@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

संतानों के प्रति उन के जन्मदाताओं के दायित्व और संतानों के अधिकार कानून द्वारा निश्चित हों

ये मोटे-मोटे आंकड़े हैं-
2001 की जनगणना के मुताबिक भारत की कुल जन संख्या में 80% हिन्दू, 12% मुस्लिम, 2% से कुछ अधिक ईसाई, 2% सिख, 0.7% बौद्ध और 0.5 प्रतिशत जैन हैं। 0.01 प्रतिशत पारसी और कुछ हजार यहूदी हैं। शेष न्य धर्मों के लोग अथवा वे लोग हैं जो जनगणना के समय अपना धर्म नहीं प्रदर्शित नहीं करते। 
चूंकि हिन्दू विवाह अधिनियम  मुस्लिमों, ईसाइयों, पारसियों और यहूदियों के अतिरिक्त सभी पर प्रभावी है। इस कारण से इस के प्रभाव क्षेत्र की जनता की जनसंख्या हम 85 प्रतिशत के लगभग मान सकते हैं। 
हिन्दू विवाह अधिनियम अनुसूचित जन-जातियों के लोगों पर प्रभावी नहीं है। जिन की जनसंख्या भारत में मात्र 8.2 प्रतिशत है।  इन्हें कम करने पर हम इस अधिनियम से प्रभावित जनसंख्या 77% रह जाती है। 
भारत में अनुसीचित जाति के लोगों की जन संख्या 16.2 प्रतिशत है और अन्य पिछड़ा वर्ग की जनसंख्या 52 प्रतिशत है। सभी अनुसूचित जातियों और लगभग सभी अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों में नाता प्रथा प्रचलित है। यदि इस आधार पर हम इन्हें भी हिन्दू विवाह अधिनियम के पूर्ण प्रभाव क्षेत्र अलग मानें तो शेष लोगों की जनसंख्या केवल 9 प्रतिशत शेष रह जाती है। 
नाता प्रथा देश के लगभग सभी भागों में प्रचलित है। होता यह है कि कोई भी विवाहित स्त्री घोषणा कर देती है कि वह अपने पति से परेशान है और उस के साथ नहीं रहना चाहती। इस के लिए वह स्टाम्प पेपर पर शपथ पत्र निष्पादित कर देती है। इस शपथ पत्र के निष्पादन के उपरांत यह मान लिया जाता है कि वह स्त्री अब अपने पति के बंधन से आजाद हो गई है। कोटा की अदालत में प्रत्येक कार्य दिवस पर इस तरह आजाद होने वाली स्त्रियों की संख्या औसतन तीन होती है। जब कि कोटा के पारिवारिक न्यायालय में माह में मुश्किल से पाँच तलाक भी मंजूर नहीं होते।
जाद होने के बाद वह स्त्री एक अन्य शपथ पत्र निष्पादित कर अपने इच्छित पुरुष के साथ रहने की सहमति दे देती है। पुरुष भी उसे भली तरह रखने के लिए एक शपथपत्र निष्पादित करता है। इस के उपरांत दोनों स्त्री-पुरुष साथ साथ कुछ फोटो खिंचाते हैं। जिस की सुविधा आज कल अदालत परिसर में चल रहे कंप्यूटर ऑपरेटरों के यहाँ उपलब्ध है। अब दोनों स्त्री-पुरुष साथ रहने को चले जाते हैं। इसी को नाता करना कहते हैं। इन स्त्री-पुरुषों के साथ इन के कुछ परिजन साथ होते हैं।
बाद में जब पति को इस की जानकारी होती है तो वह अपनी पत्नी के परिजनों को साथ लेकर उस पुरुष के घर जाते हैं जहाँ वह स्त्री रहने गई है और झगड़ा करते हैं। इस झगड़े का निपटारा पंचायत में होता है।  जिस पुरुष के साथ रहने को वह स्त्री जाती है वह उस स्त्री  के पति को  पंचायत द्वारा निर्धारित राशि मुआवजे के बतौर दे देता है। 
न्य पिछड़ा वर्ग की जातियों में नाता बहुत कम होता है लेकिन इन जातियों में इसे गलत दृष्टि से नहीं देखा जाता। इस तरह भारत की 85 प्रतिशत हिन्दू जनसंख्या में से लगभग 15 से 20 % को छोड़ कर शेष  65-70 % जनसंख्या में विवाह के कानूनी और शास्त्रीय रूप के अलावा अन्य रूप प्रचलित हैं और समाज ने उन्हें एक निचले दर्जे के संबंध के रूप में ही सही पर मान्यता दे रखी है। विवाह के इन रूपों में समय के साथ परिवर्तन भी होते रहे हैं। लिव-इन-रिलेशन को ले कर इन जातियों में कोई चिंता नहीं दिखाई देती है। जितनी भी चिंता दिखाई देती है या अभिव्यक्त की जा रही है वह केवल इस 15-20% जनता में से ही अभिव्यक्त की जा रही है। लिव-इन-रिलेशन को ले कर भी चिंता अधिक इसी बात की है कि इस संबंध से उत्पन्न होने वाली संतानों के क्या अधिकार होंगे।  
कानून में कभी भी बिना विवाह किए स्वतंत्र स्त्री-पुरुष के संबंध को अपराधिक नहीं माना गया है। आज के मानवाधिकार के युग में इसे अपराधिक कृत्य ठहराया जाना संभव भी नहीं है। सरकार की स्थिति ऐसी है कि वह वर्तमान वैवाहिक विवादों के तत्परता के हल के लिए पर्याप्त न्यायालय स्थापित करने में अक्षम रही है। मेरा तो यह कहना भी है कि वैवाहिक विवादों के हल होने में लगने वाला लंबा समय भी लिव-इन-रिलेशन को बढ़ावा देने के लिए एक हद तक जिम्मेदार है। ऐसे में यही अच्छा होगा कि लिव-इन-रिलेशन अथवा विवाह के अतिरिक्त नाता जैसे संबंधों से उत्पन्न होने वाली संतानों के प्रति उन के जन्मदाताओं के दायित्व और इन संतानों के अधिकार कानून द्वारा निश्चित किए जाने आवश्यक हैं।

