अनवरत के पिछले अंकों में आप यादवचंद्र जी के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के पाँच सर्ग पढ़ चुके हैं। अब तक प्रकाशित सब कड़ियों को यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग परिवर्तन के साथ ही यादवचंद्र जी के काव्य का रूप भी परिवर्तित होता जाता है। इसे आप इस नए सर्ग को पढ़ते हुए स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का छठा सर्ग "पितृभाग" प्रस्तुत है .........
पुरुषार्थ पुरुष का जाग ! जाग !
ओ अम्बर के विस्तार ! बरस
द्रुत, नील नदी के कूल परस
धू - धू जल रहे सहारा की
छाती को कर दे शान्तॉ, सरस
नीरस बालू की रेती में
निर्माण, शुभोदय - राग जाग !
पुरुषार्थ -पुरुष का भाग जाग !
दजला का बन्धु फरात उठे
यूनानी झंझावात उठे
सागर मन्थन का रत्न अमल
नव कीट विहँस जलजात उठे
विष पी कर जो अमृत बाँटे
सुकरात-धरा का त्याग जाग !
आलोक-पुरुष का भाग जाग !
ईरान काफिला बढ़ने दे
दुर्जेय हिन्दुकुश चढ़ने दे
खैबर - बोलन की घाटी है
पूरब का सूरज पढ़ने दे
मह - मह जीवन सरसिज गमके
बढ़ चलने का अनुराग जाग !
मिस्री घाटी की रात मधुर
तराओं की बारात मधुर
अम्बर में दहता चाँद सुघड़
हर प्रात, रात की बात मधुर
सपने की बात सताती है
क्यों आज रुलाई आती है
जो हाथ पिरामिड गढ़ते हैं
उन की फटती छाती है
यूनान हाय, संग छूट गया
मीतों की बैठक खाली है
वह चिन्तन का अन्दाज यहाँ
वैसे अब कहाँ सवाली हैं ?
दजला मेरा ! मेरा ईराँ !
नरगिस - सी आँखें याद न आ
छैनी अपना फन भूल गई
तो भूल मुझे अब तू भी जा
फारस की बुलबुल वो - चहकी
आँखों में शीरीं बाग जाग !
तराओं की बारात मधुर
अम्बर में दहता चाँद सुघड़
हर प्रात, रात की बात मधुर
सपने की बात सताती है
क्यों आज रुलाई आती है
जो हाथ पिरामिड गढ़ते हैं
उन की फटती छाती है
यूनान हाय, संग छूट गया
मीतों की बैठक खाली है
वह चिन्तन का अन्दाज यहाँ
वैसे अब कहाँ सवाली हैं ?
दजला मेरा ! मेरा ईराँ !
नरगिस - सी आँखें याद न आ
छैनी अपना फन भूल गई
तो भूल मुझे अब तू भी जा
फारस की बुलबुल वो - चहकी
आँखों में शीरीं बाग जाग !
व्यामोह पुरुष का भाग जाग !
