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बुधवार, 8 जून 2011

सुर्ख उस ने गुलाब भेजा है

कुमार शिव
नवरत पर आप ने कुमार शिव की कुछ रचनाएँ पढ़ी हैं। उन के गीतों, ग़ज़लों और कविताओं में रूमानियत का रंग सदैव दिखाई देता है। सही बात तो यह है कि बिना रूमानियत के कोई नया काम संभव ही नहीं। यहाँ तक कि रूमानियत से भरी रचनाओं को अनेक अर्थों के साथ समझा जा सकता है। भक्ति काल का सारा काव्य रूमानियत से भरा पड़ा है। निर्गुणपंथी कबीर की रचनाओं में  हमेशा रूमानियत देखी जा सकती है। यह रूमानियत ही है जो उन्हें परिवर्तनकामी बनाती है। कुमार शिव की ऐसी ही एक ग़ज़ल यहाँ प्रस्तुत है ...


सुर्ख उस ने गुलाब भेजा है

  •  कुमार शिव

आँसुओं का हिसाब भेजा है
उस ने ख़त का जवाब भेजा है

जिस को मैं जागते हुए देखूँ

उस ने कैसा ये ख़्वाब भेजा है

 
तीरगी दिल की हो गई रोशन
ख़त नहीं आफ़ताब भेजा है

खुशबुओं के सफेद कागज पर

हुस्न को बेनक़ाब भेजा है

होठ चस्पा किए हैं हर्फों पर

सुर्ख उस ने गुलाब भेजा है।












शनिवार, 28 मई 2011

दर्द कई चेहरे के पीछे थे

कोई चालीस वर्ष पहले एक कवि सम्मेलन में पढ़े गए  कुमार 'शिव' के एक गीत ने मुझे प्रभावित किया था। मैं उन से मिला तो मुझे पहली मुलाकात से ले कर आज तक उन का स्नेह मिलता रहा। मेरे कोई बड़ा भाई नहीं था। उन्हों ने मेरे जीवन में बड़े भाई का स्थान ले लिया। बाद में जब भी उन की कोई रचना पढ़ने-सुनने को मिली प्रत्येक ने मुझे प्रभावित किया। वे चंद उन लोगों में से हैं, जो हर काम को श्रेष्ठता के साथ करने का उद्देश्य लिए होते हैं, और अपने उद्देश्य में सफल हो कर दिखाते हैं। अनवरत पर 10 जून की पोस्ट में मैं ने उन की 33 वर्ष पुरानी एक ग़ज़ल "मुख जोशीला है ग़रीब का" से आप को रूबरू कराया था। उस ग़ज़ल को पढ़ने के बाद उन की स्वयं की प्रतिक्रिया थी  "33 वर्ष पुरानी रचना जिसे मैं भूल गया था,  सामने लाकर तुम ने पुराने दिन याद दिला दिए"

न्हों ने मुझे एक ताजा ग़ज़ल के कुछ शैर मुझे भेजे हैं, बिना किसी भूमिका के आप के सामने प्रस्तुत हैं-

'ग़ज़ल'

दर्द कई चेहरे के पीछे थे
 कुमार 'शिव'


शज़र हरे  कोहरे के पीछे थे
दर्द कई  चेहरे के पीछे थे

बाहर से दीवार हुई थी नम
अश्क कई  कमरे के पीछे थे

घुड़सवार दिन था आगे  और हम
अनजाने खतरे के पीछे थे

धूप, छाँव, बादल, बारिश, बिजली
सतरंगे गजरे के पीछे थे

नहीं मयस्सर था दीदार हमें
चांद, आप पहरे के पीछे थे

काश्तकार बेबस था, क्या करता
जमींदार खसरे के पीछे थे




गुरुवार, 12 मई 2011

शिवराम की कविता 'नन्हें'

ल कामरेड पाण्डे के सब से छोटे बेटे की शादी थी, आज रिसेप्शन। मैं बारात में जाना चाहता था। लेकिन कल महेन्द्र के मुकदमे में बहस करनी थी, मैं न जा सका। आज रिसेप्शन में भी बहुत देरी से, रात दस बजे पहुँचा। सभी साथी थे वहाँ। नहीं थे, तो शिवराम!  लेकिन उन का उल्लेख वहाँ जरूर था। सब कुछ था, लेकिन अधूरा था। शिवराम हमारे व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन के, संकल्पों के और मंजिल तक की यात्रा के अभिन्न हिस्सा थे। वहाँ से लौटा हूँ। उन की एक कविता याद आती है। मैं उन की किताबें टटोलता हूँ। उन के कविता संग्रह 'माटी मुळकेगी एक दिन' में वह कविता मिल जाती है। आप भी पढ़िए,  उसे ...

नन्हें
  • शिवराम

उस ने अंगोछे में बांध ली हैं 
चार रोटियाँ, चटनी, लाल मिर्च की
और हल्के गुलाबी छिलके वाला एक प्याज

काँख में दबा पोटली 
वह चल दिया है काम की तलाश में
सांझ गए लौटेगा
और सारी कमाई 
बूढ़ी दादी की हथेली पर रख देगा
कहेगा - कल भाजी बनाना

इस से पहले सीने से लगाए उसे
गला भर आएगा दादी का
बेटे-बहू की शक्लें उतर आएंगी आँखों में
आँखों से छलके आँसुओं में

वह पोंछेगा दादी के आँसू
मुस्कुराएगा

रात को बहुत गहरी नींद आएगी उसे

कल सुबह जागने के पहले 
नन्हें सपने में देखेगा
नेकर-कमीज पहने
पीठ पर बस्ता लटकाए
वह स्कूल जा रहा है 
वह टाटा कर रहा है और
दादी पास खड़ी निहार रही है

कल सुबह जागने के ठीक पहले 
नन्हें जाएगा स्कूल


मंगलवार, 10 मई 2011

मुख जोशीला है ग़रीब का

स कवि सम्मेलन में आए अधिकतर कवि लोकभाषा हाडौ़ती के थे। एक गौरवर्ण वर्ण लंबा और भरी हुई देह वाला कवि उन में अलग ही नजर आता था। संचालक ने उसे खड़ा करने के पहले परिचय दिया तो पता लगा वह एक वकील भी है। फिर जब उस ने तरन्नुम के साथ कुछ हिन्दी गीत सुनाए तो मैं उन का मुरीद हो गया। कोई छह सात वर्ष बाद जब मैं खुद वकील हुआ तो पता लगा वे वाकई कामयाब वकील हैं। कई वर्षों तक साथ वकालत की। फिर वे राजस्थान उच्च न्यायालय में न्यायाधीश हो गए। वहाँ से सेवा निवृत्त होने के बाद सुप्रीमकोर्ट में वकालत शुरू की तो सरकार ने उन्हें विधि आयोग का सदस्य बना दिया। वे राजस्थान उच्च न्यायालय के निवर्तमान न्यायाधीश न्याय़ाधिपति शिव कुमार शर्मा हैं। उच्च न्यायालय के अपने कार्यकाल में उन्हों ने दस हजार से ऊपर निर्णय हिन्दी में लिखाए हैं। साहित्य जगत में लोग इन्हें कुमार शिव के नाम से जानते हैं। आज अभिभाषक परिषद कोटा में एक संगोष्ठी उन के सानिध्य में हुई। जिस में भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए के दुरुपयोग और उसे रोके जाने और प्रभावी बनाए जाने के लिए सुझाव आमंत्रित किए गए थे। 