बुधवार, 31 मार्च 2010

एक लोक गायक का गीत राजस्थानी लोकवाद्य रावणहत्था के साथ

रावण हत्था राजस्थान का एक लोक वाद्य है जो बांस के एक तने पर नारियल के खोल, चमड़े की मँढ़ाई और तारों की सहायता से निर्मित किया जाता है। पश्चिमी राजस्थान के पर्यटन स्थलों पर इस वाद्य को बजाने वाले आप को आम तौर पर मिल जाएंगे। लेकिन इस वाद्य की संगत में गाने वाला लोक गायक कभी अदालत में मुझ तक पहुँच जाएगा और हमें मंत्र मुग्ध कर देगा मैं ने ऐसा सोचा भी नहीं था।

पिछले वर्ष 30 मई को जब मैं कोटा जिला न्यायालय परिसर मैं अपने स्टाफ के साथ बैठा था तो वहाँ एक लोकगायक आया। यह लोक गायक अपने गीतों को राजस्थानी तार वाद्य रावणहत्था को बजाते हुए गाता था। उस ने दो-तीन गीत हमें सुनाए। एक गीत को मेरे कनिष्ट अभिभाषक रमेशचंद्र नायक ने अपने मोबाइल पर रेकॉर्ड कर लिया था। आज उस गीत को फुरसत में मेरे दूसरे कनिष्ट नंदलाल शर्मा मोबाइल पर सुन रहे थे। मुझे भी आज वह गीत अच्छा लगा। मैं उसे रिकॉर्ड कर लाया। यह गायक जिस का नाम मेरी स्मृति के अनुसार बाबूलाल था और वह राजस्थान के कोटा, सवाईमाधोपुर व बाराँ जिलों के सीमावर्ती मध्यप्रदेश के श्योपुर जिले के किसी गाँव से आया था। 
हाँ वही रिकॉर्डिंग प्रस्तुत है। इसे आप-स्निप से डाउनलोड कर सुन सकते हैं। साथ में प्रस्तुत हैं यू-ट्यूब खोजे गए रावण हत्था के दो वीडियो। 

Rawanhattha
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सोमवार, 29 मार्च 2010

लिव-इन-रिलेशनशिप को शीघ्र ही कानून के दायरे में लाना ही होगा

नवरत पर पिछली पोस्ट में शकुन्तला और दुष्यंत की कहानी प्रस्तुत करते हुए यह पूछा गया था कि उन दोनों के मध्य कौन सा रिश्ता था? मैं  ने यह भी कहा था कि भारतीय पौराणिक साहित्य में  शकुन्तला और दुष्यंत के संबंध को गंधर्व विवाह की संज्ञा दी गई है। मेरा प्रश्न यह भी था कि क्या लिव-इन-रिलेशनशिप गंधर्व विवाह नहीं है? इस पोस्ट पर पाठकों ने अपनी शंकाएँ, जिज्ञासाएँ और कतिपय आपत्तियाँ प्रकट की हैं। अधिकांश ने लिव-इन-रिलेशनशिप को गंधर्व विवाह मानने से इन्कार कर दिया। उन्हों ने गंधर्व विवाह को आधुनिक प्रेम-विवाह के समकक्ष माना है। सुरेश चिपलूनकर जी को यह आपत्ति है कि हिन्दू पौराणिक साहित्य से ही उदाहरण क्यों लिए जा रहे हैं?  इस तरह तो कल से पौराणिक पात्रों को ....... संज्ञाएँ दिए जाने का प्रयत्न किया जाएगा। मैं उन संज्ञाओं का उल्लेख नहीं करना चाहता जो उन्हों ने अपनी टिप्पणी में दी हैं। मैं उन्हें उचित भी नहीं समझता। लेकिन इतनी बात जरूर कहना चाहूँगा कि जब मामला भारतीय दंड विधान से जुड़ा हो और हिंदू विवाह अधिनियम  से जुड़ा हो तो सब से पहले हिंदू पौराणिक साहित्य पर ही नजर जाएगी, अन्यत्र नहीं।
पिछले दिनों भारत के न्यायालयों ने जो निर्णय दिए हैं उस से एक बात स्पष्ट हो गई है कि हमारा कानून दो वयस्कों के बीच स्वेच्छा पूर्वक बनाए गए सहवासी रिश्ते को मान्यता नहीं देता, लेकिन उसे अपराधिक भी नहीं मानता, चाहे ये दो वयस्क पुरुष-पुरुष हों, स्त्री-स्त्री हों या फिर स्त्री-पुरुष हों। इस से यह बात  भी स्पष्ट हो गई है  कि इस तरह के रिश्तों के कारण एक दूसरे के प्रति जो दीवानी कानूनी दायित्व और अधिकार उत्पन्न नहीं हो सकते। कानून की मान्यता न होने पर भी इस तरह के रिश्ते सदैव से मौजूद रहे हैं। परेशानी का कारण यह  है कि समाज में इस तरह के रिश्तों का अनुपातः बढ़ रहा है।  अजय कुमार झा ने अपनी पोस्ट लिव इन रिलेशनशिप : फ़ैसले पर एक दृष्टिकोण में बहुत खूबसूरती से अपनी बात को रखा है। लिव-इन-रिलेशनशिप स्त्री-पुरुष के बीच ऐसा संबंध है जिस में दोनों एक दूसरे के प्रति किसी कानूनी दायित्व या अधिकार में नहीं बंधते। जब कि विवाह समाज विकास के एक स्तर पर विकसित हुआ है, जो पति-पत्नी को एक दूसरे के प्रति कानूनी दायित्वों और अधिकारों में बांधता है। जहाँ तक पितृत्व का प्रश्न है वह तो लिव-इन-रिलेशन में भी रहता है और संतान के प्रति दायित्व और अधिकार भी बने रहते हैं। इस युग में जब कि डीएनए तकनीक उपलब्ध है कोई भी पुरुष अपनी संतान को अपनी मानने से इंन्कार नहीं कर सकता।
म इतिहास में जाएंगे तो भारत में ही नहीं दुनिया भर में विवाह का स्वरूप हमेशा एक जैसा नहीं रहा है। 1955 के पहले तक हिन्दू विवाह में एक पत्नित्व औऱ विवाह विच्छेद अनुपस्थित थे। यह अभी बहुत पुरानी बात नहीं है जब दोनों पक्षों की सहमति से वैवाहिक संबंध विच्छेद हिन्दू विवाह अधिनियम में सम्मिलित किया गया है। भारत में जिन आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख मिलता है। वस्तुतः वे सभी विवाह हैं भी नहीं। स्त्री-पुरुष के बीच कोई भी ऐसा संबंध जिस के फलस्वरूप संतान उत्पन्न हो सकती है उसे विवाह मानते हुए उन्हें आठ विभागों में बांटा गया। जिन में से चार को समाज और राज्य ने कानूनी मान्यता दी और शेष चार को नहीं। गंधर्व विवाह में सामाजिक मान्यता, समारोह या कर्मकांड अनुपस्थित था। यह स्त्री-पुरुष के मध्य साथ रहने का एक समझौता मात्र था। जिस के फल स्वरूप संतानें उत्पन्न हो सकती थीं। सामाजिक मान्यता न होने के कारण उस से उत्पन्न दायित्वों और अधिकारों का प्रवर्तन भी संभव नहीं था। मौजूदा हिन्दू विवाह अधिनियम इस तरह के गंधर्व विवाह को विवाह की मान्यता नहीं देता है। 
लिव-इन-रिलेशन भी अपने अनेक रूपों के माध्यम से भारत में ही नहीं विश्व भर में मौजूद रहा है लेकिन आटे में नमक के बराबर। समाज व राज्य ने उस का कानूनी प्रसंज्ञान कभी नहीं लिया। नई परिस्थितियों में इन संबंधों का अनुपात कुछ बढ़ा है। इस का सीधा अर्थ यह है कि विवाह का वर्तमान कानूनी रूप समकालीन समाज की आवश्यकताओं के लिए अपर्याप्त सिद्ध हो रहा है। कहीं न कहीं वह किसी तरह मनुष्य के स्वाभाविक विकास में बाधक बना है। यही कारण है कि नए रूप सामने आ रहे हैं। जरूरत तो इस बात की है कि विवाह के वर्तमान कानूनों और वैवाहिक विवादों को हल करने वाली मशीनरी पर पुनर्विचार हो कि कहाँ वह स्वाभाविक जीवन जीने और उस के विकास में बाधक बन रहे हैं?  इन कारणों का पता लगाया जा कर उन का समाधान किया जा सकता है। यदि एक निश्चित अवधि तक लिव-इन-रिलेशन में रहने वाले स्त्री-पुरुषों के दायित्वों और अधिकारों  को नि्र्धारित करने वाला कानून भी बनाया जा सकता है। जो अभी नहीं तो कुछ समय बाद बनाना ही पड़ेगा। यदि इस संबंध में रहने वाले स्त्री-पुरुष आपसी दायित्वों और अधिकारों के बंधन में नहीं बंधना चाहते तो कोई बाद नहीं क्यों कि वे वयस्क हैं। लेकिन इन संबंधों से उत्पन्न होने वाले बच्चों के संबंध में तो कानून तुरंत ही लाना आवश्यक है। आखिर बच्चे केवल उन के माता-पिता की नहीं समाज और देश की निधि होते हैं।

रविवार, 28 मार्च 2010

दुष्यंत और शंकुन्तला के बीच कौन सा संबंध था?

