@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: दौड़
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शनिवार, 9 जुलाई 2011

दौड़

ज जिस क्षेत्र में भी जाएँ हमें दौड़ का सामना करना पड़ता है। घर से सड़क पर निकलते ही देख लें। यातायात में हर कोई आगे निकल लेना चाहता है, चाहे उसे नियम तोड़ने ही क्यों न पड़ें। यही बात हर क्षेत्र में है। शिक्षा क्षेत्र में छात्र दौड़ रहे हैं तो कैरियर के लिए हर कोई दौड़ रहा है।  दौडें तनाव पैदा करती हैं और दौड़ में ही जीवन समाप्त हो जाता है। आस पास देखने और जीने का अवसर ही प्राप्त नहीं होता। इसी दौड़ को अभिव्यक्त किया है 'शिवराम' ने अपनी इस कविता में ... 

'कविता'

दौड़

  • शिवराम
दौड़ से बाहर हो कर ही 
सोचा जा सकता है
दौड़ के अलावा भी और कुछ

जब तक दौड़ में हो
दौड़ ही ध्येय
दौड़ ही चिंता
दौड़ ही मृत्यु

होने को प्रेम भी है यहाँ कविता भी
और उन का सौंदर्य भी
मगर बोध कम भोग ज्यादा
दौड़ में दौड़ती रसिकता
सब दौड़ से दौड़ तक
सब कुछ दौड़मयी 
दौड़ मे दौड़ ही होते हैं 
दौड़ के पड़ाव

दौड़ में रहते हुए 
कुछ और नहीं सोचा जा सकता
दौड़ के अलावा
यहाँ तक कि 
दौड़ के बारे में भी