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रविवार, 7 अगस्त 2011

नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम

कविता

नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम


नाच ..!     नाच ...!     नाच ...! 
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम
 
तनिक रुक कर साँस तक नहीं लेते
उखड़ने लगी हैं साँसें, लड़खड़ाने लगे हैं पैर,
फिर भी 
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम


हतप्रभ, हताश लोग छोड़ने लगे हैं नाचघर
ब्लेक में खरीदी गई टिकटें बिखरने लगी हैं
नाचघर के बाहर
लोग चीख रहे हैं, रुको-रुको-रुको 
अब रुक भी जाओ, फिर भी रुक नहीं रहें हैं
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम

दिखाई नहीं दे रहे हैं उन्हें 
नाचघर छोड़ते हताश लोग
सुनाई नहीं दे रही हैं उन्हें 
लोगों की चीखें, चीत्कार 
अनिच्छा से थिरक रहे हैं अंग 
अनिच्छा से उठ रहे हैं पैर 
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम

 
नहीं रुकेंगे वे, रुक नहीं सकते वे
नाचते ही रहेंगे, नाचते ही रहेंगे 
देखो! देखो! देखो!
वे खुद नहीं नाच रहे हैं
हाथ, पैर, कमर और सिर 
पारदर्शी धागों से बंधे हैं 
धागे ही नचाए जा रहे हैं, और 
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम

कौन पकड़े है? इन धागों के सिरे
कौन है? जो नचाए जा रहा है
वही पवित्र (?) भूरी आँखों वाली बिल्ली 
निष्प्राण! वित्तीय पूंजी
उसी की पकड़ में है, सारे धागों के सिरे
वही नचाए जा रही है, और 
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम


है कोई! जो काट दे इन धागों को 
वरना, मर जाएंगे, अंकल सैम
कोई तो काटो, काट डालो इन धागों को
अरे! अन्न और कपास उपजाने वालों!
कारखानों में काम करने वालों!
पसीना बहा सब कुछ बनाने वालों 
अपने अपने औजार लाओ, और 
काट डालो इन धागों को
वरना, मर जाएंगे, अंकल सैम

नाच ..!     नाच ...!     नाच ...! 
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम


  • दिनेशराय द्विवेदी


रविवार, 10 जुलाई 2011

एक नया कविता ब्लाग "अमलतास"

'अमलतास' हिन्दी का एक नया कविता ब्लाग है। जिस में आप को हर सप्ताह मिलेंगी हिन्दी के ख्यात गीतकार कवि 'कुमार शिव' के गीत, कविताएँ और ग़ज़लें।
पिछली शताब्दी के आठवें दशक में हिन्दी के गीतकार-कवियों के बीच 'कुमार शिव' का नाम उभरा और तेजी से लोकप्रिय होता चला गया। एक लंबा, भारी बदन, गौरवर्ण नौजवान कविसम्मेलन के मंच पर उभरता और बिना किसी भूमिका के सस्वर अपना गीत पढ़ने लगता। गीत समाप्त होने पर वह जैसे ही वापस जाने लगता श्रोताओं के बीच से आवाज उठती 'एक और ... एक और'। अगले और उस से अगले गीत के बाद भी श्रोता यही आवाज लगाते। संचालक को आश्वासन देना पड़ता कि वे अगले दौर में जी भर कर सुनाएंगे।
ये 'कुमार शिव' थे। उन का जन्म 11 अक्टूबर 1946 को कोटा में हुआ।  राजस्थान के दक्षिण-पूर्व में चम्बल के किनारे बसे इस नगर में ही उन की शिक्षा हुई और वहीं उन्हों ने वकालत का आरंभ किया। उन्हों ने राजस्थान उच्च न्यायालय की जयपुर बैंच और सर्वोच्च न्यायालय में वकालत की। अप्रेल 1996 से अक्टूबर 2008 तक राजस्थान उच्चन्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्य करते हुए 50,000 से अधिक निर्णय किए, जिन में 10 हजार से अधिक निर्णय हिन्दी में हैं। वर्तमान में वे भारत के विधि आयोग के सदस्य हैं। साहित्य सृजन किशोरवय से ही उन के जीवन का एक हिस्सा रहा है। 
1995 से वे कवि कविसम्मेलनों के मंचों से गायब हुए तो आज तक वापस नहीं लौटे। तब वह उच्च न्यायालय में मुकदमों के निर्णय करने में व्यस्त थे। उन का लेखनकर्म लगातार जारी रहा। केवल कुछ पत्र पत्रिकाओं में उन के गीत कविताएँ प्रकाशित होती रहीं।  एक न्यायाधीश की समाज के सामने खुलने की सीमाएँ उन्हें बांधती रहीं। 'अमलतास' अब 'कुमार शिव' की रचनात्मकता को पाठकों के रूबरू ले कर आया है।
कुमार शिव का सब से लोकप्रिय गीत 'अमलतास' के नाम से प्रसिद्ध हुआ था। ब्लाग पर यह गीत पहली पोस्ट के रूप में उपलब्ध है। मिसफिट पर अर्चना चावजी के स्वर में इस गीत का पॉडकास्ट यहाँ उपलब्ध है।  ने इस गीताआप इस मीठे गीत को पढ़ेंगे, सुनेंगे और खुद गुनगुनाएंगे तो आप के लिए यह समझना कठिन नहीं होगा कि इस ब्लाग को 'अमलतास' नाम क्यों मिला।

