@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

मंगलवार, 8 जुलाई 2008

गति, प्रकृति का प्रथम धर्म

गति और जीवन प्रकृति के धर्म हैं। दोनों के बिना किसी का अस्तित्व नहीं। हम यह भी कह सकते हैं कि ये दोनों एक ही सिक्के के अलग अलग पहलुओं के नाम हैं। गति के बिना जगत की कल्पना ही नहीं की जा सकती। संभवतः गति ही वह प्रथम धर्म है, जिसने इस जगत को जन्म दिया। हम इसे समझने का यत्न करते हुए जगतोत्पत्ति के आधुनिकतम सिद्धान्तों में से एक महाविस्फोट (बिगबैंग) के सिद्धान्त पर दृष्टिपात करें।
सब कुछ एक ही बिन्दु में निहित। क्या कहा जा सकता है उसे? पदार्थ? या कुछ और? सांख्य के प्रवर्तक मुनि कपिल ने नाम दिया है प्रधानम्। वे कहते हैं...
अचेतनम् प्रधानम् स्वतंत्रम् जगतः कारणम्।।
अर्थात् अचेतन प्रधान ही स्वतंत्र रूप से जगत का कारण है। चाहे तो आप उसे ईश्वर, ब्रह्म, अक्षर, अकाल, खुदा या और कोई भी नाम दे सकते हैं। कोई भी सिद्धान्त हो। सब से पहले जिस तत्व की कल्पना की जाती है वही है यह। इसी से समूचे जगत (यूनिवर्स) की उत्पत्ति कही जाती है। कपिल कहते हैं वह अचेतन था, और महाविस्फोट का कारण? निश्चय ही गति।
पदार्थ जिसे कपिल ने प्रधानम् कहा। हम आद्यपदार्थ कह सकते हैं। अगर पदार्थ है, तो गुरुत्वाकर्षण भी अवश्य रहा होगा। संभवतः पदार्थ के अतिसंकोचन ने ही महाविस्फोट को जन्म दिया हो। मगर वह गति ही दूसरा तत्व था जिसने अचेतन प्रधान को जगत में रूपान्तरित कर दिया।
बाद के सांख्य में पुरुष आ जाता है। वह गति के सिवाय क्या हो सकता है? मगर कहाँ से? आद्यपदार्थ अथवा आद्यप्रकृति से ही न?
यह गति ही है, जो प्रकृति के कण कण से लेकर बड़े से बड़े पिण्ड का धर्म है। जो सतत है। गति है, तो रुपान्तरण भी सतत है। वह रुकता नहीं है। कल जो सूरज उदय हुआ था, वह आज नहीं, और जो आज उदय हुआ है वह कल नहीं होगा। हर दिन एक नया सूरज होगा। रूपान्तरित सूरज। हम जो आज हैं, वह कल नहीं थे। जो आज हैं वह कल नहीं रहेंगे। रुपान्तरण सतत है, सतत रहेगा।
फिर क्या है, जो स्थिर है? वह आद्य तत्व ही हो सकता है जो स्थिर है। उस का परिमाण स्थिर है। परिवर्तित हो रहा है तो वह केवल रूप ही है। हम वही होना चाहते हैं। स्थिर¡ हमारा मन करता है, स्थिर होने को। कहीं हम समझते हैं कि हम स्थिर हो गए। लेकिन रूप स्थिर नहीं। वह सतत परिवर्तनशील है।
फिर हम किसी को माध्यम बनाएँ या नहीं। रूपान्तरण चलता रहेगा। निरंतर और सतत्।
आज की इस पोस्ट के लिए प्रेरणा का श्रोत हैं, सम्माननीय ज्ञानदत्त जी पाण्डेय। जिन के आज के आलेख ने मेरे विचारबंध को तोड़ दिया, और यह सोता बह निकला। मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ।

