@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: कहाँ से आते हैं? विचार!

बुधवार, 17 जून 2009

कहाँ से आते हैं? विचार!

सांख्य विश्व की सब से प्राचीन दार्शनिक प्रणाली है। हमें इस बात का गर्व होना चाहिए कि वह हमारे देश में पैदा हुई और हम उस के वारिस हैं।  किन्तु जब मैं मूल सांख्य की खोज में निकला तो मुझे यह क्षोभ भी हुआ कि मूल सांख्य को लगभग नष्ट कर दिया गया है।  आज सांख्य का मूल साहित्य विश्व में उपलब्ध नहीं है।  प्राचीन काल में सर्वाधिक लोकप्रिय इस दर्शन की समझ भारतीय जनता में इतनी गहरी है कि आज बहुत से ग्रामीण बुजुर्गों के पास उस का ज्ञान परंपरा से उपलब्ध मिल जाता है।

इस संबंध में मुझे राजस्थान के वरिष्ठ गीतकार हरीश भादानी जी का सुनाया एक संस्मरण याद आ रहा है। उन्होंने प्रोढ़ शिक्षा के क्षेत्र में राजकीय प्रयासों के साथ भी महत्वपूर्ण कार्य किया है। उसी के दौरान वे प्रौढ़ शिक्षा के महत्व के बारे में बताने के लिए राजस्थान के किसी ग्राम में पहुँचे। वहाँ प्रोढ़ों और बुजुर्गों की एक बैठक बुलाई गई। ग्राम में कोई भी स्थान उपयुक्त न होने से यह बैठक किसी व्यक्ति द्वारा बनाए गए एक कमरे की इमारत की छत पर हुई जिसे धर्मशाला कहा जाता था। इस इमारत का रख-रखाव ग्रामसभा के जिम्मे था और यह सार्वजनिक कामों में ही आती थी। बैठक में भादानी जी के बोलने के उपरांत जब ग्राम के बुजुर्गों को बोलने को कहा गया तो उन में से एक 60 वर्षीय वृद्ध खड़ा हुआ और शिक्षा के महत्व पर धाराप्रवाह बोलने लगा। करीब एक घंटे के भाषण  में उस ने सांख्य दर्शन की जो सहज व्याख्या की उस से भादानी जी सहित सभी श्रोता चकित रह गए।  भादानी जी को उन दिनों व्याख्यान देने वालों को मानदेय़ देने का अधिकार था। उन्हों ने उन बुजुर्ग को प्रस्ताव दिया कि उन्हों ने सब की सांख्य की जो क्लास ली है उस के लिए वे मानदेय देना चाहते हैं।  कुछ ना नुकुर के बाद  बुजुर्ग ने वह मानदेय लेना स्वीकार कर लिया।  उन को धन दिया गया जिसे बुजुर्गवार ने तुरंत उस धर्मशाला के रखरखाव की मद में दान कर दिया।  हरीश जी ने अपने लिपिक को उस धन की रसीद बना कर हस्ताक्षर कराने को कहा। रसीद बन गई और जब बुजुर्गवार से हस्ताक्षर करने को कहा तो उन्हों ने प्रकट किया कि वे तो लिखना पढ़ना नहीं जानते। अगूठा करेंगे।


सांख्य प्राचीन भारत में इतना लोकप्रिय था कि श्रीमद्भगवद्गीता में गीताकार ने एकोब्रह्म का प्रतिनिधित्व कर रहे श्रीकृष्ण से यह कहलवाया कि मुनियों में कपिल मैं हूँ।  यही कपिल मुनि सांख्य के प्रवर्तक माने जाते हैं। मूल सांख्य तो खो चुका है, उसे हमारे ही लोगों ने नष्ट कर दिया। वह कहीं मिलता भी है तो उन के आलोचकों के ग्रन्थों के माध्यम से, अथवा दूसरे ग्रंथों में संदर्भ के रूप में।  मुनि बादरायण (कृत) ने ब्रह्मसूत्र (के शंकर भाष्य) में कपिल की आलोचना करते हुए कपिल के जगत-व्युत्पत्ति संबंधी सूत्र को इस प्रकार अंकित किया (गया) है .....
अचेतनम् प्रधानम् स्वतंत्रम् जगतः कारणम्! -कपिल
अर्थात् - कपिल कहते हैं कि अचेतन आदि-पदार्थ (प्रधान) ही स्वतंत्र रूप में जगत का कारण है।

