@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शनिवार, 2 अक्टूबर 2010

अलविदा !!!!...................... नहीं! ................. शिवराम हमारे बीच मौजूद हैं............................. यह आंधी नहीं थमेगी.............



शिवराम ने कल हम से अचानक विदा ले गए.......
भास्कर कोटा संस्करण ने आज समाचार प्रकाशित किया...........


अंतिम यात्रा के कुछ चित्र...............

ट्रेड यूनियन कार्यालय छावनी कोटा पर अंतिम दर्शन

लाल झंडे से लिपटे हुए




































































 उदयपुर से आए पार्टी साथी


पार्टी साथी पुष्पांजली अर्पित करते

अभिन्न ट्रेड यूनियन साथी महेन्द्र पाण्डे और विजय शंकर झा

छोटे पुत्र पवन के कंधों पर

चिता पर

पुत्र रविकुमार

चिता को अग्नि देते पुत्र रविकुमार पौत्र और पौत्री चीया

इंकलाब जिन्दाबाद का उद्घोष करता पुत्र रविकुमार अपनी पुत्री और पुत्र के साथ

शरीर अग्नि को समर्पित

पुत्र रविकुमार और पौत्री चीया चिता के निकट

चिता के चारों और सम्मान में झुके लाल झंडे

शिवराम नहीं हैं,  लेकिन आग शेष है

श्मशान पहुँचा एक अपंग मजदूर साथी

शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010

सर्वहारा वर्ग ने अपना एक योद्धा और सेनापति खो दिया

भी शिवराम जी के घर से लौटे हैं। हम शाम को जब उन के घर पहुँचा तो घर के बाहर भीड़ लगी थी, जिन में नगर के नामी साहित्यकार, नाट्यकर्मी, ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता, दूरसंचार कर्मचारी और बहुत से नागरिक थे। शिवराम के बडे पुत्र रवि कुमार (जिन्हें आप सृजन और सरोकार ब्लाग के ब्लागर के रूप में जानते हैं) आ चुके थे, सब से छोटे पुत्र पवन दो माह पूर्व ही कोटा में नया नियोजन प्राप्त कर लेने के कारण कोटा में ही थे। मंझले पुत्र शशि का समाचार था कि वह परिवार सहित ट्रेन में चढ़ चुका है और सुबह चार-पाँच बजे तक कोटा पहुँच जाएंगे। बेटी के भी दिल्ली से रवाना हो चुकने का समाचार मिल चुका था। सभी शोकाकुल थे। छोटे भाई और शायर पुरुषोत्तम 'यक़ीन' शोकाकुल हो कर पूरी तरह पस्त थे और कह रहे थे आज मैं यतीम हो गया हूँ। हम करीब दो घंटे वहाँ रहे। शिवराम अब चुपचाप लेटे थे। मैं जानता था, वह आवाज जिसे मैं पिछले 35 वर्षों से सुनने का अभ्यस्त हूँ अब कभी सुनाई नहीं देगी। उन की आवाज हमेशा ऊर्जा का संचार करती थी। वैयक्तिक क्षुद्र स्वार्थों से परे हट कर मनुष्य समाज के लिए काम करने को सदैव प्रेरणा देता यह व्यक्तित्व सहज ही हमें छोड़ कर चला गया। डाक्टर झा से वहीं मुलाकात हुई। बता रहे थे कि जैसा उन का शरीर था और जिस तरह वे अनवरत काम में जुटे रहते थे हम सोच भी नहीं सकते थे कि उन्हें इस तरह हृदयाघात हो सकता है कि वह अस्पताल तक पहुँचने के पहले ही प्राण हर ले।
शिवराम दोपहर तक स्वस्थ थे। सुबह उन्हों ने अपने मित्रों को टेलीफोन किए थे। कल शाम कंसुआँ की मजदूर बस्ती में एक मीटिंग को संबोधित किया था। दोपहर भोजन के उपरांत उन्हों ने असहज महसूस किया और सामान्य उपचार को नाकाफी महसूस कर स्वयं ही पत्नी और मकान में रहने वाले एक विद्यार्थी को साथ ले कर अस्पताल पहुँचे थे। अस्पताल में जा कर मूर्छित हुए तो फिर चिकित्सकों का कोई बस नहीं चला। उन की हृदयगति सदैव के लिए थम गई थी। मात्र 61 वर्ष की उम्र में इस तरह गए कि अनेक लोग स्वयं को अनाथ समझने लगे।
