कोई भी रचना सब से पहले स्वान्तः सुखाय ही होती है। जब तक वह किसी अन्य को सुख प्रदान न कर दे उसे समाजोपयोगी या रचनाकार के अतिरिक्त किसी भी अन्य को सुख देने वाली कहना स्वयं रचनाकार के लिए बहुत बड़ा दंभ ही होगा। इस का सीधा अर्थ यह है कि कोई भी रचना का स्वयं मूल्यांकन नहीं कर सकता। किसी रचना का मूल्यांकन उस के प्रभाव से ही निश्चित होगा। इस के लिए उस का रचना के उपभोक्ता तक पहुँचना आवश्यक है। उपभोक्ता तक पहुँचने पर वह उसे किस भांति प्रभावित करती है, यही उस के मूल्यांकन का पहला बिंदु हो सकता है। तुलसी की रामचरितमानस से कौन भारतीय होगा जो परिचित नहीं होगा। इस रचना ने पिछली चार शताब्दियों से भारतीय जन-मानस को जिस तरह प्रभावित किया है। संभवतः किसी दूसरी रचना ने नहीं। लेकिन उस का रचियता उसे स्वान्तः सुखाय रचना घोषित करता है। तुलसीदास रामचरित मानस जैसी कालजयी रचना को रच कर भी उसे स्वांतः सुखाय घोषित करते हैं, यह उन का बड़प्पन है। लेकिन कोई अन्य किसी अन्य की रचना लिए यह कहे कि वह स्वांतः सुखाय है, तो निश्चित रूप से उस रचना ने कहीं न कहीं इस टिप्पणीकार को प्रभावित किया है और यही घोषणा उस रचना के लिए एक प्रमाण-पत्र है कि वह मात्र स्वान्तः सुखाय नहीं थी।
मैंने पिछले दिनों हमारे ही अंचल के कवि अम्बिकादत्त से परिचय करवाते हुए उन की कविताएँ प्रस्तुत की थीं। आज प्रस्तुत है उन की एक और रचना। इसे प्रस्तुत करते हुए फिर दोहराना चाहूँगा कि कवि का परिचय उस की स्वयं की रचना होती है।
औरतों का दर्जी
- अम्बिकादत्त
झूठ नहीं कहता मैडम!
सब औरतें आप की तरह भली नहीं होतीं
दोजख से भी दुत्कार मिले मुझ को यदि मैं झूठ बोलूँ
अल्लाह किसी दुश्मन के नसीब में भी न लिखे
औरतों का दर्जी होना! अगर होना ही पड़े तो
औरतों के दर्जी के लिए अच्छा है
गूंगा या बहरा होना
क्या कोई तरकीब ईजाद हो सकती है नए जमाने में
कि अंधा हो कर भी औरतों का दर्जी हुआ जा सके
हालांकि, आवाज से किसी औरत का 'पतवाना' लेना जरा मुश्किल काम है
किसी भी वक्त बदल जाती हैं-वो
नाप लेने के सारे साधन
अक्सर ओछे और पुराने पड़ जाते हैं
लगता है, एक तिलिस्म है/मिस्र के पिरामिड, दजला फरात या
सिंधु घाटियों में जाने जैसा है, उन्हें नापना/
जरा सा चूक जाएँ तो लौटना मुश्किल है- नस्लों तक के सुराग न मिलें
उन की आवाज में चहकते सुने हैं पंछी मैं ने
सपनों में तैरते सितारे
'लावणों' में लहराते बादल
तरह-तरह के कालरों और चुन्नटों में चमकते इन्द्रधनुष
वरेप, मुगजी, बटन, काज, हुक, बन्द, फीतों में
तड़पती देखता हूँ हजारों हजार मछलियाँ
और इन की हिदायतें ओSह
इतनी हिदायतें, इतनी हिदायतें कि क्या कहूँ
कई बार तो लगता है, वे कपड़े सिलवाने आई हैं या पंख लगवाने
मेरे हाथ से गज और गिरह गिरने को होते हैं
बार बार
अरजुन के हाथ से गिरता था धनुष जैसे महाभारत से पहले
अपनी बातों ही बातों से कतरनों का ढेर लगा देती हैं
मेरी कैंची तो कभी की भोथरी साबित हो चुकी
कपड़े वक्त पर सिल कर देने का वादा, और वक्त पर न सिल पाना अक्सर
दोनों ही मेरी मजबूरियाँ हैं जिन्हें मैं ही जानता हूँ
और कोई नहीं जानता, मेरे ग्राहकों और खुदा के सिवा