इस तरह हम देखते हैं कि सर्वाधिक प्राचीन, लोकप्रिय, भारतीय दार्शनिक प्रणाली जगत की व्युत्पत्ति का कारण स्वतंत्र रूप से अचेतन आदि पदार्थ को मानती है। अर्थात सब कुछ उस आदि अचेतन पदार्थ की देन है। विचार भी।  विचार को धारण करने के लिए एक भौतिक मस्तिष्क की आवश्यकता है।  इस भौतिक मस्तिष्क के अभाव में विचार का अस्तित्व असंभव है।  मस्तिष्क होने पर भी समस्त विचार चीजों, लोगों, घटनाओं, व्यापक समस्याओं, व्यापक खुशी और गम से अर्थात इस भौतिक जगत और उस में घट रही घटनाओं से उत्पन्न होते हैं।  उन  के सतत अवलोकन-अध्ययन के बिना किसी प्रकार मस्तिष्क में कोई विचार उत्पन्न हो सकना संभव नहीं। कोई लेखन, कविता, कहानी, लेख, आलोचना कुछ भी संभव नहीं; ब्लागिरी? जी हाँ वह भी संभव नहीं। 


हरीश भादानी जी का एक गीत...
सौजन्य ...harishbhadani.blogspot.com/

कल ने बुलाया है...

मैंने नहीं
कल ने बुलाया है!
खामोशियों की छतें
आबनूसी किवाड़े घरों पर
आदमी आदमी में दीवार है
तुम्हें छैनियां लेकर बुलाया है
सीटियों से सांस भर कर भागते
बाजार, मीलों,
दफ्तरों को रात के मुर्दे,
देखती ठंडी पुतलियां
आदमी अजनबी आदमी के लिए
तुम्हें मन खोलकर मिलने बुलाया है!
बल्ब की रोशनी रोड में बंद है
सिर्फ परछाई उतरती है बड़े फुटपाथ पर
जिन्दगी की जिल्द के
ऐसे सफे तो पढ़ लिये
तुम्हें अगला सफा पढ़ने बुलाया है!
मैंने नहीं
कल ने बुलाया है!
  • हरीश भादानी

26 टिप्‍पणियां:

Smart Indian ने कहा…

इस आलेख के लिए साधुवाद. कृपया बताएं कि क्या यह बादरायण व्यास जी ही हैं या कोई और. साथ ही क्या चार्वाक और कणाद के दर्शन में कपिल मुनि के इस संख्या के बीज हैं या वे पूर्णतः स्वतंत्र विचार हैं.

राज भाटिय़ा ने कहा…

आप का लेख ओर हरीश भादानी जी की कविता बहुत ही सुंदर लगी , लेख से बहुत कुछ जानने को मिला.
धन्यवाद

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत उत्तम लेख. क्या विचार और बहुतिक मष्तिष्क की तुलना साफ़्टवेयर और कम्प्युटर से की जा सकती है?

रामराम.

रविकांत पाण्डेय ने कहा…

कहते हैं-"नास्ति सांख्य समं ज्ञानम" कालांतर में पतंजलि ने जो योग-दर्शन दिया वह भी सांख्य की अवधारणा पर स्थित है। मष्तिष्क बिना विचार(निर्विकल्प समाधि में) के हो सकता है पर विचार बिना मष्तिष्क के नहीं हो सकता।

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

आभार।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

अब,
"साँख्य " पर भी आप
अवश्य लिखेँ दीनेश भाई जी -

हरीश भादानी जी की ह्र्दयग्राही रचना अच्छी लगी...

चार्वाक दर्शन का कुछ अँश ६० के दशक के अमरीकी हिप्पीयोँ ने भी अपनाया था -
- लावण्या

Ashok Kumar pandey ने कहा…

भारतीय दर्शन परम्पराओं का पुनरध्ययन आवश्यक है ताकि यह मिथ तोडा जा सके कि भारतीय दर्शन मतलब
आध्यात्म

आपका प्रयास स्तुत्य है. अभी इसी विषय पर सरदेसाई साहब कि किताब का गुनाकर मुले द्वारा मराठी से अनुदित किताब का प्रूफ़ पढा था...

