@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

विश्वसनीय सरकारें अभी भारत के भविष्य में दूर दूर तक बदा नहीं हैं।

सोमवार सुबह 5.55 की ट्रेन से बेटी पूर्वा को जाना था। अलार्म बजा तो हम तीनों की नींद छूट गई। पूर्वा अपनी तैयारी करने लगी और उस की माँ उस के लिए नाश्ता बनाने में जुट गई। मैं फिर से सो गया। मुझे फिर पाँच बजे जगाया गया, कॉफी का प्याला सामने था। मैं ने उसे पिया और फिर मैं भी तैयार हो गया। साढ़े पाँच हम घर से निकले। पत्नी जी ने दूध लाने की बाल्टी भी साथ रख ली। पूर्वा की ट्रेन को रवाना कर हम छह बजे स्टेशन से चले और सीधे दूध वाले के यहाँ। वहाँ अंधेरा छाया हुआ था। रोड लाइटस् बंद हो चुकी थीं और अभी सुबह होनी शेष थी। हम ने दूध वाले के यहाँ कोई हलचल न देख सोचा अभी वह सो कर उठा ही नहीं है। हम अपनी कार में ही बैठे रहे। कुछ देर बाद दूध वाले के डेरे में कुछ रोशनी दिखाई दी। शायद चूल्हा सुलगाया गया था। हम उस के डेरे की ओर बढ़े तो दिखाई दिया कि वह कुछ दूध निकाल भी चुका था। उस ने बताया कि दो एक ग्राहक दूध ले कर जा भी चुके हैं। उस के यहाँ सामने दुहा दूध लेने वाले आते हैं इसलिए वह ग्राहक आने पर ही दूध निकालता है। वह इधर उधऱ के काम करता रहा। कुछ देर में एक ग्राहक और आया तब उस ने एक भैंस दुहना आरंभ किया। 

म दूध लेकर घर पहुंचे तो शरीर में थकान थी।  हुआ यूँ था कि मैं ने सुबह स्टेशन जाने के पहले पैर पर चोट के स्थान पर मल्हम लगा कर पट्टी कर ली थी। कुछ अधिक कस गई तो पैर दर्द करने लगा था। मैं फिर से बिस्तर पर लेट लिया। नौ बजे उठ कर निपटना आरंभ किया और ग्यारह बजे अदालत के लिए निकल पड़ा।  घुटने के एमसीएल की चोट में दर्द निवारक के सिवा कोई दवा नहीं होती है। असली दवा तो विश्राम है जो उस दिन कम मिला था। जल्दी में दवा लेना भूल गया। तो दर्द दिन में बढ़ता रहा। शाम को आया तो बहुत पीड़ा थी। मैं ने तुरन्त दर्द निवारक ली और लेट गया। कुछ देर बाद दर्द से छुटकारा मिला। रात को अचानक गैस सिलेंडर की गैस दगा दे गई। अपने एक कनिष्ठ को कहा तो उस ने गैस की व्यवस्था की। उस के बाद काम करने का मन न किया। ब्लाग अनवरत पर लिखने का मन होते हुए भी कुछ न लिखा और  तीसरा खंबा पर भी। जल्दी ही सोने चला गया। इस तरह रात को पूरे आठ घंटों का विश्राम मिल गया। सुबह उठा और पैर जमीन पर रखे तो एक दम ठीक थे। ऐसा लगा चोट पूरी तरह दुरुस्त हो गयी थी। अखबार में खबर थी दैनिक बिजली कटौती ग्यारह से एक के स्थान पर आज से आठ से दस बजे तक होगी। आठ बजने ही वाले थे। कुछ देर में बिजली चली गयी। अब काम तो हो नहीं सकता था। इसलिए आराम से निबटते रहे। आज दर्द नहीं था तो दर्द निवारक नहीं लिया बल्कि साथ रख लिया कि दर्द होने लगा तो अदालत में ही ले लिया जाएगा। अदालत में कुछ चलना फिरना हुआ तो हलका दर्द होने लगा। लेकिन मेरी चाल अन्य दिनों की अपेक्षा ठीक थी। फिर भी मैं ने दर्द निवारक ले ही ली। 

दालत से लौट कर कुछ विश्राम किया तो दर्द बिलकुल नहीं रहा। अभी भी नहीं है। इस से यह स्पष्ट हुआ कि चोट अब ठीक हो रही है। यदि वास्तव में कुछ दिन पैर को अधिक आराम दिया जाए घुटने पर कम से कम जोर डाला जाए तो बिलकुल ठीक हो लेगी। मेरी कोशिश यही रहेगी जिस से मैं जल्दी से जल्दी सामान्य हो सकूँ। 

