@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: शील की कहानी - गैस खत्म

सोमवार, 28 मार्च 2011

शील की कहानी - गैस खत्म

शील का ये तिरेपनवाँ साल है। हाँ, अब वह शील ही रह गई है। उस का पति सुरेश उसे इसी नाम से बुलाता है। यूँ उस के दादा ने उस का नाम शीलवती रखा था। शतभिषा नक्षत्र के तीसरे चरण में जो पैदा हुई थी। पर दादी को यह नाम लंबा लगता था वह उसे शीला कहने लगी। फिर स्कूल में भी यही नाम लिखवा दिया गया। सब लोग उसे शीला ही कहने लगे थे। विवाह के निमंत्रण में भी यही नाम छपा था। पर शादी के बाद पति ने उसे कहा कि वह उस के नाम से नहीं पुकारेगा, अच्छा नहीं लगता लेकिन दूसरा नाम क्या हो? इस पर पहले ही दिन दोनों के बीच बहस हो गई थी। फिर तय हुआ कि शील कहेगा। फिर ससुराल में यही नाम चल निकला। सब उसे शील ही कहने लगे। वह जब भी मायके जाती है तो उसे शीला कहा जाता है।  
शादी तो उस की तभी हो चुकी थी जब उस ने मेट्रिक की परीक्षा दी थी। ससुराल में उसे सिर्फ चार-पाँच साल बिताने पड़े। उन दिनों को याद करती है तो उसे अब भी रोना आ जाता है। फिर सुरेश ने घर छोड़ने की ठान ली। वह तो दिल्ली या मुंबई जैसी जगह जा कर पत्रकार बनना चाहता था। वह चला भी गया था। पर शायद शील के प्रेम की डोरी ही थी जो उसे वापस खींच लाई थी। उसे एक प्रतिष्ठित साप्ताहिक में उप संपादक का काम मिला था। लेकिन जब वह रहने का स्थान तलाशने निकला तो महानगर की सचाई सामने आ गई थी। जितनी तनख्वाह उसे मिलनी थी वह अपने कस्बे के हिसाब से तो सही थी, लेकिन मुंबई में उस से क्या होता? आधा तो किराए में ही चला जाता। वह भी तब जब वह दो और लोगों के साथ अपना कमरा साँझा करता। यदि वह साँझे कमरे में रहता तो शील को अपने साथ कैसे रख सकता था। उस ने यह भी अनुमान लगाया कि कितने बरस बाद वह ऐसा स्थान ले सकता था जिस से शील को साथ रख सके। अनुमान आया सात बरस। सात बरस! इतने दिन वह शील के बिना कैसे रहेगा। वह इतने साल अपने पीहर में तो नहीं ही रह सकती, और ससुराल में? वहाँ तो इतने दिन में उस का दम कितनी ही बार घुट चुका होगा। सुरेश ने उसी दिन साप्ताहिक के दफ्तर को टा-टा कर दिया। चार दिन के काम की मजदूरी छोड़ कर वापसी की ट्रेन का टिकट लिया और अगली शाम वह ट्रेन में वापसी की यात्रा कर रहा था। शील सोचती है कि तब सुरेश ने यदि वह नौकरी न छोड़ी होती तो वह घुट कर ही सही जैसे-तैसे सात बरस काट ही लेती। ससुराल में दम घुटने लगता तो दम लेने को कुछ महिने अपने पीहर में काट लेती। लेकिन सुरेश अवश्य ही देश का शीर्ष पत्रकार होता। शायद किसी शीर्ष समाचार पत्र का प्रमुख संपादक। जरूर कोई टीवी चैनल उस का भी आधे घंटे का साप्ताहिक कार्यक्रम चला रहा होता। तब शील की हैसियत भी वैसी ही होती। 
सुरेश ने मुंबई से लौटते ही फैसला ले लिया कि जैसे ही उस की कानून की पढ़ाई पूरी होगी वह वकालत शुरू कर देगा। फिर देखेगा कि कोई नौकरी करनी है या नहीं। यदि कोई ढंग-ढांग की नौकरी मिली तो करेगा, नहीं तो वकालत कोई बुरी नहीं। कम से कम खुद-मुख्तार तो रहेगा। उस ने यही किया भी, जिस रात वह कानून का आखिरी पर्चा देकर घर लौटा उस के अगले ही दिन अल्ल सुबह वह वकील के दफ्तर में पहुँच गया और कहने लगा -मैं आ गया हूँ मुझे आप की फाइलें संभला दो। उसी दिन वह उन के साथ अदालत में था। तीन महीने परीक्षा का परिणाम आने में लगे और तीन माह सनद आने में। जिस दिन डाक से बार कौंसिल का लिफाफा मिला सुरेश ने सीधा अपने बॉस को ले जाकर दिया। उन्हों ने खोल कर देखा तो उस में वकालत की सनद जारी करने की सूचना थी। बॉस ने तीन दिन पहले ही सिल कर आया नया कोट अपने शरीर पर से उतार कर सुरेश को पहना दिया। उस दिन सुरेश काला कोट पहने ही घर लौटा था। वह दिन शील आज तक नहीं भूल सकती। उसे लगा था कि वह उस की आजादी की शुरुआत थी। 
