अखिलेश जी को मैं 1980 से देखता आ रहा हूँ। काव्य गोष्ठियों और मुशायरों में जब वे अपने मधुर स्वर से तरन्नुम में अपनी ग़ज़लें प्रस्तुत करते हैं तो हर शैर पर वाह! निकले बिना नहीं रहती। मैं उन का कोई शैर कोई कविता ऐसी नहीं जानता जिस पर मेरे दिल से वाह! न निकली हो। उन्हों नें ग़जलों के अतिरिक्त गीत और कविताएँ भी लिखी जिन्हों ने धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नवभारत टाइम्स, दैनिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, नवनीत जैसी देश की महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाया। वे सदैव साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े रहे। वे आज भी विकल्प जनसांस्कृतिक मंच के सक्रिय पदाधिकारी हैं।
यहाँ उन का एक नवगीत प्रस्तुत है -
हर घर में झरबेरी
अखिलेश 'अंजुम' |
- अखिलेश 'अंजुम'
रड़के पनचक्की आँतों में
मुँह मिट्टी से भर जाए
भैया पाहुन!
क्यों ऐसे दिन
तुम मेरे घर आए!
बँटे न हाथों चना-चबैना
बिछती आँख न देहरी।
घर-घर मिट्टी के चूल्हे हैं
हर घर में झरबेरी।
टूटा तवा, कठौती फूटी
पीतल चमक दिखाए।
भैया पाहुन!
क्यों ऐसे दिन
तुम मेरे घर आए!
तन है एक गाँठ हल्दी की
पैरों फटी बिवाई।
जग हँसाई के डर से, उघड़ी
छुपी फिरे भौजाई।
इस से आगे भाग न अपना
हम से बाँचा जाए।
भैया पाहुन!
क्यों ऐसे दिन
तुम मेरे घर आए!
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9 टिप्पणियां:
बड़ी वेदना है..
अखिलेश ’अंजुम’ जी से परिचय एवं इस गीत हेतु आभार!!
अपने हालात पर ध्यान आता है, पाहुन के आने पर, वरना तो शायद जैसे-तैसे कटती रहती है.
vaah bde bhaai akhilesh ji ko hiro bna hi diya kher voh is layq bhi hen kota ki vibhutiyon ko sthan dene ke liyen shukriyaa. akhtar khan akela kota rajsthan
सच कहा अखिलेश जी आज कल तो शायद इस कविता की प्रसांगिकता और बढ गयी है। इसे पढवाने के लिये आभार।
बहुत अच्छा नवगीत पढ़वाने के लिए आभार।
पीड़ाभरी।
अखिलेश ’अंजुम’ जी से परिचय एवं इस गीत की प्रस्तुति हेतु आपको धन्यवाद.
स्थापित होने के लिए सायास लेखन के इस समय में अखिलेशजी की सहज कविता ने आज की सुबह आनन्दमयी कर दी।
आप दोनों को धन्यवाद।
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