शनिवार, 5 जुलाई 2008

अफरोज 'ताज' की बगिया के आम

हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी पर पाठकों की भरपूर टिप्पणियाँ प्राप्त हुईं। इस से इस विषय की व्यापकता और सामयिकता तो सिद्ध हो ही गई। साथ ही इस बात को भी समर्थन मिला कि लिपि और शब्द चयन के भिन्न स्रोतों के चलते भी आम हिन्दुस्तानी ने शब्द चयन की स्वतंत्रता का त्याग नहीं किया है। उस की भाषा में नए शब्द आते रहे, और शामिल होते रहे। नए शब्द आज भी आ रहे हैं और भाषा के इस सफर में शामिल हो रहे हैं। वे कहीं से भी आएँ, लेकिन जब एक बार वे शामिल हो जाते हैं तो फिर हिन्दुस्तानी शक्ल अख्तियार कर लेते हैं।
ल चिट्ठाकार समूह पर एक साथी ने लेपटाप के लिए हिन्दी में सुंदर सा शब्द सुझाया। लेकिन अधिकांश लोग उसे कुछ और कहने को तैयार ही न थे। लेपटापों की किस्मत कि वे हिन्दुस्तानी में इस तरह रम गए हैं कि अब उन का बहुवचन लेपटाप्स नहीं होता, यही हाल कम्प्यूटरों का हुआ है। कम्पाउण्डर की पत्नी तो बहुत पहले से ही कम्पोटरनी और खाविंद कम्पोटर जी हो चुके हैं। न्यायालय लिखने में बहुत खूबसूरत हैं, लेकिन बोलने में अदालत, कचहरी ही जुबान की शोभा बढ़ाते नजर आते हैं। भले ही न्याय को सब जानते हों, लेकिन अद्ल अभी भी अनजाना लगता है। साहिब चार शताब्दी पहले ही तुलसी बाबा की जीभ ही नहीं कलम पर चढ़ चुका था, और अपने आराध्य राम को इस से निवाज चुके थे।
ज-कल हिन्दी न्यूज चैनलों पर छाई हुई उड़न तश्तरी ने 'बेहतरीन आलेख के लिए बधाई' का बिण्डल हमें पकड़ाया और टिपिया कर उड़न छू हो गई। उस के लौट कर आने की प्रतीक्षा है। कुश भाई एक सार्थक मारवाड़ी कहावत भेंट कर गए। सिद्धार्थ जी को आलेख के विश्लेषण से अपनी धारणा को मजबूती मिली। उन्हों ने बताया भी कि कैसे बीबीसी की हिन्दुस्तानी सर्वि्स यकायक दो भागों में विभाजित हो कर हिन्दी और उर्दू सर्विसों में बदल गई। लावण्या जी ने अमरीका से कि वे कैसे अमरीकियों की बोली से पहचान लेती हैं कि बोलने वाला किस प्रांत से है। उन्हों ने ही 'ताज' के आलेख को पुष्ट करते हुए यह भी बताया कि 'उर्दू को "छावनी" या फौज की भाषा भी कहा जाता था'। सजीव सारथी ने आलेख को बढिया बताया तो संजय जी पूछते रह गए कि उर्दू हिन्दी एक हुई या दोनों अलग अलग रह गईं। (या दोनों खिलाड़ी आउट?)
ज्ञान भाई हम से पंगा लेने से चूक गए। यह अच्छा मौका था, फिर मिले न मिले? वैसे हमारा उन से वादा रहा कि हम ऐसे मौके बार-बार देते रहेंगे। हमें उन का इन्डिस्पेंसीबल समझ ही नहीं आ रहा था, शब्दकोष तक जाना अपरिहार्य हो गया। हम उन से सहमत हैं कि भाषा का उद्देश्य संम्प्रेषण है, और कोई भी गन्तव्य तक जाने का लम्बा रास्ता नहीं चुनना चाहता। चाहे राजमार्ग छोड़ कर पगडण्डी पर, या चौबदार की नज़र बचा कर गोरे साहब के बंगले से गुजरने की जोखिम ही क्यों न उठानी पड़े। जोखिम उठाए बगैर जिन्दगी में मजा भी क्या? बाजार से खरीद कर खाया आम वह आनंद नहीं देता जो पेड़ पर चढ़, तोड़ कर खाया देता है। जिन