गणितीय और जनसंख्या विज्ञान की स्नातकोत्तर पूर्वाराय द्विवेदी जनसंख्या विज्ञानी है और वर्तमान में वर्तमान में जनस्वास्थ्य से जुड़ी एक परियोजना में शोध अधिकारी है। 2011 के भारत की जनगणना के प्रारंभिक परिणाम सामने आए तो मैं ने उस से पूछा कि परिणाम जानने के बाद उस की पहली प्रतिक्रिया क्या है? तो उस ने यह आलेख मुझे प्रेषित किया।
लड़कियों का घर कहाँ है?
-पूर्वाराय द्विवेदी
जनगणना 2011 के अनन्तिम परिणाम आ चुके हैं, जो कुछ अच्छे तो कुछ बुरे हैं। पर लगता है इस बार सरकार वाकई चौंक गई है। छह वर्ष तक के बच्चों के लिंग अनुपात में जिस तरह से गिरावट आई है उसे देख कर ये तो पता लग ही रहा है कि सरकार और गैर सरकारी संस्थाओं के द्वारा चलाई गए कार्यक्रम कितने सफल रहे हैं। हरियाणा (830) और पंजाब (846) ने छह वर्ष तक के बच्चों में न्यूनतम लिंग अनुपात में बाजी मारी है, तो दिल्ली भी पीछे नहीं है। 1981 से 2011 तक के जनगणना परिणामों पर नजर डालें तो लड़कियों की संख्या लड़कों के मुकाबले कम ही होती गयी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम जैसे-जैसे आर्थिक-तकनीकी रूप से विकसित हो रहे हैं, हमारी सोच गिरती जा रही है?
केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफाइल के आँकड़ों के अनुसार 2009 में मध्य प्रदेश में सर्वाधिक कन्या-भ्रूण हत्या के 23 व कन्या-शिशु मृत्यु के 51 मामले मिले हैं। ये तो वे मामले हैं जो पता चले हैं। न जाने कितने और मामले ऐसे होंगे जिन का पता ही नहीं लगता। पहले हुए अध्ययनों के अनुसार हमारे देश में रोज 2000 लड़कियाँ गायब हो रही हैं, यह आँकड़ा पूरे वर्ष के लिए 5 से 7 लाख तक जाता है। यह सब कन्या-भ्रूण हत्या का सीधा परिणाम है। जिस परिवार में एक लड़की है, वहाँ इस बात के 54% अवसर हैं कि दूसरी लड़की जन्म लेगी। दिल्ली के एक अस्पताल में जब कुछ औरतों से पूछा गया कि आप कितनी खुश हैं? तो एक औरत बोली कि वह अभी तनाव में है, क्योंकि उसने लड़की को जन्म दिया है, वह अभी अपने पति से नहीं मिली है, उसे आशा करती है कि उस का पति लड़की पैदा होने से खुश ही होगा। एक अन्य औरत खुश और निश्चिंत है क्योंकि उसने लड़के को जन्म दिया है। उस के एक लड़की पहले से ही है और वह जानती है कि उस का पति खुश होगा और परिवार वाले भी खुशियाँ मना रहे होंगे। हमारे यहाँ तो शायद माँ बन कर भी औरत को सुकून नहीं मिलता, खुशी तो बहुत दूर की बात है।
सरकार कह रही है कि जहाँ कन्या-भ्रूण हत्या और कन्या-शिशु मृत्यु दर अधिक है, वहाँ वह भ्रूण-लिंग-परीक्षण तकनीक कानून को अधिक कड़ाई से लागू करेगी। पर क्या वास्तव में वह ऐसा कर सकेगी? हरियाणा सरकार तो लड़की होने पर धन भी दे रही है फिर भी वह कन्या-भ्रूण हत्या और कन्या-शिशु मृत्यु-दर को कम नहीं कर पा रही है। हमें पता नहीं लगता जब तक कि हमें अखबार या मीडिया ये नहीं बताता है कि पुलिस ने आज यहाँ छापा मारा, यहाँ इतनी लड़कियों के कंकाल दबे मिले। वे कहते हैं ना कि जब प्यास लगती है तो प्यासा कुआँ तलाश कर ही लेता है। ऐसा ही यहाँ है, जब किसी को लड़की नहीं चाहिए तो वह उस से छुटकारा पाने का तरीका भी तलाश लेता है।
यदि सरकार कन्या-भ्रूण हत्या और कन्या-शिशु मृत्यु को रोक भी लेती है तो वह लड़कियों की स्थिति को कैसे सुधारेगी? वह एक लड़की को कैसे यह सोचने से बचाएगी कि उसने पैदा हो कर कितनी बड़ी गलती की है? क्या उसे अपने ही भाइयों और उस में किया गया फर्क नजर नहीं आएगा? जब उसे इंजीनियरिंग करने से इसलिए रोका जाएगा कि उस में बहुत पैसा लगता है, तू तो बी.एड. कर ले। पर उस के भाई को इंजीनियरिंग नहीं भी करनी हो तो उसे बैंक से ऋण ले कर इंजीनियरिंग करवायी जाएगी। मुझे महिने में कम से कम एक बार कोई न कोई ऐसा जरूर मिलता है जो अपने ही बच्चों में फर्क करता है। मैं दो साल से हरियाणा के एक अस्पताल से सम्बद्ध हूँ, मैं ने आज किसी ने लड़की पैदा होने की खुशी में मिठाई बाँटते नहीं देखा। लेकिन लड़का पैदा होने पर पूरे गाँव में मिठाई बँटती देखी है।