शनिवार, 9 जुलाई 2011

दौड़

ज जिस क्षेत्र में भी जाएँ हमें दौड़ का सामना करना पड़ता है। घर से सड़क पर निकलते ही देख लें। यातायात में हर कोई आगे निकल लेना चाहता है, चाहे उसे नियम तोड़ने ही क्यों न पड़ें। यही बात हर क्षेत्र में है। शिक्षा क्षेत्र में छात्र दौड़ रहे हैं तो कैरियर के लिए हर कोई दौड़ रहा है।  दौडें तनाव पैदा करती हैं और दौड़ में ही जीवन समाप्त हो जाता है। आस पास देखने और जीने का अवसर ही प्राप्त नहीं होता। इसी दौड़ को अभिव्यक्त किया है 'शिवराम' ने अपनी इस कविता में ... 

'कविता'

दौड़

  • शिवराम
दौड़ से बाहर हो कर ही 
सोचा जा सकता है
दौड़ के अलावा भी और कुछ

जब तक दौड़ में हो
दौड़ ही ध्येय
दौड़ ही चिंता
दौड़ ही मृत्यु

होने को प्रेम भी है यहाँ कविता भी
और उन का सौंदर्य भी
मगर बोध कम भोग ज्यादा
दौड़ में दौड़ती रसिकता
सब दौड़ से दौड़ तक
सब कुछ दौड़मयी 
दौड़ मे दौड़ ही होते हैं 
दौड़ के पड़ाव

दौड़ में रहते हुए 
कुछ और नहीं सोचा जा सकता
दौड़ के अलावा
यहाँ तक कि 
दौड़ के बारे में भी






गुरुवार, 7 जुलाई 2011

किस की है यह दौलत?

'कविता'
किस की है यह दौलत?
  • दिनेशराय द्विवेदी

मंदिर के तहखानों में मिली है अकूत दौलत
इतनी कि देश के बड़े से बड़े सूबे का बजट भी पड़ गया छोटा
अभी बाकी हैं खोले जाने और भी तहखाने

सवाल उठे
किस की है यह दौलत?
कौन है इस का स्वामी?
क्या किया जाए इस का?

मैं ने पूछा ...
पहली बरसात के बाद खेत हाँक कर लौटे किसान से
वह ठठा कर हँसा हाहाहा .....
और बिजाई की तैयारी में जुट गया

मैं ने पूछा ...
हाथ-ठेला धकेलते मजदूर से
वह ठठा कर हँसा हाहाहा .....
और ठेले के आगे जाकर खींचता चला गया

मैं ने पूछा ...
नदी किनारे कपड़े धोती एक महिला से
वह ठठा कर हँसी हाहाहा .....
और तेजी से कपड़े कूटने लगी

मैं ने पूछा ...
कंप्यूटर पर काम करते सोफ्टवेयर इंजिनियर से
वह ठठा कर हँसा हाहाहा .....
और फिर से कंप्यूटर में डूब गया

मैं ने पूछा ...
सड़क किनारे दौड़ते सैनिक से
वह ठठा कर हँसा हाहाहा .....
और आगे दौड़ गया

शाम को सब मिले
एक साथ ढोलक और हारमोनियम बजाते
गाते हुए फ़ैज़ का एक पुराना गीत ...

हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे,
एक खेत नहीं,   एक देश नहीं,   हम सारी दुनिया मांगेंगे।
हम मेहनतकश जग वालों से जब.........
 