आमों का आप सब ने आनंद प्राप्त किया वे हम अफरोज 'ताज' की बगिया से तोड़ कर लाए थे, बस आप को अपने पानी में धो कर जरूर पेश किए हैं। अब जब सब ने इसे मीठा बताया है, तो इस का श्रेय बाग के मालिक को ही क्यों न मिले? स्पेक्ट्रम खूब चलता है, और चलेगा। यूँ तो आवर्त-सारणी के पहले हाइड्रोजन से ले कर आखिरी 118वें प्रयोगशालाई तत्व उनूनोक्टियम तक का अपना वर्णक्रम है। लेकिन स्पेक्ट्रम कान में पड़ते ही कानों में न्यूटन की चकरी की चक-चक, आषाढ़ की बरसात की पहली बूंदों की जो झमाझम गूंजती है और आँखों के सामने जो इन्द्रधनुष नाचता है उस का आनंद कहीं और नहीं।
स आलेख को अफलातून जी की सहमति भी मिली और शिव भाई को भी अच्छा लगा। अभय तिवारी ने भी व्याकरण को ही भाषा का मूलाधार माना लेकिन उन्हें मलाल है कि दुनियाँ में दूसरी सब से ज्यादा बोले जाने वाली भाषा की हालत निहायत मरियल क्यों है। हम उन को कहते हैं आगे के दस साल देखिए, फिर कहिएगा। अभिषेक ओझा ने विश्लेषण को बढ़िया बताया, अजित वडनेरकर का शब्दों का सफर इसे पहले से ही हिन्दुस्तानी कहता आ रहा है। उन्हें तो अफसोस इस बात का है कि बोलने वाले तो इसे विकसित करते रहे लेकिन लिखने वाले भाषा के शुद्धतावादियों के संकीर्णता ने इसे अवरुद्ध कर दिया। पूनम जी ने बधाई के साथ शुक्रिया भेंट किया। दीपक भारतदीप ने हमारे आप के लिखे को निस्सन्देह रूप से हिन्दुस्तानी ही कहा और गेयता को पहली शर्त भी।
घोस्ट बस्टर जी बहस में पड़ना नहीं चाहते, उन की तरफ से हिन्दी हो या उर्दू काम चलना चाहिए। कुल मिला कर उन का वोट हिन्दुस्तानी के खाते में ड़ाल दिया गया। जर्मनी से राज भाटिया जी ने अपनी हिन्दी में बहुत गलतियाँ बताते हुए चुपचाप हमारी हाँ में हाँ मिलाई, तो डाक्टर अनुराग चौंक गए। मनीष भाई को विषय पसंद आया। अरविंद जी को उर्दू प्रिय है संप्रेषणीयता के लिए। वैसे भी प्रवाहपूर्ण संभाषण में उर्दू हिन्दी का भेद कहाँ टिक पाता है? एक और डाक्टर अमर कुमार जी शरबत छोड़ने को तैयार नहीं। आप करते रहें गिलास पकड़ कर तब तक इन्तजार कि जब तक शक्कर और पानी अलग अलग न हो जाएँ। अलबत्ता उन के शब्द भंडार में सभी शब्द हिन्दुस्तानी ही पाए गए। उन के लिए यह बहस बेकार ही थी। लेकिन टिप्पणी उन की कारगर निकली।
अब इस आलेख में भी हमारा कुछ नहीं है। हमने बस आरती उतार दी है, बतर्ज ते..रा तुझको... अरपण क्या... ला...गे मे....रा।
अब आप बताइये कि इस आलेख की भाषा हिन्दी है, या उर्दू या फिर हिन्दुस्तानी?
यह भी बताइएगा कि अगर हिन्दी-उर्दू में प्रयोग में आने वाले तमाम शब्दों का एक हिन्दुस्तानी शब्दकोष इस जन-जाल पर आ जाए तो किसी को असुविधा तो नहीं होगी?
हाँ उड़न तश्तरी के चालक महाराज समीर लाल जी अब तक आत्मसात कर चुके होंगे। उन का इंतजार है।
कबीर बाबा कह गए हैं ....
लाली तेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।।
स का मतलब समझ जाएँ तो आप बताइयेगा
या फिर पढ़िएगा गीता .....
नासतो विद्यते भावः नाभावो विद्यते सत्।