शाम को खबर थी कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह पूछे जाने पर कि क्या वह सेना प्रमुख वी.के.,सिंह की उम्र संबंधी याचिका को निरस्त करने का आदेश वापस लेगी क्यों कि वह आदेश नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों के विपरीत लगता है,  सरकार ने तय किया है कि वह अपने आदेश को वापस नहीं लेगी और सेना प्रमुख की उम्र का विवाद न्यायालय को तय करने देगी। मुझे सरकार का यह रवैया ठीक नहीं लगा अपितु इस में सरकार के अहंकार की झलक दिखाई दी। आखिर जो निर्णय सरकार स्वयं कर सकती है उन्हें वह न्यायालयों पर क्यों छोड़ देती है। आखिर कानून और तथ्यों की रोशनी में जो निर्णय न्यायालय कर सकते हैं उन निर्णयों को सरकार क्यों नहीं कर सकती? भारत के न्यायालयों की सब से बड़ी पक्षकार सरकारें ही हैं। यदि सरकार स्वयं कानून के अनुसार तथ्यों के आधार पर उचित और न्यायपूर्ण निर्णय करने लगे तो अदालतों में काम का बोझ एकदम चौथाई कम हो सकता है। यदि वैसी स्थिति में भी सरकार के निर्णय को कोई चुनौती देता है तो न्यायालय तथ्यों और कानून की प्रारंभिक जाँच के आधार पर वैसी याचिकाओँ का निपटारा कर सकता है जिस में न्यायालयों का बहुत समय बच सकता है और सरकार भी अधिक विश्वसनीय हो सकती है। लेकिन लगता है वैसी सरकारें बनना अभी भारत के भविष्य में दूर दूर तक बदा नहीं हैं।

रविवार, 5 फ़रवरी 2012

नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों का अनुसरण करना ही होगा


सेना प्रमुख जनरल वी.के. सिंह की जन्मतिथि से सम्बन्धित विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय अंतिम रूप से क्या निर्णय देता है, यह अभी भविष्य के गर्भ में है। उस से पूर्व 30 दिसंबर को रक्षा मंत्रालय ने एक आदेश जारी कर जनरल की उस याचिका को निरस्त कर दिया जिस में उन की जन्मतिथि को सेना के रिकार्ड में 10 मई 1950 के स्थान पर 10 मई 1951 दर्ज करने का निवेदन किया गया था। सेना के रिकार्ड में उन की दोनों तिथियाँ उन की जन्मतिथि के रूप में दर्ज हैं। उन की जितनी भी पदोन्नतियाँ हुई हैं उन पर विचार करते समय उन की जन्मतिथि 10 मई 1951 ही मानी गई थी। पिछले शुक्रवार को जनरल की याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने अटार्नी जनरल से पूछा कि क्या सरकार अपने 30 दिसंबर के निर्णय को वापस लेना चाहेगी? क्यों कि वह नैसर्गिक न्याय सिद्धान्तों के विपरीत प्रतीत होता है। अटार्नी जनरल ने इस पर सर्वोच्च न्यायालय को कहा कि वे इस संबंध में सरकार से निर्देश प्राप्त करेंगे। सर्वोच्च न्यायालय के इस कथन से स्पष्ट है कि सेना प्रमुख की शिकायत पर निर्णय करने के पूर्व सुनवाई का अवसर प्रदान नहीं किया गया।  
किसी भी कर्मचारी या अधिकारी की शिकायत पर आदेश करने के पूर्व उसे सुनवाई का अवसर प्रदान करना, उसे अपने पक्ष के समर्थन में सबूत और तर्क प्रस्तुत करने का अवसर देना नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्त का प्रमुख अंग है। यदि देश की सरकार सेना प्रमुख की शिकायत का निस्तारण भी प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों का पालन किए बिना करती है तो इस से यह संदेश जाता है कि सरकार प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करने की परवाह नहीं करती।
किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध निर्णय करने के पूर्व उसे सुनवाई का अवसर दिया जाना महत्वपूर्ण जनतांत्रिक अधिकार है इस अधिकार की अवहेलना करना सरकार के चरित्र पर प्रश्न चिन्ह उत्पन्न करता है कि वह व्यवहार में जनतांत्रिक भी है अथवा नहीं। पिछले दिनों भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाए जाने के लिए जन-लोकपाल कानून को बनाने के लिए अन्ना टीम द्वारा किए गए जनान्दोलन पर सरकार की ओर से जोरो से यह प्रश्न उठाया गया था कि आखिर अन्ना टीम क्या है जिस की बात पर सरकार विचार करे। वे किस प्रकार से सिविल सोसायटी का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस बात पर जोर दिया गया था कि केवल चुनाव के माध्यम से चुन कर संसद और विधानसभाओं में पहुँचने वाले लोग ही सही जन प्रतिनिधि हैं।
लेकिन चुनाव के माध्यम से चुन कर संसद, विधानसभा और अन्य निकायों में पहुँच जाने से इन जनप्रतिनिधियों को किसी भी तरह के निर्णय जनता पर या जनता की इकाई किसी एक व्यक्ति पर अपना निर्णय थोप देने का अधिकार नहीं मिल जाता है। उन के द्वारा किए गए निर्णय साम्य, न्याय के सिद्धान्तों पर खरे उतरने चाहिए। तभी यह कहा जा सकता है कि देश में चुनी हुई सरकारें जनतांत्रिक पद्धति का अनुसरण कर रही है। वर्ना स्थिति यह बनती जा रही है कि चुनाव के माध्यम से बहुमत प्राप्त सरकार बना लेने को ऐसा माने जाने लगा है जैसे सरकार को पाँच वर्ष तक देश में तानाशाही चलाने का  अधिकार मिल गया है।
म इस घटना को इस परिदृश्य में भी देख सकते हैं कि यदि सरकार सेना प्रमुख को सुनवाई का अवसर प्रदान न कर के देश के सभी नियोजकों को यह संदेश देना चाहती है कि कर्मचारियों की शिकायतों पर निर्णय के लिए उन्हें सुनवाई का अवसर देने की कोई आवश्यकता नहीं है।  नियोजक कर्मचारियों पर अपनी मनमानी चला सकते हैं। यदि ऐसा संदेश नियोजकों तक पहुँचता है तो वे तो ऐसी मनमानी करने को तैयार बैठे हैं। वैसे भी देश में न्याय व्यवस्था की स्थिति ऐसी है कि कर्मचारी के विरुद्ध यदि कोई अन्याय हो और वह न्याय प्राप्त करने के लिए न्यायपालिका का रुख पकड़े तो उस मामले को नियोजक बरसों तक लटकाने में सफल रहते हैं। नियोजक मामले को सर्वोच्च न्यायालय तक ले जाने में समर्थ हैं जब कि इस के विपरीत एक कर्मचारी में इतनी भी शक्ति नहीं कि वह सर्वोच्च न्यायालय के किसी साधारण वकील से सलाह लेने की शुल्क अदा कर सके।
स मामले की सुनवाई विधिवत सुनवाई करने के पहले ही सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को यह संकेत दे कर सही ही किया है कि देश में सभी नियोजकों को किसी भी कर्मचारी की शिकायत पर निर्णय करने के पहले नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करना होगा और उसे अपने पक्ष के समर्थन में सुनवाई का अवसर देना होगा।

शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

ब्लाग पर फिर से वापस ..

प्ताह के अंतिम दिन अपनी उत्तमार्ध शोभा के साथ बाजार जाना पड़ा। वहाँ के काम निपटाते निपटाते ध्यान आया कि अदालत में कुछ काम हैं जो आज ही करने थे। मैं शोभा को घर छोड़ अदालत पहुँचा। काम मामूली थे आधे घंटे में हो लिए। तब ध्यान गया कि आज मौसम कुछ बदला बदला है। हवा झोंकों में चल रही थी और रह रह कर उन के साथ ही टीन की छतों पर गिरे पतझर के पत्ते धूल मिट्टी लिए नीचे गिर रहे थे। हवा में न गर्मी थी और न ही चुभोने वाली शीतलता, बस सुहानी लग रही थी। अब लगा कि वसंत ने न केवल आंगन में आ जमा है अपितु नृत्य भी कर रहा है।  फिर फागुन याद आया, उसे आने में भी बस तीन दिन शेष हैं। मुझे यह भी ध्यान आया कि यही फरवरी-मार्च के माह चिकित्सकों के लिए कमाई के माह कहे जाते हैं। फिर धीरे-धीरे वे सब सावधानियाँ स्मरण करता रहा जो इस मौसम में बरतने को बुजुर्ग कहा करते थे। अदालत में काम शेष न रहा तो आलस सा आने लगा, कुछ उबासियाँ भी आईं। मैं ने विचारा कि अब वापस घर के लिए प्रस्थान करना चाहिए। तभी मुझे अपना कनिष्ठ पुष्पेंद्र मिल गया। वह भी घर लौटने को था। हम दोनों अदालत से बाहर निकल अपने अपने वाहनों की ओर जा ही रहे थे कि वहाँ हमें एक पुस्तक प्रदर्शनी वाहन दिखाई दिया। पुष्पेंद्र ने सुझाव दिया कि कुछ पुस्तकें देखी जाएँ।
म दोनों वाहन में घुसे। यह नेशनल बुक ट्रस्ट का वाहन था। पुष्पेंद्र ने पूरे वाहन में चक्कर लगाया। वह कोई पुस्तक चुन नहीं पा रहा था। मेरे हाथ में एक पुस्तक थी जिस में आजादी की लड़ाई के मुकदमों का उल्लेख था। उस ने उसे ही चुन लिया फिर एक और पुस्तक चुनी और वह वाहन से नीचे उतर गया। कुछ पसंदीदा पुस्तकें मुझे दिखाई दीं, लेकिन वे मेरे पास पहले ही थीं। आखिर मैं ने कुल चार पुस्तकें चुनीं। विपिन चंद्रा की 'साम्प्रदायिकता' एक प्रवेशिका', 'अलबरूनी-भारत', 'बर्नियर की भारत यात्रा' और 'चीनी यात्री फाहियान का यात्रा विवरण'। पुस्तकों के दाम चुका कर वाहन से नीचे उतरा तो पुष्पेंद्र गायब था। आखिर मैं भी अपने वाहन से घर चला आया। रास्ते भर सोच रहा था कि इन चार पुस्तकों की खरीद की सूचना को यहाँ अपने ब्लाग पर छोड़ कर मैं अपने ब्लाग लेखन में आए विराम को तोड़ सकता हूँ।
पिछले अगस्त से ही अनवरत पर ब्लाग लेखन कुछ धीमा हुआ था। इस का कारण मेरी अतिव्यस्तता रही। लेकिन दिसंबर आते आते तो उस पर विराम ही लग गया जब मुझे अचानक 'हर्पीज जोस्टर' का सामना करना पड़ा। बीमारी का यह सिलसिला ऐसा चला कि अभी तक न रुक सका है। तीन सप्ताह हर्पीज का सामना किया। बाद में तेज जुकाम सर्दी हुई, फिर दाँत का दर्द और अब कोई बीस दिनों पहले अचानक अपनी ही गलती से बाएँ पैर के घुटने के पास स्थित मीडियल कोलेट्रल लिगामेंट चोटिल हो गया। यह एक गंभीर चोट है। मुख्य चिकित्सा कम से कम एक माह का पूर्ण विश्राम। पर एक सामान्य भारतीय के लिए यह कहाँ संभव है. फिर वकील के लिए तो बिलकुल संभव नहीं। वह इतना विश्राम करे तो वह तो शायद जीवित बच जाए, लेकिन उस के मुवक्किलों के तो प्राण ही निकल जाएँ। तो बंदा भी नित्य ही अपने घुटने पर मल्हम और आयोडेक्स लगा, पट्टी बांध, ऊपर एक नी-गार्ड चढ़ा कर, कम से कम एक गोली दर्द निवारक पेट के हवाले कर अदालत जा रहा है। वापस लौटने पर कम से कम एक डेढ़ घंटा बिस्तर पर बिताने के बाद ही इस हालत में आता है कि वह कुछ और काम कर सके। फिर भी इतना तो कर ही सकता है कि कुछ पढ़ लिख सके और ब्लाग पर आप से बतिया सके। तो आज से तय कर लिया है कि नित्य नहीं तो दो दिन में कम से कम एक दिन तो ब्लाग पर बातचीत होगी ही।

