@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

यात्रा के पहले काम का एक दिन

सुबह शेव बना कर दफ्तर में आ बैठा था। सुबह से कोहरा और बादल थे तो रोशनी की कमी ने दुपहर चढ़ने का अहसास ही समाप्त कर दिया। काम और आगंतुकों में ऐसा फँसा कि 12 बजे के पहले उठ नहीं सका। आगंतुकों के उठते ही ने उलाहना दिया -आज नहीं नहाना क्या?  मैं तुरंत उठ कर अंदर गया तो देखा भोजन तैयार है। पर स्नान बिना तो भूख दरवाजे के बाहर खड़ी रहती है। शोभा ठहरी शिव-भक्त दो दिन की उपवासी। मैं तुरंत स्नानघर में घुस लिया। बाहर निकला तब तक उपवासी उपवास खोल चुकी थी। 
आज शाम जोधपुर निकलना है। सोमवार की सुबह ही वापस लौटूंगा। उस दिन का अदालत के काम की आज ही तैयारी जरूरी थी, तो भोजन के बाद भी बैठना पड़ा। एक बजे फिर मकान का मौका देखने के लिए एक सेवार्थी का संदेश आया। थका होने से उसे तीन बजे आने को कहा और मैं काम निपटा कर कुछ देर विश्राम के लिए रजाईशरणम् हुआ।
ह साढ़े तीन बजे आया। कोहरा छंट चुका था, धूप निकल आई थी। लेकिन हवा में नमी और ठंडक मौजूद थी। फरवरी के मध्य़ में बरसों बाद ऐसा सुहाना मौसम दीख पड़ा। सेवार्थी का घर नदी पार था। चंबल बैराज पर बांध के सहारे बने पुल पर हो कर गुजरना पडा। बांध के पास बहुत लोग प्रकृति और बांध की विपुल जलराशि का नजारा लेने एकत्र थे और कबूतरों को दाना डाल रहे थे। सैंकड़ों कबूतर दाने चुग रहे थे। सैंकड़ों इंतजार में थे। मौका देख कर वापस लौटा तो फिर से काम निपटाने बैठ गया। प्रिंट निकालते समय लगा कि  इंक-जेट कार्ट्रिज में स्याही रीतने वाली है। तुरंत उसे भरने की व्यवस्था की गई। सूख जाने पर कार्ट्रिज खराब होने का अंदेशा जो रहता है। सिरींज में स्याही जमी थी। शोभा ने प्रस्ताव किया कि सिरींज वह ला देगी। वह चार रुपए की नई कुछ बड़ी सिरिंज तीन मिनट में केमिस्ट से ले आई। हमने स्याही भर कर दुबारा प्रिंट निकाल कर देखा ठीक आ रहा था। काम की जाँच की। अब सोमवार को सुबह कोटा पहुँचने पर अदालती काम ठीक से करने लायक स्थिति है और दफ्तर से उठ रहा हूँ।
ल जोधपुर में काम से निपटते ही हरि शर्मा जी को फोन करना है। उन्हों ने वहाँ एक छोटा ब्लागर मिलन रखा है। तीसरे पहर तक उस से निपट कर कुछ और लोगों से मिलना हो सकेगा। देखते हैं जोधपुर की इस यात्रा में क्या नया मिलता है? कल ब्लागीरी से अवकाश रहेगा।