मुझे उन की 1978 में प्रकाशित एक संग्रह से कुछ  ग़ज़लें मिली हैं, उन्हीं में से एक यहाँ प्रस्तुत है-

कुमार शिव की एक 'ग़ज़ल'

सूरज पीला है ग़रीब का
आटा गीला है ग़रीब का

बन्दीघर में फँसी चान्दनी
तम का टीला है ग़रीब का

गोदामों में सड़ते गेहूँ
रिक्त पतीला है ग़रीब का

सुर्ख-सुर्ख चर्चे धनिकों के 
दुखड़ा नीला है ग़रीब का 

स्वर्णिम चेहरे झुके हुए हैं
मुख जोशीला है ग़रीब का  



सोमवार, 11 अप्रैल 2011

इस के हिस्से में आख़िर ये रोशनी क्यूँ है

हमद सिराज फ़ारूक़ी एम.ए. (उर्दू) हैं, लेकिन यहाँ कोटा में अपना निजि व्यवसाय करते हैं। जिन्दगी की जद्दोजहद के दौरान अपने अनुभवों और विचारों को ग़ज़लों के माध्यम से उकेरते भी हैं। 'विकल्प' जनसांस्कृतिक  मंच कोटा द्वारा प्रकाशित बीस रचनाओं की एक छोटी सी पुस्तिका उन का पहला और एक मात्र प्रकाशन है। अपने और अपने जैसे लोगों के सच को वे किस खूबी से कहते हैं, यह इस ग़ज़ल में देखा जा सकता है .......

'ग़ज़ल'

इस के हिस्से में आख़िर ये रोशनी क्यूँ है

  • हमद सिराज फ़ारूक़ी

बढ़ी है मुल्क में दौलत तो मुफ़लिसी क्यूँ है
हमारे घर में हर इक चीज़ की कमी क्यूँ है

मिला कहीं जो समंदर तो उस से पूछूंगा
मेरे नसीब में आख़िर ये तिश्नगी क्यूँ है

इसीलिए तो है ख़ाइफ ये चांद जुगनू से 
कि इस के हिस्से में आख़िर ये रोशनी क्यूँ है

ये एक रात में क्या हो गया है बस्ती को
कोई बताए यहाँ इतनी ख़ामुशी क्यूँ है

किसी को इतनी भी फ़ुरसत नहीं कि देख तो ले
ये लाश किस की है कल से यहीँ पड़ी क्यूँ है

जला के खुद को जो देता है रोशनी सब को
उसी चराग़ की क़िस्मत तीरगी क्यूँ है

हरेक राह यही पूछती है हम से 'सिराज' 
सफ़र की धूल मुक़द्दर में आज भी क्यूँ है



............................................................................................................

रविवार, 10 अप्रैल 2011

दुर्ग इनका तोड़ना पड़ेगा दोस्तों

अखिलेश 'अंजुम'
    खिलेश जी वरिष्ठ कवि हैं। मैं उन्हें 1980 से जानता हूँ। काव्य गोष्ठियों और मुशायरों में जब वे अपने मधुर स्वर से तरन्नुम में अपनी ग़ज़लें प्रस्तुत करते हैं तो हर शैर पर वाह! निकले बिना नहीं रहती। मैं उन का कोई शैर कोई कविता ऐसी नहीं जानता जिस पर मेरे दिल से वाह! न निकली हो। उन्हों नें ग़जलों के अतिरिक्त गीत और कविताएँ भी लिखी जिन्हों ने धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नवभारत टाइम्स, दैनिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, नवनीत जैसी देश की महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाया। वे सदैव साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े रहे। वे आज भी विकल्प जनसांस्कृतिक मंच के सक्रिय पदाधिकारी हैं। आठ अप्रेल 2011 की शाम इंडिया अगेन्स्ट करप्शन आंदोलन के संबंध में नगर की गैरराजनैतिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों की बैठक में अखिलेश जी मिले। उन्हों ने अपने एक गीत का उल्लेख किया। मैं यहाँ वही गीत आप के लिए प्रस्तुत कर  रहा हूँ। 

    दुर्ग इनका तोड़ना पड़ेगा दोस्तों

    • अखिलेश 'अंजुम'


    आम आदमी का क़त्ल खेल हो न जाए
    लोकतंत्र देश में मखौल हो न जाए
    और देश फिर कहीं ये जेल हो न जाए
    न्यायपालिका कहीं रखैल हो न जाए

    आप को ही सोचना पड़ेगा दोस्तों
    ये प्रवाह रोकना पड़ेगा दोस्तों।

    बढ़ रहा है छल-कपट-गुनाह का चलन
    और बदल रहा है ज़िन्दगी का व्याकरण
    प्रहरियों का हो गया है भ्रष्ट आचरण 
    भ्रष्टता को राजनीति कर रही नमन

    क़ायदे-नियम यहाँ पे अस्त-व्यस्त हैं
    मंत्रियों में कातिलों के सरपरस्त हैं
    देश इनकी दोस्तों जागीर हो न जाए
    और ये हमारी तक़दीर हो न जाए

    आप को ही सोचना पड़ेगा दोस्तों
    दुर्ग इनका तोड़ना पड़ेगा दोस्तों।

    धर्म जिसने जोड़ना सिखाया था हमें
    रास्ता उजालों का दिखाया था हमें
    आज वो ही धर्म है सबब तनाव का
    जिसने कर दिया है लाल रंग चुनाव का

    आदमी की जान है तो ये जहान है
    धर्म है, चुनाव और संविधान है
    मज़हबों के नाम  पर न तोड़िए हमें
    राह पर गुनाह की न मोड़िए हमें

    तोड़ने की साज़िशों का काम हो न जाए
    धर्म, राजनीति का गुलाम हो न जाए

    आप को ही सोचना पड़ेगा दोस्तों
    कुछ निदान खोजना पड़ेगा दोस्तों।

    चाह आज जीने की बबूल हो गई 
    हर खुशी हमारी आज शूल हो गई
    बोझ से दबी हुई हर एक साँस है
    आज आम आदमी बड़ा उदास है

    जानकर कि दुश्मनों के साथ कौन हैं
    जानकर कि साजिशों के साथ कौन हैं
    अब सितम का हर रिवाज़ तोड़ने उठो
    अब सितम की गर्दनें मरोड़ने उठो 

    चेतना का कारवाँ ये थम कहीं न जाए
    धमनियों का ख़ून जम कहीं न जाए

    आप को ही सोचना पड़ेगा दोस्तों 
    आँसुओं को पोंछना पड़ेगा दोस्तों। 

    सोमवार, 4 अप्रैल 2011

    बस पर किस का बस है

    प्राक्कथनः
    हम बस में सवार थे
    अचानक बस से उतार लिए गए
    सड़क रुकी हुई थी
    बसों, ट्रकों, जीपों कारों की कतार थी
    माजरा देखा
    बीच रास्ते पर शामियाना तना हुआ था
    अंदर एक सफेद पर्दे पर 
    प्रोजेक्टर से  निकली रोशनी
    खेल रही थी
    मैच चल रहा था विश्वकप का 
    कभी उतार तो कभी चढ़ाव
    आखिर मैच खत्म 
    जश्न शुरू हुआ
    नाचते गाते सुबह होने को हुई 
    तो सड़क साफ हुई हम फिर बस में थे

