@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: यात्रारंभ : बिन्दु और वृत्त

गुरुवार, 10 मार्च 2011

यात्रारंभ : बिन्दु और वृत्त

पिछले अंक रूप बदलती आकृतियाँ  से आगे  .....
कृतियों के बनने का आरंभ हमेशा की तरह इस बार भी एक बिंदु से हुआ था, पहले की तरह उस में से कोई रेखा बाहर की ओर नहीं निकली थी। इस बार वह बिंदु ही एक गुब्बारे की तरह फूलने लगा था। वह एक वृत्त में तब्दील हो गया था। वृत्त के भीतर खाली स्थान था, जो शनै-शनै वृत्त की परिधि के साथ-साथ बढ़ता जाता था। अचानक वह प्रस्थान बिंदु उसे अत्यन्त महत्वपूर्ण लगने लगा था। वह सोचने लगा कि जीवन में हर चीज एक बिंदु से ही तो आरंभ होती है। उस ने जब पहली बार ईंट के टुकड़े से लिखने का प्रयास किया था तब भी सब से पहले बिंदु ही तो बना था और उसी से वह आड़ी-तिरछी रेखा फूट पड़ी थी जिस से उस ने बाद में अक्षर बनाए थे, अक्षरों से शब्द और शब्दों से वाक्य। अब तो वह उस बिंदु से आरंभ कर के कुछ भी सिरज सकता था, कोई संदेश, मन की बात या फिर कोई ऐसी चीज जो किसी के दिल में तीर सी जा कर लगे। वह उसी से फूलों का रूप और गंध पैदा कर सकता था और किसी चिट्ठी के माध्यम से अपने किसी प्रिय तक पहुँचा सकता था। वह बिंदु से ऐसी चीज भी पैदा कर सकता था, जिस से लोग चिढ़ने लगते। वह उसी बिंदु से रेखाएँ उपजा कर किसी और के सिरजे को ढक भी सकता था। वह बिन्दु से पहिया भी बना सकता था जिस पर दुनिया घूमी जा सकती थी। वह पत्थर का ढेला भी सिरज सकता था, जो पहिए की ओट बन कर उसे रोक ले, गिरा दे। ओट में उस की कोई रुचि नहीं थी। उस से पहिए की गति रुक जाती है। गतिशील दुनिया थम जाती है। एक थमी हुई दुनिया भी कोई दुनिया है। गति उसे पसंद थी। उसे लगा कि गति ही जीवन है। गति समाप्त हो जाए तो सब कुछ रुक जाएगा। गति ही तो समय है, वह समाप्त हो गई तो समय का क्या होगा? क्या वह भी समाप्त हो जाएगा? समय समाप्त हुआ तो क्या शेष  रहेगा? सिर्फ ढेला, या  फिर सिर्फ बिंदु?
सोच में व्यक्ति अंतर्मुखी होने लगता है, वह सिर्फ अपने अनुभवों से रूबरू होता रहता है। नवीन का संज्ञान, उस के बस का नहीं रहता। ऐसा लगता है, जैसे वह किसी महासागर के तल में पहुँच गया है, जहाँ एक नई दुनिया है। जब कि वाकई वह नई नहीं होती। वह केवल उस के पूर्व अनुभवों के मेल से निर्मित कोई चीज होती है, जिसे वह नया समझ बैठता है। सोच ने उस का ध्यान बंटा दिया था। उस की यात्रा बिन्दु से आरंभ हो कर वृत्त पर आ कर रुक गई थी। उसे बिंदु याद आ रहा था। वही सब से ताजा प्रस्थान बिंदु। उस ने अपने सोच की यात्रा को ढेला लगा दिया। परिधि की ओर से ध्यान हटा, उस ने वृत्त के केंद्र पर देखा, वहाँ एक और बिंदु विराजमान था। वह समझ नहीं पा रहा था कि यह वही प्रस्थान बिंदु था या कोई और। तभी परिधि ने अपनी गोलाई को त्याग दिया। वह हिल-डुल रही थी। उसे देख उसे अमीबा याद आया। जिसे पहले पहल उस ने बायो-लैब में बनाई एक स्लाइड को माइक्रोस्कोप पर लगा कर देखा था। वह भी ऐसे ही हिलता-डुलता था, हर समय अपनी आकृति बदलता रहता था। उसे ड्रॉ करना सब से मुश्किल काम था। ऐसी आकृति को कैसे उकेरा जा सकता था जो कभी स्थिर होती ही न हो? फिर जब उस ने उसे ड्रॉ करने की कोशिश की तो उसे वह बहुत आसान लगा था। एक बिंदु से आरंभ करो और कैसे भी आड़े-तिरछे पेंसिल घुमाते हुए वापस बिंदु पर ले जा कर छोड़ दो। बस तैयार हो गई अमीबा की बाह्याकृति। 
ब तक वृत्त के भीतर वाला बिंदु भी विस्तार पा चुका था। पर इस बार उस के भीतर खाली स्थान न था, कुछ भरा था।  उस ने देखा, यह तो वैसी ही आकृति है जैसी उस ने पहली बार अमीबा को ड्रॉ कर के बनाई थी। उसे अपनी बायो-साइंस की पढ़ाई स्मरण आने लगी। अमीबा तो सब से सरल जीव था, एक कोषीय। शायद यही गतिमय जीवन का प्रस्थान बिंदु भी था। क्या अजीब बात थी? एक बिंदु, उस से वृत्त। वृत्त में  फिर एक बिंदु, विस्तार पाता हुआ। उस से बना एक अमीबा, जो फिर एक प्रस्थान बिंदु है। इस के आगे? उसे पढ़ी हुई बायो-साइंस याद आने लगी। बहुकोषिय सरल जंतु, पाइप जैसे। आगे, कुछ बड़े और जटिल भी। कुछ पानी में रहने वाले, कुछ गीली जमीन में और कुछ सूखी जमीन पर रहने वाले, कुछ हवा में उड़ने वाले जन्तु। रीढ़ वाले और बिना रीढ़ वाले जंतु। विविध जंतुओं की विशाल श्रंखला। इतनी विशाल कि मनुष्य उन्हें सूचीबद्ध करने लगे तो सूची हमेशा अनन्तिम ही बनी रहे। विशाल, विस्तृत, विविध दुनिया। ज्ञात और अज्ञात, अनन्त विश्व। फिर एक सवाल उस के जेहन में उमड़ पड़ा, कहाँ से आया यह सब? क्या एक बिन्दु मात्र से?
स विचार से उसे हँसी आने लगी। क्या मजाक है? एक बिन्दु से यह सब कुछ कैसे उपज सकता है? पर उस का अनुभव और तर्क तो यही इशारा करते हैं, कि यह सब, सब का सब, एक बिन्दु से ही उपजा है। अब उसे आश्चर्य हो रहा था। एक बिन्दु से सब का सब उपज गया। उसे कुछ-कुछ विश्वास होने लगा कि ऐसा हो सकता है। बल्कि ऐसा ही हुआ होगा। निश्चित रूप से ऐसा ही हुआ है। बिन्दु में गति, गति से समय, बिन्दु से आकृतियाँ, बिन्दु से वृत्त, बिन्दु से ही स्थान, बिन्दु से दुनिया, बिन्दु से विश्व, अखिल विश्व। तभी अचानक अमीबा सिमटने लगा। शनै-शनै सब कुछ सिमट गया। रह गया एक बिंदु। फिर वह भी गायब हो गया। अब कुछ नहीं था। उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था।  उसे अपने काम का अहसास हुआ। कितना बड़ा काम मिला है उसे। उस ने उसे समय सीमा में सफलता पूर्वक कर दिया तो वह एक नए प्रस्थान बिंदु पर खड़ा होगा। वह किस सोच में पड़ा है? उसे काम तुरंत आरंभ करना चाहिए। समय बहुत कीमती है, कम से कम इस नए प्रस्थान बिंदु पर जिस की मंजिल पर पहुँच कर वह एक नई दुनिया में होगा, एक नए प्रस्थान बिंदु पर, एक नई यात्रा आरंभ करने को तैयार। उसे मार्ग मिल गया था। एक बिंदु से सारी दुनिया, अखिल विश्व सिरजा जा सकता है तो वह इस काम को तयशुदा समय में नहीं कर सकता? अवश्य कर सकता है। वह करेगा, और तयशुदा समय से कम समय में कर सकता है। वह उठा, और काम में जुट गया । उस की यात्रा आरंभ हो चुकी थी।
...... क्रमश: जारी