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

लो, मेरा रूमाल ले लो

शिवरात्रि के अवकाश का दिन बिना कोई उल्लेखनीय काम और उपलब्धि के रीत गया। कुछ ऐसे ही एक मौका देखने जाना पड़ा। वापसी में जोधपुर जाने-आने की यात्रा के टिकट ले कर आया बस में लोअर स्लीपर मिल गया इतना पर्याप्त था इस जाती हुई और जाते जाते अपने तमाम रूप और नखरे दिखाती सर्दी में। बस अब चंबल पुल पार होने के पहले स्लीपर के बॉक्स में घुस कर कंबल डाल लेना और लेटे हुए जब तक नींद न आ जाए तब तक बाहर के अंधेरे के दृश्य देखते रहना। अंधेरी रात में अंधियार के रंग में रंगे पेड़ों और गांवों में जलती बत्तियों की रोशनी के केवल आसमान में टंगे सितारों के सिवा और क्या देखा जा सकता है। पर वहाँ जहाँ बिजली की रोशनी न हो दूर दूर तक वहाँ सितारों की चमक अद्भुत लगती है। उन में से बहुतों को मैं पहचानता हूँ। अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहणी और सब से अधिक चमकदार मृगशिर नक्षत्र। शुक्र, बृहस्पति और मंगल आसानी से पहचाने जाते हैं। बस की यात्रा में शनि को पहचानने में बहुत दिक्कत होती है। राशि मंडल के तारे हमेशा पहचानने में आ जाते हैं। खास तौर पर सिंह और वृच्छिक तो देखते ही पहचाने जाते हैं, मिथुन भी। 
खैर, यह सब तो कल रात को देखा जाना है। आज राज भाटिया जी की पोस्ट बहुत भावुक कर गई। सोने के पहले अनपैक्ड दिनेशराय द्विवेदी  को जो आधा रजाई में घुसा हुआ मोबाइल में डूबा था, शूट कर डाला। पास की टेबुल पर पैक्ड हुक्का उन से अधिक खूबसूरत लग रहा था। लगे भी क्यों न उस के पैदा होने के पहले ही जर्मनी जाने की टिकट जो बन गई थी। बिना कोई पासपोर्ट और वीजा के वह जर्मनी जाने वाला था हमेशा-हमेशा के लिए।  बाजार से गुजरते हुए एक दुकान पर हुक्के दिखे। बस हुक्के ही हुक्के। भाटिया जी का मन ललचा गया। बोले-एक ले लेता हूँ। वहाँ जर्मनी में लोग सिगरेट ऑफर करते हैं तो मैं बोलता हूँ हम ये नहीं पीते। पूछते हैं क्या पीते हैं? तो उन्हें कहता हूँ हुक्का। फिर सवाल होते हैं कि ये हुक्का क्या है? मैं  उन्हें बताता हूँ। इस बार असल ही ले जाकर बताता हूँ।
न्हें पसंद तो बहुत बड़ा वाला आ रहा था। पर छोटा तैयार करवाया गया। जिस से ले जाने में परेशानी न हो। अब जर्मन जा रहे हुक्के का दिनेशराय द्विवेदी से क्या मुकाबला। पर फँस गया। जर्मनी जाने के पहले दिनेशराय द्विवेदी के पास होने की सजा भुगती और शूट हो गया। अब तक तो हुक्का अनपैक्ड हो कर फूँकने की शक्ल में आ गया होगा और भाटिया जी के ड्राइंगरूम की शोभा बढ़ा रहा होगा। 
जबूरी थी, कि बहिन के ससुराल में विवाह था और आना बेहद जरूरी था। भाटिया जी को छोड़ कर आना पड़ा। भाटिया जी में एक बेहतरीन साथी मिला। एक स्नेहिल भाई जैसा। शाम को शिवराम जी का कविता संग्रह माटी मुळकेगी एक दिन देख रहा था। साथी क्या होता है वहाँ जाना। आप भी देखिए .....


लो, मेरा रूमाल ले लो
 -- शिवराम



किसे ढूंढ रहे हो? क्या मुझे।

नहीं भाई नहीं
साथी जेबों में नहीं मिलते
दाएँ-बाएँ भी नहीं मिलते
नहीं, ब्रीफकेस में तो हर्गिज नहीं
वे होते हैं तो हाथों में हाथ डाले होते हैं
और नहीं होते तो नहीं होते