    .... और अब एक कविता अम्बिकादत्त की-

    बस पर किस का बस है

    • अम्बिकादत्त

    कोई नहीं जानता बस कहाँ जाएगी
    बस कुएँ में पड़ी बाल्टी की तरह है
    लोगों को पता है बस सरकारी है
    लोग जानते हैं बस घाटे में है
    लगो सोचते हैं बस कभी तो जाएगी
    लगो नहीं जानते बस कब जाएगी
    बस बंद है, जिन खिड़कियों में काँच नहीं है
    वे खिड़कियाँ भी बन्द हैं
    लोग आ रहे हैं, लोग जा रहे हैं
    सामान जमा रहे हैं, बीड़ियाँ सुलगा रहे हैं
    खटर-पटर सी मची है, बस चलेगी यह उम्मीद जगी हुई है
    सीट पर आराम से बैठा आदमी, आशंकित है
    ऊपर रखा सामान कभी भी उस के माथे पर गिर सकता है/ उस की सीट का नम्बर
    किसी और को मिल सकता है
    उफ! कितनी उमस है कितनी तकलीफ है
    थकान है फिजूल झगड़ा है, थोड़ी देर के सफर में भी सकून नहीं
    चलिए छोड़िए! जरा बताइए भाई साहब, कितना बजा है, बस कब जाएगी




    मंगलवार, 22 मार्च 2011

    'कविता' ... औरतों का दर्जी -अम्बिकादत्त

    कोई भी रचना सब से पहले स्वान्तः सुखाय ही होती है। जब तक वह किसी अन्य को सुख प्रदान न कर दे उसे समाजोपयोगी या रचनाकार के अतिरिक्त किसी भी अन्य को सुख देने वाली कहना स्वयं रचनाकार के लिए बहुत बड़ा दंभ ही होगा। इस का सीधा अर्थ यह है कि कोई भी रचना का स्वयं मूल्यांकन नहीं कर सकता। किसी रचना का मूल्यांकन उस के प्रभाव से ही निश्चित होगा। इस के लिए उस का रचना के उपभोक्ता तक पहुँचना आवश्यक है। उपभोक्ता तक पहुँचने पर वह उसे किस भांति प्रभावित करती है, यही उस के मूल्यांकन का पहला बिंदु हो सकता है। तुलसी की रामचरितमानस से कौन भारतीय होगा जो परिचित नहीं होगा। इस रचना ने पिछली चार शताब्दियों से भारतीय जन-मानस को जिस तरह प्रभावित किया है। संभवतः किसी दूसरी रचना ने नहीं। लेकिन उस का रचियता उसे स्वान्तः सुखाय रचना घोषित करता है। तुलसीदास रामचरित मानस जैसी कालजयी रचना को रच कर भी उसे स्वांतः सुखाय घोषित करते हैं, यह उन का बड़प्पन है। लेकिन कोई अन्य किसी अन्य की रचना लिए यह कहे कि वह स्वांतः सुखाय है, तो निश्चित रूप से उस रचना ने कहीं न कहीं इस टिप्पणीकार को प्रभावित किया है और यही घोषणा उस रचना के लिए एक प्रमाण-पत्र है कि वह मात्र स्वान्तः सुखाय नहीं थी।
    मैंने पिछले दिनों हमारे ही अंचल के कवि अम्बिकादत्त से परिचय करवाते हुए उन की कविताएँ प्रस्तुत की थीं। आज प्रस्तुत है उन की एक और रचना। इसे प्रस्तुत करते हुए फिर दोहराना चाहूँगा कि कवि का परिचय उस की स्वयं की रचना होती है। 


    औरतों का दर्जी
    • अम्बिकादत्त


    झूठ नहीं कहता मैडम!
    सब औरतें आप की तरह भली नहीं होतीं
    दोजख से भी दुत्कार मिले मुझ को यदि मैं झूठ बोलूँ
    अल्लाह किसी दुश्मन के नसीब में भी न लिखे
    औरतों का दर्जी होना! अगर होना ही पड़े तो
    औरतों के दर्जी के लिए अच्छा है
    गूंगा या बहरा होना
    क्या कोई तरकीब ईजाद हो सकती है नए जमाने में
    कि अंधा हो कर भी औरतों का दर्जी हुआ जा सके
    हालांकि, आवाज से किसी औरत का 'पतवाना' लेना जरा मुश्किल काम है
    किसी भी वक्त बदल जाती हैं-वो
    नाप लेने के सारे साधन
    अक्सर ओछे और पुराने पड़ जाते हैं
    लगता है, एक तिलिस्म है/मिस्र के पिरामिड, दजला फरात या 
    सिंधु घाटियों में जाने जैसा है, उन्हें नापना/
    जरा सा चूक जाएँ तो लौटना मुश्किल है- नस्लों तक के सुराग न मिलें

    उन की आवाज में चहकते सुने हैं पंछी मैं ने
    सपनों में तैरते सितारे
    'लावणों' में लहराते बादल
    तरह-तरह के कालरों और चुन्नटों में चमकते इन्द्रधनुष
    वरेप, मुगजी, बटन, काज, हुक, बन्द, फीतों में
    तड़पती देखता हूँ हजारों हजार मछलियाँ
    और इन की हिदायतें ओS
    इतनी हिदायतें, इतनी हिदायतें कि क्या कहूँ
    कई बार तो लगता है, वे कपड़े सिलवाने आई हैं या पंख लगवाने
    मेरे हाथ से गज और गिरह गिरने को होते हैं
    बार बार
    अरजुन के हाथ से गिरता था धनुष जैसे महाभारत से पहले
    अपनी बातों ही बातों से कतरनों का ढेर लगा देती हैं
    मेरी कैंची तो कभी की भोथरी साबित हो चुकी
    कपड़े वक्त पर सिल कर देने का वादा, और वक्त पर न सिल पाना अक्सर
    दोनों ही मेरी मजबूरियाँ हैं जिन्हें मैं ही जानता हूँ
    और कोई नहीं जानता, मेरे ग्राहकों और खुदा के सिवा
    आसमान की ऊँचाइयाँ कम हैं उन के लिए
    समुन्दर की गहराइयाँ भी/कम हैं उन के सामने
    कैसे कैसे ख्याल सजाए होती हैं, कैसे कैसे दर्द छिपाए होती हैं वे
    मुझे रह रह कर याद आता है,
    मेरी पुरानी ग्राहक की नई सहेली की ननद का किस्सा 
    जिस की कहीं बात चल रही थी, फिर टूट गई 
    उस ने जहर खाया था अनजान जगह पर 
    लावारिस मिली उस की लाश को पहचाना था पुलिस ने कपड़ों से 
    उस ने मेरे सिले हुए कपड़े पहन रक्खे थे, मुझे उस दिन लगा
    औरतों के कफन और शादी के जोड़े क्या एक जैसे होते हैं
    औरतें फिर भी औरतें हैं
    जमाने से आगे चलती हैं औरतें
    औरतों से आगे चलते हैं उन के कपड़े
    उस से भी आगे खड़ा होना पड़ता है, औरतों के दर्जी को। 