झुरमुट - उपवन
प्यारे - प्यारे
आ सुस्ता ले
दर्द भुला ले
दाड़िम की मीठी छइयाँ है
पर्वत की मीठी ठइया है
झेलम का झलमल पानी है
पानी में चंचल नइया है
जीवन में धार बहाव बहुत
इस पर्वत पर ढुलकाव बहुत
है मेह बहुत, दुलराव बहुत
हाँ, सच यह भी ठहराव बहुत
बेजोड़ सिन्धु की घाटी है
केशर चर्चित यह माटी है
प्राणों को क्षण में जो बांधे
ऐसी इस की - परिपाटी है
आ प्रिये जुड़ा लें प्राण तनिक
अंगूर - बेलि में कुंज तले
आ, वेणि सजा दूँ मैं तेरी
तब तक गीतों का दौर चले
हाथों को कहता हूँ तब तक
रहने को महल बना डालें
सोने के गढ़ लें आभूषण
भूषण से अंग सजा डालें
झुरमुट - उपवन
प्यारे - प्यारे
आ सुस्ता ले
दर्द भुला ले
दाड़िम की मीठी छइयाँ है
पर्वत की मीठी ठइया है
झेलम का झलमल पानी है
पानी में चंचल नइया है
जीवन में धार बहाव बहुत
इस पर्वत पर ढुलकाव बहुत
है मेह बहुत, दुलराव बहुत
हाँ, सच यह भी ठहराव बहुत
बेजोड़ सिन्धु की घाटी है
केशर चर्चित यह माटी है
प्राणों को क्षण में जो बांधे
ऐसी इस की - परिपाटी है
आ प्रिये जुड़ा लें प्राण तनिक
अंगूर - बेलि में कुंज तले
आ, वेणि सजा दूँ मैं तेरी
तब तक गीतों का दौर चले
हाथों को कहता हूँ तब तक
रहने को महल बना डालें
सोने के गढ़ लें आभूषण
भूषण से अंग सजा डालें
सुख - दुख के साथी ढोरों को
जल पी ले, कह दूँ, सोतों में
अब सांझ हुई, जोड़े - जोड़े
पंछी जाते हैं खोतों में
मानस के आसन पर शोभित
सूरज-भू-गो-द्युति-नाग-जाग !
सूरज-भू-गो-द्युति-नाग-जाग !
देवता - मनुज के भाग जाग !
आवास, गेह, जन, कुटुम्ब सभी
हर दिन त्योहार मनाते हैं
हर सुबह निकलते हैं सूरज
हर सांझ डूब वे जाते हैं
जाड़े की पीली धूप मधुर
स्वर्णाभ चमकता कुन्तल है
चम्पा की कली बड़ी भोली
यह चीन देश की दुलहन है
भाई की बहना प्यारी है
बहना का भैया प्यारा है
हर और ठिठोली होती है
चाऊ का भैया क्वाँरा है...
खुशहाल किसानी बनी रहे
वाणी से अमृत झरा करे
गो-धन से गेह रहे पूरित
मित्रों से जनपद भरा करे
कागज की पाती पर दिल का
अदला - बदला आबाद रहे
पाताल दिव्य धरती, अम्बर
पुरे पुर का धन याद रहे
जीवन-श्रम से श्रम मांग रहा
यौवन-क्रम से क्रम मांग रहा
जागरण-नये युग की गाथा
बीते युग का भ्रम भाग रहा
दो होंठ हिले जब दौर चला
दो हाथ जुड़े - पलकें डोलीं
सरगम में डूब गई महफिल
दो पाँव बढ़े - अलकें डोलीं
समता की धारा बहने दे
तन कोटि, प्राण इक रहने दे
यूनान-सिन्धु से मिस्र तलक
क्या बात हुई मत कहने दे
गौतम, लोओजी गाता है
युग पर युग बीता जाता है
बढ़ चलने की मजबूरी है
हर कदम नया रंग लाता है
धरती पर एक विधान नया
जीवन की एक अवस्था है
है दृष्टि नई, चिन्तन नूतन
जीवन में एक व्यवस्था है
जीवन को गति जो देती है
वह साम्य-सौम्य-शुचि आग जाग !
विद्रोह-पुरुष का भाग जाग !
प्रबंध काव्य 'परम्परा और विद्रोह' का
'पितृ भाग' नाम का षष्टम-सर्ग समाप्त
'पितृ भाग' नाम का षष्टम-सर्ग समाप्त
7 टिप्पणियां:
रचनाकार ने जिस खूबसूरती के साथ मनुष्य के मिथक,पुराण और इतिहास बोध को आधुनिक संस्पर्श दिया है वह विलक्षण है !
बहुत शानदार!! अद्भुत!!
बहुत सुंदर ढंग से आप ने सारा विवरण किया, धन्यवाद
अदभुत !
अदभुत !
अदभुत !
जीवन-श्रम से श्रम मांग रहा
यौवन-क्रम से क्रम मांग रहा
जागरण-नये युग की गाथा
बीते युग का भ्रम भाग रहा...
लाजवाब करते शब्द...
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