 










आप भी सुन ही लीजिए ...

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शनिवार, 2 जुलाई 2011

'हवा' ... महेन्द्र नेह की कविता

पिछले दिनों देश ने सरकार के विरुद्ध उठती आवाजों को सुना है। एक अन्ना हजारे चाहते हैं कि सरकार भ्रष्टाचार के विरुद्ध कारगर कार्यवाही के लिए उपयुक्त कानूनी व्यवस्था बनाए। वे जनलोकपाल कानून बनवाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। देश के युवाओं का उन्हें समर्थन मिला। कानून बनाने को संयुक्त कमेटी गठित हुई। लेकिन सरकार की मंशा रही कि कानून बने तो कमजोर। अब खबरें आ रही हैं कि कानून को इस तरह का बनाने की कोशिश है कि भ्रष्टाचार मिटे न मिटे पर उस के विरुद्ध आवाज उठाने वाले जरूर चुप हो जाएँ। दूसरी ओर बाबा रामदेव लगातार देश को जगाने में लगे रहे। उन्हों ने पूरे तामझाम के साथ अपना अभियान रामलीला मैदान से आरंभ किया जिस का परिणाम देश खुद देख चुका है। इस बीच पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतें बढ़ गई। उन्हों ने दूसरी सभी चीजों की कीमतें बढ़ा दीं। प्रमुख विपक्षी दल भाजपा ने इस तरह विरोध प्रदर्शन किया कि कोई कह न दे कि जनता पर इतना कहर बरपा और तुम बोले भी नहीं। देश की जनता परेशान है, वह बदलाव चाहती है लेकिन उसे उचित मार्ग दिखाई नहीं दे रहा। मार्ग है, लेकिन वह श्रमजीवी जनता के संगठन से ही संभव है। वह काम भी लगातार हो रहा है लेकिन उस की गति बहुत मंद है।

नता जब संगठित हो कर उठती है और जालिम पर टूटती है तो वह नजारा कुछ और ही होता है। जनता का यह उठान ही आशा की एक मात्र किरण है। कवि महेन्द्र 'नेह' उसे अपनी कविता में इस तरह प्रकट करते हैं ...

हवा
  • महेन्द्र 'नेह'


घाटियों से उठी
जंगलों से लड़ी
ऊँचे पर्वत से जा कर टकरा गई!
हवा मौसम को फिर से गरमा गई!!

दृष्टि पथ पर जमी, धुन्ध ही धुन्ध थी
सृष्टि की चेतना, कुन्द ही कुन्द थी
सागरों से उठी 
बादलों से लड़ी
नीले अम्बर से जा कर टकरा गई!

हर तरफ दासता के कुँए, खाइयाँ
हर तरफ क्रूरता से घिरी वादियाँ
बस्तियों से उठी
कण्टकों से लड़ी
काली सत्ता से जा कर टकरा गई?







    शुक्रवार, 17 जून 2011

    ख़ौफ तारी था उसका


    'कविता'

    ख़ौफ तारी था उसका 
    •  दिनेशराय द्विवेदी

    उस के नाम से डरा कर, माताएँ
    सुलाती थीं अपने बच्चों को

    उस के शहर का रुख़ करने की खबर से
    खड़े हो जाते थे रोंगटे
    शहरवासियों के

    उसे देखा जाता था
    सिर्फ चित्रों, और वीडियो में
    सुनी जा सकती थी उस की आवाज
    सिर्फ रिकॉर्ड की हुई।

    ख़ौफ तारी था उस का
    सारे जहाँ में
    जहाँ जहाँ बस्तियाँ थीं
    जहाँ जहाँ इन्सान थे

    कुछ भी कर सकता था वह
    कोई भी हो सकता था
    उस का निशाना, बस शर्त इतनी थी
    कि इन्सानों पर ख़ौफ तारी रहे

    तलाश जारी थी उस की
    सारी जहाँ में
    जंगलों में, वीरान पहाड़ियों में
    हर उस जगह, जहाँ छुप सकता था
    इन्सान की निगाहों से बचाकर खुद को

    बरसों की तलाश के बाद मिला
    इंसानों की एक बस्ती में
    एक बंद घर में सुरक्षा की दीवारों के बीच
    जवान बीबी के साथ

    डरता हुआ अपने ही बुढ़ापे से
    जवानी बरकरार रखने वाली
    दवाइयों की खेप के बीच
    अपनी ही तस्वीरें देखते हुए