वे आसानी से खोते भी नहीं
वे आसानी से पीछा भी नहीं छोड़ते 

अपनी उंगलियों में ढूंढो
मैं अभी भी वहीं हूँ

अच्छा!
कोई और चीज ढूंढ रहे हो
कोई बात नहीं
मुझे गलतफहमी हो गई थी 
मैं समझा था कि तुम 
शायद मुझे ढूंढ रहे हो
तुम तो शायद रूमाल ढूंढ रहे हो
हथेलियों का मैल पोंछने के लिए
या माथे का पसीना
या शायद नाक सिनकना चाहते हो
और, रूमाल नहीं मिल रहा है

लो, मेरा रूमाल ले लो
जो चाहो साफ करो इस से
और सुनो-
इस से आईना-ए-दिल भी 
साफ किया जा सकता है।



गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

अम्मी मत रो! सब ठीक हो जाएगा।

कोटा शहर की एक बस्ती संजय गांधी नगर में कल शाम पाँच बजे एक हादसा हुआ ......
हर में छोटी सी जगह। उस पर किसी तरह मकान बनाया। जैसे तैसे गुजारा चल रहा था। सोचा ऊपर भी दो कमरे डाल लिए जाएँ किराया आ जाएगा तो घर खर्च में आसानी हो लेगी। बमुश्किल बचाए हुए रुपए और कुछ कर्जा ले कर काम शुरु कर दिया। जुगाड़ था कि कम से कम पैसों में काम बन जाए। सस्ते मजदूरों से काम चलाया। दीवारें खड़ी हो गईं। आरसीसी की छत डालने का वक्त आ गया। सारे ठेकेदार बहुत पैसे मांगते थे। बात की तो एक ठेकेदार सस्ते में काम करने को तैयार हो गया। छत पर कंक्रीट चढ़ने लगा। शाम हो गई। काम बस खत्म होने को ही था कि न जाने क्या हुआ मकान का आगे का हिस्सा भरभराकर गिर गया।
क मजदूरिन नीचे दब गई। पति भी साथ ही काम करता था। दौड़ा और लोग भी दौड़े। तुरत फुरत मलबा हटा कर मजदूरिन को निकाला गया। तब तक वह दम तोड़ चुकी थी। पति, एक छह माह की बच्ची और एक तीन साल का बालक वहीं थे। तीनों रोने लगे। परिवार का एक अभिन्न अंग जो तीनों को संभालता था जा चुका था। पुलिस आ गई। पुलिस ने पति रो रहा था। रोते रोते कह रहा था। इस के बजाए मैं क्यों न दब गया? अब हम तीनों को कौन संभालेगा? बच्चों का क्या होगा?
पुलिस ने शव को पोस्ट मार्टम के लिए अस्पताल पहुँचा दिया और मुकदमा दर्ज कर लिया। अब जाँच की जा रही है कि कहीं मकान निर्माण में हलका माल तो इस्तेमाल नहीं किया जा रहा था, कहीं तकनीकी खामी तो नहीं थी और कहीं निर्माण कर रहे मजदूर तकीनीकी रूप से अदक्ष तो नहीं थे।
धर मकान की मालकिन अपने कई सालों की बचत को यूँ बरबाद होते देख दुखी थी। न जाने कितनी रातें उस ने कम खा कर गुजारी होंगी। वह भी रो रही थी। लोगों के समझाते भी उस की रुलाई नहीं रुक रही थी। उस की एक चार साल की बच्ची उसे चुप कराने के प्रयास में लगी थी। कह रही थी -अम्मी मत रो! सब ठीक हो जाएगा।