रविवार, 1 जनवरी 2012

शक्ति, जिस से लुटेरे थर्रा उठें

अनवरत के सभी पाठकों और मित्रों को नव वर्ष पर शुभकामनाएँ!!!
नया वर्ष आप के जीवन में नयी खुशियाँ लाए!!

भारतीय जनगण को इस वर्ष निश्चित रूप से विगत वर्षों की अपेक्षा अधिक शुभकामनाओं की आवश्यकता है। ऐसी शुभकामनाओं की जो उन्हें आने वाली विकट परिस्थितियों का सामना करने की शक्ति प्रदान करें। विगत वर्ष हम ने भारतीय जनगण के बीच उठता एक ज्वार देखा। इस ज्वार का उभार अप्रत्याशित तो नहीं था लेकिन वह था अद्भुत। देश की राजधानी की सड़कों पर लहलहाते हुए सैंकड़ों हजारों तिरंगे। हर कोई भारत माता की जय और इन्कलाब जिन्दाबाद के नारे लगाता हुआ। ऐसा लगता था यह उभार सब कुछ बदल डालेगा। एक और नामी गिरामी लोग भ्रष्टाचार के आरोप में जेल की चारदिवारी के भीतर थे तो दूसरी ओर जनता एक छोटे कद के गांधी टोपीधारी वृद्ध के पीछे चलती दिखाई देती थी। ऐसा लगता था जैसे इस देश से भ्रष्टाचार को समूल उखाड़ फेंका जाएगा। उस वृद्ध में एक दृढ़ता दिखाई देती थी। जीवन में किए गए संघर्षों और उन से प्राप्त सफलताओं की दृढ़ता। और उस दृढ़ता का नमूना हमें दिखाई भी दिया। सरकार उस वृद्ध की दृढ़ता, उस के पीछे उमड़ते जन सैलाब के सामने झुकती दिखाई दी। संसद ने एक संकल्प पारित किया कि वह जल्दी ही भ्रष्ट लोगों को पहचानने, उन्हें अभियोजित कर दंडित करने के लिए मजबूत कानून बनाएगी। 

सैलाब सिमट गया। जनता के प्रारूप पर विचार करते करते उसे एकदम गायब कर दिया गया और फिर एक सरकारी विधेयक संसद के सामने लाया गया जो एकदम सरकारी था। ठीक वैसा ही सरकारी जैसा होता है। सरकारी विधेयक के साथ जो प्रस्तावना और उद्देश्य जुड़े होते हैं कानून बनने के बाद अक्सर उस उद्देश्य के विपरीत परिणाम देने लगता है। मैं ठेकेदार श्रम (उन्मूलन) अधिनियम 1970 की याद दिलाना चाहता हूँ। जिस का उद्देश्य था कि वह उद्योगों में स्थाई प्रकृति के कामों की पहचान के लिए मशीनरी बनाएगा जिन में ठेकेदारी श्रम का उन्मूलन किया जाए। लेकिन हुआ उस का बिलकुल उलट। इस कानून ने ठेकेदारी श्रम को एक कानूनी जामा पहना दिया। यहाँ तक कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में भी अधिक से अधिक स्थाई प्रक्रियाएँ ठेकेदारों के हवाले कर दी गईं। फिर सीधे सीधे वे क्षेत्र भी जद में आ गए जहाँ कभी ठेकेदार श्रमिक थे ही नहीं। यहाँ तक कि बड़े बड़े नगरों के निगमों से लेकर छोटी छोटी नगर पालिकाएँ नगरों की सफाई के लिए ठेकेदारों के हवाले कर दी गईं। अब जिन श्रमिकों को वहाँ नियोजित किया जाता है उन्हें न्यूनतम वेतन तक नहीं मिलता। मिले भी कैसे न्यूनतम वेतन की दर पर तो ठेके दे दिए जाते हैं। फिर टैक्स, अफसरों और नेताओं को खिलाया जाने वाला धन ठेकेदार उसी में से निकालता है। जितने श्रमिक कागजों पर नियोजित किए जाते हैं उस से आधे श्रमिक भी वास्तव में नियोजित नहीं किए जाते। इस से एक लाभ तो यह होता है कि सरकार को बेरोजगारी की दर को कम दिखाने में सुभीता होता है और दूसरे नेताओं तथा अफसरों के घर काला धन आसानी से एकत्र होता रहता है। नगरों में गंदगी के ढेर लगे होते हैं। जिन के बीच जनता जीती रहती है। 