आसमान की ऊँचाइयाँ कम हैं उन के लिए
समुन्दर की गहराइयाँ भी/कम हैं उन के सामने
कैसे कैसे ख्याल सजाए होती हैं, कैसे कैसे दर्द छिपाए होती हैं वे
मुझे रह रह कर याद आता है,
मेरी पुरानी ग्राहक की नई सहेली की ननद का किस्सा
जिस की कहीं बात चल रही थी, फिर टूट गई
उस ने जहर खाया था अनजान जगह पर
लावारिस मिली उस की लाश को पहचाना था पुलिस ने कपड़ों से
उस ने मेरे सिले हुए कपड़े पहन रक्खे थे, मुझे उस दिन लगा
औरतों के कफन और शादी के जोड़े क्या एक जैसे होते हैं
औरतें फिर भी औरतें हैं
जमाने से आगे चलती हैं औरतें
औरतों से आगे चलते हैं उन के कपड़े
उस से भी आगे खड़ा होना पड़ता है, औरतों के दर्जी को।
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18 टिप्पणियां:
औरतें फिर भी औरतें हैं
जमाने से आगे चलती हैं औरतें
औरतों से आगे चलते हैं उन के कपड़े
उस से भी आगे खड़ा होना पड़ता है, औरतों के दर्जी को।
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वाह क्या बात है
दर्जी को आगे तो चलना ही पड़ेगा।
सुन्दर कविता
आभार
औरतों के दर्जी को नमन जी हिम्मत हे उस दर्जी की बहुत सुंदर कविता, धन्यवाद
बहुत सटीक रचना.
रामचरितमानस मात्र 'स्वान्तः सुखाय' नहीं, गोसाईं जी के ही शब्दों में 'स्वान्तस्तमःशान्तये' भी है.
दत्त जी की लेखनी को नमन, औरतो के दर्जी के लिए बेहतरीन कविता कही है
आभार आपका आपने हम तक पहुचाई
एक बेहतरीन सोच का परिचायक है ये कविता।
क्या शीर्षक है गुरु ....
और तो कुछ समझ नहीं आया :-( बुद्धि की पोटली ताऊ ले गया :-)))
बहुत ही प्यारी रचना।
होली के पर्व की अशेष मंगल कामनाएं।
धर्म की क्रान्तिकारी व्या ख्याa।
समाज के विकास के लिए स्त्रियों में जागरूकता जरूरी।
पढ़ना शुरू किया तब लगा हास्य रस की कविता है, पर अंत तक आते आते बहुत गंभीर कर गयी, बहुत भावपूर्ण लिखा है
अब कोई ब्लोगर नहीं लगायेगा गलत टैग !!!
बहुत अलग सी सुन्दर रचना.
घुघूती बासूती.
बहुत लाजवाब बात कही है.
रामराम.
रचना का आनन्द तो स्वान्तः सुखाय में ही होता है। ऐसा विषय उठाने के लिये वह आनन्द आना आवश्यक है।
औरतें फिर भी औरतें हैं
जमाने से आगे चलती हैं औरतें
औरतों से आगे चलते हैं उन के कपड़े
उस से भी आगे खड़ा होना पड़ता है, औरतों के दर्जी को।vakai sochane ko majboor kar gayee ye kavita kis dudhari talvar par chalane ka kam hai aurat ka darji hona..
उस ने जहर खाया था अनजान जगह पर
लावारिस मिली उस की लाश को पहचाना था पुलिस ने कपड़ों से
उस ने मेरे सिले हुए कपड़े पहन रक्खे थे, मुझे उस दिन लगा
औरतों के कफन और शादी के जोड़े क्या एक जैसे होते हैं
औरतें फिर भी औरतें हैं
जमाने से आगे चलती हैं औरतें
औरतों से आगे चलते हैं उन के कपड़े
उस से भी आगे खड़ा होना पड़ता है, औरतों के दर्जी को।
bahut hi achhi rachna
bahut achchi lagi aur kahin-kahin sachchi bhi.....
bahot khoooooooob !
औरतें फिर भी औरतें हैं
जमाने से आगे चलती हैं औरतें
औरतों से आगे चलते हैं उन के कपड़े
उस से भी आगे खड़ा होना पड़ता है, औरतों के दर्जी को।
..
बहुत सटीक और सुन्दर रचना...
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