हाभारत संस्कृत भाषा का महत्वपूर्ण महाकाव्य (धर्मग्रंथ नहीं)। हालांकि महत्वपूर्ण धर्म ग्रंथ का स्थान ग्रहण कर चुकी श्रीमद्भगवद्गीता इसी महाकाव्य का एक भाग है। महाभारत बहुत सी कथाओं से भरा पड़ा है। इन्हीं में एक कथा आप सभी को अवश्य स्मरण होगी। यदि नहीं तो आप यहाँ इसे पढ़ कर अपनी स्मृति को ताजा कर कर लें .....
"हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत आखेट के लिए वन में गये। उसी वन में कण्व ऋषि का आश्रम था। ऋषि के दर्शन के लिये महाराज दुष्यंत उनके आश्रम पहुँचे। पुकार लगाने पर एक अति लावण्यमयी कन्या ने आश्रम से निकल कर कहा, “हे राजन्! महर्षि तो तीर्थ यात्रा पर गये हैं, किन्तु आपका इस आश्रम में स्वागत है।” उस कन्या को देख कर महाराज दुष्यंत ने पूछा, “बालिके! आप कौन हैं?” बालिका ने कहा, “मेरा नाम शकुन्तला है और मैं कण्व ऋषि की पुत्री हूँ।” उस कन्या की बात सुन कर महाराज दुष्यंत आश्चर्यचकित होकर बोले, “महर्षि तो आजन्म ब्रह्मचारी हैं फिर आप उनकी पुत्री कैसे हईं?” उनके इस प्रश्न के उत्तर में शकुन्तला ने कहा, “वास्तव में मैं मेनका और विश्वामित्र क पुत्री हूँ। मेरी माता ने मुझे जन्मते ही वन में छोड़ दिया था जहाँ शकुन्त  पक्षी ने मेरी रक्षा की। बाद में ऋषि की दृष्टि मुझ पर पड़ी तो वे मुझे अपने आश्रम में ले आये। उन्होंने ही मेरा भरण-पोषण किया। जन्म देने वाला, पोषण करने वाला तथा अन्न देने वाला – ये तीनों ही पिता कहे जाते हैं। इस प्रकार कण्व ऋषि मेरे पिता हुये।”
कुन्तला के वचनों को सुनकर महाराज दुष्यंत ने कहा, “शकुन्तले! तुम क्षत्रिय कन्या हो। तुम्हारे सौन्दर्य को देख कर मैं अपना हृदय तुम्हें अर्पित कर चुका हूँ। यदि तुम्हें किसी प्रकार की आपत्ति न हो तो मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ।” शकुन्तला भी महाराज दुष्यंत पर मोहित हो चुकी थी, अतः उसने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। दोनों नें गन्धर्व विवाह कर लिया। कुछ काल महाराज दुष्यंत ने शकुन्तला के साथ विहार करते हुये वन में ही व्यतीत किया। फिर एक दिन वे शकुन्तला से बोले, “प्रियतमे! मुझे अब अपना राजकार्य देखने के लिये हस्तिनापुर प्रस्थान करना होगा। महर्षि कण्व के तीर्थ यात्रा से लौट आने पर मैं तुम्हें यहाँ से विदा करा कर अपने राजभवन में ले जाउँगा।” इतना कहकर महाराज ने शकुन्तला को अपने प्रेम के प्रतीक के रूप में अपनी स्वर्ण मुद्रिका दी और हस्तिनापुर चले गये। 
क दिन उसके आश्रम में दुर्वासा ऋषि पधारे। महाराज दुष्यंत के विरह में लीन होने के कारण शकुन्तला को उनके आगमन का ज्ञान भी नहीं हुआ और उसने दुर्वासा ऋषि का यथोचित स्वागत सत्कार नहीं किया। दुर्वासा ऋषि ने इसे अपना अपमान समझा और क्रोधित हो कर बोले, “बालिके! मैं तुझे शाप देता हूँ कि जिस किसी के ध्यान में लीन होकर तूने मेरा निरादर किया है, वह तुझे भूल जायेगा।” दुर्वासा ऋषि के शाप को सुन कर शकुन्तला का ध्यान टूटा और वह उनके चरणों में गिर कर क्षमा प्रार्थना करने लगी। शकुन्तला के क्षमा प्रार्थना से द्रवित हो कर दुर्वासा ऋषि ने कहा, “अच्छा यदि तेरे पास उसका कोई प्रेम चिन्ह होगा तो उस चिन्ह को देख उसे तेरी स्मृति हो आयेगी।”