ठीक इसी तर्ज पर एक विधेयक आया और फिर स्थाई संसदीय समिति के वर्कशाप में डिजाइन करने को भेज दिया गया। कुछ महिनों बाद संसद ने वर्कशाप से डिजाइन हो कर आया हुआ विधेयक संसद के निचले सदन ने पारित कर दिया लेकिन उपरी सदन में बहुमत के चक्र में ऐसा पड़ा कि सरकार बचाना मुश्किल हो गया। आधी रात तक सदन चलाने के बाद सदन को स्थगित कर सरकार बचाई गई और ठीकरा विपक्ष के मत्थे थोप दिया गया। अब प्रधानमंत्री का बयान आ रहा है कि सरकार भ्रष्टाचार से लड़ने को कटिबद्ध है। वह संसद के अगले सत्र में एक मजबूत कानून बनाएगी। संसद में चल रही इस बहस के बीच एक बुरी बात यह हुई कि मजबूत कानून की मांग करने वाले वृद्ध और उस की टीम बीच मैदान में जनता विहीन हो गयी। मैदान खाली पड़ा रहा। फिर वृद्ध की सेहत की आड़ में आंदोलन स्थगित हो गया। आखिर राजधानी की सड़कों पर तिरंगे लहराने वाली जनता अचानक क्यों अपने घरों में वापस चली गई थी। 

नता कभी गलत फैसले नहीं करती। वह जान रही है कि भ्रष्टाचारियों को दंडित कराने के लिए कोई भी मशीनरी कोई भी कानून सफल नहीं हो सकता। अभी तो कानून बनने में पेच हैं, फिर उसे लागू करने में पेच होंगे उस के आगे फिर अदालती पेच-ओ-खम भी देखने होंगे। अर्थात यह सारा खेल बहुत लंबा है। फिर जिन्हों ने इस के पीछे आंदोलन करने का बीड़ा उठाया वे ही जब ये कहने लगें कि कानून भ्रष्टाचार नहीं मिटा सकेगा केवल उसे साठ प्रतिशत तक कम कर सकता है। कम हुए भ्रष्टाचार से जनता को राहत क्या मिलेगी? क्या महंगाई कम हो सकेगी? क्या पेट्रोल के दाम किसी स्तर पर बढ़ने से रुक जाएंगे। क्या बेरोजगारों को काम मिलने लगेगा? क्या बच्चों की पढ़ाई महंगी होना बन्द हो जाएगा? क्या न्यूनतम मजदूरी में कोई अपना पेट भर सकेगा और पेट भरने के बाद यदि बीमार हुआ तो क्या इलाज करवा सकेगा? क्या देश के सब लोगों को तन ढकने को पर्याप्त कपड़ा और रात को सोने के लिए छत मिल सकेगी? क्या उन्हें मरने के पहले अदालतों से न्याय मिल सकेगा? ऐसे ही बहुत से प्रश्न हैं जिन से जनगण रोज जूझता है। उसे आशा थी कि एक भ्रष्टाचार पर काबू पाने की कोई मशीनरी आ जाएगी तो उसे थोड़ी राहत मिलेगी। लेकिन पिछले छह माह में कानून पर बहस के दौरान जितने पेच-ओ-खम उस ने देखे हैं। उसे निराशा हुई है। वह जानने लगी है कि भ्रष्टाचार मिटाने की इस कानूनी किताब से उस के कष्टों में कोई कमी नहीं होने वाली है। यही कारण था कि जनगण फिर से अपने कामों में जुटा दिखाई देने लगा है।
नगण जानने लगा है कि कोई एक सूत्र है जो दिखाई नहीं देता है और इन सब बिन्दुओं को आपस में जोड़े रखता है। जब तक किसी भी आंदोलन के कार्यक्रम से जनता के सारे कष्टों में कमी के सूत्र आपस में जुड़ते न दिखाई देने लगें वह उस के साथ न जुड़ेगी। वह यह भी जानती है कि जब तक श्रमजीवी जनगण की संगठित मजबूत शक्ति ऐसी किसी भी लड़ाई के पीछे नहीं होगी वह लड़ाई उस का भाग्य बदलने की लड़ाई नहीं हो सकती। श्रमजीवी जनगण की मजबूत संगठित एकता का निर्माण स्वयं जनगण को ही करना होगा। हम जो लोग इस एकता की ताकत को समझ चुके हैं वे किसी न किसी स्तर पर इस के निर्माण के लिए भी जुटे हैं। तो देर किस बात की जो भी इस सूत्र पर विश्वास करता है वह आज से ही अपने घर, मुहल्ले, गांव, नगर, कार्य स्थल पर इस एकता के निर्माण में क्यों न जुट जाए? आज नव वर्ष पर जनगण के लिए सब से बड़ी और श्रेष्ठ शुभकामना  यही है कि इस वर्ष में जनगण अधिक से अधिक एकता का निर्माण करे और अधिक बड़ी शक्ति के रूप में उभर कर सामने आए। ऐसी शक्ति कि जिस से लुटेरे थर्रा उठें।

गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

वर्षान्त पर .....

