@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: जन्मदिन
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सोमवार, 6 सितंबर 2010

छप्पन के बचपने का पहला दिन .....

ल का दिन अहम तो था ही। आखिर हम सुबह सवेरे जब पाँच बज कर उनचास मिनट में छह सैकंड शेष थे तब जिन्दगी के पचपन साल पूरे कर छप्पनवें में प्रवेश कर लिया था। हम ने घोषणा भी कर दी थी कि अब फिर से बचपन आरंभ हो रहा है। लेकिन बचपन को बचपन जैसे साथी भी तो मिलते। उन का अभी सर्वथा अभाव है। घर में तो हम दो प्राणी हैं। एक हम खुद और दूसरी हमारी अर्धांगिनी शोभा। हमारा जन्मदिन भले ही सुबह आरंभ छह बजे के करीब आरंभ हुआ हो, पर बधाइयाँ रात बारह के बारह के पहले ही आरंभ हो चुकी थीं। पाबला जी की जय हो। सब से पहले उन का फोन था। बात उन के सुपुत्र गुरुप्रीत से भी हुई। बहुत दूर था पार्टी चाह रहा था। हम ने कहा आ जाओ। उस ने जल्दी ही आने का वायदा किया। वह होता तो बचपन का आनंद मिलता। फिर सुबह बिस्तर से नीचे उतरता उस से पहले ही मोबाइल की घंटी बज उठी। दीपक मशाल थे। पूछ रहे थे कैसे मनाएंगे? मंदिर जाएंगे। हम ने कहा -सोचा नहीं है। पर हमारा घर मंदिर से कम थोड़े ही ना है।
कॉफी पी और आदत के मुताबिक कंप्यूटर संभाला। संदेशों का उत्तर दिया। तभी ताऊ जी का ब्लाग खुल गया। पहेली थी। हम जिद पर आ गए कि आज तो पहेली हमें ही जीतनी है। जन्मदिन का आरंभ इसी से क्यों न हो। हम पहेली का उत्तर तलाशने लगे। उत्तर मिला लेकिन जैसे ही जवाब लिखने लगे बिजली ने कंप्यूटर का बैंड बजा दिया। ठीक साढ़े आठ पर गई थी। नौ बजे तक नहीं लौटी। बिजली वालों से फोन कर के पूछते उस से पहले अखबार देख लेना उचित समझा। अखबार के पाँचवे पृष्ठ पर हमारी बस्ती का नाम उस सूची में शामिल था जिस की बिजली एक बजे तक बंद रहनी थी। अब देखिए, बिजली वालों को भी मेरी बस्ती की बिजली मरम्मत के लिए आज ही का दिन मिला था। तभी फोन आ गया। बेटा वैभव बधाई दे रहा था। अब बिजली नहीं थी। लेकिन मोबाइल और बेसिक दोनों फोन चालू थे। श्रीमती जी ने स्नान कर के स्नानघर हमारे लिए छोड़ दिया था। हम उसी की शरण मे  चले गए।
चपन याद आने लगा। तब तिथि पकड़ कर जन्मदिन मनाया जाता था। रक्षाबंधन के अगले दिन। उस दिन के कुछ मेहमान स्थायी होते थे। सुबह ही स्नान करा दिया जाता था। अम्माँ उस दिन जरूर हल्दी-आटे-चंदन का उबटन लगाती थीं। हमें हल्दी का रंग निकालने के लिए दो बार साबुन लगा कर नहाना होता था, जो हमेशा तकलीफदेह होता था। शायद ही कभी साबुन आँखों में न जाता हो। कल कई सालों के बाद सिर के बचे हुए 20 फीसदी बालों को शैम्पू किया। चांदी से बाल मुलायम हो गए। नहाने के लिए सिर को बचाते हुए इस्तेमाल किया। पर साबुन को भी हमारा बचपन याद आ गया और उस ने आँखों  से छेड़-छाड़ कर दी। बचपन का आरंभ हो चुका था। स्नान कर के बाहर निकला तब तक शोभा जी अपने शंकर जी की पूजा कर चुकी थीं। हम ने भी अपना श्रृंगार किया। शोभा जानती है कि हमारी भूख का स्नान से तगड़ा रिश्ता है। कहने लगी -आप को तो पार्टी में जाना है? पर वहाँ तो देर से भोजन होगा। अभी क्या बनाया जाए। पूर्व संध्या पर उस का भोजन बनाने का मन नहीं था। भूख भी कम ही थी। हम कहीं मिल कर लौटे थे तो घर में घुसने के बाद उस ने कहा था। रास्ते में याद नहीं रहा, वर्ना कचौड़ियाँ लेते आते। मैं ने कहा कचौड़ियाँ ले आता हूँ। उस ने सहमति मे सिर हिला दिया।
मैं
ने बेटे की बाइक निकाली। अभी मैं उस पर असहज होता हूँ। लेकिन एक किलोमीटर ही तो जाना था। कचौड़ियों की दुकान से कचौड़ियाँ लेते लेते बूंदाबांदी आरंभ हो गई। मैं रुका नहीं चलता रहा, भीगने का आनंद लेता हुआ। घर के नजदीक पहुँचा तो शोभा बाहर ही खड़ी थी। उस ने जल्दी से गेट खोल दिया। मैं ने भी भीगने से बचने के लिए बाइक को सीधे ही रैंप पर चढ़ा दिया। मुझे ख्याल नहीं रहा था कि बाइक चौथे गियर में है और रेंप की चढ़ाई नहीं चढ़ सकेगी। आधे रेंप पर चढ़ते ही बोल गई। हाथ क्लच पर चला गया। इंजन का पहिए से रहा सहा रिश्ता भी समाप्त होते ही वह दौड़ पड़ा। बाइक कटी पतंग की तरह पीछे लौटने लगी। ब्रेक लगाया तो फिसल पड़ी। तब तक एक पैर जमीन पर टिक चुका था। पर बाइक को पीछे लौटने से रोकना था। उस कोशिश में हेंडल घूम गया। बाएँ हाथ की कलाई और दायाँ कंधा दोनों मोच खा गए। एक बारगी लगा कि दायें बाजू की हड्डी कंधे में से निकल पड़ेगी। पर तब तक संभल चुका था। वह अपने स्थान पर जमी रह गई। इस में दोनों स्थानों की पेशियों ने अपनी महान भूमिका अदा की। लेकिन बेचारी घायल हो कर गान करने लगीं। बाइक को बंद हालत में ही धकिया कर घर में चढ़ाया गया। 
श्रीमती जी हमारी संगत में हम से भी पक्की होमियोपैथ हो गई हैं। उन्हों ने तुरंत आर्निका-200 की एक खुराक दे डाली। मैं निश्चिंत हो गया कि अब सूजन तो नहीं आएगी। वह आई भी नहीं। थैली में पाँच कचौड़ियाँ थीं। मुझे तो जीमने जाना ही था, दो ही खाईं, तीन शोभा को दीं। उस के खाने का किस्सा शाम तक का तमाम हो चुका था। बिजली एक के बजाए बारह बजे ही चालू हो गई। हमने तुरंत ताऊ पहेली का जवाब दिया। तभी वापस चली गई। हम समझ गए कि बिजली वाले अपनी कारगुजारियों की जाँच कर रहे हैं। एक बजे पड़ौसी जैन साहब ने आवाज लगा दी। चलना नहीं है क्या? एक पड़ौसी इकत्तीस को नौकरी से मुक्त हुए थे, उन की पार्टी में भीतरिया कुंड जाना था। हमने कार निकाली, चार और पडौसियों को ले कर भीतरिया कुंड पहुंच गए। तब तक वहाँ मेहमान कम थे। भोजन तैयार था। भीतरिया कुंड चम्बल के किनारे बना एक पुराना बगीचा है। जहाँ एक प्राचीन शिवमंदिर भी है मंदिर के सामने बारह मासी एक कुंड। पास ही चंबल, यहाँ से नदी पार का थर्मल पावर स्टेशन और बैराज एक साथ दिखाई देते हैं। मुझे दीपक मशाल की बात याद आई। मैं मंदिर की और चल दिया। मेजबान कहने लगे कहाँ चल दिए। मैं ने कहा शंकर जी से मिल आता हूँ। वरना शोभा से शिकायत करेंगे कि बहुत दिनों में बगीचे में आया और उन से मिला भी नहीं। अब सु्प्रीम कोर्ट की शिकायत से कौन न बचना चाहेगा? 
मंदिर के बाहर ही मालिनें बैठी थीं। अब इन का कारोबार मंदिरो पर ही रह गया है। शेष फ्लावर हाउस छीन ले गए। एक जमाने में ये मालिनें बहुत से कवियों के लिए प्रेरणा का स्रोत हुआ करती थीं। पर अब फैशन बदल गया है। एक मालिन ने आवाज लगाई -बाबूजी आज ग्यारस है। आँकड़े की माला ले जाओ, पाँच रुपये में। मैं ने एक ले ली और मंदिर में पहुँच गया। शंकर जी को किसी ने नहलाया ही था। पूरी तरह श्रृंगारविहीन थे। मैं ने आँकड़े की माला उन्हें पहना दी। फिर उन के परिजनों की सुध लेने लगा। सब दिखाई दिए। माँ गौरी थीं, गणेश थे, नंदी था, साँप और चंद्र भी थे। पर कार्तिकेय नहीं दिखाई दिए। बहुत तलाशा पर नहीं मिले। जब से वे दक्षिण जा कर सुब्रह्मण्यम हुए हैं, उत्तर वाले उन्हें विस्मृत करने लगे हैं। हरिहर अयप्पा को तो शायद जानते भी नहीं यदि उत्तर में आ कर बस गए मलयालियों ने उन के मंदिर न बनवा दिए होते। वापस लौटा तो कलाई और कांधे की जुगलबंदी आरंभ हो चुकी थी। शोभा ने एक गोली किसी दर्दनिवारक की दी। मैं फिर बिस्तरशरण हो गया। थोड़ी देर बाद ही शोभा ने जगा दिया। दूध लेने चलना है। वहाँ गये तो  महिलाएँ कतार से बैठी थीं, भैस का खालिस दूध लेने के लिए। बराबर बाँट में दूध बस एक किलो मिला। अगले दिन बछारस जो थी। उस दिन गाय का दूध और गेहूँ का उपयोग महिलाओं के लिए वर्जित है। यह संभवतः उन दिनों की स्मृति है जब खेती के लिए गौवत्स निहायत आवश्यक हो उठे थे और उन का वंश बनाए रखने के लिए यह अनुष्ठान आरंभ हुआ होगा। इस की कथा कोई महिला ही कहे तो अच्छा लगेगा। 
खैर! छप्पनवें साल के बचपने ने पहले दिन ही रंगत दिखा दी। इस लिए आज सिर्फ आराम किया गया। हाथों और उंगलियों को भी करने दिया। शोभा सो गई है इसलिए इन्हें तकलीफ देने की हिमाकत की है। डर भी लग रहा है कि उठ गई तो डाँटेगी नहीं तो ताना तो कस ही देगी।
चंबल पार थर्मल प्लांट और दाएं बैराज

उद्यान में मंदिर और चंबल की ओर उतरती सीढ़ियाँ


चतुर्मुखी शिव और बीच में लिंग
शंकर अर्धांगिनी पार्वती

नंदी


सीढ़ियों से दिखाई देती चंबल

गणेश

अनवरत ताजा जल से भरा कुंड

शनिवार, 4 सितंबर 2010

एक पड़ाव यह भी.......