गुरुवार, 3 जुलाई 2008

हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी

चिट्ठाकार समूह पर कल भाई अविनाश गौतम ने पूछा कि 'संस्करण' के लिए उर्दू शब्द क्या होगा तो अपने अनुनाद सिंह जी ने जवाब में जुमला थर्राया कि अपने दिनेशराय जी कहते हैं कि हिन्दी और उर्दू एक ही भाषाएँ हैं और आप संस्करण के लिए उर्दू शब्द पूछ रहे हैं। मेरे खयाल से आप को समानार्थक अरबी या फारसी शब्द चाहिए। और अविनाश जी का आग्रह पुनः आया कि अरबी हो या फारसी या बाजारू आप को पता हो तो बता दीजिए। आग्रह माना गया और शब्द खोज पर शब्द बरामद हुआ वह "अशीयत" या "आशियत" था। इस के साथ ही और भी कुछ खोज में बरामद हुआ।
नॉर्थ केरोलिना स्टेट युनिवर्सिटी के कॉलेज ऑफ ह्युमिनिटीज एण्ड सोशल साइंसेज के विदेशी भाषा एवं साहित्य विभाग मे हिन्दी-उर्दू प्रोग्राम के सहायक प्रोफेसर Afroz Taj अफरोज 'ताज' ने उन की पुस्तक Urdu Through Hindi: Nastaliq With the Help of Devanagari (New Delhi: Rangmahal Press, 1997) में हिन्दी उर्दू सम्बन्धों पर रोशनी डाली है यहाँ मैं उन के विचारों को अपनी भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयत्न कर रहा हूँ:

दक्षिण एशिया में एक विशाल भाषाई विविधता देखने को मिलती है।  कोई व्यक्ति कस्बे से कस्बे तक. या शहर से दूसरे शहर तक, या एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक यात्रा करे तो वह  लहजे में, परिवर्तन, बोलियों में परिवर्तन, और भाषाओं में परिवर्तन देखेगा। भाषाओं के मध्य उन्हें विलग करने वाली रेखाएं अक्सर अस्पष्ट हैं। वे एक दूसरे में घुसती हुई, घुलती हुई, मिलती हुई धुंधला जाती हैं।  यहाँ तक कि एक ही सड़क, एक ही गली  में बहुत अलग-अलग तरह की भाषाएँ देखने को मिलेंगी। एक  इंजीनियरिंग का छात्र, एक कवि, एक नौकर और एक मालिक सब अलग-अलग लहजे, शब्दों और भाषाओं में बात करते पाए जाएँगे।
फिर वह क्या है?  जिस से हम एक भाषा को परिभाषित कर सकते हैं। वह क्या है जो भाषा को अनूठा बनाता है?



क्या वह उस के लिखने की व्यवस्था अर्थात उस की लिपि है? या वह उस का शब्द भंडार है? या वह उस के व्याकरण की संरचना है? हम एक भाषा को उस के लिखने के तरीके या लिपि से पहचानने का प्रयास करते हुए केवल भ्रमित हो सकते हैं। अक्सर असंबन्धित भाषाऐं एक ही लिपि का प्रयोग करती हैं। किसी भी भाषा का रूपांतरण उस की मूल ध्वनियों और संरचना को प्रभावित किए बिना एक नयी लिपि में किया जा सकता हे। विश्व की अधिकांश भाषाओं ने अपनी लिपि अन्य भाषाओं से प्राप्त की है। उदाहरण के रूप में अंग्रेजी, फ्रांसिसी और स्पेनी भाषाओं ने अपनी लिपियाँ लेटिन से प्राप्त की हैं। लेटिन के अक्षर प्राचीन ग्रीक अक्षरों से विकसित हुए हैं। जापानियों ने अपने शब्दारेख चीनियों से प्राप्त किए हैं। बीसवीं शताब्दी में इंडोनेशियाई और तुर्की भाषओं ने अरबी लिपि को त्याग कर रोमन लिपि को अपना लिया। जिस से उन की भाषा में कोई लाक्षणिक परिवर्तन नहीं आया। अंग्रेजी को मोर्स कोड, ब्रेल, संगणक की द्वि-अँकीय लिपि में लिखा जा सकता है। यहाँ तक कि देवनागरी में भी लिखा जा सकता है, फिर भी वह अंग्रेजी ही रहती है।  