14 टिप्‍पणियां:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

इसे बार बार पढ़ूंगा.. बहुत ही शानदार है.. मेस्मेराइज कर रही है ये पोस्ट...

Udan Tashtari ने कहा…

आकृतियाँ उलझा सी ले रही हैं....चलिए, काम निपटा कर फिर पढ़ेंगे एक बार...

Rahul Singh ने कहा…

दार्शनिक विचार का सरल और तार्किक प्रवर्तन.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बिन्दु और वृत्त पर दुनिया का पहिया चल रहा है। सुन्दर दार्शनिक विवेचना।

निर्मला कपिला ने कहा…

लगता है अध्यातम की यात्रा शुरू होने जा रही है। रोचक यात्रा है
आदमी की जिग्यासा को बनाये रखे वही तो सफल कहानी है। बधाई।

सञ्जय झा ने कहा…

akritiyon me uljhe hue......asha karta hoon aap ke kramik post se.....
kramash: sulajhta jaoonga ...........

pranam.

Arvind Mishra ने कहा…

ये तो बड़ा दार्शनिक झाम हो चला है -आम पाठकों के लिए नहीं है शायद !

अन्तर सोहिल ने कहा…

पिछली किस्त भी पढी थी
पूर्णत: समझ ना पाने के बावजूद रोचकता बढती जा रही है।

प्रणाम

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

ऐसा लगता है कोई गुत्थी है जिसका सिरा हाथ में नहीं आ रहा है - आगे की प्रतीक्षा !

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

दार्शनिक भाव डुबोते ही चले जाते हैं और डूबने के बाद ही उनका आनंद है, बहुत शुभकामनाएं.

रामारम

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

कहानी और दिशा आकार ले रही है...

शरद कोकास ने कहा…

हमे तो ऐसा लग रहा है कि ऐतिहासिक और द्वन्द्वत्मक भौतिकवाद एक साथ पढ़ रहे हैं ।

कुमार राधारमण ने कहा…

आचार्य रजनीश का आखिरी नाम ओशो था। यह एक जापानी शब्द है जिसका अर्थ है-समुद्र की एक बूंद। बड़े-बड़ों ने समझी है बूंद की क़ीमत!

ZEAL ने कहा…

पंचभौतिक शरीर का नष्ट होकर सूक्ष्म में मिल जाना भी इन तथ्यों का प्रमाणित करता है । एक कोशिकीय जीव अमीबा से शुरू होकर बुकोशिकीय जीव तक का विनाश , और फिन पुनः उसी आग के गोले से सृष्टी का विकास होना। जिस बिंदु से शुरू हुआ है ,उसी बिंदु पर पुनरागम तय है । यही सृष्टि का नियम है ।