ज उम्र का वही पड़ाव है जिस पर आ कर पिता जी सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त हो गए थे। सेवानिवृत्ति के अगले दिन से ही सेवानिवृत्ति की आयु तीन वर्ष बढ़ा दी गई थी। पर उन्हें कोई अफसोस नहीं था। वे प्रसन्न  थे कि उन्हें नौकरी से छुटकारा मिल गया है। जितनी उन्हें पेंशन मिली थी और जितना उन्हें ग्रेच्यूटी और भविष्यनिधि से मिली राशि के उपयोग से वे आय कर सकते थे वह उन के वेतन से कुछ ही कम थी। इस में भी नौकरी के स्थान पर किराए के मकान और आने जाने आदि में जो खर्च होता था वह बच गया था। कुल मिला कर उन की आय उतनी ही थी और नौकरी से पीछा छूटा था। वे बहुत प्रसन्न थे। उन पर तीन बेटों को योग्य बनाने और उन के विवाह की जिम्मेदारियाँ शेष थी। वे घर लौटे, लेकिन तब तक मैं घर छो़ड़ चुका था। कोटा आ कर वकालत करने लगा था। उन को घर पर मेरी अनुपस्थिति अवश्य अखरी थी। घर लौट कर उन्हों ने अपने स्वभाव के अनुसार चर्या आरंभ कर दी। सुबह उठना अंधेरे ही स्नानादि से निवृत्त हो मंदिर जा कर छोटे भाई की मदद करना। लौट कर आते कुछ पढ़ने लगते। फिर दस बजे मंदिर जा कर कथा पढ़ना। फिर भोजन और विश्राम। शाम को घूमने निकलना और अपने मित्रों के साथ उठना बैठना शाम घर लौट कर बच्चों की पढ़ाई का ख्याल करना। नगर में अधिकांश वयस्क उन के शिष्य थे। उन्हें पता लगा कि गुरुजी सेवा निवृत्त हो कर घर आ गए हैं तो अपनी बेटियों को ट्यूशन पढ़ाने का आग्रह करने लगे। जल्दी ही सुबह की कथा के पहले और बाद दो कक्षाएँ लड़कियों की लगने लगीं। घर में बेटियों की रौनक होने लगी। शाम के समय उन के पास लोग सलाह के लिए आने लगे। वे यह सब जीवन पर्यंत करते रहे। जिस रात उन्हों ने विदा ली उस से अगली सुबह पढ़ने आई बेटियों को वहीं आ कर पता लगा कि वे विदा ले चुके हैं। 
मेरे पास अपने पेशे से निवृत्ति का अवसर नहीं है। कहते हैं वकील की जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है वह युवा होता जाता है। पचपन का हो कर मैं अपने को बचपन में लौटा महसूस कर रहा हूँ। जिस के सामने पहाड़ जैसी दुनिया खड़ी होती है, ढेर सारी चुनौतियाँ होती हैं। वह उन से जूझने की तैयारी कर रहा होता है। मेरे लिए अभी अपनी सभी पारिवारिक जिम्मेदारियों से जूझना शेष है। लगता है अभी जीवन आरंभ ही हुआ है। ठान बैठा हूँ कि जितनी क्षमता होगी काम करता रहूंगा बिना प्रतिफल की आशा के जैसा अब तक किया है। इस विश्वास के साथ कि ऐसे में कभी बचपना हो जाए तो इस पचपन पार को मित्रगण अवश्य क्षमा कर देंगे।
मित्रों के संदेश आरंभ हो चुके हैं। पाबला जी, उन के सुपुत्र गुरुप्रीत फुनिया चुके हैं, हाशमी साहब का बधाई ई-पत्र मिला है, और बहुत दिनों बाद अनिता जी के मेल में सिर्फ बधाई! लगता है कुछ नाराज हैं वे। अब दीदी से मैं तो नाराज हो नहीं सकता, और संदेश आ रहे हैं। मैं बहुत खुश हूँ, वैसा ही जैसा पचास बरस पहले कैमरे वाले चाचा चम्पाराम जी के इस अवसर पर आ कर एक फोटो अपने कैमरे में कैद कर लेने पर खुश होता था। सभी मित्रों को जो बधाई दे चुके हैं, धन्यवाद और उन्हें भी जो देने वाले हैं, अग्रिम धन्यवाद!!!