तो केवल मात्र व्याकरण की संरचना ही है, जिस के लिए कहा जा सकता है कि उस से भाषा को चिन्हित किया जा सकता है। लिपि का प्रयोग कोई महत्व नहीं रखता, यह भी कोई महत्व नहीं रखता कि कौन सी शब्दावली प्रयोग की जा रही है? एक व्याकरण ही है जो नियमित और लाक्षणिक नियमों का अनुसरण करता है। ये नियम क्रिया, क्रियारूपों, संज्ञारूपों, बहुवचन गठन, वाक्य रचना आदि हैं, जो एक भाषा में लगातार एक जैसे चलते हैं, और विभिन्न भाषाओं में भिन्न होते हैं। इन नियमों का तुलनात्मक अध्ययन हमें एक भाषा को दूसरी से पृथक करने में मदद करते हैं। इन अर्थों में हिन्दी और उर्दू जिन की व्याकरणीय संरचना एक समान और एक जैसी है, एक ही भाषा कही जाएँगी।  

हिन्दी और उर्दू का विकास कैसे हुआ? और इस के दो नाम क्यों है? इस के लिए हमें भारत की एक हजार वर्ष के पूर्व की भाषाई स्थिति में झांकना चाहिए। भारतीय-आर्य भाषा परिवार ने दक्षिण एशिया में प्राग्एतिहासिक काल में आर्यों के साथ प्रवेश किया और पश्चिम में फारसी काकेशस से पूर्व में बंगाल की खाड़ी तक फैल गईं। संस्कृत की परवर्ती बोलियाँ जिन में प्रारंभिक हिन्दी की कुछ बोलियाँ, मध्यकालीन पंजाबी, गुजराती, मराठी और बंगाली सम्मिलित हैं, साथ ही उन की चचेरी बोली फारसी भी इन क्षेत्रों में उभरी। पूर्व में भारतीय भाषाओं ने प्राचीन संस्कृत की लिपि देवनागरी को विभिन्न रूपों में अपनाया। जब कि फारसी ने पश्चिम में अपने पड़ौस की अरबी लिपि को अपनाया। हिन्दी अपनी विभिन्न बोलियों खड़ी बोली, ब्रजभाषा, और अवधी समेत मध्य-उत्तरी भारत में सभी स्थानों पर बोली जाती रही।

लगभग सात शताब्दी पूर्व दिल्ली के आसपास के हिन्दी बोलचाल के क्षेत्र में एक भाषाई परिवर्तन आया। ग्रामीण क्षेत्रों में ये भाषाएँ पहले की तरह बोली जाती रहीं। लेकिन दिल्ली और अन्य नगरीय क्षेत्रों में फारसी बोलने वाले सुल्तानों और उन के फौजी प्रशासन के प्रभाव में एक नयी भाषा ने उभरना आरंभ किया, जिसे उर्दू कहा गया।  उर्दू ने हिन्दी की पैतृक बोलियों की मूल तात्विक व्याकरणीय संरचना और शब्दसंग्रह को अपने पास रखते हुए, फारसी की नस्तालिक लिपि और उस के शब्द संग्रह को भी अपना लिया। महान कवि अमीर खुसरो (1253-1325) ने उर्दू के प्रारंभिक विकास के समय फारसी और हिन्दी दोनों बोलियों का प्रयोग करते हुए फारसी लिपि में लिखा। 

विनम्रता पूर्वक कहा जाए तो सुल्तानों की फौज के रंगरूटों में बोली जाने वाली होच-पोच भाषा अठारवीं शताब्दी में सुगठित काव्यात्मक भाषा में परिवर्तित हो चुकी थी।