सोचते-सोचते शील का ध्यान रसोई में गैस पर चढ़े ओवन में सिकने को रखी बाटियों की ओर गया। आज रविवार था और सुरेश अक्सर उसे कहता था रविवार को तो दाल बाटी बना लिया करे। आज उस ने सुरेश की यह बात मान ली थी। दाल तो उस ने नहीं बनाई लेकिन कढ़ी बना ली थी और ओवन में बाटियाँ सेकने को डाल दी थीं। उस ने ओवन का ढक्कन उठा कर देखा तो बाटियाँ जस की तस थीं। वह हैरान रह गई कि यह हुआ क्या? उस की निगाह गैस की ओर गई तो चूल्हा बुझा हुआ था। गैस टंकी को हिला कर देखा तो वह बिलकुल खाली थी। ओवन भले ही ठंडा हो गया हो पर उस के दिमाग तुरंत गरम हो गया। वह एक महीने से सुरेश को याद दिला रही थी कि गैस सिलेंडर ले आओ। लेकिन उसे फुरसत हो तब न। अब कैसे भोजन बनेगा? सुरेश तो अब तक बिना नहाए बैठा इंतजार कर रहा था कि कब शील उसे भोजन बनने की सूचना दे और कब वह स्नानघर में प्रवेश करे। उस की आदत जो है कि इधर स्नानघर से निकला कपड़े पहने, ठाकुर घर में घुस कर सैंकंडों में माथे पर टीका लगाया और तुरंत भोजन चाहिए। जरा भी देरी उस से बर्दाश्त नहीं होती। इस नए मुहल्ले में वह सिलेंडर भी किस से मांगेगी? यहाँ तो उसे कोई ठीक से जानता भी नहीं। सुरेश को भी नहीं कह सकती, उस के पास दफ्तर में कोई क्लाइंट जो बैठा है। 
ह सोच में ही पड़ी हुई थी कि सुरेश पानी पीने के लिए दफ्तर से अंदर आया। उस ने तपाक से कहा गैस खत्म हो गई है। सुरेश ने पूछा -खाना बना? -नहीं अभी कहाँ बस कढ़ी बनी है, बाटी सिकने को डाली ही थी। सुरेश भी सोचने लगा कि अब क्या किया जाएगा? गलती तो उसी की है। शील तो महीने भर से कह रही थी गैस लाने को। लेकिन उसे फुरसत मिले तो। एक दिन पहले फोन करना पड़ता है दूसरे दिन ऐजेंसी से लाना पड़ता है, वह भी दुपहर को जब उस का अदालत का समय होता है। वह देख ही रहा था कि किस दिन वह अदालत से दोपहर को निकल सकता है। कल ही उस ने ऐजेंसी को फोन किया था और उसे सोमवार को गैस लानी थी। लेकिन इस गैस को भी रविवार को ही खत्म होना था। एक छोटा सिलेंडर और था जिसे वह इमरजेंसी में काम ले सकता था। लेकिन उसे भी वह पिछले महीने शील की बहिन के बच्चों को दे आया था जो उसी शहर में कमरा ले कर पढ़ रहे थे। सुरेश को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था कि शील बोल पड़ी। अभी घर में बहुत नाश्ता पड़ा है, तुम तो नाश्ता कर लो। सुरेश समझ गया कि वह उसे ताना दे रही है। थोड़ी देर और गैस का कोई हल न हुआ तो साक्षात दुर्गा के दर्शन संभव हैं। सुरेश ने कहा -तुम जानती हो मुझे स्नान के पहले कहाँ भूख लगती है। तुम गुस्सा न करो, अभी कुछ न कुछ करता हूँ। 
तना कह कर वह फिर अपने दफ्तर में जा बैठा। क्लाइंट ने अपनी राम-कथा फिर जारी कर दी, जिस का मुकदमे से कोई ताल्लुक न था। पर वकील को सुननी तो सब पड़ती है वर्ना क्लाइंट समझता है उस की पूरी बात सुनी ही नहीं वकील वकालत कैसे करेगा? वह सुनता रहा। लेकिन अब एक भी शब्द उस के कानों तक नहीं पहुँच रहा था। उसे तो तुरंत गैस का इन्तजाम करना था। उसे कुछ ही दूर रहने वाले अपने एक शिष्य का ख्याल आया तो तुरंत फोन की ओर उस का हाथ बढ़ गया। यह सुखद ही था कि फोन पर शिष्य मिल गया था। उस के घर तो कोई भरा सिलेंडर उपलब्ध नहीं था, लेकिन इतना जरूर कह दिया था कि वह कुछ मिनटों में कोई न कोई इंतजाम कर के फोन करेगा। वह शील को बताना चाहता था। लेकिन उसे अपने गुरू का मंत्र याद आ गया कि कभी अधूरी सफलता का उल्लेख किसी से न करो। यह सही भी था। यदि वह शील को बताता कि गैस का इंतजाम अभी हुआ जाता है, और गैस का इंतजाम दो घंटे भी न हुआ तो दुर्गा के साथ काली के दर्शन होना भी स्वाभाविक था। वह चुपचाप अपने क्लाइंट की राम-कथा फिर सुनने लगा। हालाँकि उस का पूरा ध्यान फोन की तरफ था कि कब घंटी बजे और कब उसे राहत मिले। 
स मिनट में ही घंटी बज उठी। संदेश था कि तुरंत गैस ले जाओ। सुरेश ने क्लाइंट को भी अपने साथ उठाया और गाड़ी में बैठाया। शिष्य एक पडौ़सी के घर के बाहर ही दिखे। वहाँ दरवाजे पर गैस सिलेंडर तैयार था। वह सिलेंडर रखवा कर घर लौटा। रसोई में सिलेंडर बदल कर चूल्हा जलाने को माचिस तलाशी तो वहाँ पड़ी माचिस खाली थी। उस ने कमरे में टीवी देखने जा बैठी शील को आवाज दी -माचिस कहाँ है? शील तुरंत उठ कर रसोई में घुसी। सुरेश गैस के सामने से हट गया। शील ने लाइटर से गैस जलाई। एक ही प्रयास में गैस जल उठी। सुरेश को आश्चर्य हुआ कि लाइटर पहली ही बार में कैसे काम कर गया? वह तो खराब हो चुका था और सात-आठ बार दबाने पर एक बार बमुश्किल काम करता था। पर इस से क्या शील के चेहरे पर से भी तनाव की सारी रेखाएँ पल भर में गायब हो चुकी थीं, दबी-दबी मुस्कान भी दिखाई दे रही थी। सुरेश को तसल्ली हुई। वह फिर से दफ्तर में आ गया। क्लाइंट की राम-कथा समाप्ति के दौर में थी। वह सोच रहा था कि क्लाइंट के उठते ही वह सीधा स्नानघर में घुस लेगा।