शिवराम का जन्म 23 दिसंबर 1949 को राजस्थान के करौली नगर में हुआ था। पिता के गांव गढ़ी बांदुवा, करौली और अजमेर में शिक्षा प्राप्त की। फिर वे दूर संचार विभाग में तकनीशियन के पद पर नियुक्त हुए। दो वर्ष पूर्व ही वे सेवा निवृत्त हुए थे। वे जीवन के हर क्षेत्र में सक्रिय रहे। अपने विभाग में वे कर्मचारियों के निर्विवाद नेता रहे। वे एक अच्छे संगठनकर्ता थे। प्रारंभ में वे स्वामी विवेकानंद से बहुत प्रभावित थे। लेकिन उस मार्ग पर उन्हें समाज में परिवर्तन की गुंजाइश दिखाई नहीं दी। बाद में वे मार्क्सवाद के संपर्क में आए, जिसे उन्हों ने एक ऐसे दर्शन के रूप में पाया जो कि दुनिया और प्रत्येक परिघटना की सही और सच्ची व्याख्या ही नहीं करता था। यह भी बताता था कि समाज कैसे बदलता है। वे समाज में परिवर्तन के काम में जुट गए। उन्हों ने अपनी बात को लोगों तक पहुँचाने के लिए नाटक और विशेष रूप से नुक्कड़ नाटक को सब से उत्तम साधन माना। वे नुक्कड़ नाटक लिखने और आसपास के लोगों को जुटा कर उन का मंचन करने लगे। उन का नाटक 'जनता पागल हो गई है' हिन्दी के प्रारंभिक नुक्कड़ नाटकों में एक है। यह हिन्दी का सर्वाधिक मंचित नाटक है। इस नाटक और शिवराम के अन्य कुछ नाटक अन्य भाषाओं में अनुदित किए जा कर भी खेले गए। वे नाट्य लेखक ही नहीं थे, अपितु लगातार उन के मंचन करते हुए एक कुशल निर्देशक और अभिनेता भी हो चुके थे। वे पिछले 33 वर्षों से हिन्दी की महत्वपूर्ण साहित्यिक लघु पत्रिका 'अभिव्यक्ति' का संपादन कर रहे थे। 
साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में सांगठनिक काम के महत्व को वे अच्छी तरह जानते थे। आरंभ में प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे। जनवादी लेखक संघ के संस्थापकों में से वे एक थे। लेकिन जल्दी ही सैद्धान्तिक मतभेद के कारण वे अलग हुए और अखिल भारतीय जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा 'विकल्प' के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। वर्तमान में वे 'विकल्प' के महासचिव थे। मूलतः सृजनधर्मी होते हुए भी संघर्षशील जन संगठनों के निर्माण को वे समाज परिवर्तन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते थे और संगठनों के निर्माण का कोई अवसर हाथ से न जाने देते थे। वे सांस्कृतिक और सामाजिक कार्यकर्ता के साथ-साथ प्रभावशाली वक्ता थे। लोग किसी भी सभा में उन्हें सुनने के लिए रुके रहते थे। एक अध्येता और चिंतक थे। श्रमिक-कर्मचारी आंदोलनों में स्थानीय स्तर से ले कर राष्ट्रीय स्तर तक विभिन्न नेतृत्वकारी दायित्वों का उन्हों ने निर्वहन किया। अनेक महत्वपूर्ण आंदोलनों का उन्हों ने नेतृत्व किया। 
दूर संचार विभाग से सेवानिवृत्त होने के उपरांत उन्हों ने भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड) {एमसीपीआई (यू)}की सदस्यता ग्रहण की और शीघ्र ही वे पार्टी के पोलिट ब्यूरो के सदस्य हो गए। 

उन की प्रकाशित पुस्तकें इस प्रकार हैं ---
  • जनता पागल हो गई है (नाटक संग्रह)
  • घुसपैठिए (नाटक संग्रह)
  • दुलारी की माँ (नाटक)
  • एक गाँव की कहानी (नाटक)
  • राधेया की कहानी (नाटक)
  • सूली ऊपर सेज (सेज पर विवेचनात्मक पुस्तक)
  • पुनर्नव (नाट्य रूपांतर संग्रह)
  • गटक चूरमा (नाटक संग्रह)
  • माटी मुळकेगी एक दिन (कविता संग्रह)
  • कुछ तो हाथ गहो (कविता संग्रह)
  • खुद साधो पतवार (कविता संग्रह)
शिवराम जी का अंतिम संस्कार 2 अक्टूबर सुबह कोटा में किशोरपुरा मुक्ति धाम में संपन्न होगा। प्रातःकाल आठ बजे अंतिम यात्रा उन के निवास से आरंभ होगी और ट्रेड यूनियन कार्यालय छावनी जाएगी। जहाँ उन के पार्थिव शरीर को अंतिम दर्शनों के लिए कुछ देर रखा जाएगा। उस के उपरांत सर्वहारा वर्ग के एक यौद्धा और सेनापति के सम्मान के साथ अंतिम यात्रा किशोरपुरा मुक्तिधाम पहुँचेगी जहाँ उन का अंतिम संस्कार संपन्न होगा।   

नाटककार और मार्क्सवादी चिंतक शिवराम नही रहे!!!

ख्यात जनवादी नाटक 'जनता पागल हो गई है' के नाटककार, कवि और मार्क्सवादी चिंतक 'शिवराम' का आज तीसरे पहर पौने तीन बजे कोटा में हृदयाघात से देहान्त हो गया। वे भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (यूनाइटेड) के पोलिट ब्यूरो के वर्तमान सदस्य, दूरसंचार कर्मचारियों के नेता थे। साहित्य में उन का अपना विशिष्ठ स्थान था। मेरा 1975 से आज तक साथ बना रहा। अचानक इस समाचार से व्यथित हूँ। इस लिए अधिक कुछ बता पाने में असमर्थ भी। उन के निवास के लिए निकल रहा हूँ। उन की अंत्येष्टी दिनांक 2 अक्टूबर 2010 को सुबह नौ बजे के बाद कोटा में संपन्न होगी। जिस के संबंध में अद्यतन सूचना अनवरत पर कुछ घंटों के बाद प्रस्तुत कर दी जाएगी।