यह महत्वपूर्ण है कि शताब्दियों तक उर्दू मूल हिन्दी की बोलियों के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर विकसित होती रही। अनेक कवियों ने दोनों भाषाओं में सहजता से रचनाकर्म किया। हिन्दी और उर्दू में अन्तर वह केवल शैली का है। एक कवि समृद्धि की आभा बनाने के लिए उर्दू-फारसी के सुंदर, परिष्कृत शब्दों का प्रयोग करता था और दूसरी ओर ग्रामीण लोक-जीवन की सहजता लाने के लिए साधारण ग्रामीण बोलियों का उपयोग करता था। इन दोनों के बीच बहुमत लोगों द्वारा दैनंदिन प्रयोग में जो भाषा प्रयोग में ली जाती रही उसे साधारणतया हिन्दुस्तानी कहा जा सकता है।
क्यों कि एक हिन्दुस्तानी की रोजमर्रा बोले जाने वाली भाषा किसी वर्ग या क्षेत्र विशेष की भाषा नहीं थी, इसी हिन्दुस्तानी को आधुनिक हिन्दी के आधार के रूप में भारत की ऱाष्ट्रीय भाषा चुना गया है।  आधुनिक हिन्दी अनिवार्यतः फारसी व्युत्पन्न साहित्यिक उर्दू के स्थान पर संस्कृत व्युत्पन्न शब्दों से भरपूर हिन्दुस्तानी है। इसी तरह से उर्दू के रूप में हिन्दुस्तानी को पाकिस्तान की राष्ट्रीय भाषा के रूप में अपनाया गया। क्योंकि वह भी आज के पाकिस्तान के किसी क्षेत्र की भाषा नहीं थी।
इस तरह जो हिन्दुस्तानी भाषा किसी की वास्तविक मातृभाषा नहीं थी वह आज दुनियाँ की दूसरी सब से अधिक बोले जाने वाली भाषा हो गई है और सबसे अधिक आबादी वाले भारतीय उप-महाद्वीप में सभी स्थानों पर और पृथ्वी के अप्रत्याशित कोनों में भी समझी जाती है।

मंगलवार, 1 जुलाई 2008

थोड़ा नजदीक आ अंधेरा है "गज़ल"

आप ने अनवरत पर महेन्द्र 'नेह' की कुछ रचनाएँ पढ़ी हैं। आज आप के हुजूर में पेश कर रहा हूँ, ऐसे शायर की गज़ल जो बहुमुखी प्रतिभा का धनी है। जिस ने बहुत देर से उर्दू सीखी और जल्द ही एक उस्ताद शायर हो गए। ये पुरुषोत्तम 'यकीन' हैं। अब तक इन के पाँच गज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। हो सकता है विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में इन की रचनाएँ आप पढ़ भी चुके हों। यकीन साहब मेरे मित्र भी हैं और छोटे भाई भी। उन के बारे में विस्तार से किसी अगली पोस्ट पर। अभी आप उन की ये गज़ल पढ़िए..........
थोड़ा नजदीक आ अंधेरा है
पुरुषोत्तम 'यकीन'
रोशनी कर ज़रा अंधेरा है
कोई दीपक जला, अंधेरा है

यूँ तो अकेले मारे जाएंगे
हाथ मुझ तक बढ़ा, अंधेरा है

खोल दरवाजे खिड़कियाँ सारी
मन के परदे हटा, अंधेरा है

लम्स* से काम चश्म* का लेकर
पाँव आगे बढ़ा, अंधेरा है

राह सूझे न हम सफर कोई
आज सचमुच बड़ा अंधेरा है

औट कैसी है छुप गया सूरज
दिन है लेकिन घना अंधेरा है

दूर रहना 'यकीन' ठीक नहीं
थोड़ा नजदीक आ, अंधेरा है
*लम्स= स्पर्श
*चश्म= आँख
****************************************************************

रविवार, 29 जून 2008

ब्रह्मा, विष्णु और महेश को पत्नियों का दास बनाया, किसने ?

भर्तृहरि की शतकत्रयी की तीनों कृतियाँ न केवल काव्य के स्तर kam1पर अद्वितीय हैं, अपितु विचार और दर्शन के स्तर पर भी उस का महत्व अद्वितीय है। अधिकांश संस्कृत की कृतियों में सब से पहला चरण मंगलाचरण का होता है। जिस में कृतिकार अपने आराध्य को स्मरण करते हुए उसे नमन करता है। साथ ही साथ यह भी प्रयत्न होता है कि जो काव्य रचना वह प्रस्तुत कर रहा होता है, उस की विषय वस्तु का अनुमान उस से हो जाए।  शतकत्रयी की कृतियों में श्रंगार शतक एक अनूठी कृति है जो मनुष्य के काम-भाव और उस से उत्पन्न होने वाली गतिविधियों और स्वभाव की सुंदर रीति से व्याख्या करती है। युगों से वर्षा ऋतु को काम-भाव की उद्दीपक माना जाता है। वाल्मिकी ने भी रामायण में बालि वध के उपरांत वर्षाकाल का वर्णन करते हुए सीता के विरह में राम को अपनी मनोव्यथा लक्ष्मण को व्यक्त करते हुए बताया है। वैसे भी रामायण की रचना का श्रेय संभोगरत क्रोंच युगल की हत्या से उत्पन्न पीड़ा को दिया जाता है।।