प्रवीण त्रिवेदी ने कहा…

सांख्य का प्रमुख सिद्धांत है कि अभाव से भाव या असत से सत की उत्पत्ति कदापि संभव नहीं है। सत कारणों से ही सत कार्यो की उत्पत्ति हो सकती है।

धन्यवाद!!!

sanjay vyas ने कहा…

द्विवेदी जी भारतीय दर्शन की रूपरेखा में पढा था कि ईश्वर कृष्ण की लिखी सांख्य-कारिका किसी सांख्य ग्रन्थ की टीका है. ये शायद इस दर्शन के प्रतिनिधि ग्रंथों में है.
हरीश जी की कविता के लिए आभार.

Arvind Mishra ने कहा…

सांख्य दर्शन के बारे में बहुत स्पष्ट और बुद्धिगम्य विचार ! बहुत आभार !

RAJ SINH ने कहा…

बहुत ही ज्ञानवर्धक पोस्ट .
आगे भी उत्सुकता रहेगी .

Abhishek Ojha ने कहा…

इस विषय पर आगे भी पोस्ट आने चाहिए.

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

बहुत अच्छा लेख....बहुत बहुत बधाई....
हरीश भादानी जी की कविता बहुत ही सुंदर लगी, लेख से बहुत कुछ जानने को मिला.......

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

अच्छी पोस्ट .

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

निश्चय ही विचार मस्तिष्क का आधार पाते हैं और व्यक्त इन्द्रियों से होते हैं । स्थूल जगत के अवलोकन और अध्ययन से विचार परिवर्तित और परिवर्धित होते हैं । किन्तु विचार मात्र इसी माध्यम से ही उत्पन्न होते हैं, यह कहना विचारों की प्रक्रिया को समझाने में अपर्याप्त सिद्ध होगा । यदि ऐसा होता तो बिल्कुल नये विचारों की उत्पत्ति शायद न होती ।

सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ ने कहा…

बादरायण कृत ब्रह्मसूत्र, सुत्रों मे है और जिस विषय को उठाया गया है उससे सम्बन्धित दो सूत्र हैं---
१-ईक्षतेर्नाशब्दन्‌ ब्र०सू० १-१-५
२-गौणश्चेन्नात्मशब्दात्‌ ब्र०सू० १-१-६
अतः बादरायण नें कोई भाष्य अपनें ही सूत्रों का किया हो और उसमें ‘अचेतनम्‌ प्रधानम्‌ स्वतंत्रम्‌ जगतः कारणम्‌!- कपिल जैसा वाक्य कपिलमुनी के नाम से उदधृत किया हो मुझॆ आज तक पढ़्नें को नहीं मिला।यदि आप शंकराचार्य के भाष्य का उल्लेख कर रहे हैं तो उसमें भी उपरिलिखित सूत्रों के भाष्य में उन्होंने ‘न सांख्यपरिकल्पितमचेतनं प्रधानं जगतः कारणं शक्यं वेदान्तेष्वाश्रयितुम्‌’।१/१/५ तथा ‘यदुक्तं प्रधानमचेतनं सच्छब्दवाच्यं तस्मिन्नौपचारिकमीक्षितृत्वम्‌ अप्तेजसोरिवेति,तदसत।’१/१/६ कपिल के प्रधान को विश्लेषित किया है। यह संभवतः अद्वैत को सिद्ध करनें के उद्देश्य से रहा होगा।

किन्तु आप का यह निष्कर्ष ‘इस तरह हम देखते हैं कि सर्वाधिक प्राचीन, लोकप्रिय, भारतीय दार्शनिक प्रणाली जगत की व्युत्पत्ति का कारण स्वतंत्र रूप से अचेतन आदि पदार्थ को मानती है। अर्थात सब कुछ उस आदि अचेतन पदार्थ की देन है। विचार भी’। कपिल के सांख्य पर आधारित प्रतीत नहीं होता। इस विषय में कपिल क्या कहते हैं-
‘स हि सर्ववित्‌ सर्वकर्ता’। अ० ३ सू० ५६

वह है सर्वज्ञ और सबका निर्माता। पुनः-

‘ईदृशेश्वरसिद्धिः सिद्धा’। अ० ३ सू० ५७

वह जो सबको कर्म-फल देनेंवाला है, जो सर्वज्ञ है और जो सबका नियन्ता है, ऎसा ईश्वर युक्ति से सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त सांख्यकारिका का प्रारंभ ही ‘अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः’ से किया है। अब आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक दुःखों तथा धर्म,अर्थ,काम एवं मोक्ष नामक पुरुषार्थ से सभी परिचित हैं। सांख्यकारिका कार नें २५ तत्व गिनायें हैं जिनमे पुरुष भी है।---

‘मूल-प्रकृतिर्विकृतिर्महदाद्याः प्रकृति-विकृतयः सप्तः।
षोड़्शकाश्च विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पूरुषः॥’

गौतम न्याय (लाजिक) के विशेषज्ञ थे, कणाद अणु-परमाणु के, कपिल स्रृष्टिमूलक तत्वों के, यह भौतिक स्रृष्टि का क्षेत्र था इसके बाद कारण रूप ब्रह्म तक पहुँचानें के विशेषज्ञ योग के माध्यम से जोड़ने के विशेषज्ञ पतंजलि, तकनीकी के मीमांसक जैमिनी और वह ब्रह्म एक है इसके संकेतक वेदव्यास थे।

बेनामी ने कहा…

साँख्य पर यह लेख एक नई जानकारी है मेरे लिए

गौतम राजऋषि ने कहा…

एकदम नयी जानकारी मेरे लिये
हरीश जी के इस अद्‍भुत गीत के लिये शुक्रिया

Shastri JC Philip ने कहा…

दर्शन का इतना विकसित रूप सांख्य में दिखता है कि ताज्जुब होता है कि हम मानसिकबौद्धिक सतह पर कितने अधिक विकसित पूर्वजों की संतानें हैं.

अफसोस यह है कि इस वैचारिक परंपरा को पोषित करने के लिये बहुत कम लोग बचे हैं.

इस आलेख के लिये आभार !!

सस्नेह -- शास्त्री

हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

@सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’
आप ने ठीक ध्यान दिलाया उक्त सूत्र ब्रह्मसूत्र के शांकरभाष्य में ही प्रकट हुआ है। ध्यान दिलाने के लिए बहुत बहुत आभार।( इस संबंध मे हुई त्रुटि को मूल आलेख में सम्मिलित कर लिया गया है) कपिल का कोई भी मूल ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। यह सूत्र ब्रह्मसूत्र के सूत्र 'समन्वयाधिकरणम्।।1.1.4।। के भाष्य के अंत में में इस प्रकार प्रकट हुआ है-
"तत्र सांख्याः (प्रधानं त्रिगुणमचेतनं स्वतन्त्रं जगत्कारणमिति)मन्यमाना आहुः"
कोष्ठबद्ध शब्दों का विच्छेद इस प्रकार होगा-
प्रधानम् त्रिगुण अचेतनम् स्वतंत्रम् जगतः कारणम् इति
इसे एक साथ उसी प्रकार व्यक्त किया जा सकेगा जैसे मैं ने किया है।
इस संबंध में अगले किसी आलेख में स्थिति और स्पष्ट करने का तथा साथ ही प्रवीण पाण्डेय की जिज्ञासा का उत्तर देने का प्रयास करूंगा।

Unknown ने कहा…

एक बेहतर आलेख।
और समय को भी कुछ कहना है।

@ प्रवीण पाण्डेय

मानवजाति के अभी तक के ज्ञान के अनुसार इसको ऐसे कहा जाना कि विचार मस्तिष्क का आधार पाते है, पूरा सच नहीं है। इसके कारण विचारों की एक स्वतंत्र वस्तुगतता का बोध होता है जो कि मस्तिष्क पर अवलंबित है।
इसको ऐसे कहा जाना चाहिए कि वस्तुतः विचार मस्तिष्क का प्रकार्य है, उसके क्रियाकलापों का उत्पाद है। और इसके लिए आधार सामग्री उसे ऐन्द्रिक संवेदनों के जरिए मिलती है।

जाहिर है विचार अचानक आसमान से नहीं टपकते, वे किसी भी मनुष्य की प्रकृति और समाज के साथ के अंतर्संबंधों एवं अंतर्क्रियाओं के स्तर और विकास की प्रक्रियाओं में पैदा होते हैं, आकार लेते हैं।

इसीलिए आपका यह कहना सही है कि वस्तुगत जगत के बोध का स्तर विचारों का विकास करता है, उन्हें परिवर्तित या परिवर्धित करता है।