निर्णय का दिन

श्राद्धपक्ष चल रहा है। यूँ तो परिवार में सभी के गया श्राद्ध हो चुके हैं और परंपरा के अनुसार श्राद्ध कर्म की कोई आवश्यकता नहीं रह गई है। लेकिन मेरे लिए यह उन पूर्वजों को स्मरण करने का सर्वोत्तम रीति है। आज मेरे दादा जी, उन के छोटे भाई और दादा जी की माता जी के श्राद्ध का दिन था। सुबह-सुबह मैं ने अपने मित्र को भोजन पर बुलाने के लिए फोन किया तो पता लगा आज अभिभाषक परिषद ने नगर के एक स्वतंत्रता सेनानी के निधन पर 12 बजे शोक सभा रखी है।  निश्चित था कि अदालतों में काम नहीं होगा। हम ने तय किया कि अदालत से एक बजे भोजन के लिए घर आएंगे। दस बजे एक संबंधी के साथ पुलिस थाने जाना पड़ा। उन्हें किसी मामले में पूछताछ के लिए बुलाया गया था। चौसठ वर्षीय  संबंधी का कभी पुलिस से काम न पड़ा था। वे मुझे साथ ले जाने को तुले थे। प्रिय हैं, उन के साथ जाना पड़ा। थानाधिकारी ने कहा कि वे आज कानून और व्यवस्था में व्य्स्त हैं और संबंधी को बाद में बुला भेजेंगे। सड़कों पर यातायात रोज के मुकाबले चौथाई था और अदालत में मुवक्किल सिरे से गायब थे। वकील और मुंशी दो बजे तक मुकदमों में पेशियाँ ले कर घर जाने के मूड़ में थे।  सब की दिनचर्या को अयोध्या के निर्णय की तारीख प्रभावित कर रही थी।
मैं ने भी अपना काम एक बजे तक निपटा लिया। मित्रों के साथ घर पहुँचा तो डेढ़ बज रहे थे। भोजन से निपटते दो बज गये। मित्र वापस अदालत के लिये रवाना हो गये। गरिष्ठ भोजन के कारण उनींदा होने लगा, लेकिन एक काम अदालत में छूट गया था। उस के बारे में सहायक को फोन पर निर्देश दिया तो उस ने बताया कि वह भी यह काम कर के अदालत से निकल लेगा। मैं बिस्तर पर लेटा तो नींद लग गई। उठा तो पौने चार बज रहे थे। मुझे ध्यान आया कि कल पहनने के लिए एक भी सफेद कमीज पर इस्त्री नहीं है। नए आवास पर आने के बाद कपड़े इस्त्री के लिए दिए ही नहीं गए थे। मैं पास के धोबी तक बात कर ने गया तो वह घर जाने की तैयारी में था। उस ने आज दुकान तो खोली थी पर केवल इस्त्री किए कपड़े देने के लिए। आज कोई काम नहीं लिया था। इस्त्री गरम ही नहीं की गई वह ठंडी पड़ी थी। मैं ने किराने वाले की दुकान पर नजर डाली, लेकिन एक जमीन-मकान के दलाल की दुकान के अलावा सब बंद थीं। मैं घर लौट आया। पत्नी ने बताया कि बीमा कंपनी से फोन आया था कि उन्हें नया पता नहीं बताया गया इस कारण से मुझे भेजी डाक वापस लौट गई है। मैं ने फोन कर के पूछा कि कोई आवश्यक डाक तो नहीं है। डाक आवश्यक नहीं थी। फिर भी मैं ने बीमा कंपनी जाने का निश्चय किया। नया पता भी उन्हें दर्ज करा देंगे और डाक भी ले आएंगे। मैं घर लौटा। टीवी पर बताया जा रहा था कि कुछ ही देर में अयोध्या निर्णय आने वाला है। 