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

बढ़ सकती है उत्सवों की संख्या

ठ फरवरी को रुचिका छेड़छाड़ मामले के अभियुक्त एसपीएस राठौर पर उत्सव नाम के युवक ने चाकू से हमला किया और उसे घायल कर दिया। बताया गया है कि उत्सव दिमागी तौर पर बीमार है और उस की चिकित्सा चल रही है। रुचिका प्रकरण में बहादुरी और संयम के साथ लड़ रही रुचिका की सहेली आराधना ने कहा है साढ़े उन्नीस साल से हम भी हमेशा कानूनी दायरे में ही काम करते रहे हैं। इसलिए मैं आग्रह करूंगी कि लोग यदि आक्रोशित हैं तो भी कृपया कानून के दायरे में रहें। हमें न्यायपालिका की कार्रवाई का इंतजार करना चाहिए और किसी को भी कानून अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए।
राधना इस के सिवा और क्या कह सकती थी? क्या वह शिवसेना प्रमुख के बयानों की तरह यह कहती कि लोगों को राठौर से सड़क पर निपट लेना चाहिए? निश्चित रूप से आज भी जब एक मामूली छेड़छाड़ के प्रकरण में अठारह वर्ष के बाद निर्णय होता है तो कोई विक्षिप्त तो है जो कि संयम तोड़ देता है।
देश की बहुमत जनता अब भी यही चाहती है कि न्याय व्यवस्था में सुधार हो लोगों को दो ढ़ाई वर्ष में परिणाम मिलने लगें। लेकिन इस दिशा की और बयानों के सिवा और क्या किया जाता है? देश की न्यायपालिका के प्रमुख कहते हैं कि उन्हें अविलंब पैंतीस हजार अधीनस्थ न्यायालय चाहिए। यदि ध्यान नहीं दिया गया तो जनता विद्रोह कर देगी।
ज यह काम एक विक्षिप्त ने किया है। न्याय व्यवस्था की यही हालत रही तो इस तरह के विक्षिप्तों की संख्या भविष्य में तेजी से बढ़ती नजर आएगी। स्वयं संसद द्वारा निर्धारित मानकों के अनुसार देश में इस समय साठ हजार अधीनस्थ न्यायालय होने चाहिए। देश के मुख्य न्यायाधीश तुरंत उन की संख्या 35 हजार करने की बात करते हैं। वास्तव में इस समय केवल 16 हजार न्यायालय स्थापित हैं जिन में से 2000 जजों के अभाव में काम नहीं कर रहे हैं। केवल 14 हजार न्यायालयों से देश की 120 करोड़ जनता समय पर न्याय प्राप्त करने की आशा नहीं कर सकती।अमरीका के न्यायालय सभी प्रकार की आधुनिक सुविधाओँ से युक्त हैं और उन की न्यायदान की गति तेज है। फिर भी वहाँ 10 लाख की आबादी पर 111 न्यायालय हैं। यदि अमरीका की जनसंख्या भारत जितनी होती तो वहाँ न्यायालयों की संख्या 133 हजार होती।
धीनस्थ न्यायलयों की स्थापना की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है, जिन की अधिक न्यायालय स्थापित करने में कोई रुचि नहीं है।  मुख्य न्यायाधीश और प्रधानमंत्री द्वारा लगातार अनुरोध करने के उपरांत भी राज्यों का इस ओर कोई ध्यान नहीं है। क्या ऐसी अवस्था में यह सोच नहीं बननी चाहिए कि दीवानी और फौजदारी मामलों में न्यायदान की जिम्मेदारी राज्यों से छीन कर केंद्र सरकार को अपने हाथों में ले लेनी चाहिए?

रविवार, 7 फ़रवरी 2010

मीडिया उत्तेजना फैलाने में न्यायालय की अवमानना की भी परवाह नहीं करता

मीडिया समाचारों के मंतव्यों को बदलता है, यह बात अब छुपी हुई नहीं रह गई है। वह समाचारों को अपने हिसाब से लिखता है जिस से एक विशेष प्रतिक्रिया हो और उस खबर को खास तौर पर पढ़ा जाए। उसे इस बात का भी ध्यान नहीं रहता कि इस प्रकार वह समाज में क्षोभ भी उत्पन्न कर सकता है। अदालती समाचारों को कवर करते समय वह इस बात का भी ध्यान नहीं रखता है कि इस तरह न्यायालय की अवमानना भी वह कर रहा है। हाथ कंगन को आरसी क्या। खुद एक समाचार को पढ़ लीजिए जो विभिन्न समाचार पत्रों और उन के नैट संस्करणों में पिछले दिनों छपा है। यहाँ शीर्षक और लिंक दिए गए हैं। आप चाहें तो उन के मूल स्रोत पर जा कर पूरा समाचार पढ़ सकते हैं। 

A ruling by the Supreme Court, upholding as illegal the second marriage by a Muslim employee of Rajasthan Government without divorcing first wife, has ...
 