    ***************************

    सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

    यह निबंध सभी ब्लागरों को पढ़ना चाहिए

    सूक्ष्मतम मानवीय संवेदनाओं को कलात्मक तरीके से अभिव्यक्त करने की क्षमता कविता में होती है। यही विशेषता कविता की शक्ति है। इन संवेदनाओं को पाठक और श्रोता तक पहुँचाना उस का काम है। शिवराम रंगकर्मी, कवि, आलोचक, संपादक, संस्कृतिकर्मी, भविष्य के समाज के निर्माण की चिंता में जुटे हुए एक राजनेता, एक अच्छे इंसान सभी कुछ थे। वे कविताई की वर्तमान स्थिति से संतुष्ट न थे। उन्हों ने अपनी इस असंतुष्टि को प्रकट करने के लिए उन्हों ने एक लंबा निबंध "कविता के बारे में" उन के देहावसान के कुछ समय पूर्व ही लिखा था, जो बाद में 'अलाव' पत्रिका में प्रकाशित हुआ। रविकुमार इस निबंध की चार कड़ियाँ अपने ब्लाग सृजन और सरोकार पर प्रस्तुत कर चुके हैं, संभवतः और दो कड़ियों में यह पूरा हो सकेगा। मैं ने इस  निबंध को आद्योपान्त पढ़ा। उन की जो चिंताएँ कविता के बारे में हैं, वही सब चिंताएँ इन दिनों ब्लागरी के बारे में अनेक लोग उठा रहे हैं। मेरी राय में शिवाराम के इस निबंध को प्रत्येक ब्लागर को पढ़ना चाहिए। इस निबंध से ब्लागरों को भी वे सू्त्र मिलेंगे जो ब्लागरों को बेहतर लेखन के लिए मार्ग सुझा सकते हैं। 
    दाहरण के रूप उस निबंध के पहले चरण को कुछ परिवर्तित रूप में यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। बस अंतर केवल इतना है कि इस में 'कविताई' को 'ब्लागरी' से विस्थापित कर दिया गया है ...

    शिवराम
    "आजकल ब्लाग खूब लिखे जा रहे हैं। यह आत्माभिव्यक्ति की प्रवृत्ति का विस्तार है और यह अच्छी बात है। लेखनकर्म, जो अत्यन्त सीमित दायरे में आरक्षित था, वह अब नई स्थितियों में व्यापक दायरे में विस्तृत हो गया है। हमारे इस समय का लेखन एक महान लेखक नहीं रच रहा, हजारों लेखक रच रहे हैं। जीवन के विविध विषयों पर हजारों रंगों में, हजारों रूपों में लेखन प्रकट हो रहा है। हजारों फूल खिल रहे हैं और अपनी गंध बिखेर रहे हैं। यह और बात है कि मात्रात्मक विस्तार तो खूब हो रहा है, लेकिन गुणात्मक विकास अभी संतोषजनक नहीं है। ब्लाग खूब लिखे जा रहे हैं, लेकिन अभी पढ़े बहुत कम जा रहे हैं। यूं तो समग्र परिस्थितियां इसके लिए जिम्मेदार हैं, लेकिन हमारे ब्लागरों के लेखन-कौशल और लेखन की गुणवत्ता में न्यूनता भी इसके लिए जिम्मेदार है। उसकी आकर्षण क्षमता और इसके असर में कमियां भी इसके लिए जिम्मेदार है। यही चिन्ता का विषय है। इस सचाई को नकारने से काम नहीं चलेगा। इसे स्वीकार करने और इस कमजोरी से उबरने का परिश्रम करना होगा। यूं तो और बेहतर की सदा गुंजाइश रहती है तथा सृजनशीलता सदैव ही इस हेतु प्रयत्नरत रहती है, लेकिन फिलहाल हिन्दी ब्लागरी जिस मुकाम पर खड़ी है, इस हेतु विशेष प्रयत्नों की जरूरत है।

    ब यदि आप समझते हैं कि मूल आलेख को पढ़ना चाहिए तो "कविता के बारे में" को चटखाएँ और वहाँ पहुँच जाएँ। 





    अभी ... कविता

    ज यहाँ अंबिकादत्त की एक कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह कविता कविता के बारे में है। लेकिन जो कुछ कविता के बारे में इस कविता में कहा गया है। उसे संपूर्ण लेखन और संपूर्ण ब्लागरी के बारे में समझा जाना चाहिए। क्या ब्लागरी को भी ऐसी ही नहीं होना चाहिए, जैसी इस कविता में कविता से अपेक्षा की गई है? 




    'कविता'
    अभी कविता
    • अंबिकादत्त
    अभी तो लिखी  गई है कविता
    उन के लिए 
    जिन के औजार छीन लिए गए

    अभी बाकी है कविता !
    उन के लिए लिखी जानी 
    जिन के हाथ नहीं हैं
    जीभ का इस्तेमाल जो सिर्फ पेट के लिए करते हैं

    अभी बाकी है कविता का उन तक पहुँचना 
    सपने जिन के राख में दबे हैं

    उन के लिए बाकी है अभी कविता
    जो कविता लिख रहे हैं
    जो कविताएँ बाकी हैं
    उन्हें कौन लिखेगा
    किस के जिम्मे है उन का लिखा जाना

    और हम जो लिख रहे हैं कविता
    वो किस के लिए है?





    शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

    महेन्द्र नेह का काव्य संग्रह 'थिरक उठी धरती' अंतर्जाल पर उपलब्ध

    हेन्द्र 'नेह' मूलतः कवि हैं, लेकिन वे कोटा और राजस्थान की साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक गतिविधियों के केन्द्र भी हैं। वे देश के एक बड़े साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठन 'विकल्प' जन सांस्कृतिक मंच की कोटा इकाई के अध्यक्ष हैं। इस संगठन के महासचिव शिवराम थे, उन के देहान्त के उपरान्त यह जिम्मेदारी भी महेन्द्र 'नेह' के कंधों पर है।  विकल्प की कोटा इकाई ने स्थानीय साहित्यकारों की रचनाओं की अनेक छोटी पुस्तिकाएँ प्रकाशित की हैं, उन के प्रकाशन का महत् दायित्व उन्हों ने उठाया है। कोटा, राजस्थान और देश के विभिन्न भागों में होने वाले साहित्यिक सासंकृतिक आयोजनों में लगातार उन्हें शिरकत करना पड़ता है। उन के सामाजिक-सास्कृतिक कामों की फेहरिस्त से कोई भी यह अनुमान कर सकता है कि वे इस काम के लिए पूरा-वक़्ती कार्यकर्ता होंगे। लेकिन अपने घर को चलाने के लिए उन्हें काम करना पड़ता है। वे एक पंजीकृत क्षति निर्धारक हैं और बीमा कंपनियों पास संपत्तियों-वाहनों आदि के क्षति के दावों में सर्वेक्षण कर वास्तविक क्षतियों का निर्धारण करते हैं। उन्हें देख कर सहज ही यह कहा जा सकता है कि एक मेधावान सक्रिय व्यक्ति हर क्षेत्र में अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने के साथ ही कीर्तिमान स्थापित कर सकता है। क्षति निर्धारक के रूप में बीमा कंपनियों में जो प्रतिष्ठा है वह किसी के लिए भी ईर्ष्या का कारण हो सकती है।
    हेन्द्र 'नेह' बरसों कविताएँ, गीत, गज़लें लिखते रहे। लेकिन उन की पुस्तक नहीं आई, इस के बावजूद वे अन्य साहित्यकारों की पुस्तकों के प्रकाशन के लिए जूझते रहे। जब इस ओर ध्यान गया तो लोग उन की काव्य संग्रहों के प्रकाशन के लिए जिद करने लगे। आखिर उन के दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए 'सच के ठाठ निराले होंगे' और 'थिरक उठेगी धरती'। वे बहुत से ब्लाग नियमित रूप से पढ़ते हैं। कल उन से फोन पर बात हो रही थी तो मैं ने कहा -आप इतने ब्लाग पढ़ते हैं, लेकिन प्रतिक्रिया क्यों नहीं करते"? उन्हों ने बताया कि वे नेट पर देवनागरी टाइप नहीं कर सकते। मैं उन की इस कमजोरी को जानता हूँ कि उन्हें यह सब सीखने का समय नहीं है। फिर भी मैं ने उन्हें कहा कि यह तो बहुत आसान है, तो कहने लगे एक दिन वे मेरे यहाँ आते हैं या फिर मैं उन के यहाँ जाऊँ और उन्हें यह सब सिखाऊँ। मैं ने उन के यहाँ जाना स्वीकार कर लिया। 
    पिछले दिनों नेट और ब्लाग पर साहित्य न होने की बात कही गई थी। लेकिन बहुत से साहित्यकारों द्वारा कंप्यूटर का उपयोग न कर पाने या देवनागरी टाइप न कर पाने की अक्षमता भी नेट और ब्लाग पर साहित्य की उपलब्धता में बाधा बनी हुई है। निश्चित रूप से इस के लिए हम जो ब्लागर इस क्षेत्र में आ गए हैं, उन्हें पहल करनी होगी। हमें लोगों को कंप्यूटर और अंतर्जाल का प्रयोग करने और उस पर हिन्दी टाइप करना सिखाने के सायास प्रयास करने होंगे। हमें कंप्यूटर पर टाइपिंग सिखाने वाले केन्द्रों पर इन्स्क्रिप्ट की बोर्ड के बारे में बताना होगा, कि भविष्य में हिन्दी इसी की बोर्ड से टाइप की जाएगी, और उन्हें हिन्दी टाइपिंग सीखने वालों को इनस्क्रिप्ट की बोर्ड पर टाइपिंग सिखाने के लिए प्रेरित करना होगा। इस तरह बहुत काम है जो हम पहले ब्लाग और नेट पर आ चुके लोगों को मैदान में आ कर करना होगा। 
    हुत बातें कर चुका। वास्तव में यह पोस्ट तो इस लिए आरंभ की थी कि आप को यह बता दूँ कि जब महेन्द्र 'नेह' का दूसरा काव्य संग्रह 'थिरक उठेगी धरती' का विमोचन हुआ तो उस के पहले ही इस संग्रह का पीडीएफ संस्करण मैं स्क्राइब पर प्रकाशित कर चुका था और वह इंटरनेट पर उपलब्ध है। जो पाठक इस संग्रह को पढ़ना चाहते हैं, यहाँ फुलस्क्रीन पर जूम कर के पढ़ सकते हैं और चाहें तो स्क्राइब पर जा कर डाउनलोड कर के अपने कंप्यूटर पर संग्रह कर के भी पढ़ सकते हैं।
    तो पढ़िए.....
    'थिरक उठेगी धरती'
    Neh-Poems_Thirak Uthegi Dharti

    सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

    हम वस्तु नहीं हैं

    मशेर बहादुर सिंह के शताब्दी वर्ष पर राजस्थान साहित्य अकादमी और विकल्प जन सांस्कृतिक मंच कोटा द्वारा आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी का समापन हुआ। विकल्प का एक सदस्य होने के नाते मुझे इस आयोजन में शिरकत करने के साथ कुछ जिम्मेदारियों को भी निभाना पड़ा। बीच-बीच में अपने काम भी देखता रहा।  यह संगोष्ठी इस आयोजन में शिरकत करने वाले रचनाकारों के लिए शमशेर के साहित्य, उन के काल, अपने समय और दायित्वों को समझने के लिए अत्यन्त लाभदायक रही है। यूँ तो मुझे इस आयोजन की रिपोर्ट यहाँ प्रस्तुत करनी चाहिए। पर थकान ने उसे विलंबित कर दिया है। इस स्थिति में आज महेन्द्र नेह की यह कविता पढ़िए जो इस दौर में जब अफ्रीका महाद्वीप के देशों में चल रही विप्लव की लहर में उस के कारणों को पहचानने में मदद करती है। 
    हम वस्तु नहीं हैं
    • महेन्द्र 'नेह'
    ऊपर से खुशनुमा दिखने वाली
    एक मक्कार साजिश के तहत
    उन्हों ने पकड़ा दी हमारे हाथों में कलम
    औऱ हमें कुर्सियों से बांध कर 
    वह सब कुछ लिखते रहने को कहा 
    जिस का अर्थ जानना 
    हमारे लिए जुर्म है

    उन्हों ने हमें 
    मशीन के अनगिनत चक्कों के साथ
    जोड़ दिया
    और चाहा कि हम 
    चक्कों से माल उतारते रहें
    बिना यह पूछे कि 
    माल आता कहाँ से है

    उन्हों ने हमें फौजी लिबास 
    पहना दिया
    और हमारे हाथों में 
    चमचमाती हुई राइफलें थमा दीं
    बिना यह बताए 
    कि हमारा असली दुश्मन कौन है
    और हमें 
    किस के विरुद्ध लड़ना है

    उन्हों ने हमें सरे आम 
    बाजार की मंडी में ला खड़ा किया
    और ऐसा 
    जैसा रंडियों का भी नहीं होता 
    मोल-भाव करने लगे

    और तभी 
    सामूहिक अपमान के 
    उस सब से जहरीले क्षण में
    वे सभी कपड़े 
    जो शराफत ढंकने के नाम पर
    उन्हों ने हमें दिए थे
    उतारकर
    हमें अपने असली लिबास में 
    आ जाना पड़ा
    और उन की आँखों में
    उंगलियाँ घोंपकर
    बताना पड़ा 
    कि हम वस्तु नहीं हैं।