    मिनटों में हो गया तमाम
    कहते हैं ... ठेला था जिन्होंने
    उसे इस रास्ते पर
    उन्होंने ही ठेल दिया उसे
    समंदर की गहराइयों में

    # #  # # #  # # #  # #




    बुधवार, 15 जून 2011

    शिवराम की कविता ... जब 'मैं' मरता है

    शिवराम केवल सखा न थे। वे मेरे जैसे बहुत से लोगों के पथ प्रदर्शक, दिग्दर्शक भी थे। जब भी कोई ऐसा लमहा आता है, जब मन उद्विग्न होता है, कहीं असमंजस होता है। तब मैं उन की रचनाएँ पढ़ता हूँ। मुझे वहाँ राह दिखाई देती है। असमंजस का अंधेरा छँट जाता है। आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। मैं ने उन की एक किताब उठाई और कविताएँ पढ़ने लगा। देखिए कैसे उन्हों ने अहम् के मरने को अभिव्यक्त किया है - 



    'कविता'
    जब 'मैं' मरता है*
    • शिवराम

    हमें मारेंगी
    हमारी अनियंत्रित महत्वाकांक्षाएँ

    पहले वे छीनेंगी
    हमसे हमारे सब
    फिर हम से 
    हमें ही छीन लेंगी

    बचेंगे सिर्फ मैं, मैं और मैं
    'मैं' चाहे कितना ही अनोखा हो
    कुल मिला कर होता है एक गुब्बारा
    जैसे-जैसे फूलता जाता है
    तनता जाता है
    एक अवस्था में पहुँच कर 
    फूट जाता है

    रबर की चिंदियों की तरह
    बिखर जाएंगे एक दिन
    जो न उगती हैं न विकसती हैं
    मिट्टी में मिल जाती हैं 
    धीरे-धीरे

    बच्चे रोते हैं
    जब फूटता है उन का गुब्बारा
    जब 'मैं' मरता है, कोई नहीं रोता
    हँसते हैं लोग, हँसता है जमाना


    *शिवराम के कविता संग्रह 'माटी मुळकेगी एक दिन' से

    बुधवार, 8 जून 2011

    सुर्ख उस ने गुलाब भेजा है

    कुमार शिव
    नवरत पर आप ने कुमार शिव की कुछ रचनाएँ पढ़ी हैं। उन के गीतों, ग़ज़लों और कविताओं में रूमानियत का रंग सदैव दिखाई देता है। सही बात तो यह है कि बिना रूमानियत के कोई नया काम संभव ही नहीं। यहाँ तक कि रूमानियत से भरी रचनाओं को अनेक अर्थों के साथ समझा जा सकता है। भक्ति काल का सारा काव्य रूमानियत से भरा पड़ा है। निर्गुणपंथी कबीर की रचनाओं में  हमेशा रूमानियत देखी जा सकती है। यह रूमानियत ही है जो उन्हें परिवर्तनकामी बनाती है। कुमार शिव की ऐसी ही एक ग़ज़ल यहाँ प्रस्तुत है ...


    सुर्ख उस ने गुलाब भेजा है

    •  कुमार शिव

    आँसुओं का हिसाब भेजा है
    उस ने ख़त का जवाब भेजा है

    जिस को मैं जागते हुए देखूँ

    उस ने कैसा ये ख़्वाब भेजा है

     
    तीरगी दिल की हो गई रोशन
    ख़त नहीं आफ़ताब भेजा है

    खुशबुओं के सफेद कागज पर

    हुस्न को बेनक़ाब भेजा है

    होठ चस्पा किए हैं हर्फों पर

    सुर्ख उस ने गुलाब भेजा है।












    गुरुवार, 2 जून 2011

    कुमार शिव की एक नज़्म ... 'बोलता है उदास सन्नाटा'

    'नज़्म'

    बोलता है उदास सन्नाटा
    •     कुमार शिव


    रूबरू है शमा के आईना
    बंद कमरे की खिड़कियाँ कर दो
    शाम से तेज चल रही है हवा

     ये जो पसरा हुआ है कमरे में
    कुछ गलतफहमियों का अजगर है
    ख्वाहिशें हैं अधूरी बरसों की
    हौसलों पर टिका मुकद्दर है