दुष्यंत के सहवास से शकुन्तला गर्भवती हो गई थी। कुछ काल पश्चात् कण्व ऋषि तीर्थ यात्रा से लौटे तब शकुन्तला ने उन्हें महाराज दुष्यंत के साथ अपने गन्धर्व विवाह के विषय में बताया। इस पर महर्षि कण्व ने कहा, “पुत्री! विवाहित कन्या का पिता के घर में रहना उचित नहीं है। अब तेरे पति का घर ही तेरा घर है।” इतना कह कर महर्षि ने शकुन्तला को अपने शिष्यों के साथ हस्तिनापुर भिजवा दिया। मार्ग में एक सरोवर में आचमन करते समय महाराज दुष्यंत की दी हुई शकुन्तला की अँगूठी, जो कि प्रेम चिन्ह थी, सरोवर में ही गिर गई। उस अँगूठी को एक मछली निगल गई।
दुष्यंत के पास पहुँच कर कण्व ऋषि के शिष्यों ने शकुन्तला को उनके सामने खड़ी कर के कहा, “महाराज! शकुन्तला आपकी पत्नी है, आप इसे स्वीकार करें।” महाराज तो दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण शकुन्तला को विस्मृत कर चुके थे। अतः उन्होंने शकुन्तला को स्वीकार नहीं किया और उस पर कुलटा होने का लाँछन लगाने लगे। शकुन्तला का अपमान होते ही आकाश में जोरों की बिजली कड़क उठी और सब के सामने उसकी माता मेनका उसे उठा ले गई।
जिस मछली ने शकुन्तला की अँगूठी को निगल लिया था, एक दिन वह एक मछुआरे के जाल में आ फँसी। जब मछुआरे ने उसे काटा तो उसके पेट अँगूठी निकली। मछुआरे ने उस अँगूठी को महाराज दुष्यंत के पास भेंट के रूप में भेज दिया। अँगूठी को देखते ही महाराज को शकुन्तला का स्मरण हो आया और वे अपने कृत्य पर पश्चाताप करने लगे। महाराज ने शकुन्तला को बहुत ढुँढवाया किन्तु उसका पता नहीं चला।
कुछ दिनों के बाद देवराज इन्द्र के निमन्त्रण पाकर देवासुर संग्राम में उनकी सहायता करने के लिये महाराज दुष्यंत इन्द्र की नगरी अमरावती गये। संग्राम में विजय प्राप्त करने के पश्चात् जब वे आकाश मार्ग से हस्तिनापुर लौट रहे थे तो मार्ग में उन्हें कश्यप ऋषि का आश्रम दृष्टिगत हुआ। उनके दर्शनों के लिये वे वहाँ रुक गये। आश्रम में एक सुन्दर बालक एक भयंकर सिंह के साथ खेल रहा था। मेनका ने शकुन्तला को कश्यप ऋषि के पास लाकर छोड़ा था तथा वह बालक शकुन्तला का ही पुत्र था। उस बालक को देख कर महाराज के हृदय में प्रेम की भावना उमड़ पड़ी। वे उसे गोद में उठाने के लिये आगे बढ़े तो शकुन्तला की सखी चिल्ला उठी, “हे भद्र पुरुष! आप इस बालक को न छुयें अन्यथा उसकी भुजा में बँधा काला डोरा साँप बन कर आपको डस लेगा।” यह सुन कर भी दुष्यंत स्वयं को न रोक सके और बालक को अपने गोद में उठा लिया। अब सखी ने आश्चर्य से देखा कि बालक के भुजा में बँधा काला गंडा पृथ्वी पर गिर गया है। सखी को ज्ञात था कि बालक को जब कभी भी उसका पिता अपने गोद में लेगा वह काला डोरा पृथ्वी पर गिर जायेगा। सखी ने प्रसन्न हो कर समस्त वृतान्त शकुन्तला को सुनाया। शकुन्तला महाराज दुष्यंत के पास आई। महाराज ने शकुन्तला को पहचान लिया। उन्होंने अपने कृत्य के लिये शकुन्तला से क्षमा प्रार्थना की और कश्यप ऋषि की आज्ञा लेकर उसे अपने पुत्र सहित अपने साथ हस्तिनापुर ले आये।
हाराज दुष्यंत और शकुन्तला के इस पुत्र का नाम भरत था। बाद में वे भरत महान प्रतापी सम्राट बने और उन्हीं के नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष हुआ।
ति कथाः।  क्या यह गंधर्व विवाह "लिव-इन-रिलेशनशिप" नहीं है? यदि है, तो उसे कोसा क्यों जा रहा है? आखिर हमारे देश का नाम उसी संबंध से उत्पन्न व्यक्ति के नाम पर पड़ा है। कैसे कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति को 'लिव-इन-रिलेशनशिप' से खतरा है?