मेरे लिए जनगणना-2011 के ये परिणाम चौंकाने वाले नहीं हैं। मुझे हरियाणा में काम करते हुए दो वर्ष हो गए हैं, और इन दो सालों में मैं ने यहाँ इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट के साथ-साथ लिंग-अनुपात में कमी होते देखी है। शिशु-मृत्यु दर लड़कियों में लड़कों के मुकाबले अधिक है। हालाँकि मेडीकल साइंस कहती है कि जैविक रूप से लड़कियाँ लड़कों से अधिक मजबूत होती हैं। जैसे सरकार देश की जनगणना करती है, वैसी जनगणना हम अपने क्षेत्र में हर साल करते हैं। सरकार को दस साल में एक बार धक्का लगा, हमें हर साल लगता है। क्योंकि इतनी कोशिश करने के बाद भी हम लड़कियों की संख्या नहीं बढ़ा पा रहे हैं। बल्कि वह और कम होती जा रही है। चिकित्सकीय दृष्टि से जितने कारण हमें शिशु मृत्यु के मिलते हैं, हम सभी को सुलझाने की कोशिश करते हैं। पर लोगों को अपनी ही बेटियों से पीछा छुड़ाने के नए साधन मिल गए हैं। क्या लड़कियाँ सच में इतना बोझ हैं कि उन से जीने का अधिकार ही छीन लिया जाए? जो बेटी कल हमें जिन्दगी देगी, हम उस से उसी की जिन्दगी छीन रहे हैं? आदमी अपनी बेटी की जिन्दगी लेने से पहले यह क्यों भूल जाता है कि उसे जन्म देने वाली, बड़ा करने वाली भी एक औरत ही है। कहीं ऐसा न हो, आज तुम जिसे ठुकरा रहे हो कल वही तुम्हें ठुकरा दे?
आज मुझे ये सारे आँकड़े बिलकुल चौंकाते नहीं हैं। लड़के और लड़की में इतना फर्क किया जाता है, यह मुझे तब तक पता नहीं लगा जब तक मैं पढ़ने के लिए घर से बाहर नहीं गई। स्नातक होने के बाद मुझे गणित में स्नातकोत्तर डिग्री करनी थी। उस वक्त हमारे शहर में गणित में एम.एससी. किया जा सकता था, लेकिन मैं वहाँ पढ़ना नहीं चाहती थी। इंजीनियरिंग का विकल्प को तो मैं पहले ही अलविदा कर चुकी थी, मुझे इंजीनियरों की भीड़ में शामिल नहीं होना था। मैं ने घर में बोल दिया कि यदि मुझे शहर से बाहर एम.एससी. में प्रवेश नहीं मिला तो मैं नहीं पढ़ूंगी। सौभाग्य से मुझे बाहर एक नामी संस्थान में प्रवेश मिल गया। वहाँ जा कर पता लगा कि लड़के और लड़की में कितना फर्क किया जाता है? मुंबई जा कर पता चला कि हालात कितने खराब हैं? एक लड़की को पैदा करने के लिए औरत कितने ताने सुनती है, और कभी-कभी मार भी खाती है। उस के पास तो ये अधिकार भी नहीं है होता कि वह किसे पैदा करे? सब सोचते हैं कि शिक्षा से बहुत फर्क पड़ेगा। पर शिक्षित लोग ही जब इस तरह की सोच रखते हैं तो क्या फर्क पड़ेगा? हमारे यहाँ एक पढ़ी लिखी लड़की खुद शादी के बाद अपने निर्णय नहीं ले सकती। कोई क्यों लड़की को पैदा करना चाहेगा? जब कि वह पराया-धन है। क्यों वह उस पर ऋण ले कर पढ़ाई के लिए धन खर्च करेगा? जब कि कल उसे उस के दहेज में भी धन देना होगा। शादी के बाद एक लड़की से ये उम्मीद की जाती है कि वह अपने सास-ससुर को माँ-बाप माने, पर क्या लड़के अपने सास-ससुर को माँ-बाप मानते हैं। शायद सब को लगता है कि लड़कों में ही भावनाएँ होती हैं, लड़कियों में नहीं। तभी तो सब उम्मीद करते हैं कि एक लड़की अपने मायके वालों पर कम, ससुराल वालों पर अधिक ध्यान दे।
मेरे एक मौसेरे भाई ने पूछा कि लड़कियाँ अपनी शादी में इतना क्यों रोती हैं? तो मेरा जवाब था कि शादी के बाद लड़की न इधर की होती है और न उधर की, इसलिए रोती है। उस का कुछ नहीं रहता है। एक उस का मायका है और एक उस का ससुराल। पर उस का घर कहाँ है? मैं ने कभी किसी लड़के को ये कहते नहीं सुना कि ये उसका मायका है, उसका ससुराल अवश्य होता है। हम कैसे उम्मीद करें कि ये सब सुधर जाएगा? जब कि हम खुद उसे नहीं सुधारना चाहते हैं। जो चाहते हैं वे कोशिश नहीं करते। जब तक हम सामाजिक सोच को नहीं बदलेंगे, तब तक कुछ नहीं बदलेगा। सिर्फ कानून बनाने से किसी को नहीं बचाया जा सकता। अगर बचाना है तो हमें लोगों की सोच बदलनी पड़ेगी। यह करने से पहले हमें अपनी सोच बदलनी पड़ेगी।