    रात की सुरमई उदासी में
    ठीक से देख मैं नहीं पाया
    गेसुओं से ढका हुआ चेहरा
    आओ इस काँपते अँधेरे में
    गर्म कहवा कपों में भर लें हम
    मास्क चेहरों के मेज पर रख दें
    चुप रहें और बात कर लें हम

    महकती हैं बड़ी बड़ी आँखें
    हिल रहे हैं कनेर होटो के
    बोलता है उदास सन्नाटा






    शनिवार, 28 मई 2011

    दर्द कई चेहरे के पीछे थे

    कोई चालीस वर्ष पहले एक कवि सम्मेलन में पढ़े गए  कुमार 'शिव' के एक गीत ने मुझे प्रभावित किया था। मैं उन से मिला तो मुझे पहली मुलाकात से ले कर आज तक उन का स्नेह मिलता रहा। मेरे कोई बड़ा भाई नहीं था। उन्हों ने मेरे जीवन में बड़े भाई का स्थान ले लिया। बाद में जब भी उन की कोई रचना पढ़ने-सुनने को मिली प्रत्येक ने मुझे प्रभावित किया। वे चंद उन लोगों में से हैं, जो हर काम को श्रेष्ठता के साथ करने का उद्देश्य लिए होते हैं, और अपने उद्देश्य में सफल हो कर दिखाते हैं। अनवरत पर 10 जून की पोस्ट में मैं ने उन की 33 वर्ष पुरानी एक ग़ज़ल "मुख जोशीला है ग़रीब का" से आप को रूबरू कराया था। उस ग़ज़ल को पढ़ने के बाद उन की स्वयं की प्रतिक्रिया थी  "33 वर्ष पुरानी रचना जिसे मैं भूल गया था,  सामने लाकर तुम ने पुराने दिन याद दिला दिए"

    न्हों ने मुझे एक ताजा ग़ज़ल के कुछ शैर मुझे भेजे हैं, बिना किसी भूमिका के आप के सामने प्रस्तुत हैं-

    'ग़ज़ल'

    दर्द कई चेहरे के पीछे थे
     कुमार 'शिव'


    शज़र हरे  कोहरे के पीछे थे
    दर्द कई  चेहरे के पीछे थे

    बाहर से दीवार हुई थी नम
    अश्क कई  कमरे के पीछे थे

    घुड़सवार दिन था आगे  और हम
    अनजाने खतरे के पीछे थे

    धूप, छाँव, बादल, बारिश, बिजली
    सतरंगे गजरे के पीछे थे

    नहीं मयस्सर था दीदार हमें
    चांद, आप पहरे के पीछे थे

    काश्तकार बेबस था, क्या करता
    जमींदार खसरे के पीछे थे




    गुरुवार, 12 मई 2011

    शिवराम की कविता 'नन्हें'

    ल कामरेड पाण्डे के सब से छोटे बेटे की शादी थी, आज रिसेप्शन। मैं बारात में जाना चाहता था। लेकिन कल महेन्द्र के मुकदमे में बहस करनी थी, मैं न जा सका। आज रिसेप्शन में भी बहुत देरी से, रात दस बजे पहुँचा। सभी साथी थे वहाँ। नहीं थे, तो शिवराम!  लेकिन उन का उल्लेख वहाँ जरूर था। सब कुछ था, लेकिन अधूरा था। शिवराम हमारे व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन के, संकल्पों के और मंजिल तक की यात्रा के अभिन्न हिस्सा थे। वहाँ से लौटा हूँ। उन की एक कविता याद आती है। मैं उन की किताबें टटोलता हूँ। उन के कविता संग्रह 'माटी मुळकेगी एक दिन' में वह कविता मिल जाती है। आप भी पढ़िए,  उसे ...

    नन्हें
    • शिवराम

    उस ने अंगोछे में बांध ली हैं 
    चार रोटियाँ, चटनी, लाल मिर्च की
    और हल्के गुलाबी छिलके वाला एक प्याज

    काँख में दबा पोटली 
    वह चल दिया है काम की तलाश में
    सांझ गए लौटेगा
    और सारी कमाई 
    बूढ़ी दादी की हथेली पर रख देगा
    कहेगा - कल भाजी बनाना

    इस से पहले सीने से लगाए उसे
    गला भर आएगा दादी का
    बेटे-बहू की शक्लें उतर आएंगी आँखों में
    आँखों से छलके आँसुओं में