    रविवार, 13 फ़रवरी 2011

    घूम कर जाना है

    ज का दिन शमशेर के नाम रहा। राजस्थान साहित्य अकादमी और विकल्प जन-सांस्कृतिक मंच कोटा द्वारा शमशेर बहादुर सिंह की जन्मशताब्दी पर आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी आज यहाँ आरंभ हुई। संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में मुख्य अतिथि वरिष्ठ गीतकार, राजस्थान उच्चन्यायालय के पूर्व न्यायाधीश व राष्ट्रीय विधि आयोग के सदस्य शिवकुमार शर्मा  (कुमार शिव) थे। किन्तु अचानक हुई अस्वस्थता ने उन्हें दिल्ली से रवाना होने के बाद भी मार्ग में जयपुर ने ही रोक लिया। उन के अभाव में वरिष्ठ  नन्द भारद्वाज को यह भूमिका निभानी पड़ी, सत्र की अध्यक्षता अलाव के संपादक रामकुमार कृषक ने की। उद्घाटन सत्र के बाद 'हिन्दी ग़ज़ल में शमशेरियत' विषय पर एक संगोष्ठी सम्पन्न हुई जो शाम साढ़े छह तक चलती रही। फिर रात को साढ़े आठ बजे एक काव्य गोष्ठी आरंभ हुई जो रात ग्यारह बजे तक चलती रही। काव्य गोष्ठी शायद देर रात तक चलती रहती, यदि कोटा के बाहर से आए अतिथियों को भोजन न कराना होता।  
    सुबह अतिथियों का स्वागत करने से ले कर रात तक आयोजन सहयोगी के रूप में शिरकत करने के कारण हुई थकान गोष्ठी की रिपोर्ट प्रस्तुत करने में बाधा बन रही है। इस बीच दो पंक्तियाँ रची गईं वे ही यहाँ रख रहा हूँ -

    यूँ तो ठीक सामने ही है घर मेरा, सड़क के उस पार 
    बीच  में  डिवाइडर है, चौराहे  से  घूम  कर जाना है


    बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

    जिन्दा तो रहूँगा

    मेरे विचार में किसी रचनाकार का परिचय देने की आवश्यकता नहीं होती। आप परिचय में क्या बता सकते हैं? उस की कद-काठी, रंग-रूप, खानदान, शिक्षा, वर्तमान जीविका और उस ने अब तक क्या लिखा है, कितना लिखा है और कितना प्रकाशित किया है और कितने सम्मान मिले हैं ... आदि आदि। लेकिन यह उस का परिचय कहाँ हुआ। उस का असली परिचय तो उस की रचनाएँ होती हैं। यदि मधुशाला न होती तो कोई हरिवंशराय बच्चन को जानता? या रामचरित मानस न होती तो तुलसीदास किसी गुमनामी अंधेरे में खो गए होते धनिया व गोबर जैसे पात्र नहीं होते तो लोग प्रेमचंद को बिसरा चुके होते। 
    सा ही एक रचनाकार है, वह कॉलेज में कुछ साल पीछे था, तो सोच भी न सकते थे कि वह लोगों के मन को पढ़ने  जबर्दस्त हुनर रखता होगा, कि उस में जीवन के प्रति इतना अनुराग होगा, और वह हर कहीं से जीवन-राग और उस की जीत का विश्वास तलाश कर लाएगा और आप के सामने इस तरह खड़ा कर देगा कि आप उसे सुनने को बाध्य हो जाएंगे। अम्बिकादत्त ऐसे ही रचनाकार हैं। उन के बारे में  आज और अधिक कुछ न कहूँगा।  आने वाले दिनों में उन की कविताएँ ही उन का परिचय देंगी। यहाँ प्रस्तुत हैं उन की कविता 'जिन्दा तो रहूंगा' ...

    जिन्दा तो रहूँगा
    • अम्बिकादत्त

    मेरे मरने की बात मत करो
    पृथ्वी पर संकट है और मनुष्य मुसीबत में है
    ये ही बातें तो मुझे डराती हैं
    मेरे सामने इस तरह की बातें मत करो
    तुम ने मुझ से मेरा सब कुछ तो छीन लिया
    मेरे पास घर नहीं है/रोटी भी नहीं है
    सिर्फ भूख और सपने हैं
    मैं अपनी जीभ से अपना ही स्वाद चखता रहता हूँ/फिर भी
    सपनों के लिए मैं ने अपनी नींद में जगह रख छोड़ी है
    मैं भूख में भले ही अपने जिस्म को खा लूँ 
    पर अपनी आत्मा बचाए रखूंगा 
    मैं कमजोर हूँ, कायर नहीं हूँ
    देखना जिन्दा तो रहूंगा। 

     






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    मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

    हर घर में झरबेरी

    ल अपने पुराने मुहल्ले में जाना हुआ, महेन्द्र 'नेह' के घर। वहाँ पुराने पडौ़सियों से भेंट हुई, और मोहल्ले की बातें भी। वहीं मिले बड़े भाई अखिलेश 'अंजुम'। 
    खिलेश जी को मैं 1980 से देखता आ रहा हूँ। काव्य गोष्ठियों और मुशायरों में जब वे अपने मधुर स्वर से तरन्नुम में अपनी ग़ज़लें प्रस्तुत करते हैं तो हर शैर पर वाह! निकले बिना नहीं रहती। मैं उन का कोई शैर कोई कविता ऐसी नहीं जानता जिस पर मेरे दिल से वाह! न निकली हो। उन्हों नें ग़जलों के अतिरिक्त गीत और कविताएँ भी लिखी जिन्हों ने धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नवभारत टाइम्स, दैनिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, नवनीत जैसी देश की महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाया। वे सदैव साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े रहे। वे आज भी विकल्प जनसांस्कृतिक मंच के सक्रिय पदाधिकारी हैं। 

    यहाँ उन का एक नवगीत प्रस्तुत है -

    हर घर में झरबेरी
    अखिलेश 'अंजुम'
    • अखिलेश 'अंजुम'

    रड़के पनचक्की आँतों में
    मुँह मिट्टी से भर जाए

    भैया पाहुन!
    क्यों ऐसे दिन 
                 तुम मेरे घर आए!


    बँटे न हाथों चना-चबैना
    बिछती आँख न देहरी।
    घर-घर मिट्टी के चूल्हे हैं
    हर घर में झरबेरी।
     टूटा तवा, कठौती फूटी
    पीतल चमक दिखाए।

    भैया पाहुन!
    क्यों ऐसे दिन 
                 तुम मेरे घर आए!

    तन है एक गाँठ हल्दी की 
    पैरों फटी बिवाई। 
    जग हँसाई के डर से, उघड़ी 
    छुपी फिरे भौजाई। 
    इस से आगे भाग न अपना 
    हम से बाँचा जाए। 

    भैया पाहुन!
    क्यों ऐसे दिन 
                 तुम मेरे घर आए!

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    रविवार, 30 जनवरी 2011

    गालियाँ रचें तो ऐसी ...

