सब कुछ एक ही बिन्दु में निहित। क्या कहा जा सकता है उसे? पदार्थ? या कुछ और? सांख्य के प्रवर्तक मुनि कपिल ने नाम दिया है प्रधानम्। वे कहते हैं...
अचेतनम् प्रधानम् स्वतंत्रम् जगतः कारणम्।।
अर्थात् अचेतन प्रधान ही स्वतंत्र रूप से जगत का कारण है। चाहे तो आप उसे ईश्वर, ब्रह्म, अक्षर, अकाल, खुदा या और कोई भी नाम दे सकते हैं। कोई भी सिद्धान्त हो। सब से पहले जिस तत्व की कल्पना की जाती है वही है यह। इसी से समूचे जगत (यूनिवर्स) की उत्पत्ति कही जाती है। कपिल कहते हैं वह अचेतन था, और महाविस्फोट का कारण? निश्चय ही गति।
पदार्थ जिसे कपिल ने प्रधानम् कहा। हम आद्यपदार्थ कह सकते हैं। अगर पदार्थ है, तो गुरुत्वाकर्षण भी अवश्य रहा होगा। संभवतः पदार्थ के अतिसंकोचन ने ही महाविस्फोट को जन्म दिया हो। मगर वह गति ही दूसरा तत्व था जिसने अचेतन प्रधान को जगत में रूपान्तरित कर दिया।बाद के सांख्य में पुरुष आ जाता है। वह गति के सिवाय क्या हो सकता है? मगर कहाँ से? आद्यपदार्थ अथवा आद्यप्रकृति से ही न?
यह गति ही है, जो प्रकृति के कण कण से लेकर बड़े से बड़े पिण्ड का धर्म है। जो सतत है। गति है, तो रुपान्तरण भी सतत है। वह रुकता नहीं है। कल जो सूरज उदय हुआ था, वह आज नहीं, और जो आज उदय हुआ है वह कल नहीं होगा। हर दिन एक नया सूरज होगा। रूपान्तरित सूरज। हम जो आज हैं, वह कल नहीं थे। जो आज हैं वह कल नहीं रहेंगे। रुपान्तरण सतत है, सतत रहेगा।
फिर क्या है, जो स्थिर है? वह आद्य तत्व ही हो सकता है जो स्थिर है। उस का परिमाण स्थिर है। परिवर्तित हो रहा है तो वह केवल रूप ही है। हम वही होना चाहते हैं। स्थिर¡ हमारा मन करता है, स्थिर होने को। कहीं हम समझते हैं कि हम स्थिर हो गए। लेकिन रूप स्थिर नहीं। वह सतत परिवर्तनशील है।
फिर हम किसी को माध्यम बनाएँ या नहीं। रूपान्तरण चलता रहेगा। निरंतर और सतत्।
आज की इस पोस्ट के लिए प्रेरणा का श्रोत हैं, सम्माननीय ज्ञानदत्त जी पाण्डेय। जिन के आज के आलेख ने मेरे विचारबंध को तोड़ दिया, और यह सोता बह निकला। मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ।