@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शनिवार, 9 अप्रैल 2011

जीत का जश्न मनाएँ! अपनी एकता और संघर्ष को जीवित रखें और आगे बढ़ाएँ!!

भ्रष्टाचार के विरुद्ध जन लोकपाल बिल अब सपना नहीं रहा है। सरकार को अण्णा हजारे के अनशन को लगातार मिल रहे और बढ़ रहे जन समर्थन के सामने झुकना पड़ा है। अण्णा हजारे द्वारा जन लोकपाल बिल को कानून की शक्ल देने के लिए जरूरी सभी मांगों को केन्द्र सरकार ने स्वीकार कर लिया। सुबह दस बजे के पहले तक इस पर सरकार का आदेश जारी होने की संभावना है। अण्णा ने सुबह साढ़े दस बजे अपना अनशन समाप्त करने की घोषणा कर दी है। जन्तर-मन्तर नई दिल्ली पर हजारों की संख्या में लोग जुटे हैं और जनता की इस जीत का जश्न मनाने में लगे हैं। असली जश्न तो सुबह सारा देश मनाएगा तब जब कि अन्ना अपना अनशन समाप्त करेंगे।अनशन समाप्त करने की घोषणा करने के पहले अण्णा हजारे ने स्पष्ट कर दिया था कि यह लड़ाई यहाँ समाप्त नहीं हुई है। यह देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने और देश की जनता की समस्याओं की समाप्ति तक जारी रहेगी। जितने लोग इस आंदोलन में साथ थे उन का नजरिया स्पष्ट था कि संघर्ष जारी रहेगा।
सारा देश भ्रष्टाचार से त्रस्त था। उसे मार्ग ही नहीं मिल रहा था। मार्ग निकला जन-लोकपाल-बिल के प्रस्ताव और उस पर संघर्ष से। जैसे ही अण्णा हजारे ने अपना अनशन आरंभ किया देश भर में लोग एकजुट होना आरंभ हो गए। हर किसी ने अपनी भूमिका अदा करना आरंभ कर दिया। जिस तेजी से लोग जन्तर-मन्तर की ओर दौड़ने लगे उसी तेजी से देश भर में भी इस आंदोलन के समर्थन में लोगों की बैठकें होने लगीं, देश को जोड़ने का अभियान सा देश भर में आरंभ हो गया। इस आंदोलन का समय भी बहुत सटीक था। एक और देश ने एक  दिवसीय क्रिकेट विश्वकप जीता ही था, जिस से देश भर की भावनाएँ एक जुट थीं।  दूसरी ओर सरकार और राजनेताओं के सामने कुछ राज्यों के चुनाव सामने खड़े थे। ऐसी परिस्थितियों में कोई भी सरकार या राजनैतिक दल किसी भी तरह जनता को नाराज नहीं करना चाहता था। चुनाव पूर्व का समय ही ऐसा होता है जब राजनैतिक दल और उन के नेता सब से कमजोर स्थिति में होते हैं। इन सब परिस्थितियों का लाभ भी इस आन्दोलन को प्राप्त हुआ। लेकिन सारी परिस्थितियाँ अनुकूल होते हुए भी सब कुछ ठीक नहीं होता। उस समय एक धक्का पर्याप्त होता है तंत्र को मनचाही दिशा में ले जाने के लिए वही यहाँ हुआ। अण्णा के अनशन और देशवासियों के व्यापक जन समर्थन ने उसे दिशा दे दी जिस से देश की जनता को यह उपलब्धि हासिल हुई। हमें इस से यह सबक लेना चाहिए कि परिस्थितियाँ बने तो उन का लाभ व्यापक जनता के हित में किए जाने के लिए जनता को संगठित और तैयार रहने की आवश्यकता है। 
स आन्दोलन में उन सैंकड़ों-हजारों जन संगठनों की भूमिका के महत्व से नकारा नहीं जा सकता जिन्हों ने रातों-रात इस आंदोलन का समर्थन किया और इस के लिए जन-समर्थन जुटाने के लिए रात-दिन एक किया। ये वे ही संगठन थे जो कि छोटे-छोटे स्तरों पर वर्षों से सक्रिय थे। इस से जो सबक हम सीख सकते हैं वह बहुत महत्वपूर्ण है। जनता को हर स्तर पर संगठित रहना चाहिए। किसी भी जीत का लाभ भी जनता को तभी मिल सकता है जब कि वह संगठित रहे। एक अकेला व्यक्ति टूट जाता है। लेकिन जब लोग सामुहिक हितों के लिए इकट्ठा हो जाते हैं तो व्यक्ति-व्यक्ति में आत्मविश्वास का पौधा अंकुराने लगता है।  हम लोकपाल कानून अस्तित्व में आ जाने के बाद भी भ्रष्टाचार को समाप्त करने की मुहिम लगातार चलानी पड़ेगी और वह तभी संभव है जब जनता संगठन में रहे। हमें अपने आस-पास के जन संगठनों को मजबूत करना चाहिए और जहाँ संगठन नहीं हैं वहाँ संगठनों का निर्माण करना चाहिए। इन संगठनों को चुनावी राजनीति और चुनावी राजनेताओं से दूर रखना चाहिए। 

देश की सारी जनता को इस जीत पर अशेष बधाइयाँ। 
म सभी को संकल्प करना चाहिए कि हम अपने निजि जीवन में भ्रष्टाचार को न अपनाएँ, जहाँ भी वह नजर आए उसे नष्ट करने के लिए व्यक्तिगत और सामाजिक संघर्ष चलाएँ। एकता और संघर्ष-संघर्ष और एकता ही सफलता की कुंजी है।

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अवसर को निजि हित में इस्तेमाल करने वालों से बचे

भ्रष्टाचार विरोधी जन अभियान की आँच देश के कोने कोने तक पहुँच रही है। ऐसे में मेरा नगर कोटा कैसे चुप रह सकता था। यहाँ भी गतिविधियाँ आरंभ हो गई हैं। गतिविधियों की एक रपट अख्तर खान अकेला ने अपने ब्लाग पर यहाँ प्रस्तुत की है। कल शाम बहुत से गैर राजनैतिक संगठनों के प्रतिनिधियों की एक बैठक बुलाई गई है। उस में कोटा में इस आन्दोलन को आगे बढ़ाने की योजना पर विचार होगा। इस बैठक में उपस्थित रहने का मेरा पूरा प्रयास रहेगा।
ज कोटा न्यायालय में भी इस आंदोलन की सुगबुगाहट रही। वकील आपस में बातें करते रहे कि उन्हें भी इस मामले में कुछ करना चाहिए। किसी ने कहा कि कल वकीलों को न्यायिक कार्य का बहिष्कार कर धरने पर बैठ जाना चाहिए। कुछ देर बाद दो वकील एक आवेदन पर वकीलों के हस्ताक्षर कराते दिखाई दिए। हर स्थान पर वकीलों का एक वर्ग होता है जो  इस तरह के मुवक्किलों का प्रतिनिधित्व करता है जिन्हें मुकदमे का निर्णय न होने में अधिक लाभ होता है। ये दीवानी मामलों के वे पक्षकार होते हैं जिन के विरुद्ध न्यायालय से राहत मांगी गई होती है। या फिर वे अभियुक्त होते हैं जिन्हें सजा का भय सताता रहता है और मुकदमे के निर्णय को टालते रहते हैं। यह वर्ग हमेशा इस तलाश में रहता है कि कोई मुद्दा मिले और वे न्यायिक कार्य का बहिष्कार (वकीलों की हड़ताल) कराएँ। वकीलों की हड़ताल कभी दो-चार लोगों या वकीलों के एक समूह के आव्हान पर नहीं होती। वह हमेशा अभिभाषक परिषद के निर्णय पर होती है। ये दोनों वकील अभिभाषक परिषद को कल की हड़ताल रखने के लिए परिषद को दिए जाने वाले ज्ञापन पर वकीलों के हस्ताक्षर प्राप्त करने का अभियान चला रहे थे।
वे मेरे पास भी आए। मैं ने आवेदन पढ़ा और उस पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। उन्हों ने पूछा -आप अण्णा के आंदोलन का समर्थन करते हैं?  मैं ने कहा -हाँ। -तो फिर आप को इस आवेदन पर हस्ताक्षर कर देने चाहिए। मैंने उन्हें कहा कि अण्णा कामबंदी पसंद नहीं करते, आप अण्णा की शुचिता के विरुद्ध काम कर रहे हैं। आप को अण्णा के आंदोलन का समर्थन करना है तो अभिभाषक परिषद की आम-सभा बुलवाइए और उस में संकल्प लीजिए कि कोई भी वकील और उस का मुंशी अदालत के किसी भी क्लर्क, चपरासी, न्यायाधीश, सरकारी अभियोजक और पुलिसकर्मी को जीवन में कभी कोई रिश्वत नहीं देगा। यदि किसी वकील या उस के मुंशी का ऐसा करना प्रमाणित हुआ तो उसे त्वरित कार्यवाही कर के अभिभाषक परिषद की सदस्यता से जीवन भर के लिए निष्कासित कर दिया जाएगा और बार कौंसिल को यह सिफारिश की जाएगी कि वह उस का वकालत करने का अधिकार सदैव के लिए समाप्त कर दे। इतना सुनने पर दोनों वकील अपना आवेदन ले कर आगे बढ़ गए।
मैं जानता था कि यदि सौ लोगों से हस्ताक्षर युक्त आवेदन भी अभिभाषक परिषद के पास पहुँचा तो कार्यकारिणी दिन भर के न्यायिक कार्य के बहिष्कार की घोषणा कर देगी। मैं तुरंत अभिभाषक परिषद के अध्यक्ष के पास पहुँचा और उन्हें एक लिखित पत्र दिया, कि कुछ लोग अण्णा के आन्दोलन का समर्थन करने के बहाने आप से कल न्यायिक कार्य स्थगित करने का निर्णय लेने के लिए वकीलों से हस्ताक्षर करवा रहे हैं। आवेदन कुछ ही देर में आप तक पहुँचेगा। किन्तु अण्णा कामबंदी पसंद नहीं करते। यदि अभिभाषक परिषद इस आंदोलन का समर्थन करती है तो सब से पहले उस के प्रत्येक सदस्य को यह संकल्प करना होगा कि वह स्वयं को आजीवन भ्रष्टाचार से मुक्त होने की घोषणा करे। इस के बाद ही इस आंदोलन के समर्थन में खड़ा हो और कामबंदी  बिलकुल न की जाए।
शाम को अभिभाषक परिषद की कार्यकारिणी की बैठक हुई। मैं ने अभी परिषद के अध्यक्ष को फोन पर पूछा कि क्या  निर्णय लिया गया? तो उन्हों ने बताया कि केवल दोपहर 12 बजे से 2 बजे तक न्यायिक कार्य को स्थगित किया जाएगा और सभी अभिभाषक इस अवधि में धरने पर उपस्थित हो कर अण्णा के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का समर्थन करेंगे। उन्हों ने बताया कि मेरे पत्र पर विचार किया गया था। लेकिन इस सम्बन्ध में आम राय होने पर ही कोई प्रस्ताव लिया जाना संभव है। 
मेरा अपना मत है कि जो व्यक्ति स्वयं भ्रष्टाचार से दूर रहने का संकल्प नहीं करता है उसे इस आंदोलन का समर्थन करने और उस में शामिल होने का कोई अधिकार नहीं है। ऐसे लोगों के समर्थन और आंदोलन में  शिरकत से आंदोलन को मजबूती नहीं मिलेगी। ऐसे लोग आंदोलन को कमजोर ही कर सकते हैं। आम लोगों में हर घटना, हर अवसर को अपने निजि स्वार्थ के लिए उपयोग कर लेने की प्रवृत्ति होती है। लेकिन इस आंदोलन की सफलता इसी बात पर निर्भर करेगी कि वह ऐसी प्रवृत्ति पर काबू करने की समुचित व्यवस्था बनाए रखी जाए। हमारे यहाँ व्यवस्था गिराऊ आंदोलन सफलता प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन एक व्यवस्था के गिरने पर कोई भी देश किसी निर्वात में नहीं जी सकता। उसे एक वैकल्पिक व्यवस्था दिया जाना आवश्यक है। यदि मजूबत वैकल्पिक व्यवस्था न मिले तो जिन प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए विजय प्राप्त की जाती है वे ही फिर से हावी हो कर नई व्यवस्था को पहले से अधिक प्रदूषित कर देती हैं। 