    न दिनों हम लोग जो ब्लागीरी में हैं, गालियों से तंग हैं। एक तो जो नहीं होनी चाहिए वे गालियाँ ब्लागों में दिखाई पड़ती हैं, और जो होनी चाहिए, वे नदारद हैं। हिन्दी बोलियों के लोक साहित्य में गालियों का एक विशेष महत्व है। जब भी समधी मेहमान बन कर आता है, तो रात के भोजन के उपरांत घर की महिलाएँ अपने पड़ौस की महिलाओं को भी बुला लेती हैं और मधुर स्वर में गालियाँ गाना आरंभ कर देती हैं। इन में तरह तरह के प्रश्न होते हैं। धीरे-धीरे गालियाँ समधी बोलने पर बाध्य हो जाता है। जैसे ही वह बोलता है। महिलाएँ जोर से गाना आरंभ कर देती हैं -बोल पड्यो रे बोल पड्यो ...  फिर आगे पुनः गालियाँ आरंभ हो जाती हैं। लोक साहित्य की इन गालियों को हमें संग्रह करना चाहिए। लोकभाषाओं और बोलियों के कवि और साहित्यकार इन का पुनर्सृजन भी कर सकते हैं। कुछ ब्लागर और ब्लागपाठक सड़क छाप गालियों का प्रयोग कर रहे हैं। उन में क्या रचनात्मकता है? सड़क से उठाई और दे मारी। गाली देना ही हो तो मेरे मित्र पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की हाडौती भाषा में रची इस ग़ज़ल से सीखें जिस में गालियों का परंपरागत स्वरूप दिखाई पड़ता है। यह भी देखिए 'यक़ीन' किसे गालियाँ दे रहे हैं ...


    'गाली ग़ज़ल'
    • पुरुषोत्तम 'यक़ीन'

    सात खसम कर मेल्या पण इतरा री छै
    या सरकार छंद्याळ घणी छणगारी छै
    (सात पति रख कर इतराती है, ये सरकार बहुत श्रंगार किए हुए छिनाल नारी है)
    पोथी कानूनाँ की, रखैल डकैताँ की 
    अर चोराँ-दल्लालाँ की महतारी छै
    ( कानून की किताब रखने वाली यह डकैतों की रखैल और चोरो व दलालों की माँ है)

    पीढ़्याँ सात तईं तू साता न्हँ पावे
    थारा बाप कै माथे अतनी उधारी छै
    (सात पीढ़ी तक भी इसे शांति नहीं मिल सकती इस के पिता पर इतनी उधारी है)

    बारै पाड़ोस्याँ पे तू भुज फड़कावै काँईं
    भीतर झाँक कै जामण तंगा खारी छै
    (बाहर के पडौसियों पर बाहें तानती है भीतर इस की माँ धक्के खा रही है) 

    लत्ता फाट्या, स्याग का पीसा बी न्हैं बचे
    नळ-बिजळी का बिलाँ में तनखा जारी छै
    (तन के कपड़े फट गए हैं, सब्जी के लिए भी पैसे नहीं बचते, वेतन नल-बिजली के बिलों में ही समाप्त हो जाता है)

    च्हारूँ मेर जुलम को बंध्र्यो छे धोरो
    ज्हैर बुछी सत्ता की तेग दुधारी छै
     (चारों ओर जुल्म की नहरें बह रही हैं इस सत्ता की तलवार ज़हर बुझी और दो धार वाली है)

    मूंडौ देखै र भाया वै काढ़े छै तलक
    ईं जुग में पण या ई तो हुस्यारी छै
    (वे मुहँ देख देख कर तिलक लगातै हैं, यही तो इस युग की होशियारी है)

    दळदारी की बात 'यक़ीन' करै काँईं
    थारी ग़ज़ल बी अठी फोड़ा पा री छै
    (यक़ीन तुम अपने दारिद्र्य की बात क्या करोगे यहाँ तो तेरी ग़ज़ल ही दुखः पा रही है )

    शनिवार, 22 जनवरी 2011

    अंधे आत्महत्या नहीं करते

    अंधे आत्महत्या नहीं करते

    • दिनेशराय द्विवेदी

    जिधर देखते हैं,
    अंधकार दिखाई पड़ता है,
    नहीं सूझता रास्ता,
    टटोलते हैं आस-पास
    वहाँ कुछ भी नहीं है, जो संकेत भी दे सके मार्ग का

    तब क्या करेगा कोई?
    खड़ा रहेगा, वहीं का वहीं,
    या चल पड़ेगा किधर भी।
    चाहे गिरे खाई में या टकरा जाए किसी दीवार से
    या बैठ जाए वहीं और इंतजार करे 
    किसी रोशनी कि किरन का,
    या लमलेट हो वहीं सो ले।

    लेकिन एक आदमी है 
    जो ऐसे में भी रोशनी की किरन तलाश रहा है।
    उस की दो आँखें 
    अंधेरे में देखने का अभ्यास करने में मशगूल हैं
    वह जानता है कि सारे अंधे आत्महत्या नहीं करते
    जीवन जीते हैं, वे

    आप जानते हैं? इस आदमी को
    नहीं न? 
    मैं भी नहीं जानता, कौन है यह आदमी?

    पर जानता हूँ 
    यही वह शख्स है 
    जो काफिले को ले जाएगा, उस पार
    जहाँ, रोशनी है।

    ___________ ????_____________


    शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

    नैण क्यूँ जळे रे म्हारो हिवड़ो बळे

    ब के ताँई बड़ी सँकराँत को राम राम!
    खत खड़ताँ देर न्हँ लागे। दन-दन करताँ बरस खड़ग्यो, अर आज फेरूँ सँकराँत आगी। पाछले बरस आप के ताँईं दा भाई! दुर्गादान जी को हाडौती को गीत 'बेटी' पढ़ायो छो। आप सब की य्हा क्हेण छी कै ईं को हिन्दी अनुवाद भी आप के पढ़बा के कारणे अनवरत पे लायो जावे। भाई महेन्द्र 'नेह' ने घणी कोसिस भी करी, पण सतूनों ई न्ह बेठ्यो। आखर म्हें व्हानें क्हे दी कै, ईं गीत को हिन्दी अनुवाद कर सके तो केवल दुर्गादान जी ही करै। न्हँ तो ईं गीत की आत्मा गीत म्हँ ही रे जावे, अनुवाद म्हँ न आ सके। म्हारी कोसिस छे, कै दुर्गादान जी गीत 'बेटी' को हिन्दी अनुवाद कर दे। जश्याँ ई अनुवाद म्हारे ताईँ हासिल होवेगो आप की सेवा में जरूर हाजर करुंगो। 
    ज दँन मैं शायर अर ‘विकल्प’ जन सांस्कृतिक मंच का सचिव शकूर अनवर का घर 'शमीम मंजिल' पे ‘सृजन सद्भावना समारोह 2011’ छै। आज का ईं जलसा म्हँ हाडौती का सिरमौर गीतकार रघुराज सिंह जी हाड़ा को सम्मान होवेगो। ईं बखत म्हारी मंशा तो या छी कै व्हाँ को कोई रसीलो गीत आप की नजर करतो। पण म्हारे पास मौजूद व्हाँ की गीताँ की पुस्तक म्हारा पुस्तकालय में न मल पायी। पण आज तो सँकरात छे, आप के ताँईं हाडौती बोली को रसास्वादन कराबा बनाँ क्श्याँ रेह सकूँ छूँ। तो, आज फेरूँ दा भाई दुर्गादान जी को सब सूँ लोकप्रिय गीत ' नैण क्यूँ जळे रे ...' नजर करूँ छूँ ........