यहाँ श्रंगार शतक का मंगला चरण प्रस्तुत है......

madan44

शम्भुः स्वयम्भुहरयो हरिणेक्षणानां
येनाक्रियन्त सततं गृहकर्मदासाः ||
 
वाचामगोचरचरित्रविचित्रिताय
तस्मै नमो भगवते कुसुमायुधाय || १||

यहाँ भर्तृहरि कुसुम जैसे कोमल किन्तु सुगंधित और सुंदर आयुध का प्रयोग करने वाले कामदेव को नमन करते हुए कह रहे हैं- जिन के प्रभाव से हिरणी जैसे नयनों वाली तीन देवियों (सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती) ने ब्रह्मा, विष्णु और महेश जैसे तीन महान देवताओं को अपने घरों के काम करने वाले दास में परिवर्तित कर दिया है, जिन की अद्भुत और विचित्र प्रकृति का वर्णन करने में स्वयं को अयोग्य पाता हूँ, उन महान भगवान कुसुमयुधाय (कामदेव) को मैं नमन करता हूँ।।

  madan_kamdevयह मंगलाचरण श्लोक यहाँ यह भी प्रकट करता है कि मनुष्य ने अपने मानसिक-शारिरीक भावों को जिन के वशीभूत हो कर वह कुछ भी कर बैठता है देवता की संज्ञा दी है, और यह देवता (भाव) इतना व्यापक है कि उस के प्रभाव से सृष्टि के जन्मदाता, पालक और संहारक भी नहीं बच पाए।

इस आलेख को पढ़ने के उपरांत इस श्लोक पर आप के विचार आमंत्रित हैं।

शुक्रवार, 27 जून 2008

महेन्द्र नेह के दो 'कवित्त'

(1)


धर्म पाखण्ड बन्यो........


ज्ञान को उजास नाहिं, चेतना प्रकास नाहिं
धर्म पाखण्ड बन्यो, देह हरि भजन है।

खेतन को पानी नाहिं, बैलन को सानी नाहिं
हाथन को मजूरी नाहिं, झूठौ आस्वासन है।

यार नाहिं, प्यार नाहिं, सार और संभार नाहिं
लूटमार-बटमारी-कतल कौ चलन है।


पूंजीपति-नेता इन दोउन की मौज यहाँ
बाकी सब जनता को मरन ही मरन है।।


(2)
पूंजी को हल्ला है.......


बुझवै ते पैले ज्यों भभकै लौ दिवरा की
वैसे ही दुनियाँ में पूंजी को हल्ला है।


पूंजी के न्यायालय, पूंजी कौ लोक-तंत्र
पूंजी के साधु-संत फिरत निठल्ला हैं।


पूंजी के मनमोहन, पूंजी के लालकृष्ण
पूंजी के लालू, मुलायम, अटल्ला हैं।


पूंजी की माया है, पूंजी के पासवान
हरकिशन पूंजी के दल्लन के दल्ला हैं।।

*** *** ***

बुधवार, 25 जून 2008

दिखावे की संस्कृति-२.....समाज को आगे ले जाने की इच्छा से काम करने वाले आलोचना की कब परवाह करते हैं?

विगत आलेख में मृत व्यक्ति के अस्थिचयन की घटना के विवरण पर अनेक प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुईं। उन में विजयशंकर चतुर्वेदी ने एक बघेली लोकोक्ति के दो रूपों का उद्धरण दिया जियत न पूछैं मही, मरे पियावैं दही और जियत न पूछैं मांड़, मरे खबाबैं खांड

दोनों का अर्थ एक ही था जीवित व्यक्ति को छाछ/उबले चावल के पानी की भी न पूछते हैं और मरने पर उस के लिए दही/चीनी अर्पित करने को तैयार रहते हैं।