रविवार, 1 अगस्त 2010

राजा-रानी छू-मंतर, किसान को बनाया नायक मुंशी प्रेमचंद ने

मैं तो कल मुंशी प्रेमचंद जी की जयन्ती नहीं मना पाया। बस उन का आलेख 'महाजनी सभ्यता तलाशता रहा। लेकिन उधर प्रेस क्लब में 'विकल्प जन सांस्कृतिक मंच' ने मुंशी जी का जन्मदिन बेहतरीन रीति से मनाया। इस अवसर पर नगर के सभी जाने माने साहित्यकार और कलाकार एकत्र हुए, जी हाँ वहाँ कुछ ब्लागर भी थे, बस मैं ही नहीं जा सका था। इस अवसर पर "आज की कहानी और प्रेमचंद" विषय पर एक परिचर्चा आयोजित की गई। 
प्रोफेसर राधेश्याम मेहर
रिचर्चा में समवेत विचार यह निकल कर आया कि आज के कथाकारों को केवल परिवेश की अक्कासी ही नहीं अपितु मुंशी प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों से प्रेरणा ले कर आम-आदमी के जीवन की सचाइयों आत्मसात करते हुए समाज को दिशा प्रदान करने वाली रचनाओं का सृजन करना चाहिए।
कवि ओम नागर
रिचर्चा को प्रारंभ करते हुए नगर के चर्चित कथाकार विजय जोशी ने कहा कि आज की कहानियों में भौतिक विकास तो दिखाई पड़ता है लेकिन आत्मिक विकास नदारद है। कवि ओम नागर ने कहा कि आज के गाँवों की स्थितियाँ प्रेमचंद के गाँव से अधिक त्रासद हैं, लेकिन कहानियों में वे प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त नहीं हो रही हैं। 
डॉ. अनिता वर्मा
वि, व्यंगकार और ब्लागर अतुल चतुर्वेदी ने आधुनिक समय की अनेक कहानियों के उदाहरण देते हुए बताया कि इन कहानियों में बाजारवाद तो है लेकिन मनुष्य की मुक्ति की राह दिखाई नहीं देती है। प्रेमचंद की कहानियों के पात्र आज भी गाँव-गाँव में जीवन्त हैं। लेकिन आधुनिक कहानियों में अनुभव की वह आँच नहीं दिखाई देती जो प्रेमचंद की कहानियों में थी।  डॉ. अनिता वर्मा ने कहा कि मनुष्य और समाज से प्रेमचंद को गहरा लगाव था, आज का कथाकार उस गहराई को छू भी नहीं पाता है। 
श्याम पोकरा
विशिष्ठ अतिथि श्याम पोकरा ने कहा कि प्रेमचंद ने जितनी भी कहानियाँ लिखीं वे सभी समाज के कड़वे यथार्थ से उपजी हैं। लेखकों को कृत्रिमता से बचते हुए सहजता के साथ समाज के उत्पीड़ितों की गाथा लिखनी चाहिए।
कथाकार विजय जोशी
 रिचर्चा की अध्यक्षता कर रहे कवि-रचनाकार अम्बिका दत्त ने कहा कि प्रेमचंद के पास समाज के प्रति गहरी निष्ठा, त्यागमय जीवन मूल्य, व प्रगतिशील दृष्टि थी। इसी कारण से वे आज तक बड़े लेखक बने हुए हैं। अध्यक्ष मंडल के ही सदस्य प्रोफेसर राधेश्याम मेहर ने अपने उद्बोधन में कहा कि प्रेमचंद ने कहानियों  के केन्द्रीय पात्रों  राजा-रानी को किसान और मजदूर से प्रतिस्थापित कर दिया। वे ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध स्वातंत्र्य चेतना जगाने वाले महत्वपूर्ण और प्रमुख साहित्यकार थे। समारोह के संचालक शिवराम ने इस में अपनी बात जोड़ी कि आज के साहित्यकारों को जन-स्वातंत्र्य की चेतना जगाने के लिए प्रेमचंद की ही तरह काम करने की आवश्यकता है। विकल्प जन सांस्कृतिक मंच के अध्यक्ष महेन्द्र नेह ने सभी का धन्यवाद ज्ञापित किया।
कवि-रचनाकार अम्बिका दत्त

शनिवार, 31 जुलाई 2010

नहीं मना सका मैं, मुंशी प्रेमचंद जी का जन्मदिन

ज मुंशी प्रेमचंद का जन्मदिन है। वे भारतीय साहित्य की अमूल्य निधि हैं। उन्होंने भारतीय जन जीवन, उस की पीड़ाओं को गहराई से जाना और अभिव्यक्त किया। उन की कृतियाँ हमें उन के काल के उत्तर भारतीय जीवन का दर्शन कराती हैं। 
न का बहुत सा साहित्य अन्तर्जाल पर उपलब्ध है। लेकिन उन का एक महत्वपूर्ण आलेख 'महाजनी सभ्यता' अभी तक अंतर्जाल पर उपलब्ध नहीं है। मैं ने सोचा था कि उन के इस जन्मदिन पर मैं इसे अंतर्जाल पर चढ़ा दूंगा। लेकिन जब कल तलाशने लगा तो वह आलेख जिस पुस्तक में उपलब्ध था नहीं मिली। मुझे उस पुस्तक के न मिलने का भी बहुत अफसोस हुआ, मैं ने उसे करीब पिछले तीस वर्षों से सहेजा हुआ था। 
मुझे कुछ तलाशते हुए परेशान होते देख पत्नी शोभा ने पूछा -क्या तलाश रहे हो? मैं ने बताया कि कुछ किताबें और पत्रिकाएँ नहीं मिल रही हैं। रद्दी में तो नहीं दे दीं? तब उस ने कहा कि कोई किताब और पत्रिका रद्दी में नहीं दी गई है। हाँ, दीपावली पर सफाई के वक्त कुछ किताबें ऊपर दुछत्ती में जरूर रखी हैं। मैं तुरंत ही दुछत्ती से उन्हें निकालना चाहता था। लेकिन वहाँ पहुँचने का एक मात्र साधन स्टूल टूट कर चढ़ने लायक नहीं रहा है। खैर महाजनी सभ्यता को इस जन्मदिन पर अंतर्जाल पर नहीं चढ़ा पाया हूँ। लेकिन जैसे ही वह पुस्तक मेरे पल्ले पड़ी इसे अविलंब चढ़ाने का काम करूंगा। प्रेमचंद जी के अगले जन्मदिन का इंतजार किए बिना।

बुधवार, 30 जून 2010

नागा बाबा मरा नहीं है ........ यादवचंद्र पाण्डेय की बाबा नागार्जुन को समर्पित एक कविता

ज बाबा नागार्जुन का 100 वाँ जन्‍मदिन है। आज से उन का जन्मशती वर्ष आरंभ हो गया है। बाबा के बारे में कुछ भी लिख कर सूरज को दिया नहीं दिखाना चाहता। उन के जीवन, कृतित्व को कौन नहीं जानता? यादवचंद्र पाण्डेय उम्र में उन से मात्र सोलह वर्ष छोटे रहे, लेकिन बाबा के साथ उन के जीवन का एक बड़ा हिस्सा गुजरा। बाबा के शतकीय जन्मदिन पर पाण्डेय जी की कविता 'नागा बाबा' पढ़िए, जिस में बाबा नागार्जुन साकार हो उठते हैं .....