    'हाडौती गीत' 

    नैण क्यूँ जळे
    • दुर्गादान सिंह गौड़
    नैण क्यूँ जळे रे म्हारो हिवड़ो बळे
    धरती थारा जाया लाल भूखाँ क्यूँ मरे 
    गोरा गोरा गालाँ पै ये आँसू क्यूँ ढळे? 


    याँ काँपता होठाँ की थैं कहाण्याँ तो सुणो
    याँ खेत गोदता हाथाँ की लकीराँ तो गणो
    लगलगतो स्यालूडो़ काँईं रूहणी तपतो जेठ 
    मेहनत करताँ भुजबल थाक्या तो भी भूखो पेट

    कोई पाणत करे रे कोई खेताँ नें हळे
    धरती थारा जाया लाल भूखाँ क्यूँ मरे 
    गोरा गोरा गालाँ पै ........

    रामराज माँही आधी छाया आधी धूप
    पसीना म्हँ बह-बह जावे चम्पा बरण्यो रूप
    ओ मुकराणा सो डील गोरी को मोळ मोळ जाय
    बळता टीबा गोरी पगथळियाँ छाला पड़ पड़ जाय

    झीणी चूँदड़ी गळे रे य्हाँ की उमर ढळे 
    धरती थारा जाया लाल भूखाँ क्यूँ मरे 
    गोरा गोरा गालाँ पै ........


    अब के बेटी परणाँ द्यूंगो आबा दे बैसाख
    ज्वार-बाजरा दूँणा होसी नपै आपणी साख
    पण पड़्या मावठी दूंगड़ा रे फसलाँ सारी गळगी
    दन-दन खड़ताँ पूतड़ी की धोळी मींड्याँ पड़गी

    तकदीराँ की मारी उबी नीमड़ी तळे
    धरती थारा जाया लाल भूखाँ क्यूँ मरे 
    गोरा गोरा गालाँ पै ........

    मत बिळखे मत तड़पे कान्ह  कुँवर सा पूत
    मत रबड़े रीती छात्याँ नें कोनें य्हाँ में दूध
    मती झाँक महलाँ आड़ी वे परमेसर का बेटा
    वे खावैगा दाख-छुहारा, थैं जीज्यो भूखाँ पेटाँ

    रहतो आयो अन्धारो छै दीप के तळे
    धरती थारा जाया लाल भूखाँ क्यूँ मरे 
    गोरा गोरा गालाँ पै ........
    स गीत में दुर्गादान जी ने इस वर्गीय समाज के एक साधारण किसान परिवार की व्यथा को सामने रखा है। वह कड़ाके की शीत  रात्रियों में और जेठ की तपती धूप में अपने शरीर को खेतों में गलाता है। उस का मासूम शिशु फिर भी भूख से तड़पता रहता है और शिशु की माता के गालों पर उस की इस दशा को देख आँसू टपकते रहते हैं। साथ में श्रम करते हुए सुंदर पुत्री का रूप पसीने बहता रहता है और गर्म रेत पर चलने से पैरों के तलवों में छाले पड़ जाते हैं वह सोचता है कि अब की बार फसल अच्छी हो तो वह बेटी का ब्याह कर देगा। लेकिन तभी मावठ में ओले गिरते हैं और फसल नष्ट हो जाती है। घर में खाने को भी लाले पड़ जाते हैं। वैसे में बच्चे जब जमींदार और साहुकारों के घरों की ओर आशा से देखते हैं तो किसान उन को कहता है कि वे तो परमेश्वर के बेटे हैं जिन का भाग्य दीपक जैसा है और हम उस के तले में अंधेरा काट रहे हैं।

    अंत में फिर से सभी को मकर संक्रान्ति का नमस्कार!

    मंगलवार, 11 जनवरी 2011

    'विकल्प' सृजन सम्मान 2011 वरिष्ठ साहित्यकार रघुराज सिंह हाड़ा को

    दैनिक भास्कर के कोटा संस्करण में आज यह खबर छपी है -
    वरिष्ठ साहित्यकार रघुराजसिंह हाड़ा होंगे सम्मानित 
    ‘विकल्प’ जन सांस्कृतिक मंच की ओर से नववर्ष एवं मकर संक्रांति के अवसर पर 14 जनवरी को दोपहर 1:30 बजे श्रीपुरा स्थित शमीम मंजिल पर ‘सृजन सद्भावना समारोह 2011’ का आयोजन होगा। विकल्प के सचिव शकूर अनवर ने बताया कि इस वर्ष विकल्प का सृजन सम्मान वरिष्ठ साहित्यकार रघुराजसिंह हाड़ा (झालावाड़) को दिया जाएगा। समारोह के मुख्य अतिथि कवि बशीर अहमद मयूख होंगे। अध्यक्षता अंबिकादत्त, प्रो. हितेश व्यास एवं रोशन कोटवी करेंगे। विशिष्ठ अतिथि मेजर डीएन शर्मा ‘फजा’, प्रो. एहतेशाम अख्तर, निर्मल पांडेय, दुर्गाशंकर गहलोत, टी विजय कुमार व रिजवानुद्दीन होंगे। सम्मान समारोह के बाद वृहद काव्य गोष्ठी का आयोजन होगा, जिसमें हाड़ौती अंचल के प्रमुख कवि एवं शायरों का काव्यपाठ होगा। संचालन चांद शेरी एवं हलीम आईना करेंगे। सृजन सम्मान वाचन कृष्णा कुमारी करेंगी तथा सद्भावना वक्तव्य अरुण सेदवाल देंगे।
    जी, हाँ! हर मकर संक्रांति पर शकूर 'अनवर' के घर 'शमीम मंजिल' पर एक हंगामा समारोह होता है। शांति के प्रतीक श्वेत कपोतों की उड़ानें, फिर आसमान में इधर-उधर गोते खाती, पेंच लड़ाती पतंगों में शामिल होती शमीम मंजिल की पतंगें, गुड़-तिल्ली की मिठाइयाँ और चावल-दाल की खिचड़ी, हाड़ौती अंचल के किसी कवि-साहित्यकार का सम्मान और काव्यगोष्टी। पिछले वर्ष के इस हंगामा समारोह के चित्र और रिपोर्ट यहाँ मौजूद हैं।
    यह चित्र पिछले साल के समारोह का है, जिस में दिखाई दे रहे हैं शकूर 'अनवर', महेन्द्र 'नेह',बशीर अहमद मयूख श्रीमती लता, ऐहतेशाम अख़्तर और चांद शेरी डॉ. कमर जहाँ बेगम का शॉल ओढ़ा कर सम्मान करते हुए। इस में मैं भी हूँ जनाब अब इसे पहेली समझते हुए बताइए कि कहाँ हूँ, पहेली का जवाब इस साल के समारोह की रिपोर्ट में देखियेगा।
    ब आप सोच रहे होंगे कि ऊपर वाली खबर में भी दिनेशराय द्विवेदी तो कहीं हैं ही नहीं। तो भाई, इस खबर में सिर्फ कवियों के नाम छपे हैं। बाकी सारे काम तो अपने ही जिम्मे हैं, जैसे पतंग उड़ाना, तिल्ली-गुड़ के लड्डू और खिचड़ी उदरस्थ करना और फोटो उतारना। आ सकें, तो आप भी आएँ, यह एक आनंदपूर्ण दिन होगा।