मेरा मन हुआ कि न जाऊँ और टीवी पर समाचार सुनने लगूँ। लेकिन फिर जाना तय कर लिया। सड़कें पूरी तरह सूनी पड़ी थीं। कार चलाने का वैसा ही आनंद मिला जैसा रात एक बजे से सुबह चार बजे के बीच मिलता है। बीमा कंपनी पहुँचा तो निर्णय आ चुका था। उसी की चर्चा चल रही थी। लोग खुश थे कि निर्णय ऐसा है कि खास हलचल नहीं होने की। कुछ देर रुक कर डाक ले कर मैं लौटा। इस बीच जीवन बीमा के कार्यालय से फोन आ गया। यह मार्ग में पड़ता था मैं कुछ देर वहाँ रुका। उन का आज अर्धवार्षिक क्लोजिंग था। कर्मचारियों को देर तक रुक कर काम निपटाना था। मैं ने वहाँ भी नया पता दिया और डाक ली। 
स बीच बेटी का फोन आ गया कि वह ट्रेन में बैठ गयी है। शाम को पहुँच जाएगी। मुझे तुरंत पंखे का स्मरण आया कि उस के  कमरे में पंखा नहीं है, बाजार से ले कर आज ही लगवाना पड़ेगा। मैं बाजार निकल गया। अब सड़कों पर यातायात सामान्य हो चला था। पंखे की दुकान पर मनचाहा पंखा नहीं मिला। मैं ने पंखा अगले दिन लेना तय किया। पास ही सब्जी मंडी लगी थी। मुझे कांटे वाले देसी बैंगन दिख गए तो आधा किलोग्राम खरीदे और घर के लिए चल दिया। अब यातायात सामान्य से कुछ अधिक लगा। वैसे ही जैसे बरसात रुकते ही रुके हुए लोग सड़कों पर अपने वाहन ले कर निकल पड़ने पर यातायात बढ़ जाता है।  मैं घर पहुँचा तो कुछ मुवक्किल दफ्तर में प्रतीक्षा कर रहे थे। उन का काम निपटाया तब तक स्टेशन बेटी को लेने जाने का वक्त हो गया। स्टेशन के रास्ते में पूरी रौनक थी। बेटी ट्रेन से उतर कर कार को खड़ी करने के स्थान पर आ गयी। ट्रेन से उतरने वाली सवारियाँ सामान्य से चौथाई भी नहीं थीं। बेटी ने बताया कि ट्रेन खाली थी। रास्ते के स्टेशनों के प्लेटफॉर्म भी सूने पड़े थे। मथुरा के स्टेशन पर पुलिस सतर्क थी लेकिन सवारियाँ वहाँ भी नहीं थीं। कार में बैठते ही बेटी फोन करने लगी। उस के सहकर्मियों ने उसे आज यात्रा करने के लिए मना किया था। वह उन्हें बता रही थी कि वह सकुशल आराम के साथ कोटा पहुँच गई है और अपने पापा-मम्मी के साथ कार में घर जा रही है। वह यह भी कह रही थी कि - मैं ने पहले ही कहा था कि आज कुछ नहीं होने का है। लोग वैसे ही बौरा रहे थे।