14 टिप्‍पणियां:

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत सुंदर कहानी जी, शील नाम भी बुरा नही, वैसे कहानी मे मियां बीबी का प्यार खुब झलकता हे जो एक दुसरे का ख्याल रखते हे, धन्यवाद

Rahul Singh ने कहा…

क्लाइंट सामने बैठा रहे बस, वकील साहब के घर गैस की आपूर्ति बनी रहती है.

Arvind Mishra ने कहा…

ख़तम हो गयी या सीक्वेल भी है ?

Udan Tashtari ने कहा…

बेहतरीन कहानी..इसमें कैसा सीक्वेल मिश्रा जी...घर घर की कहानी है जी...

आपका अख्तर खान अकेला ने कहा…

bhtrin andzza bhtrin chitrn lekin suresh ji kyaa .............. khubsurt lekhn ke liyen bdhaayi. akhtar khan akela kota rajsthan

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अच्छा है कि गैस की प्रतीक्षा की जा रही है। हमारे घर में सब तैयार हो जाते हैं बाहर जाकर खाने के लिये। इसलिये हमें तो पहले से ही तैयार रहना पड़ता है।

Shah Nawaz ने कहा…

वाह बढ़िया लिखा है.... असल ज़िन्दगी की कहानी लग रही है... आखिर तक बांधे रखा...

रश्मि प्रभा... ने कहा…

kahani aam jivan ki rochakta , sakpakahat, kufti se bharpur hai.... aakhir mein jo muskaan ubhri wahi to prapy hai

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

रोचक है कहानी

Satish Saxena ने कहा…

बढ़िया ! हम तो दाल बाटी पर जाकर फंस कर रह गए ....आपके मज़े हैं ! शुभकामनायें !!

Khushdeep Sehgal ने कहा…

@शाहनवाज़,
असल ज़िंदगी की कहानी लग नही रही है, असल ज़िंदगी की कहानी है...

क्यों सरदार (..जी), क्या मैं गलत कह रहा हूं...

जय हिंद...

विष्णु बैरागी ने कहा…

मन को लाख समझा रहा हूँ कि इसे आपकी आपबीती न माने। किन्‍तु कम्‍बख्‍त मान ही नहीं रहा।

सञ्जय झा ने कहा…

MAN SANSYA ME THA.......SO KAFI INTAZAR KIYA.......SANSYA DOOR HUE....YE KAHANI KAHANI NAHI SANSMARN HI HAI........SABIT HUA.....


PRANAM.

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक ने कहा…

उपरोक्त कहानी दर्शाती है कि-जीवन की छोटी-छोटी समस्यों से कैसे जीवनशैली प्रभावित होती है. मैं विष्णु बैरागी जी के कथन से भी पूरी तरह से सहमत हूँ. कहानी शुरू से अंत तक पाठक को बांधें रखने में कामयाब हुई है