बुधवार, 6 अप्रैल 2011

राजनेता नहीं चाहिए

भ्रष्टाचार से देश का हर व्यक्ति व्यथित है। सामाजिक जीवन का कोई हिस्सा नहीं जो इस भ्रष्टाचार से आप्लावित न हो। स्थिति यह हो गई है कि जिस के पास धन है, वह फूला नहीं समाता। वह अकड़ कर कहता है -कौन सा काम है जो मैं नहीं करवा सकता। मुझे कोई बत्तीस बरस पहले की एक मामूली उद्योगपति की बात स्मरण हो आई जिस की राजधानी में एक बड़ी फ्लोर मिल थी। वह कुछ दिनों के लिए एक दैनिक के सम्पादक मित्र का मेहमान था। मैं उन दिनों कानून की पढ़ाई करता था और उस दैनिक में उपसंपादक हुआ करता था।  उस उद्योगपति ने मुझ से कहा था। कभी सरकार में कोई भी काम हो तो बताना। मैं ने उसे कहा सरकार तो बदल जाती है। उस का उत्तर था कि मैं अपने कुर्ते की एक जेब में सरकार का एमएलए रखता हूँ तो दूसरी जेब में विपक्ष का एमएलए। निश्चित रूप से पिछले बत्तीस वर्षों में इस स्थिति में गुणात्मक विकास ही हुआ है। आज का उद्योगपति एमएलए नहीं एमपी और मंत्री तक को अपनी जेबों में रखने क्षमता रखता है।
देश में जितना भ्रष्टाचार है उस की जन्मदाता यही उद्योगपति बिरादरी है। उन के इशारे पर कानून बनते हैं, यदि कानून उन के विरुद्ध बन भी जाएँ तो उन्हें उस की परवाह नहीं, वे जानते हैं कि सरकार उन के विरुद्ध कार्यवाही नहीं करेगी। जिस के पास सब से अधिक धन है वह देश का सब से इज्जतदार व्यक्ति है, चाहे वह  कितना ही बेईमान क्यों न हो। जिस के पास पैसा नहीं है वह चाहे कितना ही ईमानदार क्यों हो उस की काहे की इज्जत, राशनकार्ड दफ्तर का बाबू उस की इज्जत उतार सकता है। उस की बेटी की शादी में यदि दहेज या बारात के सत्कार में कुछ कमी हो जाए तो कोई अनजान बाराती भी उस की इज्जत उतार सकता है। हमने आजादी के बाद समाज में ऐसे ही मूल्य विकसित होने दिए हैं। हम ने भ्रष्टाचारी को प्रतिष्ठा दी है और ईमानदार लोगों को ठुकराया है। शहर में सब से अधिक काला धन रखने वाला व्यक्ति साल में माता का एक जागरण करवा कर या मंदिर बनवा कर सब से बड़ा धर्मात्मा और ईमानदार बन जाता है, और ईमानदारी से काम करने वाले को मजा चखा सकता है। मुखौटा पहन कर सब से बड़ा वेश्यागामी रामलीला में हनुमान का अभिनय कर सकता है, और जनता की जैजैकार का भागी हो जाता है।
ह हमारा दोहरा चरित्र है। हम इस के आदी हो चुके हैं। हम इस से त्रस्त हैं, लेकिन इस किले में एक कील भी नहीं ठोकना चाहते। जब हमारी बारी आती है तो हम कहते है, हम कर भी क्या सकते हैं। एक चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। चने का ही भुरकस निकल जाता है। आखिर हम बाल-बच्चे वाले इंसान हैं। हमारा आत्मविश्वास डगमगा गया है, हम कहते हैं सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा, कभी कुछ ठीक नहीं हो सकता। चार दिन पहले ही जब मैं ने कहा था कि क्रिकेट विश्वकप जीत का सबक 'एकता और संघर्ष' जनता के लिए मुक्ति का मार्ग खोल सकता है तो उस आलेख पर एक मित्र की टिप्पणी थी कि आप मुझे निराशावादी कह सकते हैं लेकिन इस देश में कभी कुछ नहीं हो सकता।  उन मित्र की इस निराशा में भी एक बात जरूर थी, वे इस व्यवस्था के समर्थक तो नहीं थे।
र अब जब कि दो दिन पहले तक देश को क्रिकेट के नशे में डुबोने के भरपूर प्रयास किए जा रहे थे और देश भर उस नशे में डूबा दिखाई दे रहा था। अचानक अगले ही दिन वह उस नशे से मुक्त हो कर अण्णा हजारे के साथ खड़े होने की तैयारी कर रहा है। बहुत से लोगों ने अण्णा हजारे का नाम कल पहली बार सुना था और वे पूछ रहे थे कि ये कौन है? आज वे ही उस के साथ खड़े होने को इक्कट्ठे हो रहे हैं। गैर-राजनैतिक संगठन बनाने के लिए बैठकें कर रहे हैं। इस आलेख को लिखने के बीच ही एक मित्र का फोन आया कि परसों शाम बैठक है, आप को जरूर आना है। धन के कार्बन और राजनेताओं के गंधक/पोटाश ने देश के चप्पे-चप्पे पर जो बारूद बिछाया है वह एक स्थान पर इकट्ठा हो रहा है और कभी भी विस्फोट में बदल सकता है। अण्णा ने उस बारूद तक पहुंचने का मार्ग प्रस्तुत कर दिया है।
ब अण्णा अनशन पर बैठने जा रहे थे तो मन में यह शंका थी कि कुछ घंटों में ही कुर्सी तृष्णा वाले राजनेता जरूर उन का पीछा करेंगे। यह आशंका सही सिद्ध हुई। वे अपनी कमीज को सफेद साबित करने के लिए अण्णा से मिलने पहुँचे। लेकिन जनता ने उन्हें बाहर से ही विदा कर दिया। यह सही है कि हमारी संसदीय राजनीति के सानिध्य ने किसी दल को अछूता नहीं छोड़ा। वे जिसे हाथ लगाते हैं वह मैला हो जाता है। इस काम को सिर्फ जनता के संगठन ही पूरा कर सकते हैं। राजनेता इस काम की गति में अवरोध और प्रदूषण ही पैदा कर सकते हैं। फिलहाल जनता ने उन्हें कह दिया है  -राजनेता नहीं चाहिए।

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

बस पर किस का बस है

प्राक्कथनः
हम बस में सवार थे
अचानक बस से उतार लिए गए
सड़क रुकी हुई थी
बसों, ट्रकों, जीपों कारों की कतार थी
माजरा देखा
बीच रास्ते पर शामियाना तना हुआ था
अंदर एक सफेद पर्दे पर 
प्रोजेक्टर से  निकली रोशनी
खेल रही थी
मैच चल रहा था विश्वकप का 
कभी उतार तो कभी चढ़ाव
आखिर मैच खत्म 
जश्न शुरू हुआ
नाचते गाते सुबह होने को हुई 
तो सड़क साफ हुई हम फिर बस में थे

.... और अब एक कविता अम्बिकादत्त की-

बस पर किस का बस है

  • अम्बिकादत्त

कोई नहीं जानता बस कहाँ जाएगी
बस कुएँ में पड़ी बाल्टी की तरह है
लोगों को पता है बस सरकारी है
लोग जानते हैं बस घाटे में है
लगो सोचते हैं बस कभी तो जाएगी
लगो नहीं जानते बस कब जाएगी
बस बंद है, जिन खिड़कियों में काँच नहीं है
वे खिड़कियाँ भी बन्द हैं
लोग आ रहे हैं, लोग जा रहे हैं
सामान जमा रहे हैं, बीड़ियाँ सुलगा रहे हैं
खटर-पटर सी मची है, बस चलेगी यह उम्मीद जगी हुई है
सीट पर आराम से बैठा आदमी, आशंकित है
ऊपर रखा सामान कभी भी उस के माथे पर गिर सकता है/ उस की सीट का नम्बर
किसी और को मिल सकता है
उफ! कितनी उमस है कितनी तकलीफ है
थकान है फिजूल झगड़ा है, थोड़ी देर के सफर में भी सकून नहीं
चलिए छोड़िए! जरा बताइए भाई साहब, कितना बजा है, बस कब जाएगी




रविवार, 3 अप्रैल 2011

क्रिकेट विश्वकप जीत का सबक 'एकता और संघर्ष' जनता के लिए मुक्ति का मार्ग खोल सकता है

ट्ठाईस वर्षों के बाद आखिर एक बार फिर एक दिवसीय क्रिकेट का विश्वकप हासिल हो ही गया। लंबे समय बाद मिली इस विजय के नशे का जुनून बहुत समय तक रह पाएगा इस की उम्मीद कम है। किसी एक दिवसीय मैच में एक हार इस नशे को हवा कर देने के लिए पर्याप्त होगी। कल ही जब सहबाग मैच की पहली ही गेंद पर आउट हो गए और कुछ देर बाद सचिन भी चलते बने तो वर्ड कप जीत जाने के अहसास हवा होता नजर आया। जो स्टेडियम भारतीय दर्शकों के उल्लास भरी आवाजों से गूंज रहा था वहाँ ऐसी शांति छा गई कि एक छोटी चिड़िया की चहचहाहट भी सुनाई दे जाती। लेकिन इन आरंभिक झटकों के बाद भी ऐसे दर्शकों की कमी न थी जो यह कहते नहीं रुक रहे थे कि जीत तो भारतीय टीम की ही होगी। 
कोई भी ...... कोई भी पहली गेंद पर आउट हो सकता था। इस प्रतियोगिता में सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी का पुरुस्कार प्राप्त करने वाले युवराज भी सेमीफाइनल में पहली गेंद पर आउट हुए थे। फाइनल मैच में सहबाग पहली गेंद पर आउट हो गए। किसी भी खिलाड़ी की एक पारी में सिर्फ एक गेंद होती है जिस पर वह आउट होता है।  अब यह संयोग ही है कि वह गेंद पहली होती है या सौवीं या कोई अन्य। यह भी हो सकता है कि ऐसी गेंद फेंके जाने के पहले ही मैच समाप्त हो जाए। ऐसे संयोग न हों या कोई ऐसा खिलाड़ी पैदा हो जाए जो आउट ही न हो तो खेल का सारा रोमांच ही नष्ट हो जाए। लेकिन मुश्किल से मुश्किल गेंद पर भी आउट न होने की महारत हासिल की जा सकती है। जो जितनी मुश्किल गेंदों पर खेलने की महारत हासिल कर लेता है वह अच्छा बल्लेबाज हो जाता है। इसी तरह माहिर खिलाड़ियों को आउट करने के लिए मुश्किल से मुश्किल गेंदे ईजाद की जाती रहती हैं। जो गेंदबाज हर समय नई गेंद ईजाद कर सकने की क्षमता रखता है वही श्रेष्ठ गेंदबाज हो जाता है। मानव शरीर का क्षमता विकसित करने का अद्भुद गुण हर समय मनुष्य को अपनी क्षमता विकसित करने में हमेशा मदद करता है। यही खेलों को जीवन्त बनाए रखने के लिए जिम्मेदार भी है। हमारे खिलाड़ियों ने अपनी क्षमता को उस ऊँचाई तक विकसित किया से वे इस विश्व कप को जीत सके। इस के लिए वे सभी बधाई और देश की जनता के प्यार पाने के अधिकारी हैं।
लेकिन केवल खिलाड़ियों के क्षमता हासिल कर लेने से ही जीतें हासिल नहीं हो जाती हैं। यदि ऐसा होता तो यह जीत पहले भी हासिल की जा सकती थी। किसी भी ऐसे क्षेत्र में जहाँ एक से अधिक लोग मिल कर ही जीत हासिल कर सकते हों वहाँ दो चीजों की आवश्यकता और होती है। पहली चीज है जीत के लिए आवश्यक व्यक्तियों की जीत के लक्ष्य के लिए अटूट एकता और दूसरी चीज है उस के लिए लगातार संघर्ष। यदि ये 'एकता और संघर्ष' न हों तो किसी भी क्षेत्र में कोई भी जीत कभी भी हासिल नहीं की जा सकती। 
म इस जीत का ही उदाहरण लें। सचिन तेंदुलकर पिछले विश्वकप के पहले ही एक लीजेंड खिलाड़ी हो चुके थे। उन के पास क्रिकेट का हर रिकॉर्ड मौजूद था। वे कहने लगे थे कि इन सब रिकॉर्डों का कोई अर्थ नहीं है यदि इतने लंबे कैरियर में मैं किसी विश्वकप विजेता टीम का हिस्सा नहीं बन सका। ये वे यह समझ चुके थे कि कोई भी एक खिलाड़ी अपने दम पर इस तरह की जीत को हासिल नहीं कर सकता। विश्वकप हासिल करने की उन की भूख इतनी जबर्दस्त थी कि उन्हों ने अगले विश्वकप के हर संभावित खिलाड़ी को इस के लिए तैयार करना आरंभ किया। जीत के बाद कल जब युवराज से पूछा गया वह वैरी वैरी स्पेशल व्यक्ति कौन था जिस के लिए वह यह विश्वकप हासिल करने के लिए अपनी अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी? तो उस का जवाब था -वह व्यक्ति सचिन तेंदुलकर ही है। वह दो वर्ष से लगातार मुझे प्रोत्साहित कर रहा था, अगला विश्वकप जीतने के लिए तुम्हें अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करना है। कप्तान धोनी ने भी कल यह कहा था कि इस विश्वकप के लिए उन की तैयारी दो वर्ष से चल रही थी। अधिकांश खिलाड़ियों ने यदि यह कहा कि उन्हों ने यह विश्वकप सचिन के लिए जीता है तो गलत नहीं कहा। आखिर एक सचिन ही थे जिन्हों ने टीम के प्रत्येक खिला़ड़ी में यह भावना भर दी थी कि यह विश्वकप जीतना है। कप्तान धोनी ने जरूर सेनापति की भूमिका अदा की लेकिन जीत की प्रेरणा तो सचिन ही थे। एक सचिन ही थे जो इस काम को सही तरीके से अंजाम दे सकते थे। वह इसलिए कि वे अपने व्यक्तिगत कौशल से इतने कीर्तिमान स्थापित कर चुके थे कि सारी टीम के प्रेरणा के स्रोत बन चुके थे। टीम में उन से ईर्ष्या करने वाला कोई नहीं था, वे सब के लिए आदर्श बन चुके थे। उन्हों ने वह भूमिका अदा की जो भारत को सिंकदर के आक्रमण से बचाने के लिए विष्णुगुप्त चाणक्य ने अदा की थी। लगातार खेलते हुए छोटी-छोटी जीतों के जरिए टीम की एकता को मजबूत करना, फिर संघर्ष के जरिए बड़ी एकता हासिल करने का मार्ग ही इस तरह की विश्वव्यापी विजय का मार्ग प्रशस्त करता है।   
प्रत्येक भारतीय को इस जीत का सबक सीख लेना चाहिए। 'एकता और संघर्ष' का यह सबक प्रत्येक जीत का मूल मंत्र है। इस मंत्र के माध्यम से कैसे भी शत्रु को परास्त किया जा सकता है। हमारी टीम ने एक दिवसीय क्रिकेट का विश्वकप हासिल कर लिया है, लेकिन उस ने जो मार्ग इस देश की जनता को दिखाया है उस पर चल कर इस देश की जनता को बहुत जीतें हासिल करनी है। गरीबी, भूख, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, असमानता, अन्याय, अत्याचार जैसी अनेक समस्याएँ देश के समक्ष मुहँ बाए खड़ी हैं। जब भी इन समस्याओं से निपटने की बात की जाती है तो निराशा में भरे लोग कहने लगते हैं कि कुछ नहीं होने का। जो भी इन समस्याओं से लड़ने चलता है वह जल्दी ही प्रतिआक्रमणों से धराशाई हो जाता है। आखिर ये सारी समस्याएँ व्यवस्था की देन हैं। व्यवस्था का मौजूदा ढ़ाँचा इन सारी समस्याओं का जनक है और इन से निपटने में पूरी तरह से अक्षम। हमें इन समस्याओं को समाप्त करने के लिए पूरी व्यवस्था से जूझना होगा, जो अब विश्व व्यवस्था से नाभिनालबद्ध है। इतने मजबूत शत्रु से एक व्यक्ति या कोई छोटा-मोटा समूह नहीं लड़ सकता। उस से लड़ने के लिए इस व्यवस्था की शिकार देश की बहुमत जनता को एकजुट होना होगा। यह एकता एक दिन में भी नहीं बनती। यह लगातार संघर्ष करते हुए बनती है। कुछ लोगों की एकता और संघर्ष, फिर संघर्ष के जरिए जुड़े लोगों के  साथ एकता का निर्माण और फिर संघर्ष..... । 'एकता और संघर्ष' का लगातार सिलसिला ही एक दिन उस वृहद् एकता तक हमें पहुँचा सकता है जो संघर्ष के जरिए मौजूदा जन विरोधी व्यवस्था को धराशाई कर एक जनपक्षीय जनतांत्रिक व्यवस्था स्थापित कर सकता है और जनता के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।

शनिवार, 2 अप्रैल 2011

..... अम्माँ री ई S S S S S S ई मर गया S S S S S S आ .....

सुनील रात को ही अम्माँ से कह कर सोया था कि वह सुबह उसे जल्दी उठा दे, उसे मैडम से कुछ जरूरी पाठ पढ़ने जाना है। वह अपने कॉलेज के सब से होनहार विद्यार्थियों में एक था। पढ़ाई तो पढ़ाई, कोई गतिविधि ऐसी न थी, जिस में उस का दखल न हो। हर कोई उस से प्रसन्न रहता था। अम्माँ ने उसे सुबह साढ़े पाँच बजे ही उठा दिया, उसे उठाने के पहले वह उस के लिए चाय बना चुकी थी। एक घंटे में स्नानादि से निवृत्त हो वह तैयार हो गया और अम्माँ को कह कर साइकिल उठा कर चल दिया। साइकिल उस की हिन्दी शिक्षक के घर की ओर चली जा रही थी। मैडम के घर  पहुँच कर उस ने साइकिल दरवाजे के बाहर ही खड़ी की और ताला लगा दिया। दरवाजे की घंटी बजाई। मैडम ऊपर से झाँकी और सुनील को देख कर कहा -दरवाजा खुला है, आ जाओ।
दरवाजा धक्के से खुल गया। सुनील ने देखा वहाँ गीला हो रहा था, सीढ़ियों की ओर जाने वाले रास्ते में पानी था। सीढ़ियों के नीचे बने टॉयलेट से पानी बाहर आ रहा था। शायद नल खुला छूट गया था। वह उसे बंद करने लगा। नल बंद कर के जैसे ही वह मुडा़ उस का पैर फिसला, और वह गिरने लगा। संभलने के लिए उस ने हाथ को टिकाया तो सारा वजन उस पर पड़ा, उस की चीख निकल गई...... अम्माँ री ई S S S S S S ई मर गया S S S S S S आ .....
सुनील की चीख सुन कर मैडम तेजी से जीना उतर कर नीचे आई तो सुनील हाथ पकड़े बैठा था। उस के चेहरे से लगता था जैसे उसे हाथ में असहनीय दर्द हो रहा है। सुनील ने बताया की हाथ में बहुत चोट लगी है। मैडम घबरा गई। तुरंत अस्पताल जाने को कहा। पर हाथ के कारण साइकिल तो वह चला नहीं सकता था। मैडम ने तुरंत अपनी मोपेड निकाली और सुनील को बैठा कर अस्पताल पहुँचाया। अस्पताल में ड्यूटी डाक्टर था। सुनील को उस की सामाजिक गतिविधियों के कारण जानता था और उस का मुरीद भी था। उस ने सुनील को देखा और अनुमान से कहा कि हाथ में फ्रेक्चर हो सकता है। पक्का पता तो एक्स-रे से ही चलेगा। आज तो रविवार है, एक्सरे तो कल ही हो सकेगा। तब तक कच्चा प्लास्टर लगा देना उचित रहेगा। तुरंत कंपाउंडर को बुलाया गया। कंपाउंडर ने प्लास्टर रूम में ले जा कर प्लास्टर चढ़ा दिया। तब तक आठ बजे थे। सुनील ने एक मित्र को मोबाइक ले कर बुला लिया था। वह दोस्त की मोबाइक पर घर चला आया।
र पहुँचते ही कोहराम मच गया। छोरा अच्छा भला पढ़ने गया था, प्लास्टर में हाथ, वह भी गले से लटका हुआ, देख कर अम्माँ घबरा गई। सुनील ने सारा किस्सा सुनाया। साथ आए दोस्त को कहा कि दो किलो दूध ला कर घर में रख दे, अभी पता लगते ही लोग मिलने आने लगेंगे। थोड़ी देर में मोहल्ले और दोस्तों को पता लगा तो आने वालों का ताँता बंध गया। एक जाता तो दूसरा आ बैठता। अम्माँ सब से चाय के लिए पूछती। चाय की पतीली गैस पर चढ़ी तो दोपहर तक उतरी ही नहीं। लोग आते रहे। बैठते, चाय पीते और चल देते। रिश्तेदार भी आए। मामा जी उसे बहुत प्यार करते थे। सुनील को देख कर उन की आँखों में आँसू आ गए। वे बहुत देर साथ बैठे।
दोपहर के दो बज गए थे। अम्माँ बार-बार भोजन के लिए पूछ रही थी। सुनील समझ नहीं रहा था कि मिलने वालों से कैसे पीछा छुड़ाए। आखिर ढाई बजे अम्माँ एक बार फिर भोजन के लिए कहने पहुँची तो बैठे हुए दोस्तों ने उस से कहा कि वह भोजन कर के थोडा़ आराम कर ले,  मिलने वाले तो आते ही रहेंगे। वह भोजन कर के फिर से बैठक में आ बैठा। दीवान पर लेट कर सोने की कोशिश की पर नींद कैसे आती, कोई उसे खाली छोड़ता तब न। आखिर उस के सब से प्रिय मित्र ने उसे कहा कि वह ऊपर अपने कमरे में जा कर अंदर से कुंडी लगा कर सो जाए। कोई आएगा तो वह मना कर देगा। सुनील जाने को तैयार न था। आखिर दोस्त के जबर्दस्ती करने पर वह साढ़े तीन बजे ऊपर अपने कमरे में चला गया। दोस्त ने नीचे बैठक पर कब्जा कर लिया। दोस्त आते तो वह कहता -सुनील बहुत मुश्किल से सोने गया है कम से कम शाम छह बजे तक तो उसे सो लेने दिया जाए। उस के बाद जगाएँगे। अम्माँ को भी राहत मिली वह भी कुछ देर आराम करने के लिए लेट गई।
शाम साढ़े छह बजे तक सुनील सो कर नहीं उठा था। अम्माँ चाय बनाने लगी तो उस ने बैठक में सो रहे सुनील के दोस्त को जगा कर कहा कि सुनील को भी जगा दे, वह भी नीचे आ कर चाय पी लेगा। अब दोस्त सुनील को आवाजें लगाने लगा। पर लगता था सुनील को अच्छी नींद लग गई थी वह कुछ सुन ही नहीं रहा था। आखिर वह ऊपर गया और जोर जोर से सुनील के कमरे की कुंडी खटखटाने लगा। थोड़ी देर बाद सुनील की अलसाई सी आवाज आई -कौन है? तब दोस्त ने कहा -अम्माँ ने चाय बना ली है, पीने के लिए नीचे बुला रही है। सुनील ने कहा तुम चलो, मैं आता हूँ। दोस्त नीचे चला गया। कुछ देर बाद सुनील नीचे उतरा तो उस का प्लास्टर उतरा हुआ था और हाथ भी सीधा लटका हुआ था। उसे देख कर दोस्त ने पूछा -प्लास्टर? सुनील बोला -मुझे नहीं सुहाया तो ब्लेड से काट लिया। कल पक्का बंधेगा ही। दोस्त ने कहा तुमने खुद काट लिया? अब रात को हाथ इधऱ उधर हुआ और नुकसान हुआ तो? सुनील ने जोरदार ठहाका लगाया - हा हा हा हा हा हा हा हा...... सबको अप्रेल फूल बनाया। तभी अम्माँ चाय ले कर आई। और सुनील को ठहाका लगाते हुए देख कर स्तब्ध रह गई। फिर जैसे ही उसे माजरा समझ आया वह भी ठहाके में शामिल हो गई।
दोस्त बहुत बेवकूफ बन चुका था। क्या कहता? वह चाय पीकर चुपचाप खिसक लिया। धीरे-धीरे सब को पता लग गया कि सुनील ने बड़े पैमाने पर अपनों को बेवकूफ बनाया है। सब दुबारा मिलने आए। मामा जी भी दुबारा मिलने आए। सुनील का हाथ सही सलामत देख कर खुश थे, पर जाते जाते सुनील के सिर में दो चपत जरूर लगा गए। सुनील का यह किस्सा कस्बे  के लोग अब चाव से बैठकों में सुनाते हैं।

गुरुवार, 31 मार्च 2011

शील ने इत्मिनान से क्रिकेट मैच देखा

सुरेश के सुबह सो कर उठने के पहले अखबार आ जाता है। शील ही पहले उसे पढ़ती है। सुरेश यदि बीच में उठ जाए तो उसे कॉफी बना कर दे देती है और फिर अखबार पकड़ लेती है। जब तक पूरा न पढ़ लिया जाए, उसे नहीं छोड़ती। यह अपने शहर, देश दुनिया के बारे में ताजा होने का सब से अच्छा तरीका है। फिर उसे अक्सर यह भी तो देखना होता है कि उस दिन पूनम, प्रदोष या कृष्णपक्षीय चतुर्थी तो नहीं पड़ रही है या कोई ऐसा त्यौहार तो नहीं है जिस में व्रत या पूजा वगैरा करनी हो। कहीं ऐसा न हो कि उन में से कोई छूट जाए। सोने से ले कर दाल-चावल तक के भाव उसी से तो पता लगते हैं और किसी के मरने-गिरने की खबर भी। अखबार से उसे यह सब जानकारी सुबह-सुबह मिल जाती है और दिनचर्या तय करना आसान हो जाता है। उसी से उसे यह भी खबर लगती है कि आज अदालत में काम होगा या वकील लोग यूँ ही मुकदमों में तारीखें ले कर वापस लौटेंगे। पिछले दो-एक बरस से यह खूब होने लगा है। महीने में दो-चार दफ़े तो वकील हड़ताल कर ही देते हैं और साल में कम से कम एक बार लंबी हड़ताल  भी करते ही हैं। इस से वह जान जाती है कि सुरेश को दिन में आज कितनी फुरसत रहेगी? उसी हिसाब से वह सुरेश से करवाए जाने वाले बाहर के कामों की उसे याद दिलाती है। 
शील को सप्ताह भर से ढोल पीट रहे टीवी चैनलों से पता चल गया था कि बुधवार को क्रिकेट विश्व-कप का फाइनल मैच होने वाला है। वह समझ गई थी कि सुरेश की कोशिश रहेगी कि ढ़ाई बजे के पहले घर पहुँच जाए और बिस्तर पर बैठे-लेटे वह मैच का आनंद ले सके। पहले तो सुरेश को क्रिकेट का बहुत ज़ुनून होता था। लेकिन अब उस पर उतना ध्यान नहीं देता। आखिर दे भी कब तक? वह ऐसा करने लगे तो धंधा ही चौपट हो जाए। फिर भी अगर भारत की टीम खेल रही हो तो मैच देखने की उस की कोशिश जरूर रहती है। उसे सुबह के अखबार से ही पता लग गया था कि आज के मैच के लिए वकील लोग अदालतों में काम नहीं करेंगे। सुबह जब सुरेश कॉफी पी रहा था तो शील ने पूछ लिया "आज अदालत में काम कितना है?" सुरेश भी अब इस तरह के सवालों का आदी हो चला है। वह तुरंत ही भाँप गया कि उसे कुछ काम बताया जाने वाला है। उस ने केवल इतना ही उत्तर दिया "कोई अधिक काम नहीं है।" तब शील ने बताया कि अदालत में तो आज वकील काम ही नहीं करेंगे। 
-हाँ, काम तो नहीं करेंगे, लेकिन अदालत तो जाना पड़ेगा। जो मुकदमे आज लगे हैं उन में पेशी तो लानी पड़ेगी। तुम तो अपना काम बताओ जो मुझे करने के लिए कहने वाली हो। सुरेश ने कहा। 
शील बताने लगी - मैं सोचती थी कि पोस्ट ऑफिस जा कर पोस्ट मास्टर को नया पता दे आओ। कहीं ऐसा न हो बच्चों की डिग्रियाँ आएँ और लौट कर फिर से युनिवर्सिटी चली जाएँ। फिर वहाँ से निकालना बहुत मुश्किल काम होगा। बच्चों को ही आ कर लेनी होंगी। वैसे भी वे घर कितने दिन के लिए आते हैं। फिर जब आते हैं तो युनिवर्सिटी में अवकाश होता है। वो गुप्ता जी की लड़की उसकी डिग्री आज तक भी युनिवर्सिटी से नहीं ला पाई है। जब गुप्ता जी पत्नी सहित एलटीसी पर गए थे तब आई थी, डाकिए ने लौटा दी। 
शील कुछ देर के लिए रुकी तो सुरेश बोल उठा -अगला काम बताओ। एक वो आप के मिर्च वाले को फोन कर के पूछ लो कि वह मिर्चें कब ला कर देगा? गरमी धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है। अधिक देर हो गई तो उन्हें पीसने में परेशानी होगी। यदि वह एक दो दिनों में ला दे तो ठीक, वर्ना पोस्ट ऑफिस के नजदीक की दुकान पर अच्छी वाली मिर्चें हैं, आधा किलो लेते आना। बिलकुल खतम हो हो जाएंगी तो परेशानी आ जाएगी। गणगौर नजदीक है, गुणे तो बनाने पड़ेंगे। बिना मिर्च के तो बनने से रहे।
... और? सुरेश ने पूछा? 
..... यूआईटी हो कर भी आना। नयी आवासीय योजना में  प्लाटों के आवंटन के फार्म मिलने लगे हों तो वह भी लाना। गुल्लू कह रहा था कि इस बार जरूर भर देना चाहिए। यदि आवंटन मिल गया तो फायदा हो जाएगा। उसे वैसे भी इस बार प्रोपर्टी में इन्वेस्ट के लिए लोन लेना पड़ेगा। वर्ना बहुत सा पैसा सिर्फ इन्कमटैक्स में कट जाएगा। गुल्लू की सैलरी स्लिप ले जा कर लोन एजेंट को दिखा कर पूछ भी लेना कि उसे कितना लोन मिल सकता है। 
... और?  इस बार सुरेश ने पूछा तो यकायक शील हँस पड़ी। कहने लगी - आज के लिए इतना ही बहुत है, फिर अदालत जा कर आज की पेशियाँ भी तो लेनी हैं और  फिर मैच भी तो देखना है। आज शाम तुम्हें दूध लेने नहीं जाना है, मैं ने गाँव वाले से एक किलो ले लिया है। 
सुरेश कहने लगा -कभी कभी बहुत समझदारी करती हो। सच में, आज मैच शाम पाँच बजे क्रिटिकल हो जाता तो मैं नहीं ही जाता।
-कभी कभी क्यों जनाब? हमेशा क्यों नहीं कहते। क्या कभी मैं ने कोई बेवकूफी भी की है? 
सुरेश की कॉफी कभी की खत्म हो चुकी थी, तम्बाकू को चूने के साथ घिस कर सुपारी मिला कर भी फाँक चुका था। वह उठा टॉयलेट में घुसते हुए बोला -मुझे बता कर दिन थो़ड़े ही खराब करना है। शील फिर हँस पड़ी। स्नानादि से निवृत्त हो कर सुरेश ने भोजन किया और निकल गया। उस ने शील के बताए सारे काम कर डाले थे। अदालत पहुँचा तो दुपहर का अवकाश होने में पंद्रह मिनट ही शेष बचे थे। उसे रोज ही अपनी कार पार्क करने के लिए जगह तलाशनी पड़ती थी। कभी कभी तो इस तलाश में कार को एक किलोमीटर बेशी चलाना पड़ जाता था। पर आज तो सारी ही जगह खाली पड़ी थी। कार को एक पेड़ की छाँह भी मिल गई थी। वरना कई सप्ताह से कार दिन फर धूप में तपती रहती थी। ज्यादातर लोग अपना काम निपटा कर घरों को जा चुके थे। अदालत में सन्नाटा पसरा था। मुवक्किलों का तो नाम भी नहीं था। वहाँ या तो अदालतों के कर्मचारी थे या फिर कुछ वकील, मुंशी और टाइपिस्ट आदि ही बचे थे। उन में से भी कुछ जाने की तैयारी में थे। कुछ ने मैच की एक पारी यहीं बार एसोसिएशन के टीवी पर मैच देखना था। जब भीड़ मैच देखती है तो उस का आनंद कुछ और ही होता है। 
सुरेश ने जल्दी-जल्दी देखा कि उस के आज के मुकदमों की तारीख उस के जूनियर और मुंशी ले आए हैं या नहीं। देखा कि एक-दो ही मुकदमे रह गए हैं तो मुंशी को हिदायत दी कि लंच होने के पहले ही शेष तारीखें भी नोट कर ले और बस्ता गा़ड़ी में रख दे। मुंशी ने एक दो नोटिसों पर दस्तखत कराए, जिन्हें आज ही डिस्पैच करना था। कुछ और अदालती कागजों पर दस्तखत करने के बाद सुरेश अपनी लंच-टीम के साथ चाय के लिए निकल गया। उस ने साथियों से पूछा -मैच देखने की क्या तैयारी है? अधिकतर चाय के बाद घर जाने वाले थे। एक दो ने वहीं मैच देखना था। जगदीश कोई गाना गुनगुना रहा था। सुरेश ने पूछा -क्या गुनगुना रहे हो?
-कुछ नहीं, यार! हर कोई ऐरा-गैरा, नत्थू खैरा किरकेट पर गाना बना रहा है तो मैं ने सोचा मैं भी क्यूँ न बना दू? 
-फिर कुछ सूझा? सुरेश ने पूछा।
-हाँ, दो पंक्तियाँ तो सूझ गई हैं। पर गाड़ी आगे बढ़ ही नहीं रही है। 
-तो दो ही सुना दो। गाना वर्डकप फाईनल शुरू होने तक तो बन ही जाएगा। पूरा तब सुन लेंगे। 
- तो सुन ही लो। जगदीश सचमुच गाने लगा ....