शनिवार, 27 मार्च 2010

इस हत्या के हत्यारे को सजा कैसे हो? और क्या हो?

कोटा में जिला अदालत नयापुरा क्षेत्र में स्थित है। यहाँ नीचे पीली रेखाओं के बीच जिला अदालत कोटा का परिसर दिखाई दे रहा है। किसी को भी इस क्षेत्र की हरियाली देख कर ईर्ष्या हो सकती है। लेकिन अब यह परिसर आवश्यकता से बहुत अधिक छोटा पड़ रहा है। इतना अधिक कि अब तक या तो निकट के किसी परिसर को इस में सम्मिलित कर के इस का विस्तार कर दिया जाना चाहिए था। या फिर जिला अदालत के लिए किसी रिक्त भूमि पर नया परिसर बना दिया जाना चाहिए था। लेकिन अभी सरकार इस पर कोई विचार नहीं कर रही है। शायद वह यह निर्णय तब ले जब इस परिसर में अदालतें संचालित करना बिलकुल ही असंभव हो जाए।   

कोटा जिला अदालत परिसर का उपग्रह चित्र
धिक अदालतों के लिए अधिक इमारतों की आवश्यकता के चलते इस परिसर में अब कोई स्थान ऐसा नहीं बचा है जिस में और इमारतें बनाई जाएँ। यही कारण है कि कुछ अदालतें सड़क पार पश्चिम में कलेक्टरी परिसर में चल रही हैं तो कुछ अदालतों के लिए निकट ही किराए के भवन लिए जा चुके हैं। परिसर में वाहन पार्किंग के लिए बहुत कम स्थान है, जिस का नतीजा यह है कि अदालत आने वाले आधे से अधिक वाहन बाहर सड़क पर पार्क करने पड़ते हैं। मुझे स्वयं को अपनी कार सड़क के किनारे पार्क करनी पड़ती है। इस परिसर में पहले एक इमारत से दूसरी तक जाने के लिए सड़कें थीं और शेष खुली भूमि। लेकिन बरसात के समय यह खुली कच्ची भूमि में पानी भर जाया करता था और मिट्टी पैरों पर चिपकने लगती थी। इस कारण से परिसर में जितनी भी खुली भूमि थी उस में कंक्रीट बिछा दिया गया। केवल जिला जज की इमारत के सामने और सड़क के बीच एक पार्क में कच्ची भूंमि शेष रह गई। लोगों को चलने फिरने में आराम हो गया। 
सूखा हुआ नीम वृक्ष
कंक्रीट बिछाने पर हुआ यह कि जहाँ जहाँ वृक्ष थे उन के तने कंक्रीट से घिर गए। इस वर्ष देखने को मिला कि अचानक एक जवान नीम का वृक्ष खड़ा खड़ा पूरा सूख गया। सभी को आश्रर्य हुआ कि एक जवान हरा भरा वृक्ष कैसे सूख गया। मै ने कल पास जा कर उस का अवलोकन किया तो देखा कि वृक्ष के तने को अपनी मोटाई बढ़ाने के लिए कोई स्थान ही शेष नहीं रहा है। होता यह है कि वृक्षों को जड़ों से पोषण पहुँचाने वाला तने पुराना क्षेत्र जो वलय के रूप में होता  है वह अवरुद्ध हो जाता है और हर वर्ष एक नया वलय तने की बाहरी सतह की ओर बनता है जो पुराने वलय के स्थान पर वृक्ष को जड़ों से पोषण पहुँचाता है। लेकिन इस नीम के वृक्ष का तना सीमेंट कंक्रीट बिछा दिए जाने के कारण अपने नए वलय का निर्माण नहीं कर पाया और वृक्ष को मिलने वाला पोषण मिलना बंद हो गया। वृक्ष को भूमि से जल व पोषण नहीं मिलने से वह सूख गया। असमय ही एक वृक्ष मृत्यु के मुख में चला गया। 
कंक्रीट से घिरा तना
 इस .युग में जब धरती पर से वृक्ष वैसे ही कम हो रहे हैं। इस तरह की लापरवाही से वृक्ष की जो असमय मृत्यु हुई है वह किसी मनुष्य की हत्या से भी बड़ा अपराध है। यदि कंक्रीट बिछाने वाले मजदूरों, मिस्त्रियों और इंजिनियरों ने जरा भी ध्यान रखा होता और वृक्ष के तने के आस-पास चार-छह इंच का स्थान खाली छोड़ दिया जाता तो यह वृक्ष अभी अनेक वर्ष जीवित रह सकता था। जीवित रहते वह सब को छाया प्रदान करता, ऑक्सीजन देता रहता। कंक्रीट बिछाने का काम राज्य के पीडब्लूडी विभाग ने किया था। कागजों में खोजने से यह भी पता लग जाएगा कि यहाँ कंक्रीट बिछाने का काम किस इंजिनियर की देख-रेख मे हुआ था। लेकिन इतना होने पर भी किसी को इस वृक्ष की हत्या के लिए दोषी न ठहराया जाएगा। यदि ठहरा भी दिया जाए तो उसे कोई दंड भले ही दे दिया जाए, लेकिन इस बात को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता कि भविष्य में इस तरह की लापरवाही से कोई वृक्ष नहीं मरेगा। इस के लिए तो मनुष्यों में वृक्षों के लिए प्रेम जागृत करना होगा। जिस से लोग अपने आस पास वृक्षों के लिए उत्पन्न  होने वाले खतरों पर निगाह रखें और कोई वृक्ष मृत्यु को प्राप्त हो उस से पहले ही उस विपत्ति को दूर कर दिया जाए।
मेरे घर के सामने भी मेरे लगाए हुए दो वृक्ष हैं एक नीम का और एक कचनार का। यहाँ भी कंक्रीट बिछाया गया था। लेकिन मोहल्ले में रहने वाले और स्वैच्छा से सामने के पार्क की देखभाल रखने वाले रामधन मीणा जी ने मुझे बताया कि इन वृक्षों के आस पास के कंक्रीट के तोड़ कर स्थान बनाना चाहिए अन्यथा यह सूख जाएंगे। हमने ऐसा ही किया और वे वृक्ष बच गए। अदालत में भी वृक्षों पर किसी का ध्यान रहा होता तो मरने वाला वृक्ष बचाया जा सकता था।