Shiv Kumar Mishra ने लिखा धरती पर सोये पिता फटा चादरा तान, तेरहवी पर कर रहे बेटा शैय्यादान और अखबार में छपे फोटो से लेकर धुले हुए कुरते तक में, सब जगह दिखावा ही दिखावा हैइन के अलावा दो लोकोक्तियाँ और सामने आईँ एक इटावा (उ.प्र.) के मित्र आर.पी. तिवारी से जियत न दिए कौरा, मरे बंधाए चौरा।। दूसरे कवि महेन्द्र “नेह” से जीवित बाप न पुच्छियाँ, मरे धड़ाधड़ पिट्टियाँ”।

इन का भी वही अर्थ है। जीवित पिता को कौर भी नहीं दिया और अब उस की पगड़ी को सम्मान दिया जा रहा है तथा जीवित पिता को पूछा तक नहीं और मरने पर धड़ाधड़ छाती पीटी जा रही है।

ये सब लोकोक्तियाँ लोक धारणा को प्रकट करती हैं। जिन का यही आशय है कि लोग सब जानते हैं कि मृत्यु के उपरांत अब सब समाज के दिखावे के लिए किया जा रहा है। इस से मरणोपरांत की जाने वाली विधियों का खोखलापन ही प्रकट होता है।

अनेक मित्रों ने परंपराओं की भिन्नता की चर्चा भी की और उन की आवश्यकता की भी। लेकिन विगत आलेख का मेरा आशय कुछ और था, जो परंपराओं को त्यागने के बारे में कदापि नहीं था।

किसी भी परिवार में मृत्यु एक गंभीर हादसा होता है। परिवार और समाज से एक व्यक्ति चला जाता है, और उस का स्थान रिक्त हो जाता है। वह बालक, किशोर, जवान, अधेड़ या वृद्ध; पुरुष या स्त्री कोई भी क्यों न हो उस की अपनी भूमिका होती है, जिस के द्वारा वह परिवार और समाज में मूल्यवान भौतिक और आध्यात्मिक योगदान करता है। समाज मृत व्यक्ति की रिक्तता को शीघ्र ही भर भी लेता है। लेकिन परिवार को उस रिक्तता को दूर करने में बहुत समय लगता है। यह रिक्तता कुछ मामलों में तो रिक्तता ही बनी रह जाती है। अचानक इस रिक्तता से परिवार में आए भूचाल और उस से उत्पन्न मानसिकता से निकलने में अन्तिम संस्कार से लेकर वर्ष भर तक की मृत्यु पश्चात परंपराएँ महति भूमिका अदा करती हैं। इस कारण से उन्हें निभाने में कोई भी व्यक्ति सामान्यतया कोई आपत्ति या बाधा भी उत्पन्न नहीं करता है।

इस आपत्ति के न करने की प्रवृत्ति ने धीरे धीरे हमारी स्वस्थ परंपराओं में अनेक अस्वस्थ कर्मकांडों को विस्तार प्रदान कर दिया है। जिन का न तो कोई सामाजिक महत्व है और न ही कोई भौतिक या आध्यात्मिक महत्व।

अस्थिचयन के उपरांत मृतात्मा को भोग की जो परंपरा है उसे निभाने में किसी को कोई आपत्ति नहीं, वह किसी एक व्यक्ति द्वारा संपन्न कर दी जाती है जो मृतक का लीनियन एसेंडेंट हो। बाकी तमाम लोगों को वहाँ यह सब करने दिया जाना उस परंपरा का अनुचित विस्तार है। जिस में समय और धन दोनों का अपव्यय भी होता है।

मुझे एक ऐसे ही अवसर पर जोधपुर में जाना हुआ था। वहाँ परिवार का केवल एक व्यक्ति लीनियन एसेंडेंटएक सहायक और पंडित ने यह परंपरा निभा दी थी। मैं और मेरे एक मित्र वहाँ जरूर थे लेकिन केवल अनावश्यक रूप से, और बिलकुल फालतू। वह एक डेढ. घंटा हम ने पास ही पहाड़ी की तलहटी में झील किनारे बने एक शिव मंदिर पर बिताया।

मेरा कहना यही है कि हम इन अनावश्यक परंपराओं से छुटकारा पा सकते हैं। भूतकाल में पाया भी गया है। लेकिन उस के लिए सामाजिक जिम्मेदारी को निभाना होगा और इस के लिए भी तैयार रहना होगा कि लोग आलोचना करेंगे।

समाज को आगे ले जाने की इच्छा से काम करने वाले आलोचना की कब परवाह करते हैं?