 
 
Examiner.com -03-02-2010
The Indian Supreme Court ruled that a government employee, who happens to be Muslim, could not legally marry his second wife without divorcing the first ...

बीबीसी हिन्दी - ‎29-01-2010
अदालत में लियाक़त अली ने कहा कि उन्होंने पहली पत्नी फ़रीदा ख़ातून से मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत तलाक़ लेने के बाद मक़सूद ख़ातून से दूसरा निकाह किया था. लेकिन सरकार की ओर से अदालत को बताया गया कि इस मामले में जाँच समिति ने पाया कि लियाक़त अली ने पहली पत्नी से बिना तलाक़ लिए ही दूसरा विवाह कर लिया और ऐसा करके सरकारी कर्मचारियों के लिए बने नियमों का उल्लंघन किया है. सरकारी वकील अमित भंडारी ने अदालत को बताया कि राजस्थान सर्विस ...

IBNKhabar - 29-01-2010
जयपुर। मुस्लिम समाज में एक से अधिक विवाह की बात को लेकर एक बार फिर बहस छिड़ गई है। यह बहस तब शुरू हुई जब सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान पुलिस के एक कर्मचारी लियाक़त अली को पहली पत्नी के होते हुए दूसरा विवाह करने पर नौकरी से निकालने के सरकार के फैसले को उचित ठहराया। सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान हाईकोर्ट के उस फैसले को सही ठहराया जिसमें ये कहा गया था कि कोई भी सरकारी कर्मचारी एक पत्नी के रहते हुए दूसरी शादी नहीं कर सकती। ...

दैनिक भास्कर - 29-01-2010
जयपुर. सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान सरकार के उस फैसले को सही करार दिया है, जिसमें एक मुस्लिम कर्मचारी लियाकत अली को दूसरी शादी करने की वजह से नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई करते हुए स्पष्ट किया है कि पहली पत्नी के रहते कोई भी सरकारी कर्मचारी दूसरा विवाह नहीं कर सकता। अगर कोई लोकसेवक ऐसा करता है तो उसे सरकारी नौकरी से बर्खास्त करना उचित है। राज्य सरकार की ओर से शुक्रवार को यहां बताया गया कि ...
(यहाँ सभी लिंक गूगल समाचार से प्राप्त किए गए हैं)

ह समाचार इस तरह था कि एक कांस्टेबल ने सरकारी नौकरी में रहते हुए तथा एक पत्नी के होते हुए भी दूसरा विवाह कर लिया। यह कांस्टेबल मुस्लिम था इस कारण से उस का यह दूसरा विवाह कानूनी तो था। लेकिन दूसरा विवाह कर के उस ने अपनी नौकरी की शर्त को भंग कर दिया। नौकरी की शर्त यह थी कि कोई भी सरकारी कर्मचारी बिना अनुमति के दूसरा विवाह नहीं कर सकता। इस तरह शर्त को भंग करना नौकरी में एक दुराचरण था। जिस के लिए उसे आरोप पत्र दिया गया और आरोप सही सिद्ध होने पर उसे नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया। उस ने न्यायालय में बर्खास्तगी के इस आदेश को चुनौती दी। राजस्थान उच्च न्यायालय ने बर्खास्तगी को उचित माना। कर्मचारी ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष अपील प्रस्तुत की जिसे उच्चतम न्यायालय ने स्वीकार नहीं किया।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपील स्वीकार न करने के समाचार को कुछ समाचार पत्रों ने इस तरह प्रकाशित किया कि मुस्लिम सरकारी कर्मचारी द्वारा एक पत्नी के होते दूसरा विवाह अवैध है। जब कि यह बात सिरे से गलत थी। लेकिन इस तरह समाचार प्रकाशित कर समाचार पत्रों ने जहाँ मुस्लिम समुदाय में उत्तेजना पैदा की वहीं उन के विरोधियों और समान नागरिक संहिता के समर्थकों को प्रसन्नता से उत्तेजित होने का अवसर प्रदान किया। इस तरह हम देखते हैं कि आज पत्रकारिता किस तरह उत्तेजना उत्पन्न करने का यत्न करती है। यह तो देश में अदालतें जरूरत की एक चौथाई हैं दस लाख की आबादी पर केवल 11-12 मात्र, और ऊंची अदालतों के पास भी बहुत काम है जिस से वे इन घटनाओं की ओर ध्यान नहीं दे पाती हैं। यदि यही घटना अमरीका जैसे देश में घटी होती जहाँ दस लाख की जनसंख्या पर 111 अदालतें हैं, तो इन अखबारों के संपादकों को न्यायालय की अवमानना के नोटिस मिल चुके होते।
हाँ मेरा मंतव्य केवल समाचार पत्रों की रिपोर्टिंग की ओर इशारा करना था। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय किसी भी प्रकार से मुस्लिम पर्सनल लॉ के विरुद्ध नहीं है, इस पर मैं तीसरा खंबा में लिखूंगा। वहाँ इस मामले से संबंधित एक प्रश्न भी मुझे मिला हुआ है।