बुधवार, 29 सितंबर 2010

हम कब इंसान और भारतीय बनेंगे?

लाहाबाद उच्च न्यायालय के अयोध्या निर्णयके लिए 30 तारीख मुकर्रर हो चुकी है। कल सर्वोच्च न्यायालय ने कह दिया कि बातचीत से समझौते पर पहुँचने के लिए बहुत देरी हो चुकी है, अदालत को अपना निर्णय दे देना चाहिए। दोनों निर्णयों के बीच की दूरी सिर्फ 48-50 घंटों की रहेगी। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के उपरान्त इतना समय तो दिया जाना जरूरी भी था। जिस से जिस-जिस को जो जो तैयारी करनी हो कर ले। 
ल दोपहर जब मैं अपने नियमित साथियों के साथ मध्यान्ह की कॉफी पीने बैठा तो मेरे ही एक सहायक का मोबाइल मिला कि आप के क वकील मित्र आप को कॉफी के लिए बुला रहे हैं। शहीद भगत सिहं का जन्मदिवस होने से अभिभाषक परिषद में मध्यान्ह पश्चात कार्यक्रम था। अदालती काम लगभग निपट चुका था। मैं नियमित कॉफी निपटाने के बाद दूसरी कॉफी मजलिस में पहुँचा। वहाँ अधिकतर लोग जा चुके थे। पर क वकील साहब अपने एक अन्य मित्र ख के साथ वहीं  विराजमान थे। कुछ देर इधर-उधर की बातें हुई और कॉफी आ गई। तभी वकील साहब के मोबाइल की घंटी बजी। सूचना थी कि सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद उच्चन्यायालय को अयोध्या पर निर्णय सुनाने के लिए हरी झंडी दिखा दी है।  वकील साहब तुरंत ही मोबाइल  पर व्यस्त हो गए। कुछ देर बाद उन्हों ने बताया कि निर्णय 30 सितंबर को सुनाया जाएगा। फिर उन्हों ने अपने घर फोन किया कि घर की जरूरत का सभी सामान जो माह के पहले सप्ताह में मंगाया जाता है वह आज ही मंगा लिया जाए, कम से कम 30-40 किलो गेहूँ पिसवा कर आटा कर लिया जाए और पाँच-सात दूध पाउडर के डब्बे जरूर मंगा लिए जाएँ। वजह अयोध्या का निर्णय था, उन के मन में यह आशंका नही बल्कि विश्वास था कि अयोध्या का निर्णय कुछ भी हो पर उस के परिणाम में दंगे जरूर भड़क उठेंगे.... कर्फ्यू लगेगा और कुछ दिन जरूरी चीजें लेने के लिए बाजार उपलब्ध नहीं होगा।
वकील साहब न कांग्रेसी हैं न भाजपाई। उन के संबंध कुछ पुराने बड़े राजघरानों से हैं जिन की अपनी सामंती कुलीनता और संपन्नता के कारण किसी न किसी राजनैतिक दल में पहुँच है। इस पहुँच को वे कोई रंग देते भी नहीं हैं। क्यों कि कब कौन सा दल शासन में रहेगा यह नहीं कहा जा सकता। वे केवल अपनी सामंती कुलीनता को बनाए रखना चाहते हैं और संपन्नता को पूंजीवादी संपन्नता में लगातार बदलने के लिए काम करते हैं। ऐसे लोग हमेशा शासन के निकट बने रहते हैं। उन की सोच थी कि फैसला कुछ भी हो देश का माहौल जरूर बिगड़ेगा और दंगे जरूर होंगे।
वकील साहब घोषित रूप से कांग्रेसी हैं। उन के पास अपनी कोई कुलीनता नहीं है। लेकिन वे किसी भी अवसर को झपट लेने को सदैव तैयार रहते हैं। उन की भी सोच यही थी कि दंगे तो अवश्यंभावी हैं। दंगों में फायदा हिन्दुओं को होगा, वे कम मारे जाएंगे। मुसलमानों को अधिक क्षति होगी, क्यों कि पुलिस और अर्ध सैनिक बल हिन्दुओं की तरफदारी में रहेंगे। इन सब के बावजूद न तो वे दूध के लिए चिंतित थे और न ही घर में आटे के डब्बे के लिए। उन के पिचहत्तर साल के पिता मौजूद हैं। घर और खेती की जमीन के मालिक हैं और वे ही घर चलाते हैं। चिंता होगी भी तो उन्हें होगी। दोनों ने अयोध्या के मामले में सुनवाई करने वाली पीठों के न्यायाधीशों के हिन्दू-मुस्लिम चरित्र को भी खंगाल डाला। पर इस बात पर अटक गए कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय में समझौते के लिए बातचीत करने का समर्थन करने के लिए मतभेद प्रकट करने वाले न्यायाधीश हिन्दू थे।
धर न्यायालय परिसर में बातचीत हो रही थी। कुछ हिन्दू वकील कह रहे थे कि यदि फैसला उन के हक में नहीं हुआ तो  वे हिन्दू संगठन फैसले को न मानेंगे और जमीनी लड़ाई पर उतर आएंगे। लेकिन यदि फैसला मुसलमानों के हक में आता है तो उन्हें अनुशासन में रहना चाहिए। कुछ मुस्लिम वकील जवाब में प्रश्न कर रहे थे कि वे तो हमेशा ही अनुशासन में रहते आए हैं। लेकिन यह अनुशासन उन के लिए ही क्यों?
शाम को बेटे का फोन आया तो उस ने मुझे तो कुछ नहीं कहा। पर अपनी माँ को यह अवश्य कहा कि घर में सामान की व्यवस्था अवश्य कर लें और पापा से कहें कि वे अनावश्यक घर के बाहर न जाएँ। माँ ने बेटे की सलाह मान ली है। घर में कुछ दिनों के आवश्यक सामानों की व्यवस्था कर ली है।
मैं सोच रहा हूँ कि हम कब तक अपनी खालों के भीतर हिन्दू और मुसलमानों को ढोते रहेंगे? कब इंसान और भारतीय बनेंगे?


मंगलवार, 28 सितंबर 2010

"मुक्ति पर्व" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का सत्रहवाँ सर्ग भाग-3

यादवचंद्र पाण्डेय
यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के  सोलह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं।  प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। उस युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिल्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम  तीन सर्ग  वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। सत्रहवें सर्ग "मुक्ति पर्व" का तृतीय भाग यहाँ प्रस्तुत है,  मुक्ति पर्व में आ कर काव्य मुक्त छंद का रूप धारण कर रहा है ................
* यादवचंद्र *

सत्रहवाँ सर्ग


मुक्ति पर्व
भाग तृतीय

पिछले अंक से आगे ......

