है? उस से स्टाम्प के छापाखाने और देश भर में वितरण का काम इस जेल श्रम के बदले करवाया लिया जाए तो सरकार और देश को घाटा नहीं होगा। कम से कम नौकरशाहों से तो अच्छा ही प्रबंधन वह कर सकता है। इन से घटिया तो वह शर्तिया ही नहीं होगा। जनता को भी राहत मिलेगी और जजों को भी।  फाइलें भारी नहीं होंगी और पेड़ भी कम काटे जाएंगे।

रविवार, 14 दिसंबर 2008

कभी नहीं भूलेगा, स्कूल में हुई धुनाई का दिन

शास्त्री जी ने अध्यापकों से सजा-पिटाई के किस्से अध्यापक या जल्लाद ?  और अध्यापकों ने दिया धोखा ! उन के ब्लाग सारथी पर लिखे हैं। पढ़ कर मुझे स्कूल में हुई अपनी धुनाई का किस्सा याद आ गया। ये उन दिनों की बात है जब सब से अधिक मारपीट करने वाले अध्यापक को सब से श्रेष्ठ अध्यापक समझा जाता था। ऐसे अध्यापक के जिम्मे छोड़ कर माता पिता अपने हाथों से बच्चों को मारने पीटने की जिम्मेदारी का एक हिस्सा अध्यापकों को हस्तांतरित कर देते थे। यह दूसरी बात है कि कुछ जिम्मेदारी वे हमेशा अपने पास रखते थे।


हर साल मध्य मई से दिवाली तक हम दादा जी के साथ रहते थे और दिवाली से मध्य मई में गर्मी की छुट्टियाँ होने तक हम पिता जी के साथ रहते। पिता जी हर साप्ताहिक अवकाश में दादा जी और दादी को संभालने आते थे। फिर पिता जी को बी.एड़. करने का अवकाश मिला तो वे साल भर बाहर रहे। हमें पूरे साल दादा जी के साथ रहना पड़ा था। उसी साल छोटी बहिन ने जन्म लिया, तब मैं पांचवीं क्लास  में था। पिता जी बी.एड. कर के आए तो हमें जुलाई में ही अपने साथ सांगोद ले गए। वे कस्बे के सब से ऊंची शिक्षा के विद्यालय, सैकण्डरी स्कूल के सब से सख्त अध्यापक थे। हालांकि वे बच्चों की मारपीट के सख्त खिलाफ थे। लेकिन अनुशासन टूटने पर दंड देना भी जरूरी समझते थे। स्कूल का लगभग हर काम उन के जिम्मे था। स्कूल का पूरा स्टाफ उन्हें बैद्जी कहता था, वे आयुर्वेदाचार्य थे और मुफ्त चिकित्सा भी करते थे। बस वे नाम के हेड मास्टर नहीं थे। हेड मास्टर जी को इस से बड़ा आराम था। वे या तो दिन भर  में एक-आध क्लास लेने के लिए अपने ऑफिस से बाहर निकलते थे या फिर किसी फंक्शन में या कोई अफसर या गणमान्य व्यक्ति के स्कूल में आ जाने पर। सब अध्यापकों का मुझे भरपूर स्नेह मिलता।

उस दिन ड्राइंग की क्लास छूटी ही थी कि पता नहीं किस मामले पर एक सहपाठी से कुछ कहा सुनी हो गई थी। मुझे हल्की से हल्की गाली भी देनी नहीं आती थी। ऐसा लगता था जैसे मेरी जुबान जल जाएगी। एक बार पिता जी के सामने बोलते समय एक सहपाठी ने चूतिया शब्द का प्रयोग कर दिया था, तो मुझे ऐसा लगा था जैसे मेरे कानों में गर्म सीसा उड़ेल दिया गया हो। उस सहपाठी से मैं ने बोलना छोड़ दिया था, हमेशा के लिए। ड्राइंग क्लास के बाद जब उस सहपाठी से झगड़ा हुआ तो उस ने मुझे माँ की गाली दे दी। मेरे तो तनबदन में आग लग गई। मैं ने उस का हाथ पकड़ा और ऐंठता चला गया। इतना कि वह दोहरा हो कर चिल्लाने लगा। दूसरे सहपाठियों ने उसे छुड़ाया।


वह सहपाठी सीधा बाहर निकला। मैदान में हेडमास्टर जी और पिताजी खड़े आपस में कोई मशविरा कर रहे थे। वह सीधा उन के पास पहुंचा। मैं डरता न था तो पीछे पीछे मैं भी पहुँच गया मेरे पीछे क्लास के कुछ और छात्र भी थे। उस ने सीधे ही हेडमास्टर जी से शिकायत की कि उसे दिनेश ने मारा है। हेडमास्टर जी ने पूछा कौन है दिनेश? उस ने मेरी और इशारा किया ही था कि मुकदमे में दंड का निर्णय सुना दिया गया की मैं दस दंड बैठक लगाऊँ। यूँ दण्ड बैठक लगाने में मुझे कोई आपत्ति नहीं थी। उस से सेहत भी बनती थी। पर मुझे बुरा लगा कि मुझे सुना ही नहीं गया। मैं ने कहा मेरी बात तो सुनिए। यह स्पष्ट रूप से राजाज्ञा का उल्लंघन था। यह राज्य के मुख्य अनुशासन अधिकारी, यानी पिता जी से कैसे सहन होता। उन्हों ने धुनाई शुरू कर दी। उम्र का केवल आठवाँ बरस पूरा होने को था। रुलाई आ गई। रोते रोते ही कहा -पहले उसने मेरी माँ को गाली दी थी।

  माँ का नाम ज़ुबान पर आते ही धुनाई मशीन रुकी। तब तक मेरी तो सुजाई हो चुकी थी। पिताजी एक दम शिकायतकर्ता सहपाठी की और मुड़े और उस से कहा -क्य़ो? उस के प्राण एकदम सूख गए। वह डर के मारे पीछे हटा। शायद यह उस की स्वीकारोक्ति थी। वह तेजी पीछे हटता चला गया। पीछे बरांडे का खंबा था जिस में सिर की ऊँचाई पर पत्थर के कंगूरे निकले हुए थे। एक कंगूरे के कोने से उस का सिर टकराया और सिर में छेद हो गया। सिर से तेजी से खून निकलने लगा। पिताजी ने आव देखा न ताव, उसे दोनों हाथों में उठाया और अपनी भूगोल की प्रयोगशाला में घुस गए। कोई अंदर नहीं गया। वहाँ उन का प्राथमिक चिकित्सा केंद्र भी था। जब दोनों बाहर निकले। तब शिकायकर्ता के सिर पर अस्पताल वाली पट्टी बंधी थी और पिताजी ने उसे कुछ गोलियाँ खाने को दे दी थीं। अगली क्लास शुरू हो गई थी। मास्टर जी कह रहे थे। आज तो बैद्जी ने बच्चे को बहुत मारा। मेरे क्लास टीचर के अलावा पूरे स्टाफ को पहली बार पता लगा था कि जिस लड़के को वै्दयजी ने मारा वह उन की खुद की संतान था।

शिकायत कर्ता लड़के ने ही नहीं मेरी क्लास के किसी भी लड़के ने मेरे सामने किसी को गाली नहीं दी। वे मेरे सामने भी वैसे ही रहते, जैसे वे मेरे पिताजी के सामने रहते थे। शिकायत करने वाले लड़के से मेरी दोस्ती हो गई और तब तक रही जब तक हम लोग सांगोद कस्बे में रहे।