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

खूबसूरत मोर रोता है, अपने पैरों को देख कर

ई दिनों से आसमान में बादल छाए थे। लेकिन बरसात नहीं हो रही थी। तालाब सूख चुका था। पानी के लिए तालाब के पेंदे में गड्ढे बना कर काम चलाया जा रहा था। ऐसे में शाम के वक्त दो गप्पी तालाब किनारे बैठे गप्प मार रहे थे। 
पहले ने कहा -मेरे दादा जी के दादा जी का मकान इतना बड़ा था कि चलते जाओ चलते जाओ कहीं छोर तक नहीं दिखाई देता था।
दूसरे गप्पी ने हाँ में हाँ मिलाई -जरूर होगा। 
कुछ देर बाद दूसरा गप्पी कहने लगा -बरसात नहीं हो रही है। मेरे दादा जी के दादा जी के पास का बांस गल गया। वह होता तो मैं उस से बादल में छेद कर के पानी बरसा देता। 
पहले गप्पी ने उस की बात का प्रतिवाद किया -तू गप्प मार रहा है। इतना बड़ा बांस हो ही नहीं सकता। अगर था तो वे उसे रखते कहाँ थे? 
दूसरे गप्पी ने कहा -तुम्हारे दादा जी के मकान में। पहला गप्पी निरुत्तर हो गया।
ह बहुप्रचलित किस्सा है। 
मय समय पर हम लोग लिखते-पढ़ते रहते हैं कि हमारे पुरखों के पास पहले से बहुत या सब ज्ञान था। पश्चिम वालों ने सब कुछ बाद में खोजा है। इस में कोई संदेह नहीं कि प्राचीन भारत में ज्ञान की कोई कमी नहीं थी। वह ज्ञान के सर्वोच्च शिखर पर था। लेकिन फिर वह ज्ञान कहाँ चला गया? कहाँ खो गया? 
दि वह ज्ञान था तो फिर हमारी अनेक पीढ़ियाँ अकर्मण्य और आलसी थीं कि वे उसे सुरक्षित नहीं रख सकीं। हम उन्हीं पीढ़ियों के वंशज हैं और हमें इस बात पर शर्म आनी चाहिए कि हम ने अपना ज्ञान और गौरव नष्ट कर दिया। फिर पश्चिम वालों ने उस ज्ञान को फिर से खोज निकाला अथवा नए सिरे से जान लिया। तो निश्चित रूप से उन्हें इस का श्रेय दिया जाना चाहिए। हम जब यह कहते हैं कि यह ज्ञान पहले से हमारे पास था तो हम केवल अपनी पीढ़ियों की अकर्मण्यता और आलस्य को प्रदर्शित करते हैं, जो निश्चित रुप से गौरव का विषय  नहीं हो सकता। 
ज सुबह ही ललितडॉटकॉम  पर भाई ललित शर्मा जी की पोस्ट प्राचीन कालीन विमान तकनीकि-ज्ञान वर्धक !!  पढ़ने को मिली। निश्चित रूप से इतने विविध प्रकार के विमानों के बारे में हमारे पूर्वजों को जानकारी थी, जान कर हर्ष हुआ। लेकिन दूसरे ही क्षण यह सोचते ही उस हर्ष का स्थान विषाद ने ले लिया कि हमारी सैंकड़ों पीढ़ियाँ इतनी अकर्मण्य थीं कि उस ज्ञान को विकसित करना तो दूर उसे सहेज कर भी न रख सकीं और सदियों तक बैलगाड़ियों में घिसटती रहीं। मुझे अपने अतीत पर गर्व के स्थान पर शर्म महसूस होने लगी।
ह सही है कि हमारे साहित्य में विमानों और उन के प्रकारों का उल्लेख है। लेकिन मुझे वे सिर्फ परिकल्पनाएँ ही लगती हैं। क्यों कि इतना सारा ज्ञान यकायक कहीं खो नहीं सकता और न हमारे पूर्वज इतने अकर्मण्य थे कि उस ज्ञान को सहेज कर भी नहीं रख सकते। हमेशा नए आविष्कारों के पहले परिकल्पनाएँ आती हैं। ये सब वही थीं। हमें प्राचीन साहित्य से गर्व करने के छंद तलाश कर लाने के स्थान पर वर्तमान ज्ञान को आगे बढ़ाने और मनुष्य जीवन को और बेहतर करने के प्रयासों में जुटना चाहिए। अतीत पर गर्व करने से कुछ नहीं होगा। क्यों कि अतीत में गर्व करने लायक जितना है। शायद उस से अधिक शर्म करने लायक भी है। मोर बहुत खूबसूरत होता है, उसे अपनी खूबसूरती पर गर्व भी है। लेकिन उसे अपने बदसूरत पैरों पर शर्म भी आती है और उन्हें देख वह रोता भी है।
............
मोर भी
अपने दिव्य पंखों को फैला कर चंद्राकार
दिशाओं को समेट
अपने चारों ओर लपेट
देश और काल को नचाता
मनभर नाचता है
पर अपने पंजों को देख
होता है बेहाल 

