हम बस में सवार थे
अचानक बस से उतार लिए गए
सड़क रुकी हुई थी
बसों, ट्रकों, जीपों कारों की कतार थी
बीच रास्ते पर शामियाना तना हुआ था
अंदर एक सफेद पर्दे पर
प्रोजेक्टर से निकली रोशनी
खेल रही थी
मैच चल रहा था विश्वकप का
कभी उतार तो कभी चढ़ाव
आखिर मैच खत्म
जश्न शुरू हुआ
नाचते गाते सुबह होने को हुई
तो सड़क साफ हुई हम फिर बस में थे
.... और अब एक कविता अम्बिकादत्त की-
बस पर किस का बस है
- अम्बिकादत्त
कोई नहीं जानता बस कहाँ जाएगी
बस कुएँ में पड़ी बाल्टी की तरह है
लोगों को पता है बस सरकारी है
लोग जानते हैं बस घाटे में है
लगो सोचते हैं बस कभी तो जाएगी
लगो नहीं जानते बस कब जाएगी
बस बंद है, जिन खिड़कियों में काँच नहीं है
वे खिड़कियाँ भी बन्द हैं
लोग आ रहे हैं, लोग जा रहे हैं
सामान जमा रहे हैं, बीड़ियाँ सुलगा रहे हैं
खटर-पटर सी मची है, बस चलेगी यह उम्मीद जगी हुई है
सीट पर आराम से बैठा आदमी, आशंकित है
ऊपर रखा सामान कभी भी उस के माथे पर गिर सकता है/ उस की सीट का नम्बर
किसी और को मिल सकता है
उफ! कितनी उमस है कितनी तकलीफ है
थकान है फिजूल झगड़ा है, थोड़ी देर के सफर में भी सकून नहीं
चलिए छोड़िए! जरा बताइए भाई साहब, कितना बजा है, बस कब जाएगी
11 टिप्पणियां:
बस पर किसी का बस चलता तो लोग परबस(परवश) क्यों होते....
अच्छे दृष्य खिचें है दोनों मे...
बस बेबस है
अब बस भी करो या बस में ही बसेरा करना है ! शुभकामनायें !
बस तो छूट गयी ...
बस तो बस, बस है। बस में आती नहीं। बेबस करती है।
सिर्फ़ 'बस' पर ही क्यों .किसी पर किसी का बस है क्या ? - यथास्थितिवाद की महिमा कहें या लोगों का सीमातीत धैर्य !
bhaai dinesh ji dvivedi ji ambikaa dtt ji ki or aapki bs chlti rhna achahiye ise bs nhin krnaa he bhtrin mnzarkshi. akhtar khan akela kota rajsthan
ये फ़ेविकाल की पकड है जनाब :)
सब बसमय दिख रहा है.. और वश में कुछ नहीं. :)
बस की ये बे-बसी वश में कर लेने वाली है...
जय हिंद...
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