जुगाड़ बंद, जुगाड़ चालू, जुगाड़ ही जुगाड़

राजस्थान के कोटा संभाग के झालावाड़ जिले के मदर इंडिया एसटीसी बीएड कॉलेज के छात्र-छात्राएँ  विशेष बस से शैक्षणिक यात्रा पर थे। 14 मार्च को जब बस सवाई माधोपुर जिले में सूखी मोरेल नदी के पुल से गुजर रही थी तो अचानक एक जुगाड़ सामने आ गया। टक्कर बचाने के लिए बस चालक ने जो कुछ भी युक्ति की वह नहीं चली और बस पुल से सूखी नदी में गिर पड़ी। इस दुर्घटना मे कुल 30 मौतें हुई। मरने वाले सभी 20 से 25 वर्ष की उम्र के नौजवान लड़के लड़कियाँ थे। बहुत दुखद घटना थी। पूरे संभाग में एक दम मातम छा गया। ऐसा लगता था कि हर मोहल्ले में मरने वाले का कोई न कोई रिश्तेदार मौजूद था। नौजवानों की मृत्यु ने लोगों पर गहरा प्रभाव डाला।
सारा गुनाह जुगाड़ पर धऱ दिया गया। सबसे पहले असर हुआ दुर्घटना के जिले सवाई माधोपुर के पुलिस अधीक्षक पर उन्हों ने आनन फानन कलेक्ट्रेट में जिले के सब विभागों के अधिकारियों की बैठक बुला कर घोषणा कर दी कि वे जिले की सड़कों पर जुगाड़ नहीं चलने देंगे और ट्रेफिक को सुधार डालेंगे। अब तक आराम से चल रहे जुगाड़ों की शामत आ गई। सारे अखबार उन पर टूट पड़े। विधान सभा चल रही थी तो बात वहाँ तक पहुँची और बाद में हाईकोर्ट भी। हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश ने स्वप्रेरणा से इस घटना पर जुगाड़ों के खिलाफ प्रसंज्ञान ले कर गाँवों की मारूति के खिलाफ आदेश दिया कि जुगाड़ अवैध है और सरकार इन्हें रोकने के लिए कुछ नहीं कर रही है, उसे इस का जवाब चार हफ्तों में देना होगा। अखबारों ने खबरें छापी -चार हफ्ते में तय हो जाएगा जुगाड़ों का भविष्य,  थानों के सामने दौड़ रहे हैं जुगाड़, आदेश आते ही बंद हुए जुगाड़ आदि आदि।
जैसे ही हाईकोर्ट ने आदेश पारित किया सरकार की निद्रा भंग हो गई उस ने भी आदेश की पालना में आदेश जारी किया -जुगाड़ देखते ही जब्त कर लिया जाए। अखबारों ने सड़कों का जायजा लिया और दो दिन बाद खबर छापी -अब भी चल रहे हैं जुगाड़। अब तक जुगाड़ के मालिक और चालक चुप थे। आखिर उन पर भारी आरोप जो था। अब जब उन की रोजी-रोटी पर संकट आया तो वे उठ खड़े हुए। उन्होंने मीटिंग की और संगठित होने की ठान ली। उन्हों ने जुगाड़ों का रजिस्ट्रेशन कर संचालन फिर से शुरू कराए जाने की मांग को लेकर प्रदर्शन कर डाला। उधर राज्य परिवहन आयुक्त जुगाड़ों और ओवरलोड वाहनों को जब्त करने के आदेश देते रहे। इधर अखबार कहते रहे -नहीं रुक रहे हैं जुगा़ड़ और ओवरलोड वाहन।
धर जुगाड़ वालों ने पुलिस के डर से फिलहाल जुगाड़ चलाना बंद कर दिया। किसानों और ग्रामीणों को परेशानी आने लगी। वे भी प्रदर्शन पर उतर आए। स्थान स्थान पर वे प्रदर्शन कर मांग करने लगे कि जुगाड़ को बंद नहीं किया जाए। बात फिर विधानसभा में पहुँच गई। सवाल उठा तो गृह मंत्री ने कहा कि गांवों में जुगाड़ बंद नहीं किए जाएंगे। नेशनल हाईवे और स्टेट हाईवे पर जुगाड़ों को नहीं चलने दिया जाएगा। गाँव वाले आश्वासन पर कैसे भरोसा करते वे इधर जुगाड़ को बचाने में महापड़ाव आयोजित कर रहे हैं।

ह जुगाड़ एक-दम नहीं पैदा हो गया। कहते हैं राजस्थान में इस वक्त एक लाख से भी अधिक जुगाड़ हैं। मोटर व्हीकल एक्ट के होते हुए भी सामान्य मिस्त्रियों द्वारा बनाए गए बिना किसी पंजीयन के जुगाड़ों की संख्या इतनी यूँ ही नहीं पहुंच गई। सरकारी मशीनरी, पुलिस और परिवहन विभाग इतने दिन क्यों चुप बैठी रहे? जवाब सीधा है जो लोग जुगाड़ से जुगाड़ बना सकते हैं वे यह जुगाड़ भी कर सकते हैं। जब जुगाड़ स्कूल बस बन सकते हों तो बंद कैसे हो सकते हैं?  अब तो कोई मार्ग ही शेष नहीं रहा है जुगाड़ों को बंद करने का। कुल मिला कर जुगाड़ों को किसी तरह नियमन करने का जुगाड़ करना होगा। यह कैसे होगा? इस का भी कोई न कोई जुगाड़ तो बनेगा ही।

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

मत चूके चौहान !!!