र्षान्त आ गया है। इस बार वर्षान्त माह मेरे लिए भी भारतीय संसद की तरह बहुत खराब रहा। पहली ही तारीख को पता लगा कि खोपड़ी की ऊपरी सतह पर फैले तंत्रिका जाल के किसी तंतु में निष्क्रीय पड़ा विषाणु वेरीसेला जोस्टर सक्रिय हो उठा है। इस विषाणु से केवल शरीर का रक्षातंत्र ही लड़ सकता था। बाहरी मदद सहायता अवश्य कर सकती थी किन्तु इस लड़ाई में निर्णायक नहीं हो सकती थी।  मुझे द्वंदवाद का मार्क्सवादी नियम स्मरण हो उठा कि किसी वस्तु में होने वाले परिवर्तन के लिए केवल उस वस्तु की अन्तर्वस्तु ही निर्णायक हो सकती है, बाह्य शक्तियाँ नहीं। इस विषाणु के सक्रिय हो उठने पर शरीर में मचने वाले बवाल के बारे में अंतर्जाल पर जो कुछ जानकारी मिली उसे मैं आप के साथ पिछली पोस्ट आखिर बंद आँख खुल गई में सांझा कर चुका हूँ। उस के बाद का हाल ये रहा कि जहाँ जहाँ फफोले हुए थे वहाँ वहाँ धीरे धीरे पपड़ी आई और फिर निकली भी। खोपड़ी पर जहां चमड़ी के नीचे मांस नाम मात्र का होता है वहाँ तो नुकसान करने को अधिक कुछ था ही नहीं पर जैसे ही तंत्रिका खोपड़ी से नीचे ललाट पर आई तो वहाँ फफोले कुछ बड़े हुए और जब पपड़ी उतरी तो उस स्थान पर अंदर की ओर गड्ढे दिखाई देने लगे। ललाट पर अब इन  की संख्या चार हैं लेकिन वे धीरे-धीरे भर रहे हैं। फिलहाल इन्हों ने शक्ल की सूरत बिगाड़ कर रखी है। ललाट पर कुछ धब्बे दिखाई दे रहे हैं, मुझे आशा है कि वे अस्थाई ही होंगे। पर पान वाले ने मुझे सोवियत संघ का आखिरी राष्ट्रपति गोर्बाचोव घोषित कर दिया है।

र्पीज का असर कम हुआ ही था कि अचानक एक रात नाक में जलन आरंभ हो गई। इतनी तेज की रात भर उस ने सोने न दिया। घर में रखी कुछ दवाओं का प्रयोग भी काम न आया। सुबह तक नाक को घोषित रूप से जुकाम हो गया। उसी दिन तंत्रिका विशेषज्ञ चिकित्सक से मुलाकात होनी थी। उस ने एक एलर्जीविरोधी लिख गोली लिख दी जो पाँच दिनों तक रोज एक खाना था। दो दिन तक नाक पूरी तरह बंद रही। जैसे जलूस के दिन रास्ते बंद कर दिए जाते हैं और बाईपास से निकलना पड़ता है। मेरे श्वसन तंत्र ने भी इस आपात काल में मुख की राह पकड़ी। तीसरे दिन नाक का रास्ता यदा-कदा खुलना आरंभ हुआ। पाँचवें दिन वह पूरी तरह खुल गया। जुकाम से निजात मिली। लेकिन अभी कुछ और भुगतना शेष था।

29 दिसम्बर की शाम का भोजन करते हुए अचानक एक छोटा सा कंकड बाईं दाढ़ों के बीच आ गया। ऊपर की दाढ़ हिली और अचानक दर्द हुआ। मैं ने कंकड़ निकाल फैंका। पानी से कुल्ला किया और भोजन पूरा किया। भोजन से उठते ही दाढ़ में फिर दर्द उठा जिस ने मुझे ने बैचेन कर दिया। घर में रखी दातों पर ब्रश, और घर में रखी दवाइयों ने कोई असर नहीं किया। दर्द कभी कम हो जाता तो फिर से बढ़ जाता। आखिर रात दो बजे ध्यान आया कि लोंग का तेल दांत दर्द में रामबाण है ऐसा लोग कहते हैं। पर घर में लोंग का तेल तो नहीं था। लोंग का डब्बा तलाश किया गया। तीन-चार लोंगें निकाल कर चबाई गईं और उन से  बनी लुगदी को जीभ की मदद से दाँत और मसूड़े के उस हिस्से पर चिपका दिया जहाँ दर्द उठा था। कमाल हो गया। दो मिनट भी न निकले होंगे कि दर्द वैसे गायब हुआ जैसे गधे के सिर से सींग। आज उस दर्द के उठने से डर लगता रहा। उस दाढ़ के नीचे कुछ न आ जाए इस बात की सावधानी रखी गई। दवाएँ आरंभ कर दी हैं। देखते हैं क्या होता है। वैसे इन दांतों के साथ मैं ने भी अत्याचार कम नहीं किया। इन का इस्तेमाल ठीक उस दास-स्वामी की तरह किया जो अपने दास को बस इतना देता है कि वह मर न जाए और काम कस के लेता है।   कुल मिला कर यह वर्षान्त इस सूचना के साथ समाप्त हुआ कि दिनेशराय द्विवेदी! सावधान हो जाओ! जीवन का सत्तावनवाँ वर्ष है, अब तुम्हारे पहले वाले दिन नहीं रहे, जीवन जरा सावधानी से जिओ।

स महिने संतोषप्रद काम ये हुआ कि कानूनी मामलों के ब्लाग 'तीसरा खंबा' को अपने डोमेन की साइट में परिवर्तित होने की प्रक्रिया लगभग पूरी हो गयी। आज रात्रि को जैसे ही वर्ष बदलेगा वैसे ही ब्लॉगस्पॉट का ब्लाग तीसरा खंबा बंद हो जाएगा फिर उसे न आप देख सकेंगे और न मैं देख सकूंगा। लेकिन उस के साथ ही  तीसरा खंबा साइट अपने डोमेन <teesarakhamba.com> पर दिखाई देने लगेगी। आशा है इस नए रूप को पाठकों का वही सहयोग प्राप्त होता रहेगा जो ब्लाग के रूप में हो रहा था। इस माह अनवरत पर नियमितता बुरी तरह टूटी। लेकिन समझता हूँ कि मैं नए वर्ष के आरंभ के साथ ही पुन नियमित हो लूंगा।

यह इस वर्ष की आखिरी पोस्ट है। नए वर्ष में फिर मिलेंगे ....