'नागा बाबा'
  • यादवचंद्र पाण्डेय  

संसद और विधान सभा में
प्रगट, गुप्त, सुनसान सभा में
मगरमच्छ लिखता आँसू से 
नागार्जुन हिन्दी के राजा
ज्यों सिलाव का राजा-खाजा
या रसगुल्ला कोलकता का 
या लिलुआ का टनटन भाजा
या मिथिला का भोग चकाचक
चूड़ा - दही - जलेबी ताजा
            पर कोई मरदूद न आता
            लाठी खाने, जेल भोगने 
            ले - देकर बस - नागा बाबा 

तुम जूझे थे -हम पूजेंगे
हमें जूझने को मत कहना
भला हुआ जो खाट पकड़ ली 
बीती बात भुलाए रहना
अखबारों में हम छापेंगे
तेरा क्लोज-अप, तेरी महिमा
इंटरव्यू टीवी पर लेंगे
सब को दी है टॉफी, तुमको
च्यवनप्राश का डब्बा देंगे

कम्युनिस्ट थे या जो कुछ थे
निजी मामला है तुम जानो
किन्तु सेठिया प्रजातंत्र में
कविता को वर्गेतर मानो
तुझे मीडिया चमका देगा
हर महफिल में झमका देगा
पुरस्कार से घर भर देगा
कालिदास, भवभूति, व्यास से 
सौ मीटर आगे कर देगा

कलम न कुछ भी दे पाती है 
जो देते हैं हम हैं देते
तेरे सारे पात्र मर गए
भीख मांगते लेते लेते
मिल-खेतों में धक्के खाते
दफ्तर में धरने पर लेटे
अरे भजो जो हमको प्यारे
भकुआ भारत - श्री हो जाए
गोबर भी बन जाए गेटे

अस्पताल में जो जाते हैं
और नहीं वापस आते हैं
हम मिजाजपुर्सी में उनके
आते हैं अपनत्व जताने
रंथी पर सोना बरसाने
थीसिस लिखने फिल्म बनाने
खुद नागा बाबा बन जाने 
           पर कोई मरदूद न आता
           झंडा ढोने दरी बिछाने
           ले - देकर बस - नागा बाबा

वक्र कलम की पंडितजी पर 
ठेंगा तुझे दिखाया हमने
जेहल तुरत पिठाया हमने
'पेरल' पर तुम आए पटने 
जहाँ शहीदों के हैं सपने
कवि-सम्मेलन हुआ भयंकर
सारे कवि थे, तुम भी तो थे-
तुमको नहीं बुलाया हमने
और नहीं पढ़वाया हमने
              क्या प्रभात जी, गलत कही क्या? 
              रहे न तुम तो गलत-सही क्या !  

'इन्दू जी क्या हुआ आप को ...'
नाच - नाचकर तुमने गाया
'मीसा' में धर तुरत सिपाही
ने, छपरे का जेल दिखाया
तब भी तो तुम कवि थे प्यारे
सब कवियों में धाकड़ न्यारे
पर तेरे मित्रों ने छापा
इसे न कविता का 'क' आता
करे छेद जिस पत्तल खाता
              चुप क्यों हैं, कुछ कहें खगेन्दर
              मैं क्या कहूँ, बंद था अंदर --


शक्ति इन्दिरा जी की दिल्ली में
मैं ने देखी तुम ने देखी
वामवीर साहित्यकार की 
ठकुरसुहाती थी मुहँदेखी
बातें सब ने सुनीं, व्यंग्य से
ऐंठ गया चेहरा तुम्हारा
तुरत तुम्हारा नाम कट गया
मुफ्त रूस के टूर-लिस्ट से
(फिर न जाने कैसे सट गया)


कवि-कोविद सत्ता के जितने 
बेटे जो बनते भूषण के 
सब हैं अंडे खर-दूषण के
जिन के फूटे, फूटा करते 
जाति, धर्म, भाषा के दंगे
जो भी सत्ता में आता है
बन जाते ये उस के झंडे
भाड़े के ये भट्ट-पवँरिए
सारे कर्म-कुकर्म करंते


घोटालों की लगी आग में
चौके - चूल्हे सब के ठंडे
भ्राता रावण,  बहन लंकिनी
बारी - बारी देश लुटंते
जो टोके - खाँसे, 'मीसा' में
या 'पोटा' में बंद करंते
इन के लाग - डाँट मानव क्या,
देव - दनुज तक नहीं बुझंते
ये हैं सौ - सौ रूप धरंते
              रहे न बाबा, कौन बताए
              इन के तिकड़म, गोरखधंधे

कालनेमि - घर बजे बधावा
भले मरा यह बाबा - ताबा
बक्र कैंचिया हँसुआ जैसा
बेलगाम कवि - नागा बाबा
ध्वनि प्रचंड पवि - नागा बाबा
विद्रोही रवि - नागा बाबा
सारे तुक्कड़ - लुक्कड़ का जो
चला रहा था भारी ढाबा
भला हुआ जो गया अभागा

नागा बाबा मरा नहीं है
लामबंद, जीवन - संघर्षों -
को, करने से डरा नहीं है
हर जुलूस, हर मार्च - प्रदर्शन
में चलता, चुप खड़ा नहीं है
जहाँ - जहाँ है जनता लड़ती
वहाँ - वहाँ नागा बाबा का
लड़ने से मन भरा नहीं है
नागा बाबा मरा नहीं है।
यादवचंद्र पाण्डेय

शनिवार, 10 जनवरी 2009

अजित वडनेरकर का जन्म दिन और पुरुषोत्तम 'यकीन' की नए साल की बधाई




अजित वडनेरकर !!! 
मुबारक हो सालगिरह !!!