...... 
और यह कविता ---
वेश्या है  !
विद्यापति - केशव - भूषण
बैरन - कीटस् - पोप
कौन नहीं था वहाँ ....
उस के साथ उन के 
क्या रिश्ते थे ? 
बहुत तो पीते भी थे
उमर खैयाम
जिसे जामे शराब में
अल्ला का 
दीदार हो जाता था
लेकिन मेरी जहालत 
उसे नहीं दिखाई देती थी
और,
जब मैं 
अपने जिस्म के 
फोड़ों के दर्द से 
चीख उठत
तो यह कविता
मुझे मूर्ख कहती थी
मुझे चुप रहने का
आदेश कराती थी
आत्मतोष का 
प्रवचन सुनवाती थी
तब मेरे फोड़ों पर
दो - चार हंटर
और पड़ जाते 
और मेरे घाव ...
मुक्ति पुरुष !
आज तुम ने
मुझे छेड़ा है
मेरे फफोलों को 
खुरचा है,
मैं आज तक 
सच नहीं बोला था
(बोला ही नहीं था)
लेकिन 
आज सुन लो
सच कहता हूँ -
जी में आया
कि इन शास्त्रों में
आग लगा दूँ
और जेलर के 
उन भड़ैतों को 
और इस वेश्या को 
उठा कर 
उसी में फेंक दूँ
लेकिन .......
इस वेश्या को 
अपना पाठ पढ़ा कर
(साहित्य पढ़ा कर)
हर बार जेलर 
मेरे पास भेजता था
मेरी पीठ पर 
संगीन टिकी होती थी
यह चुड़ैल
घण्टों बक - झक करती
और मैं
जेल के
खेत गोड़ता
या बिक्री के 
जूते सीता
चुप - चाप सुना करता था
यह राक्षसी
मेरे दर्द
मेरी खैरियत
और मेरी मुक्ति के सिवा
हर बात करती थी
और फिर
जेलर के 
लोगों के साथ
फरनासस--
या, कहाँ जाती थी
क्या करती थी,
हम में से
किसी को नहीं मालूम

एक दिन 
कह रही थी 
कि मेरी 
हर बात याद कर लो
तुम्हें भी
मेरी तरह
सब मौज आराम
नसीब हो जाएगा

और मार्क्स दादा !
जानते हो
सेल नम्बर - 6 की
उस लड़की को ?
नगमा नाम है उस का--
उस ने क्या जवाब दिया ?
उस ने 
उस चुड़ैल के मुहँ पर 
थूक दिया
जिस के चलते
मुझे और उसे
बाहर के हाते से
हटा कर 
फिर सेल में 
डाल दिया गया
और जेलर ने
जेल पुस्तिका में 
लिख दिया--गद्दार ! 
बागी !
देश द्रोही !
सभ्यता का शत्रु !