 
   सभी पाठकों, ब्लागर मित्रों को 
नए वर्ष की बहुत बहुत शुभकामनाएँ!!!


मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

राज्य, उत्पीड़ित वर्ग के दमन का औजार : बेहतर जीवन की ओर -16

स श्रंखला की छठी कड़ी में ही हम ने यह देखा था कि मानव गोत्र समाज वर्गों की उत्पत्ति के उपरान्त वर्गों के बीच ऐसे संघर्ष को रोकने के लिए एक नई चीज सामने आती है। यह नई चीज आती समाज के भीतर से ही है लेकिन वह समाज के ऊपर स्थापित हो जाती है और स्वयं को समाज से अलग चीज प्रदर्शित करती है। यह नई चीज राज्य था। राज्य की उत्पत्ति इस बात की स्वीकारोक्ति थी कि समाज ऐसे अन्तर्विरोधों में फँस गया है जिन्हें हल नहीं किया जा सकता, जिन का समाधान असंभव है। विरोधी आर्थिक हितों वाले वर्गों व्यर्थ के संघर्ष में पूरे समाज को नष्ट न कर डालें इस लिए इस संघर्ष को व्यवस्था की सीमा में रखे जाने का कार्यभार यह राज्य उठाता है, यही राज्य की ऐतिहासिक भूमिका है। इस तरह हम देखते हैं कि राज्य असाध्य वर्गविरोधों की उपज और अभिव्यक्ति है। राज्य उसी स्थान, समय और सीमा तक उत्पन्न होता है जहाँ, जिस समय, जिस सीमा तक वर्गविरोधों का  समाधान असम्भव हो जाता है। 

हाँ यह भ्रम उत्पन्न किए जाने की पूरी संभावना है कि यह कहना आरंभ कर दिया जाए कि वस्तुतः राज्य वर्गीय समन्वय के लिए एक औजार है। इस संभावना का इतिहास में अनेक राजनीतिकों ने भरपूर उपयोग किया और लगातार किया भी जा रहा है। लेकिन यह केवल भ्रम मात्र ही है कि राज्य वर्गीय समन्वय का औजार है। यदि उसे औजार मान भी लिया जाए तो यह बिलकुल इस्पात की उस आरी की तरह है जिस से हीरे को तराशने का काम लिया जा रहा हो। अव्वल बात तो यह है कि वर्गीय समन्वय बिलकुल असंभव है, यदि यह संभव होता तो राज्य के उत्पन्न होने और कायम रहने की आवश्यकता ही नहीं थी। वस्तुतः राज्य वर्ग प्रभुत्व का औजार है और एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के उत्पी़ड़न का अस्त्र है।  वह ऐसी व्यवस्था का सृजन है जो वर्गीय टकरावों को मंद कर के इस उत्पीड़न को कानूनी रूप प्रदान कर मजबूत बनाती है। कानूनी उत्पीड़न को बनाए रखने के लिए उसे सशस्त्र संगठनों की आवश्यकता होती है। 

गोत्र समाज में आबादी के स्वतः कार्यकारी सशस्त्र संगठन बनते थे। ये संगठन बाहरी लोगों से झगड़ों को सुलझाने के अंतिम उपकरण के रूप में उत्पन्न हो कर कार्य संपादन करते थे और जैसे ही कार्य संपादित हो चुका होता था .ये संगठन आम लोगों में परिवर्तित हो जाते थे। लेकिन जैसे ही वर्ग उत्पन्न हो गए इस तरह के स्वतः कार्यकारी संगठन असंभव हो गए। वैसी स्थिति में एक सार्वजनिक सत्ता की स्थापनी की गई जिस में न केवल सशस्त्र दल ही नहीं, जेलखाने, पुलिस, विभिन्न प्रकार की दमनकारी संस्थाएँ और भौतिक साधन भी सम्मिलित किए गए जिन का गोत्र समाज में कोई स्थान नहीं था। स्थाई फौज और पुलिस राज्य सत्ता के मुख्य उपकरण हो गए। 

लेकिन अपनी पहल पर काम करने वाली आबादी का सशस्त्र संगठन क्या संभव रह गया था? समाज के वर्गों में बँट जाने से जिस सभ्य समाज की स्थापना हुई थी वह शत्रुतापूर्ण बल्कि असाध्य रूप से शत्रुतापूर्ण वर्गों में बँटा हुआ था जिस में अपनी पहल पर काम करने वाली आबादी की हथियार बंदी से वर्गों के बीच सशस्त्र संघर्ष छिड़ जाता। इसी चीज को रोकने के लिए तो समाज के भीतर से राज्य की उत्पत्ति हुई थी। इस कारण राज्य को ऐसा संगठन चाहिए था जो अपनी पहल पर काम करने के स्थान पर उस के इशारे पर काम करे। लेकिन बावजूद इस के कि राज्य के पास फौज, पुलिस, जेलें और अन्यान्य दमनकारी संस्थाएँ थी, वह कभी भी वर्ग समन्वय में कामयाब नहीं हो सका। समय समय पर समाज में क्रांतियाँ हुईं जिन्हों ने समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग के इशारे पर काम करने वाले राज्य के उस ढाँचे को तोड़ डाला। लेकिन जो भी नया वर्ग प्रभुत्व में आया उसी ने फिर से अपनी सेवा करने वाले हथियारबंद लोगों के संगठनों को फिर से कायम करने के प्रयत्न किए और उन्हें कायम किया। केवल यह अकेली बात ही यह साबित करती है कि राज्य वस्तुतः उत्पीड़क वर्ग/वर्गों का उत्पी़ड़ित वर्गों पर प्रभुत्व बनाए रखने का औजार मात्र है। 