.........
डॉ. बलदेव वंशी की कविता का अंश

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

उन्हें अकेला खाने की आदत नहीं है

पिछले छह दिन यात्रा पर रहा। कोई दिन ऐसा नहीं रहा जिस दिन सफर नहीं किया हो। इस बीच जोधपुर में हरिशर्मा जी से मुलाकात हुई। जिस का उल्लेख पिछली संक्षिप्त पोस्ट में मैं ने किया था। रविवार सुबह कोटा पहुँचा था। दिन भर काम निपटाने में व्यस्त रहा। रात्रि को फरीदाबाद के लिए रवाना हुआ, शोभा साथ थी। सुबह उसे बेटी के यहाँ छोड़ कर स्नानादि निवृत्त हो कर अल्पाहार लिया और दिल्ली के लिए निकल लिया वहाँ। राज भाटिया जी से मिलना था। इस के लिए मुझे पीरागढ़ी चौक पहुँचना था। मैं आईएसबीटी पंहुचा और वहाँ से बहादुर गढ़ की बस पकड़ी। बस क्या थी सौ मीटर भी मुश्किल से बिना ब्रेक लगाए नहीं चल पा रही थी। यह तो हाल तब था जब कि वह रिंग रोड़ पर थी। गंतव्य तक पहुँचने में दो बज गए। भाटिया जी अपने मित्र के साथ वहाँ मेरी प्रतीक्षा में थे। मैं उन्हें देख पाता उस से पहले उन्हों ने मुझे पहचान लिया और नजदीक आ कर मुझे बाहों में भर लिया। 
म बिना कोई देरी के रोहतक के लिए रवाना हो गए। करीब चार बजे हम रोहतक पहुँचे। वहाँ आशियाना (रात्रि विश्राम के लिए होटल) तलाशने में दो घंटे लग गए। होटल मिला तब तक शाम ढल चुकी थी। हम दोनों ही थके हुए थे। दोनों ने कुछ देर विश्राम किया। कुछ काम की बातें की जिस के लिए हमारा रोहतक में मिलना तय हुआ था। विश्राम के दौरान भी दोनों बहुत देर तक बातें करते रहे। भाटिया जी अपने जर्मनी के जीवन के बारे में बताते रहे। फिर भोजन की तलाश आरंभ हुई। आखिर एक रेस्तराँ में दोनों ने भोजन किया और फिर रात को वे ले गए उस मोहल्ले में जहाँ उन का बचपन बीता था। वे अपने बचपन के बारे में बताते रहे। हम वापस आशियाने पर पहुँचे तो थके हुए थे। फिर भी बहुत देर तक बातें करते रहे। बीच-बीच में दिल्ली और आसपास के बहुत ब्लागरों के फोन भाटिया जी के पास आते रहे। कुछ से मैं ने भी बात की। फिर सो लिए। दूसरे दिन हम सुबह ही काम में जुट लिए। पैदल और रिक्शे से इधर उधऱ दौड़ते रहे। दोपहर बाद कुछ समय निकाल कर भाटिया जी ने भोजन किया। मैं उस दिन एकाहारी होने से उन का साथ नहीं दे सका तो उन्हों ने अपने साथ भोजन करने के लिए। किसी को फोन कर के बुलाया। 