नये विचार भी इसी प्रक्रिया से जन्म लेते हैं, वे भी किसी आधारहीन कल्पना से अचानक पैदा नहीं होते। हर नयी समस्या वैचारिक जगत में अवरोध पैदा करती है और मनुष्य अपने पूर्व के संज्ञानों के आधार पर उन्हें विश्लेषित कर उनके हल की संभावनाओं की परिकल्पनाएं करता है, जाहिर है नये विचार करता है।

रथ की संकल्पना या विचार का जन्म, पहिए की वस्तुगतता के बिना नहीं हो सकता। पक्षियों की उडानों के वस्तुगतता के बगैर वायुयान के विचार की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। बिना सोलिड स्टेट इलेक्ट्रोनिक्स के विकास के कंप्यूटर का नया विचार पैदा नहीं हो सकता था।

नये विचार, विचारों की एक सतत विकास की प्रक्रिया से ही व्युत्पन्न होते हैं, जिनके की पीछे वस्तुगत जगत के बोध और संज्ञान की अंतर्क्रियाएं होती हैं।

सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ ने कहा…

‘प्रधानम्‌, स्वतंत्रम त्रिगुणम अचेतनम्‌ जगतः कारणम्‌’तो इसका अर्थ हुआ प्रधान (पुरुष) से स्वतंत्र रहते हुए त्रिगुण (सत्व-रज-तम) से युक्त अचेतन (त्रिगुणमचेतनं) प्रकृति जगत का कारण (रचना करनें में समर्थ होती) है। इस भांति अर्थ करनें पर निम्न प्रश्न उठते हैं :---


१-अगर यह अर्थ माना जाए तो प्रधान या पुरुष की आवश्यकता ही क्यों?

२-यदि उपादानकारक (रा मिटीरियल) एक है तो उससे बनें पदार्थ अर्थात परमाणुओं-सबएटामिक पार्टिकल्स या अत्यंत विकसित मनुष्य के स्वभाव, मेधा, स्मृति, बल रुप-रंग आदि भिन्न क्यों होते हैं? मिट्टी, जल एवं ताप के संयोग से बननें वाली ईट की तरह सब एक से होंने चाहिये?

३-यदि उपादानकारकॊं के परम्युटेशन-काम्बिनेशन में अंतर के कारण यह भेद उत्पन्न होता है तो प्रश्न यह उठता है कि यह बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य क्या प्रकृति करती है? किन्तु वह स्वयं तो अचेतन है?

४-क्या अचेतन प्रकृति स्रृष्टि की रचना करती है, या अनादि है? यदि अनादि है तो बिगबैंग क्यों? और बिगबैंग के पहले क्या था?

संदीप ने कहा…

भारत की अन्‍य भौतिकवादी दार्शनिक धाराओं से भी परिचित कराएं, क्‍योंकि (जैसा कि अशोक कुमार पाण्‍डेय ने कहा है) भारत का मतलब आध्‍यात्‍म से ही लिया जाता है।

दरअसल, आध्‍यात्‍मवादियों ने भौतिकवादियों को बदनाम करने और उनके दर्शन को नष्‍ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यही कारण है कि भौतिकवादी दर्शन या तो आध्‍यात्‍मवादियों के खंडन में मिलता है या लोककथाओं आदि लोक परंपराओं में।

समय ने भी आपके लेख के पक्ष में अच्‍छे तर्क दिए। वे लगातार अपने ब्‍लॉग पर भी अच्‍छा लेखन प्रस्‍तुत करने का प्रयास कर रहे हैं। इसके लिए आप दोनों को इतना ही कहना चाहूंगा कि इन प्रयासों को जारी रखिए।

अजित वडनेरकर ने कहा…

बहुत बढ़िया। आज से यह लेखमाला पढ़नी शुरु की है।

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

अभी तक दर्शन आदि को पढ़ने का अवसर ठीक से नहीं मिला है। इसलिए यह विषय थोड़ा अलग है मेरे लिए। अभी समझने में तनिक असमर्थ हूँ। लेकिन संदीप जी की बात से सहमत हूँ जो अन्तिम टिप्पणी है।

लेकिन सुमन्त कात्यायन जी की अन्तिम टिप्पणी का जवाब नहीं दिया गया है। उसका इन्तजार मुझे भी है।

यहाँ पहुँचा समय के माध्यम से।

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

आज फिर पढ़ा। अब समझ में आया कुछ…