हिन्दी चिट्ठाजगत या ब्लागदुनिया में हमें रोज शब्दों का सफर कराने वाले, चिट्ठाकारों से ना, ना करते हुए भी बक़लम खुद लिखवा डालने वाले हर दिल अजीज़ चिट्ठाकार अजीत वडनेरकर आज अपना जन्म दिन मना रहे हैं। 

उन्हें ढेर सारी बधाइयाँ! 
जरा आप भी दीजिएगा!
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इस मौके पर किसी काव्य रचना की तलाश करते करते पुरुषोत्तम यकीन की गज़ल़ पर नज़र पड़ी। नए साल के आगमन पर रची गई इस ग़ज़ल का आनंद लीजिए .....

                    'ग़ज़ल'
 !!! मुबारक हो तुम को नया साल यारो !!!
पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’


मुबारक हो तुम को नया साल यारो
यहाँ तो बड़ा है बुरा हाल यारो

मुहब्बत पे बरसे मुसीबत के शोले
ज़मीने-जिगर पर है भूचाल यारो

अमीरी में खेले है हर बदमुआशी
है महनतकशी हर सू पामाल यारो

बुरे लोग सारे नज़र शाद आऐं
भले आदमी का है बदहाल यारो

बहुत साल गुज़रे यही कहते-कहते
मुबारक-मुबारक नया साल यारो

फ़रेबों का हड़कम्प है इस जहाँ में
‘यक़ीन’ इस लिए बस हैं पामाल यारो
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बुधवार, 19 नवंबर 2008

पहली वर्षगाँठ की पूर्व संध्या

आज पहली वर्षगांठ की पूर्व संध्या है। कल साल गिरह होगी अनवरत की। एक साल, महज एक साल कोई लंबा अर्सा नहीं होता लेकिन लगता है कि बहुत-बहुत दूर निकल आया हूँ। इतनी दूर कि वह छोर जहाँ से चला था, नजर नहीं आता, या किसी धुंध में छिप गया है। आगे आगे चलता हुआ नजर आता है तीसरा खंबा मेरा पहला प्रयास।

यह अनवरत ही था जिसने हिन्दी ब्लागरी के पाठकों के साथ मेरी अंतरंगता को स्थापित किया। 28 अक्टूबर 2007 को तीसरा खंबा का प्रारंभ हुआ था। मन में बात थी कि जिस न्याय-व्यवस्था में एक अधिवक्ता के रुप में 29 साल जिए हैं, उस की तकलीफों को एक स्वर दूं, जो लोगों को जा कर बताए कि जिसे वे बहुत आशा के साथ देखते हैं उस की खुद की तकलीफें क्या हैं? लेकिन एक पखवाड़ा भी न गुजरा था कि एक बात तकलीफ देने लगी कि कानून और न्याय व्यवस्था एक नीरस राग है और इस के माध्यम से शायद मैं अपने पाठकों के साथ तादात्म्य स्थापित नहीं कर सकूँ। इस के लिए मुझे खुद को खोल कर अपने पाठकों के बीच रखना पडे़गा। तभी वे शायद यह समझ पाएँ कि तीसरा खंबा लिखने वाला कोई काला कोट पहने वकील नहीं बल्कि एक उन जैसा ही साधारण मध्यवर्गीय व्यक्ति है जो उन की जिन्दगी को समझ सकता है, उन की तकलीफें एक जैसी हैं। यही कारण अनवरत के पैदा होने का उत्स बना।

20 नवम्बर 2007 को अनवरत जन्मा तो उस का स्वागत हुआ। वह धीरे धीरे पाठकों में घुल मिल गया। जब निक्कर पहनता था, जब मैं काफी कुछ पढ़ने भी गया था तभी कभी यह इच्छा जनमी थी कि मैं लिखूँ और लोग पढ़ें। फिर कुछ कहानियां लिखीं कुछ लघु कथाएँ। उन दिनों शौकिया संवाददाता भी रहा, और कानून पढ़ते हुए दैनिक का संपादन भी किया। लेकिन जैसे ही वकालत में आया। सब कुछ भूल जाना पड़ा। यह व्यवसाय ऐसा था जिस का सब के साथ ताल्लुक था, लेकिन समय नहीं था। रोज कानून पढ़ना, रोज दावे और दरख्वास्तें लिखना रोज बहस करना और नतीजे लाना। एक वक्त था जब साल में दिन 365 थे और निर्णीत मुकदमों की संख्या 400 या उस से अधिक। इस बीच बहुत लोगों को सुना, पढ़ा। लेकिन कोशिश करते हुए भी खुद को अभिव्यक्त करने का अवसर ही नहीं था, सिवाय उन दस महिनों के जब एक दैनिक के लिए साप्ताहिक कॉलम लिखा।

