'लघुकथा'
टापू में आग
- दिनेशराय द्विवेदी
साधु की झोपड़ी नदी के बीच उभरे वृक्ष, लताओं और रंग बिरंगे फूलों से युक्त हरे-भरे टापू पर थी। एक छोटी सी डोंगी। साधु उस पर बैठ कर नदी पार कर किनारे आता और शाम को चला जाता। कई लोग उस की झोंपड़ी देखने भी जाते। धीरे धीरे लोगों को वह स्थान अच्छा लगा कुछ साधु के शिष्य वहीं रहने लगे। लोगों ने देखा। साधु ने बहुत अच्छी जगह हथिया ली है, तो वे भी वहाँ झौंपडियाँ बनाने लगे। शिष्यों को अच्छा नहीं लगा, उन्हों ने लोगों से कुछ कहा तो वे साधु की निंदा करने लगे। शिष्यों ने साधु से जा कर कहा -लोग टापू पर आ कर बसने लगे हैं। आप की निंदा करते हैं। हम सुबह शाम कसरत करते हैं आप की आज्ञा हो तो निपट लें। साधु के मुहँ से निकला- साधु! साधु! और फिर कबीर की पंक्तियाँ सुना दीं-
निन्दक नियरे राखिए, आँगन कुटी छबाय।
बिन पानी साबुन बिना, निरमल करै सुभाय।।
लोगों की संख्या बढ़ती रही, निन्दकों की भी। साधु के आश्रम में सुबह, शाम, रात्रि हरिभजन होता। अखाड़े में शिष्य जोर करते रहते। लोग सोचने लगे, साधु टापू पर से चला जाए तो आराम हो, हमेशा जीवन में विघ्न डालते रहते हैं। लोगों में साधु के बारे में अनाप-शनाप कहा करते। साधु से उस के शिष्य जब भी इस बारे में कुछ कहते, साधु उन्हें कबीर का वही दोहा सुना देता - निन्दक नियरे राखिए......
एक दिन साधु शिष्यों सहित नदी पार बस्ती में गया हुआ था। बस्ती में ही किसी शिष्य ने बताया कि टापू पर आग लगी है। वे सभी नदी किनारे पहुंचे तो क्या देखते हैं लोग साधु की झौंपड़ी में लगी आग को बुझाने के बजाए उस में तेल और लकड़ियाँ झोंक रहे हैं। यहाँ तक कि टापू पर शेष डोंगियाँ भी उन्हों ने उस में झोंक दीं। शिष्य टापू पर जाने के लिए शीघ्रता से डोंगियों में बैठने लगे। साधु ने मना कर दिया। सब नीचे भूमि पर आ उतरे।
एक शिष्य ने प्रश्न किया -गुरू जी, आप ने टापू पर जाने से मना क्यों किया?
गुरूजी ने उत्तर दिया -अब वहाँ जाने से कुछ नहीं होगा। लोग तेल और लकड़ियाँ झौंक रहे हैं, अब कुछ नहीं बचेगा। यह कह कर साधु अपने शिष्यों सहित वहीं किनारे धूनी रमा कर बैठ गया।
लोगों ने देखा कि टापू की आग तेजी से भड़क उठी। टापू पर जो कुछ था सब भस्म हो गया। कुछ लोग ही बमुश्किल बची खुची डोंगियों में बैठ वहाँ से निकल सके। साधु बहुत दिनों तक वहीं किनारे पर धूनी रमा कर बैठा रहा। दिन में शिष्य बस्ती में जाते, साधु की वाणी का प्रचार करते और वापस चले आते। धीरे-धीरे जब टापू पर सब कुछ जल चुका तो आग स्वयमेव ही शांत हो गई। बची सिर्फ राख। टापू की सब हरियाली नष्ट हो गई, टापू काला पड़ गया। फिर बरसात आई राख बह गई। टापू पर फिर से अंकुर फूट पड़े, कुछ ही दिनों में वहाँ पौधे दिखने लगे। फिर रंग बिरंगे फूल खिले। दो एक बरस में ही फिर से पेड़ और लताएँ दिखाई देने लगीं। काला टापू फिर से हरियाने लगा। एक दिन देखा गया, साधु और उस के शिष्य फिर से डोंगी में बैठ टापू की ओर जा रहे थे।
18 टिप्पणियां:
प्रणाम है ,साधू और शिष्यों को !
उपसंहार :- जिस हाऊसिंग सोसाइटी में साधू का फ्लैट हो, उसमें अपार्टमेन्ट नहीं लेना चाहिए :)
काजलकुमारजी की बात जम रही है.:)
रामराम.
सृष्टि और विध्वंस ..और पुनर्सृष्टि !
क्या प्रस्तुति है -वाह.
आप तो यह बताईये महाराज कि आपकी पोस्ट पर ब्लOउगवाणी की पसंद क्यों नहीं बढ़ रही। 4 पर ही क्यों अटकी हुयी?
टापू की आग तो दावानल में बदलती नज़र आ रही :-)
हरी भरी तो जब होगी तब होगी. मगर आग का इस तरह बढ़ते जाना बड़ा खतरनाक साबित हो रहा है.
लो! जिस बात को हम लिखने आये वो तो पहले से ही ज्ञान जी ने लिखा हुया है। 4 तो नहीं 6 है लेकिन बढ़ नहीं रही पसन्द की गिनती।
प्रेरक लघुकथा है। साथ में दिए चित्रों ने प्रभावोत्पादकता में वृद्धि कर दी है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
ज्ञान जी आप मेरे पड़ोसी शहर के प्रतीत होते हैं। आपकी ईमेल आईडी नहीं मिली। इसलिये यहाँ कहना पड़ रहा है कि आप मुझसे सम्पर्क करें। मेरी ईमेल आईडी, प्रोफाईल पर उपलब्ध है।
अरे भाई साहब यह तो थोड़ी ज्यादा डेमोक्रसी हो गयी
हम भी धुनी रमा के मस्त होते हैं :)
कहानी अच्छी है - कब्ज़ा संस्कृति ने साधू और उसके पहलवानों से लेकर आम जनता तक सबको प्रभावित किया है.
दिनेश जी, कई दिनों के बाद आज पुन: वापस आया (जिसे आप ने ताड लिया था) तो आर सी मिश्रा जी ने इस कहानी की ओर इशारा किया.
पढा तो एकदम मन को सकून मिला. कारण साफ है: कहानी का मर्म बहुत गहरा है. सामाजिक कार्यों में जुटे होने के कारण और कई संस्थाओं से जुडे रहने के कारण यह बात मैं ने कई बार देखी है. हां, आज उसे एक नैतिक कथा के रूप में पहली बार पढ रहा हूँ.
कहानी के और भी पहलू हैं जिनसे मैआप परिचित हैं. वह भी हो रहा है. होने दें.
सस्नेह -- शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info
साधू ही जाने साध स्वाभाव ,
विद्वेष की आग ऐसी ही होती है
लोभी का काम ही ऐसा होता है
िसमे भेद क्या है ये तो मुझे नहीं पता मगर लघु कथा बहुत अच्छी लगी। शुभकामनायें
बहुत ही प्रेरक लघुकथा.
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