    वह पोंछेगा दादी के आँसू
    मुस्कुराएगा

    रात को बहुत गहरी नींद आएगी उसे

    कल सुबह जागने के पहले 
    नन्हें सपने में देखेगा
    नेकर-कमीज पहने
    पीठ पर बस्ता लटकाए
    वह स्कूल जा रहा है 
    वह टाटा कर रहा है और
    दादी पास खड़ी निहार रही है

    कल सुबह जागने के ठीक पहले 
    नन्हें जाएगा स्कूल


    मंगलवार, 10 मई 2011

    मुख जोशीला है ग़रीब का

    स कवि सम्मेलन में आए अधिकतर कवि लोकभाषा हाडौ़ती के थे। एक गौरवर्ण वर्ण लंबा और भरी हुई देह वाला कवि उन में अलग ही नजर आता था। संचालक ने उसे खड़ा करने के पहले परिचय दिया तो पता लगा वह एक वकील भी है। फिर जब उस ने तरन्नुम के साथ कुछ हिन्दी गीत सुनाए तो मैं उन का मुरीद हो गया। कोई छह सात वर्ष बाद जब मैं खुद वकील हुआ तो पता लगा वे वाकई कामयाब वकील हैं। कई वर्षों तक साथ वकालत की। फिर वे राजस्थान उच्च न्यायालय में न्यायाधीश हो गए। वहाँ से सेवा निवृत्त होने के बाद सुप्रीमकोर्ट में वकालत शुरू की तो सरकार ने उन्हें विधि आयोग का सदस्य बना दिया। वे राजस्थान उच्च न्यायालय के निवर्तमान न्यायाधीश न्याय़ाधिपति शिव कुमार शर्मा हैं। उच्च न्यायालय के अपने कार्यकाल में उन्हों ने दस हजार से ऊपर निर्णय हिन्दी में लिखाए हैं। साहित्य जगत में लोग इन्हें कुमार शिव के नाम से जानते हैं। आज अभिभाषक परिषद कोटा में एक संगोष्ठी उन के सानिध्य में हुई। जिस में भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए के दुरुपयोग और उसे रोके जाने और प्रभावी बनाए जाने के लिए सुझाव आमंत्रित किए गए थे। 

    मुझे उन की 1978 में प्रकाशित एक संग्रह से कुछ  ग़ज़लें मिली हैं, उन्हीं में से एक यहाँ प्रस्तुत है-

    कुमार शिव की एक 'ग़ज़ल'

    सूरज पीला है ग़रीब का
    आटा गीला है ग़रीब का

    बन्दीघर में फँसी चान्दनी
    तम का टीला है ग़रीब का

    गोदामों में सड़ते गेहूँ
    रिक्त पतीला है ग़रीब का

    सुर्ख-सुर्ख चर्चे धनिकों के 
    दुखड़ा नीला है ग़रीब का 

    स्वर्णिम चेहरे झुके हुए हैं
    मुख जोशीला है ग़रीब का  



    सोमवार, 11 अप्रैल 2011

    इस के हिस्से में आख़िर ये रोशनी क्यूँ है

    हमद सिराज फ़ारूक़ी एम.ए. (उर्दू) हैं, लेकिन यहाँ कोटा में अपना निजि व्यवसाय करते हैं। जिन्दगी की जद्दोजहद के दौरान अपने अनुभवों और विचारों को ग़ज़लों के माध्यम से उकेरते भी हैं। 'विकल्प' जनसांस्कृतिक  मंच कोटा द्वारा प्रकाशित बीस रचनाओं की एक छोटी सी पुस्तिका उन का पहला और एक मात्र प्रकाशन है। अपने और अपने जैसे लोगों के सच को वे किस खूबी से कहते हैं, यह इस ग़ज़ल में देखा जा सकता है .......

    'ग़ज़ल'

    इस के हिस्से में आख़िर ये रोशनी क्यूँ है

    • हमद सिराज फ़ारूक़ी

    बढ़ी है मुल्क में दौलत तो मुफ़लिसी क्यूँ है
    हमारे घर में हर इक चीज़ की कमी क्यूँ है

    मिला कहीं जो समंदर तो उस से पूछूंगा
    मेरे नसीब में आख़िर ये तिश्नगी क्यूँ है

    इसीलिए तो है ख़ाइफ ये चांद जुगनू से 
    कि इस के हिस्से में आख़िर ये रोशनी क्यूँ है

    ये एक रात में क्या हो गया है बस्ती को
    कोई बताए यहाँ इतनी ख़ामुशी क्यूँ है

    किसी को इतनी भी फ़ुरसत नहीं कि देख तो ले
    ये लाश किस की है कल से यहीँ पड़ी क्यूँ है

    जला के खुद को जो देता है रोशनी सब को
    उसी चराग़ की क़िस्मत तीरगी क्यूँ है

    हरेक राह यही पूछती है हम से 'सिराज' 
    सफ़र की धूल मुक़द्दर में आज भी क्यूँ है



    ............................................................................................................