देखो देखो देखो S S S S S S S S ओ
किरकट का मैच देखो S S S S S S S S ओ
भारत-पाक भिड़ते देखो S S S S S S S S ओ
भूलो भूलो भूलो S S S S S S S S ओ
राष्ट्रमण्डल को भूलो S S S S S S S S ओ
धोनी-सहबाग-सचिन याद रखो S S S S S ओ
भूलो भूलो भूलो S S S S S S S S ओ
कलमाड़ी की कालिख भूलो S S S S S S ओ
देखो देखो देखो S S S S S S S S ओ
किरकट का मैच देखो S S S S S S S S ओ ...

सुरेश ने जगदीश को बाहों में भर लिया। उस्ताद आज तो मिर्जा और मीर भी तुम्हें दाद दे रहे होंगे। 

चाय से निपट कर सुरेश घर पहुँचा तो टीवी से मैच की आवाजें आ रही थीं। उसे बहुत आश्चर्य हुआ कि पंद्रह दिन पहले तक अपने फेवराइट सीरियल के समय शील उसे कहती थी कि वह मैच इंटरनेट पर देख ले।  आज अपने फेवराइट सीरियल के समय क्रिकेट मैच देख रही है। उस ने गेट खोल कर कार अंदर रखी। शील ने दरवाजा खोला और तुरंत अंदर जा बैठी। बेडरूम का टीवी चल रहा था। दो ओवर हो चुके थे। शील जम कर बेड पर बैठ कर मैच देखने लगी। सुरेश ने कपड़े बदले और वह भी बेड पर लेट कर मैच देखने लगा। 
शील ने पूरा मैच तन्मय हो कर देखा। आखिरी ओवर की पहली गेंद फेंकने के बाद जब सुरेश ने कहा कि अब भारत जीत गया। तो शील बोली -जीत गया, तो फिर अब गेंद क्यों फैंकी जा रही है? जब तक आखिरी पाक खिलाड़ी आउट न हो गया तब तक वह नहीं उठी। उठी तो सब से पहले घड़ी देखी। उस की प्रतिक्रिया थी -अरे! ग्यारह बज गए! मैं तो सोच रही थी अभी साढ़े नौ ही बजे होंगे।
सुरेश ने कहा -अब भोजन भी बना लो। वर्ना जीत की खुशी में भूखा ही सोना पड़ेगा। 
-भोजन मैं ने दो बजे के पहले ही बना लिया था। बस, गरम कर के लाती हूँ। 
सुरेश सोच रहा था ... तो ये वजह थी, कि शील ने बड़े इत्मिनान से मैच देखा।