मुझे उसी दिन लौटना था। जितना काम हो सका किया। भाटिया जी के कुछ संबंधियों से भी भेंट हुई। मुझे उसी रात वापस लौटना था। फिर भी जितना काम हो सकता था हमने निपटाया और शेष काम भाटिया जी को समझा दिया। रात को दस बजे भाटिया जी मुझे बस स्टॉप पर छोड़ने आए। आईएसबीटी जाने वाली एक बस में मैं चढ़ लिया। कंडक्टर का कहना था कि रात बारह बजे तक हम आईएसबीटी पहुँच लेंगे। लेकिन पीरागढ़ी के नजदीक ही चालक ने बस को दिल्ली के अंदर के शॉर्टकट पर मोड़ लिया। रास्ते में अनेक स्थानों पर लगा कि जाम में फँस जाएंगे। लेकिन बस निर्धारित समय से आधे घंटे पहले ही आईएसबीटी पहुँच गई। मेरे फरीदाबाद के लिए साधन पूछने पर चार लोगों ने बताया कि मैं सड़क पार कर के खड़ा हो जाऊँ कोई न कोई बस मिल जाएगी। वहाँ आधे घंटे तक सड़क पर तेज गति से दौड़ते वाहनों को निहारते रहने के बाद एक बस मिली जिस का पिछला दो तिहाई भाग गुडस् के लिए बंद था। उस के आगे के हिस्से में कोई बीस आदमी चढ़ लिए। बस पलवल तक जाने वाली थी। मैं ने शुक्र किया कि मुझे यह बस बेटी के घर से मात्र एक किलोमीटर की दूरी पर उतार सकती थी। एक घंटे बस में खड़े-खड़े सफर करने और एक किलोमीटर तेज चाल से पैदल चलने के बाद में सवा बजे बेटी के घऱ था। बावजूद इस के कि सर्दी भी थी और ठंड़ी हवा भी तेज चलने के कारण मैं पसीने में नहा गया था। 
दूसरे दिन दोपहर मैं पत्नी के साथ कोटा के लिए रवाना हुआ और रात नौ बजे के पहले घर पहुँच गया। आज अपनी वकालत को संभाला। दोपहर बाद भाटिया जी से फोन पर बात हुई। बता रहे थे कि कल वे दिन भर भोजन भी नहीं कर सके। पूछने पर बताया कि कोई खाने पर उन का साथ देने वाला नहीं था और उन्हें अकेला खाने की आदत नहीं है।