...............................कविता अगले अंक में जारी रहेगी

रविवार, 26 सितंबर 2010

घर और दफ्तर बदलने की गैर हाजरी

पूरे एक सप्ताह अंतर्जाल से संपर्क नहीं रहा। नया मकान बनाने की प्रक्रिया प्रारंभिक दौर में है। जहाँ मकान बनना है उस के पास ही अपने मित्र के बिलकुल नए मकान को अपने रहने और कार्यालय के लिए ले लिया है और पिछले रविवार को यहाँ आ गया हूँ। मकान को खाली करना, सारा सामान ले कर नए मकान में आना, अपने आप में बहुत जटिल काम है। एक सप्ताह पहले से सामानों की करीने से बांधना शुरु हुआ। नए मकान में आ कर सब को खोलना और उन के लिए उचित स्थान तलाश कर जमाना और रहने योग्य बनाना। इसी में लगा रहा। अभी कार्यालय पूरी तरह व्यवस्थित नहीं हो सका है। लगता है इस काम में पूरा महीना लग जाएगा।नए मकान की स्थिति ऐसी है कि वहाँ से अदालत, नगर के मु्ख्य बाजार बस स्टेंड दो किलोमीटर की परिधि में हैं, और रेलवे स्टेशन 5 किलोमीटर। आकाशवाणी केंद्र, कला दीर्घा, छत्रविलास बाग और तालाब एक किलोमीटर से भी कम दूरी पर।
पना बेसिक टेलीफोन नए मकान में लगाने के लिए पिछले शनिवार को आवेदन किया था। सोमवार को भारत दूर संचार निगम के अपने मित्रों को संपर्क किया तो उन्हों ने बताया कि तंत्र को आधुनिक किया जा रहा है, प्रणाली में नए सोफ्टवेयर आए हैं। लेकिन अभी उन के साथ काम करने में बहुत जटिलताएँ हैं। इस लिए एक सप्ताह लग सकता है। टेलीफोन संयोजन ठीक से लगे और काम करने लगे इस के लिए संचार निगम के कम से कम पाँच मित्र प्रयासरत रहे। तब जा कर कल शनिवार शाम अंतर्जाल आरंभ हो सका। एक सप्ताह इस विश्वग्राम से अलग रह कर वापस लौटा हूँ। इस बीच हिन्दी ब्लाग दुनिया में बहुत कुछ लिखा गया है और घटित हुआ है। रोजमर्रा के वकालत के तमाम कामों के साथ घर और दफ्तर को ठीक से आकार लेने में समय लगेगा। शायद पूरा माह लगे। फिर इस मकान में भी घर और दफ्तर छह-आठ माह से अधिक नहीं रहना है। यह सोच कर अनेक वस्तुओं को अपने बंधन में ही बंधे रहने को बाध्य रहना होगा। अंतर्जाल ने चालू होते ही दुखद समाचार दिया कि कन्हैयालाल नंदन नहीं रहे। मेरा उन से केवल एक बार मिलना हुआ। मेरे गुरुजी अशोक शुक्ल ने उन्हें एक कविसम्मेलन में बाराँ बुलाया था। वे अच्छे कवि थे, विवादों से बहुत दूर। एक अच्छे संपादक भी जिन्हों ने अपने  प्रकाशक-नियोजकों और लेखकों को एक साथ संतुष्टि दी। नियोजकों के लिए वे संकटहरन भी सिद्ध हुए। विशेष रुप से तब जब टाइम्स समूह ने कमलेश्वर को हटा कर सारिका का सम्पादन उन्हें सौंपा। नंदन जी को आत्मीय श्रद्धांजलि। आज दिल्ली में उन की अंत्येष्टि है। बहुत लोग उस में हाजिर होंगे। लेकिन इस से इरफान भाई के व्यंग्य-चित्रों की प्रदर्शनी के उदघाटन समारोह में कुछ लोगों की उपस्थिति  प्रभावित हो सकती है। 
रफान भाई की प्रदर्शनी के चित्र बहुत महत्वपूर्ण हैं। इस समय में राजनीति और सामाजिक व्यवहारों पर सब से तीखे व्यंग्य करते हैं। उन की प्रदर्शनी प्रेस क्लब दिल्ली में अगले दस दिनों तक रहेगी। दिल्ली वालों को और इस बीच दिल्ली आने वालों को यह प्रदर्शनी अवश्य देखनी चाहिए। मैं आवास-कार्यालय बदलने के कारण उत्पन्न व्यस्तता के कारण शायद यह प्रदर्शनी नहीं देख सकूँ। इरफान भाई को इस प्रदर्शनी की सफलता के लिए शुभकामनाएँ!!!
पुराने मोबाइल से सूर्योदय तुरंत पहले  नए घर से कुछ चित्र लिए हैं। यहाँ पेश-ए-नजर हैं। 

ऊषा

मकान के ठीक पूर्व में स्थित मैरिज गार्डन

उषा से आलोकित
मैरिज गार्डन

सविता