    रविवार, 10 अप्रैल 2011

    दुर्ग इनका तोड़ना पड़ेगा दोस्तों

    अखिलेश 'अंजुम'
      खिलेश जी वरिष्ठ कवि हैं। मैं उन्हें 1980 से जानता हूँ। काव्य गोष्ठियों और मुशायरों में जब वे अपने मधुर स्वर से तरन्नुम में अपनी ग़ज़लें प्रस्तुत करते हैं तो हर शैर पर वाह! निकले बिना नहीं रहती। मैं उन का कोई शैर कोई कविता ऐसी नहीं जानता जिस पर मेरे दिल से वाह! न निकली हो। उन्हों नें ग़जलों के अतिरिक्त गीत और कविताएँ भी लिखी जिन्हों ने धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नवभारत टाइम्स, दैनिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, नवनीत जैसी देश की महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाया। वे सदैव साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े रहे। वे आज भी विकल्प जनसांस्कृतिक मंच के सक्रिय पदाधिकारी हैं। आठ अप्रेल 2011 की शाम इंडिया अगेन्स्ट करप्शन आंदोलन के संबंध में नगर की गैरराजनैतिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों की बैठक में अखिलेश जी मिले। उन्हों ने अपने एक गीत का उल्लेख किया। मैं यहाँ वही गीत आप के लिए प्रस्तुत कर  रहा हूँ। 

      दुर्ग इनका तोड़ना पड़ेगा दोस्तों

      • अखिलेश 'अंजुम'


      आम आदमी का क़त्ल खेल हो न जाए
      लोकतंत्र देश में मखौल हो न जाए
      और देश फिर कहीं ये जेल हो न जाए
      न्यायपालिका कहीं रखैल हो न जाए

      आप को ही सोचना पड़ेगा दोस्तों
      ये प्रवाह रोकना पड़ेगा दोस्तों।

      बढ़ रहा है छल-कपट-गुनाह का चलन
      और बदल रहा है ज़िन्दगी का व्याकरण
      प्रहरियों का हो गया है भ्रष्ट आचरण 
      भ्रष्टता को राजनीति कर रही नमन

      क़ायदे-नियम यहाँ पे अस्त-व्यस्त हैं
      मंत्रियों में कातिलों के सरपरस्त हैं
      देश इनकी दोस्तों जागीर हो न जाए
      और ये हमारी तक़दीर हो न जाए

      आप को ही सोचना पड़ेगा दोस्तों
      दुर्ग इनका तोड़ना पड़ेगा दोस्तों।

      धर्म जिसने जोड़ना सिखाया था हमें
      रास्ता उजालों का दिखाया था हमें
      आज वो ही धर्म है सबब तनाव का
      जिसने कर दिया है लाल रंग चुनाव का

      आदमी की जान है तो ये जहान है
      धर्म है, चुनाव और संविधान है
      मज़हबों के नाम  पर न तोड़िए हमें
      राह पर गुनाह की न मोड़िए हमें

      तोड़ने की साज़िशों का काम हो न जाए
      धर्म, राजनीति का गुलाम हो न जाए

      आप को ही सोचना पड़ेगा दोस्तों
      कुछ निदान खोजना पड़ेगा दोस्तों।

      चाह आज जीने की बबूल हो गई 
      हर खुशी हमारी आज शूल हो गई
      बोझ से दबी हुई हर एक साँस है
      आज आम आदमी बड़ा उदास है

      जानकर कि दुश्मनों के साथ कौन हैं
      जानकर कि साजिशों के साथ कौन हैं
      अब सितम का हर रिवाज़ तोड़ने उठो
      अब सितम की गर्दनें मरोड़ने उठो 

      चेतना का कारवाँ ये थम कहीं न जाए
      धमनियों का ख़ून जम कहीं न जाए

      आप को ही सोचना पड़ेगा दोस्तों 
      आँसुओं को पोंछना पड़ेगा दोस्तों।