ज कल अदालतों के निर्णय बहुत चर्चा में हैं। अभी-अभी लिव-इन-रिलेशन के संबंध में आया निर्णय खूब उछाला जा रहा है। टीवी चैनलों की तो पौ-बारह हो गई है। एक-दो कौपीन और दाढ़ी वाले पकड़े कि  हो गया अच्छा खासा तमाशा। ऐसा मौका मिल जाए तो फिर क्या है? जो चूके वो चौहान नहीं। मौका बार-बार थोड़े ही मिलता है। वैसे मौका मिलने की थियरी अब पुरानी हो चुकी है। अब मौके का इंतजार नहीं किया जाता , उसे  झपट लिया जाता है। झपट्टा मारने के खेल में मीडिया का कोई जवाब नहीं है। जैसे अर्जुन को मछली की आँख में तीर मारना होता था तो उसे सिर्फ उस की आँख दिखती थी, बाकी सब कुछ दिखना बंद हो जाता था। बोलिए फिर निशाना गलत कैसे हो। हमारी पत्रकार बिरादरी में कोई अर्जुनों की कमी है?
भारत सरकार खिलाड़ियों को अर्जुन पुरस्कार दे कर कोई अकल वाला काम नहीं कर रही है। वास्तव में यह नाम तो मीडिया कर्मियों के लिए बुक कर दिया जाना चाहिए था। फैसला सुप्रीम कोर्ट का हो या हाईकोर्ट का ,या फिर किसी जिला या निचली अदालत का। उन्हें फैसलों में सिर्फ अपने काम की बात दिखाई देती हैं। बाकी  की पंक्तियाँ  औझल हो जाती हैं। अब ऐसे कर्मवीरों को छो़ड़ भारत सरकार खिलाड़ियों को अर्जुन पुरस्कार  बांट रही है।  खिलाड़ियों को  ये पुरस्कार देने से क्या लाभ? वैसे भी अर्जुन तीरंदाज भले ही हो, खिलाड़ी बिलकुल न था। अवसर होता था तो फाउल खेलता था। शिखंडी को आगे कर के पितामह के हथियार डलवा दिए और निपटा दिया। ऐसा कोई मीडिया कर्मी ही कर सकता था और कोई नहीं।
ब मीडियाकर्मी जानते हैं कि नहीं यह तो मुझे पता नहीं कि अदालतें सिर्फ कानून के मुताबिक फैसले देती हैं। उन्हें कानून बनाने का अधिकार नहीं। अब अदालत बोले कि अविवाहित या विवाह के बंधन से बाहर के बालिग स्त्री-पुरुष या पुरुष-पुरुष या स्त्री-स्त्री साथ रहें तो यह अपराध नहीं। इस में अदालत ने क्या गलत कहा? उन्हों ने तो अपराधिक कानूनों के मुताबिक इस बात को जाँचा और अपना फैसला लिख दिया। यह तय करना उन का काम नहीं कि कानून क्या हो। हाँ वे यह जरूर कह सकते हैं कि क्या कानून नहीं हो सकता? वो भी संविधान पढ़ कर।  कानून बनाना संसद या विधानसभा का काम ठहरा। कौन सा कृत्य या अकृत्य अपराध होगा? औरकौन सा  नहीं? पर अजीब रवायत है इस देश की कि संसद और विधानसभाओं में बैठ कर कानूनों पर मुहर लगाने वाले अदालत के फैसलों पर टिप्पणी करने से कभी नहीं चूकते। उन में चौहानवंशियों की कमी थोड़े ही है। जब कानून बन रहा होता है तो तो वे संसद और विधानसभा से नदारद होते हैं और होते हैं तो नींद निकाल रहे होते हैं।  अदालत के  फैसले के बहाने संस्कृति का रक्षक बनने का अवसर मिले  चौहान कभी नहीं चूकता।
 पुरुषों की बिरादरी भी कम नहीं, वो ब्लागर हों या लेखक, क्या फर्क पड़ता है? बस पुरुष होने चाहिए। जब सब बोलने में पीछे नहीं हट रहे हों तो ये क्यो चूकें, लिखने और टिपियाने से? शादी पर लानत भेजने से न चूके। ये बताने से न चूके कि यदि जीवन  में सब से बड़ी मूर्खता कोई है तो वो शादी है।  मूर्खता भी बला की खूबसूरत, ऐसी कि जो कर पाए सो भी पछताए और जो न करे वो भी पछताए। जिस जिस ने कर ली वो भुगत रहा है। रोज मर्दाने में जा कर अपनी व्यथा-कथा सुना आता है। अदालत का फैसलाआता है कि बिना ये किए भी साथ रहा जाए तो कोई जुर्म नहीं। तो पीड़ा से कराह उठता है, लगता है किसी ने दुखती रगों को छेड़ दिया है। अंग-अंग दुख ने लगता है। मन ही मन सोचता है हाय! ये फैसला पहले क्यूँ न आया? कम से कम जिन्दगी की सब से बड़ी मूर्खता से तो बच जाता। वह सोचते सोचते बेहोस हो लेता है। फिर जैसे ही तनिक होश आता है, सोचता है यहे बात मुहँ से न निकले। कह दी तो मर्दानगी पर सवाल खड़ा हो जाएगा। उसे भगवान के दर्शनार्थ नकटे हुए लोगों का किस्सा याद आने लगता है। वह कहने, लिखने और ब्लागियाने लगता है -अदालत ने संस्कृति पर बहुत बड़ा हमला कर दिया है। चाहे वह अपराध न हो, पर इस से भगवान तो नहीं दिखता। उस के लिए तो नाक कटाना जरूरी है।