नाम के अनुरूप तीसरा खंबा को न्याय-प्रणाली के इर्द गिर्द ही रखा जाना था। उस से विचलित होना नाम और उस की घोषणा का मखौल हो जाता। अपने को अभिव्यक्त करने का अवसर दिया अनवरत ने। यहाँ जो चाहा वह सब लिखा। कुछ साथियों 'यकीन', 'महेन्द्र', 'शिवराम' और आदरणीय भादानी जी की एकाधिक रचनाओं को भी रखा। लोगों ने उसे सराहा भी, आलोचना भी हुई। पर  समालोचना कम हुई। लेखन की निष्पक्ष समालोचना का अभी ब्लागरी में अभाव है। लेकिन ऐसी समालोचना की जरूरत है जो लोगों के लेखन को आगे बढ़ा सके, उन्हें उन के अंतस में दबे पड़े उजास और कालिख को बाहर लाने में मदद करे। उन्हें हर आलेख के साथ एक सीढ़ी ऊपर उठने का अवसर दे।

संकेत रूप में कुन्नू सिंह का उल्लेख करना चाहूंगा। वे नैट के क्षेत्र में जो कुछ नया करते हैं, उसे पूरे उत्साह के साथ सब के सामने रखते हैं, बिलकुल निस्संकोच। उन का दोष यह है कि हिन्दी लिखने में उन से बहुत सी वर्तनी की अशुद्धियाँ होती हैं। हो सकता है लोगों को उन के इस वर्तनी दोष के कारण उन का लेखन कुरूप लगता हो। जैसा कि कुछ दिन पहले किसी ब्लागर साथी ने अपने आलेख में इसका उल्लेख भी किया। लेकिन रूप ही तो सब कुछ नहीं। किसी भी रूप में आत्मा कैसी है यह भी तो देखें। आज जब कुन्नू भाई ने तीसरा खंबा पर टिप्पणी की तो उस में हिज्जे की केवल दो त्रुटियाँ थीं। कुछ दिनों के पहले उन्होंने घोषणा की थी कि वे जल्दी ही हिन्दी लिखना भी सीख लेंगे। कुछ ही दिनों  में उन की यह प्रगति अच्छे अच्छे लिक्खाडों से बेहतर है। लोग चाहें तो मेरे इस कथन पर आज हंस सकते हैं, लेकिन मैं कह रहा हूँ कि वे इसी तरह प्रगति करते रहे और नियमित रूप से लिखते रहे तो वे चिट्ठाजगत की रैंकिंग में किसी दिन पहले स्थान पर हो सकते हैं।

शास्त्री जी ने खेमेबंदी का उल्लेख किया। जहाँ बहुत लोग होते हैं उन्हें एक खेमे में तो नहीं रखा जा सकता। हम जब स्काउटिंग के केम्पों में जाते थे तो वहाँ बहुत से तम्बू लगाने पड़ते थे। अलग अलग तम्बुओं में रह रहे लोगों के बीच प्रतिस्पर्धा तो होती थी, लेकिन प्रतिद्वंदिता नहीं। सब लोग एक दूसरे से सीखते हुए आगे बढ़ते थे। लक्ष्य होता था हर प्रकार के जीवन को बेहतर बनाना। वही हमारा भी लक्ष्य क्यों न हो? हो सकता है लोग अलग अलग राजनीतिक विचारधाराओं से प्रभावित हों। एक को अन्यों से बेहतर मानते हों। लेकिन राजनैतिक विचारों, दर्शनों और जीवन पद्धतियों का भी कुछ लक्ष्य तो होगा ही। यदि वह लक्ष्य मानव जीवन को ही नहीं सभी प्राणियों और वनस्पतियों के जीवन को बेहतर बनाना हो तो राजनैतिक विचारों, दर्शनों और जीवन पद्धतियों के ये भेद एक दिन समाप्त हो ही जाएँगे। अगर यह एक लक्ष्य सामने हो तो सारे रास्ते चाहे वे समानांतर ही क्यों न चल रहे हों एक दिन कहीं न कहीं मिल ही जाएँगे और गणित के नियमों को भी गलत सिद्ध कर देंगे।

बुधवार, 3 सितंबर 2008

गणपति का आगमन और रोठ पूजा


ज गणेश चतुर्थी है।  विनायक गणपति मंगलमूर्ति हो कर पधार चुके हैं।  पूरे ग्यारह दिनों तक गणपति की धूम रहेगी। गणपति के आने के साथ ही देश भर में त्योहारों का मौसम आरंभ हो गया है जिसे देवोत्थान एकादशी तक चलना है। उस के उपरांत गंगा से गोदावरी के मध्य रहने वाले और हिन्दू परंपरा का अनुसरण करने वाले लोगों को शादी-ब्याह और सभी वे मंगलकाज, जो चातुर्मास के कारण रुके पड़े थे को सम्पन्न करने की छूट मिल जाएगी।  प्रारंभ तो कल हरितालिका तीज से ही हो चुका है। वैसे भी गणपति के आने के पहले शिव और पार्वती का एक साथ होना जरूरी भी था। इसलिए यह पर्व एक दिन पहले ही हो लिया।  इस दिन मनवांछित वर की कामना के लिए कुमारियों ने निराहार निर्जल व्रत रखे और जिन परिवारों में किसी अशुभ के कारण श्रावण पूर्णिमा को रक्षाबंधन नहीं हुआ वहाँ रक्षाबंधन मनाया गया।