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

लालच, विकास की मूल प्रेरणा : बेहतर जीवन की ओर-15

ब तक हम ने देखा कि मनुष्य का जीवन बेहतर तभी हो सकता था जब कि उसे पर्याप्त भोजन, आवास और वस्त्र मिल सकें। प्रकृति में शारीरिक रुप से अत्यन्त कमजोर प्राणी को ये सब आसानी से प्राप्त होने वाली नहीं थीं। अपने प्राणों की रक्षा के लिए किए गए श्रम ने ही उसे वानर से मनुष्य बनाया था। इसी श्रम ने उस के मस्तिष्क को अन्य प्राणियों की अपेक्षा अधिक विकसित किया। वह औजारों का निर्माण और उपयोग करने लगा और धीरे धीरे पशुपालन के साथ ही उस ने जीवन के लिए आवश्यक वस्तुएँ सीधे प्रकृति से प्राप्त करने के स्थान पर उन का उत्पादन करना आरंभ किया और कालान्तर में उत्पादन का विकास भी। उत्पादन के विकास के आरंभिक चरण में ही उस की श्रम शक्ति इस योग्य बन गई थी कि वह जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक से काफी अधिक पैदा करने लगा था। इसी अवस्था में श्रम-विभाजन और व्यक्तियों के बीच उत्पादन के विनिमय का आरंभ हुआ। लेकिन कुछ समय बाद ही उस ने मनुष्य को दास बना कर यह आविष्कार भी कर लिया कि मनुष्य स्वयं भी माल हो सकता है और उस का विनिमय भी किया जा सकता है। विनिमय के प्रारंभिक चरण में ही मनुष्यों का भी विनिमय आरंभ हो गया। यह मनुष्य समाज का शोषित और शोषक वर्गों में पहला बड़ा विभाजन था। दास-प्रथा के रूप में शोषण का यह रूप मध्ययुग में भूदास-प्रथा  और आज उजरती श्रम की प्रथाओं में परिवर्तित हो चुका है। 

भ्यता का युग माल उत्पादन की जिस स्थिति में आरंभ हुआ था उस में धातु की मुद्रा का प्रयोग होने लगा था और मुद्रा, पूंजी, सूद और सूदखोरी का चलन हो गया। उत्पादकों के बीच बिचौलिए व्यापारी आ खड़े हुए। भूमि पर निजि स्वामित्व स्थापित हो गया और रहन की प्रथा का प्रचलन आरंभ हो गया। दास श्रम उत्पादन का मुख्य रूप हो गया। इसी के साथ परिवार का रूप भी बदला वह एकनिष्ठ परिवार में परिवर्तित हो गया जिस में स्त्री पर पुरुष का प्रभुत्व स्थापित हुआ और प्रत्येक परिवार समाज की एक आर्थिक इकाई हो गया। समाज को जोड़ने वाली शक्ति के रूप में राज्य सामने आया जो वस्तुतः केवल शासक वर्ग का राज्य होता है और जो मूल रूप से उत्पीड़ित शोषित वर्गों को दबा कर रखने के का एक औजार मात्र है। सामाजिक श्रम विभाजन के रूप में नगर और गाँवों में स्थाई रूप से विरोध स्थापित हो गया। दूसरी ओर वसीयत की प्रथा आ गई जिस के माध्यम से सम्पत्ति का स्वामी अपनी मृत्यु के बाद भी अपनी संपत्ति का इच्छानुसार निपटारा कर सकता है। य़ह प्रथा पुराने गोत्र समाज के पूरी तरह प्रतिकूल थी जिस में संपत्ति गोत्र के बाहर नहीं जा सकती थी। 

न तमाम प्रथाओं की सहायता से सभ्यता ने वे सभी महान कार्य कर दिखाए जो गोत्र समाज की सामर्थ्य में नहीं थे। लेकिन ये सब काम उस ने मनुष्य की सब से निम्न कोटि की मनोवृत्तियों और आवेगों को उभारते हुए तथा उस की तमाम अन्य क्षमताओं को हानि पहुँचाते हुए किए। सभ्यता के उदय से आज तक लालच ही उस के मूल में रहा है। बस धन अर्जित करना, और अधिक धन अर्जित करना जितना अधिक किया जा सके उतना धन अर्जित करना। लेकिन स्थाई मनुष्य समाज का धन नहीं, एक अकेले व्यक्ति का धन। उस व्यक्ति का धन जिस का जीवन केवल कुछ दिनों, कुछ महिनों या कुछ सालों का है। बस यही सभ्यता का एक मात्र निर्णायक उद्देश्य हो गया। यदि इस के साथ विज्ञान का विकास भी होता रहा और समय समय पर कला के उच्च विकसित युग भी आते रहे तो मात्र इस लिए कि  धन इकट्ठा करने में जो सफलताएँ प्राप्त हुई हैं वे सब विज्ञान और कला की इन उपलब्धियों के बिना प्राप्त करना संभव नहीं था।