ये ग्यारह दिन पूरी तरह व्यस्त होंगे। हर नए दिन एक नया पर्व होगा। चार सितम्बर को ऋषिपंचमी होगी, पाँच को सूर्य षष्ठी, छह को दूबड़ी सप्तमी और गौरी का आव्हान, सात को गौरी पूजन, आठ को राधाष्टमी और गौरी विसर्जन, आठ को नवमी व्रत, नौ को दशावतार व्रत और राजस्थान में रामदेव जी और तेजाजी के मेले होंगे, दस को जल झूलनी एकादशी होगी, ग्यारह को वामन जयन्ती और प्रदोष व्रत होगा और तेरह को अनंत चतुर्दशी इस दिन गणपति बप्पा को विदा किया जाएगा। अगले दिन से ही पितृपक्ष प्रारंभ हो जाएगा जो पूरे सोलह दिन चलेगा। तदुपरांत नवरात्र जो दशहरे तक चलेंगे। फिर चार दिन बाद शरद पूर्णिमा, कार्तिक आरंभ होगा और  दीपावली आ दस्तक देगी। दीपावली की तैयारी, मनाने के बाद उस की थकान उतरते उतरते देव जाग्रत हो उठेंगे और फिर शुरू शादी ब्याह तथा दूसरे मंगल कार्य।

इस पूरी सूची से आप को अनुमान लग गया होगा कि भारतीय धार्मिक सांस्कृतिक पंचांग कितना व्यस्त है। यदि सभी पर्वों को मनाने लगें तो दो-दो तीन-तीन एक दिन में मनाने पड़ें और पूरे बरस में एक भी दिन खाली न छूटे। भारतीय संस्कृति ऐसी ही है। इस ने सभी को अपनाया और उन्हें भारतीय रूप देदिया। अब महाराष्ट्र गणपति उत्सव जोर-शोर से मनाता है तो गुजरात-बंगाल नवरात्र को अधिक महत्व देते हैं। इसी तरह पूरा भारत वर्ष अपने अपने त्योहारों को अधिक महत्व देता है। लेकिन दूसरे भागों के त्योहारों को भी सभी स्थानों पर पूरा मान प्राप्त होता है।

बात कहीं की कहीं चली गई है। मैं बात करना चाहता था इस पखवाड़े के महत्व की। हमारे यहाँ हाड़ौती-मालवा क्षेत्र में इस पखवाड़े में रोठ बनना शुरू हो जाते हैं। पिछले पखवाड़े की चतुर्दशी से प्रारंभ हो कर अनंत चतुर्दशी तक का कोई एक दिन हर परिवार के लिए निश्चित है, जिस दिन रोठ पूजा और कुलदेवता की पूजा होगी। यह पर्व जैन धर्मावलम्बी भी मनाते हैं। रोठ की यह परंपरा धर्म से कुछ अलग सोचने को विवश करती है। आखिर इस परंपरा का आरंभ कहाँ है? जिस से यह जैन धर्मावलम्बियों में भी समान रूप से प्रचलित है। निश्चित ही इस का मूल धर्म में नहीं है। इस का मूल खोजने, चलें  उस से पहले यह जान लिया जाए कि इस दिन होता क्या क्या है?

इस दिन के लिए पहले से ही अनाज (गेहूँ) के दानों को निश्चित मात्रा में साफ कर घर की हाथ चक्की को अच्छी तरह धोकर पीसा जाता है। इस से जो आटा प्राप्त होता है। वह महीन न हो कर कुछ मोटा और दानेदार होता है। आज कल नगरों में घर की चक्कियों ने परिवारों से विदा ले ली है। इस कारण रोठ का यह आटा चक्की पर भी पिसवा लिया जाता है।  जिस के लिए चक्की वाले पहले से घोषणा कर देते हैं कि फलाँ दिन रोठ का आटा पीसा जाएगा। उस दिन चक्की वाला उस की चक्की को साफ कर धो कर आटा पीसता है और केवल रोठ के लिए उपयुक्त मोटा आटा पीसता है। आजकल बिजली से चलने वाली छोटी चक्कियाँ भी आ गई हैं। जिन लोगों के घरों में वे चक्कियाँ हैं वे उन्हें साफ कर, धो कर यह आटा तैयार  कर लेते हैं और पड़ौसियों के लिए भी कुछ लोग यह सेवा मुफ्त कर देते हैं। मेरे यहाँ ऋषिपंचमी के दिन रोठ पूजा होती आई है। इस दिन रोठ बनते हैं, साथ बनती है चावलों की खीर और, और बस कुछ नहीं। रोठ की पूजा होती है, कुल देवता की पूजा होती है। फिर सब मिल कर खीर-रोठ खाते हैं। और हाँ इस दिन हम कोई चीज नहीं खरीदते। सब चीजें पहले ही घर में आ चुकी होती हैं। इस दिन किसी को एक पैसा भी नहीं देना है, पूर्वज ऐसा नियम क्यों बना गए, यह खोज का विषय है।  इस पूजा का संबंध मानव विकास की उस अवस्था से है जिस में कृषि का आरंभ हुआ था और जिस में स्त्रियों की मुख्य भूमिका थी। उत्पादन और पारिवारिक समृद्धि के इस पर्व को सहजते सहजते वह इस हाल में आ पहुँचा है। यदि इस पखवाड़े में आप के यहाँ भी किसी तरह की पारंपरिक पूजा होती हो तो उस में भी स्त्रियों द्वारा कृषि जैसे मनुष्य जीवन को बदल डालने वाले आविष्कार की महत्ता के चिन्ह देखने के प्रयास करें शायद आप को मिल जाएँ।

विवरण लम्बा हो रहा है। आज इतना ही बाकी बातें कल।  कि रोठ क्या है? कैसे बनता है? दूसरी बातों से इस का क्या संबंध है?  कल तक तो प्रतीक्षा करनी ही होगी। और एक राज की बात और कि कल चार सितम्बर है, मेरा जन्म दिन। कल मैं पूरे तिरेपन का हो रहा हूँ और चौपनवाँ वर्ष प्रारंभ हो जाएगा।